Book Title: Charananuyoga Part 2
Author(s): Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: Agam Anuyog Prakashan
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री कप्तह-प्रताप गुरुवेव हमति पुष्प: आगम-अनुयोग प्रन्थ माला पुष्प : ५ च र णा नु योग द्वितीय खण्ड परिशिष्ट सहित । | जैन आगमों में आचारधर्म-विषयक सामग्री का प्रामाणिक संकलन । प्रधान-सम्पादक अनुयोग प्रवर्तक मुनिश्री कन्हैयालाल जी "कमल" संयोजक श्री विनयमुनिजी "वागीश" सम्पादिका महासती श्री मुक्तिप्रभाजी महासती श्री दिध्यप्रमाजी एम. ए., पी-एच. डी. ___ एम. ए., पी-एच. डी. सह सम्पादिका महासती श्री भव्यसाधनाजी महासतो श्री अनुपमाजी महासती श्री विरतिसाधनाजी बी. ए. प्रधान परामर्शत पंडित श्री दलसुखभाई मालवणिया आगम अनुयोग ट्रस्ट अहमदाबाद-३८००१३ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय भारतीय संस्कृति का सर्वमान्य सूत्र है-आचारः प्रथमो स्थानकवासी जैन समाज के प्रख्यात तत्वचिन्तक आस्मार्थी धर्म:-आचार प्रथम धर्म है । जैन परम्परा में पास पहमी मोहनमानी , विदुषी मणिष्या जिनशासन चन्द्रिका अंगो"--आचार प्रथम अंग है। अंग का अर्थ धर्मशास्त्र तो है महासती उज्ज्वल कुमारीजी की सुशिष्या डा महासतीजी ही, किन्तु व्यापक अर्थ में ले तो--जीवन का मुख्य अंग भी मुक्तिप्रभाजी, डा० महासतीजी दिव्यप्रभाजी तथा उनकी श्रुताहै । भारतीय आगमों में मानवता का जितना महत्व कहा है भ्यासी शिष्याओं की सेवायें इस कार्य में समर्पित हैं- यह हम उससे भी कहीं अधिक महत्त्व साधक जीवन में आचार धर्म का सब का अहोभाग्य है। उनकी अनवरत श्रुत सेवा से यह विशाल कहा है। कार्य शीघ्र सम्पन्न हो सका है। प्राचीन जैन परम्परा में "आचार" के लिए "चरण" शन्द जैन दर्शन के विख्यात विद्वान श्री दलसुख भाई मालवणिया का प्रयोग होता था। चरण याने चारित्र । मनुष्य के आचार भारतीय प्राच्य विद्याओं के प्रतिनिधि विद्वान है, उनका आत्मीय धर्म की मर्यादा, संयम-साधना का व्यवस्थित माम-चरण है। मयोग अनयोग प्रकाशन कार्य में प्रारम्भ मे दी atजानने जैन श्रुत शान-शास्त्रों को चार अनुयोगों में विभक्त किया अत्यधिक उदारता व निःस्वार्थ भावना से इस कार्य में मार्गगया है-(१) चरणानुयोग, (२) धर्मकथानुबोग, (३) गणिता- दर्शन किया, सहयोग दिया, समय-समय पर अपना मूल्यवान नुयोग एवं (४) द्रव्यानुयोग । इनमें धर्मकथानुयोग तथा गणिता- परामर्श भी दिया अतः उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करना हमारा नुयोग का प्रकाशन हम कर चुके हैं। चरगानुयोग और व्या- कर्तव्य है। नुयोग दो सर्वाधिक महत्वपूर्ण एवं विशाल ग्रन्थ है। चरणानुयोग इसी के साथ एक भूल का संशोधन भी कर देना चाहते हैं, का विषय बहुत विस्तृत है अतः पाठकों की सुविधा के लिए दो गणितानुयोग के प्रकाशन के समय जैन गणित शास्त्र सम्बन्धी भागों में प्रकाशित किया जा रहा है। दव्यानुयोग मूल पाठ का अनेक दुर्लभ चित्र व वाकृतियाँ हमें पूज्य आचार्यश्री विजयपशोदेव सम्पादन कार्य भी पूज्य गुरुदेव श्री कन्हैयालालजी महाराज सा. सूरि जी महाराज की कृपा से प्राप्त हुई थी। श्राचार्यश्री ने "कमल" सम्पन्न कर चुके हैं । अब उसका अनुवाद एवं परिशिष्ट अपने गम्भीर आगम ज्ञान व चित्रकला सम्बन्धी तलस्पर्शी अनुआदि कार्य शेष है। भव ज्ञान के बाधार पर आगममत विषयों को स्पष्ट करने हेतु घरणानुयोग का प्रथम भाग पाटकों की सेवा में पहुंच चुका वे महत्वपूर्ण चित्र तैयार करवाये थे तथा हमारी मांग पर बड़ी है । अब द्वितीय भाग (सम्पूर्ण चरणानुयोग) प्रस्तुत करते हुए ही उदारता व सदभावना के साथ प्रकाशन हेतु हमें प्रदान हमें अत्यधिक प्रसनता हो रही है, साथ ही हम अपने लक्ष्य को किये। यपि उन चित्रों में से बहुत कम चित्र हमने उपयोग में अब बहुत शीघ्र सम्पन्न कर सकेंगे इसका विश्वास पाठकों को लिये, तथा वे भी गुजराती में होने के कारण हिन्दी भाषी जनता दिसाता हूँ। के लिए हिन्दी में उनके रेखाचित्र तैयार करवाकर प्रकाशित अनुयोम सम्पादन-प्रकाशन कार्य में गुरुदेव श्री कन्हैयालाल किये । हिन्दी रेखा चित्रकार उनमें अकित नाम संकेत को स्पष्ट जी म. "कमल" ने अपना सम्पूर्ण जीवन समर्पित कर दिया है। करना भूल गये तथा आचार्यषी का आदरपूर्वक स्मरण उल्लेख ऐसे जीवन-दानी श्रुत सपासक सन्त के प्रति आभार व्यक्त करता नहीं कर सके, इसके लिए हम आचार्यश्री से क्षमा चाहते हैं। मात्र एक शेपचारिकता होगी, आने वाली पीढ़ियां युग युग तक अस्तु, हम आचार्य श्री की इस उदारता व सदभावना के प्रति उनका उपकार स्मरण कर श्रुत का बहुमान करेंगी यही उनके हार्दिक रूप से कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं एवं भविष्य में उनके प्रति सच्ची कृतज्ञता होगी। स्नेह-सौजन्य सहकार की भावना रखते हैं। ऐसे जीवन-दानी बताने वाली पीढ़ियाँ युग युग हार्दिक कम से कृतज्ञता Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म, दर्शन के सुप्रसिद्ध निदान डा० सागरमलजी जैन ने आगम अनुयोग ट्रस्ट अमदाबाद को उनका राह्योग बराबर मर्वथा निस्पृह भावना पूर्वका अन्य की महत्वपूर्ण प्रस्तावना लिन मिलता रहा है और भविष्य में भी मिलता रहेगा ऐसा विश्वारा कर अनुग्रहीत किया है, हम उ री रहे । है। भागने वाली प्रनि अत्यन्त श्रद्धावान लिमही सम्प्रदाय के दुरूह आगम कार्य को प्रेस की दृष्टि से व्यवस्थित कर श्री भास्कर मुनिजी म. ने प्रकाशित अनुयोग ग्रन्थों के प्रचारसुन्दर शुद्ध मुद्रण के लिए जैन दर्शन के अनुभवी विद्वान श्रीचन्द्र प्रसार में विशेष अभिरुचिपूर्वक जो सहयोग प्रदान जी सुराना 'सरस' के हम आभारी हैं जिन्होंने पूर्व दोनों अनु. यह एक आदर्श और अनुकरणीय-स्मरणीय रहेगा। योगों की भांति इस ग्रन्थ के मुद्रण में भी पूर्ण सदभावना के प्रेस कापी करने का विशाल कार्य श्री राजेन्द्र मेहता साथ सहयोग किया है। गाहपुरा वाले ने श्रद्धा भक्ति एवं विवेकपूर्वक किया है इसलिए दृस्ट के सहयोगी सदस्य माल के भी हम आभारी है ट्रस्ट की ओर से उनका हम हादिक अभिनन्दन करते हैं। जिन के आर्थिक अनुदान से इतना विशाल' व्ययमाध्य कार्य हम हमारे ट्रस्ट के मन्त्री अनुभवी एवं सेवाभावी श्री हिम्मत सम्पन्न करने में समर्थ हुए हैं। भाई शामलदास शाह अब काफी बुद्ध हो गये हैं, फिर भी इस प्रसंग पर हम आगम अनुयोग प्रकाशन परिषद् सांडेराव समय-समय पर वे अपने अनुभव आदि का लाभ दे रहे हैं । हमारे के मान्य कार्यकर्ताओं का भी साभार स्मरण करते हैं जिन्होने कार्य कुशल सहयोगी धी जयन्ती भाई चन्दुलाल संघबी एवं अन्य इस अति दुरूह कार्य के प्रारम्भ में अति उत्साहपूर्वक कदम सभी सहयोगी जनों का स्मरण करते हुए भावना करते हैं श्रुत ज्ञान की ममर ज्योति गबके जीवन को प्रकाशमय करे। बढ़ाया और हमारे लिए कार्यशैली का मार्ग प्रशस्त किया। विनीत बलदेवभाई डोसाभाई पटेल अध्यक्षा अगम अनुयोग ट्रस्ट, अहमदाबाद Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A rm - -- एवं संवन्धी अनुयोगी - - - -" a -. Mess सम्पादकीय -मुनिश्री कन्हैयालाल 'कमल' "चरण" प्रवृत्ति एवं पुरुषार्थ का प्रतीक है। "चरण" भू-जान के गणित विषयक आगम । में मर्यादा एवं सम्यक विवेक का योग होने पर वह आच- ४-द्रव्यानयोग-जीय, अजीब आदि नव तत्वों की रण (आर-मर्यादायां) कहलाता है। आचरण अर्थात् व्याख्या करने बाले आगम । आचार-ध। अनुयोग वर्गीकरण के लाभ चरणानुयोग का अर्थ होता है आचार धर्म सम्बन्धी यद्यपि अनुयोग वर्गीकरण पद्धति आगमों के उत्तरनियमावली, मर्यादा आदि की व्याख्या एवं संग्रह । कालीन चिन्तक आचार्यों की देन है, किन्तु यह आगम तुम मरणानुपोग प्र-- अपनी इसी अभिधा में पाठी, श्रुताभ्यासी मुमुक्षु के लिए बहुत उपयोगी है। सार्थक हैं। आज के युग में तो इस पद्धति की अत्यधिक उपयोजंन साहित्य में "अनुयोग" के दो रूप मिलते हैं। गिता है। १. अनुयोग-व्याख्या विशाल आगम साहित्य का अध्ययन कर पाना २. अनुयोग वर्गीकरण सामान्य व्यक्ति के लिए बहुत कठिन है। इसलिए जब किसी भी पद आदि की व्याख्या करने, उसका हार्द जिस विषय का अनुसन्धान करना हो, तब तद्विषयक समझने समझाने के लिए १. उपक्रम, २. निक्षेप ३. अनुगम आगम पाठ का अनुशीलन करके जिज्ञासा का समाधान और ४. नय-इन चार शैलियों का आश्रय लिया जाता है। करना - यह तभी सम्भव है, जब अनुयोग पद्धति से अनुपोजनमनुयोग -(अणु जोअणमणुमोगो) सूत्र का अर्थ सम्पादित आगमों का शुद्ध संस्करण उपलब्ध हो। के साथ सम्बन्ध जोड़कर उसकी उपयुक्त व्याख्या करना अनयोग पद्धति से आगमों का स्वाध्याय करने पर इसका नाम है. अनुयोग व्याख्या (जम्बु वृत्ति) अनेक जटिल विषय स्वयं समाहित हो जाते हैं, जैसे___ अनुयोग-वर्गीकरण का अर्थ है--अभिधेय (विषय) की १. आममों का किस प्रकार विस्तार हुआ है यह दृष्टि में शास्त्रों का वर्गीकरण करना । जैसे अमुक अमुक स्पष्ट हो जाता है । आगम, अमुक अध्ययन, अमुक गाथा---अमुक विषय की २. कौन-सा पाठ आगम संकलन काल के पश्चात है। इस प्रकार विषय-वस्तु की दृष्टि से वर्गीकरण करके far rart? आगमों का गम्भोर अर्थ समझने की शैली- अनुयोग ३. आगम पाठों में आगम लेखन से पूर्व तथा पश्चात वर्गीकरण पद्धति है। वाचना भेद के कारण तथा देश-काल के व्यवधान के प्राचीन आचार्यों ने आगमों के गम्भीर अर्थ को सर कारण लिपिक काल में क्या अन्तर पड़ा है ? लता पूर्वक समझाने के लिए आगमों का चार अनुयोगों ४. कौन-सा आगम पाठ स्व-मत का है, कोन-सा में वर्गीकरण किया है। परमत की मान्यता वाला है ? तथा भ्रांतिवश परमत १-चरणानुयोग--आचार सम्बन्धी आगम मान्यता वाला कौन-सा पाठ आगम में संकलित हो २- धर्मकथानुयोग-उपदेशपद कथा एवं दृष्टान्त गया है। गम्बन्धी आगम इस प्रकार अनेक प्रश्नों के समाधान इस शैली से ३-गणितानुयोग-चन्द्र-सूर्य-अन्तरिक्ष विज्ञान तथा प्राप्त हो जाते हैं जिनका आधुनिक शोध छात्रों/प्राच्य - - A . THEHEART Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विद्या के अनुसन्धाता विद्वानों के लिए बहुत महत्व है। इनकी अनन्य श्रुत भक्ति और संयम साधना देखकर अनुयोग कार्य का प्रारम्भ ऐसा कौन होगा जो प्रभावित न हो, श्रमण जीवन की __लगभग आज से ५० वर्ष पूर्व मेरे मन में अनुयोग- वास्तावक श्रमानष्ठा आपकी र वास्तविक श्रमनिष्ठा आपकी रग-रग में समाहित है। वर्गीकरण पद्धति से बागमों का सकलन करने की भावना आपका चिन्तन और आपके सुझाव मोलिक होते हैं। जगी थी। श्री दलसुख भाई मालवणिया ने उस समय गत सात वर्षों से विदुषी महासती डा० मुक्तिप्रभाजी, मुझे मार्ग दर्शन किया, प्रेरणा दी और निःस्वार्थ निस्पृह डा , डा.दिव्यप्रभाजी एवं उनकी साक्षर शिष्या परिवार का भाव से आत्मिक सहयोग दिया। उनकी प्रेरणा व सह- एसा अनुपम सुयाग मिला कि अनुयाग । योग का सम्बल पाकर मेरा संकल्प दृढ़ होता गया और बढ़ता गया । मुझ अता बढ़ता गया। मुझे अतीव प्रसन्नता है कि महासती मुक्तिमैं इस श्रुत-सेवा में जुट गया। आज के अनुयोग ग्रन्थ । प्रभाजी आदि विदुषी श्रमणियों ने इस कार्य में तन्मय उसो बीज के मधुर फल हैं। होकर जो सहयोग किया है उसका उपकार आगम सर्वप्रथम गणितानुयोग का कार्य स्वर्गीय गुरुदेव श्री अभ्यासी जन युग-युग तक स्मरण करेंगे। इनकी रत्नफतेहचन्दजी म. सा. के सान्निध्य में प्रारम्भ किया था। प्रय साधना सर्वदा सफल हो, यही मेरा हार्दिक किन्तु उसका प्रकाशन उनके स्वर्गवास के बाद हुथा। आशीर्वाद है। कुछ समय बाद धर्मकथानयोग का सम्पादन प्रारम्भ अनुयोग सम्पादन कार्य में प्रारम्भ में तो अनेक किया। वह दो भागों में परिपूर्ण हआ। तब तक गणिता बाधाएं आई। जैसे आगम के शुद्ध संस्करण की प्रतियों नुयोग का पूर्व संस्करण समाप्त हो चुका था तथा अनेक का अभाव, प्राप्त पाठों में क्रम भंग और विशेषकर स्थानों से मांग आती रहती थी। इस कारण धर्मकथानु "जाव" शब्द का अनपेक्षित अनावश्यक प्रयोग । फिर योग के बाद पुनः गणितानयोग का संशोधन प्रारम्भ भी धीरे-धीरे जैसे आगम सम्पादन कार्य में प्रगति हुई किया, संशोधन क्या, लगभग ५० प्रतिशत नया सम्पादन बसे-बसे कठिनाइयों भो दूर हई। महावीर जैन विद्यालय ही हो गया। उसका प्रकाशन पूर्ण होने के बाद चरणा बम्बई, जैन विश्व भारती लाडन तथा आगम प्रकाशन नयोग का यह संकलन प्रस्तुत है। समिति ब्यावर आदि आगम प्रकाशन संस्थाओं का यह __कहावत है "श्रेयांसि बहु विघ्नानि" शुभ व उत्तम उपकार ही मानना चाहिए कि आज आगमों के सुन्दर कार्य में अनेक विघ्न आते हैं। विघ्न-बाधाएं मारी उपयोगी संस्करण उपलब्ध हैं. और अधिकांश पूर्वापेक्षा दढ़ता व धीरता, संकल्प शक्ति व कार्य के प्रति निष्ठा शुद्ध सुसादित हैं। यद्यपि आज भी उक्त संस्थाओं के को परीक्षा हैं । मेरे जीवन में भी ऐसी परीक्षाएं अनेक निदेशकों की आगम सम्पादन शैली पूर्ण वंज्ञानिक या बार हुई हैं । अनेक बार शरीर अस्वस्थ हुआ, कठिन जैसी चाहिए वैसी नहीं है। लिपि दोष, लेखक के मतिबीमारियो आई । सहयोगी भी कभी मिले, कभी नहीं, भ्रम व वाचना भेद आदि कारणों से आगमों के पाठों में किन्तु मैं अपने कार्य में जुटा रहा। अनेक स्थानों पर व्युत्क्रम दिखाई देते हैं। पाठ-भेद तो सम्पादन में सेवाभावी विनय मुनि "वागीश" भी है ही, "जाव" शब्द कहीं अनावश्यक जोड़ दिया है जिससे अर्थ वपरीत्य भी हो जाता है, कहीं लगाया नहीं है और मेरे साथ सहयोगी बने, वे आज भी शारीरिक सेवा के कहीं पूरा पाठ देकर भी "जाव' लगा दिया गया है। साथ-साथ मानसिक दृष्टि से भी मुझे परम साता पहुँचा प्राचीन प्रतियों में इस प्रकार के लेखन-दोष रह गये हैं रहे हैं और अनुयोग सम्पादन में भी सम्पूर्ण जागरूकता जिससे आगम का उपयुक्त अर्थ करने व प्राचीन पाठ के साथ सहयोग कर रहे हैं। परम्परा का बोध कराने में कठिनाई होती है। विद्वान खम्भात सम्प्रदाय के आचार्य प्रवर श्री कांति ऋषि और शान ना चाक्षिा था। प्राचीन जी म. ने मुझ पर जन ग्रह करके व्यावरणाचार्य श्रीमहेन्द्र प आमहन्द्र प्रतियों में उपलब्ध पाठ ज्यों का त्यों रख देना-अडिग REACT पि जी म. को श्रुत-सेवा में सहयोग करने के लिए श्रुत श्रद्धा का रूप नहीं है, हमारी श्रुत-भक्ति श्रुत को भेजा था अतः मैं उनका हृदय से कृतज्ञ हूँ। व्यवस्थित एव शुद्ध रूप में प्रस्तुत करने में है। कभीसम्पादकीय सहयोग कभी एक पाठ का मिलान करने व उपयुक्त पाठ निर्धारण सौभाग्य से इस श्रमसाध्य महाकार्य में आगमज्ञ श्री करने में कई दिन व कई सप्ताह भी लग जाते हैं किन्तु तिलोक मुनिजी का अप्रत्याशित सहयोग मुझे प्राप्त विद्वान अनुसन्धाता उसको उपयुक्त रूप में ही प्रस्तुत हुआ है। करता है, माज इस प्रकार के आगम सम्पादन को आव. Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्यकता है । अस्तु, चार । वर्णन की दृष्टि से चारित्राचार सबसे विशाल है। मैं अपनी शारीरिक अस्वस्थता के कारण, विद्वान प्रस्तुत भाग में ज्ञानाचार एवं दर्शनाचार का वर्णन तो सहयोगी की कमी के कारण, तथा परिपूर्ण साहित्य की २०४ पृष्ठों में ही आ गया है। चारित्राचार का वर्णन अनुपलब्धि तथा समय के अभाव के कारण जैसा संशो- प्रथम भाग के ५१० पृष्ठ तथा द्वितीय भाग के २५६ पृष्ठ धित शुद्ध पाठ देना चाहता था वह नहीं दे सका, फिर यों सर्व ७६६ पृष्ठ में आया है। तपाचार का विषय ११४ भी मैंने प्रयास किया है कि पाठ शुद्ध रहे, लम्बे-लम्बे पृष्ठों में समाया है किन्तु वीर्याचार का विषय ६२ पृष्ठों समास पद जिनका उच्चारण दुरूह होता है, तथा उच्चा- में ही सम्पादित हो गया है। रण करते समय अनेक आगम पाठी भी उच्चारण-दोष से मैंने इस बात का भी ध्यान रखा है कि जो विषय प्रस्त हो जाते हैं। वैसे दुरूह पाठों को सुगम रूप में आगमों में अनेक स्थानों पर आया है, वहाँ एक बागम प्रस्तुत कर छोटे-छोटे पद बनाकर दिया जाये व ठोक का पाठ मूल में देकर बाकी आगम पाठ तुलना के लिए उनके सामने ही उनका अर्थ दिया जाय जिससे अर्थबोध टिप्पणियों में दिये जायें। जिससे तुलनात्मक दृष्टि से सुगम हो। यद्यपि जिस संस्करण का मूल पाठ लिया है पढने वालों को उपयोगी हों। अनेक पाठों के अर्थ में हिन्दी अनुवाद भी प्रायः उन्हीं का लिया है फिर भी अपनी भ्रान्ति होती है, वहीं टीका, भाष्य आदि का सहारा जागरूकता बरती है। अनेक स्थानों पर चा संशो-लेकर पाका अथ भी स्पष्ट किया गया है, व्याख्या का धन भी किया है। उपयुक्त तीन संस्थानों के अलावा अन्तर भी दर्शाया है। कुछ पाठों की पूर्ति के लिए वृत्ति, आगमोदय समिति रतलाम तथा सुत्तागमे (पुष्कभिक्खु छुणि, भाष्य आदि का भी उपयोग किया है। जी) के पाठ भी उपयोगी हुए हैं। पूज्य अमोलक ऋषि इस प्रकार पूरी सावधानी बरतो है कि जो विषय जी म. एवं आचार्य श्री आत्मारामजी म. द्वारा सम्पा- जहाँ है, वह अपने आप में परिपूर्ण हो, इसलिए उसके दित अनुदित आगमों का भी यथावश्यक उपयोग समान, पुरक तथा भाव स्पष्ट करने वाले अन्य आगमों किया है। के पाठ भी अकित किये हैं। मेरा दृढ़ विश्वास है कि मैं उक्त आगमों के सम्पादक विद्वानों व श्रद्धय मुनि- आगम ज्ञान के प्रति रुचि, श्रद्धा व भक्ति रखने वाले बरों के प्रति आभारी हूँ । प्रकाशन संस्थाएं भी उपकारक पाठकों को यह चरणानयोग, उनकी जिज्ञासा को तृप्त हैं। उनका सहयोग कृतज्ञ भाव से स्वीकारना हमारा करेगा, ज्ञान की वृद्धि करेगा तथा श्रुत मक्ति को और कर्तव्य है। अधिक सुदृढ़ बनायेगा। अब प्रस्तुत ग्रन्थ चरणानुयोग के विषय में भी कुछ इस महत्वपूर्ण ग्रन्थ को विस्तृत प्रस्तावना लिखने का कहना चाहता हूँ। दायित्व जैन समाज के सुप्रसिद्ध विद्वान डा० सागरमल चरणानुयोग जी जैन ने सवंया निस्पृह भावना के साथ बहन किया है। आगमों का सार आचार है-बंगाण किं सारो। बे जैन आचार शास्त्र के मर्मज्ञ है और बहुश्रुत हैं। प्रस्तावना में उन्होंने सभी विषयों पर तुलनात्मक दृष्टि से आयारो!.-आचारांग आगम तो अंगों का सारभूत उनके विचार किया है जो पाठकों के लिए उपयोगी होगा। आगम है ही, किन्तु आचार-- अर्थात् 'चारित्र" यह आगम का, श्रुत का सार है। ज्ञानस्य फलं विरतिः ज्ञान मैं प्रति कृतज्ञता का भाव रखता हूँ। का फल विरति है। श्रुत का सार चारित्र है। अतः दोनों भाग की शब्द सूची तथा विषय सूची बनाने चारित्र सम्बन्धी विवरण आगमों में यत्र-तत्र बहत अधिक का थंय सम्पादन कला निष्णात श्रीयुत श्रीचन्दजी सुराना मात्रा में मिलता है। ये भी कहा जा सकता है कि 'सरस' ने किया है। उनका सहयोग उल्लेखनीय रहेगा। "चारित्र" का विषय बसे विशाल या ग्रन्थ के सुन्दर ब शुद्ध मुद्रण में भी उनका महत्वपूर्ण धर्मकथानुयोग के समान चरणानुयोग भी वर्णन की दृष्टि योगदान रहा है। से विस्तृत है। अतः इसकी सामग्री अनुमान से अधिक हो अन्त में इस महान कार्य में प्रत्यक्ष-परोक्ष सहयोग गई है। इसलिए इसे दो भागों में विभक्त किया गया है। देने वाले सभी सहयोगी जनों के प्रति हादिक भाव से __"आचार" के प्रमुख पाँच विभाग हैं . १. ज्ञानाचार, कृतज्ञता व्यक्त करता हूँ। २. दर्शनाचार, ३. चारित्राचार, ४. नपाचार, ५. वीर्या Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सदाचरण : एक बौद्धिक विमर्श -प्रो० सागरमल जैन नाम प्रकृति के निम्नतम स्तर (सप्तम नरक) को प्राप्त कर सकता है, तो मनुष्य विश्व में घेष्ठतम प्राणी है, उससे श्रेष्ठ अन्य दुमरी और आध्यात्मिक विकास के द्वारा मुक्ति के परम साध्य को छ भी नहीं है। फिर भी मानव-अस्तित्व जटिल Complexi, प्राप्त कर सकता है। गनुष्य की इस आध्यात्मिक विकास यात्रा विरोधाभासपूर्ण (Paradoxical) और बह-आयामी (Multi- को धर्म के नाम से अभिहित किया जाता है। dimensionel) है । मनुष्य मात्र जैविक संरचना नहीं है, उसमें मानव को विकास यात्रा का सोपान : धर्म विवेकात्मक चेतना भी है। परोर और चेतना यह हमारे अस्तित्व सामान्यतया आचार और व्यवहार के कुछ विधि-विधानों के के मुख्य दो पक्ष हैं। पारीर से बासना और देतना से विवेक का परिपालन को धर्म कहा जाता है। धर्म हमें यह बताना है कि । प्रस्फुटन होता है। मनुष्य की यह विवशता है कि उस वामना यह करो और यह मत करो; किन्तु आचार के इन बाह्य और विवेक के इन दो स्तरों पर जीवन जीना होता है। उसके नियमों के परिपालन मात्र को धर्म मान लेना भी एक भ्रान्ति ही सामने पारीर अपनी माम प्रस्तुत करता है, तो विबेक अपनी मांग है। आचार और व्यवहार के बाह्म नियम धर्म का शरीर तो प्रस्तुत ! रता है। एक और उसे दैहिक आवश्यकताओं की पूर्ति अवश्य है, किन्तु वे धर्म की आत्मा नहीं है। धर्म की आत्मा तो करनी होती है, तो दूमरी ओर विवेक द्वारा निर्धारित जीवन उस विवेकपूर्ण जीवन-दृष्टि अथवा समसारूपी साध्य की उपलब्धि जीने के कुछ आदर्शो का परिपालन भी करना होता है। वासगा में निहित होती है, जो आचार और व्यवहार के इन म्युन नियमों और विवेक के संघर्ष को झेलना यही मानव की नियति है। यद्यपि का मूल हार्द है। यही विवेकपूर्ण जीवन-दृष्टि ही आचार-व्यवहार जीवन जीने के लिए शारीरिक मांगो को पूर्णन: ठुकराया नहीं जा की उन मर्यादाओं एब विधि-निषेधों को मृजक है, जो वैयक्तिक सकता है, किन्तु एक विवेकशील पाणी देसा में मनग्य का यह और मामाजिक जीवन में ममता और पान्ति के संस्थापक है और दायित्व बनता है कि वह अन्ध वागनाचालित जीवन में पर जिन्हें गामान्यतया धर्म या सदाचार के नाम से जाना जाता है। उठे । बासनात्मक आवेगों से मुक्ति पाना, यही मानव जीवन का वैविक एवं श्रमण धर्म-परम्पराएं और उनका वैशिष्ट्य मक्ष्य है। जहां पशु गा जीवन-व्यवहार पूर्णत: जैविक-वासनाओं भारतीय धर्मों को मुख्य रूप से वैदिक और श्रमण इन दो से नियन्त्रित होता है, वहां मनुष्य की यह विशेषता है कि यह वर्गों में विभाजित किया जाता है । इस विभाजन का मुल आधार विवेक तस्व के द्वारा अपने बामनात्मक जीवन पर भी नियन्त्रण उनकी प्रवृत्तिलक और निवृत्तिमूनक जीवन हटियां हैं. जो कर सकता है और इसी में मानवीय आत्मा में अनुस्पूत स्वतन्त्रता क्रमशः वासना और भावावेग पानित जैविक मूल्यों एव की अभिक्ति है। पशु का जीवन व्यवहार पूर्णतः प्रकृति के जनित आध्यात्मिक मूल्यों पर आधारित हैं । सामान्यतया वैदिक माधयान्त्रिक नियमों से चालित होता है. अतः वह परतन्त्र है; धर्म को प्रवृत्तिमूलक और श्रमण धर्मों को निवृत्तिमूलक कहा पबकि मनुष्य प्रकृति के यान्त्रिक नियमों से ऊपर उठकर जीवन जाता है । यद्यपि आज वैदिक और धमण धमों की विविध जीवित गौने की क्षमता रखता है, अतः उसमें स्वतन्त्रता या मुक्त होने परम्पराओं के बोच प्रवृत्ति और निवृत्ति के इन आधारों पर कोई की सम्भावना भी है। पत्री कारण है कि जहाँ पशु जीवन में विभाजक रेखा खींच पाना कठिन है क्योंकि आज किमी भी धर्मविकास और पतन की सम्भावना अत्यात सीमित होती है, वहाँ परम्परा या धर्म सम्प्रदाय को पूर्ण रूप से प्रवृत्तिमूलक या मनुष्य में विकास और पतन की अनन्त सम्भावनाएं हैं। वह निवृत्तिमूलका नहीं कहा जा सकगा है। जहाँ एक ओर वैदिक धर्म विकास की दिशा में आगे बढ़े तो देवत्व से ऊपर उठ सकता है में ओपनिषदिक चिन्तन के काल से ही निवृतिमूलक तत्व प्रविष्ट और पसन की दिशा में नीचे गिरे तो पशु से भी नीचे गिर मक्ता होने लगे और वैदिक वर्म-काण्ड, पहलौकिकवाद एवं भोगवादी है। इसे जैन धर्म की भाषा में कई तो मनुष्य ही त्रिव में मा जीवनदृष्टि गमालोचता का विषय बनी; वहीं दूसरी और श्रमण प्रागी, जो एक बोर माध्यात्मिक पनन के द्वारा नारकीय जीवन परम्पराओं में भी धर्म-गंधी की म्यापना के गाव ही गंध और Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ चरणानुयोग : प्रस्तावना समाज व्यवस्था के रूप में कुछ प्रवृत्तिमूलक अवधारणाओं एकान्त निवृत्ति की बात करना समुचित नहीं है। यद्यपि जैन को स्वीकार किया गया और इस प्रकार लोककल्याण परम्परा को हम निवृत्तिमार्गी परम्परा कहते हैं, किन्तु उसे भी के पावन उद्देश्य को लेकर दोनों परम्पराएं एक-दूसरे के निकट एकान्त रूप से निवृत्ति प्रधान मानना, एक भ्रान्ति ही होगी। आ गयीं। यद्यपि जैन धर्म के आचार अन्यों में प्रमुख रूप से निवृत्ति मार्ग जैन-जीवन-दृष्टि की चर्चा देखी जाती है, किन्तु उनमें भी अनेक सन्दर्भ ऐसे हैं जैन धर्म की भाचार परम्परा में यद्यपि निवृत्तिमूलक जीवन- जहाँ निवृत्ति और प्रवृत्ति के बीच एक सन्तुलन बनाने का प्रयास दृष्टि प्रधान रही है, परन्तु उसमें सामाजिक और ऐहिक जीवन- किया गया है। अतः जो विचारक जैन धर्म को एकान्त रूप से मूल्यों की पूर्ण उपेक्षा की गई हो, यह नहीं कहा जा सकता। निवृत्तिपरक मानकर उसके धर्म-ग्रन्थों में उपलब्ध सामाजिक और उसमें भी जैविक एवं सामाजिक जीवन-मूल्यों को समुचित स्थान व्यावहारिक पक्ष की उपेक्षा करते हैं, वे बस्तुतः अज्ञान में ही मिला है। फिर भी इतना निश्चित है कि जैन धर्म में जो प्रवृत्ति- जीते हैं । यद्यपि यह सत्य है कि जन आचार्यों ने तप और लाम मूलक तत्व प्रविष्ट हुए हैं, उनके पीछे भी मूल लक्ष्य तो निवृत्ति पर अधिक बल दिया है, किन्तु इसका तात्पर्य इतना ही है कि या संन्यास ही है। निवृत्तिमूलक धर्म से यहाँ हमारा तात्पर्य व्यक्ति अपनी वासनाओं से ऊपर उठे। जैन-आचार्यों ने जितना उस धर्म से है जो सांसारिक जीवन और ऐन्द्रिक विषय भोगों को भी उपदेशात्मक और वैराग्य-प्रधान साहित्य निर्मित किया है, गहणीय मानता है और जीवन के चरम लक्ष्य के रूप में संन्यास उराका लक्ष्य मनुष्य को वासनात्मक जीवन से ऊपर उठाकर और निर्वाण को स्वीकृत करता है। आज भी ये श्रमण परम्पराएँ उसका बाध्यात्मिक विकास करना है। उनकी दृष्टि में धर्म और निर्वाण को ही परमसाध्य स्वीकृत करती हैं। आज संन्यास और साधना व्यक्ति के आध्यात्मिक अभ्युत्थान के लिए है और अध्यात्म निर्वाण को जीवन का साध्य मान्ने वाले श्रमण धर्मो में मुख्य का अर्थ है वासनाओं पर विवेक का शासन । फिर भी हमें यह रूप से जैन और बौद्ध धर्म ही जीवित हैं। यद्यपि आजीवक आदि स्मरण रखना चाहिए कि कोई धर्म या साधना-पदति जैविक कुछ अन्य श्रमण परम्पराएं भी थीं, जो या तो काल के गर्भ में और सामाजिक जीवन-मूल्यों की पूर्णतः उपेक्षा नहीं कर सकती समाहित हो गयी हैं या बृहद् हिन्दू धर्म का ही एक अंग बन गयी है, क्योंकि यही बह आधारभूमि है जहाँ से आध्यात्मिक विकास हैं। अब उनका पृथक् अस्तित्व नहीं पाया जाता है। यात्रा आरम्भ की जा सकती है। जैनों के अनुसार धर्म और जहाँ तक जैन धर्म का प्रश्न है, परम्परागत दृष्टि से यह इस अध्यात्म का कल्पवृक्ष समाज और जीवन के आंगन में ही विककालचक्र में प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव द्वारा प्रवर्तित माना जाता सित होता है। धार्मिक होने के लिए सामाजिक होना आवश्यक है। ऋषभदेव शाग ऐतिहासिक काल के तीर्थकर हैं। दुर्भाग्य से है। जैन धर्म में जिनकाला और स्थविर बल्प के रूप में जिन दो आज हमारे पाम उनके सम्बन्ध में बहुत अधिक ऐतिहासिक साक्ष्य आचार मार्गों का प्रतिपादन है, उनमें स्थविर-कल्प, जो जनउपलब्ध नहीं हैं। वैदिक साहित्य में उल्लिखित ऋषभ की कुछ साधारण के लिए है, रामाज-जीवन या संधीय-जीवन में रहकर स्तुतियों और बातरसना मुनियों के उल्लेख से हम केवल इतना ही साधना करने की अनुशंगा करता है। ही कह सकते हैं कि वैदिक युग में भी कोई भ्रमण या संन्यास- वस्तुत: समाज-जीवन या संघीय-जीवन प्रवृत्ति बौर निवृत्ति मार्गी परम्परा प्रचलित थी जो सांसारिक विषय-भोगों से नित्ति का सुमेल है। समाज-जीवन भी त्याग के बल पर ही खड़ा होता पर और तप तथा ध्यान साधना वी पद्धति पर बल देती थी। है। जब व्यापक हितों के लिये क्षुद्र स्वार्थी के विसर्जन की भावना इसी निवृत्तिमार्गी परम्परा का अग्रिम विकास एक और वैदिक बलवती होती है, तभी समाज खड़ा होता है। अतः समाज-जीवन धारा के साथ समन्वय एवं समायोजन करते हुए ओपनिषदिक या संघीय-जीवन में सर्जन और विसर्जन तथा राग और चिराग का धारा के रूप में तथा दूसरी ओर स्वतन्त्र रूप में यात्रा करते हुए सुन्दर समन्वय है । जिसे आज हम "धर्म" कहते हैं मह भी पूर्णत: जैन (निम्रन्थ), बौद्ध एवं आजीवक आदि अन्य श्रमण परम्पराओं निजी या वैयक्तिक साधना नहीं है । उसमें व्यक्ति के आध्यात्मिक के रूप में हुआ। विकास के साथ-साथ स्वस्थ समाज का निर्माण भी अनुस्यूत है। आज यह मानना भ्रान्तिपूर्ण होगा कि कोई भी धर्म-परम्परा जैन आगमों में धर्म का स्वरूप पूर्ण रूप से निवृत्तिप्रधान या प्रवृत्तिप्रधान होकर जीवित रह धर्म की विभिन्न व्याख्याएँ और परिभाषाएँ दी गई हैं। पूर्वसकती है। वस्तुतः निवृत्ति और प्रवृत्ति के सम्बन्ध में ऐकान्तिक पश्चिम के विद्वानों ने धर्म को विविध रूपों में देखने और समझाने दृष्टिकोण न तो व्यावहारिक है और न मनोवैज्ञानिक । मनुष्य का प्रयत्न किया है। सामान्यतया आचार और विचार की एक जब तक मनुष्य है, मानवीय आत्मा जब तक शरीर के साथ विशिष्ट प्रणाली को धर्म कहा जाता है, किन्तु जहाँ तक जनयोजित होकर जीवन जीती है, तब तक एकान्त प्रवृत्ति और परम्परा का प्रश्न है, उसमें धर्म को एक स्व-स्वरूप की उपलब्धि Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सवाचरण : एक बौद्धिक विमर्श | ३ के अथवा आध्यात्मिक विकास के साधन के रूप में माना गया है, इसके विपरीत जीवन व्यवहार के वे सब तत्व जिनसे वैयक्तिक है। जैनाचार्यों ने धर्म की अनेक परिभाषाएँ प्रस्तुत की हैं, उनमें और सामाजिक जीवन में समता की स्थापना होती है धर्म कहे एक परिभाषा "वत्सहाबो धम्गों" के रूप में की है। जब हम जा सकते हैं। जब हम धर्म को वैयक्तिक दृष्टि से परिभाषित यह कहते हैं कि आग का धर्म उष्णता और जल' का धर्म शीतलता करना चाहते हैं तब उसे निश्चय ही समभाव के रूप में परिभाषित है तो यहाँ धर्म में तात्पर्य उनके स्वभाव से ही होता है । यद्यपि करना होगा । संक्षेप में कहें तो समता धर्म है और ममता अधर्म वस्तु-स्वभाव के रूप में धर्म की यह परिभाषा सत्य और प्रामा- या पाप है, क्योंकि गगता के द्वारा भात्मा समाधि या शान्ति की णिक है, किन्तु इससे धर्म के स्वरूप के सम्बन्ध में हमें कोई स्पष्ट स्थिति में होती है यही उसकी अधिकारी अवस्था या स्वभाव दशा दिशा निर्देश नहीं मिलता है। वस्तुतः जब हम धर्म की व्याख्या है जबकि ममता के कारण वह तनाब एवं मानसिक असन्तुलन से वस्तु-स्वभाव के रूप में करते हैं, तो हमारे सामने मूल प्रश्न ग्रस्त होती है, अतः ममता विकारी अवस्था या विभाव-दशा है । मनुष्य के मूल स्वभाव के सम्बन्ध में ही उत्पन्न होता है। मनुष्य सामाजिक धर्म : अहिंसा एक चेतन प्राणी है और एक चेतन प्राणी के रूप में उसका धर्म वैवक्तिक ममता के ये तत्व, जब बाह्य रूप में अभिव्यक्त मा स्वभाव पत्तसिक समत्व की उपलब्धि है। यहाँ चैतसिक होकर हमारे सामाजिक जीवन को प्रभावित करते हैं, तो वे हिंसा समस्व का तात्पर्य विभिन्न अनुकूल एवं प्रतिकूल अनुभूतियों में और संघर्ष को जन्म देते हैं। ममता के कारण आधिपत्य, संग्रह चेतना के स्तर पर अविचलित रहना है। दूसरे शब्दों में संगत और शोषण को वृत्तियों का उदय होता है। व्यक्ति अपने और का अर्थ शाता-द्रष्टा भाष में स्थित रहना है। वस्तुतः यह राग पराये की दीवारें खींचता है जिससे परिणामतः समाज-जीवन में और द्वेष के तस हमारी चेतना के समत्व को विचलित करते हैं संघर्ष और हिंसा का जन्म होता है और इन्हीं संघर्षों और हिंसक अत: राग-द्वेषजन्य विक्षोभों से रहित चेतना की समभाव में व्यवहारों के कारण सामाजिक जीवन का समत्व या सामाजिक अवस्थिति ही जगमा रत्न-स्वभात और गही गई है। शानि" भंग हो जाती है। आचासंग भूत्र में इसी सामाजिक वैयक्तिक धर्म : समता जीवन-व्यवहार के दृष्टिकोण के आधार पर धर्म की एक दूसरी व्याख्याप्राप्ति सूत्र में आत्म स्वभाव की चर्चा करते हुए यह परिभाषा भी दी गई है, उसमें कहा गया है कि "भूतकाल में जो प्रश्न उठाया गया है कि आत्मा क्या है और उसका साध्य या अहंत हुए हैं, वर्तमान में हैं अथवा भविष्य में होंगे वे सब यह लक्ष्य क्या है? जैन आचार्यों ने इस सम्बन्ध में अपने उत्तर में प्रशापित करते हैं, व्याख्यामित करते हैं कि किसी प्राण, भूत, कहा है कि पारमा समत्व रूप है और उस समत्व को प्राप्त कर जीव या सत्त्व को पीड़ा नहीं देनी चाहिए, उनका पात नहीं लेना यही उसका लक्ष्य है। आचारांग सूत्र में इसी दृष्टिकोण के करना चाहिए, उनकी हिंसा नहीं करनी चाहिए। यही शाश्वत, आधार पर धर्म को समता के रूप में परिभाषित किया गया है। शुद्ध एवं नित्य धर्म है। उसमें कहा गया है कि "आर्यजनों ने समभाव में धर्म कहा है। इस प्रकार हग कह सकते हैं कि जैन आचार शास्त्रीय ग्रन्थों वस्तुतः समभाव के रूप में धर्म की यह परिभाषा धर्म की स्वभाव- में वैयक्तिक दृष्टि से समता और सामाजिक दृष्टि से अहिंसा को परक परिभाषा से भिन्न नहीं है । मानवीय एवं प्राणी प्रकृति यही धर्म कहा गया है। है कि वह सदैव ही तनावों से रहित समत्व की स्थिति को पाना धर्म सदाचार या सदगुण के रूप में, चाहता है । अतः यह कहा जा सकता है कि ये सभी तथ्य, जो प्रकारान्तर से अर्धमागधी और शौरसेनी जैन आगम में क्षमा, चेतना के इस समत्व को भंग करते हैं, विकार, विभाव या अधर्म सरलता, निर्लोभता, सत्यता, संयम आदि को भी धर्म के रूप में १ धम्मो वत्यु सहायो, खमाविभायो य यसविहो धम्मो । रणयतयं च धम्मो, जीवाणां रक्षण धम्मो ॥ ---बारस्स अणुवेक्खा (कात्तिकेय) ४७८ २ आया सामाइए, आया सामायस्स अट्ट। -व्याख्याप्रशस्ति १/ ३ समपाए धम्मे आरिएहि पवेदए। -आधारांग १/५/३/१५७ (च०, पृ. ३०) ४ से येमि-जे य असीता जे व पप्पणा मे य आगमेस्सा अरहंता भगवंता सध्ये ते एबमाइपखंति, एवं माति, एव पाणवेंति, एव परुति-सव्वे पाणा जाप सम्वे सत्ता ण हतया, अज्जावेयध्वा, ण परिघतथ्या, ण परितावेयरवा, ण उद्देवेयव्या, एस धम्मे घुवे णितिए सासते, समेच्च लोग खेतन्नेहि पवेविते । --आचारांग १/४/१/१३१-१३२ (१०, पृ. ३३) -सूत्रकृतांग २/३/६८० (च.. २१६) Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ | चरणानुयोग : प्रस्तावना परिभाषित किया गया है। हारिक पक्ष है। आचारांम में उपलब्ध धर्म की यह परिभाग (१) आचारांग में क्षमा आदि सद्गुणों को धर्म कहा गया हमें मीमांसा दर्शन में उपलब्ध धर्म की उस परिभाषा की स्मृति दिला देती है जहाँ धर्म को चोदना (प्रेरणा) लक्षण कहकर परि(२) स्थानांग में क्षमा, अलोभ, सरलता, मृदुलता, लघुत्व, भाषित किया गया है और जिसके अनुसार बेद-विहित विधानों सत्य, संयम, तप, त्याग और ब्रह्मचर्यवास आदि जो धर्म के दस के पालन को धर्म कहा गया है । रूप प्रतिपादित किये गये हैं।' धर्म : सामाजिक दायित्व का निर्वहन (३) कार्तिकेयानुप्रेशा में भी क्षमादि दस सद्गुणों को दसविध स्थानांग सूत्र में धर्म की व्याख्या के एक अन्य सन्दर्भ में धर्म के रूप में परिभाषित किया गया है। राष्ट्र-धर्म, ग्राम-धर्म, नगर-धर्म, कुल-धर्म, गणधर्म आदि का भी वस्तुतः यह धर्म की सदगुणपरक या नैतिक परिभाषा है। वे उल्लेख हुआ है। सभी सद्गुण जो सामाजिक समता को बनाए रखते हैं सामाजिक यहाँ धर्म का तात्पर्य राष्ट्र, ग्राम, नगर, कुल, गण आदि के समरख के संस्थापन की दृष्टि से धर्म कहे गये हैं। क्षमा दि इन प्रति हमारे जो कर्तव्य या दायित्व हैं, उनके परिपालन से है । सदगुणों की विशेषता यह कि ये वैयक्तिक और सामाजिक दोनों इन धर्मों के प्रतिपादन का उद्देश्य व्यक्ति को अच्छा नागरिक ही जीवन में समत्व या शान्ति-संस्थापन करते हैं। बनाना है, ताकि सामाजिक और पारिवारिक जीवन के संघर्षों वस्तुतः धर्म की इस व्याख्या को संक्षेप में हम यह कहकर और तनावों को कम किया जा सके तथा वयक्तिक जीवन के प्रकट कर सकते हैं कि सद्गुण का बाचरण या सदाचरण ही धर्म साथ-साथ सामाजिक जीवन में भी शान्ति और समता की स्थाहै और दुगुण का आचरण या दुराचरण ही अधर्म है। इस पना की जा सके। प्रकार जैन आचार्यों ने धर्म और नीति अथवा धर्म और सद्गुण धर्म को विविध परिभाषामों में पारस्परिक सामंजस्य में तादात्म्म स्थापित किया है, उनके अनुसार धर्म और अनैतिक जैन परम्परा में उपलब्ध धर्म की इन विविध परिभाषाओं जीवन-सहगामी नहीं हो सकते। पाश्चात्य विचारक ब्रेडले के से यह स्पष्ट हो जाता है कि जैन आचार्यों ने धर्म को कभी भी छनुसार भी वह धर्म जो अनैतिकता का सहगामी है, वस्तुतः रूढिमा विशिष्ट प्रकार के कर्म-काण्डों के परिपालन के रूप में धर्म नहीं, अधर्म ही है। नहीं देखा है। उनकी दृष्टि में धार्मिक साधना का मुख्य उद्देश्य धर्म : जिनामा का पालन व्यक्ति के चैत्तसिक जीवन में उपस्थित पाशविक बासनाओं एवं ____ आचारांग में धर्म की एक अन्य परिभाषा हमें इस रूप में उन कपायजन्य आवेगरें का परिशोधन कर उसकी आध्यात्मिक मिलती है कि आज्ञा पालन में धर्म है। तीर्थकर या वीतराग चेतना को समत्व, शान्ति या समाधि की दिशा में अग्रसर करना पुरुषों के आदेशों का पालन ही धर्म है। आचारांग में महावीर है। यद्यपि जैन धर्म मे साधना और उपासना की विशिष्ट पद्धस्पष्ट रूप से कहते हैं कि मानवों के लिये मेरा निर्देश है कि मेरी तियाँ अनुशंसित हैं फिर भी उन सबका तात्पर्य व्यक्ति की प्रसुप्त आज्ञा का पालन करना ही धर्म है। यहाँ आज्ञा पालन का चेतना को जागृत कर उसे अपनी आध्यात्मिक दुर्बलताओं का बोध तात्पर्य सद्गुणों को जीवन में अपनाना है। यही धर्म का व्याव- कराना है तथा यह दिखाना है कि उसकी आवेगजन्य तनावपूर्ण १ आचारांग, १/६१५ २ बसबिहे समण धम्मे पणसे, तं जहा खति, मुत्ति, अज्जवे, महवे, लाघवे. सच्चे, संजमे, तवे, चियाए, बंभचेरवासे। -स्थानांग १०७१२ (च. पृ. ११) ___ झाप्तष्य है कि आचासंग १/६/५, समवायांग १०/१, बारस्स अणुबेक्खा, तत्वार्थ ६६ आदि में भी इनका उल्लेख है यद्यपि नाबारंग और स्थानांग की सूची में कुछ नाम भेव है । वैदिक परम्परा में मनुस्मृति १०६३, ६/६२; महाभारत आरिपर्व, ६५/ ५ में भी कुछ नामभेव के साथ इनके उल्लेख हैं। श्रीमदभागवत (४/४६) में धर्म को पत्नियों एवं पुत्रों के रूप में इन सदगुणों का उल्लेख है। बारस्सअगुवेक्खा (कार्तिकेय) ४७८ । : आणाए मामगं धम्म-एस उत्तरवाये इह माणवाणं वियाहिए। -आचारांग १/६/२/१८५ (च. पृ. ६०) . भीमांसा सूत्र, १/१/२ बसविहे धम्मे पण्णते, तं जहा-- गामधम्मे, नयरधम्मे, रदुधम्मे, पासंबधम्मे, कुलधम्मे, गगधम्मे, सुयधम्मे, चरितधम्मे, अस्थिकायधम्मे । -स्थानांग, १०/७६० (च. पृ. ३१) Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाचरण : एक बौद्धिक विमर्श | ५ चौतसिक स्थिति के कारण क्या हैं ? और उन कारणों का निरा- करना आवश्यक है, क्योंकि धर्म साधना भी चत्तसिक विकृतियो करण कर किस प्रकार आध्यात्मिक शुद्ध स्वरूप प्राप्त किया जा की चिकित्सा ही है। यदि व्यक्ति स्वयं इतना समर्थ है कि वह सकता है ? जब स्थानांग सूत्र में धर्म का क्षमा आदि सद्गुणों से अपनी विकृति (रोग) को स्वयं जानकर चिकित्सा द्वरा उस जो तादात्म्य बताया गया है. तो उसका तात्पर्य भी यही है कि विकृति का उपशमन या निरसन कर सकता है, तो उसे अधिकार व्यक्ति इन गुणों को अपने जीवन में अपनाकर चत्तसिक समत्व या है कि वह अपना मार्ग स्वयं बनाये और उस पर चले, उसे गुरु, शान्ति का अनुभव करता हमा अपनी आध्यात्मिक विकास-याचा मार्गदर्शक या धर्मोपदेष्टा की आवश्यकता नहीं है, उसके लिए या स्व-स्वरूप की उपलब्धि की दिशा में आगे बढ़ सके। यह जरूरी नहीं है कि वह दूसरे के उपदेशों और आदेशों का वस्तुतः एन सद्गुणों की साधना का तात्पर्य भी यही है कि पालन करें । ऐसा साधक स्वयं-सम्बुद्ध या प्रत्येक-बुद्ध होता है । व्यक्ति की वासनाएँ और मानसिक सनाव कम हों और वह अपनी किन्तु सभी व्यक्तियों में ऐसी सामर्थ्य नहीं होती है कि वे अपनी शुद्ध स्वाभाविक तनावरहित एवं शान्त आत्मदशा की अनुभूति आध्यात्मिक विकृतियों को स्वयं जानकर उनके कारणों का निदान कर सके । यदि हम संक्षेप में कहें तो जैन दृष्टि से धर्म विभाव से और निराकरण कर सकें। ऐरो साधकों के लिए गुरु, तीर्थकर स्वभाव की ओर यात्रा है। कषाय और दुगुण या दुष्प्रवृत्तियों अथवा वीतराग पुरुष के आदेश और निर्देश का पालन आवश्यक मनुष्य को विभाव दशा अथवा पर-परिणति की सूचक हैं, क्योंकि है। ऐसे ही लोगों को लक्ष्य में रखकर आगम में यह कहा गया है ये पर के निमित्त से होती हैं । इनकी उपस्थिति में व्यक्ति मान- कि तीर्थंकर के आदेशों का पालन ही धर्म है। सिक तनावों से युक्त होकर जीवन जीता है तथा उसकी आध्या- यद्यपि जैन धर्म इस अर्थ में अनीश्वरवादी धर्म है क्योंकि त्मिक शान्ति और आध्यात्मिक समता भंग हो जाती है। अतः वह विश्व के सृष्टा और नियन्ता के अर्थ में ईश्वर को स्वीकार कषायों के निराकरण के द्वारा व्यक्ति को खोई हुई आध्यात्मिक नहीं करता है। अतः उसकी आस्था का केन्द्र और मार्ग निर्देशक शक्ति को पुनः प्राप्त करना अथवा समत्व दशा या स्व-स्वभाव में विफ-नियन्ता ईश्वर नहीं, अपितु वह चीतराग परमात्मा है, स्थित होना यही धर्म का मूल उद्देश्य है। कोई भी धार्मिक जिसने अपनी साधना के द्वारा राग-दोषजन्य आवेगों एवं आत्मसाधना पद्धति या आराधना विधि यदि उसे विभाव से स्वभाव' विकारों पर विजय प्राप्त कर समभावयुक्त शुद्धात्म-दशा, परमकी ओर, यमता से समता की ओर, मानसिक आवेगों और शान्ति या समाधि को उपलब्ध कर लिया है। जनधर्म में तीर्थकर तनावों से आध्यात्मिक शान्ति की ओर ले जाती है तो वह सार्थक के आदेशों का पालन या उसके प्रति श्रद्धा या भक्ति का प्रदर्शन कली जा सकती है, अन्यथा वह निरर्थक होती है। क्योंकि जो इसलिये नहीं किया जाता है कि वह प्रसन्न होकर हमें दुःख या आचरण वैयक्तिक या सामाजिक समता को भंग करता है वह धर्म अपूर्णता से मुक्ति दिलायेगा अथवा संकट की घड़ी में हमारी नहीं अधर्म ही है। इसके विपरीत जो आचरण वैयक्तिक और सहायता के लिए दौड़ा हुआ चला आयेगा, अपितु इसलिए किया सामाजिक जीवन में समत्ता या शान्ति लाता है. वह धर्म है। जाता है कि उसके माध्यम से हम अपने शुद्ध स्वरूप का बोध कर जब हम धर्म को वीतराग प्रभु के प्रति अनन्य मास्था या सकें । उसके आदेशों का पालन इसलिए करना है कि सुयोग्य उनके आदेशों के पालन के रूप में देखते हैं तो भी वह समत्व चिकित्सक की मांति उसके निर्देशों का पालन करने से या उसके संस्थापन रूप अपने उस मूल स्वरूप से भिन्न नहीं होता है। जीवनादों का अनुसरण करने से हम आत्म-विकारों का उपशमन वस्तुतः वे सभी साधक जो बौद्धिक और आध्यात्मिक विकास की कर शुद्धात्मदशा को प्राप्त कर सकेंगे। दृष्टि से अग्निम कक्षाओं में स्थित नहीं हैं, अथवा जिनको धर्म (अतः धर्म को चाहे वस्तु स्वभाव के रूप में परिभाषित किया और अग्रम की सम्यक् समझ नहीं है, उनके लिए उपादेय यही है जाये, चाहे समता या अहिंसा के रूप में परिभाषित किया जाये, कि वे उन लोगों के जीवन और उपदेशों का अनुसरण करें, चाहे हम उसे जिन-आज्ञा पालन के रूप में व्याख्यायित करें, जिन्होंने मानसिक आवेगों, वासनाओं और कषायों से अर्थात उसका मूल हाद यही है कि वह विभाव से स्वभाव की ओर यात्रा) विभाव दशा से ऊपर उठकर आध्यात्मिक समता अथवा वीतराग है। वह आत्मशुद्धि अर्थात् वासना परिष्कार की दिशा में सम्यक् दया का अनुभव किया है। जिस प्रकार हक विकृतियों से छुट- संचरण है । अतः धर्म और सदाचरण भिन्न नहीं है। यही कारण कारा पाने के लिये वंच के आदेशों और निर्देश का पालन उप- है कि स्थानांग की टीका में आचार्य अभयदेव ने और प्रवचनसार योगी है, उसी प्रकार आध्यात्मिक कमियों से छुटकारा पाने के में आचार्य कुन्दकुन्द ने चारित्र को भी धर्म का लक्षण माना है। लिए वीतराग प्रभु के आदेशों और जीवनादों का अनुसरण जैनाचार्यों ने आगम साहित्य की विषय वस्तु का जिन चार १ (अ) स्थानांग टीका ४/३/३२० (ब) प्रवचनसार, १७ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ | परणानुयोग : प्रस्ताघना अनुयोगों में विभाजन विया है, उनमें चरणकरणानुयोग ही ऐसा मोक्ष का सम्बन्ध पारलौकिक जीवन से है। लेकिन यह एक है जिसका सीधा सम्बन्ध धर्म साधना से है । धर्म मात्र ज्ञान नहीं भ्रान्त धारणा ही होगी। मोक्ष दुःख-विमुक्ति और आत्मोपलब्धि है अपितु जीवन शैली है। वह जानने की नहीं जीने की वस्तु, है जो इसी जीवन में प्राप्तव्य है। है। धर्म वह है जो जिया जाता है। अतः धर्म सदाचरण या मोक्ष : समत्व का संस्थापन सम्यक चारित्र का पालन है। ___जैनों की यह स्पष्ट मान्यता है कि दुःख-विमुक्ति पारलौकिक धर्म : रलय को साधना जीवन का तथ्य न होकर ऐहिक जीवन का ही सभ्य है। वस्तुतः सामान्यतया जैन परम्परा में सम्यक्दर्शन, सम्यज्ञान धर्म साधना और सदाचरण का लक्ष्य जीवन में तनावरहित, और सम्बकुचारित्र को रत्नत्रय के नाम से अभिहित किया समत्वपूर्ण, शान्त आत्मयशा को प्राप्त करना है। जैसाकि हम गया है। पूर्व में कह चुके हैं कि च्याल्याप्रज्ञप्ति सूत्र के अनुसार समत्व या दिगम्बर परम्परा में आचार्य कार्तिकेय ने अपने ग्रन्थ 'बारस्त समभाव की प्राप्ति ही आत्मा का लक्ष्य है। अणुवेक्खा" (४७८) में रत्नत्रय की साधना को धर्म कहा है। वस्तुतः मनुष्य का जीवन अन्तईन्द्वों से युक्त है। मानव वस्तुतः रत्नत्रय की साधना से भिन्न धर्म कुछ नहीं है। मनो- जीवन में हम तीन प्रकार के संघर्ष पाते हैं-प्रथम मनोवृत्तियों वैज्ञानिक दृष्टि से हमारे अस्तित्व का मूल केन्द्र चेतना है और का आन्तरिक संघर्ष । यह संघर्ष दो बासनाओं के मध्य अथवा चेतना के तीन पक्ष हैं- ज्ञान, भाव (अनुभूति) और सवल्प । वासना और बौद्धिक आदर्शों के बीच होता है। आधुनिक मनोवस्तुतः रत्नत्रय की साधना अन्य कुछ नहीं, अपितु चेतना के इन विज्ञान इसे वासनात्मक अहं (id) और आदर्शात्मक अहं तीनों पक्षों का परिशोधन है। क्योंकि सम्यक्जान, सम्यकुदर्शन (Super ego) का संघर्ष कहता है। जिसे हम वासना और और सम्यक चारित्र क्रमश: वस्तु के यचार्य स्वरूप का बोध करा- नैतिक आध्यात्मिक आदर्शों का संघर्ष भी कह सकते हैं । वस्तुतः कर जय के प्रति हमारी आसक्ति या राग भाव को जुड़ने नहीं यही संघर्ष व्यक्ति की आन्तरिक शान्ति को भंग कर तनाव देता है और हमें ज्ञाता-द्रष्टा भाव या समभाव में स्थित रखता उत्पन्न करता है । दूसरे प्रकार का संघर्ष व्यक्ति की आन्तरिक है। इस प्रकार हमारी चेतना के ज्ञानात्मक पक्ष के परिशोधन का आकांक्षाओं (इच्छाओं) और बाह्य परिस्थितियों के बीच होता उपाय सम्यक् ज्ञान, भावात्मक पक्ष के परिशोधन का उपाय हैं । आन्तरिक आकांक्षाएँ और उनकी पूर्ति के बाह्य साधनों के सम्यक्दर्शन और संकल्पात्मक पक्ष के परिशोधन का उपाय मध्य यह संघर्ष चलता है। यह संघर्ष, व्यक्ति और उराके भौतिक सम्यक्चारित्र है। अतः रत्नत्रय की साधना भी अपने ही शुद्ध परिवेश, व्यक्ति और व्यक्ति अथवा व्यक्ति और समाज के मध्य स्वरूप की साधना है, क्योंकि यह स्व-स्वरूप में अवस्थिति के द्वारा होता है। आकांक्षाएँ या वासनाएँ जहाँ व्यक्ति की आन्तरिक समभाव और वीतराग की उपलब्धि का कारण है। शान्ति को भंग करती हैं वहीं उनकी पूर्ति के प्रयल बाह्म सामाजैन साधना का लक्ष्य : मोक्ष जिक जीवन की शान्ति को भंग करते हैं। इस प्रकार यह संघर्ष सामान्यतया यह प्रश्न उठाया जा सकता है कि व्यक्ति धर्म अन्तर और बाह्य दोनों ही प्रकार की शान्ति को भंग करता है। या सदाचार का पालन क्यों करे? पाश्चात्य नीतिशास्त्र में इस तीसरे प्रकार का संघर्ष बाह्य परिवेश में होने वाला संघर्ष है, जो प्रश्न का उत्तर मात्र सामाजिक व्यवस्था के आधार पर दिया विविध समाजों और राष्ट्रों के मध्य होता है। प्रत्येक समाज और जाता है। लेकिन जैन परम्परा सदाचार और दुराचार के परि- राष्ट्र अपनी अस्मिता के लिए इस प्रकार के संघर्ष को जन्म देता णामों को केवल इहलौकिक सामाजिक कल्याण या अकल्याण तक है। यद्यपि यह संघर्ष बाह्य होते हुए भी व्यक्ति से जुड़ा हुआ ही सीमित नहीं मानती है। यद्यपि इसका तात्पर्य यह भी नहीं है कि है, क्योंकि व्यक्ति किसी न किसी स्तर पर समाज से जुड़ा हुआ जैन धर्म में धर्म साधना या नैतिक जीवन वा सम्बन्ध मात्र ही होता है । इन संघर्षों को समाप्त करके वैयक्तिक और सामापारलौकिक जीवन से माना गया है। जैन धर्म के अनुसार धर्म जिक जीवन में समत्व और शान्ति की स्थापना करना ही धर्म का साधना न तो इहलौकिक जीवन के लिए होती है और न लक्ष्य रहा है। पारलौकिका जीवन के लिए होती है, अपितु वह व्यक्ति को विक- यहाँ हमें यह समझ लेना चाहिये कि संघर्ष या समत्व के तियों या दुष्प्रवृत्तियों के परिशोधन के द्वारा आध्यात्मिक विकास विचलन जीवन में घटित होते रहते हैं, फिर भी वे हमारा के लिए होती है। सामान्यतया जैन आगमों में धार्मिक और स्वभाव नहीं हैं। अस्तित्व के लिए भी संघर्ष करना होता है नैतिक जीवन का सार सर्व दुःखों का अन्त और भव-परम्परा की किन्तु जीवन का लक्ष्य संघर्ष या तनाव नहीं, अपितु संघर्ष या समाप्ति माना गया है और इसलिये कभी-कभी यह मान लिया तनाव (Tension) का निराकरण है। अतः संघर्ष व्यक्ति और जाता है कि जैन धर्म में धार्मिक और नैतिक साधना के लक्ष्य समाज की वैभाविक-दशा (विकृत दशा) के सूचक है, जबकि Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सदाचरण : एक बौद्धिक विमर्श | ७ विभाव से स्वभाव की ओर, संघर्ष से शान्ति की ओर, तनाव से है। जब तक अपूर्णता है, कामना है; और जब तक कामना है, समाधि (तनाव-मुक्ति) की ओर अथवा ममत्व से सगत्व की ओर समत्व नहीं है । अतः पूर्ण समत्व के लिए आत्मपूर्णता आवश्यक यात्रा करना यही धामिक साधना और नतिक आचरण का है। हमारे व्यावहारिक जीवन में भी हमारा प्रयत्न चेतना के ज्ञानात्मक, अनुभूत्यात्मक और संकल्पात्मक पक्षों के विकास के मनुष्य एक विवेकशील प्राणी है और विवेकशील प्राणी के निमित्त होता है । अन्तश्चेतना सदैव ही इस दिशा में प्रयत्नशील रूप में उसका आचरण सदैव ही लक्ष्मोन्मुख होता है । समाधि, रहती है कि हम अपनी ही चेतना के इन तीनों पक्षों को देशशान्ति अथवा समत्त्व को लक्ष्य बनाकर जो आचरण किया जाता कालगत सीमाओं का अतिक्रमण कर सकें। व्यक्ति अपनी शानाहै वहीं आचरण नैतिक और धार्मिक जीवन का सूचक होता है। स्मक, अनुभूत्यात्मक और संकल्पात्मक क्षमताओं की पूर्णता जैन परम्परा में जो मोक्ष को दुःखों के आत्यन्तिक अभाय की चाहता है । सीमितता और अपूर्णता का बोध व्यक्ति के मन की अ. हा है. कासी हैं कि व्यक्ति तनावों एक कसक है और वह सदैव ही इस कसक से छुटकारा पाना से मुक्त हो, क्योंकि तनाव या चैनसिक अशान्ति ही वास्तविक चाहता है । उसकी सीमितता और अपूर्णता जीवन की बह प्यास दुःख है। बस्तुलः सामाजिक जीवन में जो अशान्ति और संघर्ष है, जो पूर्णता के जल से परिशान्त होना चाहती है। जब तक देखे जाते हैं उनका भी मूलभूत कारण व्यक्ति की आंतरिक आत्मपूर्णता को प्राप्त नहीं कर लिया जाता, तब तक पूर्ण समरत्व वासनाएँ और आकांक्षाएँ ही होती हैं। जिनकी पूर्ति के लिये नहीं होता, और जब तक पूर्ण समत्त्व नहीं होता, आध्यात्मिक व्यमित न केवल अपने को दुःखी बनाता है अपितु अपने साथियों पूर्णता भी सम्भव नहीं होती। आध्यात्मिक पूर्णता, आत्मपूर्णता को अथवा सामाजिक जीवन को भी दुःखी या तनाव-युक्त बनाता और पूर्ण समत्व एक दूसरे के पर्यायवाची ही हैं । काण्ट ने नैतिक है । अतः मोक्ष जिसे सामान्यतया वैयक्तिक साधना का लक्ष्य विकास की दृष्टि से आत्मा की अमरता को अनिवार्य माना है। माना जाता है वह सामाजिक शोति का भी आधार होता है। नैतिक पूर्णता भी आस्म पूर्णता की अवस्था में ही सम्भव है। यह स्थितप्रज्ञ या वीतराग पुरुषों का जीवन वैयक्तिक और सामाजिक पूर्णता या अनन्त तक प्रगति, केवल इस मान्यता पर निर्भर है दोनों स्तरों पर संघर्ष की स्थिति में नहीं होता है। अत: जो कि व्यक्तित्व में उस पूर्ण ना को प्राप्त करने की क्षमता है और लोग धर्म साधना या नैतिकता के लक्ष्य मोक्ष या निर्वाण को उस अनन्तता या पूर्णता तक पहुंचने के लिए उसकी स्थिरता भी मात्र वैयक्तिक मानते हैं, उनकी यह धारणा उचित नहीं है। अनन्त है। दूसरे शब्दों में आत्मा अमर है । काण्ट ने अनन्त की धर्म और नैतिकता वैयक्तिक होने के साथ-साथ सामाजिक भी दिशा में नैतिक प्रगति के लिए आत्मा की अमरता पर बल है । अतः भ्रामिक और नैतिक साधना का लक्ष्य बक्तिक और दिया, लेकिन अरबन ने प्रगति को भी नैतिकता की एक स्वतन्त्र सामाजिक दोनों स्तरों पर समत्व का संस्थापन करना है। अतः मान्यता कहा है । यदि नैतिक प्रगति की सम्भावना को स्वीकार जैन धर्म में हमें धर्म की जो परिभाषाएं समत्व और अहिंसा के नहीं किया जायेगा, तो नैतिक जीवन का महान उद्देश्य समाप्त रूप में मिलती हैं वे भात्र वैयक्तिक जीवन एवं साधना से सम्ब- हो जायेगा और नैतिकता पारस्परिक सम्बन्धों की एक कहानी न्धित नहीं हैं । जब हम समता को धर्म कहते हैं तो वह समल मात्र रहेगी। व्यक्ति और समाज दोनों का है। वैयक्तिक समता के बिना पाश्चात्य जगत में नैतिक प्रगति का तात्पर्य मात्र सामाजिक सामाजिक समता सम्भव नहीं है । व्यक्ति और समाज एक दुगरे सम्बन्धों एवं सामाजिक जीवन की प्रगति है। जबकि भारतीय से इस प्रकार जुड़े हुए हैं कि उन्हें चाहे अलग-अलग देखें और दर्शन में नैतिक प्रगति से तात्पर्य, व्यक्ति का आध्यात्मिक विकास जानें, किन्तु उन्हें कभी भी अलग-अलग किया नहीं जा सकता। है। मोक्ष, निर्वाण या परमात्मा की उपलब्धि के रूप में नैतिक मोक्ष : आत्म पूर्णता गुर्णता की प्राप्ति को सम्भव मानना नैतिक जीवन की रजिसे नैतिक जीवन का साध्य येवल समत्व का संस्थापन ही नहीं अति आवश्यक है। यदि आत्मपूर्णता या परमश्रेय की प्राप्ति है, बरन इसरो भी अधिक है, और वह है आत्मपूर्णता की दिशा सम्भव नहीं है, तो सदाचरण, नैतिक जीवन और नैतिक प्रगति में प्रगति । क्योंकि जब तक अपूर्णता है, समत्व के विचलन की का कोई अर्थ नहीं रहेगा। नैतिक प्रगति के अन्तिम चरण के सम्भावनाएँ भी हैं। अपूर्णता की अवस्था में सदैव ही चाह रूप में माध्यात्मिक पूर्णता या बारमपूर्णता आवश्यक है। (Want) उपस्थित रहती है और जब तक कोई भी वाह बनी वस्तुतः हमारी चेतना में अपनी अपूर्णता का जो बोध है, हुई है, समत्य नहीं हो सकता । कागना, वासना और चाह सभी वह स्वयं ही हमारे अन्तस् में निहित पूर्णता का संकेत है । हमें असन्तुलन की सूचक है, उनकी उपस्थिति में रामस्व सम्भव नहीं अपनी अपूर्णता का स्पष्ट बोध है. लेकिन यह अपूर्णता का स्पष्ट होता । समत्व तो पूर्ण निष्काम एवं अनासक्त जीवन में सम्भव बोध बिना पूर्णता के या बिना प्रत्यय के सम्भव नहीं। यदि Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८ / चरणानुयोग : प्रस्तावना हमारी चेतना या आत्मा, अनन्त या पूर्ण न हो तो हमें अपनी आत्मा की उपलब्धि कहा जाता है। पाश्चात्य दर्शन में पूर्णता अपूर्णता का बोध भी नहीं हो सकता। वेडले का कथन है कि के दो अर्थ रहे हैं-एक अर्थ में वह चेतना के ज्ञान, भाव और चेतना अनन्त है, क्योंकि वह अनुभव करती है कि उसकी क्षम- संकल्प के मध्य सांग सन्तुलन है तो दूसरी ओर यह वैयक्तिक ताएँ सांत एवं सीमित हैं । लेकिन सीमा या पूर्णता को जानने सीमाओं और सीमितताओं से ऊपर उठना है, ताकि समाज के के लिए असीम एवं पूर्ण होना आवश्यक है । जब हमारी चेतना अन्य बटकों और हमारे बीच का हूँत समाप्त हो सके और यह ज्ञान रखती है कि वह सांत सीमित था अपूर्ण है तो उसका व्यक्ति एक महापुरुष के रूप में समाज का मार्गदर्शन कर सके । यह सीमित होने का ज्ञान स्वयं इस सीमा को पार कर जाता ब्रेडले का कथन है कि "मैं अपने को नैतिक रूप से अभिव्यक्त है । इस प्रकार ब्रेडले भी आत्मा (Self) में निहित पूर्णता का तभी करता हूँ, जब मेरी आस्मा मेरी निजी आत्मा नहीं रह संकेत करते हैं।' आत्मा पूर्ण है, यह बात भारतीय दर्शन के जाती, जब मेरा संकल्प अन्य लोगों के संकल्प से भिन्न नहीं रह विद्यार्थी के लिए नमी नहीं है. लेकिन इस आत्मपूर्णता का अर्थ जाता और जब मैं दूसरों के संसार में केवल अपने को पाता हूँ। यह नहीं कि हम पूर्ण हैं। पूर्णता हमारी क्षमता (Capacity) आत्मानुभूति का अर्थ है । असीम व अनन्त हो जाना, अपने व है, योग्यता (Ablity) नहीं। पूर्णता के प्रकाश में हमें अपनी पराये के अन्तर को निटा देना।" यह है पराभौतिक स्तर पर अपूर्णता का बोध होता है । अपूर्णता का बोध पूर्णता की उप- आत्मानुभूति का अर्थ । म विज्ञानिक स्तर पर आत्मानुभूति का स्थिति का संकेत अवश्य है, लेकिन वह पूर्णता की उपलब्धि अर्थ होगा हमारी सम्पूर्ण बौद्धिक, नैतिक एवं कलात्मक योग्यनहीं है । जैसे दूध में प्रतीत होने वाली स्निग्धता उसमें निहित साओं तथा क्षमताओं की अभिव्यक्ति । यदि हम अपनी कामनाओ मधन की मूचक अवश्य है. लेकिन मक्खा की उपलब्धि नहीं एवं उद्देश्यों को एक साय रखकर देखें तो सभी विशेष उद्देश्य है। जैसे दूध में निहित मक्खन को पाने के लिए प्रयत्न आवश्यक कुछ सामान्य और व्यापक उद्देश्यों के अन्तर्गत आ जाते हैं जो है वैसे आत्मा (Self) में निहित पूर्णता की उपलब्धि के लिए परस्पर मिलकर एक समन्वयात्मक समुच्च्य बन जाते है। इसी प्रयत्न आवश्यक है । नैतिकता या सदाचरण उसी सम्यक् प्रयत्न समन्वयात्मक समुच्चय में हमारी आत्मा पूर्ण रूप से अभिव्यक्त का सूचक है, जिसके माध्यम से हम उस पूर्णता को उपलब्ध कर होती हैं। सकते हैं । हैडफील्ड लिखते हैं कि "हम जो कुछ है वही हमारा भारतीय परम्परा में पूर्णता का अर्थ थोड़ा भिन्न है। "स्व" (Self) नहीं है, यरन हमारा "स्व" वह है जो कि हम पाश्चात्य परम्परा में आत्मा (Self) का अर्थ व्यक्तित्व है और हो सकते हैं। हमारी सम्भावनाओं में ही हमारी सत्ता अभि- जब म पाश्चात्य परम्परा में बात्मपूर्णता की बात कहते हैं तो ध्यक्त होती है और इगी अर्थ में आत्मपूर्णता हमारा साध्य भी उनका सात्पर्य है व्यक्तित्व की पूर्ण ता। व्यक्तित्व का तात्पर्य है है। जैसे एक बालक में निहित समय समताएँ जहाँ एक और शरीर और नेतना । लेकिन अधिकांश भारतीय दर्शन आत्मा को उसकी सत्ता में निहित हैं वहीं दूसरी ओर उसका साध्य हैं। तात्विक "सत्" के रूप में लेते हैं। अतः भारतीय चिन्तन के ठीक इसी प्रकार आत्मपूर्णता हमारा साध्य है। यदि हम आत्म- अनुसार आत्मपूर्णता का अर्थ अपनी तात्विक सत्यता की अथवा पूर्णता को नैतिक जीवन या धर्ण साधना का परम साध्य मानते परमार्थ की उपलब्धि है। यों भारतीय परम्परा में आत्मपूर्णता हैं, तो हमें यह भी स्पष्ट करना होगा कि आत्मपूर्णता का तात्पर्य का अर्थ आत्मा की ज्ञानात्मक, भावात्मक और संकल्पात्मक क्या है ? आत्मपूर्णता का तात्पर्य आरमोपलब्धि ही है, वह स्त्र शक्तियों को पूर्णता भी मान्य है । भारतीय चिन्तन और विशेष में "सण" को पाना है। लेकिन जिस आत्मा या "स्व" को रूप से जैन चिन्तन के अनुसार मनुष्य के शान, भाव और संकल्प उपलब्ध करना है वह सीमित या अपूर्ण आत्मा नहीं, वरन् ऐसी का अनन्त ज्ञान, अनन्त सौख्य (आनन्द) और अनन्त शक्ति के आत्मा है जो समग्र वासनाओं, संकल्पों एवं संघर्षों से ऊपर है, रूप में अभिव्यक्त हो जाना ही आत्मपूर्णता है । यही वह अवस्या विशुश हष्टा एवं साक्षी स्वरूप है। हमारी शुद्ध सत्ता हमारे है जिसमें आत्मा परमात्मा बन जाता है। आत्मा की शक्तियों ज्ञान, भाव और संकल्प सभी का आधार होते हुए भी सभी से का अनावरण एवं पूर्ण अभिव्यक्ति, यही परमात्म-तत्व की प्राप्ति ऊपर एक निर्विकल्प, वीतराग, साक्षी आत्म-सत्ता की स्थिति है, और यही आत्मपूर्णता है। है । इसी स्थिति की उपलब्धि को पूर्णात्मा का साक्षात्कार, परम १ देखें Ethical Studies, chapter II उधृत जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, भाग १, पृ. ४१२ । २ Psychology and Morals, p. 183. ३ Ethical Studics p. 11 ४ Ibid p. 11 Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सदाचरण : एफ बौद्धिक विमर्श | E मोक्ष : आस्म-साक्षात्कार कि कषायों और इन्द्रियों से पराजित आत्मा ही संसार है और आत्म पूर्णता "पर" या पूर्व-अनुपस्थित वस्तु की उपलब्धि उनको विजित करने वाला आमा ही प्रबुद्ध पुरषों द्वारा मोक्ष नहीं वरन् आत्मोपलब्धि ही है। यह एक ऐसी उपलब्धि है, कहा जाता है।' अध्यात्मतत्वालोक में मुनि न्यायविजयजी कहते जिसमें पाना कुछ भी नहीं, वरन् सब कुछ खो देना है। यह पूर्ण है कि आत्मा ही संसार है और आत्मा ही मोक्ष हैं। जहां तक रिकता एवं शून्यता है । सब कुछ खो देने पर सब कुछ पा लिया आत्मा कषाय और इन्द्रियों के वशीभूत है, संसार है, और उनको जाता है । पूर्ण रिक्तता पूर्णता बनकर प्रकट हो जाती है। भौतिक ही जब अपने वशीभूत कर लेता है मोक्ष कहा जाता है। इस स्तर पर "पर" को पाकर "स्व" को खोते हैं लेकिन आध्या- प्रकार हम देखते हैं कि जैन धर्म का साध्य अर्थात् मोक्ष और त्मिक जीवन में “पर" को खोकर "स्व" को पा जाते हैं । जैन- साधक दोनों ही आत्मा की दो अवस्थाएँ (पर्याय) है। दोनों में दर्शन में इसे यह कहकर प्रकट किया गया है कि जितनी पर- मौलिक अन्तर यही है कि बात्मा जब तक विषय और कषायों परिणति या पृद्गल परिणति है उतना ही आस्म विस्मरण है, के वशीभूत होता है तम तक बन्धन में होता है और जब उन "स्व" को खोना है और जितनाराय:पति या पुगत पनि गति नगन्य नाम पर लेता है तब वही मुक्त बन जाता है । आता का अभाव है उतना ही आत्मरमण या "स्व" की उपलब्धि है। की वासनाओं के मल से युक्त अवस्था ही उसका बन्धन कही जाती हमारी जितनी "पर" में वासक्ति होती है, उतने ही हम "स्व" है और विशुद्ध आरम तत्व की अवस्था ही मुक्ति कही जाती है। से दूर होते हैं। इसके विपरीत "पर" में आसक्ति का जितना इसी प्रकार आसक्ति को बन्धन और अनासक्ति को मुक्ति मानना अभाव होता है, उतना ही हम "स्व" या आत्मा के समीप होते एक मनोवैज्ञानिक सत्व है। है। जितनी मात्रा में वासनाएं, अहंकार और नित्त-विकल्प कम जैन धर्म में साध्य और साधक दोनों में अन्तर केवल इस होते हैं, उतनी ही मात्रा में हमें आत्मोपलब्धि या आत्मसाक्षात्कार बात को लेकर है कि आत्मा की विभाव दशा ही साधक की होता है। जब चेतना में इनका पूर्ण अभाव हो जाता है, तो अवस्था है और आत्मा की स्वभाव दशा ही सिद्धावस्था है । जैन आत्मसाक्षात्कार आत्मपूर्णता के रूप में प्रकट हो जाता है। साधना का लक्ष्य अथवा आदर्श कोई बाह्य तत्व नहीं, वह तो जैन नैतिकता का साध्य भी आत्मोपलब्धि या आत्म-साक्षा- साधक का अपना ही निजरूप है । उस को ही अपनी पूर्णता की कार ही है। आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं कि "मोक्षकामी को अवस्था है। साधक का आदर्श उसके बाहर नहीं वरन् उसके आत्मा को जानना चाहिए, आत्मा पर ही श्रद्धा करना चाहिए अन्दर ही है । साधक को उसे पाना भी नहीं है, क्योंकि पाया तो और आत्मा की ही अनुभूति (अनुचरितम) करना चाहिए। वह जाता है जो व्यक्ति में अपने में नहीं हो अथवा अपने से बाह्य सम्यगज्ञान, सम्यग्दर्शन, प्रत्याख्यान (त्याग), संबर (संयम) और हो । धर्म साधना का साध्य बाह्य उपलब्धि नहीं, आन्तरिक उपयोग सब अपने आपको गाने के साधन हैं। क्योंकि यही आत्मा लब्धि है। दूसरे शब्दों में कहें तो वह अपना ही अनावरण है, ज्ञान में है, दर्शन में है, चारित्र में है, त्याग में है, संवर में है अपने आपको उपादना है, अपने निज गुणों का पूर्ण प्रकटन है। और योग में है। आचार्य कुन्दकुन्द के दृष्टिकोण से यह स्पष्ट यहाँ भी हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि आत्मा के निज गुण हो जाता है कि नैतिक क्रियाएँ आस्मोगलब्धि ही हैं । व्यवहारनय या स्व लक्षण तो सदैव ही उसमें उपस्थित है, साधक को केवल से जिन्हें ज्ञान, दर्शन और चारित्र कहा गया है, निश्चयनय से उन्हें प्रकटित करना है। हमारी क्षमताएँ साधक अवस्था और वह आत्मा ही है। इस प्रकार नतिक जीवन का लक्ष्य आत्म- सिद्ध अवस्था में वही हैं। साधक और सिद्ध अवस्था में अन्तर साक्षात्कार या आत्मलाभ है। क्षमताओं का नहीं, वरन् क्षमताओं को योग्यताओं में बदल देने साध्य, साधक और साधना का पारस्परिक सम्बन्ध का है। जैसे बीज वुस के रूप में विकसित होता है वैसे ही जैन धर्म में साध्य और साधक में अभेद माना गया है। मुक्तावस्था में आत्मा के निज गुण पूर्ण रूप में प्रकटित हो जाते समयसार टीका में आचार्य अमृतचन्द्र सूरि लिखते हैं कि परद्रव्य हैं। साधक आत्मा के ज्ञान, भाव' (अनुभूति) और संकल्प के तत्व का परिहार और शुद्ध आत्मतत्व की उपलब्धि ही सिद्धि है। ही मोक्ष की अवस्था में अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सौख्य आचार्य हेमचन्द्र साध्य और साधक में अभेद बताते हुए लिखते हैं और अनन्त शक्ति के रूप में प्रकट हो जाते हैं। यह आत्मा जो १ समयसार १५-१८ एवं उसकी आत्मरूपाति टीका । २ समयसार, आरमल्याति टोका ३०५ । ३ योगशास्त्र (हेमचन्द्र) ४५। ४ अध्यात्मतवालोक, ४६ । Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. [चरणानुयोग : प्रस्तावना कषाम और राग-द्वेष से युक्त है और इनसे युक्त होने के कारण त्रिविध सकल सनुधर गत आतमा, बद, तौर अपूर्ण है, हो पा शत नाम. यात बहिरातम अघरूप मुज्ञानी। दर्शन, अनन्त सौख्य और अनन्त शक्ति को प्रकट कर मुक्त एवं बीजो अन्तर आतमा तीसरो, पूर्ण बन जाता है। उपाध्याय अमर मुनिजी के शब्दों में जैन परमातम अविच्छेद सुशानी ।। साधना के स्व में स्व को उपलब्ध करना है, निज में निज की विषय-भोगों में उलझा हुआ वात्मा बहिरात्मा है। संसार शोध करना है, अनन्त में पूर्णरूपेण रममाण होना है-आत्मा के के विषय-भोगों में उदासीन साधक अन्तरात्मा है और जिसने बाहर एक कण में भी साधक की उन्मुखता नहीं है। इस प्रकार अपनी विषय-वासनाओं पर विजय प्राप्त कर ली है, जो विषयहम देखते हैं कि जैन विचारणा में तात्विक दृष्टि से माध्य और विकार से रहित अनन्त चतुष्टय से युक्त होकर ज्ञाता द्रष्टा भाव साधक दोनों एक ही हैं । यद्यपि पर्यायाधिक दृष्टि या व्यवहारगय में स्थित है, वह परमात्मा है। से उसमें भेद माना गया है। आत्मा को स्वभाव पर्याय या आत्मा और परमात्मा में सम्बन्ध स्वभाव की ओर आना यही साधना है। जैन धर्म में आत्मा और परमात्मा के पारस्परिक सम्बन्ध साधना पथ और साध्य को लेकर कहा गया है___ जिस प्रकार साधक और साध्य में अभेद माना गया है, उसी "अप्पा सो परमप्पा"। प्रकार साधना मार्ग और साध्य में भी अभेद है । जीवात्मा अपने आत्मा ही परमात्मा है। ज्ञान, अनुभूति और संकल्प के रूप में साधक कहा जाता है, प्रत्येक प्राणी, प्रत्येव चेतनसत्ता परमात्मस्वरूप है। उसके यही ज्ञान, अनुभूति और संकल्प सम्यक् दिशा में नियोजित मोह और ममता और तदजनित कर्मवर्गणाओं के कोहरे में होने पर साधना पथ बन जाते हैं और वे ही जब अपनी पूर्णता हमारा वह परमात्म-स्वरूप छुप गश है । जैसे बादलों के आवरण को प्रकट कर लेते हैं तो सिद्ध बन जाते हैं । जैन धर्म के अनुसार में सूर्य का प्रकाशपुंज छिप जाता है और अन्धकार घिर जाता है, सभ्य ज्ञान, सम्यक-दर्शन, सम्यक् चारित्र और सम्यक्-तप उसी प्रकार मोह-ममता और राग-द्वषरूपी कर्मवर्गणाओं के क्रमशः अनन्त शान, अनन्त दर्शन, अनन्त सौख्य और अनन्त शक्ति आवरण से आत्मा का अनन्त आनन्द स्वरूप तिरोहित हो जाता की उपलब्धि कर लेते हैं तो यही अवस्था सिद्धि बन जाती है। है और जीव दुःख और पीड़ा से भर जाता है। आत्मा का ज्ञानात्मक पक्ष सम्यक जान की साधना के द्वारा आरमा और परमात्मा में स्वरूपतः कोई भेद नहीं है। धान अनन्त ज्ञान को प्रकट कर लेता है, आत्मा का अनुभूत्यात्मक पक्ष और चावल एक ही है. अन्तर मात्र इतना है कि एक आवरण सम्यक-दर्शन की साधना के द्वारा अनन्त-दर्शन की उपलब्धि कर (छिलके) सहित है और दूसरा निरावरण (छिलके-रहित)। इसी लेता है, आत्मा का संकल्पात्मक पक्ष सम्यक् पारिष की साधना प्रकार बात्मा और परमात्मा एक ही है, फर्क केवल कर्म रूप के द्वारा अनन्त सौख्य की उपलब्धि कर लेता है और आत्मा की आवरण का है। क्रियाशक्ति सम्यक्-तप की साधना के द्वारा अनन्त शक्ति को उप- जिस प्रकार धान के सुमधुर भात का आस्वादन तभी प्राप्त लब्ध कर लेती है। इस प्रकार हम देखते हैं, कि जो साधक हो सकता है जब उसका छिलका उतार दिया जाये; उसी प्रकार चेतता का स्वरूप है वही सम्यक् बन कर साधना पथ बन जाता अपने ही परमात्म स्वरूप की अनुभूति तमी सम्भव है जब हम है और उसी की पूर्णता साध्य होती है। इस प्रकार साधक, अपनी चेतना से मोह-ममता और राग-द्वेष की खोल को उतार साधना पथ और साध्य सभी आत्मा की ही विभिन्न अवस्थाएँ हैं। फैके। छिलके सहित धान के समान मोह-ममता की खोल में आत्मा की विभाव दशा अर्थात् उसकी विषय-वासनाओं में जकड़ी हुई चेतना आत्मा है और छिलके-रहित शुद्ध शुभ्र चावल आसक्ति या रागभाव उसका बन्धन है, अपने इस रागभाव, के रूप में निरावरण शुद्ध चेतना परमात्मा है । कहा हैआसक्ति या ममता को तोड़ने का जो प्रयास है, वहीं साधना है सिद्धा असो जीव है, जीव सोय सिश होय । और उस आसक्ति, ममत्व या रागभाष का टूट जाना ही मुक्ति कर्म मैल का मोतरा, ब्रसे बिरला कोय । है। यही आत्मा का परमात्मा बन जाना है। जैन साधकों ने मोह-ममता रूपी परदे को हटाकर उस पार रहे हुए अपने ही पारमा की तीन अवस्थाएँ मानी है परमात्मस्वरूप का दर्शन सम्भव है। हमें प्रपल परमात्मा को (१) बहिरारमा, पाने का नहीं, इस परदे को हटाने का करना है, परमात्मा तो (२) अन्तरात्मा, और उपस्थित है ही। हमारी गलती यही है कि हम परमात्म स्वरूप (३) परमात्मा। को प्राप्त करना तो चाहते हैं, किन्तु इस आवरण को हटाने का सन्त आनन्दधन जी कहते हैं प्रयास नहीं करते। हमारे प्रयत्नों की दिशा यदि सही हो तो Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सदाचरण एक बौद्धिक विमर्श | ११ धर्मसाधना का स्वरूप अपने में ही निहित परमात्मा दर्शन दूर नहीं है। हमारा दुर्भाग्य तो यही है कि आज स्वामी का दास बना हुआ है। हमें अपनी हस्ती का अहसास हो नहीं है। किसी उर्दू शायर ने टीक ही कहा है इन्सां की बदती अन्दाज से कमबख्त खुवा होकर बंदा नजर जनदर्शन में वीतराग का जीवनादर्श धर्म के स्वरूप एवं साध्य की इस चर्चा के पश्चात् यह आद है कि हम इस पर भी विचार करें कि धर्म साधना क्या है ? धर्म को जीवन में किस प्रकार जीया जा सकता है ? क्योंकि धर्म साधना का तात्पर्य धर्म को जीवन में जीना है। धर्म जीवन जीने की एक कला है और उससे अलग होकर उसका तो कोई अर्थ है और न कोई मूल्य ही धर्म के स्वरूप की जैन दर्शन में नंतिक जीवन या साधना का परमसाध्य वीत- चर्चा में हमने जो कुछ निष्कर्ष रूप में पाया था वह यह कि रागता की प्राप्ति रहा है। जैन दर्शन में वीतराग एवं अरिहन्त "सगता धर्म है और ममता अधर्म है।" इसके साथ हमने (अर्हत् । जीवन-शैली (अ) इसी जीवनादर्श के प्रतीक है भीतराम की वह भी देखा कि मनुष्य भी व्यक्तिगत या सामाजिक जो भी होती है, इसका वजनावों में यत्र हुआ है चढ़ाएं हैं. दुःख है ये सब उसकी ममवबुद्धि राचाव और संक्षेप में उन आधारों पर उसे इस प्रकार से प्रस्तुत किया जा आसक्ति के परिणाम हैं। इसे हम इस प्रकार भी कह सकते हैं। सकता है । जैनागमों में आदर्श पुरुष के लक्षण बताते हुए कहा कि ममता दुःख का मूल है और समता सुख का मूल" जीवन गया है "जो यमस्य एवं अहंकार से रहित है, जिसके में में ममता भी छूटेगी और समता जिवनी प्रकटित होगी, चित्त जितनी कोई भक्ति नहीं है और जिसने अभिमान का त्याग कर दिया उतना ही दुःख कम होगा और व्यक्ति आनन्द का अनुभव है, जो प्राणिमात्र के प्रति समभाव रखता है। जो लाभ-लाभ, करेगा। समता और तृष्णा को छोड़ने से ही जीवन में समता सुख-दुःख, जीवन-मरण, मान-अपमान और निन्दा प्रशंसा में और सुख को पाया जा सकता है और दूसरे शब्दों में कहें तो समभाव रखता है। जिसे न इस लोक को और न परलोक की धर्म को जीवन में जीना जा सकता है। किन्तु ममता या रागकोई अपेक्षा है, किसी के द्वारा चन्दन का लेप करने पर और भाव का छूटना या छोड़ना अत्यन्त दुरूह या कठिन कार्य है । किसी के द्वारा वसूले के छीलने पर, जिसके मन में लेग करने वाले जन्म-जन्मान्तरों के संस्कारों के कारण हमारे जीवन में ममता पर राय-भाव और वसूले के छोलने वाले पर द्वेष-भाव नहीं और तृष्णा के तत्व इतनी गहराई तक पैठे हुए हैं कि उन्हें होता, जो खाने में और अनशन व्रत करने में समभाव रखता है, निकाल पाना सहज नहीं है। वीतराग, अनासक्ति या वीततृष्ण वही महापुरुष है ।"" जिस प्रकार अग्नि से शुद्ध किया हुआ सोना होने की बात कही तो बड़ी सरलता से जा सकती है, किन्तु निर्मल होता है. उसी प्रकार जो राग-द्वेष और भय आदि से जीवन में उसकी साधना करना अत्यन्त कठिन है । अनेक बार रहित है. वह निर्मल है। जिस प्रकार कमल कीचड़ एवं पानी में यह प्रप्न स्वाभाविक रूप से उठता है कि कोई व्यक्ति वीतराग, उत्पन्न न होकर भी उसमें लिप्त नहीं होता उसी प्रकार को संसार बीततृष्य या अनासक्त होकर जीवन जी सकेगा ? अब जीवन कैसे के कम-भोगों में लिप्त नहीं होता, भाव मे सदैव ही निरत रहता में ममता नहीं होगी अपनेपन का बोल नहीं होगा, चाह नहीं है. उयवितामा अनासक्त पुरुष को इन्द्रियों के पदादिविषय होगी वो व्यक्ति को जीवन जीने का कौन सा आकर भी मन में राग-द्वेष के भाव उत्पन्न नहीं करते। जो विषय राम्रो जायेगा। ममता और चाह (तृष्णा) वस्तुतः हमारे जीवन व्यव व्यक्तियों को दुःख देते हैं, वे वीतरागी के लिए दुःख के कारण हार के प्रेरक तत्व हैं । व्यक्ति किसी के लिए भी जो कुछ करता नहीं होते हैं। वह राग, द्व ेष और मोह के अध्यवसायों को दोष- है, वह अपने ममत्व या रागभाव के कारण करता है, चाहे वह रूप जानकर सदैव उनके प्रति जागृत रहता हुआ माध्यस्थभाव राग प्रशस्त हो या अप्रशस्त अथवा वह फिर अपनी किसी इच्छा रखता है । किसी प्रकार के संकल्प-विकल्प नहीं करता हुआ तुष्णा (तृष्णा) की पूर्ति के लिए करता है। यदि राम और तृष्णा के का प्रहाण कर देता है। वीतराग पुरुष राग-द्वेष और मोह का ये दोनों तत्व जीवन से निकल जायें तो जीवन नीरस और प्रहाण कर ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय कर्म का निष्क्रिय हो जायेगा क्योंकि राग मा. ममता के कारण जीवन में रस क्षय कर कृतकृत्य हो जाता है। इस प्रकार मोह, अन्तराय और है और चाह के कारण समिता । किन्तु यह दृष्टिकोण पूर्णतः बामणों से रहिता जीवराग सर्वेश, समदर्शी होता है। वह शुकस्य नहीं है। बाकि समस्या कृष्णा के अभाव में भी कर्तव्य आसक्ति, ध्यान और सुसमाधि सहित होता है और आयु का क्षय होने पर मोक्ष प्राप्त कर लेता है। भाव और विदेक युक्त करुणा के आधार पर जीवन जिया जा सकता है । यह सत्य है कि अनासक्त होकर मात्र कर्तव्यबोध या बाहर है। आता है । १-२ उत्तराध्यवन, १९ / २०-२२, ३३ / १०६-११०, २० २१ २७-२८ । Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ | चरणानुयोग : प्रस्तावना निष्काम भाव से जीवन जीना कुछ बिरले लोगों के लिए सम्भव है तो ये सब निरर्थक हैं, उनका कोई मूल्य नहीं है। इनकी कोई हो सकता है, जनसामान्य के लिए यह सम्भव नही है। किन्तु उपादेयता नहीं । ये क्रियाकांड साधन हैं, और साधनों का मूल्य दूसरी ओर यह भी सत्य है कि ममता, आसक्ति या तृष्णा ही तभी तक है जब तक ये साध्य की उपलब्धि में सहायक होते है। सभी दुःखों की जड़ है, संसार के सारे संघर्षों का कारण है। आइये, परखें और देखें कि जैन धर्म में धर्म साधना के उपाय उसे छोड़े मा उस पर नियन्त्रण किये बिना न तो व्यक्तिगत कौन से हैं और इनको मूल्यवत्ता क्या है? जीवन में और न सामाजिक जीवन में सुख-शान्ति आ सकती विविध साधना-मार्ग है । यही मानव-जीवन का विरोधाभास है। एक ओर ममत्व जैन दर्शन मोक्ष की प्राप्ति के लिए त्रिविध साधना मार्ग और कामना (चाह) सरस एवं सक्रिय जीवन के अनिवार्य तत्व प्रस्तुत करता है । तत्वार्थ सूत्र के प्रारम्भ में ही कहा है सम्यगहै तो दूसरी और वे ही दुःख और संघर्ष के कारण भी है। जैन ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र मोक्ष का मार्ग है। और बौद्ध परम्पराओं में जीवन को जो दुःखमय कहा गया है उत्तराध्ययन सूत्र में सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यक्चारित्र और उसका कारण यही है । ममत्व और कामना (तृष्णा) के बिना सम्यक्-तप ऐसे चतुर्विध मोक्ष मार्ग का भी विधान है। परवर्ती जीवन चलता नहीं है और जब तक ये उपस्थित हैं जीवन में जैन आचार्यों ने तप का अन्तर्भाव चारित्र में किया है और सुख-शान्ति सम्भव नहीं है। इसलिए परवर्ती साहित्य में इसी विविध साधना मार्ग का विधान चाहे एक बार हम इस बात को मान भी लें कि जीवन में मिलता है । आचार्य कुन्दकुन्द ने समयसार एवं नियमसार में, पूर्णतया अनासक्ति या निर्ममत्य लादा नहीं जा सकता, किन्तु आचार्य अमृतचन्द्र ने पुरुषार्थ सिद्धयुपाय' में, आचार्य हेमचन्द्र ने साथ ही हमें यह भी मानना ही होगा कि यदि हम अपने जीवन योगशास्त्र में त्रिविध साधना पथ का विधान किया है। को और मानव समाज को दुःख और पीड़ाओं से ऊपर उठाना त्रिविध साधना मार्ग ही क्यों ? चाहते हैं, तो ममता और कामना के त्याग अथवा उन पर यह प्रश्न उठ सकता है कि विविध साधना मार्ग का ही नियन्त्रण के अतिरिक्त, अन्य कोई विकल्प भी नहीं है। जीवन विधान क्यों किया गया है? वस्तुतः विविध साधना मार्ग के में जब तक ममता की गांठ टूटती नहीं है, आयकिन छुटानी नहीं विधान में पूर्ववर्ती ऋषियों एवं प्राचार्यों की गहन मनोवैज्ञानिक है, कामना (तृष्णा) समाप्त नहीं होती है, तब तक आत्मिक सूझ रही है। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से मानवीय चेतना के तीन पक्ष शान्ति और सुख सम्भव नहीं है। यदि हमें सुख और शान्ति की माने गये हैं-ज्ञान, भाव और संकल्प । जीवन का साध्य चेतना अपेक्षा है, तो निश्चित रूप से आसक्ति और ममता की गांठ को के इन तीनों पक्षों के परिष्कार में माना गया है। अतः यह खोलना होगा और जीवन में समभाव और अनासक्ति (निष्का- आवश्यक ही था कि इन तीनों पक्षों के परिष्कार के लिए विविध मता) को लाना होगा। साधना पथ का विधान किया जाये। चेतना के भावात्मक पक्ष कर्मकाण्ड धर्मसाधना का लक्ष्य नहीं को सम्यक् बनाने के लिए एवं उसके सही विकास के लिए ___ सामान्यतया धर्म-साधना का सम्बन्ध कुछ विधि-विधानों, सम्यकदर्शन या श्रद्धा (भाव) की साधना का विधान किया गया। क्रियाकाण्डों, आचार-व्यवहार के विधि-निषेधों के साथ जोड़ा इसी प्रकार ज्ञानात्मक पक्ष के लिए ज्ञान का और संकल्पात्मक जाता है । हमसे कहा जाता है-'यह करो, और यह मत करो'। पक्ष के लिए सम्यक् पारित्र का विधान है। इस प्रकार हम किन्तु हमें यह स्मरण रखना है कि ये बाह्य कर्मकाण्ड धार्मिक देखते हैं कि त्रिविध साधना-पथ के विधान के पीछे जैनों की एक साधना के मूल तत्व नहीं है । यद्यपि मेरे कहने का यह तात्पर्य भी मनोवैज्ञानिक दृष्टि रही है। तुलनात्मक दृष्टि से विचार करने नहीं है कि धार्मिक जीवन में इनकी कोई उपयोगिता या सार्थकता पर हम पाते है-बौद्ध दर्शन में शील, समाधि और प्रज्ञा के रूप नहीं है । आचार, व्यवहार या कर्मकाण्ड धार्मिक जीवन के सदैव में और गीता में ज्ञानयोग, भक्तियोग एवं कर्मयोग के रूप में भी से ही आवश्यक अंग रहे हैं और सदैव रहेंगे । किन्तु हमें एक बात विविध साधना मार्ग के उल्लेख हैं। का स्मरण रखना होगा कि यदि हमारे इन धार्मिक कहे जाने पाश्चात्य चिन्तन में त्रिविध साधना-पथ वाले कियाकाण्डों, विधि-विधानों या आचार-नियमों से हमारी पाश्चात्य परम्परा में तीन नैतिक आदेश उपलब्ध होते हैंआसक्ति या ममता छूटती नहीं है, चाह और चिन्ता में कमी (१) स्वयं को जानो होती नहीं है, जीवन में विवेक एवं आनन्द का प्रस्फुटन नहीं होता (२) स्वयं को स्वीकार करो १ तत्त्वार्थसूत्र, ११॥ ३ साइकोलाजी एण्ड मारल्स, पृ० १८० । २ उत्तराध्ययन सूत्र २८/२ । Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सदाचरण : एक बौद्धिक विमर्श | १३ (३) स्वयं ही बन जाओ आवश्यकता है। वस्तुतः साध्य के रूप में जिस पूर्णता को स्वीपाश्चात्य चिन्तन के ये तीन नैतिक आदेश जैन परम्परा के कार किया 14 महतमा के किसी एक पक्ष की पूर्णता नहीं सम्यक् ज्ञान, दर्शन और बारित्र के विविध साधनामार्ग के सम- वरन् लीनों पक्षों की पूर्णता है और इसके लिए साधना के तीनों कक्ष ही हैं । आत्मज्ञान में ज्ञान का तत्व, आत्म-स्वीकृति में पक्ष आवश्यक हैं। श्रद्धा का तत्व और आत्म-निर्माण में चारित्र का सत्व स्वीकृत सद्यपि धर्म-साधना के लिए सम्यग्ज्ञान, सम्पग्दर्शन और सम्यक चारित या शील, समाधि और प्रज्ञा अश्रया श्रद्धा, ज्ञान इस प्रकार हम देखते हैं कि विविध साधना-मार्ग के विधाम' और कम तीनों आवश्यक है, लेकिन साधना की दृष्टि से इनमें में जैन, बौद्ध और वैदिक परम्परायें ही नहीं, पाश्चात्य विचारक एक पूर्वापरला का क्रम भी है। भी एकमत हैं। तुलना:मक रूप में उन्हें निम्न प्रकार से प्रस्तुतः सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान का पूर्वापर सम्बन्ध किया जा सकता है-- ज्ञान और दर्शन की पूर्वापरता को लेकर ज्ञानमीमांसा की जन-वन और-दर्शन गीता उपनिषद पाश्चात्य दर्शन दृष्टि से जैन विचारणा में काफी विवाद रहा है। कुछ आचार्य सम्यग्ज्ञान प्रदा, चित्त, ज्ञान, मनन दर्शन को प्राथमिक मानते हैं तो कुछ ज्ञान को, कुछ ने दोनों का समाधि परिप्रश्न thyself योगपत्य (समानान्तरता) स्वीकार किया है। यद्यपि आचारसम्यग्दर्शन प्रज्ञा श्रद्धा, यवण Accept मीमांसा की दृष्टि से दर्शन की प्राथमिकता ही प्रबल रही है। प्रणिपात thyself उत्तराध्ययन सूत्र में कहा है कि दर्शन के बिना ज्ञान नहीं होता। सम्यक्चारित्र शील, वीर्य कर्म, सेत्रा निदिध्यासन Be इस प्रकार ज्ञान की अपेक्षा दर्शन को प्राथमिकता दी गयी है। thyself तत्वार्थ सूत्रकार उमास्वाति ने भी अपने ग्रन्थ में दर्शन को ज्ञान साधना-श्रय परस्पर सम्बन्ध और चारित्र के पहले स्थान दिया है। आचार्य कुन्दकुन्द दर्शनजन आचार्यों ने नैतिक साधना के लिए इन तीनों साधना- पाहुड़ में कहते हैं कि धर्म (साधनामार्ग) दर्जन-प्रधान है।" मार्गों को एक साथ स्वीकार किया है। उनके अनुसार मैतिक लेकिन दूसरी ओर कुछ सन्दर्भ ऐसे भी हैं जिनमें ज्ञान को साधना की पूर्णता त्रिविध साधनापथ के समग्र परिपालन में ही प्रथम माना गया है । उत्तराध्ययन सूत्र में, उसी अध्याय में मोक्ष सम्भव है । जैन विचारक तीनों के समवेत से ही मुक्ति मानते मार्ग की विवेचना में जो क्रम है उसमें ज्ञान का स्थान प्रथम हैं। उनके अनुसार न अकेला ज्ञान, न अकेला करें और न है। वस्तुतः साधनात्मक जीवन की दृष्टि से भी ज्ञान और अकेली भक्ति मुक्ति देने में समर्थ है जबकि कुछ भारतीय विचा- दर्शन में किसे प्राथमिक माना जाय, यह निर्णय करना सहज रकों ने इनमें से किसी एक को ही मोक्ष प्राप्ति का साधन मान नहीं है । इस विवाद के मूल में यह तथ्य है कि श्रद्धावादी लिया है । आचार्य शंकर केवल ज्ञान से और रामानुज केवल दृष्टिकोण सम्यग्दर्शन को प्रथम स्थान देता है, जबकि ज्ञानवादी भक्ति से मुक्ति की सम्भावना को स्वीकार करते हैं, लेकिन जैन- दृष्टिकोण श्रद्धा के सम्यक होने के लिए ज्ञान की प्राथमिकता दार्शनिक ऐसी किसी एकान्तवादिला में नहीं पड़ते हैं। उनके को स्वीकार करता है। वस्तुतः इस विवाद में कोई ऐकान्तिक अनुसार तो ज्ञान, कर्म और भक्ति की समवेत साधना में ही मोक्ष निर्णय लेना अनुचित ही होगा । यहाँ समन्वयवादी दृष्टिकोण ही सिद्धि सम्भव है। इनमें से किसी एक के अभाव में मोक्ष या संगत होगा। नवतत्वप्रकरण में ऐसा ही समन्वयवादी दृष्टिकोण समत्वरूपी साध्य की प्राप्ति सम्भव नहीं। उत्तराध्ययन सूत्र में अपनाया गया है जहां दोनों को एक दूसरे का पूर्वापर बताया कहा है कि दर्शन के बिना ज्ञान नहीं होता और जिसमें ज्ञान है । कहा है कि जो जीवादि नव पदार्थों को यथार्थ रूप से नहीं है उसका आचरण सम्यक् नहीं होता और सम्यक् आचरण जानता है उसे सम्यक्त्व होता है । इस प्रकार ज्ञान को दर्शन के के अभाव में आसक्ति से मुक्त नही हुआ जाता है और जो पूर्व बताया गया है, लेकिन अगली पंक्ति में ही ज्ञानाभाव में आसक्ति से मुक्त नहीं उसका निर्वाण या मोक्ष नहीं होता। केवल श्रद्धा से ही सम्यक्त्व की प्राप्ति मान ली गई है और कहा इस प्रकार शास्त्रकार यह स्पष्ट कर देता है कि निर्वाण या गया है कि जो वस्तुतत्व को स्वतः नहीं जानता हुआ भी उसके आत्मपूर्णता की प्राप्ति के लिए इन तीनों की समत रूप में प्रति भाव से श्रद्धा करता है उसे सम्यक्त्व हो जाता है। १ उत्तराध्ययन, २८/३०१ २ उत्तराध्ययन, २८/३० । ३ तस्वार्थ. ११ ४ वर्शनपाहुर । ५ उत्तराध्ययन, २५/२। ६ नवतस्त्वप्रकरण, उद्धृत आस्म-साधना संग्रह (मोतीलाल माग्योत) पृ. १५१ । Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ वरणानुयोग : प्रस्तावना हम अपने दृष्टिकोण से इनमें से किसे प्रथम स्थान दें, दर्शन को प्राथमिकता प्रदान की गई है। चारित्र साधना मार्ग में इसका निर्णय करने के पूर्व दर्शन शब्द के अर्थ का निश्चय कर गति है, जब ज्ञान साधना पथ का बोध है और दर्शन यह विश्वास लेना जरूरी है। दर्शन शब्द के तीन अर्थ है-(१) यथार्थ जाग्रत करता है कि वह पथ उसे अपने लक्ष्य की ओर ले जाने दृष्टिकोण, (२) श्रद्धा और (३) अनुभूति । इसमें अनुभूतिपरक वाला है। सामान्य पथिक भी यदि पथ के ज्ञान एवं इस दृढ़ अर्थ का सम्बन्ध तो शानमीमांसा है और उस सन्दर्भ में यह ज्ञान विश्वास के अभाव में कि वह पच उमके वांछित लक्ष्य का पूर्ववर्ती है। यदि हम दर्शन का यथार्थ दृष्टिकोणपरक अर्थ को जाता है, अपने लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकता तो फिर लेते हैं तो साधना-मार्ग की दृष्टि से उसे प्रथम स्थान देना आध्यात्मिक साधना मार्ग का पथिक बिना शान और आस्था चाहिए। क्योंकि यदि व्यक्ति का दृष्टिकोण ही मिथ्या है. (श्रद्धा) के कैसे आगे बढ़ सकता है ? उत्तराध्ययनसूत्र में कहा अयथार्थ है तो न तो उसका ज्ञान सम्यक् (यथार्थ) होगा और न गया है कि ज्ञान से (यथार्थ साधना मार्ग को) जाने, दर्शन के चारित्रही। यथार्थ दृष्टि के अभाव में यदि ज्ञान और चारित्र द्वारा उस पर विश्वास करे और चारित्र से उस साधना मार्ग पर सम्यक् प्रतीत भी हों, तो भी वे सम्यक् नहीं कहे जा सकते। आचरण करता हुआ तप से अपनी आत्मा का परिशोधन करे। वह तो सांयोगिक प्रसंग मात्र है। ऐसा साधक दिग्भ्रान्त भी हो यद्यपि लक्ष्य को पाने के लिए चारित रूप प्रयास आवश्यक सकता है। जिसकी दृष्टि ही दुषित है, वह क्या सत्य को जानेगा है, लेकिन प्रवास को लक्ष्योन्मुख और सम्यक होना चाहिए। और क्या उसका आचरण करेगा? दूसरी ओर यदि हम सम्यग्दर्शन मात्र अन्धे प्रयासों से लक्ष्य प्राप्त नहीं होता। यदि व्यक्ति का का श्रद्धापरक अर्थ लेते हैं तो उसका स्थान ज्ञान के पश्चात ही दृष्टिकोण यथार्थ नहीं है तो शान यथार्य नहीं होगा और ज्ञान होगा। क्योंकि अविचल श्रद्धा तो ज्ञान के बाद ही उत्पन्न हो के यथार्थ नहीं होने पर चारित्र या आचरण भी यथार्थ नहीं सकती है। उत्तराध्ययन सूत्र में भी दर्शन का श्रद्वापरक अर्थ होगा। इसलिए जैन आगमों में चारित्र से दर्शन (शा) की करते समय उसे ज्ञान के बाद ही स्थान दिया गया है, उसमें प्राथमिकता बताते हुए कहा गया है कि सम्यग्दर्शन के अभाव में कहा गया है कि ज्ञान से पदार्थ (तत्व) स्वरूप को जाने और सम्यक्चारित्र नहीं होता। दर्शन के द्वारा उस पर श्रद्धा करे ।। व्यक्ति के स्वानुभव (ज्ञान) भक्त परिजा में कहा गया है कि दर्शन से भ्रष्ट (पतित। के पश्चात ही जो श्रद्धा उत्पन्न होती है, उसमें जो स्थायित्व ही वास्तविक भ्रष्ट है, चारित्र से भ्रष्ट भ्रष्ट नहीं है, क्योंकि जो होता है वह ज्ञानाभाव में प्राप्त हुई श्रद्धा से नहीं हो सकता । दर्शन से युक्त है वह संसार में अधिक परिभ्रमण नहीं करता ज्ञानाभाव में जो श्रद्धा होती है, उसमें संशय होने की सम्भावना जबकि दर्शन से भ्रष्ट व्यक्ति संसार से मुक्त नहीं होता। कदाचित हो सकती है । ऐसी श्रद्धा यथार्थ श्रद्धा नहीं वरन् अन्धश्रद्धा ही चारित्र से रहित सिद्ध भी हो जादे, लेकिन दर्शन से रहित कभी हो सकती है। जिन-प्रणीत तत्वों में भी यथार्थ श्रद्धा तो उनके भी मुक्त नहीं होता। स्वानुभव एवं तार्किक परीक्षण के पश्चात ही हो सकती है। वस्तुतः दृष्टिकोण या श्रद्धा ही एक ऐसा तत्त्व है नो व्यक्ति यद्यपि साधना के लिए, आचरण के लिए श्रद्धा अनिवार्य तत्व है, के ज्ञान और आचरण का सही दिशा-निर्देश करता है। आचार्य लेकिन वह ज्ञानप्रसूत होनी चाहिए। उत्तराध्ययन सूत्र में भद्रबाहु आचारांगनियुक्ति में कहते हैं कि सम्यकदष्टि से ही स्पष्ट कहा है कि धर्म की समीक्षा प्रशा के द्वारा करे, तक' से तप, ज्ञान और सदाचरण सफल होते हैं। सम्स आनन्दघन दर्शन ताब का विश्लेषण करे। इस प्रकार मेरी मान्यता के अनुसार की महत्ता को सिद्ध करते हुए अनन्तजिन के स्तवन में कहते हैंयथार्थ दृष्टिपरक अर्थ में सम्यग्दर्शन को ज्ञान के पूर्व लेना शुद्ध अशा बिना सर्व किरिया करी, चाहिए, जबकि श्रद्धापरक अर्थ में उसे ज्ञान के पश्चात स्थान छार (राख) पर लीपणु तेह जाणो रे । देना चाहिए। सम्याशान और सम्पचारित्र को पूर्वापरता सम्पर्शन और सम्यक्चारित्र का पूर्वापर सम्बन्ध जन विचारकों ने चारित्र को ज्ञान के बाद ही रखा है। चारित्र और ज्ञान दर्शन के पूर्वापर सम्बन्ध को लेकर जैन- दशर्वकालिक सूत्र में कहा गया है कि जो जीब और जीव के विचारणा में कोई विवाद नहीं है । चारित्र की अपेक्षा ज्ञान और स्वरूप को नहीं जानता, ऐसा जीव और अजीब के विषय में उधृत, आत्मसाधना संग्रह, पु. १५१ । ३ उत्तराध्ययम, २८/३५। ५ मतपरिझा, ६५-६६ । २ उसराध्ययन, २३/२५ । ४ वही, २८/२६ । ६ आचारांगनियुक्ति, २२१ । Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सदाचरण : एफ बौदिक विमर्श | १५ अज्ञानी साधक क्या धर्म (संयम) का आचरण करेगा ?1 उत्तरा- रखना चाहिए कि आचार्य मात्र ज्ञान की उपस्थिति में मोक्ष के ध्ययनसूत्र में भी यही कहा है कि सभ्यरज्ञान के अभाव में सदा- सदभाव की कल्पना करते हैं, फिर भी वे अन्तरंग' चारित्र की चरण नहीं होता । इस प्रकार जैन दर्शन ज्ञान को चारित्र से उपस्थिति से इन्कार नहीं करते हैं। अन्तरंग चारित्र तो कषाय पूर्व मानता है। जैन दार्शनिक यह तो स्वीकार करते हैं कि आदि के क्षय के रूप में सभी साधकों में उपस्थित होता है। सम्यक् आचरण के पूर्व सम्यक् ज्ञान का होना आवश्यक है, साधक और साध्य विवेचन में हम देखते हैं कि साधक आत्मा फिर भी वे यह स्वीकार नहीं करते हैं कि अफेला ज्ञान ही मुक्ति पारमार्थिक दृष्टि से ज्ञानमय ही है और वही ज्ञानमय आत्मा का साधन है। ज्ञान आचरण का पूर्ववर्ती अवश्य है, यह भी उसका साध्य है। इस प्रकार मानस्वभावमय' आत्मा हो मोक्ष पीना किया गण कि नान मन में दारिश माग नहीं का उपादान कारण है । क्योंकि जो ज्ञान है, वह आत्मा है और हो सकता। लेकिन यह प्रश्न विचारणीय है कि क्या शान ही जो आत्मा है वह ज्ञान है।' अतः मोक्ष का हेतु ज्ञान ही सिद्ध मोक्ष का मूल हेतु है? होता है। साधना श्रय में ज्ञान का स्थान इस प्रकार जैन-आचार्यों ने साधन प्रय में ज्ञान को अत्यधिक जैनाचार्य अमृतचन्द्रसूरि ज्ञान की बारित से पूर्वला को सिद्ध महत्व दिया है । आचार्य अमृतचन्द्र का उपयुक्त हष्टिकोण तो करते हुए एक चरम सीमा स्पर्ण कर लेते हैं। वे अपनी समयसार जैनदर्शन को शंकर के निकट खड़ा कर देता है। फिर भी यह टीका में लिखते हैं कि जान ही मोक्ष का हेतु है, क्योंकि ज्ञान का मानना कि जैन-दृष्टि में ज्ञान ही मात्र मुक्ति का साधन है, जैन अभाव होने से अज्ञानियों में अन्तरंग वत, नियम, सदाचरण और विचारणा के मौलिक मन्तव्य से दूर होना है। यद्यपि जैन तपस्या आदि की उपस्थिति होते हुए भी मोक्ष का अभाव है। साधना में शान मोक्ष-प्राप्ति का प्राथमिक एवं अनिवार्य कारण क्योंकि अज्ञान तो बन्ध या हेतु है, जबकि जागी में अज्ञान का है, फिर भी वह एकमात्र कारण नहीं माना जा सकता। ज्ञानासदभाव न होने से बाह्य व्रत, नियम, सदाचरण, तप आदि की भाव में मुक्ति सम्भव नहीं है, किन्तु मात्र ज्ञान से भी मुक्ति अनुपस्थिति होने पर भी मोक्ष या सदभाव है। आचार्य शंकर सम्भव नहीं है । जैन-आचावों ने ज्ञान को मुक्ति का अनिवार्य भी यह मानते हैं कि एक ही कार्य जान के अभाव में बन्धन का कारण स्वीकार करते हुए यह बताया कि श्रद्धा और चारित्र का हेतु और ज्ञान की उपस्थिति में मोक्ष का हेतु होता है। इससे आदर्योन्मुघ एवं सम्यक होने के लिए ज्ञान महत्वपूर्ण तथ्य है, यही सिद्ध होता है कि हम नहीं ज्ञान ही मोक्ष का हेतु है। सम्यग्ज्ञान के अभाव में शहा अन्धश्रद्धा होगी और चारिक या आचार्य अमृतचन्द्र भी ज्ञान को विविध साधनों में प्रमुख मानते सदाचरण एक ऐसी कागजी मुद्रा के समान होगा, जिसका चाहे हैं। उनकी दृष्टि में सम्यग्दर्शन और सम्यकचारित्र भी जान के बाह्य मूल्य हो, लेकिन आन्तरिक मूल्य शून्य ही है। आचार्य ही रूप हैं। वे लिखते हैं कि मोक्ष के कारण राम्यम्दान, ज्ञान कुन्दकुन्द, जो ज्ञानवादी परम्परा का प्रतिनिधित्व करते हैं, वे भी और चारित्र हैं । जीवादि तत्वों के यथार्थ श्रद्धान रूप से तो जो स्पष्ट कहते हैं कि कोरे ज्ञान से निर्वाण नहीं होता यदि पक्ष ज्ञान है वह तो सम्यग्दर्शन है और उनका ज्ञान-स्वभाव में ज्ञान न हो और केवल श्रद्धा से भी निर्वाण नहीं होता यदि संयम होना सम्यग्ज्ञान है तथा रागादि के त्याग-स्वभाव से ज्ञान का (सदाचरण) न हो। होना सम्यक चारित्र है । इस प्रकार ज्ञान ही परमार्थत: मोक्ष का जैन-दार्शनिक शंकर के समान न तो यह स्वीकार करते हैं कि कारण है। मात्र ज्ञान से मुक्ति हो सकती है, न रामानुज प्रभृतिः भक्ति मार्ग यहाँ पर आचार्य दान और चारित्र को ज्ञान के अन्य दो के आचार्यों के समान यह स्वीकार करते हैं कि मात्र भक्ति से मुक्ति पक्षों के रूप में सिद्ध कर मात्र जान को ही मोक्ष का हेतु सिद्ध होती है । उन्हें मीमांसा दर्शन की यह मान्यता भी ग्राह्य नहीं है करते हैं। उनके दृष्टिकोण के अनुसार वर्णन और चारिम भी कि मात्र कर्म से मुक्ति हो सकती है। वे तो श्रद्धा-समन्वित ज्ञान ज्ञानात्मक है, ज्ञान की ये पर्यायें हैं । यञ्चपि यहाँ हमें यह स्मरण और कर्म दोनों से मुक्ति की सम्भावना स्वीकार करते हैं । १ दशवकालिक, ४/१२॥ २ उत्तराध्ययन, २०/३० । ३ व्यवहारमाज्य, ७/२१७ ॥ ४ समयसार टीका, १५३ । ५ गीता (०) . ५ पीठिका । ६ समयसार टीका, १५५ । आचारांग, जे आया से विनाया, जे विनाया से आया। जेण षियाण से आया, तं पडुच्छ पउिसखाए। १५/५ ८ प्रवचनसार, चारित्राधिकार, ३ । Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ | चरणानुयोग प्रस्तावना सम्यग्दर्शन, सम्यग्जान और सम्मारिका पूर्वापर हा उत्तराध्ययन सूत्र में स्पष्ट कहा गया कि कुछ विचारक मानते सम्बन्ध भी ऐकान्तिक नहीं जैन विचारणा के अनुसार साधन हैं कि पाप का त्याग किए बिना ही मात्र आयंतत्व ( यथार्थता ) जय में एक क्रम तो माना गया है यद्यपि इस क्रम को भी ऐका को जानकर ही आत्मा सभी दुःखों से छूट जाती है - लेकिन न्तिक रूप में स्वीकार करना उसकी स्याद्वाद की धारणा का बन्धन और मुक्ति के सिद्धांत में विश्वास करने वाले ये विचारकः अतिक्रमण ही होगा | क्योंकि जहाँ आवरण के सम्यक होने के संयय का आचरण नहीं करते हुए केवल वचनों से ही आत्मा को लिए सम्यग्ज्ञान और सम्यग्दर्शन आवश्यक हैं यहीं दूसरी ओर आश्वासन देते हैं ।" सूत्रकृतांग में कहा है कि मनुष्य चाहे वह सम्यग्ज्ञान एवं दर्शन की उपलब्धि के पूर्व भी आधरण का सम्यक् ब्राह्मण हो, भिक्षुक हो, अनेक शास्त्रों का जानकार हो अथवा होना आवश्यक है। जैनदर्शन के अनुसार जब तक तीव्रतम अपने को धार्मिक प्रकट करता हो यदि उसका आचरण अच्छा ( अनन्तानुबन्धी) क्रोध, मान, माया और लोभ चार कषायें नहीं है तो यह अपने कर्मों के कारण दुःखी ही होगा " अनेक समाप्त नहीं होतीं, तब तक सभ्यक्-दर्शन और ज्ञान भी प्राप्त भाषाओं एवं शास्त्रों का ज्ञान आत्म को शरणभूत नहीं होता । नहीं होता। आचार्य शंकर ने भी ज्ञान की शान्ति के पूर्व वैराग्यमयादि विद्या भी उसे बचा सकती है ? अस आचरण में का होना आवश्यक माना है। इस प्रकार सदाचरण और संयम के दर्शन और ज्ञान की उनके भी सिद्ध होते हैं। दूसरे, इस क्रम या पूर्वागरता के आधार पर भी साधन में किसी एक को श्रेष्ठ मानता और दूसरे को गौण मानना जैन दर्शन को स्वीकृत नहीं है। वस्तुत: साधन त्रय मान atanना के तीन पक्षों के रूप में ही साधना मार्ग का निर्माण करते हैं । धार्मिक चेतना के इन तीन पक्षों में जैसी पारस्परिक प्रभावकता और अवियोज्य सम्बन्ध रहा है, वैसी ही पारस्परिक प्रभात्रता और अविशेष सम्बन्ध मानवीय वनों पक्षों में है। ज्ञान और फिया के सहयोग से मुक्ति साधना मार्च में ज्ञान और किया (विहित आवरण) के सेठ को लेकर विवाद पता आ रहा है। वैदिक युग में जहाँ रिकी प्रधानता रही है यहाँ दोपनिपदिक युग में ज्ञान पर बल दिया जाने लगा। भारतीय चिन्तकों के समक्ष प्राचीन समय से ही यह समस्या रही है कि ज्ञान और किया के बीच साधना का यथार्थ तत्व क्या है ? जैन परम्परा ने प्रारम्भ से ही साधना मार्ग में ज्ञान और क्रिया का समन्वय किया है। पार्श्वनाथ के पूर्ववर्ती युग में जब श्रमण परम्परा देहदण्डन- परक तप साधना में और वैदिक परम्परा यज्ञयागपरक क्रिया काण्डों में ही साधना की इतिश्री मानकर साधना के मात्र आचरणात्मक पक्ष पर बल देने लगी थी, तो उन्होंने उसे ज्ञान से समन्वित करने का प्रयास किया था। महावीर और उनके बाद जैन- विचारकों ने भी ज्ञान और आचरण दोनों से समन्वित साधनान्यथ का उपदेश दिया। जैन-विचारकों का यह स्पष्ट निर्देश था कि मुक्ति न तो मात्र ज्ञान से प्राप्त हो सकती है और न केवल सदाचरण से । . ज्ञानमार्गी औपनिषदिक एवं सांख्य परम्पराओं की समीक्षा करते अनुरक्त अपने आप को पण्डित मानने वाले लोग वस्तुतः मूर्ख है ति में ज्ञान और चारिज के पारस्परिक सम्बन्ध का विवेचन विस्तृत रूप में है। उसके कुछ अंश इस समस्या का हल खोजने में हमारे सहायक हो सकेंगे। नियुक्तिकार आचार्य भद्रबाहु कहते हैं कि "आचरणविहीन अनेक शास्त्रों के ज्ञाता भी संसार समुद्र से पार नहीं होते । मात्र शास्त्रीय ज्ञान से बिना आचरण के कोई मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकता। जिस प्रकार निपुण मालक भी वायु या गति की क्रिया के अभाव में जहाज को इच्छित किनारे पर नहीं पहुँचा सकता वैसे ही ज्ञानी आत्मा भी तप संयम रूप सदाचरण के अभाव में मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता मात्र जान देने से कार्य सिद्धि नहीं होती । तैरना जानते हुए भी कोई कष्ट नहीं करे जो दूब जाता है। वैसे ही शास्त्रों को जानते हुए भी जो धर्म का आवरण नहीं करता, वह डूब जाता है।" जसे चन्दन ढोने वाला चन्दन से लाभान्वित नहीं होता, मात्र भार वाहक ही बना रहता है वैसे ही आवरण से हीन जानी ज्ञान के भार का वाहक मात्र है। इससे उसे कोई लाभ नहीं होता। ज्ञान और क्रिया के पारस्परिक सम्बन्ध को लोक-प्रसिद्ध अंध- पंगु न्याय के आधार पर स्पष्ट करते हुए आचार्य लिखते हैं कि जैसे वन में दावानल लगने पर पंगु उसे देखते हुए भी गति के अभाव में जल मरता है और अन्धा सम्यग् मार्ग न खोज पाने के कारण जल मरता है वैसे ही माचरणविहीत ज्ञान पंगु के समान है और ज्ञान चक्षु विहीन आचरण अन्धे के समान है। आचरणविहीन ज्ञान और ज्ञानविहीन आवरण दोनों निरर्थक हैं और संसार रूपी दावानल से साधक को बचाने में असमर्थ हैं। जिस प्रकार एक चक्र से रथ नहीं चलता, अकेला अन्धा तथा अकेला पंगु इच्छित साध्य तक उत्तराध्ययन, ६/९-१० । । १ ३ उत्तराध्ययन, ६ / ११ । ५. वही, ११५१-५४ २२/१/७० ४ आवश्यक नियुक्ति, ९५-६७ । ६ आवश्यक नियुक्ति. १००। Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सदाधरण : एक बौद्धिक विमर्श | १७ जा नहीं पहुँचते, वैसे ही मात्र ज्ञान अथवा मात्र क्रिया से मुक्ति नहीं प्रारम्भ से ही कर्म-मार्ग और ज्ञान-मार्ग की धाराएं अलग-अलग होती, वरन् दोनों के सहयोग से मुक्ति होती है। व्याख्या रूप में प्रवाहित होती रही हैं। भागवत सम्प्रदाय के उदय के प्रशप्लि में ज्ञान और क्रिया में से किसी एक को स्वीकार करने साथ भक्तिमार्ग एक नई निष्ठा के रूप में प्रतिष्ठित हुआ। इस की विचारणा को मिथ्या विचारणा कहा गया है। महाबीर ने प्रकार वेदों का कर्ममार्ग, उपनिषदों का शान-मार्गे और भागवत साधक की दृष्टि से ज्ञान और क्रिया के पारस्परिक सम्बन्ध को सम्प्रदाय का भक्तिमार्ग तथा इनके साथ-साथ ही योग सम्प्रदाय एक चतुभंगी का कथन इसी सन्दर्भ में किया है का ध्यान-मार्ग सभी एक-दूसरे से स्वतन्त्र रूप में मोक मार्ग (१) कुछ व्यक्ति ज्ञान सम्पन्न हैं, लेकिन चारित्र-सम्पन्न समझे जाते रहे हैं। सम्भवतः गीता एक ऐसी रचना अवश्य है नहीं हैं। जो इन सभी साधना विधियों को स्वीकार करती है। यद्यपि (२) कुछ व्यक्ति चारित्र सम्पन्न हैं, लेकिन ज्ञान-सम्पन्न गीताकार ने इन विभिन्न धाराओं को समेटने का प्रयत्न तो किया, लेकिन वह उनको समन्वित नहीं कर पाया। यही कारण (३) कुछ व्यक्ति न ज्ञान सम्पन्न है, न चारित्र सम्पन्न है। था कि परवर्ती टीकाकारों ने अपने पूर्व-संस्कारों के कारण गीता (४) कुछ व्यक्ति ज्ञान सम्पन्न भी हैं और चारित्र-सम्पन्न को इनमें से किसी एक साधना-मार्ग का प्रतिपादन बताने का . . प्रयास किया और गीता में निर्देशित साधना के दूसरे मागों को महावीर ने इनमें से सच्चा साधक उसे ही कहा जो जान गौण बताया' । शंकर ने ज्ञान को, रामानुज ने भक्ति को, तिलक और क्रिया, श्रुत और शील दोनों से सम्पन्न है। इसी को स्पष्ट ने कर्म को गीता का प्रमुख प्रतिपाद्य विषय माना। करने के लिए निम्न रूपक भी दिया जाता है। लेकिन जैन-विचारकों ने इस विविध साधना-पथ को समवेत (१) कुछ मुद्रावें ऐसी होती हैं जिनमें धातु भी खोटी है रूप में ही मोक्ष का कारण गाना और यह बताया कि ये तीनों मुद्रांकन भी ठीक नहीं है। एक-दूसरे से अलग होकर नहीं, वरन् समवेत रूप में ही मोक्ष (२) कुछ मुद्राएँ ऐसी होती हैं जिनमें धातु तो शुद्ध है को प्राप्त करा सकते हैं। उसने तीनों को समान माना और लेकिन मुद्रांकन ठीक नहीं है। उनमें से किसी को भी एक के अधीन बनाने का प्रयास नहीं (३) कुछ मुद्राएँ ऐसी हैं जिनमें धातु अशुद्ध है लेकिन किया। हमें इस प्रांति से बनना होगा कि थवा, ज्ञान और मुद्रांकन ठीक है। आचरण ये स्वतन्त्र रूप में नैतिक पूर्णता के मार्ग हो सकते हैं। (४) कुछ मुद्राएं ऐसी हैं जिनमें धातु भी शुद्ध है और मानवीय व्यक्तित्व और नैतिक साध्य एक पूर्णता है और उसे मुद्रांकन भी ठीक है। समवेत रूप में ही पाया जा सकता है। बाजार में वही मुद्रा ग्राहा होती है जिसमें धातु भी शुद्ध बौद्ध परम्परा और जैन परम्परा दोनों ही एकांगी दृष्टिकोण होती है और मुद्राकन भी ठीक होता है। इसी प्रकार सच्चा नहीं रहते हैं । बौद्ध-परम्परा में शील, समाधि और प्रज्ञा अथवा साधक वही होता है जो जान-सम्पन्न भी हो और चारित्र सम्पन्न प्रजा, श्रद्धा और वीर्य को सम्वेत रूप में ही निर्वाण का कारण भी हो । इस प्रकार जैन-विचारणा यह बताती है कि ज्ञान और माना गया है । इस प्रकार बौद्ध और जैन परम्पराएँ न केवल क्रिया दोनों ही नैतिक साधना के लिए आवश्यक है। ज्ञान और अपने साधन-मार्ग के प्रतिपादन में, वरन्- माधवत्रय के बलाबल चारित्र दोनों की समवेत साधना से ही दुःख का क्षय होता है। के विषय में भी समान दृष्टिकोण रखती हैं। क्रियाशून्य ज्ञान और ज्ञानशून्य क्रिया दोनों ही एकान्त हैं और वस्तुतः नैतिक साध्य का स्वरूप और मानवीय प्रकृति, दोनों एकान्त होने के कारण जैन दर्शन की अनेकान्तबादी विचारणा के ही यह बताते हैं कि विविध साधनामार्ग अपने समवेत रूप में अनुकूल नहीं हैं। ही नैतिक पूर्णता की प्राप्ति करा सकता है। यहाँ इस विविध सुलनात्मक दृष्टि से विचार साधना-पय का मानवीय प्रकृति और नैतिक साध्य से क्या जैन परम्परा में साधन-त्रय के समवेत में ही मोक्ष की सम्बन्ध है इसे स्पष्ट कर लेना उपयुक्त होगा। निष्पत्ति मानी गई है जबकि वैदिक परम्परा में जान-निष्ठा, मानवीय प्रकृति और त्रिविध साधना-पथ कर्मनिष्ठा और भक्तिमार्ग ये तीनों ही अलग-अलग मोक्ष के मानवीय चेतना के तीन कार्य है-(१) जानना, (२) अनुभव साधन माने जासे रहे हैं और इन वाधारों पर वैदिक परम्परा करना और (३) संकल्प करना । हमारी चेतना का ज्ञानात्मक में स्वतन्त्र सम्प्रदायों का उदय भी हुआ है। वैदिक परम्परा में पक्ष न केवल जानना चाहता है, वरन् वह सत्य को ही जानना 1 - - - ७ आवश्यकनियुक्ति, १०१-१०२। २ व्यापाप्रप्ति, ८/१०/४१ । Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ | धरणानुयोग प्रस्तावना चाहता है। ज्ञानात्मक चेतना निरन्तर सत्य की खोज में रहती जैन आचार-दर्शन में साधक, साधना-पथ और साध्य में अभेद है। है। बत: जिस विधि से हमारी ज्ञानात्मक चेतना सत्य को उप- सम्यग्दर्शन का स्वरूप लब्ध कर सके उरो ही सम्यक् ज्ञान कहा गया है। सम्यक् ज्ञान धर्भ साधना यो तीन मुख्य अंग हैं-भक्ति, ज्ञान और कर्म। चेतना के ज्ञानात्मक पक्ष को सत्य की उपलब्धि की दिशा में ले जैन परम्परा में इन्हें ही क्रमशः सम्यक दर्शन, सम्य-ज्ञान, जाता है। चेतना का दूसरा पक्ष अनुभूति के रूप में आनन्द की सम्यक चारित्र कहा गया है । इनमें सबसे पहले हम सम्यक्-दर्णन खोज करता है। सम्यग्दर्शन चेतना में राग-द्वेषात्मक जो तनाव के स्वरूप पर विचार करेंगे । वस्तुतः सम्यक्-दर्शन शब्द सम्यक हैं, उन्हें समाप्त कर उसे आनन्द प्रदान करता है। चेतना का और दर्शन एम दो शब्दों से मिलकर बना है जिसका सीधा और तीसरा संकल्पात्मक पक्ष शक्ति की उपलब्धि और कल्याण की सरल अर्थ है सही ढंग से या अच्छी प्रकार से देखना । यहाँ यह प्रश्न क्रियान्विति चाहता है । सम्यकचारित्र संकल्प को कल्याण के मार्ग उठाया जा सकता है कि अच्छी प्रकार से देखने का क्या तात्पर्य में नियोजित कर शिव की उपलब्धि करता है। इस प्रकार है? जच्छी प्रकार से देखने का एक तात्पर्य तो यह है कि विकार सभ्यग्जान, दर्शन और चारित्र का यह विविध साधना-पध चेतना रहित दृष्टि से देखना । आँख को विकृति हमारी चक्षु इन्द्रिय के के तीनों पक्षों को सही दिशा में निर्देशित कर उनके वांछित बोध को विकृत कर देती है प्रथा-पीलिया का रोगी सफेद लक्ष्य सत्, सुन्दर और शिव अथवा अनन्त ज्ञान, मानन्द और वस्तु को भी पीली देखता है, ठीक इसी प्रकार आध्यात्मिक शक्ति की उपलब्धि कराता है। वस्तुतः जीवन के साध्य को जीवन में राम-द्वेष हमारी दृष्टि को विकृत कर देते हैं, उनकी उपलब्ध करा देना ही इस त्रिविध साधना-पथ का कार्य है। उपस्थिति के कारण हम सत्य का उसके यथार्थ रूप में दर्शन जीवन का साध्य अनन्त एवं पूर्ण ज्ञान, अक्षय आनन्द और अनंत नहीं कर पाते हैं, जिरा पर हमारा राग होता है उसके दोष शक्ति की उपलब्धि है, जिसे विविध साधना-पथ के तीनों अंगों नहीं दिखाई देते हैं और जिससे द्वेष होता है. उसके गुण दिखाई के द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। चेतना के ज्ञानात्मक पक्ष नहीं देते हैं । राग-द्वेष आँख पर चढे रंगीन चश्मों के समान हैं को सम्यक्-ज्ञान की दिशा में नियोजित कर ज्ञान की पूर्णता को, जो सत्य को विकृत बार के प्रस्तुत करते हैं । अतः सामान्य रूप से चेतना के भावात्मक पक्ष को सम्यग्दर्शन में नियोजित कर अक्षय सम्यक् दर्शन का है-सम और तप अर्थात पूर्वाग्रह के घेरे आनन्द की और चेतना के संकल्पात्मक पक्ष को सम्बवारित्र से ऊपर उठकर सत्य का दर्शन करना । राग और द्वेष के कारण में नियोजित कर अनन्त शक्ति की उपलब्धि की जा सकती है। ही आग्रह और मतान्धता पनपती है और वही हपारे सत्य के वस्तुतः जैन याचार दर्शन में साध्य, साधक और साधना पथ बोध को रंगीन या दुषित दना देती है। अत: आग्रह और तीनों में अभेद माना गया है। शान, अनुभूति और संकल्पमय मतान्धता से रहित दृष्टि ही सम्यक दृष्टि है। सत्य के पास चेतना साधक है और यही चेतना के तीनों पक्ष सम्यक दिशा में उन्मुक्त भाव से जाना होता है तभी सत्य के दर्शन होते हैं। नियोजित होने पर साधना-पथ कहलाते हैं और इन तीनों पक्षों जब तक हम राग-द्वेष. मतान्धता. आग्रह आदि से ऊपर उठकर की पूर्णता ही साध्य है। साधक, साध्य और साधना-पथ भिन्न- सत्य को देखने का प्रयत्न नहीं करते हैं तब तक सत्य का यथार्थ भिन्न नहीं, वरन चेतना की विभिन्न अवस्थाएँ हैं। उनमें अभेद स्वरूप हमारे सामने प्रकट नहीं होता है। अतः आग्रह और माना गया है । आचार्य कुन्दकुन्द ने समयसार में और आचार्य पक्षपात से रहित दृष्टि ही सम्पदर्शन है। हेमचन्द्र ने योगशास्त्र में इस अभेद को अत्यन्त मार्मिक शब्दों में जैन परम्परा में सम्यकदर्णन शब्द तत्व श्रद्धा सथा देव, स्पष्ट किया है । आपार्य कुन्दकुन्द समयसार में कहते हैं कि यह गुरु और धर्म के प्रति श्रद्धा के अर्थ में भी रूक है। लेकिन हमें आत्मा ही शान, दर्शन और चारित्र है। आचार्य हेमचन्द्र इसी यह समझ लेना चाहिए कि जब तक दृष्टि दूषित है तब तक अभेद को स्पष्ट करते हुए योगशास्त्र में कहते हैं कि आत्मा ही श्रद्धा सम्यक नहीं हो सकती है । दृष्टि के निर्दोष और निर्विकार सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र है, क्योंकि आत्मा होने पर सत्य का यथार्य रूप में दर्शन होगा और उस यथार्थ इसी रूप में शरीर में स्थित है। आचार्य ने यह कहकर कि बोध पर जो श्रद्धा या आस्था होगी बही सम्यक् श्रद्धा होगी। आत्मा ज्ञान, दर्शन और चारित्र के रूप में शरीर में स्थित है, सम्यक दर्शन का श्रद्धापरक अर्थ उसका परवी अर्थ है मानवीय मनोवैज्ञानिक प्रकृति को ही स्पष्ट किया है । ज्ञान, और भक्ति मार्ग के प्रभाव से जैन धर्म में आया है। मूल अर्थ चेतना और संकल्प तीनों सम्यक् होकर साधना-पथ का निर्माण तो दुष्टिपरक ही है । लेकिन श्रद्धापरक अर्थ भी साधना के लिए कर देते हैं और यही पूर्ण होकर साध्य बन जाते हैं। इस प्रकार कम महत्त्वपूर्ण नहीं है । यथार्थतः आत्म-बोध और अपनी विकृ. १ समयसार, २७७ । २ योगशास्त्र, ४/१। Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सदाचरण : एक बौद्धिक विमर्श | १६ तियों को समझने के दो ही रास्ते हैं। या तो हम स्वयं आग्रह, होगी और तब तक उनसे छुटकारा भी सम्भव नहीं है । क्योंकि मनोमतान्धता और राग-द्वेष के घेरे से उपर उठकर तटस्थ भाव से विकृतियां तभी पनपती है जबकि हम उनके द्रष्टा नहीं बनते हैं । उनके द्रष्टा बनें, स्वयं अपने में आंके और अपने को देखें अथवा आचारोग सूत्र में कहा गया है कि 'सम्यकदष्टा कोई पाप नहीं फिजिसने वीतराग दृष्टि से सत्य को देखा है उसके बननों पर करता।" फिन्तु यह बात हमारे सामने कुछ उलझन भी पैदा विश्वास करें। वीतराग के वचनों पर विश्वास या श्रद्धा-गह कर देती है, क्योंकि शारों में अनिरत सम्पष्टि का भी सम्यक् दर्शन का दूसरा अर्थ है । जिस प्रकार हमें अपनी बीमारी उल्लेख है। अविरत राम्य-दृष्टि वह है जो अपने विषय वासको समझने के लिए दो ही मार्ग होते हैं, एक तो जीवन के पूर्वा- नाओं या मनोविकृतियों को जानकर भी उनसे अपने को मुक्त पर सानुभवों की तुलना के द्वारा स्वयं यह निश्चय करें कि हमारे नहीं कर पाता है। वैसे यह एक अनुभाविक तथ्य भी है कि स्वास्थ्य में कोई विकृति है या फिर जो डाक्टर या विशेषज्ञ है सत्य को जानकर भी अनेक बार उसका आचरण सम्भव नहीं उनकी बात पर विश्वास बरें । उसी प्रकार जीवन के सत्य का होता । महाभारत में दुर्योधन कहता है-"मैं धर्म को जानता या तो स्वयं अनुभव करें या फिर जिन्होंने उसे जाना है उनके हूँ किन्तु उसका आचरण नहीं कर पाता हूँ, मैं अधर्म को भी अपनों पर विश्वास करें। अतः सम्यक् दर्शन का मह दूसरा जानता हूं किन्तु उससे छुटकारा नहीं पा सकता हूँ।" किन्तु अर्थ हमें यह बताता है कि यदि हम स्वयं जीवन के सत्य को यहाँ हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि ऐसा जानना केवल औपऔर अपनी विकृतियों को ममझने में सक्षम नहीं हैं तो हमें चारिक जानना है । क्या कोई विष को विष के रूप में जानते वीतराग के वचनों पर श्रद्धा रखकर उन्हें जान लेना चाहिए । हुए भी उसका भक्षण कर सकता है ? वस्तुतः बुराई को बुराई क्योंकि एक बात वह दो रोग को रोग के रूप में के रूप में जानते हुए भी उसमें लिप्त रहना, कम से कम उसका जान लेता है यही रोग की चिकित्सा करवाता है, और वही सही रूप में जानना तो नहीं कहा जा सकता, वह उस सत्य के रोग से मुक्त होका है। प्रति हमारी निष्ठा का सूचक तो किसी भी स्थिति में नहीं माना वस्तुतः आध्यात्मिक विकृतियों को जानने के लिए हमें जा सकता । यदि हम सत्य के प्रति निष्ठावान हैं, तो उसे हमारे तटस्थ भाव से अपने अन्दर झांकना होता है, अपनी वृत्तियों को जीवन व्यवहार में अभिव्यक्त होना ही चाहिए। देखना होता है यही सम्यक् दर्शन है। वस्तुतः कोई व्यक्ति वैसे जो आगम' में यह कहा गया है कि सभ्यष्टि कोई सम्यदृष्टि है या नहीं इसकी पहचान उसका बाह्य जीवन पाप नहीं करता-उसका भी अपना एक अर्थ है। देखना और नहीं हैं अपितु इसकी पहचान है कि वह अपनी विकृतियों को, करना--ये दोनों ही मन को ही प्रवृत्तियां हैं और दोनों एक अपनी कषायों को और अपनी राग-द्वेष की युत्तियों को कितना साथ सम्भव नहीं हैं। जिस समय मैं अपनी दुष्प्रवृत्तियों या अपने और किस रूप में जान पाया है। वस्तुत: अपनी वृत्तियों का विषय-विकारों या वासनाओं का द्रष्टा होता है, उसी समय मैं दृष्टा ही सम्यक् दृष्टा है । सम्यक् दर्शन अपने आपका दर्शन है। उनका कर्ता नहीं रह सकता हूँ। इस बात को एक सामान्य अपनी वृत्तियों का और अपनी भावनाओं का दर्शन है। वह उदाहरण के द्वारा समझा जा सकता है। मान लीजिए, हम अपने आपको पढ़ना और देखना है। वस्तुतः मैं सम्यक दृष्टि हूँ क्रोधित हैं। यदि उसी समय हम उस क्रोध के भाव को देखने या नहीं-इसकी पहचान इतनी ही है कि मैं अपनी मनोवृत्तियों का प्रयल प्रारम्भ कर दें, उसके कारणों का विश्लेषण करना को और कमियों को कहाँ तक और कितना जान पाया हूँ। क्या प्रारम्भ कर दें, तो निश्चित ही हमारा क्रोध समाप्त हो जायेगा। मैं यह देख पाया हूँ कि मुझमें क्रोध, मान, माया और लोभ के क्रोध को देखना और क्रोध करना, यह एक साथ सम्भव नहीं तत्व अथवा राग-द्वेष के. मात्र कहाँ तक छिपे बैठे हैं। है। जब भी व्यक्ति अपने मनोभावों का द्रष्टा बनता है उस वस्तुतः दृष्टा या साक्षी भाव ही एक ऐसी अवस्था है जो समय वह उनका वार्ता नहीं रह जाता है। जब भी हम वासनाओं हमें आध्यात्मिक विकृतियों से मुक्त कर सकती है। सम्यक-दर्शन में होते हैं, आवेश में होते हैं तब हम द्रष्टा भाव में नहीं होते हैं, को साधना का मूल आधार कहने का तात्पर्य यही है कि जब अप्रमत्त नहीं होते हैं, आत्मचेतन नहीं होते हैं, और जब आत्मतक व्यक्ति को अपनी वासनाओं और विकारों का बोध नहीं चेतन होते हैं, द्रष्टा होते हैं, तो कोधादि विकारों के कर्ता नहीं होगा तब तक उनके प्रति उसके हृदय में एक ग्लानि उत्पन्न नहीं होते । आत्मचेतन होना, द्रष्टा होना, अप्रमत्त होना, निष्पाप १ सम्मत्तसो न करेह पाव-आचारांप १/३/२ । २ जानामि धर्म न च मे प्रवृत्तिः, जानाम्यधर्म न च मे निवृत्तिः । महाभारत, उद्धत, नीतिशास्त्र का सर्वेक्षण, डा. संगमलाल पाण्डेय, द्वितीय संस्करण, प. ३२१ । Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ | चरणानुयोग : प्रस्तावना वास्तविक सिंह के दर्शन से अपने प्रसुप्त सिंहत्व को प्रकट कर है अतः आसक्ति, राग या अनात्म में आत्म-बुद्धि को समाप्त करने लेता है, उसी प्रकार स.धक तीर्थकर के गुण-कीर्तन या स्तवन के के लिए ज्ञान आवश्यक है। जैन परम्परा में ऐसे ज्ञान को द्वारा निज में जिनस्व का बोध कर लेता है, स्वयं में निहित सम्यग्ज्ञान और ऐमे ज्ञान की प्रक्रिया को भेद-विज्ञान कहा गया परमात्मशक्ति को प्रकट कर लेता है। है। वस्तुतः मेद विज्ञान वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा साधक जैन साधना यह स्वीकार करती है कि भगवान की स्तुति आत्म और अनात्म में या स्व वा पर में भेद स्थापित करता है। हमारी प्रसुप्त अन्तश्चेतना को जागृत करती है और हमारे आचार्य अमृतचन्द्रसूरि ने समयसार की टीका में कहा है कि जो सामने साधना के आदर्श का एक जीवन्त चित्र उपस्थित करती कोई भी सिद्ध हुए हैं वे सभी इसी भेद विज्ञान से हुए है और है । मात्र यही नहीं, वह हमें उस आदर्श की प्राप्ति के लिए जो कोई बन्धन में हैं वे सभी इसी भेद-विज्ञान में अभाव के प्रेरणा भी देती है। जैन विचारकों ने स्वीकार किया है कि कारण है।' आत्मज्ञान भारतीय और पाश्चात्य सभी चितन्को भगवान की स्तुति के माध्यम से व्यक्ति अपना आध्यात्मिक का मूलभूत उद्देश्य रहा है। अपने और पराये या स्व और पर विकास कर सकता है । यद्यपि इसमें प्रयत्न व्यक्ति का ही होता में भेद स्थापित कर लेना यही आसक्ति और ममत्व को तोड़ने है लेकिन साधना के आदर्श उप महापुरुषों का जीवन उसकी का एकमात्र उपाय है। यद्यपि यह कहना तो सहज है कि प्रेरणा का निमित्त जावश्यक होता है। उत्तराध्ययन मूत्र में कहा "स्व" को स्व के रूप में और पर के रूप में जानो; किन्तु यही *पा है कि स्तवन से व्यक्ति की दर्शनविशुद्धि होती है। इसका साधना की सबसे कठिन प्रक्रिया भी है। दृष्टिकोण सम्यक जनता है और परिणामस्वरूप वह माध्यास्मिक स्व को जानना तो अपने आप में एक दार्शनिक समस्या है, विकास की दिशा में आगे बढ़ सकता है। यद्यपि जैन धर्म में क्योंकि जो भी जाना आयेगा वह तो पर ही होगा 1 जानना यह माना गया है कि भगवद्भक्ति के फलस्वरूप पूर्व संचित कर्मों हमेशा पर का ही हो सकता है। स्व तो वह है जो जानता है, का क्षर होता है, तथापि इसका कारण परमात्मा की कृपा नहीं जाता है । जो जानने वाला या शाता है यह ज्ञेय अर्थात् ज्ञान वन व्यक्ति के दृष्टिकोण की विशुद्धि ही है। आवश्यकनियुक्ति का विषय नहीं हो सकता। जिस प्रकार आँख समस्त विश्व को में जैनाचार्य भद्रवाह ने इस बात को स्पष्ट रूप से स्वीकार देख सकती हैं, लेकिन स्वयं अपने आपको नहीं देख पाती है, नट किया है कि भगवान के नामस्मरण मे पाप क्षीण होते हैं। स्वयं अपने कन्धे पर नहीं चढ़ पाता है, उसी प्रकार ज्ञाता आत्मा आचार्य विनय चन्द्र भगवान की स्तुति करते हुए कहते हैं- स्वयं को नहीं जान सकता। ज्ञाता जिसे भी जानेगा वह तो पाप-पराल को पुंज बन्यो अति, मानो मेरू आकारो। ज्ञान का विषय होने से उससे भिन्न होगा। इसीलिए उपनिषद् ते तुम नाम हलासन सेती, सहज हो प्रजलत सारो ॥ में कृषि को कहना पड़ा था कि "fज्ञाता को कैसे जाना जावेगा, हे प्रभु आपको नामरूपी अग्नि में इतनी शक्ति है कि उससे जिससे सब कुछ जाना जाता है उसे कैसे जाना जाये । बास्तमेरु समान पाप समूह भी शीघ्र ही नष्ट हो जाता है। किन्तु विकता तो यह है कि जो सम्पूर्ण ज्ञान का आधार है, जो स्वयं यह प्रभाव प्रभु के नाम का नहीं अपितु साधक की आत्मिक जानने वाला है उसे कैसे जाना जा सकता है। मैं जिस भाति शक्ति का है। जैसे मालिक के जागने पर चोर भाग जाते हैं, पर को जान सकता हूँ उसी भांति स्वयं को नहीं जान सकता । उसी प्रकार प्रभु के स्वरूप के ध्यान से आत्म-चेतना या स्वशक्ति इसीलिए आत्मज्ञान जैसी सहज घटना भी दुलह होती है । का भान होता है और पाप करी चोर भाग जाते हैं। वस्तुतः आत्मज्ञान वह ज्ञान नहीं हैं जिससे हम परिचित हैं। सम्यग्ज्ञान का स्वरूप एवं स्थान सामान्यज्ञान में ज्ञाता और ज्ञेय का जानने वाला और जो कुछ बन्धन मा दुःख के कारणों की विवेचना में लगभग सभी जाना जाता है उसका भेद बना रहता है जबकि भास्मज्ञान में विचारकों ने अज्ञान को एक प्रमुख तत्व माना है और इसलिए यह भेद सम्भव ही नहीं। उसमें जो जानता है और जिसको दुःख विमुक्ति के उपायों में ज्ञान को प्रमुखता दी गई है। बन्धन जाना जाता है वे दोनों अलग-अलग नहीं होते। वस्तुत: आत्मया दुःख के कारण इस अज्ञान को मोह के नाम से भी सम्बोधित ज्ञान की प्रक्रिया एक निषेधात्मक प्रक्रिया है उसमें हम इस बात किया गया है । वस्तुतः अज्ञान के कारण सनात्म या पर में से प्रारम्भ करते हैं कि मैं क्या नहीं हूँ। "पर" से पा जो ज्ञान आत्म-बुद्धि या अपनेपन का भाव उत्पन्न होता है, राग या ममता का विषय है उससे अपनी भिन्नता स्थापित करते जाना यही का सुजन होता है और यही समस्त दुःखों एवं बुराइयों की जड़ आत्मज्ञान की प्रक्रिया है । इसे ही भेद-विज्ञान कहा गया है । १ उसराध्ययन सूत्र, २९/81 ३ समयसार टीका १३१ । २ आवश्यक नियुक्ति १०७६ । ४ बृहदारण्यक २/४/१४ । Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ I 'सदाचरण एक बौद्धिक विमर्श | २३ अन्य दर्शनों में इसे आत्म-अनात्म विवेक के नाम से जाना जा एवं पदार्थों से अपनी भिनता का बोध करता है। चाहे अनुभूति सकता है । के स्तर पर इनसे भिन्नता स्थापित कर पाना कठिन हो किन्तु ज्ञान के स्तर पर यह कार्य कठिन नहीं है। क्योंकि यहाँ तादात्म्य नहीं रहता है अतः पृथकता का बोध सुस्पष्ट रूप से होता है। किन्तु इसके बाद क्रमशः उसे शरीर से, मनोवृत्तियों से एवं स्वयं के रागादिक भावों से अपनी मित्रता का बोध आत्मा नहीं है क्योंकि वह कुछ नहीं जानता अतः वर्ण करना होता है, जो अपेक्षाकृत रूप से कठिन और कठिनतर है, अभ्य है और आत्मा अन्य है, ऐसा जिन कहते हैं । क्योंकि यहाँ इनके और हमारे बीच तादात्म्य का बोध बना गन्ध आत्मा नहीं है क्योंकि वह कुछ नहीं जानता अतः रहता है फिर भी हमें यह जान लेना होगा कि जो कुछ पर के गन्ध अन्य है और आत्मा अन्य है, ऐसा जिन कहते हैं । निमित्त से है वह हमारा स्वरूप नहीं है। हमारे रागादि भाव रस आत्मा नहीं है क्योंकि वह कुछ नहीं जानता अतः रस भी पर के निमित्त से हो हैं । अतः वे हममें होते हुए भी हमारा अन्य है और आत्मा अन्य है. ऐसा जिन कहते हैं । निजस्वरूप नहीं हो सकते हैं। यद्यपि ने आस्था में होते हैं फिर भी आत्मा से भिन्न हैं, क्योंकि उसका निजरूप नहीं है। जैसे गरम पानी में रही हुई उष्णता, उसमें रहते हुए भी उसका स्वरूप स्पर्श आत्मा नहीं है क्योंकि वह कुछ नहीं जानता अतः रूप अन्य है और आत्मा अन्य है। ऐसा जिन कहते हैं। कर्म आत्मा नहीं है, क्योंकि कर्म कुछ नहीं जानते बतः कर्म नहीं है, क्योंकि वह अति के संयोग के कारण है वैसे हो रामावि अन्य है और आत्मा अन्य है, ऐसा जिन कहते हैं । अध्यवसाय आत्मा नहीं है. क्योंकि अध्यवसाय कुछ नहीं जानते (मनोभाव भी किसी के द्वारा जाने जाते है वे स्वतः कुछ नहीं जानते, यथा— क्रोध के भाव को जानने वाला ज्ञायक उससे भिश है) अतः अध्यवसाय अन्य है और आत्मा अन्य है । भाव आत्मा में होते हुए भी उसका अपना स्वरूप नहीं हैं। यह स्वस्वरूप का बोध ही जैन साधना का सार है जिसकी विधि है विज्ञान अर्थात् जो से भिन्न है उसे (पर) के रूप में जानकर उसमें रहो हुई तादात्म्यता के बोध को तोड़ देना । ममता बन्धन शिथिल हो जाता है। वस्तुतः जब माधक इस भेदविज्ञान के द्वारा यह जान लेता है कि पर क्या है तो उस पर के प्रति उसका अपनेपन का भाव भी समाप्त हो जाता है। वस्तुतः जो कुछ भी पर है, अपने से भिन्न है वह सब सांयोगिक है अर्थात् संयोगवश हो हमें मिला है। जो संयोगवश मिला है. उसका विमोध भी अनिवार्य है, जिसका वो होता है वह हमारे लिए दुःख का कारण ही है। इसीलिए बोद्ध परम्परा में भी कहा गया है जो अनात्म है अर्थात् पराया है वह अनित्य है। अर्थात् उसका वियोग या नाम अपरिहार्य है और जिसका वियोग या नाम अपरिहार्य है वह दुःख रूप ही है ।" हमारा बन्धन और दुःख इसीलिए है कि हम पहले आत्मबुद्धि स्थापित करते हैं फिर उसके वियोग या नाश से अथवा नाश की सम्भावना से दुःखी होते हैं। जैसाकि हम पूर्व में भी स्पष्ट कर चुके हैं दुःख या पीड़ा वहीं तक है जहाँ तक पर में आत्मभाव है। हमारे जीवन का एक सामान्य अनुभव है कि हम प्रतिदिन अनेकों को मरता हुआ देखते हैं वा सुनते हैं, किन्तु उनकी मृत्यु हमारे हृदय को विचलित नहीं करती, हम सामान्यतया दुःखी नहीं होते, क्योंकि उन पर हमारा कोई राय वस्तुतः अनात्म में भेदविज्ञान की इस प्रक्रिया में आत्मा सबसे पहले वस्तुओं भाव या ममत्व बुद्धि नहीं है, किन्तु जहां भी राग माव जुड़ आचार्य कुन्दकुन्द समयसार में इस भेद-विज्ञान की प्रक्रिया को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं- रूप आत्मा नहीं है क्योंकि वह कुछ नहीं जानता अतः रूप अन्य है और आत्मा अन्य है, ऐसा किन है। अपने शुद्ध ज्ञायक रवरूप की दृष्टि से आत्मा न राग है, न द्व ेष है, न मोह है, न क्रोध है, न मान है, न माया है, न लोभ हैं। अपने शुद्ध स्वरूप में वह इनका कारण और कर्ता भी नहीं है।" वस्तुत मारया जब अपने शुद्ध जाता स्वरूप में अवस्थित होता है, तो संसार के समस्त पदार्थ ही नहीं, वरन् उसकी अपनी चित्तवृत्तियाँ और मनोभाव भी उसे "पर" (स्त्र से भिन्न ) प्रतीत होते हैं। जब वह "पर" को पर के रूप में जान लेता है और उनसे अपनी पृथकता का बोध कर लेता है तब उसकी ममता या रागभाव समाप्त हो जाता है और वह अपने शुद्ध जायक स्व रूप को जानकर उसमें अवस्थित हो जाता है, यही वह अवसर होता है जब मुक्ति का द्वार उद्घाटित होता है, क्योंकि जिसने पर को पर के रूप में जान लिया है तो उसके लिए ममत्व या राग के लिए कोई स्थान नहीं रहता है। राग के गिर जाने पर वीतरागता का प्रकटन होता है और मुक्ति का द्वार खुल जाता है । १ समयसार, ३६२-४०३, नियमसार ७६-८१ । २३४/१/१/१:२४/१/१/४ २४/१/१/१२ । Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ | घरगानुयोग : प्रस्तावना जाता है, ममत्वबुद्धि स्थापित हो जाती है, हम किसी को अपना डाक्टर के मन में निरपेक्षता का भाव होता है । वे जो कुछ भी मानने लगते हैं वहीं पर उसकी मृत्यु या विवोग हमें सताता है। करते हैं कर्तव्यबुद्धि से करते हैं । एक ही काम एक व्यक्ति कर्तव्यअतः दुःख की निवृत्ति का कोई उपाय हो सकता है तो वह यही बुद्धि से करता है, एक ममत्वबुद्धि से। जो ममत्व बुद्धि से करता कि संसार की वस्तुओं या व्यक्तियों के प्रति हमारा रागभाव है, वह विचलित होता है, दुःखी होता है किन्तु जो कर्तव्यबुद्धि समाप्त हो और यह राग-भाद समाप्त हो सकता है, जबकि हम से करता है वह निरपेक्ष बना रहता है, तटस्थ बना रहता है। सम्यग्ज्ञान द्वारा आत्म-अनात्म के विवेक को प्राप्त कर सकते वस्तुतः सम्यग्ज्ञान का मतलब है कि हम संसार में जो कुछ भी हैं । सम्यग्ज्ञान क्या है इसे स्पष्ट करते हुए जैनागमों में कहा करें, जैसा भी जीयें, वह सब कर्तव्यबुद्धि से करें और जीयें, गया है ममत्वबुद्धि से नहीं, जो सांसारिक उपलब्धियां हैं और ओ सांसाएगो मे सासओ अप्पा पागदसण संजुओ। रिक पीड़ायें और दुःख हैं. उनके प्रति हमारा निरपेक्षभाव रहे, सेसा मे बहिरा मावा सम्वे संजोगलक्षणा ॥ हम उन्हें मात्र परिस्थिति जन्य समझें । सुख-दुःख, संयोग-वियोग अर्थात में जातादृष्टारूप अकेला आत्मा है। शेष सभी मान-अपमान, प्रशंसा और निन्दा -ये सब सांसारिक जीवन के मुमसे भिन्न हैं और सांयोगिक हैं। अनिवार्य तत्व है। कोई भी इनसे बच नहीं पाता, ज्ञानी और हमें यह स्मरण रखना होगा कि हमारी जो भी सांसारिक अज्ञानी दोनों के ही जीवन में सब तरह की परिस्थितियां आती उपलब्धियां हैं, चाहे वह धनसम्पदा के रूप में हों या पत्नी. पूत्र. हैं. अन्तर यही है कि जानी उन्हें जीवन की यथार्थता मानकर पुषी आदि परिवार के रूप में हो वह सभी केवल संयोगजन्य राम 1 से अर्थात् अपने चित्त की समता को नहीं खोते हुए उपलब्धियाँ हैं । व्यक्ति के लिए पत्नी सबसे निकट होती हैं. उनका देदन करता है, जबकि अज्ञानी उनमें विचलित हो जाता अन्यतमा होती है, किन्तु हम जानते हैं कि वह केवल एक मांयो- है, उनके कारण दुःखी होता है। कहा भी हैगिक उपलब्धि है। दो प्राणी कहीं किसी परिस्थिति के कारण सुख दुःख आपव सम्पदा, सब कार को होय । या संयोग के वश एक दूसरे के निकट आ जाते हैं, और एक शानो भुगते ज्ञान से, मूरख भुगते रोय ॥ दूसरे को अपना मान लेते हैं, वहीं पाएन भरता ही संस. वस्तुतः सम्यग्जान का अर्थ है जीवन की अनुकूल एवं है जो उसे बन्धन, दु:ख तथा दुश्चिन्ताओं से जकड़ लेता है, वह प्रतिकूल स्थितियों में अविचलित भाव से या समभाव से जीना । उसके लिए अच्छा-बुरा क्या-क्या नहीं करता। वस्तुतः सम्यग्ज्ञान जब ज्ञान के द्वारा जीवन और जगत् के यथार्थ स्वरूप का बोध का अर्थ है जीवन और जगत के यथार्थ स्वरूप को पहचानना। हो जाता है तो अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थिति में मन का वस्तुतः हम सम्यग्ज्ञान के अभाव में अनित्य को नित्य मान बैठते समभाव साधता है । ज्ञान के द्वारा मन में निराकुलता जगे, मन हैं, पराये को अपना मान बैठते हैं और इसी कारण फिर दुःखी तनावों से मुक्त हो यही साधना के क्षेत्र में ज्ञान की उपहोते हैं। हमारे यहाँ सम्यग्दृष्टि मा ज्ञानी की एक स्पष्ट पहनान योगिता है। बतायी गई है। कहा गया है कि सम्यक्चारित्र का स्वरूप सम्पवृष्टि जीवड़ा, करे कुटुम्ब प्रतिपाल । निश्चय दृष्टि से चारित्र का सच्चा अर्थ समभाय या समत्व अन्तरसू न्यारा रहे, ज्यों प्राय खिलावे याल ।। की उपलब्धि है । मानसिक या चत्तसिक जीवन में, समत्व की हम सब यह अच्छी तरह जानते हैं कि एक कर्तव्यनिष्ठ नर्स उपलब्धि चारित्र का पारमार्थिक या नैश्वयिक पक्ष है। वस्तुतः किसी बच्चे का लालन-पालन उसकी मां की अपेक्षा भी बहुत चारित्र का यह पक्ष आत्म-रमण की स्थिति है। श्चयिक अच्छी प्रकार से करती है, एक कर्तव्यनिष्ठ डाक्टर विसी व्यक्ति चारित्र का प्रादुर्भाव केवल अप्रमत्त अवस्था में ही होता है। के जीवन को बचाने के लिए उसके पारिवारिक जनों की अपेक्षा अप्रमत्त चेतना की अवस्था में होने वाले सभी कार्य शुद्ध ही माने अच्छी प्रकार से उस रोगी की परिचर्या करता है किन्तु नर्स गये हैं । चेतना में जब राग, द्वेष, कषाय और वासनाओं की और डाक्टर दोनों ही क्रमशः बालक और रोगी की पीड़ा और अग्नि पूरी तरह शांत हो जाती, तभी सच्चे नैतिक एवं धार्मिक मृत्यु से उत्तने विचलित नहीं होते, जितने कि उनके पारिवारिक जीवन का उद्भव होता है और ऐसा ही सदाचार मोक्ष का जन होते हैं। ऐसा क्यों होता है ? इसका कारण स्पष्ट है, कारण होता है। अप्रमत्त चेतना जो कि नश्वविक चारित्र का पारिवारिकजनों के प्रति हमारे मन में एक ममस्वभाव होता है, आधार है, राग, द्वेष, कषाय, विषय वासना, आलस्य और एक अपनापन होता है, रागात्मकता होती है जबकि नर्स और निद्रा से रहित अवस्था है। साधक जव जीवन की प्रत्येक क्रिया १ बन्यावेज्मय पहष्ण १६० । Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सदाचरण : एक बौशिक विमर्श | २५ के सम्पादन में आत्मजाग्रत होता है तब उसका आचरण बाह्य अन वर्शन में मंतिक प्रतिमानों का अनेकान्तबाद! आवेगों और वासनाओं से चलित नहीं होता और तभी वह सच्चे वस्तुतः मनुष्यों की नीति-सम्बन्धी अवधारणाओं मापदण्डों अथों में नैश्चयिक चारित्र का पालनकर्ता माना जाता है । वस्तुतः या प्रतिमानों की विविधता ही नैतिक निर्णयों को भिन्नता का शाता-द्रष्टा बनकर जीवन जीना ही निश्चय सम्यक्चारित्र है। कारण मानी जा सकती है। जब भी हम किसी आचरण का व्यावहारिक सम्यक-चारित्र का अर्थ आरमनियन्त्रण या नैतिक मूल्यांकन करते है तो हमारे सामने नीति सम्बन्धी कोई संयम है। पूर्व में मानव प्रकृति की चर्चा करते हुए हमने इस दण्ड, रिना R15 (Etanturi, श्या होता है, बात को स्पष्ट करने का प्रयत्न किया था कि मनुष्म और पशु जिसके आधार पर हम व्यक्ति के चरित्र, आचरण अथवा कर्म में यदि कोई अन्तर है तो वह यह कि मनुष्य में आत्मनियन्त्रण का नैतिक मूल्यांकन (Moral valuation) करते हैं। विभिन्न या संयम की सामध्यं होती है, जबकि पशु में उस सामर्थ्य का देश, काल, समाज और संस्कृतियों में ये नैतिक मापदण्ड या अभाव होता है। पशु विशुद्ध रूप से एक प्राकृतिक जीवन जीता प्रतिमान अलग-अलग रहे हैं और समय-समय पर इनमें परिवर्तन है, उसका समस्त व्यवहार प्रकृति के नियमों के अनुसार संचा- होते रहे हैं। प्राचीन ग्रीक संस्कृति में जहाँ साहस और न्याय लित होता है । भूखा होने पर वह खाच सामग्री को प्राप्त करता को नैतिकता का प्रतिमान माना जाता था, वहीं परवर्ती ईसाई है और उसका उपभोग करता है, किन्तु भूख के अभाव में वह संस्कृति में सहनशीलता और त्याग को नैतिकता का प्रतिमान उपसब्ध खाद्य सामग्री को छूना तक नहीं है। इसके विपरीत माना जाने लगा। यह एक वास्तविकता है कि नैतिक प्रतिमान मनुष्य ने प्रकृति से विमुख होकर जीवन जीने की एक शैली या नैतिकता के मापदण्ड अनेक रहे हैं तथा विभिन्न व्यक्ति और विकसित कर ली है। भूख से पीड़ित होकर एवं खाद्य विभिन्न समाज अलग-अलग नैतिक प्रतिमानों का उपयोग करते सामग्री के उपलब्ध होने पर भी वह खाने से इन्कार कर सकता रहे हैं। मात्र यही नहीं, एक ही व्यक्ति अपने जीवन में भिन्नहै, तो दूसरी ओर वह पेट भरा होने पर भी अपनी प्रिय खाद्य भित्र परिस्थितियों में भिन्न-भिन्न नैतिक प्रतिमानों का उपयोग सामग्री के लिए व्याकुल हो सकता है वह उसका उपभोग कर करता है । नैतिक प्रतिमान के इस प्रश्न पर न केवल जनसाधारण लेता है। मनुष्य में एक ओर बासना की तीव्रता है तो दूसरी में अपितु नीतिवेत्ताओं में भी गहन मतभेद है। ओर संयम की क्षमता भी है । वस्तुतः यह संयम उसकी साधना नैतिक प्रतिमानों (Moral Standards) को इस विविधता का मूल तत्व है। यह संयम ही उसे पशुत्व से ऊपर साकर और परिवर्तनशीलता को लेकर अनेक प्रश्न उपस्थित होते हैं । देवरव तक पहुँचाता है जबकि संयम के अभाव में पशु से भी क्या कोई ऐसा सार्वभौम नैतिक प्रतिमान सम्भव है, जिसे सार्वनीचे उतर जाता है एक दरिदा या राक्षस बन जाता है। यह लोकिक और सार्वकालिक मान्यता प्राप्त हो? यद्यपि अनेक संयम साधना ही जैन धर्म और जैनाचार का मूल तत्व है। नीतिवेताओं ने अपने नैतिक प्रतिमान को सार्वलौकिक, सार्वसदाचार या सम्यक चारित के स्वरूप को विस्तृत चर्चा के पूर्व कालीन एवं सार्वजनीन सिद्ध करने का दावा अवश्य किया है, हमें सदाचार या दुराचार के मूलभूत दार्शनिक प्रश्नों की चर्चा किन्तु जब वे ही आपस में एकमत नहीं हैं तो फिर उनके इस करनी होगी। दावे को कैसे माग्य किया जा सकता है ? नीतिशास्त्र के इतिहास जैन आचार शास्त्र की प्रमुख समस्याएं की नियमवादी परम्परा में कबीले के बाह्य नियमों की अब __ जैन आचार के प्रमुख प्रश्नों में सबसे प्रथम प्रश्न यह है कि धारणा से लेकर अन्तरात्मा के बादेश तक तथा साध्यवादी जैनधर्म में सदाचार-दुराचार का आधार क्या है। वह कौनसा परम्परा में स्थल स्वार्थमूलक सुखवाद से प्रारम्भ करके बुद्धिवाद, मानदण्ड है, जिसके आधार पर किमी कर्म को सदाचार या पूर्णतावाद और मूल्यवाद तक अनेक नैतिक प्रतिमान प्रस्तुत किये दुराचार की संज्ञा देते हैं । इसके साथ आचारशास्त्र की दूसरी गये हैं। समस्या यह कि क्या कोई भी कर्म या आपार निरपेक्ष रूप से यदि हम नैतिक मूल्यांकन का आधार नैतिक बावगा सदाचार या दुराचार बना रहा है अथवा देश, काल और परि- (Moral Sentiments) को स्वीकार करते हैं तो नैतिक मूल्यांकन स्थिति के आधार पर उममें परिवर्तन होता है। तीसरा इसी से में एकरूपता सम्भव नहीं होगी, क्योंकि व्यक्तिनिष्ठ नैतिक जुड़ा हुआ उत्सर्ग मार्ग और अपवाद मार्ग का प्रश्न है। आगे आवेगों में विविधता स्वाभाविक है। नैतिक आवेगों की इस हम इन्हीं प्रश्नों पर पर्चा करेंगे। विविधता को समकालीन विचारक एडवई वैस्टरमार्क ने स्वयं १ विस्तृत विवेचन के लिए देखें-जैन, बौद्ध और गीता के आचार वर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन भाग १, अध्याय ५,५.१९६ १७४। Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ ! परणानुयोग : प्रस्तावना स्वीकार किया है। उनके अनुसार इस विविधता का कारण तीनों बातें हमारी अन्तरात्मा को और उसके निर्णयों को प्रभाव्यक्तियों के परिवेश, धर्म और विश्वासों में पायी जाने वाली वित करती हैं । भिन्नता है। जो विचारक कर्म के नैतिक औचित्य एवं अनौचित्य इसी प्रकार साध्यवादी सिद्धांत भी किसी सार्वभौम नैतिक के निर्धारण के लिए विधानवादी प्रतिमान अपनाते हैं और जाति, मानदण्ड का दावा नहीं कर सके हैं। सर्वप्रथम तो ससमें इस प्रश्न समाज, राज्य या धर्म द्वारा प्रस्तुत विधि-निषेध (यह करो और को लेकर ही मतभेद है कि मानव जीवन का साध्य क्या हो यह मत करो) की नियमावलियों को नैतिक प्रतिमाम स्वीकार सकता है ? मानवतावादी विचारक, जो मानवीय गुण के विकास करते हैं. उनमें भी प्रथम तो इस प्रश्न को लेकर ही मतभेद है को ही नैतिकता की कसौटी मानते हैं इस बात पर परस्पर कि जाति (समाज), राज्य शासन और धर्मग्रन्ध द्वारा प्रस्तुत सहमत नहीं है कि आत्म-चेतना, विवेकशीलता और संघम में अनेक नियमावलियों में से किसे स्वीकार किया जाये? पुनः किसे सर्वोच्च मानवीय गुण माना जाए। समकालीन मानवता. प्रत्येक जाति, राज्य और धर्मग्रन्थ द्वारा प्रस्तुत ये नियमावलियां वादियों में जहां वारनर फिटे आत्ममेतनता को प्रमुख मानते है, भी अलग-अलग हैं। इस प्रकार बाह्य विधानवाद नैतिक प्रतिमान बहाँ सी० पी० गर्नेट और इसाइल लेकिन विवेकशीलता को तया का कोई एक सिद्धांत प्रस्तुत कर पाने में असमर्थ है । समकालीन इरविंग बविट बारमसंयम को प्रमुख नैतिक गुण मानते हैं । अनुमोदनात्मक सिद्धांत (Approhative Theories) जो नैतिक साध्यवादी परम्परा के सामने यह प्रश्न भी महत्वपूर्ण रहा है प्रतिमान को वैयक्तिक, रुचि-सापेक्ष अथवा सामाजिक एवं धार्मिक कि मानवीय चेतना के ज्ञानात्मक, अनुभूत्यात्मक और संकल्पाअनुमोदन पर निर्भर मानते हैं, किसी एक सार्वभौम नैतिक प्रति- त्मक पक्ष में से किसकी सन्तुष्टि को सर्वाधिक महत्व दिया गान का दावा करने में असमर्थ है। व्यक्तियों का विविध्य जाए। इस सन्दर्भ में सुग्धबाद और बुद्धिवाद का विवाद तो और सामाजिक आदर्शों में पायी जाने वाली भिन्नताएं सुस्पष्ट ही सुप्रसिद्ध ही है। सुखदाद जहाँ मनुष्य के अनुभूस्वात्मक (वासना. हैं। धार्मिक अनुशंसा भी अलग-अलग होती है । एक धर्म जिन स्मक पक्ष की सन्तुष्टि को मानव जीवन का साध्य घोषित कर्मों का अनुमोदन करता है और उन्हें नैतिक ठहराता है, दूसरा करता है। वहां बुद्धिवाद भावना निरपेक्ष बुद्धि के आदेशों के धर्म उन्ही कर्मों को निषिद्ध और अनैतिक ठहराता है। वैदिक परिपालन में ही नैतिक कर्तव्य को पूर्णता देखता है। इस प्रकार धमं और इस्लाम जहाँ पशुबलि को वैध मानते हैं, वहीं जैन, सुखदाद और बुद्धिवाद के नैतिक प्रतिमान एक दूसरे से भिन्न वैष्णव और दौद्ध धर्म उसे अनैतिक और अवैध मानते हैं। हैं। इसका मूल कारण दोनों की मूल्यवृष्टि की भित्रता है, एक निष्कर्ष यही है कि वे सभी सिद्धांत किसी एक सार्वभौम नैतिक मोगवाद का समर्थक है, तो दूसरा वैराग्यवाद का। मात्र यही प्रतिमान का दावा करने में असमर्थ हैं, जो नैतिकता की कसौटी, नहीं, सुखवादी विचारक भी "कौन-सा मुन्न साध्य है ?" इस वयत्तिक रुचि, सामाजिक अनुमोदन अथवा धर्मशास्त्र की अनु- प्रश्न पर एकमत नहीं है? कोई वैयक्तिक सुख को साध्य बताता शंसा को मानते हैं। है तो कोई समष्टि सुख को अथवा अधिकतम लोगों के अधिकअन्तःप्रज्ञावाद अथवा सरल शब्दों में कहें तो अन्तरात्मा के तम सुख को। पुनः यह सुख, ऐन्द्रिक सुग्ष हो या मानसिक सुख अनुमोदन का सिद्धांत भी किसी एक नैतिक प्रतिमान को दे पाने हो अथवा आध्यारिमक आनन्द हो, इस प्रश्न पर भी मतभेद है । में असमर्थ है। यद्यपि यह कहा जाता है कि अन्तरात्मा के वैराग्यबादी परम्पराएँ भी सुख को साध्य मानती हैं. किन्तु बे निर्णय सरल, सहज और अपरोक्ष होते हैं, फिर भी अनुभव यही जिस सुख की बात करती हैं वह सुख वस्तुगत नहीं है, वह इच्छा, बताता है कि अन्तरात्मा के निर्णयों में एकरूपता नहीं होती। आसक्ति या तृष्णा के समाप्त होने पर चेतना की निन्द्र, प्रयम तो स्वयं अन्तःप्रजावादी ही इस सम्बन्ध में एकमत नहीं हैं तनावरहित, समाधिपूर्ण अवस्था है। इस प्रकार मुख को साध्य कि इस अन्तःप्रज्ञा की प्रवृति क्या है. यह बौद्धिक है या भावना- मानने के प्रश्न पर उनमें अम सहमति होते हुए भी उनके परक । पुनः यह मानना कि सभी की अन्तरात्मा एक-सी है, नैतिक प्रतिमान भिन्न-भिन्न ही होंगे, क्योंकि सुख की प्रकृतियाँ ठीक नहीं है, क्योंकि अन्तरात्मा को संरचना और उसके निर्णय भिन्न-भिन्न हैं। भी व्यक्ति के संस्कारों पर आधारित होते हैं । पशुबलि के सम्बन्ध मद्यपि पूर्णतावाद मात्मोपलब्धि को साध्य मानकर सुखवाद में मुस्लिम एवं जैन परिवारों में संस्कारित व्यक्तियों के अन्तरात्मा और बुद्धिवाद के बीच समन्वय साधने का प्रयत्न अवश्य करता के निर्णय एक समान नहीं होंगे । अन्तरास्मा कोई सरल तथ्य है. किन्तु वह इस प्रयास में सफल हुआ है. यह नहीं कहा जा नहीं है, जैसाकि अन्तःप्रज्ञावाद मानता है, अपितु यह विवेकात्मक सकता । पुन: वह भी किसी एक सार्वभौम नैतिक प्रतिमान को चेतना के विकास, पारिवारिक एवं सामाजिक संस्कारों तथा प्रस्तुत कर सकता है, यह मानना भ्रांतिपूर्ण है। क्योंकि व्यक्तियों परिवेशजन्य तथ्यों द्वारा निर्मित एक जटिल रचना है और ये के हित न केवल भिन्न-भिन्न हैं, अपितु परस्पर विरोधी भी हैं। Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सवाधरण : एक मौद्धिक विमर्श | २७ रोगी का कल्याण और शामटर का कल्याण एक नहीं है, श्रमिक इस प्रकार हम देखते हैं कि नैतिक प्रतिमान के प्रथम पर न का कल्याण उसके स्वामी के कल्याण से पृयक ही है, किसी केवल विविध दृष्टिकोणों से विचार हुआ है, अपितु उसका प्ररप्रेक आमाम मुथ (Universal good) की बात कितनी ही आक- सिद्धांत स्वयं भी इसने अन्तविरोधों से युक्त है कि वह एक सार्वकक्यों हो, वह प्रांति ही है। देवक्तिक हिनों के योग के भौम मैतिक पारदण्ड होने का दावा करने में असमर्थ है। आज अतिरिक्त सामान्य हित (Caninion gaod) मात्र अमूर्त कल्पना भी इस सम्बन्ध में किपी सर्वमान्य सिद्धांत का अभाव है। न केवल व्यक्तियों के हित या शुभ अलग-अलग होगे अपितु वस्तुतः नैतिक मानदण्डों को यह विविधता स्वाभाविक ही हो मित्र परिस्थितियों में एक व्यक्ति के हित भी पृथक-पृथक् है और जो लोग किसी एक सर्वमान्य नैतिक प्रतिमान की बात । एक ही व्यक्ति दो भिन्न-भिन्न स्थितियों में दाता और करते हैं वे कल्लनालोक में ही विचरण करते हैं। नैतिक प्रतिमानों याचक बोनों हो सकता है. किन्तु क्या दोनों स्थितियों में उसका को एस विविधता के कई कारण है। सर्वप्रथम तो नैतिकता और हित समान होगा? समाज में एक का हित दूसरे के हित का अनैतिकता का यह प्रयन उस मनुष्य के मन्दर्भ में है जिसकी प्रकृति बाधक हो सकता है। मात्र यही नहीं, हमारा एक हित हमारे ही बहुआयामी (Multi dimensional) और अन्तविरोधों से परिपूसरे हित में बाधक हो सकता है । रसनेन्द्रिय या यौन वामना पूर्ण है । मनुष्य केवल चेतनसत्ता नहीं है, अपितु चलनायुक्त शरीर सन्तुष्टि के हित और स्वास्य-माधी दिा (Gand) गाणी है, यह केवल व्यक्ति नहीं है, अपितु ममाज में जीने वाला व्यक्ति हों, यह बावश्यक नहीं है। वस्तुतः यह धारणा कि मनुष्य का या है। उसके अस्तिस्त्र में वासना और विवेक तथा वैयक्तिकता और मनुष्यों का कोई सामान्य शुभ है अपने बाप अथार्थ है, जिसे सामाजिकता के तत्व समाहित हैं। वहां हमें यह भी समझ लेना हम सामान्य शुभ कहना चाहते है वह विभिन्न गुभों का एक ऐसा है कि वासना और विवेक में तथा व्यक्ति और समाज में स्त्र ना है, जिसमें न केवल भिन्न-भिन्न शुभों को पृथक-पृथक भावतः संगति (Harmony) नहीं है। वे स्वभावत: एक-दूसरे सत्ता है, अपितु वे एक दूसरे के विरोध में भी खड़े हुए हैं। शुभ के विरोध में है। मनोवैज्ञानिक भी यह मानते हैं कि "हा" एक नही, अनेक हैं और उनमें पारस्परिक बिरोध भी है। क्या (वासना-तत्व) और "सुपर-ईगो" (आदर्श वात्मनाम और आत्मत्याग के बीच कोई विरोध नहीं है ? यदि चेतना के समक्ष प्रतिपक्षी के रूप में ही उपस्थित होते हैं। उसमें पूर्णतावादी निम्न आत्मा (Lower Self) के त्याग द्वारा उच्चा- समर्पण और शासन की दो विरोधी मूल प्रवृत्तिया एक साथ स्मा (Higher Self) के लाभ की बात कहते हैं तो वे जीवन काम करती हैं। एक ओर वह अपनी अस्मिता को बचाये रखना के इन दो पक्षों में विरोध स्वीकार करते हैं । पुनः निम्नास्मा भी चाहता है तो दूसरी ओर अपने व्यक्तित्व को व्यापक बनाना इमारीमात्मा है और यदि हम उसके निषेध की बात स्वीकार चाहता है. समाज के साथ जुड़ना चाहता है। ऐसे बहुमायामी करते हैं तो हमें पूर्णतावाद के सिद्धांत को छोड़कर प्रकारान्तर एवं अन्तनिरोधों से युक्त ससा के शुभ या हित एक नहीं. अनेक द मा वैराग्यबाद वो ही स्वीकार करना होगा। इमी होंगे और जब मनुष्य के शुभ या हित (good) हो विविध है तो प्रकार वैयक्तिक आत्मा और सामाजिक शात्मा का अयचा स्वार्थ फिर नैतिक प्रतिमान भी विविध ही होंगे। किती परम शुभ और परार्थ का अन्तविरोध, भी समाप्त नहीं किया जा सकता (Ultimate gaad) की कल्पना परम सत्ता (Ultimate reality) है। इसीलिए मूल्यवाद किसी एक मूल्य की बात न कहकर के प्रसंग में चाहे सही भी हो, किन्तु मानवीय अस्तित्व के प्रसंग "मूल्यों" या "मूल्य-विश्व" की बात करता है। मूल्यों की में सही नहीं है। मनुष्य को मनुष्य मानकर चलना होगाविपुलता के इस सिद्धांत में नैतिक प्रतिमान की विविधता स्व. ईश्वर मानकर नहीं, और एक मनुष्य के रूप में उसके हित या भावतया ही होगी, क्योंकि प्रत्येक मूल्य का मूल्यांकन किसी माध्य विविध ही होंगे। साथ ही हिनों या साध्यों की यह इण्टि विशेष के आधार पर ही होगा। चूंकि मनुष्यों की जीवन विविधता मंतिक प्रतिमानों की अनेकना को ही सुचित करेगी। पुष्टियाँ या मूल्प दृष्टियाँ विविध है, अतः उन पर आधारित नतिक प्रतिमान का आधार व्यक्ति की जीवन-दृष्टि या नैतिक प्रतिमान भी विविध ही होंगे। पुनः, मूल्यवाद में मस्यों मूल्य-दृष्टि होगी, किन्तु व्यक्ति की मूम्प्रदूष्टि या जीवन-दृष्टि के तारतम्य को लेकर सदैव ही विवाद रहा है। एक दृष्टि से व्यक्तियों के बौद्धि पिकाम, संस्कार एवं पर्यावरण के आधार जो सर्वोच्च मुल्य लगता है, वही दूसरी दृष्टि से निम्न मूल्य हो पर हो निनित होती है। पक्तियों के बौद्धिक विकास, पर्यावरण सकता है। मनुष्य की जीवनदृष्टि या मूल्पदृष्टि का निर्माण भी और संस्कारों में भिन्नता स्वाभाविक हैं, अतः उनकी मूल्यस्वयं उसके संस्कारों एवं परिवेशजन्य तथ्यों से प्रभावित होता दुष्टिका अनग-अलग होमी और यदि मूल्य-दृष्टियाँ भिन्न-भिन्न है, अत: मूल्यवाद नैतिक प्रतिमान के सन्दर्भ में विविधता की होगी तो नैतिक प्रतिमान भी विविध होंगे। यह एक आनुभविक धारणा को ही पुष्ट करता है। तथ्य है कि विविध दृष्टिकोणों के आधार पर एकही पटना का - Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ ] चरणानुयोग : प्रस्तावना नैतिक मूल्यांकन अलग-अलग होता है। उदाहरण के रूप में, व्यक्ति की नैतिक कसौटी अन्तर्राष्ट्रीयता के समर्थक व्यक्ति की परिवार नियोजन को धारणा जनसंख्या के बाहुल्य वाले देशों नैतिक कसौटी से पृथक होगी। पूंजीवाद और साम्यवाद के की दृष्टि से चाहे उचित हो, किन्तु अल्प जनसंख्या वाले देशों नैतिक मानदण्ड भिन्न-भिन्न ही रहेंगे । अतः हमें नैतिक मानदण्डों एवं जातियों की दृष्टियों से अनुचित होगी। राष्ट्रवाद अपनी की अनेकता को स्वीकार करते हुए यह मानना होगा कि प्रत्येक प्रजाति की अस्मिता को दृष्टि से चाहे अच्छा हो, किन्तु सम्पूर्ण नैतिक मानदण्ड अपने उरा कृष्टिकोण के आधार पर ही सत्य है। मानवता की कि गुपित है। इस बार एकर कुछ लोग यहाँ किसी परम शुभ की अवधारणा के आधार जातिवाद एवं सम्प्रदायवाद को कोसते हैं तो दूसरी ओर भारती- पर किसी एक नैतिक प्रतिमान का दावा कर सकते है। किन्तु बह पता के नाम पर अपने को गौरवान्वित अनुभव करते हैं । क्या परम शुभ या तो इन विभिन्न शुभों या हितों को अपने में अन्तहम यहाँ दोहरे मापदण्ड का उपयोग नहीं कर रहे हैं ? स्वतन्त्रता निहित करेगा, या इनसे पृथक होगा, यदि वह इन भिन्न-भिन्न की बात को ही लें । क्या स्वतन्त्रता और सामाजिक अनुशासन मानवीय शुभों को अपने में अन्तर्निहित करेगा तो वह भी नैतिक सहगामी होकर पल सकते हैं ? आपातकाल को ही लीजिये, प्रतिमानों की अनेकता को स्वीकार करेगा, और यदि वह इन वयक्तिक स्वतन्त्रता के हनन की दृष्टि से या नौकरशाही के हावी मानवीय शुभों से पृथक् होगा तो नीतिशास्त्र के लिए व्यर्थ ही होने की दृष्टि से हम उसकी आलोचना कर सकते हैं किन्तु होगा; क्योंकि नीतिशास्त्र का पूरा सन्दर्भ मान-सन्दर्भ है। अनुशासन बनाये रखने और अराजकता को समाप्त करने की नैतिक प्रतिमान का प्रश्न तभी तक महत्वपूर्ण है जब तक मनुष्य दृष्टि से उसे उचित ठहराया जा सकता है। वस्तुत: उचितता मनुष्य है, यदि मनुष्य २. नुष्य के स्तर से ऊपर उठकर देवत्व को और अनुचितता का मूल्यांकन किसी एक दृष्टिकोण के आधार प्राप्त कर लेता है या मनुष्य के स्तर से नीचे उतरकर पशु वन पर न होकर विविध दृष्टिकोणों के आधार पर होता है, जो एक जाता है तो उसके लिए नैतिकता या अनैतिकता का कोई अर्थ दृष्टिकोन या अपेक्षा से नैतिक हो सकता है, वही दूसरे दृष्टिकोण ही नहीं रह जाता है और ऐसे यथार्थ मनुष्य के लिए नैतिकता या अपेक्षा से अनुचित हो सकता है जो एक परिस्थिति में उचित के प्रतिमान अनेक ही होंगे । नैतिक प्रतिमानों के सन्दर्भ में यही हो सकता है, वहीं दूसरी परिस्थिति में अनुचित हो सकता है। अनेकान्तदृष्टि सम्यग्दृष्टि होगी। इसे हम नैतिक प्रतिमानों का जो एक व्यक्ति के लिए उचित है, वही दुसरे के लिए अनुचित अनेकान्तवाद कह सकते हैं। हो सकता है। एक स्थूल शरीर वाले व्यक्ति के लिए स्निग्ध बन दर्शन में समाचार का मानवण्ड पदार्थों का सेवन अनुचित है, किन्तु कृशकाय व्यक्ति के लिए फिर भी मूल प्रश्न यह है कि जैन दर्शन का चरम साध्य उचित है। अत: हम कह सकते हैं कि नैतिक मूल्यांकन के विविध क्या है ? जैन दर्शन अपने चरम साध्य के बारे में स्पष्ट है। दुष्टिकोण हैं और इन विविध दृष्टिकोणों के आधार पर विविध उसके अनुसार व्यक्ति का चरम साध्य मोक्ष या निर्वाण की प्राप्ति नैतिक प्रतिभान बनते हैं, जो एक ही घटना का अलग-अलग है, वह यह मानता है कि जो आचरण निर्वाण या मोक्ष की नैतिक मूल्यांकन करते हैं। दिशा में जाता है वही सदाचार की कोटि में आता है। दूसरे नैतिक मूल्यांकन परिस्थिति सापेक्ष एवं दृष्टि-सापेक्ष मूल्यां- शब्दों में जो आचरण मुक्ति का कारण है वह सदाचार है, और कन हैं। अत: उनकी सार्वभौम सत्यता का दावा करना भी व्यर्थ जो आचरण बन्धन का कारण है, वह दुराचार है। किन्तु यहाँ है । किसी दृष्टि-दिशेष या अपेक्षा-विशेष के आधार पर ही वे पर हमें यह भी स्पष्ट करना होगा कि उसका मोक्ष अथवा सत्य होते हैं। संक्षेप में, सभी नैतिक प्रतिमान मूल्य-वृष्टि-सापेक्ष निर्वाण से क्या तासर्य है। जैन धर्म के अनुसार निर्वाण या हैं और मूल्य-दृष्टि स्वयं व्यक्तियों के बौद्धिक विकास, संस्कार मोक्ष स्वभाव-दशा एवं मात्मपूर्णता की प्राप्ति है। वस्तुतः हमारा तथा सांस्कृतिक, सामाजिक एवं भौतिक पर्यावरण पर निर्भर जो निज स्वरूप है उसे प्राप्त कर लेना अथवा हमारी बीजरूप करती है और चूंकि व्यक्तियों के बौद्धिक विकास, संस्कार तथा क्षमताओं को विकसित कर आत्मपूर्णता की प्राप्ति ही मोक्ष है। सांस्कृतिक, सामाजिक एवं भौतिक पर्यावरण में विविधता और उसकी पारम्परिक शब्दावली में परमाव से हटकर स्वभाव में परिवर्तनशीलता है, अतः नंतिक प्रतिमानों में विविधता या स्थित हो जाना ही मोक्ष है । यही कारण था कि जैन दार्शनिकों अनेकता स्वाभाविक ही है। ने धर्म की एक विलक्षण एवं महत्वपूर्ण परिभाषा दी हैं। उनके - वैयक्तिक शुभ की दृष्टि से प्रस्तुत नैतिक प्रतिमान मामा- अनुसार धर्म वह है जो वस्तु का निज स्वभाव है (बस्कुसहायो जिक शुभ की दृष्टि से प्रस्तुत नैतिक प्रतिमान से भिन्न होगा। सम्मो) व्यक्ति का धर्म या साध्य वही हो ममता है जो उसकी इसी प्रकार वासना पर आधारित नैतिक प्रतिमान विवेक पर चेतना या आत्मा का निज स्वभाव है और जो हमारा निज आधारित नैतिक प्रतिमान से अलग होगा। राष्ट्रवाद से प्रभावित स्वभाव है उसी को पा लेना ही मुक्ति है। अत: उस स्वभाव Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ T है सदाचरण एक बौद्धिक दिन | २६ दशा की ओर ले जाने वाला आचरण ही सदाचरण कहा जा जिसके द्वारा हम उसे पाना चाहते हैं और जिस रूप में वह सकता है । हमारे व्यवहार में और सामुदायिक जीवन में प्रकट होता है। जहां तक व्यक्ति के चैतसिक वा आन्तरिक समस्य का प्रश्न उसे वीतराग मनोदशा या अनासक्त चित्तवृत्ति की साधना मान सकते हैं। फिर भी समत्व की साधना का यह रूप हमारे वैयक्तिक एवं आन्तरिक जीवन से अधिक सम्बन्धित है। यह व्यक्ति की मनोदशा का परिचायक है। यह ठीक है कि व्यक्ति की मनोदशा का प्रभाव उसके आचरण पर भी होता है और हम व्यक्ति के आचरण का मूल्यांकन करते समय उसके इस आन्तरिक पक्ष पर विचार भी करते हैं किन्तु फिर भी यह सदाचार या दुराचार का प्रश्न हमारे व्यवहार के बाह्य पक्ष एवं सामुदायिक के साथ अधिक जुड़ा है। जब भी हम सदाचार एवं दुराचार के किसी मानदण्ड की बात करते है तो हमारी दृष्टि व्यक्ति के आचरण के बाह्य पक्ष पर अथवा उस बाधरण का दूसरों पर क्या प्रभाव या परिणाम होता है, इस बात पर अधिक होती है। सदाचार या दुराचार का प्रश्न केवल कर्ता के आन्त रिक मनोभावों या वैयक्तिक जीवन से सम्बन्धित नहीं है वह आचरण के बाह्य प्रारूप तथा हमारे सामाजिक जीवन में इसके आचरण परिणामों पर विचार करता है। यहाँ हमें सदाचार और दुराचार की व्याख्या के लिए कोई ऐसी कसोटी खोजनी होगी जो आचार के बाह्य पक्ष अथवा हमारे व्यवहार के सामा जिक पक्ष को भी अपने में समेट सके । सामान्यतया भारतीय चिन्तन में इस सम्बन्ध में एक समान्य दृष्टिकोण यह है कि परोपकार ही पुण्य है और परपीड़ा ही पाप है। सनी ने इसे निम्न शब्दों में प्रकट किया है पुनः प्रश्न यह उठता है कि हमारा स्वभाव क्या है ? व्यास्याप्रज्ञप्ति में गौतम ने भगवान महावीर के सम्मुख यह प्रश्न उपस्थित किया था। वे पूछते हैं, "भन्ते! आत्मा का निज स्वरूप क्या है और आत्मा का साध्य क्या है ?" महावीर ने उनके इन प्रश्नों का जो उत्तर दिया था वही आज भी समस्त जैन आचारदर्शन में किसी कर्म के नैतिक मूल्यांकन का बाधार है। महावीर ने कहा था, "आत्मा" समत्व स्वरूप है और उस समत्व स्वरूप को प्राप्त कर लेना ही आत्मा का साध्य है।" दूसरे शब्दों में समता स्वभाव है और विषमता विभाव है। और जो विभाव से स्वभाव की दिशा में अथवा विषमता से समता की दिशा में से जाता है नहीं धर्म है, नैतिकता है, सदाचार है। अर्थात् विषमता से समता की ओर ले जाने वाला आवरण ही सदाचार है। संक्षेप में जैन धर्म के अनुसार सदाचार या दुराचार के मानदण्ड समता एवं विषमता अथवा स्वभाव एवं विभाव के तत्व हैं । स्वभाव से फलित होने वाला आवरण सदाचार है और विभाव या परभाव से फलित होने वाला आचरण दुराचार है। यहाँ हमें समता के स्वरूप पर भी विचार कर लेना होगा । यद्यपि द्रव्यार्थिक नय की दृष्टि से समता का अर्थ परभाव से हटकर शुद्ध स्वभाव दशा में स्थित हो जाता है, किन्तु अपनी विविध अभिव्यक्तियों की दृष्टि से विभिन्न स्थितियों में इसे विभिन्न नामों से पुकारा जाता है। आध्यात्मिक दृष्टि से समता या स्वभाव का असे राग-द्वेष से ऊपर उठकर वीतरागता या अनासक्त भाव की उपलब्धि है। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से मानसिक समत्व का अर्थ है - समस्त इच्छाओं, आकांक्षाओं से रहित मन की शांत एवं विक्षोत्र ( तनाव ) रहित अवस्था । यही समत्व जब हमारे सामुदायिक या सामाजिक जीवन में फलित होता है तो इसे हम महिला के नाम से अभिहित करते हैं। वैचारिक दृष्टि से इसे हम मनाब या दृष्टि कहते हैं। जब हम समय के अर्थिक पक्ष से विचार करते हैं तो अपरिग्रह के नाम से जानते हैं । साम्यवाद एवं न्यासी- सिद्धांत इसी अपरिग्रह वृति की आधुनिक अभिव्यक्तियां है। यह समत्व ही मानसिक क्षेत्र अर्थात वह माचरण से दूसरों के लिए कल्याणकारी या हितकारी है सदाचार है. पुष्प है और जो दूसरों के लिए माणकारी है, अहितकर है, वही पाप है. दुराचार है। जैन धर्म में सदाचार के एक ऐसे ही मानदण्ड की चर्चा हमें आचारांग सूत्र में उपलब्ध होती हैं। वहाँ कहा गया है "भूतकाल में जितने अर्हत् हो गये हैं वर्तमान काल में जितने अहं हैं और भविष्य में अनमिता के रूप में सामाजिक क्षेत्र में हमें जितने होने के सभी यह उपदेश करते है कि सभी प्रामों अर्हतु में के रूप में, वैचारिकता के क्षेत्र में अनाग्रह या अनेकान्त के रूप में और आर्थिक क्षेत्र में अपरिग्रह के रूप में अभिव्यक्त होता है। अत: जैन धर्म के अनुसार समत्व निर्विवाद रूप से सदाचार का मानदण्ड स्वीकार किया जा सकता है। किन्तु "समय" को सदाचार का मानदण्ड स्वीकार करते हुए भी हमें उसके विविध पहलुओं पर विचार तो करना ही होगा क्योंकि सदाचार का सम्बन्ध अपने साध्य के साथ-साथ उन साधनों से भी होता है सभी भूतों, सभी जीवों और सभी सखों को किसी प्रकार का परिताप, उद्वेग या दुःख नहीं देना चाहिए, न किसी का हनन करना चाहिए। यहीं शुद्ध नित्य और शाश्वत है।" किन्तु मात्र दूसरे की हिला नहीं करने के आसा के निषेधात्मक पक्ष का या दूसरों के हित साधन को ही सदाचार की कसौटी नहीं माना जा सकता है। ऐसी अवस्थाएँ सम्भव हैं कि जब मेरे असत्य सम्भाषण एवं अनैतिक आचरण के द्वारा दूसरों का हित "परहित सरिम धरम नहिं भाई परपीड़ा सम नहि बधाई।" Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० | चरणानुयोग प्रस्तावना का होता मे साधन होता हो, अथवा कम सेक हो, किन्तु क्या ऐसे आचरण को सदाचार कहने का साहस कर सकेंगे ? क्या वेश्यावृत्ति के माध्यम से अपार धनराशि को एक त्रित कर उसे लोकहित के लिए व्यय करने मात्र से कोई स्त्री सदाचारी की कोटि में था सकेंगी ? अथवा यौन वासना की सन्तुष्टि के के रूप जिसमें किसी भी दूसरे प्राणी की हिला नहीं होती है, दुराचार की कोटि में नहीं आयेंगे? चारिता का एक ऐसा ही दावा अन्यतीर्थियों द्वारा प्रस्तुत भी किया गया था, जिसे महावीर ने अमान्य कर दिया था। क्या हम उस व्यक्ति को जो डाके डालकर उस सम्पत्ति को गरीबों में वितरित कर देता है, सदाचारी मान सकेंगे। एक चोर और एक सन्त दोनों ही व्यक्ति को सम्पत्ति के पाश से मुक्त करते हैं फिर भी दोनों समान कोटि के नहीं माने जाते । वस्तुतः सदाचार या दुराचार का निर्णय केवल एक ही आधार पर नहीं होता है। उसमें आचरण का प्रेरक आन्तरिक पक्ष अर्थात् उसकी मनोदशा और आचरण का बाह्य परिणाम अर्थात् सामाजिक जीवन पर उसका प्रभाव दोनों ही विचारणीय हैं। आचार को शुभाशुभता विचार पर और विचार या मनोभावों को शुभाशुभता स्वयं व्यवहार पर निर्भर करती है। सदाचार या दुराचार का मान दण्ड तो ऐसा होना चाहिए जो इन दोनों को समाविष्ट कर सके । के रूप में वह सामाजिक पाप रूप दुराचार की कोटि में ही आते हैं। अर्थ में हिंसा को दुराचार की और कसौटी माना जा सकता है। जैन दर्शन में सदाचार और दुराचार की सापेक्षता और निरपेक्षता का प्रश्न १ देखिए, गीता रहस्य, अध्याय २, कर्मजिज्ञासा । २ स्वयम्भू १०१ । साधारणतया जैन धर्म सदाचार का मानदण्ड अहिंसा को स्वीकार करता है, किन्तु यहाँ हमें यह विचार करना होगा कि क्या वे बल किसी को दुःख या पीड़ा नहीं देता या किसी को हत्या नहीं करना मात्र ही महिया है? यदि मयि को मानने इतनी ही व्याख्या है तो फिर यह सदाचार और दुराचार का मानदण्ड नहीं बन सकती। जबकि जैन आचार्यों ने सदैव ही उसे सदाचार का एकमात्र आधार प्रस्तुत किया है। आचार्य अमृत चन्द्र ने कहा है कि अनृतवचन, स्तेय मैथुन, परिग्रह आदि पापों के जो भिन्न-भिन्न नाम दिये गये वे तो केवल शिष्यबोध के लिए हैं। मूलतः तो वे सब हिंसा ही है। वस्तुतः जैन आचायों ने अहिंसा को एक व्यापक परिप्रेक्ष्य में विचारा है। यह आन्तरिक भी है और यह भी उसके सम्यन्य व्यक्ति भी हैं और समाज से भी इसे जैन परम्परा में स्त्र की हिंसा और पर की हिंसा ऐसे दो भागों में बांटा गया है। जब वह हमारे स्व-स्वरूप या स्वभाव दशा का घात करती है तो स्व-हिंसा है और जब वह दूसरों के हितों को चोट पहुँचाती है, वह पर की हिंसा है। स्व की हिंसा के रूप में वह आन्तरिक पाप है तो पर किन्तु उसके ये दोनों अतः अपने इस व्यापक अहिंसा को सदाचार की पश्चिम की तरह भारत में भी नैतिकता के सापेक्ष और निरपेक्ष पक्षों पर काफी गहन विचार हुआ है। नैतिक कर्मों को अपवादात्मकता और निरपवादिता की वर्षा के स्वर वेदों, स्मृति ग्रन्थों और पौराणिक साहित्य में काफी जोरों से सुनाई देते हैं ।" जैन विचारणा के अनुसार, नैतिकता को एकान्तिक रूप से न तो सापेक्ष कहा जा सकता है और न निरपेक्ष । यदि वह सापेक्ष है तो इसीलिए कि वह निरपेक्ष भी है । निरपेक्ष के अभाव में सापेक्ष सच्चर नहीं है। वह निरपेक्ष इसलिए है कि वह सापेक्षता से ऊपर भी है। नैतिकता की सापेक्षता एवं निरपेक्षता के प्रश्न का एकान्तिक हल जैन विचारणा प्रस्तुत नहीं करती। वह नैतिकता को सापेक्ष मानते हुए भी उसमें निरपेक्षता के सामान्य तत्व की अवधारणा करती है । वह सापेक्षिक नैतिकता की उस कमजोरी को स्पष्ट रूप से जानती थी कि उसमें नैतिक आदर्श के रूप में जिस सामान्य तत्व को आवश्यकता होती है, उसका अभाव होता है । सापेक्ष नैतिकता आचरण के तथ्यों को प्रस्तुत करती है, लेकिन आचरण के आदर्श को नहीं। यही कारण है कि जैन विचारणा ने भी इस समस्या के निराकरण के लिए ही समन्वयात्मक दृष्टिकोण अपनाया था जिसे स्पेन्सर और डिवी अपनी दार्शनिक पृष्ठभूमि के नवीन सन्दर्भों में वर्तमान 'युग प्रस्तुत किया है। इस प्रश्न पर गहराई से विचार करना आवश्यक है कि जैन नैतिकता किस अर्थ में सापेक्ष है और किस अर्थ में निरपेक्ष है। जैन तत्व ज्ञान अनेकान्त-सिद्धांत को आधार मानकर चलता हैं। उसके अनुसार, रात् अनन्त धर्मात्मक है, अतः सत् सम्बन्धी प्राप्त गारा ज्ञान आंशिक ही होगा, पूर्ण नहीं होगा । हम सब जो नैतिकता के क्षेत्र में आते हैं अथवा जो उसके आचरण में में अपनी अपूर्णता का स्पष्ट बोध है। अतः हम जो भी जानेंगे वह अपूर्ण ही होगा, सान्त होगा, समक्ष होगा, और इसलिए नांशिक एवं सापेक्ष होगा। और यदि ज्ञान हो सापेक्ष होगा तो हमारे नैतिक निर्णय भी, जो हम अपने प्राप्त ज्ञान के आधार पर देते हैं, सापेक्ष ही होंगे। इस प्रकार अनेकांत की धारणा से नैतिक निर्णयों की सापेक्षता निष्पन्न होती है। हुए हैं. पूर्ण Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सराचरण : एक बौद्धिक विमर्श ३१ आचरण के जिन तथ्यों को हम शुभ-अशुभ अथवा पुण्यापाप जी महाराज लिखते है कि बन्ध और निर्जरा (कर्मों की अनैतिके नाम से सम्बोधित करते हैं, उनके सन्दर्भ में साधारण व्यक्ति कता और नैतिकता) में भावों की प्रमुखता है, परन्तु भावों के द्वारा दिये गये निर्णय सापेक्ष ही हो सकते हैं। हमारे निर्णयों के साथ स्थान और क्रिया का भी मूल्य है। आचार्य हरिभद्र के देने में कम से कम कर्ता के प्रयोजन एवं कर्म के परिणाम के पक्ष ग्रन्थ 'अष्टकप्रकरण' की टीका मैं आचार्य जिनेश्वर दे चरकतो उपस्थित होते ही हैं । दूसरे व्यक्ति के आचरण के सम्बन्ध में संहिता का एक श्लोक उदधृत किया है, जिसका आशय यह है दिये गये हमारे अधिकांश निर्णय परिणाम-सापेक्ष होते हैं । जबकि कि देश, काल और रोगादि के कारण मानव जीवन में कभीहमारे अपने आचरण सम्बन्धी निर्णय प्रयोजन-सापेक्ष होते हैं। कभी ऐसी स्थिति भी आ जाती है जब अकायं कार्य बन जाता किसी भी व्यक्ति को न तो पूर्णतया यह ज्ञान होता है कि कर्ता का है. विधान निषेध की कोटि में चला जाता है और निषेध विधान प्रयोजन क्या था और न यह ज्ञान होता है कि उसके कमों का की कोटि में चला जाता है । इस प्रकार जैन नैतिकता में स्थान द्रों पर क्या परिण- नम: अतः जनसायद के नैतिक (देश), समय (काल), मनःस्थिति (भाव) और व्यक्ति इन चार निर्णय हमेशा अपूर्ण हो होंगे। आपेक्षिकताओं का नैतिक मूल्यों के निर्धारण में प्रमुख महत्व है। दूसरी ओर यह साग जगत ही अपेक्षाओं से युक्त है, क्योंकि अचरण के वर्म इन्हीं चारों के आधार पर नैतिक और अनैतिक जगत की प्रत्येक वस्तु अनन्त धर्मात्मक है। ऐसे जगत में आच- बनते रहते हैं । संक्षेप में, एकान्त रूप से न तो कोई आचरण, रित नैतिकता निरपेक्ष नहीं हो सकती। सभी कर्म देश, काल कर्म या क्रिया नैतिक है और न अनैतिक, वरन् देशकालगत अथवा व्यक्ति से सम्बन्धित होते हैं, इसलिए निरपेक्ष नहीं हो बाह्य परिस्थितियां और द्रव्य तथा भावगत परिस्थितियां उन्हें सकते । बाह्य जागतिक परिस्थितियां और कर्म को पीछे वैयक्तिक वैसा बना देती हैं। इस प्रकार जैन नैतिकता व्यक्ति के कर्तव्यों प्रयोजन भी आचरण को सापेक्ष बना देते हैं । के सम्बन्ध में अनेकान्तवादी या सापेक्ष दृष्टिकोण अपनाती है। जैन दृष्टिकोण वह यह भी स्वीकार करती है कि सामान्य स्थिति में कुल देवों एक ही प्रकार से आचरित कर्म एक स्थिति में नैतिक होता का पूजा अथवा दानादि कार्य, जो एक गृहस्थ के नैतिक कर्तव्य है और भिन्न स्थिति में अनंतिक हो जाता है। एक ही कर्म एक हैं, वे ही एक साधु मा संन्यासी के लिए अवर्तव्य होते हैंके लिए नैतिक हो सकता है, दूसरे के लिए अनैतिक। जैन अनैतिक एवं अनाचरणीय होते हैं। कर्तव्यावर्तव्य मीमांसा में विचारधारा आचरित कर्मों की नैतिक सापेक्षता को स्वीकार जैन विचारणा किसी भी ऐकान्तिक दृष्टिकोण को स्वीकार नहीं करती है। प्राचीनतम जैन आगम आचार्यय सूत्र में कहा गया करती। आचार्य हरिभद्र लिखते हैं कि सर्वज्ञ नीर्थ कर देवों ने न है कि जो आचरित कम आस्रव या बन्धन के कारण हैं वे भी किसी बात के लिए एकान्त विधान किया है और न एकान्त मोक्ष के हेतु हो जाते हैं और जो मोक्ष के हेतृ है, में भी बन्धन निषेध ही दिया है, उनका एक ही आदेश है कि जो कुछ भी के हेतु हो जाते हैं। इस प्रकार कोई भी अनसिक कर्म विशेष कार्य तुम कर रहे हो उसे सत्यभूत होकर करो, उसे पूरी प्रामापरिस्थिति में नैतिक बन जाता है और कोई भी नैतिक कम णिकता के साथ करते रहो।' आचार्य उमास्वाति का कथन है, विशेष परिस्थिति में अनैतिक बन सकता है। "नैतिक, अनैतिक, विधि (क्तं व्य), निषेध (अकर्तव्य), अथवा न केवल साधक की मनःस्थिति, जिसे जैन परिभाषा में आचरणीय (कल्प), अनाचरणीय (अकल्प) एकान्त रूप से नियत ''भाव" कहते हैं, आपरण के कर्मों का मूल्यांकन करती है, और नहीं हैं। देश, काल, व्यक्ति, अवस्था उपघात और विशुद्ध उसके साथ-साय जन विचारकों ने द्रव्य, क्षेत्र और काल को भी मनःस्थिति के आधार पर अनाचरणीय आदरणीय बन जाता है कर्मों की नैतिकता और अनंतिकता का निर्धारक तत्व स्वीकार और आचरणीय अनावरणीय ।"५ किया है। उत्तराध्ययन चूणि में कहा है, "तीर्थकर देश और उपाध्याय अमरमुनिजी जैन दर्शन की अनेकान्तदृष्टि के काल के अनुरूप धर्म का उपदेश करते हैं।"२ आचार्य बात्माराम आधार पर जैन नैतिकता के सापेक्षित दृष्टिकोण को स्पष्ट करते -- - - - - १ आचासंग, १/२/१३०; देखिए-श्री अमर भारती, मई १९६४, पृ. १५ । २ उत्तराध्ययनचूणि, २३ । ३ आचारसंग, हिन्दी टोका, पृ. ३७८ । ४ उपवेशपक; ७७६ । ५ प्रामरति-प्रकरण (उमास्वाति), १४६; तुलना कीजिए- ब्रह्मसूत्र (शां.), ३/१/२५; गीता (शा) ३/३५ तथा १८/४७-४ । Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२|परणानुयोग : प्रस्तावमा हुए लिखते हैं कि विभूवनोदर बिबरवर्ती समस्त असंख्येय भाव तथ्य उन्हें प्रभावित करते हैं। चाहे हम गैतिक मानदण्ड और अपने आपमें न तो मोक्ष का कारण हैं और न संसार का कारण नैतिक निर्णय को समाज-सापेक्ष माने या उन्हें वैयक्तिक मनोभावों हैं, साधक की अपनी अन्तःस्थिति ही उन्हें अपने और बुरे का की अभिव्यक्ति कहें, उनकी सापेक्षिकता में कोई अन्तर नहीं होता रूप दे देती है। अतः एकान्त रूप में न कोई आचरण शुभ है। संक्षेप में, सापेक्षतावादियों के अनुसार नैतिक नियम सार्वहोता है और न कोई अशुभ । इसे स्पष्ट करते हुए वे आगे कहते कालिक, सार्वदेश्चिक और सार्वजनिक नहीं हैं । जबकि निरपेक्षताहैं कि 'कुछ विचारक जीवन में उत्सर्ग (नैतिकता की निरपेक्ष वादियों का कहना है कि 'नैतिक मानक और नैतिक नियम या निशाद स्थिति) गोदकर बतर राहते हैं, जीवन में अपरिवर्तनीय, सार्वकालिक, सार्वदेशिक, सार्वजनिक और अपरिअपवाद का सर्वथा अपलाप करते हैं। उनकी दृष्टि में अपवाद बर्तनीय हैं, अर्थात् नैतिकता और अनैतिकता के बीच एक ऐसी (नैतिकता का सापेक्षित दृष्टिकोण) धर्म नहीं, अपितु एक महत्तर कठोर विभाजक रेखा है जो अनुल्लंघनीय है, नैतिक कभी भी पाप है। दूसरी ओर, कुछ साधक वे हैं जो उत्सर्ग को भूलकर अनैतिक नहीं हो सकता और अनैतिक कभी भी नैतिक नहीं हो केवल अपवाद का सहारा लेकर ही चलना चाहते हैं। ये दोनों सकता। नैतिक नियम देश, काल, समाज, व्यक्ति और परिस्थिति विचार एकांगी होने से उपादेय की कोटि में नहीं आ सकते। से निरपेक्ष हैं। वे शाश्वत सत्य है। नैतिक जीवन में अपवाद जैन धर्म की साधना एकान्त की नहीं, अनेकान्त की स्वस्थ और और आपद्धर्म के लिए कोई स्थान नहीं है।' सुन्दर साधना है। उसके दर्णन कक्ष में मोक्ष के हेतुओं की कोई वस्तुतः नीति के सन्दर्भ में एकान्त सापेक्षवाद और एकान्त बंधी-बंधायी नियत रूपरेखा नहीं है, कोई इयत्ता नहीं है।' निरपेक्षवाद दोनों ही उचित नहीं है। ये आंशिक सत्य तो हैं अतः यह स्पष्ट है कि जैन दर्शन को अनेकान्तवादी विचारपद्धति किन नीति के सम्पूर्ण स्वरूप को स्पष्ट कर पाने में समर्थ नहीं के आधार पर सापेक्षिक नैतिकता की धारणा मान्य है। यद्यपि हैं। दोनों को अपनी कुछ कमियां हैं। उसका यह सापेक्ष दृष्टिकोण निरपेक्ष दृष्टिकोण का विरोधी नहीं नीति में सापेक्षता और निरपेक्षता दोनों का क्या और किस है। जैन नैतिकता में एक पक्ष निरपेक्ष नैतिकता का भी है, रूप में स्थान है, यह जानने के लिए हमें नीति के विविध पक्षों जिस पर मागे विचार किया जायेगा । को समझ लेना होगा । सर्वप्रथम नीति का एक बाह्य पक्ष होता वस्तुत: नीति की सापेक्षता और निरपेक्षता का यह प्रश्न है और दूसरा आंतरिक पर होता है, अर्थात् एक ओर आचरण अति प्राचीनकाल से एक विवादास्पद विषय रहा है । महाभारत. होता है तो दूसरी ओर आचरण की प्रेरक और निर्देशक चेतना स्मृति प्रत्य एवं ग्रीक दार्शनिक साहित्य में इस सम्बन्ध में पर्याप्त होती है । एक ओर नैतिक आदर्श या साध्य होता है और दूसरी चिन्तन हुआ है और आज तक विचारक इस प्रश्न को सुलझाने और उस साध्य की प्राप्ति के साधन या नियम होते हैं। इसी में लगे हुए हैं । बर्तगान युग में रामाज-वैज्ञानियः सापेक्षतावाद, प्रकार हमारे नैतिक निर्णय भी दो प्रकार के होते हैं . एक वे मनोवैज्ञानिक सापेक्षतावाद और तार्किक भाववादी सापेक्षतावाद जिन्हें हम स्वयं के सन्दर्भ में देते हैं, दूसरे में जिन्हें हम दूसरों आदि चिन्तन धाराएं नीति को सापेक्ष मानती हैं। उनके अनु- के सम्बन्ध में देते है । साथ ही ऐसे अनेक सिद्धांत होते हैं जिनके सार, नैतिक मानदण्ड और नैतिक मूल्यांकन सापेक्ष है। वे यह आधार पर नैतिक निर्णय दिये जाते हैं। मानते हैं कि किसी कर्म की नैतिकता देश, काल, व्यक्ति और जहाँ तक नैतिकता के बाह्य पक्ष, अर्थात् आचरण या कर्म परिस्थिति के परिवतित होने से परिवर्तित हो सकती है, अर्थात् का सम्बन्ध है, यह निरपेक्ष नहीं हो सकता; सर्वप्रथम तो व्यक्ति जो कर्म एक देश में नैतिक माना जाता है वही दूसरे देश में जिस विश्व में आचरण करता है वह आपेक्षिकता से युक्त है। अनैतिक माना जा सकता है, जो आचार किसी युग में नैतिक जो कर्म हम करते हैं और उसके जो परिणाम निष्पन्न होते हैं वे माना जाता था वही दूसरे युग में अनैतिक माना जा सकता है, मुख्यतः हमारे संकल्प पर निर्भर न होकर उन परिस्थितियों पर इसी प्रकार जो कर्म एक व्यक्ति के लिए एक परिस्थिति में निर्भर होते हैं जिनमें हम जीवन जीते हैं । बाह्य जगत पर व्यक्ति मैतिक हो सकता है वही दूसरी परिस्थिति में अनैतिक हो सकता की इच्छाएं नहीं अपितु परिस्थितिमा हासन करती हैं। पुनः है। दूसरे शब्दों में; नैतिक नियम, नैतिक मूल्यांकन और नेतिक चाहे मानवीय संकल्प को स्वतन्त्र मान भी लिया जाये किन्तु निर्णय सापेक्ष हैं 1 देश, काल, समाज, व्यक्ति और परिस्थिति के मानवीय आचरण को स्वतन्त्र नहीं माना जा सकता है, वह १ श्री अमरभारती, मई १९६४, पु. १५ । २ श्री अमरभारती, फरवरी १९६५, पृ. ५। ३ वही, मार्च १६६५, पृ. २८ । Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सदाचरण : एक बौद्धिक विमर्श | ३३ आन्तरिक और बाश्व परिस्थितियों पर निर्भर होता है। अतः नैतिक निर्णय दोनों ही सापेक्ष होंगे । नीति और नैतिक आचरण मानवीय कर्म का सम्पादन और उनके निष्पन्न परिणाम दोनों को परिस्थिति निरपेक्ष भानने वाले नैतिक सिद्धांत शून्य में ही देश, काल और परिस्थिति पर निर्भर होंगे। कोई भी कर्म विचरण करते है और नीति के यथार्थ स्वरूप को स्पष्ट कर पाने देश, काल, व्यक्ति, समाज और परिस्थिति से निरपेक्ष नहीं में समर्थ नहीं होते हैं। होगा। हमने देखा कि भारतीय चिन्तन की जैन, बौद्ध और किन्तु नीति को एकान्त रूप से सापेक्ष मानना भी खतरे से वैदिक परम्पराएँ इस बात को स्पष्ट रूप से स्वीकार करती हैं खाली नहीं है । (१) सर्वप्रथम, नैतिक सापेक्षतावाद व्यक्ति और कि कम की नैतिकता निरपेक्ष नहीं है। पुन: नैतिक मूल्यांकन समाज की विविधता पर तो हष्टि डालता है किन्तु उस विविधता और नैतिक निर्णय उन सिद्धांतों और परिस्थितियों पर निर्भर में अनुस्यूत एकता की उपेक्षा करता है। बह दैशिक, कालिक, करते हैं जिनमें वे दिये जाते हैं। सतप्रथम तो नैतिक मूल्यांकन सामाजिक और वैयक्तिक असमानता को ही एकमात्र सत्य व्यक्ति और परिस्थिति से निरपेक्ष होकर नहीं किया जा सकता, मानता है। क्योंकि लपक्ति जिस समाज में जीवन जीता है वह विविधताओं (२) दूसरे, वह साध्य या आदर्श की अपेक्षा साधनों पर से युक्त है । समाज में व्यक्ति को अपनी योग्यताओं एवं क्षम- अधिक बल देता है, जबकि साधनों का मूल्य स्वयं उस साध्य ताओं के आधार पर एक निश्चित स्थिति होती हैं, उसी स्थिति पर आश्रित होता है, जिसके वे साधन है। के अनुसार उसके कर्तव्य एवं दायित्व होते हैं, अतः वैयक्तिक (३) तीसरे, सापेक्षतावाद कर्म के बाह्य स्वरूप को ही दायित्वों और कर्तव्यों में विविधता होती है । गीता का वर्णाधम उसका सर्वस्व मान लेता है। उनके आन्तरिक पक्ष या कर्म के धर्म का सिद्धांत और बेडले का 'मेरा स्थान और उसके कर्तव्य' मानस-पक्ष की उपेक्षा करता है जबकि कम की प्रेरक भावना का सिद्धांत एक सापेक्षित नैतिकता की धारणा को प्रस्तुत करते का भी नैतिक होष्ट से समान मूल्य है। हैं । अतः हमें सामाजिक सन्दर्भ में आचरण का मूल्यांकन सापेक्ष (1) चोथे, नैतिक सापेक्षतावाद संकल्पस्वातन्थ्य के सिद्धांत रूप में ही करना होगा। विश्व में ऐसा कोई एक सर्वमान्य के विरोध में जाता है । यदि नीति के निर्धारक तत्व बाह्य है सिसांत नहीं है जो हमारे निर्णयों का आधार बन सके। कुछ तो फिर हमारी संकल्प की स्वतन्त्रता का कोई अधिक महत्व प्रसंगों में हम अपने नैतिक निर्णय निष्पन्न कर्म-परिणाम पर देते नहीं रहता है। सापेक्षतावाद के अनुसार नीति का नियामक है, तो कुछ प्रसंगों में कर्म के वांछित या अग्रावलोक्रित परिणाम तस्त्र देशकालगत परिस्थितियाँ एवं सामाजिक तथ्य है, वैयक्तिक पर, और कभी कर्म के प्रेरक के आधार पर भी नैतिक निर्णय चेतना नहीं। किन्तु ऐसी स्थिति में संकल्पस्वातन्त्र्य का क्या दिये जाते है । अत: कर्म के बाह्य स्वरूप और उसके सन्दर्भ में अर्थ रह जायेगा, यह बिनारणीय है । संकल्प को सापेक्ष मानने होने वाले नैतिक मूल्यांकन तथा नैतिक निर्णय निरपेक्ष नहीं हो का अर्थ उसकी स्वतन्त्रता को सीमित करना है। सकते, उन्हें सापेक्ष ही मानना होगा। पुनः कर्म या आवरण (२) पाचवें, नीति के सन्दर्भ में सापेक्षतावाद हमें अनिवार्यत: किसी बादर्श वा लक्ष्य का साधन होता है और साधन अनेक हो आत्मनिष्ठावाद की ओर ले जाता है। लेकिन आत्मनिष्ठावाद में सकते हैं । लक्ष्य या मादर्श एक होने पर भी उसकी प्राप्ति के आकर नैतिक नियम अपना समस्त स्थायित्व और वस्तुगत आधार लिए साधनों को अपनी स्थिति के अनुसार अनेक मार्ग सुझाये खो देते हैं । नैतिक जीवन में रामरूपता और वस्तुनिष्ठता का जा सकते हैं. अत: आचरण की विविधता एक स्वाभाविक तथ्य प्रभाव होता है तथा नैतिकता का ढांचा अस्तव्यस्त हो जाता है । है । दो भिन्न सन्दर्भो में परस्पर विपरीत दिखाई देने वाले मार्ग (६) छठे, हम यह भी कह सकते हैं कि सापेक्षतावाद में भी अपने लक्ष्य की अपेक्षा से उचित माने जा सकते हैं। पुनः, नैतिकता का शरीर तो बना रहता है किन्तु प्राण चले जाते हैं। जब हम दुसरे व्यक्तियों के आचरण पर कोई नैतिक निर्णम देते उसमें विषय सामग्री तो रहती है किन्तु आकार नहीं होता है, हैं तो हमारे सामने कर्म का बाह्य स्वरूप ही होता है। अतः क्योंकि निरपेक्षता नैतिकता की आत्मा है । दूसरे व्यक्तियों के आचरण के सम्बन्ध में हमारे मूल्यांकन और (७) सापेक्षतावाद में नैतिक मानक की एकरूपता समाप्त निर्णय सापेक्ष ही हो सकते हैं । हम उसके गनोभावों के प्रत्यक्ष हो जाती है, एक सार्वभौम मानदण्ड का अभाव होता है अतः इष्टा नहीं होते है और इसलिए उसके आचरण के मूल्यांकन में नैतिक निर्णय देने में व्यक्ति को वैसी ही कठिनाई अनुभव होती हमको निरपेक्ष निर्णय देने का कोई अधिकार ही नहीं होता है, है जैसी उस ग्राहक को होती है जिसे प्रत्येक दुकान पर भिन्नक्योंकि हमारा निर्णय केवल घटित परिणामों पर ही होता है। भिन्न माप मिलते हों । पुनः, नैतिक परिस्थिति स्वयं एक ऐसा अतः यह निश्वय ही सत्य है कि कर्म के बाह्य पक्ष या घ्याव- जटिल तथ्य है जिसमें जनमाधारण के लिए बिना किसी स्पष्ट हारिक पक्ष की नैतिकता और उसके सन्दर्भ में दिये जाने वाले सार्वभौम निर्देशक सिद्धांत के यह तय कर पाना कठिन है कि Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ | चरणानुयोग : प्रस्तावना उस परिस्थिति में क्या नैतिक है और क्या अनैतिक ? अतः स्थितियों या समाज का शासन नहीं है, अतः इस क्षेत्र में नौति नीति में किसी निरपेक्ष तत्व की अवधारणा करना भी आवश्यक की निरपेक्षता सम्भव है । अनासक्त कर्म का दर्शन इसी सिद्धांत है। इस सन्दर्भ में जान डिवी का दृष्टिकोण अधिक संगतपूर्ण पर स्थित है क्योंकि अनेक स्थितियों में कर्म का बाह्यास्मक रूप जान पड़ता है। वे परिस्थितियां जिनमें नैतिक आदर्शों की कर्ता के मनोभावों का यथार्थ परिचायक नहीं होता अतः यह सिद्धि की जाती है, सदैव परिवर्तनशील हैं और नैतिक नियमों, माना जा सकता है कि मनोवृत्यात्मक या भावनात्मक नीति निर• नैतिक कर्तव्यों और नैतिक मूल्यांकनों के लिए इन परिवर्तनशील पेक्ष होगी किन्तु आचरणात्मक या व्यवहारात्मक नीति सापेक्ष परिस्थितियों के साथ समायोजन करना आवश्यक होता है। होगी। यही कारण है कि जैन दर्शन में नैश्चयिक नैतिकता को किन्तु यह मान लेना मूर्खतापूर्ण ही होगा कि नैतिक सिद्धांत निरपेक्ष और व्यावहारिक नैतिकता को सापेक्ष माना गया है। इतने सापेक्षिक हैं कि किसी सामाजिक स्थिति में उनमें कोई (२) दूसरे, साध्यात्मक नीति या नैतिक आदर्श निरपेक्ष होता है नियामक शक्ति ही नहीं होती। शुभ की विषयवस्तु बदल सकती किन्तु साधनापरक नीति सापेक्ष होती है। दूसरे शब्दों में, जो है किन्तु शुभ का आकार नहीं; दूसरे शब्दों में, नैतिकता का सर्वोच्च शुभ है वह निरपेक्ष है किन्तु उस सर्वोच्च शुभ की शरीर परिवर्तनशील है किन्तु नैतिकता की आत्मा नहीं । नैति- प्राप्ति के जो नियम या मार्ग हैं वे सापेक्ष हैं। क्योंकि एक ही कता का विशेष स्वरूप समय समय पर वैसे-वैसे बदलता रहता साध्य की प्राप्ति के अनेक साधन हो सकते हैं। पुनः, वैयक्तिक है जैसे-जैसे सामाजिक या सांस्कृतिक स्तर पर अन्य परिस्थितियां रुचियों, क्षमताओं और स्थितियों की भिन्नता के आधार पर बदलती रहती है, किन्तु नैतिकता का सामान्य स्वरूप स्थिर सभी के लिए समान नियमों का प्रतिपादन सम्भव नहीं है । अत: रहता है। नैतिक नियमों में अपवाद या आपद्धर्भ का निश्चित साध्मपरक नीति को या नैतिक साध्य को निरपेक्ष और साधनाही स्थान है और अनेक स्थितियों में अपबाद-मार्ग का आचरण परक नीति को सापेक्ष मानना ही एक यथार्थ इष्टिकोण हो सकता ही नैतिक होता है। फिर भी हमें यह ध्यान में रखना चाहिए है। (३) तीसरे, चंतिक नियमों में कुछ नियम मौलिक होते हैं कि अपवाद कभी भी सामान्य नियम का स्थान नहीं ले पाते हैं। और कुछ नियम उन मौलिक नियमों के सहायक होते हैं, उदानिरपेक्षतावाद के सन्दर्भ में यह एक भ्रांति है कि वह सभी हरणार्थ, भारतीय परम्परा में सामान्य धर्म और विशेष धर्म नतिक नियमों को निरपेक्ष मानता है। निरपेक्षतावाद भी सभी (वश्चिम धर्म) ऐसा वर्गीकरण हमें मिलता है। जैन परम्परा में नियमों की सार्वभौमिकता सिद्ध नहीं करता, वह केवल मौलिक भी एक ऐसा ही वर्गीकरण मूलगुण और उत्तरगुण नाम से है । नियमों को सार्वभौमिकता ही सिद्ध करता है। यहाँ हमें ध्यान रखना चाहिए कि साधारणतया सामान्य या मूलवस्तुतः नीति की वास्तविक प्रकृति को समझने के लिए भूत नियम ही निरपेक्ष एवं अपरिवर्तनीय माने जा सकते हैं, निरपेक्षतावाद और सापेक्षतावाद दोनों ही अपेक्षित हैं। नीति विशेष नियम तो सापेक्ष एवं परिवर्तनीय ही होते हैं। पद्यपि हमें का कौन सा पक्ष सापेक्ष होता है और कौन सा पक्ष निरपेक्ष यह मानने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए कि अनेक स्थितियों इसे निम्नांकित रूप में समझा जा सकता है। (१) संकल्प को में सामान्य नियमों के भी अपबाद हो सकते हैं और ये नैतिक भी नैतिकता निरपेक्ष होती है और आचरण की नैतिकता सापेक्ष हो सकते हैं, फिर भी यह ध्यान में रखना आवश्यक है कि अपहोती है । हिंसा का संकल्प कभी नैतिक नहीं होता पद्यपि हिंसा वाद को कभी नियम का स्थान नहीं दिया जा सकता। यहाँ एक का कर्म सदैव अनैतिक हो, यह आवश्यक नहीं। नीति में जब बात जो विचारणीय है वह यह कि मौलिक निमों की निरपेक्षता संकल्प की स्वतन्त्रता को स्वीकार कर लिया जाता है तो फिर भी उनकी अपरिवर्तनशीलता या उनके स्थायित्व के आधार पर हमें यह कहने का अधिकार नहीं रहता कि संकल्प सापेक्ष है, ही है. साध्य की अपेक्षा से तो वे मो सापेक्ष हो सकते हैं। अतः संकल्प की नैतिकता सापेक्ष नहीं हो सकती। दूसरे शब्दों जो नैतिक विचारधाराएं मात्र निरपेक्षतावाद को स्वीकार में, कर्म का जो मानसिक पक्ष है, बोद्धिक पक्ष है, वह निरपेक्ष करती है वे ययार्थ की भूमिका को भूलकर मात्र आदर्श की ओर हो सकता है किन्तु कर्म का जो व्यावहारिक पक्ष है, आचरणात्मक देखती हैं । ये नैतिक आदर्श को हो प्रस्तुत कर देती हैं किन्तु पक्ष है, यह सापेक्ष है । अति मनोमूलक नीति निरपेक्ष होगी उस मार्ग का निर्धारण करने में सफल नहीं हो पातीं जो उस और आचरणमूलक नीति सापेश होगी। संकल्प का क्षेत्र, प्रशा साध्य एवं आदर्श तक ले जाता है, क्योंकि, नैतिक आचरण एवं का क्षेत्र, एक ऐसा क्षेत्र है. जहाँ चेतना या प्रज्ञा ही सर्वोच्च व्यवहार तो परिस्थिति सापेक्ष होता है। नैतिकता एक लक्ष्योशासक है । अन्तस् में व्यक्ति स्वयं अपना शासक है, वहाँ परि- न्मुख गति है । लेकिन मदि उस गति में व्यक्ति की दृष्टि मात्र 1 Contemporary Ethical Theories (T. E. Hill) p. 163. Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सदाचरण : एक मौद्धिक विमर्श | ३५ उस पथार्थ भूमिका तक हो, जिसमें वह खड़ा है, सीमित है तो है, अर्थात् यदि व्यक्ति स्वस्थ है और देयकालगत परिस्थितियों वह कभी भी लक्ष्य तक नहीं पहुँच सकता, यह पथभ्रष्ट हो भी वे ही हैं जिनको ध्यान में रखकर विधि या निषेध किपा सकता है । दूसरी ओर वह व्यक्ति, जो गन्तव्य की और तो देख गया है, तो व्यक्ति को उन नियमों तथा कर्तव्यों का पालन भी रहा है किन्तु उस मार्ग को नहीं देख रहा है जिसमें वह गति तदनुरूप करना होगा। जैन परिभाषा में इसे "उत्सर्ग-मार्ग" कर रहा है, मार्ग में वह ठोकर खाता है और कण्टकों से अपने कहा जाता है, जिसमें साधक को नैतिक आचरण शास्त्रों में को पद विद्ध कर लेता है। जिस प्रकार चलने के उपक्रम में प्रतिपादित रूप में ही करना होता है। उत्सर्ग नैतिक विधिहमार. काम न तो मात्र सामने देखने से चलता है और न मात्र निषेधों का सामान्य कथन है। जैसे मन, वचन, काय से हिसा नीचे देखने से ही, उभी प्रकार नैतिक प्रगति में हमारा काम न न करना, न करवाना, न करने वाले का समर्थन करना । लेकिन तो मात्र निरपेक्ष दृष्टि से चलता है और न मात्र सापेक्ष दृष्टि जब इन्हीं सामान्य विधि-निधों को किन्हीं विशेष परिस्थितियों से चलता है । निरपेक्षतावाद उस स्थिति की उपेक्ष- कर देता है में शिथिल कर दिया जाता है, तब नैतिक आचरण की उस जिसमें व्यक्ति खड़ा है, जबकि सापेक्षतावाद उस आदर्श या अवस्था को 'थपवाद-मार्ग" कहा जाता है। उत्सर्ग मार्ग अपसाध्य की उपेक्षा करता है जो कि गन्तव्य है। इसी प्रकार वाद-मार्ग की अपेक्षा से सापेक्ष है, लेकिन जिस परिस्थितिगत निरपेक्षतावाद सामाजिक नीति की उपेक्षा कर मात्र वैयक्तिक सामान्यता के तत्व को स्वीकार कर उत्सर्ग-मार्ग का निरूपण नीति पर बल देता है, किन्तु व्यक्ति समाज निरपेक्ष होकर नहीं किया जाता है, उस सामान्यता के तत्व की दृष्टि से निरपेक्ष जो सकता । पुनः निरपेक्षवादी नीति में साध्य की सिद्धि ही ही होता है । अपवाद की अवस्था में सामान्य नियम का भंग हो प्रमुख होती है, किन्तु वह साधन उपेक्षित बना रहता है जिसके जाने से उसकी मान्यता खण्डित नहीं हो जाती, उसकी सामाबिना साध्य की सिद्धि सम्भव नहीं है। अतः सम्यक नैतिक ग्यता या सार्मभौमिकता समाप्त नहीं हो जाती। मान लीजिए, जीवन के लिए नीति में सापेक्ष और निरपेक्ष दोनों तत्वों को हम किसी निरपराध प्रागी की जान बचाने के लिए असस्य असारमा को स्वीकार करना पाप है।" बोलते हैं, इससे सत्य बोलने का सामान्य नियम खण्डित नहीं हो उत्सर्ग और अपवाद की समस्या जाता । अपवाद न सो कभी मौलिक नियम बन सकता है, न जैन नैतिक विचारणा में नैतिकता के सापेक्ष और निरपेक्ष अपवाद के कारण उत्सर्ग की सामान्यता या सार्वभौमिकता ही दोनों रूप स्वीकृत हैं। लेकिन उसमें भी निरपेक्षता दो भिन्न खण्डित होती है । उस्सर्ग-मार्ग को निरपेक्ष कहने का प्रयोजन अर्थों में प्रयुक्त है। प्रथम प्रकार की निरपेक्षता वह है जिसमें यही होता है कि वह मौलिक होता है, यद्यपि उन मौलिक आचार के सामान्य या मौलिक नियमों को निरपेक्ष माना जाता नियमों पर आधारित बहुत से विशेष नियम हो सकते हैं। है और विशेष नियमों को सापेक्ष माना जाता है, जैसे अहिंसा उत्सर्ग-मागं अपवाद-मागं का बाध नहीं करता है, वह तो मात्र सामान्य या सार्वभौम नियम है, लेकिन फलाहार विशेष नियम इतना ही बताता है कि अपवाद सामान्य नियम नहीं बन सकता । है। जैन परिभाषा में कहें तो श्रमण के मूलगुण सामान्य नियम द्वा० श्रीचन्द के शब्दों में, "निरपेक्षवाद (उत्सर्ग:मार्ग) सभी हैं और इस प्रकार निरपेक्ष है, जबकि उत्तरगुण विशेष नियम नियमों की सार्वभौमिकता सिद्ध नहीं करना चाहता, परन्तु केवल हैं. सापेक्ष हैं। आधार के सामान्य नियम देशकालगत विभेद सभी मौलिक नियमों की सार्वभौमिकता सिद्ध करना चाहता में भी अपनी मूलभूत सृष्टि के आधार पर निरपेक्ष प्रतीत होते है।" उत्सर्ग की निरपेक्षता देश, काल एवं ब्यक्तिगत परिहैं । लेकिन इस प्रकार की निरपेक्षता वस्तुतः सापेक्ष ही है। स्थितियों के अन्दर ही होती है, उससे बाहर नहीं। उत्सगं और आपरण के जिन नियमों का विधि और निषेध जिस सामान्य अपवाद नैतिक आचरण की विशेष पद्धतियां हैं। लेकिन दोनों दशा में किया गया है, उसकी अपेक्षा से आचरण के वे निमम ही किसी एक नैतिक लक्ष्य के लिए है, इसलिए दोनों नैतिक हैं। उसी रूप में माचरणीय हैं। व्यक्ति सामान्य स्थिति में उन जैसे, दो मार्ग यदि एक ही नगर तक पहुंचाते हों, तो दोनों ही नियमों के परिपालन में किसी अपवाद या छूट की अपेक्षा नहीं मार्ग होंगे, अमार्ग नहीं; वैसे ही अपवादात्मक नैतिकता का कर सकता । यहाँ पर भी सामान्य दशा का विचार व्यक्ति एवं सापेक्ष स्वरूप और उत्सर्गात्मक नैतिकता का निरपेक्ष स्वरूप उसकी देशकालगत बाह्म परिस्थितियों के सन्दर्भ में किया गया दोनों ही नैतिकता के स्वरूप है और कोई भी अनैतिक नहीं है। १ देखें-जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, भाग १, पृ.७७-७८ । २ ही पृ. ६७-६६। नीतिशास्त्र का परिचय, ग. मीचय, पृ. १२२ । Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ | घरणानुयोग : प्रस्तावना लेकिन नैतिक निरपेक्षता का एक रूप और है, जिसमें वह सदैव या आत्मज्ञानी पुरुष जिस प्रकार आचरण करता है, साधारण ही देश, काल एवं व्यक्तिगत सीमाओं से ऊपर उठी होती है। मनुष्य भी उसी के अनुरूग आचरण करते है। वह आचरण के नैतिकता का बह निरपेक्ष रूप अन्य कुछ नहीं, स्वयं नैतिक जिस प्रारूप को प्रामाणिक मानकर अंगीकार करता है लोग भी आदर्श" ही है। नैतिकता का लक्ष्य एक ऐसा निरपेक्ष तथ्य है उसी का अनुकरण करते है। महाभारत में भी कहा है कि महाजो सारे नैतिक आचरणों के भूत्यांकन का आधार है । नैतिक जन जिन मार्ग से गये हों वही धर्म मार्ग है। यही बात जैनाआचरण को शुभाशुभता का अंकन इसी पर आधारित है। कोई गम उत्तराध्ययन में इस प्रकार कही गई है, "बुद्धिमान आचार्यों मी आचरण, चाहे वह उत्तर्ग-मार्ग से हो या अपवाद-मार्ग से, (आर्यजन) के द्वारा जिस धार्मिक व्यवहार का माचरण किया हमें उस लक्ष्य की ओर से जाता है जो शुभ है। इसके विपरीत गया है उसे ही प्रामाणिक मानकर तदनुरूप आचरण करने वाला जो भी आचरण इस नैतिक आदर्श से विमुख करता है, वह व्यक्ति कभी भी निन्वित नहीं होता है।"3 पाश्चात्य विचारक अशुभ है, अनैतिक है। नैतिक जीवन के उत्सर्ग और अपवाद बेडले के अनुत्तार भी नैतिक आचार की शुभाशुभवा का निश्चय नामक दोनों मार्ग इसी की अपेक्षा के सापेक्ष हैं और इसी के भाई चिरिए आधार पर किया जा सकता है।' मार्ग होने से निरपेक्ष भी, क्योंकि मार्ग के रूप में किसी स्थिति उपाध्याय अमर मुनि के अनुसार जैन विचारणा नैतिक तक इससे अभिन्न भी होते हैं और यही अभिन्नता उनको निरो- मर्यादाओं को न तो इतनी कठोर ही बनाती है कि व्यक्ति उनके कता का यथार्य तत्व प्रदान करती है । लक्ष्यरूपी मैतिक चेतना अन्दर स्वतन्त्रतापूर्वक विवरण न कर सके, न ही इतनी अधिक के सामान्य तत्व के आधार पर ही नैतिक जीवन के उत्सर्ग और सचीली कि व्यक्ति इच्छानुसार उन्हें मोड़ दे। जन विचारणा में अपबाद, दोनों मागों का विधान है। लक्ष्यात्मक नैतिक चेतना नैतिक मर्यादाएँ दुर्ग के खण्डहर जैसी नहीं हैं जिसमें विचरण ही उनका निरपेक्ष तत्व' है, जबकि आचरण का साबनात्मक की पूर्ण स्वतन्त्रता तो होती है, लेकिन शव के प्रविष्ट होने का मार्ग सापेक्ष तथ्य है। लक्ष्य' या नैतिक आदर्श नैतिकता की सदा भय बना रहता है। वह तो सुदृढ़ चार दीवारियों से युक्त मात्मा है और बाह्य आचरण उसका शारीर है। अपनी आत्मा के उम दुर्ग के समान है जिसके अन्दर व्यक्ति को विचरण की रूप में नैतिकता निरपेक्ष है, लेकिन अपने पारीर के रूप में वह स्वतन्त्रता है और विशेष परिस्थितियों में वह उससे बाहर भी सदैव सापेक्षा है । इस प्रकार जैन दर्शन में नैतिकता के दोनों ही आ-जा सकता है लेकिन शर्स यही है कि ऐसी प्रत्येक स्थिति में पक्ष स्वीकृत हैं। वस्तुतः नैतिक जीवन की सम्यक् प्रगति के उसे दुर्ग के द्वारपाल की अनुजा लेनी होगी। जैन विचारणा के लिए दोनों हो आवश्यक हैं । जैसे लक्ष्य पर पहुंचने के लिए यात्रा अनुसार नैतिकता के इस दुर्ग का द्वारपाल वह “गीतार्थ" है जो और पड़ाव दोनों आवश्यक हैं वैसे ही नैतिक जीवन के लिए भी देश, काल एवं वैयक्तिक परिस्थितियों को समुचित रूप में समाप्तदोनों पक्ष आवश्यक हैं। कोई भी एक दृष्टिकोण समुचित और कर सामान्य व्यक्ति को अपयाद के क्षेत्र में प्रविष्ट होने की सर्वांगीण नहीं कहा जा सकता। समकालीन नैतिक चिन्तन में अनुज्ञा देता है । अपवाद की अवस्था के सम्बन्ध में निर्णय देने भी जैन दर्शन के इसी दृष्टिकोण का समर्थन मिलता है। का एवं यथा-परिस्थिति अपवाद मार्ग में आचरण करने अथवा सवाचार और दुराचार का निर्धारण कैसे हो? दूसरे को कराने का समस्त उत्तरदायित्व "गीतार्थ" पर ही (अ) गीतार्थ का आदेश रहता है । गीतार्थ वह व्यक्ति होता है जो मैतिक विधि-निषेध __सापेक्ष नैतिकता में जनसाधारण के द्वारा कर्तव्याकर्तव्य का के आचाररांगादि आचारसंहिता का तथा निशीथ आदि छेदसूत्रों निश्चय करना सरल नहीं है। अतः जैन नैतिकता में सामान्य का मर्मज्ञ हो एवं स्व-प्रज्ञा से देश, काल एवं वैयक्तिक परिस्थिव्यक्ति के मार्गदर्शन के रूप में "गीतार्थ" की योजना की गई तियों को समझने में समर्थ हो । गीतार्थ वह है जिसे कर्तव्य और है। मीतार्थ यह आदर्ण व्यक्ति है जिसका आचरण जनसाधारण अकर्तव्य के लक्षणों का यथार्थ ज्ञान है, जो आय-व्यय, कारणके लिए प्रमाण होता है। गीता के आचारदर्शन में भी जन• अकारण, अनाढ़ (रोगो, बुद्ध) अनागाढ़, वस्तु-अवस्तु, युक्तसाधारण के लिए मार्गदर्शन के रूप में श्रेष्ठजन के आचार को अयुक्त, समय-असमर्थ, यतना-अयतमा का सम्यग्ज्ञान रखता है, ही प्रमाण माना गया है। गीता स्पष्ट रूप में कहती है कि श्रेष्ठ साथ ही समस्त कर्तव्य कर्म के परिणामों को भी जानता है, १ गीता, ३/२१ । २ महाभारत, वनपर्व, ३१२/११५ । ३ उसराध्ययन, १/४२ ।। ___४ एथिकल स्टडीज, पृ.१९६, २२६ । ५ देखें- धी अमर भारती १९६४ में कमशः प्रकाशित उत्सर्ग और अपवार पर उपाध्याय अमरमुनिजी के लेख । ६ ममिधानरागकोश, खण ३, पृ.९०२। Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सदाचरण : एक बौद्धिक विमर्श | ३७ वही विधिवान गौतार्थ है।' है। लेकिन शास्त्र का प्रमाण माव जानने की वस्तु है, जिसके (ब) मार्गदर्शक रुप में शास्त्र द्वारा निर्णय लिया जा सकता है। निर्णय करने का अधिकार यद्यपि जैन विचारणा के अनुसार परिस्थिति विशेष में तो व्यक्ति के पास ही सुरक्षित है । प्रस्तुत श्लोक का 'ज्ञात्वा" कर्तव्याकर्तव्य का निर्धारण "गीतार्थ" करता है, तथापि गीतार्थ शब्द स्वयं ही इस तथ्य को स्पष्ट करता है। पाश्चात्य आचार. भी व्यक्ति है, अत: उसके निर्णयों में भी मनपरतावाद की सम्भा- दर्शन में भी यह दृष्टिकोण स्वीकृत रहा है। पाश्चत्य पलवादी बना रहती है । उसके निर्णयों को वस्तुनिष्टता प्रदान करने के विचारक जान डिवी लिखते हैं कि नलिक सिद्धांतों का उपयोग लिए उसके मार्ग-निर्देशक के रूप में शास्त्र है। सापेक्ष नैतिकता आदेश के रूप में नहीं है, वरन् उस साधन के रुप में है जिसके को वस्तुगत आधार देने के लिए ही शास्त्र को भी स्थान दिया आधार पर विशेष परिस्थिति में कर्तध्य का विश्लेषण किया जा गया । गीता स्पष्ट रूप से कहती है कि कार्य-अकार्य की व्यवस्था सके । नैतिक सिद्धांतों का कार्य उन दृष्टिकोणों और पतियों देने में शास्त्र प्रमाण है। लेकिन यदि शास्त्र को ही कर्तव्या. को प्रस्तुत कर देना है जो व्यक्ति को इस योग्य बना सके कि कर्तव्य के निश्चय का आधार बनाया गया, तो नैतिक सापेक्षता जिस विशेष परिस्थिति में वह है, उसमें शुभ और अशुभ का पूरी तरह सुरक्षित नहीं रह सकती। परिस्थितियां इतनी भित्र विश्लेषण कर सके । इस प्रकार अन्तिम रुप में तो व्यक्ति की भिन्न होती हैं कि उन सभी परिस्थितियों के सन्दर्भो सहित निष्पक्ष प्रज्ञा ही कतव्याकर्तव्य के निर्धारण में आधार बनती आचार-नियमों का विधान शास्त्र में उपलब्ध नहीं हो सकता। है। जहाँ तक सापेश नैतिकता को मनपरतावाद के ऐकातिक परिस्थितियां सतत परिवर्तनशील हैं, जबकि शास्त्र अपरिवर्तन- दोषों से बचाने का प्रश्न है, जैन दार्शनिकों ने उसके लिए शील होता है। अतः शास्त्र को भी सभी परिस्थितियों के "गीतार्थ" (आदर्श व्यक्ति) एवं "शास्त्र" के वस्तुनिष्ठ आधार कर्तव्यावर्तव्य का निर्णायक मा आधार नहीं बनाया जा सकता। मी प्रस्तुत किये हैं, यद्यपि इनका अन्तिम स्रोत निष्पक्ष प्रजा ही फिर शास्त्र (श्रुतियाँ) भी भिन्न-भिन्न हैं और परस्पर भिन्न मानी गयी। नियम भी प्रस्तुत करते हैं, अतः वे भी प्रामाणिक नहीं हो आचार-प्राप्ति सकते । इस प्रकार सापेक्ष नैतिकता में कर्तव्याकर्तव्य के निश्चय जैन आचार्यों ने सदाचरण या सम्यक् पारित्र का विवेचन की समस्या रहती है, शास्त्र के आधार पर उसका पूर्ण समाधान एवं वर्गीकरण विविध आधारों पर किया है। चूंकि प्रस्तुत अन्य सम्भव नहीं है। में प्राचीन परम्परा के अनुसारखाचार का विवेचन-(१) ज्ञाना(स) निष्पक्ष बौद्धिक प्रजा ही अन्तिम निर्णायक चार, (२) वर्शनाचार, (३) चारित्राचार, (४) तपाचार और ___इस समस्या के समाधान में हमें जैन दृष्टिकोण की एक (५) वीर्याचार के रूप में हुआ है (स्थानांग ५/२/४३३)। अतः विशेषता देखने को मिलती है । वह न तो एकान्त रूप में शास्त्र हमने भी इसे उसी रूप में उनका विवेचन प्रस्तुत करने का प्रयत्न को ही सारे विधि-निषेध का आधार बनाता है, न व्यक्ति को किया है। यहाँ ज्ञान, दर्शन आदि का अन्तर्भाव आचार में इसहो, उसके अनुसार शास्त्र मार्गदर्शक है. लेकिन अन्तिम निर्णायक लिए किया गया है कि ज्ञान और दर्शन मात्र जानने तया आस्था नहीं । अन्तिम निर्णायक व्यक्ति का राग और वासनाओं से रखने के विषय नहीं है। वे जीवन में जीने के लिए हैं। उनका रहित निष्पक्ष विवेक ही है। किसी परिस्थिति विशेष में व्यक्ति आचरण करना होता है। ज्ञान, दर्शन आदि का यही आचरणाका क्या कतंत्र्य है और क्या अकर्तव्य है, इसका निर्णय शास्त्र त्मक पक्ष ज्ञानाचार, दर्शनाचार कहा जाता है। इसी प्रकार को मार्गदर्शक मानकर स्वयं व्यक्ति को ही लेना होता है। आराधना की चर्चा के प्रसंग में भी ज्ञान आराधना, दर्शन आरा____भाचारशास्त्र का कार्य है व्यक्ति के सम्मुख सामान्य और धना और चारित्र आराधना की चर्चा हुई है। इसी प्रकार तपाअपवादात्मक स्थितियों में आचार का स्वरूप प्रस्तुत करना। राधना का उल्लेख भी जैन साहित्य में हुआ है। इसका तात्पर्य लेकिन परिस्थिति का निश्चय तो व्यक्ति को ही करना होता भी यही है कि उनकी साधना की जानी चाहिए। यह साधना है । शास्त्र आदेश नहीं, निर्देश देता है। यही दृष्टिकोण गीता की प्रक्रिया ही आचार कही जाती है इसे हम ज्ञान, दर्शन आदि का भी है। गीतोक्त शास्त्रप्रामाण्य भी इस तत्व का पोषक का व्यवहार पक्ष भी कह सकते हैं। १ बृहत्कल्पमाष्य, ६५१। २ गीता, १६/२४. ३ महाभारत, मनपर्व, ३१२/११५। ४ सस्मान्छास्त्र' प्रमाणं ते कार्याकार्य ध्ययस्थिता । जास्वा शास्त्रविधानोवतं कर्म कर्तुमिहाहंसि ।। ५ कन्टेम्परर एपिकल पोरीज, पु. १६३ । --गौता, १६/२४ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ | चरणानुयोग प्रस्तावना ज्ञान और ज्ञानाचार है कि साधक को किस समय मध्ययन करना चाहिए और किस समय नहीं। इसके साथ ही देशिक एवं कालिक उन विशेष परिस्थितियों का चिन्तन किया गया है जिनके उपस्थित हो जाने पर अध्ययन या स्वाध्याय करने का वर्जन किया गया है। आगम साहित्य में पाँच प्रकार के आचारों की चर्चा के प्रसंग में सर्वप्रथम ज्ञानाचार का विवेचन हुआ है। ज्ञानाचार शब्द ज्ञान + आचार से मिलकर बना है। ज्ञान के साथ आचार शब्द का प्रयोग सामान्यतया विचित्र सा लगता है। जब हम त्रिविध साधना मार्ग में सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन और सम्यक् चारित्र को अलग-अलग करते हैं तो यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से खड़ा हो जाता है कि यदि ज्ञान चारित्र से भिन्न है तो ज्ञान को आचार कैसे माना जाये। सामान्यतया जानना और करना दो मन स्थितियाँ हैं अतः इन्हें अलग-अलग ही मानना चाहिये । मेरी दृष्टि में जैनाचार्य जब ज्ञानाचार की चर्चा करते हैं तो ना तात्पर्य ज्ञान से न होकर ज्ञान प्राप्ति की प्रक्रिया से होता है। ज्ञान प्राप्त कैसे किया जाये शुरू इसी प्रकार द्वितीय विनय ज्ञानाचार के अन्तर्गत ज्ञान-प्राप्ति के लिए विनय की क्या आवश्यकता है, अविनय के क्या दुष्परि णाम होते हैं, इसकी चर्चा की गई है। साथ ही यह बताया गया है कि आचार्य और शिष्य के पारस्परिक कर्तव्य क्या हैं ? इसी के अन्तर्गत आचार्य की विनय प्रतिपत्ति और शिष्य की विनय प्रतिपति का विवेचन किया गया है। इसके साथ ही विनय के स्वरूप और उसके भेद प्रभेदों का विस्तृत चित्रण किया गया है। ज्ञानाचार की इस चर्चा के प्रसंग में विनय-ज्ञानाचार पर प्रस्तुत में उपलब्ध होती है। कारण यह है कि से सम्बन्धित है और इसी आधार पर ज्ञान प्राप्ति की प्रक्रिया आगम साहित्य में इस विषय पर विवाद विवरण उपलब्ध होता है । (Process) को ज्ञानाचार कहा गया है। ज्ञान-प्राप्ति का उद्देश्य जैनाचार्यों ने सर्वप्रथम ज्ञान प्राप्ति के उद्देश्य को स्पष्ट किया है। ज्ञान प्राप्ति के चार उद्देश्य बताये गये हैं- (१) मुझे श्रुत (आगम-ज्ञान ) प्राप्त होगा इसलिए अध्ययन करना चाहिए, (२) में एकाग्र होऊँगा इसलिए अध्ययन करना चाहिए, ओर (३) में धर्म में स्थित होगा इसलिए अध्ययन करना चाहिए, और (४) धर्म में स्थित होकर दूसरों को उसमें स्थिर इसलिए आयन करना चाहिए। वस्तुतः इस प्रसंग में "ज्ञान ज्ञान के लिए" (Knowledge for Knowledge's sake ) इस सिद्धांत को न मानकर ज्ञान को चित्तविशुद्धि और सदाचरण या धर्म मार्ग में स्थिरता प्राप्त करने के एक साधन के रूप में स्वीकार किया गया है। इस प्रकार ज्ञान स्वयं साध्य न होकर एक साघन है। ज्ञानी होने का उद्देश्य है चित्तसमाधि को प्राप्त करना और धर्म मार्ग और सदाचार में स्थित होना इस प्रकार ज्ञान का भी एक प्रायोगिक पक्ष है। ज्ञान का यह प्रायोगिक पक्ष ही ज्ञानावार है । भागापार की विषयवस्तु इस चरणानुयोग नामक प्रस्तुत संकलनात्मक ग्रन्थ में ज्ञाना चार की चर्चा करते हुए उसे पूर्वोक्त आठ ज्ञान आचारों में विभक्त किया गया है। सर्वप्रथम हम इस ग्रन्थ में ज्ञानाचार के अन्तर्गत किन-किन मुख्य विषयों का संकलन हुआ है, इसका संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत करना चाहेंगे। इस ग्रंथ में प्रथम काल शानाचार के अन्तर्गत स्वाध्याय या ज्ञान साधना के लिए उपयुक्त और अनुपयुक्त काल की चर्चा की गई है और यह बताया गया कालिक २/४/७-८ (..) गुरु और शिष्य के पारस्परिक सम्बन्धों की चर्चा के बाद इसमें विजय के प्रकार उसके स्वरूप उसकी उपमाएँ, अविनीत और सुविनीत का अन्तर नादि की घर्चा हुई है। साथ ही यह भी बताया गया है कि अविनीत और सुविनीत आधार-व्यवहार का स्वयं उस पर तथा संघ पर क्या प्रभाव होता है ? इस प्रसंग में शिक्षा प्राप्ति के अयोग्य व्यक्तियों और शिक्षा प्राप्ति में बाधक कारणों की चर्चा की गई है। अन्त में गुरु आचार्य और वरिष्ठ मुनि (रालिक) की अवहेलना (आसातना) या उपेक्षा का क्या परिणाम होता है इसकी चर्चा की गई है तथा आचार्य वादि के अविनय या अवहेलना (आशातना) करने पर निश्चित प्रायश्चित्तों का विधान किया गया है । तृतीय बहुमान मानाचार के अन्तर्गत आचार्य की महिमा, आचार्य की सेवा या फल और आचार्यो के विविध प्रकारों का विस्तार से उल्लेख हुआ है। उसके पश्चात् आचार्य अथवा गुरु की उपासना कैसे करनी चाहिए, उसकी सेवा-शुश्रूषा का क्या फल होता है यह बताया गया है। इसी के प्रसंग में गुरु के सानिध्य में रहने अर्थात् रु में निवास करने के महत्व की चर्चा की गई है। उसके पश्चात् शिष्य द्वारा गुरु से प्रश्न करने और गुरु के द्वारा उनके उत्तर देने की विधि का उल्लेख हुआ है। इसी प्रसंग में यह भी बताया गया है कि उत्तर देते समय गुरु को शिष्य से सत्य को नहीं छिपाना चाहिए। इसी चर्चा के प्रसंग में बहुत ज्ञान के प्रकारों की चर्चा की गई है। बहुश्रुत की यह चर्चा उत्तराsययन ११ वें अध्याय में भी विस्तार से उपलब्ध है, जिसका यहाँ संकलन किया गया है। इस प्रकार प्रस्तुत ग्रंथ में कालाचार, विनयाचार, बहुमानाचार का विस्तृत Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सवाचरग : एक बौद्धिक विमर्श दिवरण संकलन किया गया है। लेकिन ज्ञानाचार के शेष उप- (२) विनयाचार धानाचार, अनिन्दाचार, व्यंजन ज्ञानाचार, अर्थशानाचार, तदु- विनषाचार में इस तथ्य की विस्तार से चर्चा की गई है कि भय ज्ञानाचार की संक्षिप्त वर्षा उपलब्ध होती है। यद्यपि इन गुरु शिष्य का सम्बन्ध कैसा होना चाहिये और शिष्य को गुरु विषयों की भी विस्तृत चर्चा आगमिक व्याख्या साहित्य में उप- या आचार्य के प्रति कैसे व्यवहार करना चाहिए । दुर्भाग्य से लब्ध हो जाती है । चूंकि प्रस्तुत ग्रंथ में आममों से ही विषयों आज जब शिक्षा एक व्यवसाय बन गया है उसमें विनय का का संकलन किया गया है अतः आगमों में ही उनका विस्तृत स्थान गौण हो गवा है । प्राज तो ज्ञान के लिए गुरु का होना विवेचन उपलब्ध नहीं होने से अनुयोग के कर्ता में इनका यहाँ भी बहुत महत्वपूर्ण नहीं रह गया है। किन्तु जब जान गुम-मुख संक्षेप में ही उल्लेख किया है। आगे हम इन सबकी चर्चा से ही उपलब्ध होता था तब यह अपरिहार्य था कि शिष्य का करेंगे। गुरु के प्रति आदर या श्रद्धा भाव रहे क्योंकि आचार्य या गुरु आचाररांग की टीका में नीलांक ने आठ प्रकार के ज्ञानाचारों की प्रसन्नता पर ही शान की उपलब्धि सम्भव थी। इस पर्चा का उल्लेख किया हैं-(१) कालाचार, (२) विनयाचार, के प्रसंग में जैन आगमों में आचार्य का स्वरूप और उसके (३) बहुमानाचार, (४) उपधानामार, (५) अनिन्हवाचार, विभिन्न भेद विस्तार से उल्लिखित हैं। इसी प्रसंग में यह भी (६) व्यंजनावार, (७) अर्धाचार बोर (८) उभयाचार ।। प्रताया गया है कि आचार्य, उपाध्याय, गुरु और सहयोगी वस्तुतः इन आठ ज्ञानाचारों में मुख्य रूप से ज्ञान प्राप्ति की साधकों की सेवा का क्या फल मिलता है। उसमें यह बताया प्रक्रिया का ही विवेचन किया गया है। गया है कि तथारूप अर्थात् गुण सम्पन्न आचार्य को पयुपासना (१) कालाचार' करने से धर्म श्रवण का लाभ मिलता है। धर्म श्रवण से ज्ञान कालाचार में ज्ञान-प्राप्ति के उपयुक्त समय का विचार प्राप्त होता है। ज्ञान से विज्ञान अर्थात विशिष्ट ज्ञान प्राप्त किया गया है । जैन परम्परा यह मानती है कि प्रथग वय से होता है, विशिष्ट ज्ञान प्राप्त होने पर व्यक्ति हेय का परित्याग लेकर अन्तिम अय तक अर्थात् बाल्यकाल से लेकर बृद्धावस्था करता है उसके फलस्वरूप शनाव की प्राप्ति होती है। मनातक ज्ञान की साधना की जा सकती है। दूसरे शब्दों में ज्ञान- थव से तप का विकास होता है, तप से निर्जरा या कर्म नाश प्राप्ति की साधना जीवन पर्यन्त चल सकती है। जैन आचार्यों होता है और जिससे अन्त में अयोग अवस्था या मुक्ति की प्राप्ति ने इस सम्बन्ध में भी विस्तार से चर्चा की है कि स्वाध्याय और होती है। इसी प्रसंग में यह भी बताया गया है कि साधक के ज्ञानार्जन के लिए उपयुक्त समय कौन-सा है? सामान्यतया तो सभी लिए गुरुकुलवास अर्थात् गुरु के सानिध्य में रहने की क्या उपकालों को ज्ञान-प्राप्ति के योग्य माना गया है, फिर भी मुख्य योगिता है । यह स्पष्ट है कि गुरु के सानिध्य में रहने से एक रूप से दिबस और रात्रि के प्रथम और अन्तिम प्रहरों को स्वा- ओर व्यक्ति का हृदय शंकाओं से आक्रांत नहीं होता है, क्योंकि ध्याय के लिए अधिक उपयुक्त काल माना गया है। इन्हें क्रमशः शंका होने पर उसके समाधान के लिए गुरु का सानिध्य बना पूर्वान्ह, अपरान्ह, प्रदोष और प्रत्यूष कहा गया है। स्वाध्याय के रहता है। दूसरी ओर उसके चारित्र का भी अनुरक्षण होता है या ज्ञानार्जन के लिए निषिद्ध समय की चर्चा करते हुए यह क्योंकि गुरु का सानिध्य होने पर वह सहज रूप से चारित्र के बताया गया है कि सूर्योदय का काल, सूर्यास्त का काल, मध्यान्ह दोषों को सेवा में अग्रसर नहीं हो पाता है। इसी प्रसंग में इस और अर्ध रात्रि का काल, ये चार काल अथवा चार संध्याएं तथ्य की चर्चा भी उपलब्ध होती है कि गुरु को शिष्य से सत्य स्वाध्याय के लिए उपयुक्त नहीं है। इसी प्रकार से स्थानांव में को नहीं छिपाना चाहिए। अपसिद्धांत का आश्रय लेकर आगममी उन सभी स्थितियों का विस्तारपूर्वक विवेचन किया गया है, पाठ को तोड़-मरोड़ कर व्याख्या नहीं करनी चाहिए और न जिनमें स्वाध्याय नहीं की जानी चाहिए। इसी प्रकार जैन स्वयं अपने ज्ञान का अहंकार प्रदर्शित करना चाहिए। उसे प्राश आचार्यों ने इस सम्बन्ध में भी विस्तार से चर्चा की है कितनी और साधक प्रश्नकर्ता या श्रोता की उपेक्षा या परिहास भी नहीं दीक्षा-पर्याय वाले व्यक्ति को किस आगम का अध्ययन कराया करनी चाहिए । इस प्रकार से आचार्य को शिष्य की शंकाओं जाना चाहिये । अध्ययन के लिए उपयुक्त वय, समम और साथ- का किस प्रकार समाधान करना चाहिए, इसकी भी विस्तार से नारमक परिपक्वता का विचार ही कालाचार है। चर्चा की गई है। दूसरे शब्दों में शिष्य के साथ-साथ गुरु के १ ३ आधाररांग टीका, १/१/७, (च. पृ. ५५) । प. पू. ७०-६६ । । २ च. पृ. ६२-६८ । Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० | धरणानुयोग : प्रस्तावना दायित्व बोध को भी स्पष्ट किया गया है। इसी प्रसंग में उत्तरा- जाये हुए स्वर और व्यञ्जन का अन्यथा उच्चारण नहीं करना ध्ययन ११वें अध्याय के आधार पर कौन व्यक्ति श्रद्धा के योग्य मही व्यंजनाचार है, क्योंकि उच्चारणभेद से पाठभेद और पाठबहुश्रुत हो सकता है, इसकी विवेचना की गई है। उसराध्ययन भेद होने से अर्थभेद होने की सम्भावना बनी रहती है। अतः के प्रथम एवं ग्यारहवें अध्याय में वया दशकालिक के नवें उस युग में जब सम्पूर्ण ज्ञान श्रुत-परम्परा से संचित रहता था अध्याय में बिनीत-अविनीत लक्षणों की विस्तृत पचा है। इसी तब व्यंजनाचार का अपने आप में महत्वपूर्ण स्थान था। वस्तुतः प्रकार सुयोग्य शिष्य को कैसा व्यवहार नहीं करना चाहिए, इस यह ग्रन्थ के मूलपाट को यथावत् सुरक्षित रखने की एक शैक्षिक प्रसंग में दशाश्रुतस्कन्ध में ३३ आशतनाओं का उल्लेख है। प्रणाली थी, जो कि आगम पाठों को यथावत् एवं प्रामाणिक अनुयोगकर्ता ने इन सभी तथ्यों को प्रस्तुत कुति में संकलित कर बनाये रखने के लिए आवश्यक थी। दिया है। इसी प्रकार आगम में आये हुए प्रत्येक शब्द का उसके उपधानाचार सन्दर्भ के अनुकूल सही अर्थ करना अर्थाचार है। सामान्यतया जैन परम्परा में शान साधना को तप साधना के साथ घोड़ा प्रत्येक भाषा में और विशेष रूप से प्राकृत भाषा में एक ही शब्द गया है, जिसे उनकी पारम्परिक भाषा में उपधान कहा जाता विभिन्न अर्थों में प्रयुक्त होता है। जैसे-"सुह" शब्द "सुख" है। प्राचीन काल से ही हमें इस तथ्य के संकेत उपलब्ध होते हैं और "शुभ" दोनों का वाचक है या "सत्य" शब्द शास्त्र और कि किस आगम का अध्ययन करते समय शिष्य को किस प्रकार शस्त्र दोनों का वाचक है । अतः आगमिक पाठों के अर्थ निर्धारण का तप करना चाहिए । इस प्रकार जहाँ एक ओर जैनाचार्यों ने करने में प्रमाणिकता को बनाये रखने के लिए यह आवश्यक ज्ञान-साधना और तप-साधना को परस्पर जोड़ा है वहाँ आगम माना गया कि अध्ययन में शुद्ध उच्चारण और सम्यक अर्थ का साहित्य में ऐसे भी प्रसंग हैं जहाँ नवदीक्षित एवं अध्ययनशील प्रतिपादन आवश्यक है। शब्द के उच्चारण और अर्थ निर्धारण शिष्य के लिए कठोर एवं दीर्घकालिक तपों का निरोध किया की संयुक्त प्रक्रिया तदुभयावार कही जाती है। गया है। ज्ञानार्जन के क्षेत्र में और उसके प्रतिपादन के क्षेत्र में किस अनिन्हवाचार प्रकार की सावधानी अपेक्षित है इसकी चर्चा सूत्रकृतांग में उपअनिन्हवाचार का सामान्य अर्थ है कि सत्य सिद्धांत और लब्ध होती है। उसमें कहा गया है कि शास्ता के प्रति श्रद्धा अपने विद्या-गुरु के नाम को छिपाना नहीं चाहिये । सामान्यतया रखते हुये श्रमण को न तो आयम का अन्यथा उच्चारण करना व्यक्ति अपने आप को बहुश्रुत या विद्वान सिद्ध करने के लिए चाहिये और न आगम के अर्थ को छिपाना या दूषित करना अपने ज्ञानदाता गुरुजनों की उपेक्षा करता है और उनका नामादि चाहिये । गुम से जिस प्रकार सूत्रार्थ की व्याख्या सुनी है उसे नहीं बताता है । यह प्रसंग विशेष रूप से उस समय उपस्थित गुरु के निर्देशपूर्वका यावत प्रतिपादन करना चाहिए। क्योंकि होता है जब शिष्य और गुरु में मतभेद उपस्थित हो जाता है सूत्र के अशुद्ध उच्चारण से अर्थभेद होता है। अर्थभेद से क्रिया और वह अपने गुरु से पृथक होकर और स्वयं अपने ही नाग से भेद होता है, क्रियाभेद से सम्यक् आचार के अभाव में निर्जरा सिद्धांत का प्रचार करता है। निन्हव शब्द का अर्थ सत्य को नही होती और निर्जरा के नहीं होने से मोक्ष भी नहीं होता। छिपाना है । अनेक बार व्यक्ति सत्य को जानते हुए भी अपनी इस प्रकार आगम-पाठ फी उच्चारण-शुद्धता और उनके प्रसंगाचारित्रिक कमजोरियों के कारण या अपनी सुविधा के लिए उसे नुसार सम्यक् अर्थ का प्रतिपादन ज्ञानार्जन प्रक्रिया की एक आखतोड़-मरोड़कर व्याख्यायित करता है। इस प्रकार की प्रवृत्ति श्यक शर्त है । सामान्यतया सुविधावाद शिथिलाचारी व्यक्तियों में पायी जाती है। स्वाध्याय वस्तुतः अनिन्हवाचार का तात्पर्य यही है कि व्यक्ति को अपने जैन परम्परा में स्वाध्याय को जान-साधना का अनिवार्य अहंकार के पोषण के लिये अथवा अपनी कमजोरियों को छिपाने अंग माना गया है। उत्तराध्ययन सूत्र में मुनि की दैनिक चर्या के लिये सत्य को विकृत नहीं करना चाहिये। वस्तुतः यह एक मा विवेचन करते हुये दिन और रात्रि के आठ पहरों में पार प्रकार से ज्ञान के क्षेत्र में प्रामाणिक बने रहने की शिक्षा है। प्रहर स्वाध्याय के लिए, दो प्रहर ध्यान के लिए एक प्रहर शारीजैनधर्म में आगम-पाठों को अपनी सुविधा के लिए तोड़-मरोड़ रिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए और एक प्रहर निद्रा के कर व्याख्या करना समीचीन नहीं माना गया है। लिए निश्चित किया गया है। इससे जैन साधना के क्षेत्र में व्यंजनाचार, अर्याचार और उपयाचार जान की उपासना का कितना महत्वपूर्ण स्थान है, यह स्पष्ट हो व्यञ्जनाचार का तात्पर्य शब्दों के उच्चारण की शुद्धता को जाता है। जैन आगमों में और परवर्ती ग्रन्यो में स्वाध्याय के बनाये रखना है । यह पाठ-शुद्धि की साधना है। आगम ग्रन्थों में लिए अनुपयुक्त काल और स्थान की भी चर्चा की गई है, जिसका Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सदाचरण : एक बौद्धिक विमर्श | ४१ विस्तृत उल्लेख प्रस्तुत चरणानुयोग ग्रन्थ में हुआ है। अतः इस निराकरण तभी सम्भव है, जबकि व्यक्ति उन्हें सस रूप में भूमिका में हम इमकी विशेष चर्चा नहीं करेंगे । जहाँ तक स्वा- जाने । जो व्यक्ति अपनी बीमारी और विकृति को जानता है ध्याय के स्वरूप का प्रश्न है यह एक विचारणीय प्रश्न है। वही चिकित्सा के माध्यम से उसका निवारण कर सकता है। सामान्यतया स्वाध्याय के निम्न पांच अंग माने गये हैं- अतः स्त्र के अध्ययन का तात्पर्य है व्यक्ति अपनी मनोदशाओं (१) वाचना--मूल ग्रन्थ एवं उसके अर्थ का पठन-पाठन। और वृत्तियों को जानकर उनका निराकरण करे। जैनागमों में (२) पुच्छाना--प्रन्थ के पठन में उपस्थित शंकाओं का समा- इस आत्मा के अध्ययन को स्वाध्याय नहीं कह कर ध्यान कहा घान प्राप्त करना। गया है जो स्वाध्याय बाद को जस्का है। स्वाध्याम को (३) परिवर्तनो-पठित ग्रन्थों की भावृत्ति करना या उनका आत्मज्ञान, चित्त की एकाग्रता (ध्यान) आदि का साधन माना है पुनः पठम करना। और आत्मानुभूति की प्रक्रिया को ध्यान कहा है। (४) अनुप्रेक्षा-पठित विषयों के सम्बन्ध में विशेष रूप से हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि चाहे शास्त्र का अध्ययन चिन्तन करना । स्वाध्याय का यह पक्ष चिन्तन या विमर्श की हो या अपनी वृत्तियों और वासनाओं का अध्ययन । सभी का महता को स्पष्ट करता है। __लक्ष्य हमारे मनोविकारों और बासनाओं का परिशोधन है और (५) धर्मकथा-प्रवचन वरना या उपदेश देना । वस्तुत: आत्म-शोधन की इस प्रक्रिया में ज्ञान मात्र "शान" न रहकर स्वाध्याय का यह अंग इस बात का संकेत करता है कि प्राप्त "ज्ञानाचार" बन जाता है। जान का वितरण भी जान-साधना का एक आवश्यक अंग है। जैनाचार्यों ने इन तथ्यों की विस्तारपूर्वक चर्चा की है कि किन्तु मेरी दृष्टि में यह सब स्वाध्याय का एक बाह्य रूप दोन व्यक्ति शिक्षा प्रदान करने के अयोग्य है। बहत कल्पसूत्र ही है। जैनों की पारम्परिक शब्दावली में रमे द्रव्य-स्वाध्याय (४/६) में नपुंसक (पण्डक), कामुक (वालिक) और क्लीय (हीन भी कह सकते हैं । स्वाध्याय का वास्तविक अर्थ क्या है? वह भावना से ग्रसित पक्ति) को शिक्षा प्रदान करने के अयोग्य स्वयं तो उस शब्द की व्युत्पत्ति में ही छिपा हुआ है। स्वाध्याय कहा गया है । उत्तराध्ययन सूत्र (११/५) में उन कारणों का सब्द स्व+अध्याय से बना है । अध्याय' शब्द अध्ययन, पठन एवं भी विश्लेषण किया गया है जिनकी उपस्थिति में ज्ञान प्राप्ति ममन का याचक है। यदि इस दृष्टि से हम इसका अर्थ करें तो सम्भव नहीं है । वे कारण पाच माने गये हैं--(१) मान (अहंकार), इसका एक अर्थ हो "स्व" अर्थात् स्वयं का अध्ययन । यहाँ (२) कोध, (३) प्रमाद (अनुत्साह), (४) रोग और (५) यह प्रमन स्वाभाविक रूप से उठता है कि स्त्रयं के अध्ययन से आलस्य । इस प्रकार जैनागमों में ज्ञान प्राप्ति की प्रक्रिया के क्या तासायं और माधना के क्षेत्र में इगको क्या उपयोगिता है ? रूप में ज्ञानावार का विस्तृत विवरण उपलब्ध होता है । ज्ञाना"आत्मानं विद्धि" यह उपनिषदों का महत्वपूर्ण उद्घोष है। चार वस्तुतः, ज्ञान का प्रयोगात्मक या व्यावहारिक पक्ष है । वह जैन परम्परा में आचारांग आत्मज्ञान की प्राथमिकता को प्रति- ज्ञानोपलब्धि की प्रक्रिया है। पादित करता है। "के अहं आसी" "मैं कौन है" यह उपनिषदों वर्शनाचार और जैन आगमों का मूल हार्द है, किन्तु हमें यह स्पष्ट रूप से जिस प्रकार ज्ञान को एक आचार अर्थात् साधना की एक समझ लेना चाहिए कि वह अमूर्त आरम तत्व जो समस्त ज्ञान विशेष प्रक्रिया माना गया है उसी प्रकार दर्शन को भी मानना प्रक्रिया का माधा' है. वह ज्ञान का विषय नहीं बनाया जा की एक प्रक्रिया के रूप में स्वीकार किया गया है । जैमा कि हम सकता, जो ज्ञान का विषय बन सकती हैं वे हैं व्यक्ति की अनु- पूर्व में संकेत कर चुके हैं जैन परम्परा में वर्णन शब्द ऐन्द्रिक भूतियाँ और भावनाएँ। व्यक्ति अपनी अनुभूतियों, बनियों, अनुभूति. आध्यात्मिक अनुभूति, आरनमाक्षात्कार, दृष्टिकोणवासनाओं और मनोदशाओं का ज्ञाता हो सकता है। इनका विशेष, दार्शनिक-सिद्धांत-विशेष, शनिक अथवा तत्वमीमांसीय माता होना या इनको जानने का प्रयत्न करना ही स्वाध्याय का अवधारणाओं के प्रति आस्था, तवा देव, गुरु, धर्म के प्रति मूल अर्थ है । स्वाध्याय का तात्पर्य है अपने अन्दर झांकना, व आस्था. इन विविध अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। किन्तु जब हम की वृत्तियों और वासनाओं को देगना, अपनी मनोदशाओं को दर्शन शब्द का प्रयोग दर्शनाचार के रूप में करते हैं तो यहाँ पढ़ना । जहाँ तक जैन साधना का प्रश्न हैं आभारांग' में साधक हमारा तात्पर्य उस प्रक्रिया विशेष या साधना विशेष से होता हैं को बार-बार यह कहा जाला है कि तू देख या दृष्टा बन । जिसके द्वारा व्यक्ति सम्यक-दृष्टिकोण को प्राप्त करता है। अतः निश्चित रूप से आध्यात्मिक विकास के लिए यह बहुत आवश्यक हमें दर्शनाचार की विवेचना करते हुए सर्वप्रथम उन तयो पर है कि व्यक्ति अपनी वासनाओं, मनोवृत्तियों और मनोभावों को विचार करना होगा, जिनके द्वारा अक्ति का वष्टिकोण दुषित जाने क्योंकि दुर्वासनाओं और दुर्भावनाओं और दुष्प्रवृत्तियों का होता है और फिर उन तथ्यों पर विचार करना होगा, जिससे Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ { चरणानुयोग : प्रस्तावना व्यक्ति की दृष्टि या श्रद्धा सम्यक् बनती है। क्योंकि दर्शनाचार विशुद्धि का आधार है। पुनः अनासक्ति का तत्व वैराग्य और का तात्पर्य है, व्यक्ति को मिथ्या मान्यताओं से छुटकारा दिला- पापकर्म से विरति का कारण बनता है, क्योंकि आसक्ति या राग कर सम्यक् मान्यताओं के प्रति सुरिथर करना । का तत्व ही हमें संसार से जोड़ता है और अशुभाचरण का कारण जैन परम्परा में अयथार्थ गान्यताओं के रूप में मिथ्या दर्शन होता है। की चर्चा करते हुए विपरीत मान्यताओं के साथ-साथ आग्रह किन्तु इन सबके अतिरिक्त जैन चिन्तकों ने सम्यक् दर्शन की अभिनिवेश, एकांत आदि को भी मिथ्यात्व की कोटि में माना उपलब्धि के लिये क्रोध, अहंकार (मान), कपटवृत्ति (माया) गया है । वस्तुत: जैनदर्शन सत्य को अपने सम्पूर्ण रूप में देखने और लोभ के तीनतम आवेगों अर्थात् अनन्तानुबंधी कषायों का का प्रयत्न करता है। यद्यपि वा करदारता है की "गंज- जावावयम् गाना है । जब तक इन तीव्रतम कषावों का धर्मात्मक वस्तु" के सम्पूर्ण पक्षों का बोध सीमित मानवीय ज्ञान उपशमन नहीं होता है तब तक सम्यक्-दर्शन की उपलब्धि और के द्वारा सम्भव नहीं है। अत: अपने ज्ञान की सीमाओं को उसका टिकाव सम्भव नहीं होता है। जानते हुए, दूसरे दृष्टिकोणों या सम्भावनाओं को पूर्णतः असत्य अत: दर्शनाचार की साधना का अर्थ है सदैव ही यह प्रयत्न कहकर नहीं नकारना; यथार्थ या सम्यक् पृष्टिकोण का आवश्यक करना था सजगता रखना कि कषायों या वासनाओं के आवेश अंग माना गया है । यह स्पष्ट है कि ऐकांतिक दृष्टिकोण या हमारी अन्तरात्मा की आवाज या मात्मानुभूति को दवा न लें। हमारे पूर्वाग्रह मथवा दुरभिनिवेश, सत्व को समझने में बाधक किन्तु प्रत्येक साधक के लिए यह सम्भव नहीं होता है कि वह होते हैं अतः सम्यग्दर्शन की उपलब्धि के लिये आवश्यक यह है अपने दृष्टिकोण को पूर्वाग्नहों, राग-द्वेषजन्य दुरभिनिवेशों एवं कि व्यक्ति अपने को दुरभिनिवेश और पूर्वाग्रहों से मुक्त रखे। कषायों के तीयतम आवेगों से मुक्त कर सकें। जैन धर्म में पाश्चात्य दार्शनिक देकार्त ने भी इस तथ्य की विशेष रूप से साधना का मुख्य लक्ष्य वीतराग-दशा या समस्ख (सामायिक) चर्चा की है । क्यों कि जब तक व्यक्ति दुराग्रहों से और पूर्वाभि- की उपलब्धि माना गया है। अतः यदि हम सम्यक दर्शन का निवेश से मुक्त नहीं होता तब तक दृष्टि निर्मल नहीं होती और अर्थ रागद्वेप से ऊपर उठकर वस्तु के यथार्थ स्वरूप को जानने जब तक दृष्टि निर्मल नहीं होती तब तक बह सत्य को यथार्थ के लिए वीतराग इष्टि की प्राप्ति को माने तो स्वाभाविक रूप रूप में नहीं समझ पाता। जब तक व्यक्ति की दृष्टि पर राम से यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि ऐसी बीत राग दृष्टि वा निर्माण और द्वेष रूपी रंगीन चश्मा चढ़ा हुआ है, वह पूर्वाग्रह और तो साधना के अन्त में होता है। जबकि सम्यक् दर्शन को साधना दुरभिनिवेशों से मुक्त नहीं है, तब तक उसके लिये सत्य का का प्रारम्भिक एवं आवश्यक चरण माना गया है। इस समस्या दर्शन सम्भव नहीं है । अतः दर्शन-विशुद्धि के लिए अपने पूर्वाग्रह के समाधान के लिए जैन आचार्यों ने यह व्यवस्था दी कि जब और दुरभिनिवेश को छोड़ना होगा। तक व्यक्ति स्वयं दुगग्रहों और दुरभिनिवेश से मुक्त होकर वीतजैनागमों और विशेष रूप से सूत्रकृतांग में उन ऐकांतिक राग जीवन-दृष्टि को उपलब्ध नहीं कर पाया है तब तक उसके मिथ्या धारणाओं का उल्लेख है जिन्हें मुख्यल: त्रियाबाद, अक्रिया- लिये यही उचित है कि वह वीतराग के वचनों के प्रति आस्तिक्यबाद, अज्ञानवाद और विनयवाद से वर्गीकृत किया गया है किन्तु बुद्धि या श्रद्धाभाव रखे । रोगी को रोग से मुक्त होने के लिए इसके अतिरिक्त ईश्वरक्तृत्ववाद, एकत्ववाद, अण्ठं से सुष्टि दो ही विकल्प होते हैं, या तो वह स्वयं अपनी बीमारी को की उत्पत्ति, नियतिवाद, भौतिकवाद या भोगवाद आदि का भी समझ कर और उसके निराकरण का प्रयत्ल करे। किन्तु यदि उल्लेख एवं खण्डन जैनागभों में देखा जाता है। सम्यक्-दर्जन के वह स्वयं इम क्षेत्र में अपने को असमर्थ अनुभव करता है तो जिन पांच लक्षणों की चर्चा हमें जैन आगम साहित्य में मिलती उसके लिए वैद्य का सहारा लेना, उराके आदेगों को मानना है उनमें समस्त का स्थान पहला है । समभाव, अनासक्ति, पाप- और तदनुरूा व्यवहार करना अत्यावश्यक होता है। यही बात कर्मों के प्रति भव, दूसरे प्राणियों को आत्मवत् समझकर उनके आध्यात्मिक सन्दर्भ में भी है । या तो व्यक्ति स्वयं अपनी आध्याप्रति घसा ही व्यवहार करना जैसा कि अपने प्रति चाहते हैं त्मिक विकृतियों को या अपूर्णताओं को समझे और उन्हें स्वयं और वास्तिक्य या श्रद्धा ये पांच गम्या दर्शन के लक्षण गाने ही दूर करने का प्रयत्न करे । आध्यात्मिक विकृति से यहाँ हमारा गये हैं। इनमें भी समत्व और अनासक्ति प्रमुख तत्व है, समत्य तात्पर्य राग-द्वेष और कषायों से मुक्त होना है। यदि व्यक्ति से प्राणियों को आत्मवत् मानने का बोध उत्पन्न होता है, जो इतना समर्थ नहीं है कि वह सजग होकर अपनी वासनात्मक अनुकम्पा का कारण बनता है, साथ ही समत्व की साधना से वृत्तियों या चित्त को विकृतियों को देख सके और उनसे अपर सांसारिक अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितियों में नित की अवि- उठ गके, तो उसके लिए दूसरा उपाय यही है कि प्रबुद्ध-आत्माओं चलता बनी रहती है। यही वास्तविक रूप में दृष्टिकोण वो के उपदेशों को श्रद्धापूर्वक स्वीकार करके तदनुरूप साधना करे। Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सदाचरण : एक बौद्धिक विमर्श | ४३ यही साधना के क्षेत्र में श्रद्धा या आस्तिवय-बुद्धि का स्थान होता चार की चर्चा के संग में उसके विविध रूपों की विस्तृत चर्चा है । यही दर्शनाचार है। यहाँ सम्भव नहीं है। फिर भी हम यदि ऐतिहासिक विकास की तस्वार्थ सूत्र में सम्यक-दर्शन के दो रूप माने गवे हैं (१) दृष्टि से विचार करें तो जैन धर्म में सम्यक्-दर्शन शब्द के अर्थ निसर्गज और (२) अभिगमन ।' इसी को उत्तराध्ययन सूत्र में का जो विकास हुआ है उसमें आने चलकर सत्य की अनुभूति निसर्गचि-सम्यक्त्य और उपदेशरुचि-सम्यक्त्व कहार ध्यालायित अथवा पूर्वाग्रहों से मुक्त दुष्टि की अपेक्षा क्रमशः आस्था और किया गया है। निसनचि सम्यक्त्व का मतलब है कि विना श्रद्धा का तत्व प्रधान होता गया और अन्त में यह देव, गुरु और परोपदेश के स्वयं ही अपनी कषायों और वासनाओं की मन्दता धर्म या शारत्र के प्रति श्रद्धा का वानक बन गया, किन्तु प्रारम्भ के कारण सत्य का यथार्थ रूप में दर्शन कर लेना । व्यक्ति के में वह स्थिति नहीं थी, दर्शन शब्द आत्मानुभूति या द्रष्टाभाव जीवन में कभी-कभी ऐसे अवसर उपलब्ध हो जाते हैं जब स्वा- का बावक था। उसके पश्चात भी सम्पद दर्शन में श्रद्धा का भाविक रूप से ही उसकी कषायों और बासनाओं का आवेग कम स्थान होते हुए भी वह श्रद्धा तात्विक मान्यताओं के सन्दर्भ में हो जाता है और व्यक्ति सत्य का दर्शन या अनुभूति करने लगता थी; व्यक्ति विशेष के प्रति नहीं। है। वह अपनी कषायों की तरतमता के आधार पर निश्चित प्राचीन ग्रन्थों में गात्मा के अस्तित्व, आत्मा की नित्यता, रूप से अपनी आरिमक विकृतियों या कमजोरियों को जान लेता आत्मा का कर्तृत्व एवं भोक्तृत्व, आत्मा की मुक्ति की सम्भावना है। इसे एक अन्य उदाहरण से इस प्रकार समझा जा सकता है और मुक्ति के मार्ग को स्वीकार करना ही सम्यन् दर्शन माना एक पाण्डुरोग से ग्रस्त व्यक्ति रक्त में पीलेपन की मात्रा के गया; किन्तु जब हम आपमों में सम्यक्-दर्शन के आठ अंगों और सरतमता के कारण जद वह जान लेता है कि उसकी दृष्टि में पांच अतिचारों की चर्चा को देखते हैं तो निश्चित ही हमें धार्मिक कहीं दोष है, तो वह उसकी चिकित्सा या निधारण का प्रयत्न वास्थाओं के प्रति श्रद्धा को दृढ़ करने के प्रयल दिखाई देते हैं। करता है । किन्तु सभी लोगों में इतनी वैचारिक परिपक्यता नहीं इसी प्रसंग में उत्तराध्ययन सूत्र में सम्यक्त्व के आठ प्रभावना होती है कि वे अपनी विकृतियों को सम्यक् प्रकार से जान भी अंगों को चर्चा हुई है। यहाँ प्रभावना का तात्पर्य लोगों को जिन नहीं पाते हैं । उनके लिए यही उचित होता है कि वे चिकित्सक धर्म के प्रति आकर्षित करना और उसमें उनकी श्रद्धा को दूर की रालाह मानें और तदनुरूप अपनी बीमारी को दूर करने का बनाना है । यह आठ प्रभावना अंग निम्न हैं:प्रयत्न करें। (१) जिन प्रवचन के प्रति सन्देह से रहित होना। उसराध्ययन सूत्र में सम्यक्त्व के प्रकारों के सन्दर्भ में दस (२) फलाकांक्षा अथवा अन्य धर्म और दर्शन की आकांक्षा प्रकार की सम्यक्त्व रुनि का विवरण मिलता है। हमने यहाँ से रहित होना। उनमें से केवल दो निसर्ग रुचि और उपदेश रुचि का विवेचन (३) जिनधर्म के प्रति आलोचक दृष्टि का अभाव । किया है। उपदेश शचि का तात्पर्य है दूसरों के माध्यम से सत्य (४) मूर्खतापूर्ण अन्ध विश्वासों से मुक्ति । के स्वरूप को सुनकर आस्था या विश्वास रखना । इन कचियों में (२) अपनी श्रद्धा को सबल बनाने का प्रयत्न । आज्ञारुचि, क्रियारुचि भी महत्वपूर्ण है। वरिष्ठजनों की अथवा (६) धर्म मार्ग से विचलित लोगों को पुनः स्थिर करना। वीतराग की आज्ञा के पालन को ही धर्म साधना का सर्वस्व' (७) स्वधर्मी बन्धुओं के प्रति पात्सत्य भाव अर्थात् उनके समझना यही आज्ञा-रुचि-सम्यक्त्व है । इसी प्रकार अभिगम-रुचि सुख-दुःस में सहभागी बनना । सम्यक्त्व का तात्पर्य है बुद्धि पूर्वक सत्य को समझकर उस पर () जिनधर्म की प्रभावना या प्रसार का प्रयत्न करना। श्रद्धा करता। इस प्रकार यहाँ हम स्पष्ट रूप से यह देखते हैं कि जहाँ इसी प्रकार जिस व्यक्ति की रुचि और आस्था का केन्द्र सम्यक्-दर्शन के मूल में पूर्वाग्रहों से रहित और समभाव से युक्त धार्मिक विधि-विधानों या धार्मिक त्रिया-काण्डों का सम्पादन होने या साक्षी भाव में स्थित रहने की बात मुख्य थी। वहीं होता है उसे क्रियारूचि सम्पत्व कहा जाता है। इनमें हम देखते आगे चलकर धार्मिक अभिनिवेश और आस्था की पुष्टि के प्रयल है कि जहाँ निसगरुचि और अभिगम रचि में समक्षपूर्वक आस्था प्रमुख होते गये 1 वर्शन आत्म-दर्शन से तत्वदर्शन और फिर होती है वहाँ उपदेशरुचि, आशारुचि और क्रिया-रचि में विवेक श्रद्धाभाव बग गया। के स्थान पर आस्था का पक्ष अधिक महत्वपूर्ण होता है । दर्शना- इसी प्रकार जब दर्शन के पांच अतिचारों की वर्षा हुई तो १ तत्वार्य. १/३ । ३ उत्तराध्ययन २८, गा.१६-२७ । २ उत्तराध्ययन २०१६, स्वानांग २/१/५६ । ४ उत्तराध्ययन २८/३१ । Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ घरमानुयोग प्रस्तावना उसमें भी जिनवचन के प्रति शंका फरने, अन्य गत की आकांक्षा लोकवाद, क्रियावाद और कर्मवाद की स्थापना की गई है। या इच्छा करने, अन्य धर्मावलम्बियों के साथ सम्पर्क रखने और वस्तुतः, प्रारम्भ में जैन परम्परा में सम्पर-दर्शन वा तात्पर्य उनकी प्रशंसा करने का निषेध कर दिया गया। क्योंकि ये ही आत्मानुभूति या गाक्षीभाव था। उसके पश्चात् आत्मा और ऐसे आधार थे जिनके द्वारा किसी व्यक्ति की जिनधर्म के प्रति लोक के अस्तित्व को स्वीकार कर आत्मा को अपने फर्मानुसार आस्था को सुरक्षित रखा जा सकता था । यद्यपि ये तथ्य सम्यक्- फल प्राप्ति के रूप में विविध योनियों में जन्म लेने वाला स्वीदर्शन के मूल न साथ संमति ही रसाकि स कार करता माना गया । बद्रव्यों और नौ तत्वों के प्रति आस्था दर्शन का भूल तात्पर्व तो रात्य-निष्ठा या निष्पक्ष दृष्टि से को सम्यक् दर्शन कहा गया है, फिर जिन और जिन आगमों के सत्यान्वेषण का प्रयास करना है। जहाँ सम्यक्-दर्शन के अति- प्रति आस्था को ही सम्यक् दर्शन कहा गया है। यही आगे चलचारों की चर्चा के प्रसंग में संशाय को एक अतिचार माना गया कर देव, गुरु और धर्म के प्रति श्रद्धा वाचक बना । इस समस्त है और उसकी गणना "हेय" तस्व में की गई है। वहीं आचा- चर्चा से यह भी सिद्ध होता है कि दर्शन शब्द मात्र विश्वास का राग में संशय को ज्ञान का आवश्यक साधन माना गया है। प्रतीक न होकर विश्वास के अनुरूप जीवन जीने का सूचक है उसमें कहा गया कि “जो संशय का परिज्ञाता होता है, वह और इसी अयं में वह दर्शनाचार बन जाता है। संसार का परिमाता होता है।"1 वस्तुतः यहाँ संशय की शान बर्शनाचार प्रस्तुत कृति में की प्राप्ति में बाधक न मानकर, ज्ञान के विकास का कारण दर्शनाचार का प्रारम्भ दर्शन के स्वरूप की चर्चा से किया माना गया है । यहाँ संशय व्यक्ति की जिज्ञासावृत्ति का सूचक गया है । इसमें सम्यक् दर्शन के लक्षण एवं प्रकार, सम्यक-दर्शन है। क्योंकि जिज्ञासा वृत्ति के अभाव में ज्ञान का विकास नहीं का फल, उसकी प्राप्ति के लिए अनुकूल आयु, काल एवं दिशाएँ होता है । इसी प्रकार जहाँ सम्यक्-दर्शन के अतिचारों के रूप जैसी महत्वपूर्ण विषयों की चर्चा के साथ-साथ सम्यक्त्व की में अन्य मत की प्रशंसा करना और उनके अनुयायियों के साथ प्रभावना के आठ अंग, रुचि के आधार पर सम्यक्त्व के दस सम्पर्क रखना अनुचित माना गया है, वहाँ सूत्रकृतांग में उन प्रकारों की पर्चा भी प्रसंगानुसार मिलती है, जिनका संकेत हम व्यक्तियों की आलोचना की गई है, जो अपने मन की प्रशंसा पूर्व में कर चुके हैं। प्रस्तुत ग्रन्थ में सम्यग्दर्शन के सम्बन्ध में और दूसरे के मत की निन्दा करते हैं। मात्र यही नहीं सूत्रकृतांग इन महत्वपूर्ण चर्चाओं के अतिरिक्त बोधि की सुलभता एवं घुलमें तो बसितकेवल, नमि, रामपुत्र, बाहुक, पाराशर, वैपायन भता के पाँच कारणों पर भी प्रकाश डाला गया है। इसी प्रसंग आदि को जिन-प्रवचन सम्मत माना गया है।' उत्तराध्ययन में में तीन प्रकार के दुर्बोध्य तथा तीन प्रकार के सुबोध्य जीवों का भी अन्यलिंग सिखों का उल्लेन है ही। ऋषिभाषित में नारद, वर्णन करते हुए सुलभबोधि और दुर्लभबोधि के लक्षणों एवं याज्ञवल्क्य, बारुलि, उद्दालक, संखलिगोसाल संजय (यद्धिपुट) उनके अन्तर को स्पष्ट किया गया है। साथ ही बोधिलाभ में सारिपुत्र महाकाश्यप आदि को अहतमहर्षि का सम्मानित पद बाधक एवं साधक हेतुओं का विस्तृत विवरण भी उपलब्ध होता दिया गया है। इस प्रकार इन दोनों दृष्टिकोणों में एक महत्व- है। श्रद्धालु और अश्रद्धालु के अन्तर को स्पष्ट करते हुए अंत में पूर्ण अन्तर है और जो इस बात का भी सूचक है जो सम्यक् यह बताया गया है कि मम्यक-दृष्टि का समस्त जान एवं आचार दर्शन शरुद किसी युग में आग्रहमुस्त दृष्टि से सत्यान्वेषण या भी सम्यक् रूप में परिणत हो जाता है। आत्मानुभूति का परिचायक था, वही आगे चलकर एक परम्परा इसी प्रसंग में सम्यग्दर्गी श्रमण के परीषहजय अर्थात् विशेष की मान्यताओं से बद्धमूल होने लगा। यद्यपि सूचकृतांग साधना मार्ग में सफलता तथा असम्यग्दर्शी धमण के परीषहमें भी हमें अन्य मतों की समगलोचना उपलब्ध होती है किन्तु के पराजय अर्थात् साधना के क्षेत्र में विफलता की चर्चा की गई है। समालोचनाएँ मूलत: या तो एकांतिक और अयुक्तिसंगत मान्य- पुनः सम्यक्त्व-पराक्रम अर्थात् सम्यवस्व साधना के अंगों की ताओं के प्रति है, या फिर शिथिलाचारी या स्वच्छद प्रवृत्ति के उत्तराध्ययन सूत्र के २६ अध्याय के आधार पर चर्चा की गई लिए हैं । जहाँ सुत्रकृताग में मुख्यतया पंचमहाभूतवादी, ईश्वर- है। इसके साथ ही संवेग, निर्वेद आदि की चर्चा भी की गई है। कर्तृत्ववादी, लात्माद्वैतवादी, नियतिवादी आदि अवधारणाओं इसमें चार प्रकार की श्रद्धा और सम्यक्त्व के पांच अतिचारों की समालोचना प्रस्तुत की गई है, वहाँ आचारांग में आत्मवाद, का भी विशद विवेचन उपलब्ध है। इसी प्रसंग में अनुस्रोत और १ ३ आचारांग १/५/३/१४६ । वही १/३/४/१-४ २ सूत्रकृतांग १/१/२/२३ । ४ ऋषिभाषितः एक अध्ययन (डा. सागरमत जैन). १७-१८ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सदासरण : एक बौद्धिक विमर्श | ४५ ... प्रतिनोत जैसे महत्वपूर्ण विषयों की चर्चा के साथ-साथ अस्थि- सर्वप्रथम चरणविधि के महत्व का प्रतिपादन किया है। रात्मा कैसा होता है, यह भी विभिन्न उपमाओं से बताया गया इसके पश्चात् संवर की उत्पत्ति और अनुत्पत्ति कब, किस बय है । साधुता से पतित श्रमण की दशा का वर्णन करते हुए संयम में और किस प्रकार होती है इसकी चर्चा की गई है। तदनन्तर साधना में रत रहने वालों को सुखी तथा उससे पतित होने वालों आश्रव और संकर के स्वरूप का कथन किया गया है। पांच को दुःखी कहा गया है तथा श्रमणों को संयम में स्थिर रहने का संवर द्वारों पर प्रकाश डालते हुए यह बताया गया है कि अविरति संदेश दिया गया है। मिथ्यादर्शन पर विजय पाने से क्या लाभ और विरति से जीव किस प्रकार गुरुता और लधुता को प्राप्त होता है इस पर भी प्रकाश राला गया है। चार अन्यतीथियों होता है । उसी क्रम में दस प्रकार के असंवर दस प्रकार के की श्रद्धा का निरसन करते हुए क्रमशः तज्जीवः ततशरीरवाद, संदर की चर्चा करते हुए यह बताया गया है कि संवर करने पंच महाभूतवाद, ईश्वरकारणिकवाद तथा नियतिवाद की समा- बाला ही महायज्ञ का कर्ता है। इसके पश्चात् दस प्रकार की लोचना की गई है। मिथ्याधियों की इस चर्चा के प्रसंग में असमाधि और दस प्रकार की समाधि तथा असंवृत और संवत सूत्रकृतांग में उल्लेखित सृष्टि की उत्पत्ति के विभिन्न सिद्धांतों, अणगार के संसार परिभ्रमण की चर्चा के साथ-साय चारित्र बास्म अफर्तावाद, एकात्मवाद, आत्मषष्ठवाद और पंचमहाभूत सम्पन्नता के फल की भी चर्चा की गयी है। तदन्तर चारित्राचार के अतिरिक्त अवतारवाद, लोकवाद एवं पंच-स्कन्धवाद की भी में पांच महायतों की विस्तृत विवेचना उपलब्ध होती है। समीक्षा की गई है । किन्तु इसके साथ-साथ सूत्रकृतांग में यह प्रथम महावत के रूप में अहिंसा के स्वरूप और उसकी भी बताया गया है कि जो अपने मत की प्रशंसा एवं अन्य मत आराधना का वर्णन किया गया है। प्रसंगानुसार प्रथम महावत की निन्दा करते हैं वे संसार में परिभ्रमण करते हैं। इस गाथा की प्रतिज्ञा का स्वरूप, अहिंसा के साठ नाम, भगवती अहिंसा में हमें जैन दर्शन की अनेकान्तवादी या सहिष्णुवादी दृष्टि के की आठ उपमाएँ एवं अहिंसा के स्वरूप के प्ररूपक और पालक दर्शन होते हैं । मिथ्यास की इस चर्चा के प्रसंग में मिध्यादर्शन विभिन्न प्रकार के साधकों की चर्चा है। इसके पश्चात् अहिंसा के भेद-प्रभेदों की पर्या के साथ-साथ मोहमूतु वा मिथ्यादृष्टि के आधार के रूप में आत्मवत् १ष्टि जैसे महत्वपूर्ण विषय का की दुर्दशा पर भी चर्चा की गई है। उसमें ही प्रसंगानुसार विवेचन मिलता है। विवाद या शास्त्रार्थ के छह प्रकारों तथा विपरीत प्राणा के हिला के निषेध के लिये प्रथमत: छह जीवनिकायों का विवेप्रायश्चित्त का विधान भी उपलब्ध होता है। अन्यतीथियों के चन किया गया है। तत्पश्चात् इन जीवनिकायों' की हिंसा नहीं चार सिद्धांतों पथा-क्रियावाद, अक्रियावाद, विनयवाद तथा करने की प्रतिज्ञा पर बल डाला गया है । षड्जीवनिकाय में अज्ञानवाद की विस्तृत चर्चा भी हम जैनागमों में पाते हैं। यहाँ प्रथम पृथ्वीकाय, जीवों की चर्चा करते हुये पृथ्वीकाय जीवों को सूत्रकृतांग के आधार पर इन चारों ही प्रकार के सिद्धांतों के वेदना को मनुष्य को वेदना के समान बताकर उनकी हिंसा का स्वरूप की चर्चा की गई है और इनके एकांतवादी रूपों को निषेध किया गया है। समझाने का भी प्रयास किया गया है । इसी चर्चा में श्वेतकमल इसी तरह का विवरण अपकायिक जीवों, तेजस कायिक को पाने में सफल नि:स्पृह भिक्षु का उल्लेख किया गया है एवं जीवों, वायुकायिक जीवों, बनस्पतिकायिक जीनो तथा प्रसका यिक एकांत दृष्टि के निषेध पर बल दिया गया है। साय ही पाया. जीवों के सम्बन्ध में भी दिया गया है। इसी प्रसंग में आर्यपत्यों बर्थात् शिथिलाचारियों की प्रशंसा, उनसे संसर्ग आदि के अनार्य वचनों के स्वरूप, बालजीवों का पुनः-पुनः मरण प्राप्त प्रायश्चित्त की क्या व्यवस्था है इसका उल्लेख हुआ है। करना, अयतना का निषेध तथा छः जीवनिकाय की हिंसा के ___ अन्य तीथियों की मोक्ष अवधारणा और उन अवधारणाओं परिणामों पर भी प्रकाश डाला गया है। पारित्राचार के इसी के परित्याग पर विस्तृत विवेचन उपलब्ध होता है। चर्चा के सन्दर्भ में षडजीधनिकाय की हिंसा के प्रायश्चित्त पर भी व्यापक इस प्रसंग में निर्वाण ही साध्य है, ऐसा बताया गया है। मोश चर्चा मिलती है । इसमें सचित्त (हरे) वृक्ष के मूल में मलमूत्र मार्ग में बधमत्त भाव से गमन करने के उपदेश के साथ यह भी आदि का विसर्जन करना, सचित्त वृक्ष पर चढ़ना, प्राणियों को कहा गया है कि निर्वाण का मूल सम्यकदर्शन है। प्रधान मोक्ष- बौधना आदि के प्रायश्चित्तों को विस्तारपूर्वक चर्चा की गई है। मार्ग की चर्चा करते हुए गुरु और वृद्धों की सेवा, स्वाध्याय, प्रायश्चित्त विधान को लेकर हमने इसी भूमिका में अन्यत्र एकान्तबास आदि उसके महत्वपूर्ण उपाय बताये गये हैं। अन्त में विचार किया है। इसमें सन्मार्ग और उन्मार्ग के स्वरूप का चित्रण किया गया है। सदोष चिकित्सा का निषेध करने के क्रम में गृहस्थ से नख, चारित्राचार-चारित्राचार के अन्तर्गत प्रस्तुत ग्रन्थ में निम्न दांत, ओष्ठ आदि रंगवाना, फोड़े, व्रण आदि की पाल्य चिकित्सा विषयों का संकलन किया गया है करवाना, वैयावृत्य (सेवा) करवाना, गृहस्थत रिकित्सिर की 1 देखें-सूत्रकृतांग १/३/४/१-४। Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ चरणानुयोग प्रस्तावना अनुमोदना सीख कृमि आदि की अनुमोदन की वर्षा के साथ अन्यतीयिकों के अदत्तादान सम्बधी भागों निषेध किया गया है । का निराकरण किया गया है। निर्ग्रन्थ निग्रन्थिनी द्वारा परस्पर चिकित्सा करने सम्बन्धी प्रायश्चित की प्रबंध में निम्न बातों पर प्रायश्चित करने का विधान किया गया है। जैसे निर्ग्रन्थ द्वारा के पैरों आदि की साज-सज्जा, निर्ग्रन्थी द्वारा निर्भय के पैरों आदि की साज-सजा (परिकर्म), निन्य द्वारा निर्भीके व एवं निर्ग्रन्थ व्रणों गण्डादि की चिकियो करना, निर्ग्रन्थी द्वारा निर्ग्रन्थ के व्रणों एवं गण्डादि की चिकित्सा, निग्रन्य और निर्बंन्धी द्वारा परस्पर एक दूसरे के कृमि निकालना आदि के प्रायश्चित का विधान जैसागमों में उपलब्ध है। इसी तरह के प्रायश्चित्त अन्यतीर्थिक या गृहम् द्वारा निकित्सा करवाने तथा उनकी चिकित्सा करने के सम्बन्ध में भी है । प्रस्तुत ग्रन्थ में असा नामक प्रथम महाव्रत के परिष्टिक के अन्तर्गत प्रथम महाव्रत की पाँच भावनाएँ, बारम्भ-सारम्भ समागम तथा अनारम्भ असारम्भ और असमारम्भ के सात-सात प्रकारों, प्राण सूक्ष्म, पनक सूक्ष्म, बीज सूक्ष्म, हरित सूक्ष्म, पुष्प सूक्ष्म, अण्ड सूक्ष्म, लयन सूक्ष्म (बिल) तथा स्नेह सूक्ष्म आदि आठ सूक्ष्मों की चर्चा और उनकी हिंसा का विषेध, दस प्रकार के अदम है। स्थविरों के विवाद जैसे महत्वपूर्ण विषय साथ ही पाप श्रमण का स्वरूप, अन्यतीथिकों का साथ पृथ्वीकायिक हिंसा विषय का भी संकलन किया गया है । द्वितीय सत्य महाव्रत की चर्चा करते हुए मृषावाद विरगण महाव्रत की प्रतिमा एवं उनकी चर्चा है। पाँच भावनाओं तदनन्तर सत्य वचन की महिमा, सत्य वचन की छः उपमाएं, अवक्तव्य तथा वक्तव्य सत्य, सत्य वचन का फल और मृषावाद के प्रायश्चित्तों का वर्णन किया गया है। इस प्रसंग में नहीं बोलने योग्य छः प्रकार के वचनों का निषेध किया गया है। तृतीय अस्तेय महाव्रत प्रतिपादन करते हुए उसकी प्रतिज्ञा, उसकी पाँच भावनाएँ, दत्त अनुज्ञात संबर के आराधक, दत्त अनुज्ञात संबर के फल, अन्य भी साधना के उपकरण एवं स्थान का उपयोग हेतु ग्रहण के विधि-निषेध की चर्चा है। इसके पश्चात् यह कहा गया है कि राज्य परिवर्तन या राजा के वंश विच्छेद या पराजित होने पर परिवर्तन की स्थिति में नये राजा की अनुमति पूर्व ही नहीं बिहार एवं स्थान (अव) आदि का उपयोग कल्पनीय होता है। अन्त में अदत्तादान के प्रायश्चित्त का विशद विवेचन उपलब्ध होता है। इसमें किसी अन्य श्रमण के शिष्य या आचार्य के अपहरण का भी प्रायश्चित्त बताया गया है । age ब्रह्मचर्य महात्रत की चर्चा में ब्रह्मचर्य का स्वरूप, उसकी प्रतिज्ञा मैथुन विरगणयत की पोन भावनाएं बाप महिमा, उसकी संतीस उपमाएँ, उसके खण्डित होने पर सभी महाव्रतों का खण्डित हो जाना, ब्रह्मचर्य साधना की अनुकूल एवं प्रतिस्थितियाँ ब्रह्मचर्य की आराधना का फल की ब्रह्मचर्य साधना के अनुकूल बय प्रहर, जैसे विषयों पर प्रकाश डाला गया है । ब्रह्मचर्य की निष्नि साधना सम्बन्धी निर्देशों के साथ विविक्त शयनासन के सेवन का सुपरिणाम तथा स्त्री के साथ आसन पर बैठने, उसको इन्द्रियों के अवलोकन करने तथा वारानाजन्य शब्दों के उच्चारण का निषेध किया गया है। इसी प्रकार पूर्व अनुभूत भोगों के स्मरण का निषेध, विकारवर्धक आहार करने का निपेध, अधिक आहार करने का निषेध, विभूषा का निषेध, शब्दादि विषयों में आसक्ति का विषेध तथा वेश्याओ के निवास सम्बन्धी मार्ग में आवागमन का निषेध किया गया है। इसी चर्चा में ब्रह्मचर्य के अठारह प्रकारों का निरूपण भी स्पष्ट रूप से किया गया है। ब्रह्मचर्य का पालन क्यो किया जाये इसकी चर्चा करते हुए कहा गया है कि यह अधर्म का मूल है तथा इसके पालन से स्त्रियों के सम्पर्क से होने वाले भवभ्रमण जन्य रोग नहीं होते हैं। ब्रह्मचर्य की इसी चर्चा में शारीरिक साज सज्जा कायादि का निषेध किया गया है। , J भिक्षु भिक्षुणी का परस्पर अथवा किसी गृहस्य से चिकित्सा करवाना या व्रण, गण्डादि की चिकित्सा करवाना एवं कृमि निकालने जैसे चिकित्सा के उपायों का सहारा लेने पर उनके प्रायश्चित्त का विधान किया गया है । परिकर्यकरण (वाय) की चर्चा के प्रसंग में शरीर परिकर्म, पादपरिक नसपरिकर्म, अपा-परिकर्म, ओष्ठ परि कर्म, उत्तरोष्य-रोग-शनि (दाढ़ी) परिवर्म दन्त परिकर्म चक्षुपरिकर्म, अक्षिण-परिकर्म, रोम-परिकर्म, केशपरिकर्ममादि की चर्चा है। इसी प्रसंग में स्वयं परिकर्म करने अथवा परस्पर अन्यतीर्थिकों एवं गृहस्थों से परिकर्म कराने सम्बन्धी प्रायश्चित्तों पर मी प्रकाश डाला गया है। आगमिक सन्दर्भों से यह स्पष्ट है कि जैन परम्परा में ब्रह्मचर्य की सुरक्षा को सर्वाधिक महत्व दिया गया है। इसलिए मैथुन के संस्से अपने लिंग के स्पर्श और स्पर्श के आस्वादन का निषेध किया गया है। इसी प्रकार मैथुन सेवन के संकल्प से गुरु अंगों के प्रक्षालन आदि का भी निषेध किया गया। इसी प्रकार मैथुन सेवन के लिए प्रार्थना करने, वस्त्र हटाने, वासना सम्बन्धी अंगों का संचालन करने, उन्हें सजाने परिशिष्ट में तृतीय अदत्तादान महाव्रत को पांच भावनाओं संवारने हस्तकर्म से दीपंपात करने आदि का न केवल निषेध · Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सदाचरण : एक यौद्धिक विमर्श |४. किया गया बल्कि इनके लिए चातुर्मासिक परिहारस्थान आदि परिग्रह की चर्चा के पश्चात् प्रस्तुत कृति में रात्रि भोजन कठोर प्रायश्चित्त की व्यवस्था भी की गई है। इसी प्रकार किसी निषेध और उसमें होने वाले दोषों का विवरण है। इसी सन्दर्भ भिक्षु, भिक्षुणी अथवा स्त्री-पुरुष को आकर्षित करने अथवा उसे में रात्रि में अशनादि ग्रहण करने, उनका भोग करने या उन्हें मैथुन सेवन के लिये सहमत करने हेतु वस्त्र पात्र आदि भिक्ष. संचित करके रखने में विविध प्रायश्चित्तों के विधान की चर्चा है। जीवन के उपकरणों अथवा आभूषण, माला आदि को रखने पर चारित्राचार की इस विवेचना के अन्त में पंच समितियों और भी जैन आचार्यों ने प्रायश्चित्त की व्यवस्था दी है। इसी प्रकार तीन गुप्तियों का वर्णन है। जहाँ समितियाँ आचार के विधिमैथुन-सेवन के उद्देश्य से कलह करके अपने साथियों को अलग पक्ष को प्रस्तुत करती है, वहाँ गुप्तियाँ निषेध पक्ष को प्रस्तुत कर देना, पत्र लिखना, पत्र लिखवाना, अथवा पत्र लिखने के करती हैं। समिति यह बताती है कि साधक को अपना जीवन उद्देश्य से बाहर जाना भी प्रायश्चित्त पोम्य अपराध माना गया थ्यवहार किस प्रकार संचालित करना चाहिये, जिसके फलस्वरूप है। इसी सन्दर्भ में वशीकरण, पौष्टिक आहार का सेवन आदि वह अपने आपको कम-बन्धन से मुक्त रख सके, जबकि गुप्तियों को भी निषिद्ध और प्रायश्चित योग्य अपराध माना गया है। का मुख्य उद्देश्य मन-वाणी की प्रवृत्तियों का नियन्त्रण या संयम पंच महावतों की चर्चा करते समय पंचम अपरिग्रह महावत करना है। सम्बन्धी विवेचन का प्रारम्भ अपरिचत महानत की प्रतिज्ञा से प्रस्तुत कृति में मुख्य रूप से एषणा समिति अर्थात् भिक्षा होता है। इसके पश्चात् अपरिग्रह महावत की पांच भावनाओं ग्रहण करने सम्बन्धी नियमों का विस्तार से विवेचन है। यह का वर्णन कर पांचों इन्द्रियों के संयम का विवरण प्रस्तुत किया सत्य है कि जैन परम्परा में आहार-शुद्धि के सन्दर्भ में विशेष गया है । वस्तुतः परिग्रह का मूल कारण इन्द्रियों की अपने सतर्कता रखी गयी है। इसमें दो ही दृष्टियां प्रमुख हैं-प्रथम विषयों की भोगाकांक्षा ही है । अतः इस भोगाकांक्षा पर विजय भिक्षु-मिक्षणियों का जीवन समाज पर भाररूप न हो। दूसरे पाने में ही अपरिग्रह की राधिना सम्भव है। साधुओं को किन यह कि वे हिंसा के दोष के भागी न बनें। इस सम्बन्ध में अधिवस्तुओं का संचय कल्प्य नहीं है इसकी पर्चा के प्रसंग में प्राचीन कांश विधि-निषेध इन्हीं दोनों सिद्धांतों के आधार पर हुए हैं। काल के कुछ मिष्ठानों का भी उल्लेख हुना है, विशेष रूप में यद्यपि इस संकलन में एपणा समिति का विवेचन अधिक विस्तार सबकुलि (तिनपापड़ी) वेडिम (वष्टिम जलेबी) का उल्लेख है। से हुआ है, किन्तु अभ्य समितियों की उपेक्षा भी नहीं हुई है। इसी प्रसंग में अपरिग्रही श्रमण की उपमा कमल पत्र से दी गई आश्चर्यजनक तथ्य यह है कि स्थानांग एवं उत्तराध्ययन में पंच है. जिस प्रकार कमल पत्र जल में रहकर भी इससे निलिप्त समितियों और तीन मुप्तियों को मिलाकर आओं का समितियों रहता है, उसी प्रकार श्रमण को भी, देह रक्षण के निमित्त जो के रूप में उल्लेख हुला है अर्थात् गुप्तियों को भी समिति के आहारादि किया जाता है, उसमें निलिप्त भाव से रहना चाहिये। अन्तर्गत ही वर्गीकृत कर लिया गया है, जबकि समयायांग में इसी प्रसंग में यह भी बताया गया है कि हिंसा वा मूल कारण इनका उल्लेस अष्ट प्रवचनमाता के रूप में हुआ है । विस्तार आसक्ति या परिग्रह ही है । जो परिग्रह में आसक्त होता है वहीं भय से हम इस सबक्री पर्वा में नहीं जाना चाहते हैं। विस्तार हिंसक होता है और वही बाल या मूर्ख कहा गया है । वस्तुतः से जानने के इच्छुक विद्वान इन्हें प्रस्तुत कृति से अथवा मेरे ग्रन्थ अनासक्ति ही साधना का मूलतत्व है और वही मुक्ति का आधार "जैन, बौद्ध और गीता के माचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्यभी है। इसी प्रसंग में प्रस्तुत चरणानुयोग नामक कृति में आसक्ति यन" भाग २ के "श्रमणाचार" नामक अध्ययन में देख सकते हैं। के निषेध पर विस्तृत चर्ना उपलब्ध होती है। यद्यपि जब तक ईर्ण समिति इन्द्रियाँ हैं, उनके विषयों का ग्रहण होगा, यह गम्भव नहीं है ईर्या समिति के वर्णन में उसके स्वरूप और भेदों का कथन कि इन्द्रियाँ अपने दिपयों की अनुभूति न करें, ऑस्त्र की उपस्थिति है। भगवती सूत्र में अणित प्रासुक बिहार का तात्पर्य बताया में रूप दिखाई देगा ही, थवणेन्द्रिय की उपस्थिति में शब्द सुनाई गया है गमनागमन से सांपरायिक क्रिया और इरियावही क्रिया देगा ही । आवश्यकता इस बात की है कि साधक उन ऐन्द्रिक का सम्बन्ध संयुत-असंवृत अणगार से किया गया है। अनुभूतियों में अपनी आसक्ति को न जोड़े और मन के अनुकूल विषम मार्ग में एवं प्राणियों आदि से अवरुद्ध मार्म में न और प्रतिकूल दोनों ही प्रकार की अनुभूतियों में साक्षी भाव जाना, रात्रि में बिहार न करता, अनार्य क्षेत्रों में नहीं विचरना से रहे। आदि विषयों का वर्णन है। अकारण अनार्य क्षेत्र में विचरने का __ इस चर्चा के अन्त में यह उल्लेख है कि जो भिक्षु आसक्त प्रायश्चित्त विधान करके साथ ही चोर आदि के उपद्रव होने का होकर इन्द्रियों के विषयों के पीछे भागता है, वह प्रायश्चिन का विशद वर्णन किया गया है। पात्र होता है। गृहस्थ से उपधि नहीं उठवाना, रास्ते में चलते समय बार्ता Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ | चरणानुयोग : प्रस्तावना लाप न करना, किसी के मार्ग पूछने पर या पशु-पक्षी आदि के एषणा के प्रमुख ४७ दोषों के स्पष्टीकरण के साथ शय्यातर विषय में पूछने पर मौन रहना, आस-पास के दर्शनीय स्थल पिड, राजपिड आदि की विस्तृत चर्चा हुई है। देखने में चित्त न लगाना आदि मार्ग सम्बन्धी अनेक महत्वपूर्ण (२) पाणेषणा के वर्णन में अनेक प्रकार के अचित्त जलों का विश्लेषण है। मार्ग में छोटी या बड़ी नदियों को पैदल या नाव वर्णन है। आगों में अचित्त जलों की संख्या निश्चित नहीं की द्वारा बिवेक से पार करने का भी निर्देश किया गया है। गई है किन्तु कुछ नाम उदाहरण के रूप में कहकर अन्य अनेक भाषा समिति अचित्त जलों के होने की एवं ग्रहण करने की सूचना की गई है। जैनाचार्यों ने समितियों में भाषा समिति का पालन अति आगमों में पाये जलों के नामों का स्पष्टार्थ करके कल्पनीयकठिन कहा है मत: ३ पाला में विवेक की जत्योधक आव- अकल्पनीय जलों को विभाजित किया गया है, साथ ही साथ श्यकता है। आचारांग और दणकालिक सूत्र के नाधार से यह शुद्धोदक और गर्म जल की पर्वा कर उनका अन्तर भी स्पष्ट समनाया गया है कि कब वचन प्रयोग करना और कब न करना, किया है। किस प्रकार करना और किस प्रकार न करना । ठाणांग सूत्र और पर्युषणा कल्प सूत्र के आधार से तपस्या इस प्रकरण के प्रारम्भ में भाषा के प्रकारों का कथन करके में भी विविध प्रकार के (धोबन) जलों को ग्राह्य कहा है । दाता उनका स्वरूप प्रशापना मुत्र के आधार से बताया गया है। की अनुज्ञा से स्वयं के हाथों से जल ग्रहण करने की विधि भी सावध भाषा, निश्चय भाषा प्रादि भाषाओं का निषेध एवं प्रज्ञा- कही है । अन्त में तत्काल बने हुए धोवण पानी के लेने का पक आदि भाषाओं का विधान किया है। प्रायश्चित्त विधान है। अर्थात् धोवन जलों के निष्पन ने के दान सम्बन्धी भाषा के सावध निबंध की चर्चा एवं उसमें कुछ समय (घड़ी अखंमृहूर्त) बाद ही उन्हें ग्रहण करना साधु को तटस्थ रहने का विवेक कर्मबन्ध से बचने के लिए कल्पता है। अधिकरणी भाषा का विवेक, संखड़ी एवं नदी आदि को देखकर (३) आहार पानी की गवेषणा के साथ-साथ मकान की शेलने का विवेक बताकर भाषा सम्बन्धी अनेक प्रायश्चित्तों का गवेषणा का भी महत्व है। संयम, शारीर, स्वाध्याय एवं परिविधान किया है। ष्टापन आदि की सुविधामों से युक्त होने के साथ-साथ चित्त की एवणा समिति एकाग्रता के योग्य उपाश्रय होना भी आवश्यक है । धान्य. वाद्य. इस प्रकरण के अन्दर (१) पिडषणा, (२) पाणेषणा, पदार्थ, जल, अग्नि, स्त्री अ.दि से युक्त उपाश्रय का निषेध और (३) शय्येषणा, (४) वस्त्रं षणा, (५) पाषणा, (६) जोहर- माथ ही कुछ आपयादिक विधान है। गषणा एवं (७) पादपोलणषणा आदि विभाग हैं। औद्देशिक आदि दोष एवं अनेक प्रकार के परिकर्म दोष युक्त (१) पिढेषणा में मधुकरी वृत्ति, मृगचर्या, कापोतवृत्ति, मवानों की चर्चा करते हुए एषणीय अनेषणीय उपाश्रम का अदीनवृत्ति आदि से एषणाओं का महत्त्व और उपमायुक्त चोभ- वर्णन है। गिया हैं। गृहरथ के घरों में ठहरने पर होने वाले दोषों की सम्भावना आहार, विगय, एषणा, भिक्षा, गोचरचर्या आदि के भेदों व्यक्त की गई है। का निरूपण है । तदनन्तर गवेषण विधि और गवेषण की योग्यता भित्ति से असुरक्षित ऊँचे स्थानों पर, जल युक्त नदी आदि का कथन करके पारिवारिक जनों के यहाँ भिक्षार्थ जाने या न के किनारे, कम ऊँचाई वाले घास के झुपड़ों में ठहरने का जाने का स्पष्टीकरण किया गया है। निषेध हैं। भिक्षाचर्या के घरों का, उनमें प्रवेश करने का तया अन्य चातुर्मासकाल के निकट लाने पर कैसे ग्राम आदि में ठहरना, विधानों का सूचन, उद्गम, उत्पादना एवं एषणा दोषों का इस विषय वा स्पष्टीकरण है, साथ ही एकाकी बहुश्रुत भिक्ष के अलग-अलग विस्तृत वर्णन, निर्दोष आहार ग्रहण करने का विवेक ठहरने के स्थान की चर्चा भी है । तदनन्तर पाच प्रकार के अदएवं निदोष विधि से उसे खाना इत्यादि एषणा समिति के महत्व- ग्रहों का कथन एवं अनेक प्रकार के अवग्रहों का उल्लेख किया है पूर्ण अंगों का कथन है। पूर्वाचार्यों ने बताया है कि समुद्र को साथ ही संस्तारक का ग्रहण, अनुजा, प्रत्यर्पण आदि की विधियों पार करने के समान गवेषणा है और कीचड़ आदि से युक्त का उल्लेख हुआ है । संयम साधना काल में प्राप्त मनोनुकूल या किनारे को पार करने के समान परिमोगेषणा है। आहार करने प्रतिकूल शय्या में गमभाव रखने का उपदेश है। इसके पश्चात के ६ कारण और नहीं करने के ६ कारणों को ध्यान में रखते अंत में संस्तारक एवं उपाश्रय सम्बन्धी विविध प्रायश्चित्तों की हुए राग द्वेष रहित होकर उचित विधि से विवेक पूर्वक उदर- चर्चा पूर्ति के लिए आहार किया जाता है। Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सवस्वरण : एक मौद्धिक विमर्श | (४-५) वस्त्रं षणा पाषणा या कभी मलोत्सर्ग करते समय उपयोग में लिया जाता है अथवा शरीर के संरक्षण हेतु रखे जाने वाले वस्त्रों की एवं कल्प- कमी उसको इंजे में बांधकर मकान के ऊंचे विभागों का शोधन नीय पात्रों की जाति का उल्लेख करके यह कहा है कि तरुण किया जाता है इसे औपग्रहिक उपकरण कहा गया है। स्वस्थ मुनि इनमें से एक-एक जाति के वस्त्र या पात्र ही धारण किन्तु रजोहरण साधु साध्वी के लिए अत्यावश्यक उपकरण करे। इस विषय में अर्थ भ्रम से संख्या की अपेक्षा एक ही वस्त्र है। उसके रखने का मुख्य हेतु जीव रक्षा एवं मुनि का चिन्ह है या एक ही पात्र के नियम की कल्पना की जाती है, जो गौतम जिनकल्पी अचेल साधुओं के लिए भी रजोहरण एक आवश्यक स्वामी के पात्र वर्णन या अन्य सूत्रों के पात्र वर्णन से मेल नहीं उपकरण है। प्रस्तुत प्रकरण में पांच प्रकार के रजोहरणों का वर्णन करके ___वस्त्रों की और पात्रों की विविध गवेषणा विधियों का तत्सम्बन्धी अनेक विधानों को प्रायश्चित्त कथन के माध्यम से उल्लेख करने के साथ यह भी बताया गया है कि कभी दाता स्पष्ट किया गया है जिसमें रजोहरण के परिमाण का, उस पर बाद में आने का संकेत करे या आधाकर्मी आहार पानी युक्त बैठने सोने आदि के निषेध का, अविधि से बांधने का तथा सदा पात्र दे तो नहीं लेना । पूर्ण निर्दोष वस्त्र पात्र भी लेते समय अपने पास रखने का इत्यादि महत्वपूर्ण विषयों का प्ररूपण अच्छी तरह प्रतिलेखन करके लेना । यहाँ दोनों प्रकरण में चार- हुआ है। चार विशिष्ट प्रतिज्ञाएँ दस्त्र पात्र के गवेषणा एवं धारण सम्बन्ध आदान निक्षेप समिति में कही है। अनावश्यक परिकम एवं विभूषा कृत्यों का निषेध इस प्रकरण में औधिक उपधि की संख्या और औपग्रहिक किया है। ठाणांग सूत्र में वस्त्र धारण करने के कारण कहे हैं उपकरणों के अनेक नाम सूचित कर उन उपकरणों को विहार और व्यवहार सूत्र आदि में मर्यादा से अधिक वस्त्र, पात्र भादि गोचरी आदि में साथ रखने का कहा गया है। देने के और रखने के बापवादिक विधान है तथा उनके प्राय- स्थविरों के दण्ड छत्र उपानह आदि उपकरणों की चर्चा श्चित्तों का कथन है । आचारांग में वर्णित एक-दो या तीन वस्त्र भी यहाँ है। गिनती एवं माप से अमर्यादित उपकरण रखने का धारण करने की विशेष प्रतिज्ञा का उल्लेख करते हुए अचेल प्रायघियत्त कहा है। साधना का भी महत्वपूर्ण वर्णन किया गया है। प्रतिलेखन का वर्णन करते हुए उसकी विधि एवं अनेक साध्वी के उपयोगी वस्त्र ग्रहणादि के उल्लेख भी अलग प्रमाद जनित दोषों का वर्णन किया गया है साथ ही प्रतिलेखन सूचित किये गये हैं । अकारण वस्त्र प्रक्षालन आदि का निषेध न करने वाले को प्रायश्चित्त का पात्र बताया है। करके सकारण धोए गये वस्त्रों को सुनाने के स्थलों की विचा• अन्त में ऊणोदरी आदि तप की अपेक्षा उपकरण के प्रत्यारणा की गई है । बहुमूल्य वस्त्र पात्रों का निषेध एवं प्रायश्चित्त ध्यान का फल बताया है । साय ही किसी साधु का खोया हुभा के साथ, चर्म धारण सम्बन्धी आपवादिक विधानों की चर्चा भी उपकरण मार्ग में किसी साधु को मिल जाय तो क्या करता चाहिए इसका विवेक कहा गया है। जीव रक्षा आदि हेतुओं से वस्त्र की चिलमिलिका-मच्छर- उच्चार-प्रस्रवण समिति दानी रखने का उल्लेख है। अन्त में अनेक प्रायश्चित्तों का यहां परठने योग्य पदार्थों का, परठने योग्य सदोष निदोष संकलन है। __ स्थानों का और स्थंडिल के दस गुणों का कथन किया गया है (६-७) आगमो में प्रादपोंछन और रजोहरण ये दो अलग- साथ ही उच्चारादि परदने की भूमि से सम्पन्न मकान में ठहरने अलग उपकरण कहे हैं । उनके विभिष्ट उपयोगों का विधान है। का विधान किया है। फिर भी कभी कहीं सूत्रों में प्रयुक्त पादपोंछन का अर्थ रजोहरण आचारांग में इस विषय का स्वतन्त्र अध्ययन है उसके करने का भ्रम उत्पन्न होता है जिसमें लिपि प्रमाद आदि का आधार से एवं निशीथ सूत्र के तीसरे, चौथे प्रादि उद्देशकों के कारण ही प्रमुख है। आधार से अनेक अकल्पनीय स्थलों का वर्णन करने के साथ यह निशीथ' सूत्र में भी दोनों उपकरणों के भिन्न-भित्र प्रायश्चित्त भी बताया गया है कि किस विधि से मलोत्सर्ग करना तथा मल कहे गये हैं और प्रश्नव्याकरण सूत्र में साधु के उपकरणों का द्वार की शुद्धि करना । संकलित कथन है उसमें भी दोनों नाम अलग-अलग हैं और आचारांग एवं निशीथ के सूत्रों से उच्चार मात्रक में मलोटीकाकार ने उन्हें अलग-अलग गिन कर उपकरणों की निश्चित सर्ग करने की विधि भी बताई गई है। अन्त में उनके अनेक संख्या सूचित को है। प्रायश्चित्तों का विधान है। पाद प्रोछन एक वस्त्र खण्ड होता है जो कभी पाँव पोंछने में Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०/चरणानुयोग : प्रस्तावना गुप्ति गई है। अन्त में अयोग्य को दीक्षा देने पर गुरु चौमासी प्राय___ तीन गुप्तियों का स्वरूप एवं भेदों का कथन करके यह भी श्चित्त का विधान किया है। बताया गया है कि सम्पूर्ण अशुभ प्रवृत्तियों से निवृत्त होना ही संयमी जीवन गुप्ति है। समाधि युक्त साधु के लक्षण बताते हुए उसे हाथ पांव इस प्रकरण में संयम का स्वरूप, उसका महत्व एवं सामा. शादि से संयत एवं गुप्त होना कहा गया है। यिक आदि पाँच चारित्र, छह प्रकार की कल्पस्थिति का वर्णन उसराध्ययन २३ के अनुसार मन के निग्रह को कठिन कह करके संथम के भेदों प्रभेदों के कथन के बाद सतरह प्रकार के कर उसे नियन्त्रित करने के उपाय भी कहे गये हैं। दस चित- संयम का कथन किया गया है। समाधि स्थानों का विस्तृत वर्णन करके दस प्रकार की समाधि संयमी के लक्षणों का वर्णन करके अणगार के अनेक गुणों और असमाधि का वर्णन किया है । अन्त में मन मृप्ति का परि. का आदर्शों का और शिक्षित जीवन का दिग्दर्शन भी प्रस्तुत णाम कहकर बचन गुप्ति वा प्ररूपण करते हुए उसके चार प्रकार किया गया है। जिसमें आचारांग, सूधगडांग, दशवकालिक एवं फल बताया गया है। उत्सराध्ययन के अध्ययनों को समाविष्ट किया गया है। ___ कायगुप्ति के वर्णन में उसके कार, महत्त्व एवं स बता थारमार्थी अनात्मार्थी के साभालाभ की चर्चा करते हुए कर पांचों इन्द्रियों के निग्रह का अलग-अलग फल बताया जणगार के सत्तावीरा गुणों का स्पष्टीकरण करके निर्ग्रन्थों के गया है। अनेक प्रशस्त लक्षण कहे गये हैं। उसके बाद संयमी की अनेक अपमत मुनि के अध्यवसायों का दिग्दर्शन करके उपयोग- उपमाओं का संग्रह किया गया है। शून्य एवं चंचल आसन वाले को पापी थमण कहा गया है। साधक के अपने ही हायमान एवं वद्धमान परिणामों से श्रीमा संयम सुखद और दुःस्त्रद प्रतीत होता है। इसे दुम्न पाया और आत्म कल्याण के कर्तव्यों में द्रव्य एवं भात्र से संगम स्वी- सुख शय्या के नाम से निर्दिष्ट किया है। कार करना भी साधक का एक प्रमुख कर्तव्य है। संयम, दीक्षा, तदनन्तर संश्रम के प्रेरणात्मक उपदेग्री विषय, विनय, विवेक, प्रव्रज्या, अणगार धर्म, जादि एकार्थक पारद हैं। इसे स्वीकार संयम की शुद्ध आराधना का स्वरूप, पूजा-प्रशंसा की चाहना करने वाला संयमी, दीक्षित, साधु, मुनि, अणगार या भिक्ष. का निषेध, परोपह विजेता होने की प्रेरणा, एवं सदा जागृत आदि कहा जाता है। रहने का सूचन आदि संयमोन्मति के अनेक महत्वपूर्ण विषयों - यद्यपि महावत समिति गुप्ति के वर्णन से चारित्राचार का का संकलन किया गया है। प्रतिदिन करने योग्य साधुओं के तीन वर्णन सम्पन्न हो जाता है फिर भी आगमों में स्थित अनेक मनोरथ भी बताये गये हैं। प्रकीर्णक विषयों को इस विशिष्ट वर्गीकरण में विभाजित करने संयम पोपक बत्तीस योग संग्रह का और अहिंसा आदि पर अनेक विषय महावत समिति एवं गुप्ति के प्रकरण के बाद अठारह प्रमुख आचरण के स्थानों का विस्तार से वर्णन है एवं भी अवशेष रह जाते है । उसे अष्ट प्रवचन माता के वर्णन रूप ललम्बन्धी अनेक अपवाद एवं प्रायश्चित्त भी साथ में कहे हैं। प्रथम भाग के अनन्तर द्वितीय भाग में (१) दीक्षा, (२) संयमी अन्त में संयम धर्म आराधना का फल बताते हुए सुश्रमणों जीवन, (३) समाचारी, (४) प्रतिकमण, (५) गृहस्थ धर्म, की संसार से मुक्ति एवं कुधमणों की दुर्गति का कथन किया है (६) आराधक विराधकः, (७) अनाचार, (८) संघव्यवस्था आदि एवं मद्यसेवी की अवघ्नति एवं दुर्दशा भी कही गई है। में वर्गीकरण किया गया है। समाचारी दीक्षा प्रकरण में सर्व प्रथम यह कहा गया है कि जिसके इस प्रकरण में भिक्ष की दस प्रकार की समाचारी, दिवस धर्मान्तराय कर्म का क्षयोपशम हुआ है वही किसी से धर्म सुन- एवं रात्रि के प्रहरों से सम्बन्धित दिनचर्या का विधान किया है, कर या बिना सुने ही संयम ग्रहण करता है। जिसमें स्वाध्याय, यावृत्य, प्रतिलेखन, भिक्षाचर्या, प्रतिक्रमण, तदनन्तर दीक्षित होने वाले के वैराग्य की विभिन्न अवस्थाओं निद्रा, ध्यान आदि आवश्यक कर्तव्यों की विचारणा हुई है। का, वय का, निश्रा का, उपकरणों का वर्णन करके नपुंसक और इसके साथ ही पोरिसी परिमाण का विज्ञान, तिथिक्षय, असमर्थ को दीक्षा देने का निषेध किया गया है। प्रतिलेखन विधि एवं उसके दोषों का कयन भी है। . ठाणांग सूत्र से उधूत चौभंगियों द्वारा विविध प्रकार की वर्षावास समाचारी का विस्तृत वर्णन है इसमें क्षेत्र की प्रव्रज्याओं का वर्णन करते हुए दस प्रकार के मुंडन कहे गये हैं। सीमा बताकर अनेक आपवादिक कारणों से पातुर्मास में विहार छेदोपस्थापनीय चारित्र (बड़ी दीक्षा) देने की सम्पूर्ण विधि, करने की चर्चा करके अकारण विहार करने का प्रायश्चित्त कहा उसके काल मान की पर्चा एवं उसके योग्यायोग्य की चर्मा की गया है। फिर भिक्षाचर्वा सम्बन्धी वर्णन करते हुए आठ प्रकार Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सदाचरण : एक बौद्धिक विमर्श | ११ के सूक्ष्मों का विस्तार से वर्णन किया गया है। श्रद्धा प्ररूपणा के सिवाय किसी भी व्रत पचक्याण की अनिविशिष्ट तपस्याओं का संलेखना का कथन करते हुए उसमें वार्यता नहीं है वह चाहे एक व्रत धारण करें या बारह बत ग्रहण करने योग धोरण पानी और गर्म पानी की चर्चा है। अथवा धावक प्रतिमा धारण करे सभी ऐच्छिक हैं। एक या अन्त में पर्युषणा एवं चातुर्मास सम्बन्धी अनेक वर्तव्यों की अनेक अतों को भी वह पूर्ण या अपूर्ण तथा अनेक आगारों सहित सूचना की गई है। मी धारण कर सकता है अर्थात् "जैसी शक्ति वैसा धारे, पर प्रतिक्रमण प्रमाद को दूर निवारे" इस कथन को ध्यान में रखना आवश्यक इस प्रकरण में सर्व प्रथम "आवश्यक" की अनुयोग पद्धति है। श्रावक के भी तीन मनोरथ है जिसका सदा चिंतन मनन से व्याख्या की गई है। जिसमें द्रव्य भाव बावश्यक एवं नय' कर उसे आत्मविकारा करना चाहिए। दृष्टि की चर्चा भी हुई है। धात्रक के बारह व्रतों में सामायिक के विषय की एवं श्रमणों तदनन्तर प्रतिक्रमण के प्रकार, अविक्रम आदि के प्रकार और को शुद्ध आहारादि देने के विषय की विस्तृत विचारणा की गई उनकी विशुद्धि की चर्चा की गई है फिर प्रतिक्रमण की विधि है एवं उसका फल बताया गया है। एवं उसमें उपयुक्त पाठों का अर्थ स्पष्ट किया गया है। दस श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं का भी विस्तार से वर्णन प्रकार के पच्चक्वाणों और उनके बागारों का स्पष्टीकरण भी किया गया है। इन प्रतिभाओं की यह विशेषता है कि इसमें है । अन्त में पच्चक्लाण पूर्ण होने पर उसको पारले की विधि आगार रहिन नियमों का पालन किया जाता है। प्रतिमा के का सूत्र भी दिया गया है। वर्णन में पांचवीं, छठी प्रतिमा के स्वरूप सम्बन्धी पाठ में कुछ पच्चयखाणों के विविध स्वरूप के साथ सुनगुण पच्चक्ताण भिन्नता है उसे सुधार कर व्यवस्थित भी किया गया है। और उत्तरगुण पच्चक्खाणों की विस्तृत चर्चा करते हुए दुःपञ्च- तदनन्तर श्रावक के व्रत पच्चश्वाण का रहस्य बताते हुए खाणी एवं सुपच्चवाणी का स्वरूप स्पष्ट किया गया है। व्रत धारण करने के ४६ भंगों का विश्लेषण किया गया है। फिर प्रतिक्रमण एवं अनेक प्रकार के पच्चसाणों के फल बताये अन्त में गृहस्थ धर्म का फल बताते हुए आजीविक श्रमणोपासक गये हैं। की मर्यादाओं का कथन कर श्रमणोपासक को अपना भाव जीवन बनाने की प्रेरणा की गई है। इस प्रकरण में श्रमणोपासकों के प्रकार उपमा द्वारा बता आराधक विराधक कर चार प्रकार की विश्रांति का उपमा द्वारा स्पष्टीकरण किया जिस प्रकार वर्ष भर की पढ़ाई का परिणाम परीक्षा में गया है। तदनन्तर अल्पायु-दीर्घायु बंध की चर्चा भी की गई है। होता है उसी प्रकार संयम जीवन एवं गृहस्थ जीवन का परिणाम सभ्यस्व सहित श्रावक के बारह व्रतों का स्वरूप और उस के आराधक विराधक की परीक्षा में निहित है। अतिचारों का विश्लेषण किया गया है। आराधना प्रकरण के प्रारम्भ में जिन वचनों के श्रद्धा की चारित्राचार में संयमी जीवन का तो महत्वपूर्ण स्थान है ही पढ़ता का कथन है तदनन्तर आलोचना के भावों की विस्तृत साथ ही श्रावक धर्म का भी प्रमुख स्थान है । वह किसी अपेक्षा विचारणा की गई है। साथ ही आलोचना न करने वाले के परिसे साधु से कम है तो किसी अपेक्षा से समान है और किसी णामों की चर्चा करते हुए उसे "माई" कहा है। अपेक्षा से अधिक भी है यथा-(१) महाव्रत की अपेक्षा उनके आराधना विराधना के विषय को 'दावदव" वृक्षों की अणु खत कहे गये हैं अतः कम है। (२) दोनों धर्मों की आराधना उपमा देकर कहा गया है कि मुनि को आभ्यंतर परिषह और करने यासे उत्कृष्ट १५ भव से मुक्त हो जाते हैं अतः रामान है। बाह्य परिषह के बचन आदि समभाव से सहन करना चाहिए। (३) "संति एगेहि भिहिं मारत्था संजमुत्तरा" इस कथन के इसके बाद शील एवं श्रुत की चौभंगी एवं आराधना विराद्वारा साधुओं के संयम से गृहस्थ के संयम को श्रेष्ठ कहा धना की अनेक चौभंगियां कही हैं । अन्त में बाधाकर्म आदि गया है। दूषित आहार के राम्बन्ध से आराधना विराधना की चर्चा की सामान्यतया कोई धावक भी एकमवावतारी हो सकता है गई है। और कोई साधु १५ भव या विराधक हो तो अनन्त भव भी कर आराधना के विविध प्रकारों की चर्चा करते हुए ज्ञान, सकता है। दर्शन और चारित्र इन तीनों आराधनाओं का परस्पर सम्बन्ध साधु जीवन स्वीकार करने वाले को नियमत: पांच महाव्रत, भी बताया है। पांच समिति आदि स्वीकार करके उनका जीवन पर्यन्त पालन तदनन्तर उनबाई सूत्र में बणित आराधक विराधक साधु, करना होता है । इसमें एच्छिक नहीं है, किन्तु गृहस्थ जीवन में श्रमणोपासक, अन्य तापस, परिव्राजक एवं तिथंच आदि का गृहस्प धर्म Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ | धरणानुयोग : प्रस्तावना विस्तृत वर्णन करके उनकी देवमति में उत्पत्ति का विशद वर्णन संघ-यवस्था किया गया है। इस प्रकरण के प्रारम्भ में तीर्थ, संघ आदि का स्वरूप, जैन मुनि के कांदपिक किल्बिषिक आदि भावों से संयम का जिनशासन का प्रवर्तन काल एवं केवली, जिन, स्थविर, रत्नाधिक दुषित होना बताकर उनकी दुर्गति होने का निर्देश किया गया आदि के प्रकारों का वर्णन है। है और उन अभियोगिक किल्विषिक अवस्थाओं के प्राप्त होने के प्रथम और अन्तिम तीर्यकर के शासन से बीच के तीर्थंकरों कारण भी बताये गये हैं। के शासन का महाव्रत सम्बन्धी अन्तर आदि कथन है। पांच - इसके बाद ६ निदानों की विस्तृत विचारणा कर अनिदान प्रकार के व्यवहारों के उपयोग करने का स्पष्टीकरण किया गया संयम जीवन की प्रेरणा एवं उसका मुक्तिफल प्रदर्शित किया है। तीन प्रकार के आत्मरक्षक कहकर आचार्य एवं शिष्यों के गया है। प्रकारों का चोभंगियों द्वारा कथन किया गया है। भआराधना विराधना का अन्तिम निर्णय मरण समय से होता राचार्य एवं गणावच्छेदक के आचार सम्बन्धी अतिशय बता है अतः यहाँ बालमरण आदि का स्वरूप भी स्पष्ट किया गया कर आचार्य को आठ संपदा का वर्णन करके अनेक कर्तव्याकर्तव्य है जिसमें १७ प्रकार के मरण, १२ या २० प्रकार के बालमरणों की चर्चा की गई है। का स्वरूप बताकर दो मरण (फांसी और गृद्ध स्पृष्ट मरण) आचार्य उपाध्याय गणावच्छंदक आदि पर्दी की व्यवस्था का ब्रह्मचर्य रक्षा हेतु स्वीकार करना प्रशस्त कहा गया है। वर्णन करते हुए दीक्षापर्याय श्रुतज्ञान एवं अन्य गुण सम्पन्न होने फिर उत्तराध्ययन अ. ५ के आधार से दोनों मरणों का की चर्चा की गई है। आचार्य के दिवंगत होने के बाद किसे विस्तृत कथन है । अन्त में बालमरणों की प्रशंसा करने का भी आचार्य बनाना या हटाना इसकी विशद चर्चा हुई है। चौमासी प्रायश्चित्त बताया गया है। ___ अब्रह्मचर्य, असत्य एवं मायाचरण करने वालों को उनके भनाचार पदों से मुक्त करने का दण्ड विधान किया गया है एवं पुनः तीन • संयम स्वीकार कर लेने पर भी सभी साधक आराधक ही वर्ष या जीवन पर्यन्त भी उन्हें पद नहीं देने का निर्देश किया होते हैं, पह जरूरी नहीं है। विराधक होने वाले अपने वैराग्य' गया है। एवं लक्ष्म के परिवर्तित हो जाने के कारण अनेक अनाचरणीय संघाड़ा प्रमुख पा गण धारण करने वाले के ६ प्रमुख गुणों कृत्य करते हैं । इस प्रकरण में ऐसे अनेक अनाचारों का वर्णन की चर्चा की गई है साथ ही गण धारण कर स्वतन्त्र विचरण है। यद्यपि प्रचलित भाषा में बावन अनाचार भी कहे जाते हैं करने के लिए बाज्ञा लेने की विधि बताई गई है एवं योग्यता किन्तु सूत्रों में अनेक जगह अनेक अनाचरणीय विभिन्न अपेक्षाओं बिना या बाज्ञा बिना जाने वाले को प्रायषिचत्त कहा है। से कहे हैं किन्तु बावन की संख्या कहीं भी नहीं कही है। १०वें प्रायश्चित्त विधान की एवं तरुण साधुओं को सर्वप्रथम अनाचार एवं मूळ भाव का निषेध करते हुए आचार्य उपाध्याय नियुक्ति रहित गच्छों में नहीं रहने की विचासूत्रकृतांग में वर्णित अनाचारों का स्वरूप बताकर स्वच्छन्द और रणा की गई है। पापी श्रमण की प्रवृत्ति का दिग्दर्शन किया है। फिर प्रमत्त- विचरण करते हुए संघाड़ा प्रमुख के काल करने पर शेष अप्रमत्त भाव एवं अवस्था का स्वरूप बताकर अप्रमत्त होने की साधुओं के कर्तव्याकतन्य का विवेक बताया गया है। प्रेरणा की गई है। इसी प्रकार साध्वियों के प्रवर्तिनी गणावच्छेदिनी आदि पदों धर्म में विघ्न करने वाले, धर्मघातक, प्रमाद और अठारह की चर्चा की गई है, जिसमें ६० वर्ष की दीक्षा पर्याय बाली पाप आदि भेदों का विश्लेषण करते हुए १. प्रकार से विशुद्धि साध्वियों को भी आचार्य की निधा करके ही विचरने का आदेश होनी भी बताई है। दिया गया है। तदनन्तर दशर्वकालिक सूत्र वर्णित अनाचार कहे गये हैं साथ तदनन्तर साधु साध्वी को आचारांग-निशीथसूत्र कंठस्थ ही २० असमाविस्थान, ३० महामोह बन्ध के कारण, १३ धारण करने की आवश्यकता कही है और भूल जाने पर कठोर क्रियास्थानों का स्वरूप बताया गया है। दण्ड ब्यवस्था का भी निर्देश दिया गया है। निमित्त कथन का निषेध, कषाय का निषेध एवं कषाय को इसके बाद साध सात्रियों के विनय व्यवहार सम्बन्धी अग्नि की उपमा, आठ मद, आदि विषयों का वर्णन करके आवश्यक कर्तव्यों की चर्चा की गई है। क्रोधादि विजय का फल बताया गया है। अध्ययन-अध्यापन व्यवस्था का वर्णन करते हुए दीक्षा अन्त में विविध अनाचारों के प्रायश्चित्तों का संकलन किया पर्याय के साथ सम्बन्ध बताया गया है। गया है। विचरण व्यवस्था के वर्णन में आचार्य उपाध्याय प्रवर्तनी Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सदाचरण : एक बौद्धिक विमर्श | ५३ आदि के साथ साधु साध्वियों की संख्या बताई गई है तथा में पुनरागमन सम्वन्धी विचारणा भी की है। आचार्य उपाध्याय प्रवर्तिनी एवं गणावच्छेदक गणावच्छेदिका को अन्त में सूयगडांग सूत्र के आधार से संयमरत तपस्वी एकाकी विचरने का स्पष्ट निषेध किया गया है। विचरण काल सकारण एकाकी विहारी भिक्षु के निर्वाण प्राप्ति का कथन है । एवं विचरण क्षेत्र की चर्चा करके रात्रि में गमनागमन का निषेध पावस्थ आदि शिथिल संयम साधकों के व्यवहार सम्बन्धी किया गया है। जाके साथ आहार, वस्त्र, पात्र, आदान, प्रदान, बंदन साधु-साध्वी के पारस्परिक व्यवहारों की चर्चा करते हुए व्यवहार एवं साधुओं का आदान प्रदान आदि के प्रायश्चित्त भी उनके आसाप-संलाप, आवास-संवास, वैयावृत्य एवं कान धर्म कहे गए हैं तथा इनके पुनः गण में आने पर यथायोग्य परीक्षण प्राप्त साधु से सम्बन्धित कृश्यों के उत्सर्म-अपवाद की चर्चा की एवं प्रायश्चित्त के द्वारा शुद्धि करके गण में लेने की चर्चा भी गई है । अन्त में विशेष कारण के विना परस्पर सेवा करने, है। टिप्पण में इनके स्वरूप को सरल संक्षिप्त भाषा में कहा है। करवाने का या आलोचना करने का निषेध किया गया है। इन वर्णनों में शिथिलाचारियों के १० प्रकार हैं अर्थात् संयम सांभोगिक (व्यावहारिक) व्यवस्था में १२ संभोगों (पार- च्युत साधकों के दस विभाग किए गये हैं। स्परिक व्यवहारों) का कथन करके विसंभोग करने की अर्थात् संघ व्यवस्था के अन्तिम प्रकरण में कलह की उत्पत्ति के संभोग सम्बन्ध को पृथक कर देने के कारणों की चर्चा की गई कारण, गणच्युग्रह के कारण, कलह उपशम का उपदेश कर है एवं उसकी विधि भी बताई गई है। अनुपशांत की विराधना का निर्देश किया है। विवाद उत्पत्ति संभोग (च्यवहार) पच्चक्वाण करने को एक विशिष्ट एवं उसके निवारण के उपाय भी बताये गए हैं। अन्त में क्षमासाधना रूप में कहकर उसका अनुपम फल प्रदर्शित किया पना के अनुपम फल की चर्चा करते हुए कलह सम्बन्धी प्रायगया है। श्चित्तों का कथन किया गया है। गृहस्थों के साथ पारस्परिक व्यवहार की पर्चा एवं प्राय- तपाचार श्चित्त का कथन किया गया है। प्रस्तुत कृति में चारित्राचार के बाद तपाचार का उल्लेख गणापक्रमण (गच्छ त्याग) के कारणों की विधाद चर्चा करते हुआ है । उत्तराध्ययन' और कुन्दकुन्द के दर्शनप्राभूत' में विविध हुए श्रुत ग्रहण के लिए अन्य गच्छ में जाने की विचारणा की साधना मार्ग के स्थान पर चतुर्विध साधना-मार्ग का उल्लेख गई है। साथ ही संभोग व्यवहार परिवर्सन हेतु और अन्य को मिलता है। साधना के इस पतुर्थ अंग को तप कहा गया है। अध्यापन हेतु भी गच्छ परिवर्तन या उपसंपदा परिवर्तन की तप की साधना ही तपाचार है। उत्तराध्ययन में पूर्व कर्म विचारणा की गई है। इस विचारणा में आचार्य आदि पदवी- संस्कारों को दग्ध करने के लिए अथवा पूर्व कमों की निर्जरा के धरों को अपना पद त्याग कर अन्य को नियुक्त कर के ही जाने लिये तप को साधना का एक आवश्यक अंग कहा गया है । तप की विधि बताई गई है। जैन साधना का प्राण है । तप के अभाव में साधना बिना नींव सातिचार संयम वाले पार्श्वस्थ आदि का गणापक्रमण एवं के प्रासाद के समान है। प्रो भरतसिंह उपाध्याय के शब्दों में पुनः आने पर उन्हें गच्छ में रखने सम्बन्धी चर्चा विचारणा की भारतीय संस्कृति में जो कुछ भी शाश्वत है, जो कुछ भी उदात्त गई है। एवं महत्वपूर्ण तत्व है, वह सब तपस्या से ही संभूत है। तपस्या तवनम्तर एकल विहार चर्या का वर्णन, एकल बिहारी के आठ ही इस राष्ट्र का बल है। गुण, उसके ठहरने के उपाश्रय ग्राम आदि की भर्चा भी की गई जैन परम्परा में तप शब्द का प्रयोग सामान्यतया तितिक्षा है । अव्यक्त भिक्षु के एकाकी विचरण का निषेध एवं अनिष्ट या कष्टसहिष्णुता के अर्थ में हुआ है। वस्तुतः जीवन जीने में फल बताया गया है। उपस्थित अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितियों को समभावपूर्वक योग्य भिक्षु को परिस्थितिवश एकाकी विहार करने की सहन करता ही तप है। यद्यपि हमें यह स्मरण रखना चाहिए आज्ञा दी गई है साथ ही अनेक सावधानियां रखने की सूचना कि तप का अर्थ केवल अनुकूल एवं प्रतिकूल परिस्थितियों को भी की गई है। एवं प्रशस्त एकाकी विहारी की संयम चर्चा का समभाव पूर्वक सहन करना ही नहीं है, बल्कि यह स्वेच्छापूर्वक वर्णन किया है। बाद में क्रोधी, मानी आदि अप्रशस्त एकल कष्ट को निमन्त्रण देना भी है। जैन परम्परा में परीषह और विहारी का वर्णन भी किया है । असमर्थ एकाकी बिहारी के गण तप में अन्तर किया गया है। परीषह में जो कुछ घटित होता १ उत्तराष्पयन २८/२, ३, ३५ । २ दर्शन प्राभूत (कुन्दकुन्द) ३२। ३ बौद्यवर्शन एवं अन्य भारतीय दर्शन पु.७१-७२ (भरतसिंह उपाध्याय) । Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४) चरणानुयोग : प्रस्तावना है उसे सहा जाता है परन्तु तप में स्वेच्छा से कष्टमय जीवन या कपास वृत्ति के कारण आत्मतत्व से एकीभूत होकर उसकी को अपनाया जाता है। हमें यह स्मरण रखना चाहिये कि तप शुद्ध सत्ता, पाक्ति एवं ज्ञान ज्योति को अवतरित कर देते हैं। का अर्थ मात्र बह-दण्डन नहीं है। जैन परम्परा में तप में देह- यह जड़ तत्व एवं चतन तत्व का संयोग ही विकृति है। दण्डन तो है, किन्तु यह मात्र देहृदण्डन के लिए नहीं है, अपितु अतः शुद्ध आत्म-तत्व की उपलब्धि के लिये आत्मा की अहिंसा की और संयम की साधना के लिये है। जैन धर्म में तप स्वशक्ति को आवरित करने वाले कर्म पुद्गलों का बिलगाव साधना के दो चरण हैं-(१) अहिंसा की साधना और (२) संयम आवश्यक है। कमें पुद्गलों के पृथक् करने की इस क्रिया को की साधना । इन दोनों पर वह प्रतिष्ठित है। निर्जरा कहते हैं जो दो रूपों में सम्पन्न होती हैं। जब कर्म पण्डित सुखलाल संघवी ने भारतीय परम्परा में तप साधना पूनगन अपनी निश्चित अवधि के पश्चात अपना फल देकर स्वतः के विभिन्न रूपों के विकास का एक चित्र प्रस्तुत किया है। वे अलग हो जाते हैं, वह सविपाक निर्जरा है, लेकिन यह तप लिखते हैं कि ऐसा ज्ञात होता है कि तप का स्वरूप क्रमशः साधना का उद्देश्य नहीं है । तप साधना तो सप्रयास है । प्रयासस्थूल से सूक्ष्म को ओर विकसित होता गया। तपोमार्ग का पूर्वक वर्म-पुद्गलों को आस्मा से अलग करने की क्रिया को विकास होता गया और उसके स्थूल, सूक्ष्म, सूक्ष्मतर आदि अनेक अविपाक निर्जरा कहते है और तप ही वह क्रिया है जिसके द्वारा प्रकार साधकों ने अपनाए । यह तपोमार्ग अपने विकास में चार अविपाक निर्जरा होती है। भागों में बांटा जा सकता है । (१) अवधूत साधना, (२) तापस तप का प्रयोजन है प्रयासपूर्वक कर्म-पुद्गलों को आत्मा से ना; (B)1वीनादनः मोगधना सिनमें क्रमशः अलग कर आत्मा की स्वशक्ति को प्रकट करना। यही शुद्ध तप के सूक्ष्म प्रकारों का उपयोग होता गया, लग का स्वरूप बाह्य आत्म-तत्व की उपलब्धि है। यही आत्मा का विशुद्धिकरण है से आभ्यन्तर बनता गया। साधना देह-दमन से चित्तवृत्ति के ओर यही तप साधना का लक्ष्य है। उत्तराध्ययन सूत्र में भगवान निरोध की ओर बढ़ती गई।१ जैन साधना तपस्वी जीवन एवं महादीर तप के विषय में कहते हैं कि "तप आत्मा के परिशोधन योय साधना का समन्वित रूप में प्रतिनिधित्व करती है, जबकि की प्रक्रिया है ।" पाबद्ध कर्मो के क्षय करने की पत्ति है। बौद्ध एवं गीता के आचार दर्शन मुख्यतः योग-साधना का प्रति- तप के द्वारा ही महर्षिगण पूर्व पापकों को नष्ट करते हैं।" निधित्व करते हैं। फिर भी वे सभी अपने विकास के मूल केन्द्र तप राग द्वेष जन्य पाप-कर्मों के बन्धन को सीण करने का से पूर्ण अलग नहीं है। . मार्ग है। जैन आगम आचारांग सूत्र का धूत अध्ययन, बौद्ध ग्रन्थ इस तरह जैन साधना में तप का उदेश्य या प्रयोजन पूर्वविसुद्धिमरा का धूतंगनिदेश और हिन्दू साधना की अवधूत बद्ध कर्म-पूगलों का आरम तत्व से पृथककरण, यात्म-परिशोधन गीता इन आनार-दर्शनों के किसी एक ही मूल केन्द्र की ओर और शुद्ध आत्म-तत्व की उपलब्धि है। इंगित करते हैं। जैन-साधना का तपस्वी गागं ही अहिंसक जैन साधना में तप का वर्गीकरण संस्करण है। जैन आचार-प्रणाली में तप के बाह्य (शारीरिक) और जैन साधना में तप का प्रयोजन आभ्यन्तर (मानसिक) ऐसे दो भेद है। इन दोनों के भी छन्तप यदि मंतिक जीवन को एक अनिवार्य किया है तो उसे छह भेद हैं। किसी लक्ष्य के निमित्त होना चाहिए। अतः यह निश्चय कर (१) बाह्य तप---(१) अनशन, (२) ऊनोदरी, (३) शिक्षालेना भी आवश्यक है कि तप का उद्देश्य नोर प्रयोजन क्या है? चर्या, (४) रस-परित्याग, (५) कायक्लेश और (६) संलीनता । जैन साधना का लक्ष्य शुद्ध वात्म-तत्व की उपलब्धि या (२) आभ्यन्तर तप-(१) प्रायश्चित्त, (२) विनय, आत्मा का शुद्धिकरण है । लेकिन यह शुद्धिकरण क्या है ? जैन (३) यावृत्य, (४) स्वाध्याय, (५) ध्यान और (६) गुस्सर्ग । दर्शन यह मानता है कि प्राणी कायिक, वाचिक एवं मानसिक शारीरिक या बाह्य तप के भेव । क्रियाओं के माध्यम से कर्म वर्गणाओं के पुद्गलों को अपनी ओर (१) अनशन-आहार के त्याग को बनशन कहते हैं। यह आकर्षित करता है । आकर्षित कर्मवर्गशाओं के पुद्गल राग-द्वेष दो प्रकार का है-एक निश्चित समयावधि के लिये किया १ समदर्शी हरिमन पृ. ६७ । ३ उत्तराध्ययन, २८/३५ । ५ वही २८/३६, ३०/६ । ७ वही १०/७। २ वही पृ.६७ । ४ वही २६/२७ । ६ वही ३०/१ ८ वही २०/८-२८ । Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सदाधरण : एक बौद्धिक विमर्श | ५५ हुआ आहार-त्याग, यह एक मुहूर्त से लगाकर छह मास तक का (५) कायक्लेश-वीरासन, गोदुहासन आदि विभिन्न आसन होता है। दूसरा जीवन-पर्यन्त के लिये किया हुआ आहार-त्याग। करना, शीत या उष्णना सहन करने का अभ्यास करना कायजीवन पर्यन्त के लिए आहार त्याग की अनिवार्य शर्त यह है कि क्लेश उप है । कायक्लेश तप चार प्रकार का है--(१) आसन, उस अवधि में मृत्यु की आकांक्षा नहीं होनी चाहिए । आचार्य (२) आतापना- सूर्य की रश्मियों का ताप लेना, शीत को पूण्यपाद के अनुसार आहार त्याग का उद्देश्य आत्म-संयम, सहन करना, अल्प वस्त्र अथवा निर्वस्त्र रहना । (३) विभूषा मासक्ति में कमी, ध्यान, ज्ञानार्जन और कमो की निर्जरा है, न का त्याग (४) परिकर्म–शरीर की साज-सज्जा का त्याग । कि मांसारिक उद्देश्यों की पूर्ति । अनशन में मात्र देह-दण्ट (६) संलीनता-संलीनता चार प्रकार की है-(१) इन्द्रिय नहीं है, वरन आध्यात्मिक गुणों की उपलधि का उद्देश्य निहित संलीनता-न्द्रियों के विषयों से बचना, (२) कषाय-सलीनताहै । स्थानांग सूत्र में आहार ग्रहण करने के और माहार त्याग' क्रोध, मान, माया और लोभ से बचना, (३) योग संलीनताके छह छह कारण बताये गये हैं। उसमें भूख की पीड़ा से मन, वाणी और शरीर की प्रवृत्तियों से बचना, (४) विविक्त निवृति, सेवा, ई, संयमनिर्वाहार्थ, धर्मचिन्तार्थ और प्राण- शयनासन-एकान्त स्थान पर सोना-बैठना । सामान्य रूप से रक्षार्थ ही आहार ग्रहण करने की अनुमति है। यह माना गया है कि कषाय एवं राग-द्वेष के बाह्य निमित्तों से (२) कनोदरी (भवमौदर्य)-इस तप में आहार विषयक बचने के लिए साधक को श्मशान, शून्यागार और वन के एकांत कुछ स्थितियां या शर्ते निश्चित की जाती हैं। इसके चार स्थानों में रहना चाहिए । प्रकार हैं। सागर तप के भेद (१) आहार की मात्रा कुछ कम खाना, यह द्रव्य-नो- आभ्यन्तर तप, तप का बह रूप है जो बाह्म रूप से तो तप वरी तप है। (२) शिक्षा के लिए, आहार के लिए कोई स्थान के रूप में प्रतीत नहीं होता किन्तु आत्मविशुद्धि का कारण होने निश्चित कर वहीं से मिली भिक्षा लेना, वह क्षेत्र छनोदरी तप से जैन परम्परा में उसे तप ही कहा गया है। बाह्य तप स्थूल है है। () किसी निश्चित समय पर आहार लेना यह काल कनो- जवकि आभ्यन्तर तप सूक्ष्म है। उत्तराध्ययन आदि सभी जैन दरी लप है । (४) भिक्षा प्राप्ति के लिए आहारार्थ किसी शर्त ग्रन्थों में बाभ्यन्तर तप के निम्न छ: भेद माने गये हैं(अभिग्रह) का निश्चय करना यह भाव ऊनोदरी तप है । संक्षेप (१) प्रायश्चित्त-अपने द्वारा हुए व्रतभंग दुराधरण के प्रति में ऊनोदरी तप वह है जिसमें किसी विशेष समय एवं स्थान ग्लानि प्रकट करना, उसे वरिष्ठ गुरुजनों के समक्ष प्रकट करके पर. विशेष प्रकार से उपलब्ध आहार को अपनी आहार की उसके शुद्धिकरण हेतु योग्य दण्ड की याचना करना एवं उनके मात्रा से कम मात्रा में ग्रहण किया जाता है। मूलाचार के द्वारा दिये गये योग्य दण्ड को स्वीकार करना, प्रायश्चित्त तप अनुसार उनोदरी तप की आवश्यकता निद्रा एवं इन्द्रियों के संयम है जो वस्तुत: आत्मशोधन की एक प्रक्रिया है । वासनाओं एवं के लिए तथा तप एवं पठ् आवश्यकों के पालन के लिये है। कषायों से उद्धेलित होना मनुष्य का सहज स्वभाव है । प्राय (३) रस परित्याग-भोजन में दूध, दही, घृत, तेल, श्चित्त के स्वरूपादि के सन्दर्भ में हमने आगे विस्तार से चर्चा मिष्ठान आदि सबका या उनमें से किसी एक वा प्रहण न करना की है । अतः पाठकों को वहीं देख लेने की अनुशंसा करता हूँ। रम-परित्याग है। रस-परित्याग स्वाद-जय है। नैतिक जोवन (२) विनय-मात्मशुद्धि बिना बिनय सम्भव नहीं है। की साधना के लिए स्त्राद-जय आवश्यक है। महात्मा गाँधी ने विनय व्यक्ति को अहंकार से मुक्त करता है और यह स्पष्ट है कि ग्यारह व्रतों का विधान किया, उसमें अस्वाद भी एक व्रत है। आत्मगत दोषों में अकार सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। प्राचीन जैन रस परित्याग का तात्पर्य यह है कि साधक स्वाद के लिए नहीं, ग्रन्थों में विनय शब्द का तालार्य है आनार के नियम । अतः बरन् शरीर-निर्वाह अथवा साधना के लिए आहार करता है। प्राचार के नियमों का सम्यक रूप में परिपालन ही विनय है। (४) भिक्षाचर्या--मिक्षा विषयक विभिन्न विधि-नियमों का दूसरे अर्थ में विनय विनम्रता का सूचक है। इस दूसरे अर्थ में पालन करते हुए भिक्षान पर जीवन यापन करना भिक्षाचर्या विनय का तात्पर्य है, वरिष्ठ एवं गुरुजनों का सम्मान करते हुए सप है। इसे वृत्ति परिस ग्यान भी कहा गया है। इसका बहुत उनकी आज्ञाओं का पालन करना अथवा उन्हें आदर प्रदान कुछ सम्बन्ध भिक्षुक जीवन से है। भिक्षा के सम्बन्ध में पूर्व करना। विनय के सात भेद हैं-(१) ज्ञान विनय, (२) दर्शन निश्चय कर लेना और तदनुकूल ही भिक्षा ग्रहण करना वृत्ति- विनय, (३) नारिष विनय, (४) मनोविनय, (५) यवनविनय, परिसंख्यान है । इसे अभिग्रह तप भी कहा गया है। (६) काय विनय और (७) लोकोपचार विनय । शिष्टाचार के १ सर्वार्थसिद्धि/१६ । २ मूलाधार ५/१५३ । Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ [ चरणानुयोग : प्रस्तावना रूप में किये गये बाह्योपचार को लोकोपचार विनय कहा (४) संस्थान-विचय-लोक या पदार्थों की आकृतियों, जाता है। स्वरूपों का चिन्तन करना। (३) वयावृत्य-वैयावृत्य का अर्थ सेवा-शुश्रूषा करना है। संस्थान-विचय धर्म-ध्यान पुनः चार उपविभागों में विभाभिक्षु-संघ में दस प्रकार के साधकों की सेवा करना भिक्षु का जित है-() पिण्डस्य ध्यान-यह किसी तस्व विशेष के स्वरूप कर्तव्य है-(१) आचार्य, (२) उपाध्याय, (३) तपस्वी, (८) के चिन्तन पर आधारित है। इसकी पार्थिवी, आग्नेयी, मारुती. गुरु, (५) रोगी, (६) वृद्ध मुनि, (७) सहपाठी, (८) अपने वारुणी और तत्वभू ये पांच धारणाएं मानी गई हैं। (ब) पदस्थ भिक्षु संघ का सदस्य, (8) दीक्षा स्थविर और (१०) लोक ध्यान-यह ध्यान पवित्र मंत्राक्षर आदि पदों का अवलम्बन सम्मानित भिक्षु । इन दस की सेवा करना बैग्रावृत्य ता है। करके किया जाता है। (स) रूपस्थ-ध्यान-राग, द्वेष, मोह इसके अतिरिक्त संघ (समाज) की सेवा भी भिक्षु का कर्तव्य है। नादि विकारों से रहित अहंन्त का ध्यान करना है । (द) रूपा (४) स्वाध्याय स्वाध्याय शब्द का सामान्य अर्थ आध्या- तीत-ध्यान-निराकार, चैतम्य-स्वरूप सिद्ध परमात्मा का ध्यान स्मिक साहित्य का पठन-पाठन एवं ममन आदि है। स्वाध्याय के करना । पांच भेद है शुक्त ध्यान--यह धर्म-ध्यान के बाद की स्थिति है। शुक्ल (क) वाचना--सङ्ग्रन्थों का पठन एवं अध्ययन करना। ध्यान के द्वारा मन को शांत और निष्प्रकम्प किया जाता है। (स) पृच्छना-उत्पन्न शंकाओं के निरसन के लिए एवं इसकी अन्तिम परिणति मन की समस्त प्रवृत्तियों का पूर्ण निरोध नवीन ज्ञान की प्राप्ति के निमित्त विद्वज्जनों से प्रश्नोत्तर एवं है। शुक्ल-ध्यान चार प्रकार का है-8) पृथकब-वितर्क-सविवार्तालाप करना। चार-इस ध्यान में ध्याता कभी अर्थ का चिन्तन करते-करते (म) परावर्तन--परावर्तन का अपहराना है . nि का और शब्द का चिन्तन करते करते अर्थ का चिन्तन ज्ञान के स्थायित्व के लिये यह आवश्यक है। करने लगता है। इस ध्यान में अर्थ, व्यंजन और योग का (घ) अनुप्रेक्षा-ज्ञान के विकास के लिए उसका चिन्तन संक्रमण होते रहने पर भी ध्येय द्रव्य एक ही रहता है । करना एवं उस चिन्तन के द्वारा अजित ज्ञान को विशाल करना (२) एकत्व-वितर्क अविचारी- अर्थ, व्यंजन और योग संक्रमण 'अनुप्रेक्षा' है। से रहित, एक पर्याय-विषयक ध्यान "एकत्व-श्रुत अविचार" (E) धर्मकथा-धार्मिक उपदेश करना धर्मकया है। ध्यान कहलाता है। (३) सूक्ष्म क्रिया-अप्रति राती -मन, वचन (५) ध्यान-चित्त की अवस्थाओं का किसी विषय पर और शरीर व्यापार का निरोध हो जाने एवं केवल चासोच्छकेन्द्रित होना ध्यान है। जैन परम्परा में ध्यान के चार प्रकार वाम की सूक्ष्म क्रिया के शेष रहने पर ध्यान की यह अवस्था हैं-(१) आर्त-ध्यान, (२) रौद्रध्यान, (३) धर्मध्यान और प्राप्त होती है। (४) समुच्छिन्न-क्रिया निवृत्ति-जब मन वचन (४) शुक्लध्यान । आर्तध्यान और रौद्रध्यान चित्त की दूषित और शरीर को समस्त प्रवृत्तियों का निरोध हो जाता है और प्रवृत्तियाँ हैं अत: साधना एवं तप की दृष्टि से उनका कोई मूल्य कोई भी सूक्ष्म क्रिया पोष नहीं रहती उस अवस्था को समुग्छिन नहीं है, ये बोनों ध्यान त्याज्य हैं। आध्यात्मिक साधना की क्रिया शुक्लध्यान कहते हैं। इस प्रकार शुक्लध्यान की प्रथम दृष्टि से धर्म ध्यान और शुक्लध्यान ये दोनों महत्वपूर्ण है। अत: अवस्था से क्रमशः आगे बढ़ते हुए अन्तिम अवस्था में साधक इन पर थोडी विस्तृत चर्चा करना आवश्यक है। कायिक, वाचिक और मानसिक सभी प्रवृत्तियों का पूर्ण निरोध धर्मध्यान-इसका अर्थ है चित्त-विशुद्धि का प्रारम्भिक कर अन्त में सिद्धावस्था प्राप्त कर लेता है जो कि नंतिक साधना अभ्यास। और योग साधना का अन्तिम लक्ष्य है।' धर्म-ध्यान के लिये ये चार बातें आवश्यक हैं-(१) आगम (६) व्युत्सर्ग-व्युत्सर्ग का अर्थ त्यागना या छोड़ना है। ज्ञान, (२) अनासक्ति, (३) आत्म-संयम और (४) मुमुक्षुभाव । व्युत्सर्ग के आभ्यन्तर और बाह्य दो भेद हैं। बाह्य व्युत्सर्ग के धर्म ध्यान के चार प्रकार है चार भेद हैं(१) आज्ञा विचम-आगम के अनुसार तत्व स्वरूप एवं (१) कायोत्सर्म--कुछ समय के लिए शरीर से ममत्व को कर्तव्यों का चिन्तन करना । हटा देना। (२) अराय-विचय- हेय क्या है, इसका विचार करना । (२) गण-व्युत्सर्ग--साधना के निमित्त सामूहिक जीवन को (३) विपाक-विचय- हेव के परिणामों का विचार करना। छोड़कर एकांत में अकेले साधना करना। १ विशेष विवेचन के लिये वैखिए-- योगशास्त्र प्रकाश ७,८,९,१०, ११ । Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- सदाचरण : एक बौद्धिक विमर्श ५७ - - मनसा , मात्र आदि मुनि-जीवन के मूल, पारांचिक आदि बाह्यत: तो दण्डरूम है, किन्तु उनकी आत्मलिये आवश्यक वस्तुओं का त्याग करना या उनमें कमी करना। विशुद्धि की क्षमता को लक्ष्य में रखकर ही ये प्रायश्चित्त दिये (४) भक्तपान व्युत्सर्ग-भोजन का परित्याग । यह अनशन जाते हैं। का ही रूप है। प्रायश्चित्त शब्द का अर्थ आभ्यन्तर व्युत्सर्ग तीन प्रकार का है प्रायश्चित्त शब्द की बागमिक व्याख्या साहित्य में विभिन्न (१) कषाय-व्युत्सर्ग-क्रोध, मान, माया और लोभ इन परिभाषाएं प्रस्तुत की गई हैं। जीतकल्प भाष्य के अनुसार जो पार कषायों का परित्याग करना । पाप का छेदन करता है, वह प्रायश्चित्त है। यहाँ "प्रायः" (२) संसार-व्युत्सर्ग-प्राणीमात्र के प्रति राग-द्वेष की शब्द को पाप के रूप में तथा "चित्त" शब्द को गोधक के रूप प्रवृत्तियों को छोड़कर सबके प्रति समत्वभाव रखना। में परिभाषित किया गया है। हरिभद्र ने एनाशक में प्रायश्चित्त (३) कर्म-व्युत्सर्ग - आत्मा की मलिनता मन, बचन और के दोनों ही अर्थ मान्य किये हैं । वे मूलतः "पापच्छित्त" शब्द शरीर की विविध प्रवृत्तियों को जन्म देती है। इस मलिनता के की व्याख्या उसके प्राकृत रूप के आधार पर ही करते हैं। वे परित्याग के द्वारा शारीरिक, मानसिक एवं वाचिक प्रवृत्तियों लिखते हैं कि जिसके द्वारा पाप का छेदन होता है, वह प्रायश्चित्त का निरोध करना। है। इसके साथ ही वे दूसरे अर्थ को स्पष्ट करते हुए कहते हैं __ जैन धर्म में प्रायश्चित्त एवं दण्ड व्यवस्था कि जिसके द्वारा पाप से चित्त का शोधन होता है, वह प्रायश्चित्त प्रायश्चित्त और सब-- जैन आचार्यों ने न केवल भाचार है।'प्रायश्चित्त शब्द के संस्कृत रूप के आधार पर प्रायः" के विधि-निषेधों का प्रतिपादन किया अपितु उनके भंग होने पर शब्द को प्रकर्ष के अर्थ में लेते हुए यह भी कहा गया है कि प्रायश्चित्त एवं दक्ष की स्पवस्था भी की। सामान्यतया जैन जिसके द्वारा चित्त प्रकर्षता अर्थात् उच्चता को प्राप्त होता है मागम ग्रन्थों में नियम-भंग या अपराध के लिए प्रायश्चित्त का वह प्रायश्चित्त है। ही विधान किया गया और दण्ड शब्द का प्रयोग सामान्यतया दिगम्बर टीकाकारों ने "प्राय" शब्द का अर्थ अपराध और "हिंसा" के अर्थ में हुआ है। अतः जिसे हम दण्ड-व्यवस्था के चित्त शब्द का अर्थ शोधन करे यह माना है कि जिस क्रिया के रूप में जानते हैं, वह जैन परम्परा में प्रायश्चित्त व्यवस्था के करने से अपराध की शुद्धि हो वह प्रायश्चित्त है। एक अन्य रूप में ही मान्य है। सामान्यतया दण्ड और प्रायश्चित्त पययि- व्याख्या में "प्रायः" शब्द का अर्थ "लोक" भी किया गया है। वानी माने जाते हैं. किन्तु दोनों में सिद्धांतत: अन्तर है। प्राय- इस पृष्टि से यह माना गया है कि जिस कर्म से साधजनों का श्चित्त में अपराध-बोध की भावना से व्यक्ति में स्वतः ही उसके चित्त प्रसन्न होता है वह प्रायश्चित्त है । मूलाचार में कहा गया परिमार्जन की अन्तःप्रेरणा उत्पन्न होती है। प्रायश्चित्त अन्तः है कि प्रायश्चित्त वह तप है जिसके द्वारा पूर्वकृत पापों की प्रेरणा से स्वयं ही किया जाता है, जबकि दण्ड अन्य व्यक्ति के विशुद्धि की जाती है। इसी ग्रन्थ में प्रायश्चित्त के पर्यायवाची द्वारा दिया जाता है । जैन परम्परा अपनी आध्यारिमक-प्रकृति नामों का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि जिसके द्वारा पूर्वके कारण साधनात्मक जीवन में प्रायश्चित्त का ही विधान करती कृत कर्मों का क्षपणा, क्षेपण, निर्जरण, शोधन, धावन, पुन्छण है। यद्यपि जव साधक अन्तःप्रेरित होकर गात्मशुद्धि के हेतु अर्थात् निराकरण, उत्क्षेपण एवं छेदन होता है, वह प्रायश्चित्त स्वयं प्रायश्चित्त की याचना नहीं करता है तो संघ ध्यवस्था के है। लिए उसे दण्ड देना होता है। प्रायश्चित्त के प्रकार यद्यपि हमें यह स्मरण रखना होगा कि दण्ड देने से साधक नेताम्बर परम्परा में विविध प्रायश्चित्तों का उल्लेख स्थाकी आत्मशुद्धि नहीं होती। चाहे सामाजिक या संघ-व्यवस्था के नांग, निशीथ, बृहस्कल्प, व्यवहार, जीतकल्प आदि ग्रन्थों में लिए दण्ड आवश्यक हो किन्तु जब तक उसे अन्तःप्रेरणा से स्वीः मिलता है। किन्तु जहाँ समवायांग में प्रायश्चित्तों के प्रकारों का कृत नहीं किया जाता तब तक वह आत्मविशुद्धि करने में सहा. मात्र नामोल्लेख है वहां निशीथ आदि ग्रन्थों में प्रायचित्त योग्य यक नहीं होता। जैन प्रायश्चित्त व्यवस्था में परिहार, छेद, अपराधों का भी विस्तृत विवरण उपलब्ध होता है। प्रायश्चित्त .१ जीतकल्पमाष्य ५ । २ पंचाशक (हरिमा) १६३ (प्रायश्चितपंचाशक)। ४ अभिधान राजेन्द्र कोष। ५ तत्वार्थ वातिक ६/२२/१, पृ. ६२० । ७ मूलाचार ५/१६४॥ ८ वही ५/१६६। Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ [ चरणानुयोग : प्रस्तावना सम्बन्धी विविध सिद्धांतों और समस्याओं का स्पष्टतापूर्वक हार का अर्थ अनवस्थाप्य ही हो सकता है। इस प्रकार तत्वार्थ विवेचन बहत्कल्प भाष्य, निधीयभाष्य, व्यवहारभाष्य, निणीय- और मूलाचार दोनों तप और परिहार को अलग-अलग मानते हैं पणि, जीतकल्पभाष्य एवं जीतकल्पचूणि में उपलब्ध होता है। और दोनों में उसका अर्थ अनवस्थाप्य के समान है। यद्यपि जहाँ तक प्रायश्चित्त के पकारों का प्रश्न है, इन प्रकारों का दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थ धवला १७ में स्थानांग और जीतकल्प उल्लेख श्वेताम्बर बागम स्थानांग, बृहत्कल्प, निशीथ और जीत के समान ही १० प्रायश्चित्तों का वर्णन है और उनके नाम भी कल्प में, यापनीय ग्रन्थ मूलाचार में, दिगम्बर ग्रन्थ जयधवला में वे ही हैं। इस प्रकार जहाँ धवला श्वेताम्बर परम्परा से संगति तथा तत्वार्थ सूत्र एवं उसकी श्वेताम्बर और दिगम्बर आचार्यों रखती है, वहाँ मूलाचार और तत्वार्थ कुछ भिन्न हैं। सम्भवतः की टीकाओं में मिलता है। ऐसा प्रतीत होता है कि जीतकल्प सूत्र के उस्ले लानुसार जब स्थानांग सूत्र में प्रायश्चित्त के विभिन्न प्रकारों का उल्लेख अनवस्थाप्य और पारांचिक इन दोनों प्रायश्चित्तों को भद्रबाह हया है, उसके तृतीय स्थान में ज्ञान प्रायश्चित्त, दर्शन प्रायश्चित्त के बाद व्यवच्छिन्न मान लिया गया या दुसरे शब्दों में इन प्रायऔर चारित्र-प्रायश्चित्त ऐसे तीन प्रायश्चित्तों का उल्लेख हुआ श्चित्तों का प्रचलन बन्द कर दिया गया तो इन अन्तिम दो है। इसी तृतीय स्थान में अन्यत्र बालोचना, प्रतिक्रमण और प्रायश्चित्तों के स्वतन्त्र स्वरूप को लेकर मतभेद उत्पन्न हो गया तदुभय ऐसे प्रायश्चित्त के तीन रूपों का भी उल्लेख हुआ है । और उनके नामों में अन्तर हो गया। मूलाचार के अन्त के परिइसी आगम ग्रन्थ में अन्यत्र छ:, आठ और नौ प्रायश्चित्तों का हार का जो उल्लेख है वह अनवस्थाप्य से कोई भिर नहीं कहा भी उल्लेख हुआ है, किन्तु ये सभी प्रायश्चित्तों के प्रकार उसके जा सकता, किन्तु उसमें बद्धान प्रायश्चित्त का क्या तात्पर्य है दशम् स्थान में जो दशविध प्रायश्चित्तों का विवरण दिया गया यह न तो मूल ग्रन्थ से और न उसकी टीका से ही स्पष्ट होता है उसमें समाहित हो जाते हैं। अतः हम उनकी स्वतन्त्र रूप से है। यह अन्तिम प्रायश्चित्त है, अत: कठोरतम होना चाहिये। चर्चा न करके उसमें उपलब्ध दशविध प्रायश्चित्त को चर्चा इसका अर्थ यह माना जा सकता है कि ऐसा अपराधी व्यक्ति जो करेंगे श्रद्धा से रहित मानकर संघ से पूर्णतया बहिष्कृत कर दिया स्थानांग, जीतकल्प और धवला में प्रायश्चित्त के निम्न दस जाये क्रिन्तु टीकाकार वसुनन्दी ने श्रद्धान का अर्थ तरवरुचि एवं प्रकार माने गये हैं क्रोधादि त्याग किया है। इन प्रायश्चित्तों में जो क्रम है वह (१) आलोचना, (२) प्रतिक्रमण, (३) उभय, (४) विवेक, सहजता से कठोरता की ओर है अतः अन्त में श्रद्धा नामक सहज (५) व्युत्सर्ग, (६) तप, (७) छेद, (८) भूल, (8) अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त को रखने का कोई औचित्य नहीं है। वस्तुतः जिन और (१०) पापंचिक । यदि हम इन दस नामों की तुलना प्रवचन के प्रति श्रद्धा का समाप्त हो जाना ही वह अपराध है, मापनीय ग्रन्थ मूलाचार और तत्वार्य सूत्र से करते हैं तो मूला- जिसका देण्ड मात्र बहिष्कार है। अतः ऐसे श्रमण की श्रद्धा जब चार में प्रथम माठ नाम तो जीतफल्प के समान ही हैं मिन्तु तक सम्यक् नहीं है तब तक उसे संघ से बहिष्कृत रखना ही इस जीतकल्प के अनवस्थाप्य के स्थान पर परिहार और पारांचिक प्रायश्चित्त का तात्पर्य है। के स्थान पर श्रद्धान का उल्लेख हुआ है। मूलाचार श्वेताम्बर प्रायश्चित्त का सर्वप्रथम रूप वह है जहाँ साधक को स्वयं परम्परा से भिन्न होकर तप और परिहार को अलग-अलग ही अपने मन में अपराधबोध के परिणामस्वरूप आश्मग्लानि का मानता है। तत्वार्थ सूत्र में तो इनकी संख्या नौ मानी गई है। भाव उत्पन्न हो । वस्तुतः आलोचना का अर्थ है अपराध को इसमें सात नाम तो जीतकल्प के समान ही है किन्तु मूल के अपराध के रूप में स्वीकार कर लेना। आलोचन शब्द का अर्थ स्थान पर उपस्थापन और अनपस्थाप्य के स्थान पर परिहार का देखना, अपराध को अपराध के रूप में देख लेना ही आलोचना उल्लेख हुआ है। पारांचिक का उल्लेख तत्वार्थ में नहीं है अतः है। सामान्यतया वे अपराध जो हमारे दैनन्दिन व्यवहार में वह नो प्रायश्चित्त ही मानता है। श्वेताम्बर आचार्यों ने तप और असावधानी (प्रमाद) या बाध्यतावश घटित होते हैं, आलोचना परिहार को एक माना है, किन्तु तत्वार्थ में तप और परिहार नामक प्रायश्चित्त के विषय माने गये हैं। अपने द्वारा हुए अपराध दोनों स्वतन्त्र प्रायश्चित्त माने गये हैं, अत: तत्वार्थ में भी परि- या नियम भंग को आचार्य या गीताई मुनि के समक्ष निवेदित ३ वही १०/७३ । १ स्थानांग ३/४७०। २ वही ३/४४ । ४ (अ) स्थानांग १०/७३, (ब) जीतकल्पसूत्र ४, (स) धवला १३/५, २६/६३/१ । ५ मूलाचार ५/१६५। ६ तस्वार्थ /२२॥ ७ जीतकल्पभाष्य २५८६, जीतकल्प १.२। Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सदाचरण : एक बौद्धिक विमर्श | ५९ --- --- ..-.- .-. करके उनसे उसके प्रायश्चित्त की याचना करना ही आलोचना वतभंग करना या नियम के प्रतिकूल आचरण करना विमर्श है। सामान्यतया आलोचना करते समय यह विचार आवश्यक है प्रतिसेवना है। कि अपराध क्यों हुआ ? उसका प्रेरक तत्व क्या है? इस प्रकार हम देखते हैं कि व्यक्ति अपराध केवल स्वेच्छा अपराध क्यों और कैसे? से जानबूझकर ही नहीं करता अपितु परिस्थितिवश भी करता अपराध या व्रतमंग क्यों और किन परिस्थितियों में किया है। अतः उसे प्रायश्चित्त देते समय यह बात ध्यान में रखनी जाता है, इसका विवेचन हमें स्थानांग सूत्र के दशम स्थान में चाहिए कि अपराध क्यों और किन परिस्थितियों में किया मिलता है, उसमें दरा प्रकार की प्रतिसेवना का उल्लेख हुआ है। गया है। प्रतिसेवना का तात्पर्य है गृहीत नत के नियमों के विरुद्ध आचरण आलोचना करने का अधिकारी कौन ? करना अथवा भोजन आदि ग्रहण करता । वस्तुतः प्रतिसेवना का आलोचना कौन व्यक्ति कर सकता है इस सम्बन्ध में भी सामान्य अर्थ व्रत या नियम के प्रतिकुल आचरण करना ही है। स्थानांग सूत्र में पर्याप्त चिन्तन किया गया है । इसके अनुसार यह तभंग क्यों, कब और किन परिस्थितियों में होता है इसे निम्न दस गुणों से युक्त व्यक्ति ही आलोचना करने के योग्य स्पष्ट करने हेतु ही स्थानांग में दस प्रतिसेवनामों का उल्लेख है। होता है (१) वर्ष-प्रतिसेवना. आयेश अथवा अहंकार के वशीभूत (१) जाति सम्पन्न, (२) कुल सम्पन्न, (३) विनय सम्पन्न, होकर जो हिंसा नादि करके व्रत भंग किया जाता है वह वर्ष (४) शान सम्पन्न, (५) दर्शन सम्पन्न, (६) चारित्र सम्पन्न, प्रतिसेवना है। (७) क्षान्त (क्षमासम्पन्न) (८) दान्त (इन्द्रिय-जयी). (E) अमा(२) प्रमार प्रतिसेवना-प्रमाद एवं कषायों के वशीभूत यावी (मायाचार रहित) और (१०) अपश्चासापी (आलोचना होकर जो व्रत भंग किया जाता है, यह प्रमाद प्रतिसेवना है। करने के बाद उसका पश्चात्ताप न करने वाला)। (1) अनाभोग प्रतिसेवना-स्मृति या सजगता के अभाव में आलोचना किसके समक्ष की जाये? अभक्ष्य या नियम विरुद्ध वस्तु का ग्रहण करना अनाभोग आलोचना किस व्यक्ति के समक्ष की जानी चाहिए यह भी प्रतिसेवना है। एक विचारणीय प्रश्न है, योग्य और गम्भीर व्यक्ति के अतिरिक्त (४) आतुर प्रतिसेवना-भूख-प्यास आदि से पीड़ित होकर किसी अन्य व्यक्ति के समक्ष आलोचना करने का परिणाम यह किया जाने वाला व्रत-मंग आतुर प्रतिसेवना है। होता है कि वह आलोचना करने वाले व्यक्ति की प्रतिष्ठा को (५) आपात प्रतिसेवना- किसी विशिष्ट परिस्थिति के ठेस पहुंचा सकता है तथा उसे अपयश का भागी बनना पड़ उत्पन्न होने पर व्रत-भंग या नियम विरुद्ध आचरण करना आपात सकता है। अतः जैनाचार्यों ने माना कि आलोचना सदैव ऐसे प्रतिसेवना है। व्यक्ति के समक्ष करनी चाहिये जो आलोचना सुनने योग्य हो, (६) शंकित प्रतिसेवना-शंका के वशीभूत होकर जो नियम उसे गोपनीय रख सकता हो और उसका अनैतिक लाम में ले । भंग किया जाता है, उसे शंकित प्रतिसेवना कहते हैं, जैसे यह स्थानांय सूत्र के अनुसार जिस व्यक्ति के सामने बालोचना की व्यक्ति हमारा अहित करेगा ऐसा मानकर उसकी हिंसा आदि जाती है उसे निम्नलिखित दस गुणों से युक्त होना चाहिए । कर देना। (१) आचारवान – सदाचारी होना आलोचना देने वाला (4) सहसाकार प्रतिसेवना-अकस्मात होने वाले व्रत या व्यक्ति का प्रथम गुण है, क्योंकि जो स्वयं दुराचारी है वह दूसरों नियम 'भंग को सहसाकार प्रतिसेवना कहते हैं। के अपराधों की आलोचना सुनने का अधिकारी नहीं है। जो (८) भय प्रतिसेवना-भय के कारण जो व्रत या नियम अपने ही दोषों को शुद्ध नहीं कर सका वह दूसरों के दोषों को मंग किया जाता है यह भय प्रतिसेवना है। क्या दूर करेगा? (६) प्रदोष प्रतिसेवना-द्वेषवश किसी प्राणी की हिंसा (२) आधारवान-अर्थात् उसे अपराधों और उसके सम्बन्ध अथवा उसका अहित करना प्रदोष प्रतिसेवना है। में नियत प्रायभिचत्तों का बोध होना चाहिए, उसे यह भी ज्ञान (१०) विमर्श प्रतिसेवना-शिष्यों की क्षमता अथवा उनकी होना चाहिए कि किस अपराध के लिए किस प्रकार का प्रायश्रद्धा आदि के परीक्षण के लिए व्रत या नियम का भंग करना वित्त नियत है। विमर्श प्रतिसेवमा है। (३) व्यवहारवान- उसे आगम, श्रुत, जिनाशा, धारणा - दूसरे शब्दों में किसी निश्चित उद्देश्य के लिये विचारपूर्वक और जीत इन पांच प्रकार के व्यवहारों को जानने वाला होना १ स्पानांग १०/६६। २ स्थानगि १०/७१। ३ स्थानांग १०/७२। .. -- - - - --- Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. | परणानुयोग : प्रस्तावमा पाहिए क्योंकि सभी अपराधों एवं प्रायश्चित्तों की सूची आगमों पासक उपस्थित हो तो उसके समक्ष आलोचना करे । उसके में उपलब्ध नहीं है अतः अालोचना सुनने याला व्यक्ति ऐसा होना अभाव में सम्यक्त्व भावित अंत:करण वाले के समक्ष अर्थात् चाहिये जो स्वविवेक से ही आगमिक आधारों पर किसी कर्म के सम्यक्स्वी जीव के समक्ष आलोचना करे। यदि सम्यक्त्व भावी प्रायश्चित्त का अनुमान कर सके। अन्तःकरण वाला भी न हो तो ग्राम या नगर के बाहर जाकर (४) अपनीडक-आलोचना सुनने वाला व्यक्ति ऐसा होना पूर्व या उत्तर दिशा में अभिमुख होकर अरिहन्त और सिद्ध की चाहिए कि आलोचना करने वाले की लज्जा छुड़ाकर उसमें साक्षीपूर्वक आलोचना करे।। आत्म-आलोचन की शक्ति उत्पन्न कर सके । आलोचना सम्बन्धी इस चर्चा के प्रसंग में यह भी तथ्य ध्यान (५) प्रकारी--आचार्य अथवा आलोचना सुनने वाले में यह देने योग्य है कि आलोचना दोषमुक्त हो। स्थानांग, मूलाचार, सामर्थ्य होना चाहिए कि वह अपराध करने वाले व्यक्ति के भगवती आराधना आदि ग्रन्थों में आलोचना के दस दोषों का व्यक्तित्व को रूपान्तरित कर सके। उल्लेख हुआ है। (६) अपरिचावी-उसे आलोचना करने वाले के दोषों को (१) आकम्पित रोष-आचार्य आदि को उपकरण आदि दूसरे के सामने प्रगट नहीं करना चाहिये, अन्यथा कोई भी व्यक्ति देकर अपने अनुकूल बना लेना बाकम्पित दोष है। कुछ विद्वानों उसके सामने आलोचना करने में संकोच करेगा । के अनुसार आकम्पित दोष का अर्थ है कांपते हुए आलोचना (७) निर्यापक- आलोचना सुनने वाला व्यक्ति ऐसा होना करना, जिससे प्रायश्चित्तदाता बाम से कम प्रायश्चित्त दे। कि वह प्रायश्चित्त विधान इस प्रकार करे कि प्रायश्चित्त करने (२) अनुमानित दोष- अल्प प्रायश्चित्त पा दण्ड मिले इस वाला व्यक्ति घबराकर उसे आधे में हो न छोड़ दे। उसे प्राय- भय से अपने को दुर्बल, रोगग्रस्त आदि दिखाकर आलोचना श्चित करने वाले का सह्योगी बनना चाहिए। करना अनुमानित दोष है। (८) अपायदर्शी -- अर्थात् उसे ऐसा होना चाहिए कि वह (३) अष्ट्र-गुरु अथवा अन्य किसी ने जो अपराध देख भालोचना करने अयवा न करने के गुण-दोषों की समीक्षा कर सके। लिया हो उसकी आलोचना करना और अद्रष्ट दोषों की आलो () प्रियधर्मा- अर्थात् आलोचना सुनने वाले व्यक्ति की चना न करना यह अद्रष्ट दोष है। धर्म मार्ग में अविचल निष्ठा होनी चाहिए। (४) बार धोष-बड़े दोषों को आलोचना करना और (१०' दुधर्मा- उसे ऐसा होना चाहिए कि यह कठिन से छोटे दोषों की हालोचना न करना बादर दोष है। कठिन समय में भी धर्म मार्ग से विचलित न हो सके। (५) सम्म शेष- छोटे-छोटे दोषों की आलोचना करना जिसके समक्ष आलोचना की जा सकती है उस व्यक्ति को और बड़े दोषों को छिपा लेना सूक्ष्म दोष है। इन सामान्य योग्यताओं का निर्धारण करने के साथ-साथ यह (६) छा दोष-आलोचना इस प्रकार से करना कि गुरु भी माना गया है कि किसी गीतार्थ, बहुश्रुत एवं बागमज्ञ के उसे पूरी तरह सुन ही न सके यह छन्न दोष है। कुछ विद्वानों समक्ष ही आलोचना की जानी चाहिए। साथ ही इनके पदक्रम के अनुसार आचार्य के समक्ष मैंने यह दोष किया, यह न कहऔर वरीयता पर विचार करते हुए यह कहा गया है कि जहाँ कर किसी बहाने से उस दोष का प्रायश्चित्त ज्ञात कर स्वयं ही आचार्य आदि उच्चाधिकारी उपस्थित हों, वहीं सामान्य साघु उसका प्रायश्चित्त से लेना न दोष है। या गृहस्थ के समक्ष आलोचना नहीं करनी चाहिए। आचार्य के (७) शम्बाकुलित दोष- कोलाहलपूर्ण वातावरण में आलो. उपस्थित होने पर उसी के समक्ष आलोचना की जानी चाहिए। बना करना जिसे आचार्य सम्यक् प्रकार से सुन न सके, यह आचार्य की अनुपस्थिति में उपाध्याय के समक्ष, उपाध्याय की शम्दाकुलित दोष है । दूसरे शब्दों में भीड़-भाड़ अथवा व्यस्तता अनुपस्थिति में सांभोगिक सार्मिक साधु के समक्ष और उनकी के समय गुरु के सामने आलोचना करना दोषपूर्ण माना गया है। अनुपस्थिति में अन्य सांभोगिक साधर्मी साधु के समक्ष आलोचना (८) बहुजन दोष--एक ही दोष की अनेक लोगों के समक्ष करनी चाहिए । यदि अन्य सांभोगिक साधर्मी साधु भी उपलब्ध न आलोचना करना और उनमें से जो सबसे कम दण्ड या प्रायहो तो ऐसी स्थिति में बहुश्रुत और बहुआगमज्ञ समान-देश धारक चित्त दे उसे स्वीकार करना बहुजन दोष है। साधु के समक्ष आलोचना करे। उसके उपलब्ध न होने पर यदि (1) अव्यक्त दोष-दोषों को पूर्ण रूप से स्पष्ट न कहते पूर्व में दीक्षा पर्याय को छोड़ा हुआ बहुश्रुत और बागमज्ञ श्रमणो- हुए उनकी आलोचना करना अध्यक्त दोष है। १ व्यवहारसूत्र १/१/३३ । २ (अ) स्थानांग, १०७०। (ब) मूलाधार, ११/१५ । Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सदाचरण : एक बौद्धिक विमर्श | ६१ (१०) तत्सेवी दोष--जो व्यक्ति स्वयं ही दोषों का सेवन आलोचना और प्रतिक्रमण में अन्तर यह है कि आलोचना में करने वाले हैं उनके सामने दोषों की आलोचना करना तत्सेवी अपराध को पुनः सेवन न करने का निश्चय नही होता, जबकि दोय है । क्योंकि जो व्यक्ति स्वयं दोष का सेवन करने वाला है प्रतिक्रमण में ऐसा करना आवश्यक है। उसे दूसरे को प्रायश्चित्त देने का अधिकार नहीं है। दूसरे, ऐसा मन, वचन और काय से जो अशुभ आचरण किया जाता व्यक्ति उचित प्रायश्चित्त भी नहीं दे पाता। है, अथवा दूसरों के द्वारा कराया जाता है और दूसरे लोगों के इस प्रकार हम देखते हैं कि जैनाचार्यों ने आलोचना के द्वारा आचरित पापाचरण का जो अनुमोदन किया जाता है, इन सन्दर्भ में उसके स्वरूप, आलोचना करने ३ सुनने की पात्रता सबकी निवृत्ति के लिए कृत-पापों की समीक्षा करना और पुन: और उसके दोषों पर गहराई से विचार किया है। इस सम्बन्ध नहीं करने की प्रतिज्ञा करना प्रतिक्रमण है। आचार्य हेमचन्द्र में विस्तृत चर्चा निशीथ आदि में पायी जाती है। पाठकों से उसे प्रतिक्रमण का निर्वचन करते हुए लिखते हैं कि शुभयोग से अशुभ वहाँ देखने की अनुशंसा की जाती है। पान की आर गये हुए अपन आपको पून: शुभ योग में लौता लाना आलोचना योग्य कार्य-जीतकल्प के अनुसार जो भी कर- प्रतिक्रमण है। आचार्य हरिभद्र ने अतिक्रमण की व्याख्या में णीय अर्थात आवश्पक कार्य हैं, वे तीर्थंकरों द्वारा सम्पादित होने इन तीन अर्थों का निर्देश किया है-(१) प्रभादवा स्वस्थान से पर तो निदोष होते हैं, किन्तु छदमस्थ श्रमणों द्वारा इन कर्मों परस्थान (स्वधर्म से परस्थान, परधर्म) में गये हुए साधक का की शुद्धि केवल आलोचना से ही मानी गयी है । जीतकल्प में पुनः स्वस्थान पर लौट आना यह प्रतिक्रमण है। अप्रमत्त चेतना कहा गया है कि आहार आदि का ग्रहण, गमनागमन, मल-मूत्र का स्व-चेतना केन्द्र में स्थित होना स्वस्थान है, जबकि चेतना विसर्जन, गुरुवंदन आदि सभी क्रियाएँ बालोचना के योग्य है।' का बहिर्मुख होकर पर-वस्तु पर केन्द्रित होना पर-स्थान है। इन्हें आलोचना योग्य मानने का तात्पर्य यह है कि साधक इस इस प्रकार बाघहष्टि से अन्नई ष्टि की ओर आना प्रतिक्रमण है। बाल का विचार करे कि उसने इन कार्यों का सम्पादन सजगता- (२) क्षायोपमिक भाव से औदयिका भाव में परिणत हुआ पूर्वक अप्रमत्त होकर किया है या नहीं । क्योंकि प्रमाद के कारण साधक जब पुनः श्रोदायिक भाव से क्षायोपशमिक भाव में लौट दोष लगना सम्भव है। इसी प्रकार आचार्य से सौ हाथ की आता है, तो यह भी प्रतिकूलगमन के कारण प्रतिक्रमण कहलाता दूरी पर रहकर जो भी कार्य किये जाते हैं, वे भी आलोचता के है। (३) अशुभ भाचरण से निवृत्त होकर मोक्षफलदायक शुभ विषय माने गमे है। इन कार्यों को गुरु के समक्ष आलोचना आचरण में निःशल्प भाव से प्रवृत्त होना प्रतिक्रमण है। करने पर ही साधक को शुद्ध माना जाता है। इसका उद्देश्य यह आचार्य भद्रबाहु ने प्रतिक्रमण के निम्न पर्यायवाची नाम है कि साधक गुरु को यह बताये कि उसने गुरु से दूर रहकर दिये है (१) प्रतिक्रमण-पापाचरण के क्षेत्र से प्रतिगामी होकर क्या-क्या कार्य किस प्रकार सम्पादित किये है। इसके साथ ही आत्मशुद्धि के क्षेत्र में नोट बाना । (२) प्रतिचरण हिंसा किसी कारणवश या अकारण ही स्वगण का परित्याग कर पर- असत्य आदि से निवृत्त होकर अहिंसा, सत्य एवं संयम के क्षेत्र में गण में प्रवेश करने को मथवा उपसम्पदा, विहार आदि कार्यो अग्रसर होना । (३) परिहरण सब प्रकार से अशुभ प्रवृत्तियों को भी आलोचना का विषय माना गया है। ई आदि पांच एवं पुराचरणों का त्याग करना । (४) बारण-निषिस आवरण समितियों और तीन गुप्तियों में लगे हुए दोष सामान्यतया की ओर प्रवृत्ति नहीं करता। बौद्ध धर्म में प्रतिक्रमण के समान बालोचना के विषय हैं। यद्यपि हमें स्मरण रखना चाहिए कि की जाने वाली क्रिया को प्रवारणा कहा गया है। (५) निसि ये सभी दोष जो आलोचना के विषय हैं, वे देश-काल परिस्थिति -अशुभ भावों से निवृत्त होना । (६) निन्दा - गुरुजन, वरिष्ठऔर व्यक्ति के आधार पर प्रतिक्रमण, तदुभय, विवेक, व्युत्तर्ग, जन अथवा स्वयं अपनी ही आत्मा की साक्षी से पूर्वकृत अशुभ तप, परिहार, छैद आदि प्रायश्चित्त के योग्य भी हो सकते हैं। आचरणों को बुरा समझना तथा उसके लिये पश्चात्ताप करना। प्रतिक्रमण-प्रायश्चित्त का दूसरा प्रकार प्रतिक्रमण है। (७) गट-अशुभ आचरण को गहित समझना, उससे घृणा अपराध या नियम भंग को अपराध के रूप में स्वीकार कर पुनः करना । (क) शुद्धि-प्रतिक्रमण आलोचना, निन्दा बादि के द्वारा उससे वापस लौट आना अर्थात् भविष्य में उसे नहीं करने की आत्मा पर लगे दोषों से आत्मा को शुद्ध बनाता है, इसलिये उसे प्रतिज्ञा करना ही प्रतिक्रमण है। दूसरे शब्दों में आपराधिक शुद्धि कहा गया है। स्थिति से अनपराधिक स्थिति में लौट आना ही प्रतिक्रमण है। १ जीतकल्प ६, देखें-जीतफल्पभाष्य माथा ७३१-१८१०। २ योगशास्त्र स्वोपशवृत्ति, ३ । ३ मावश्यक टीका, उद्धृत अमात्र, पृ. ८७ । Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२/वरणानुयोग प्रस्तावना प्रतिक्रमण किसका के लिए हैं जिन्होंने संलेखना प्रत ग्रहण किया हो। ___ स्थानांग सूत्र में इन छह बातों के प्रतिक्रमण का निर्देश है- थमण प्रतिक्रमण सूत्र और श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र में सम्ब. (१) उच्चार प्रतिक्रमण-मल आदि का विसर्जन करने के बाद धित सम्भावित दोषों की विवेचना विस्तार से की गई है। ईर्या (आने-जाने में हुई जीवहिसा) का प्रतिक्रमण करना उच्चार इसके पीछे मूल दृष्टि यह है कि उनका पाठ करते हुए आचरित प्रतिक्रमण है। (२) प्रस्रवण प्रतिक्रमण-पेशाब करने के बाद सूक्ष्मतम दोष भी विचार पथ से ओझल न हों। ईर्या का प्रतिक्रमण करना प्रस्त्रवध प्रतिक्रमण है। (३) इत्वर प्रतिक्रमण के भेद-साधकों के आधार पर प्रतिक्रमण के प्रतिक्रमण-स्वरूपकालीन (देवसिक रात्रिक आदि) प्रतिक्रमण दो भेद हैं--(१) श्रमण प्रतिक्रमण और (२) श्रावक प्रतिक्रमण । करना इतर प्रतिक्रमण है। (४) यावत्कर्थिक प्रतिक्रमण- कालिक आधार पर प्रतिक्रमण के पांच भेद हैं (१) देवसिकसम्पूर्ण जीवन के लिए पाप से निवृत्त होना यावलथिक प्रतिक्रमण प्रतिदिन सायंकाल के समय पूरे दिवन में आ चरित पापों का है। (५) यत्किचिस्मिथ्या प्रतिक्रमण-सावधानीपूर्वक जीवन चिन्ता कर उनकी आलोचना करना देवसिक प्रतिक्रमण है। व्यतीत करते हुए भी प्रसाद असवा सावधानी से किसी भी (२) रात्रिक - प्रतिदिन प्रात:काल के समय सम्पूर्ण रात्रि के प्रकार का असंगमरूप आचरण हो जाने पर तत्काल उस भूल को आचरित पापों का चिन्तन कर उनकी बालोचना करना रात्रिक स्वीकार कर लेना, 'मिच्छामि दुक्कड़ ऐसा उच्चारण करना और प्रतिक्रमण है। (३) पाक्षिक---पक्ष के अन्तिम दिन अर्थात उसके प्रति पश्चात्ताप करना यत्तिचिन्मिथ्या प्रतिक्रमण है। अमावस्या एवं पूर्णिमा के दिन सम्पूर्ण पक्ष में आचरित पापों का (६) स्वप्नान्तिक प्रतिक्रमण -विकार-वासना रूप कुस्वप्न देखने विचार कर उनकी झाले चना करना पाक्षिक प्रतिक्रमण है। पर उसके सम्बन्ध में पश्चात्ताप करना स्वप्नान्तिक प्रतिक्रमण (४) चातुर्मासिक - कार्तिकी पूर्णिमा, फाल्गुनी पूणिमा एवं है। यह विवेचना प्रमुखतः साधुओं की जीवनचर्या से सम्बन्धित साषाढ़ी पूर्णिमा को चार महीने के आचरित पारों का विचार है। आचार्य भद्रबाहु ने जिन-जिन तथ्यों का प्रतिक्रमण करना कर उनकी आलोचना करना चातुर्मासिक प्रतिक्रमण है। (५) साहिए इसका निर्देश आवश्यक नियुक्ति में किया है। उनके सांवत्सरिक-प्रत्येक वर्ष में संवत्सरी महापर्व (ऋषि पंचमी) अनुसार (१) मिथ्यात्व, (२) असंयम, (३) कषाय एवं (४) के दिन वर्ष भर के पापों का चिन्तन कर उनकी आलोचना अप्रशस्त कायिक, वाचिक एवं मानसिक व्यापारों का प्रतिक्रमण करना सविस्सरिक प्रतिक्रमण है। करना चाहिए । प्रकारान्तर से आचार्य ने निम्न बातों का प्रति- तदुभय--तदुभम प्रायश्चित्त यह है जिसमें आलोचना और क्रमण करना भी अनिवार्य माना है- (१) गृहस्थ एवं श्रमण प्रतिक्रमण दोनों किये जाते हैं । अपराध या दोष को दोष के रूप उपासक के लिए निषिद्ध कार्यो का आचण कर लेने पर, (२) में स्वीकार करके फिर उसे नहीं करने का निश्चय करना ही जिन कार्यों के करने का शास्त्र में विधान किया गया है उन तदुभय प्रायश्चित्त है । जीतकल्म में निम्न प्रकार के अपराधों के विहित कार्यों का आचरण न करने पर, (३) अश्रद्धा एवं शंका लिए तदुभम प्रायश्चित्त का विधान किया गया है-(१) भ्रमके उपस्थित हो जाने पर और (४) असम्यक एवं असत्य सिद्धांतों वश किये गये कार्य, (२) भयवश किये गये कार्य, (2) आतुरताका प्रतिपादन करने पर अवश्य प्रतिक्रमण करना चाहिए। वश किये गये कार्य, (४) सहसा किये गये कार्म, (५) परवशता जैन परम्परा के अनुसार जिनका प्रतिक्रमण किया जाना में किये कार्य, (६) सभी प्रतों में लगे हुए अतिचार । चाहिए, उनका संक्षिप्त वर्गीकरण इस प्रकार है विवेक-विवेक बन्द का सामान्य अर्थ यह है कि किसी (अ) २५ मिथ्यात्वों, १४ ज्ञानातिचारों और १८ पापस्थानों कर्म के औचित्य एवं अनौचित्य का सम्यक् निर्णय करना और का प्रतिक्रमण सभी को करना चाहिए। अनुचित कर्म का परित्याग कर देना । मुनि जीवन में आहारादि (ब) पंच महाव्रतों, मन, वाणी और शरीर के असंयम तथा के प्रात्य और अनाहा अथवा शुद्ध और अशुद्ध का विचार करना गमन, भाषण, याचना, महण-निक्षेप एवं मलमूत्र विसर्जन आदि ही विवेक है । यदि अज्ञात रूप से सदोष आहार आदि ग्रहण से सम्बन्धित दोषों का प्रतिक्रमण श्रमण साधकों को करना कर लिया हो तो उसका त्याग करना ही विवेक है। वस्तुतः चाहिए। सदोष क्रियाओं का त्याग ही विवेक है। मुख्य रूप से भोजन, (स) पांच अणुव्रतों, ३ गुणवतों, ४ शिक्षाव्रतों में लगने वाले वस्त्र, मुनि जीवन के अन्य उपकरण एवं स्थानादि प्राप्त करने ७५ अतिचारों का प्रतिक्रमण अती श्रावकों को करना चाहिए। में जो दोष लगते हैं उनकी शुद्धि विवेक प्रायश्चित्त द्वारा मानी (द) संलेखना के पांच अतिचारों का प्रतिक्रमण उन साधकों गयी है। १ स्थनांग पूत्र, ६/५३८ । २ आवश्यकनियुक्ति, १२५०-१२६८ । Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सदाचरण : एक बौद्धिक विमर्श | ६३ ध्युत्सर्ग-व्युत्सर्ग का तात्पर्य परित्याग या विसर्जन है। किया है अतः इस सम्बन्ध में मुझे भी मौन रहना पड़ रहा है। सामान्यतया इस प्रायश्चित्त के अन्तर्गत किसी भी सदोष आचरण इन प्रायश्चित्तों से सम्बन्धित मास, दिवस एवं तपों की संख्या के लिए शारीरिक व्यापारों का विरोध करके मन की एकाग्रता- का उल्लेख हमें बहकल्प भाष्य गाथा ६०४१.६०४ में मिलता पूर्वक देह के प्रति रहे हुए ममत्व का विसर्जन किया जाता है। है। उसी आधार पर निम्न विवरण प्रस्तुत है-- जीतकल्प के अनुसार गमनागमन, विहार, श्रुत अध्ययन, सदोष प्रायश्चित्स का नाम तप का स्वरूप एवं काल स्वप्न, नाब आदि के द्वारा नदी को पार करना तथा भक्त पान, यथागुरु-छह मास तक निरन्तर पांच पांच उपवास शय्या-आसन, मलमूत्र विसर्जन, काल व्यविक्रम, अहंत एवं मुनि गुरुतर-चार मास तक निरन्तर चार-चार उपवास का अविनय आदि दोषों के लिए व्युत्तर्ग प्रायश्चित्त का विधान गुरु-एक मास तक निरन्तर तीन-तीन उपवास (तेले) किया गया है । जीतकरूप में इस तथ्य का भी उल्लेख किया गया लघु-१० बेले १० दिन पारणे (एक मास तक निरन्तर है कि किस प्रकार के दोष के लिए कितने समय या श्वासोच्छ् दो-दो उपवास) यास का कामोत्सर्ग किया जाना चाहिए। प्रायश्चित्त के प्रसंग लघुतर.-२५ दिन तक निरन्तर एक दिन उपवास और एक में गुम्सर्ग होर नागोलागं गियानी कप में ही सगुण हुए हैं। दिन भोजन । तप प्रायश्चित्त यथालघु-२० दिन निरन्तर आपम्बिल (स्खा-सूखा भोजन) सामान्य दोषों के अतिरिक्त विशिष्ट दोषों के लिए तप लघुवक-१५ दिन तक निरन्तर एकासन (एक समय प्रायश्चित्त का विधान किया गया है। किस प्रकार के दोष का भोजन) सेवन करने पर किस प्रकार के तप का प्रायश्चित्त करना होता लघुष्वकतर--१० दिन तक निरन्तर दो पोरसी अर्थात् १२ है उसका विस्तारपूर्वक विवेचन निशीथ, वृहत्कल्प और जीत बजे के बाद भोजन ग्रहण। कल्प में तथा उनके भाष्यों में मिलता है। निशीथ सूत्र में तप यथालत्रुवक-पांच दिन निरन्तर निर्विकृति (घी, दूध प्रायश्चित्त के योग्य अपराधों की विस्तृत सूची उपलब्ध है। आदि रहित भोजन) उसमें तप प्रायश्चित्त के विविध प्रकारों की चर्चा करते हुए लधुमासिक के योग्य अपराध मासलघु, मासगुरु, चातुर्मासलघु, चातुर्गास गुरु से लेकर षट्मास दारुदण्ड का पादोंछन बनाना, पानी निकलने के लिए लघु और षट्मास गुरु प्रायश्चित्तों का उल्लेख मिलता है। जैसा नाली बनाना, दानादि लेने के पूर्व अथवा पश्चात् दाता की कि हमने पूर्व में संकेत किया है मासगुरु या मासलघु आदि का प्रशंसा करना, निष्कारण परिचित घरों में दुबारा प्रवेश करना, क्या जात्पर्य है, यह इन अन्धों के मूल में कहीं स्पष्ट नहीं किया अन्यतीयिक अथवा गृहस्थ की संगति करना, शाम्यातर अथवा गया है किन्तु इन पर लिखे गये भाष्य-चूणि आदि में इनके अर्थ भावास देने वाले मकान मालिक के यहां का आहार-पानी ग्रहण को स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है. मात्र यही नहीं लघु को करना आदि क्रियाएँ लघुमासिक प्रायश्चित्त के कारण हैं। लघु, लघुतर और लघुतम तथा गुरु की गुरु, गुरुत्तर और गुरुतम गुरुमासिक योग्य अपराध-अंगादान का मन करना, ऐसी तीन-तीन कोटियां निर्धारित की गई हैं। अंगादान के ऊपर की त्वचा दूर करना, अंगादान को नली में ___कहीं-कहीं गुरुक, लघुक और लघुष्वक ऐसे तीन भेद भी डालना, पुष्पादि सुंघना, पात्र आदि दूसरों से साफ करवाना, किये गये हैं और फिर इनमें से प्रत्येक के जघन्य, मध्यम और सदोष आहार का उपभोग करना आदि क्रियायें गुरुमासिक प्रायउत्कृष्ट ये तीन तीन भेद किये गये हैं। व्यवहारसूत्र की भूमिका श्चित के कारण हैं। में अनुयोगकर्ता मुनि श्री कन्हैयालालजी 'बमल' ने उत्कृष्ट, लघु चातुर्मासिक के योग्य अपराध -प्रत्याख्यान का बारमध्यम और जथन्य प्रत्येक के भो तीन-तीन विभाग किये हैं। बार भंग करना, गृहस्थ के वस्त्र, शैय्या आदि का उपयोग यथा— उत्कृष्ट के उत्कृष्ट, उस्कृष्टमध्यम और उत्कृष्टजघन्य करना, प्रथम प्रहर में ग्रहण किया हुआ थाहार नतुर्य प्रहर तक तीन विभाग हैं । ऐसे ही मध्यम और जघन्य के भी तीन-तीन रखना, अयोजन अर्थात् दो कोस से आगे जाकर आहार लाना, विभाग किये गये हैं। इस प्रकार तप प्रायश्चित्तों के ३४३४३ विरेचन लेना अथवा अकारण औषधि का सेवन करना, वाटिका --२७ भेद हो जाते हैं। उन्होंने विशेष रूप से जानने के लिए आदि सार्वजनिक स्थानों में मल-मूत्र बालकर गन्दगी करना, व्यवहार भाष्य का संकेत किया है किन्तु व्यवहार भाग्य मुसे गुहस्प आदि को आहार-पानी देना, समान आचार वाले निग्रंन्य उपलब्ध न होने के कारण मैं इस चर्चा के प्रसंग' में उनके बव- निर्ग्रन्थी को स्थान आदि की सुविधा न देना, गीत गाना, वाद्य हारसुतं के सम्पादकीय का ही उपयोग कर रहा हूं। उन्होंने इन यन्त्र बजाना, नृत्य करना, अस्वाध्याय के काल में स्वाध्याय सम्पूर्ण २७ भेदों और उनसे सम्बन्धित तपों का भी उल्लेख नहीं करना अथवा स्वाध्याय के काल में स्वाध्याय न करना, अयोग्य Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ | धरणानुयोग : प्रस्तावना को शास्त्र पढ़ाना, योग्य' को शास्त्र न पढ़ना, मिथ्यास्व भावित पिचत्त दिये जाने पर भिक्षुणी संघ में वरीयता बदल जाती थी अभ्यतीर्थिक प्रथदा गृहस्थ को शास्त्र पढ़ाना अथवा उससे पढ़ना वहाँ परिहार प्रायश्चित्त से उसकी वरीयता पर कोई प्रभाव नहीं शादि कियायें लघुचातुर्मासिक प्रायश्चित की कारण है। पड़ता था। मूलाचार में परिहार को जो छेद और मूल के बाद गुरुचातुर्मासिक के योग्य अपराध-प्रथम सनी लियर स्मन शिणा गया है, वह चित प्रतीत नहीं होता क्योंकि कठोया अनाचारों का सेवन करना, राजपिंड ग्रहण करना, आधाकर्मी रता की हष्टि से छेद और मूल की अपेक्षा परिहार प्रायश्चित्त आहार ग्रहण करना, रात्रि भोजन करना, रात्रि में आहारादि कम कठोर या । वसुनन्दी की मूलाचार की टीका में परिहार रखना, धर्म की निन्दा और अधर्म की प्रशंसा करना, अनन्तकाय को गण से पृथक् रहकर तप-अनुष्ठान करना ऐसी जो व्याख्या युक्त आहार खाना, आचार्य की अवज्ञा करना, लाभालाभ का की गई है वह समुचित एवं श्वेताम्बर परम्परा के अनुरूप ही निमित्त बताना, किसी श्रमण-अमपी को बहकाना, किसी दीक्षार्थी है। फिर भी मापनीय और श्वेताम्बर परम्परा में मुलभूत अंतर को भड़काना, अयोग्य को दीक्षा देना आदि त्रियाएं पुरुचातुर्मा- हतना तो अवश्य है कि श्वेताम्बर परम्परा परिहार को तप से सिक प्रायश्चित्त के योग्य है। पृथक् प्रायश्चित के रूप में स्वीकार नहीं करती है। यहाँ यह तप और परिहार का सम्बन्ध-जैसा कि हमने पूर्व में भी स्मरण रखना चाहिए कि दिगम्बर परम्परा यापनीय ग्रन्थ सूचित किया है, तत्वार्थ और यापनीय परम्परा के ग्रन्थ मूला- षट्खण्डागम को धवला टीका परिहार को पृथक् प्रायश्चित्त नहीं चार में परिहार को स्वतन्त्र प्रायश्चित्त माना गया है। जबकि मानती है । उसमें श्वेताम्बर परम्परा सम्मत दम प्रायश्वित्तों का श्वेताम्बर मरम्परा के आगमिक अन्यों में और धवला में इसे उल्लेख हुआ है जिसमें परिहार का उल्लेख नहीं है। स्वतन्त्र प्रायश्चित्त न मानकर इसका सम्बन्ध तप के साथ जोड़ा छेद प्रायश्चित जो अपराधी शारीरिक दृष्टि से कठोर गया है। परिहार शब्द का अर्थ बहिष्कृत करना अथवा त्याग तप-साधना करने में असमर्थ हो अथवा समर्थ होते हुए भी तप करना होता है। श्वेताम्बर आगम ग्रन्थों के अध्ययन से ऐसा के गर्व के उन्मत है और तप प्रायश्चित्त से उसके व्यवहार में प्रतीत होता है कि गहित अपराधों को करने पर भिक्षु या सुधार सम्भव नहीं होता है और तप प्रायश्वित्त करके पुनः पुनः भिक्षुणी को न केवल तप रूप प्रायश्चित्त दिया जाता था अपितु अपराध करता है, उसके लिए छेद प्रायश्चित्त का विधान किया उसे यह कहा जाता था कि दे भिक्षु संघ या भिक्षुणी संघ से गया है । छेद प्रायश्चित्त का तात्पर्य है भिक्ष या भिक्षुणी के पृषक होकर निर्धारित तप पूर्ण करें। निर्धारित तप को पूर्ण कर दीक्षा पर्याय को कम कर देना, जिसका परिणाम यह होता है लेने पर उसे पुनः संघ में सम्मिलित कर लिया जाता था। इस कि अपराधी का श्रमण संघ में वरीयता की दृष्टि से जो स्थान प्रकार परिहार का तात्पर्य था कि प्रायश्चित्त रूप तप की है, वह अपेक्षाकृत निम्न हो जाता है. अर्थात् जो दीक्षा पर्याय में निर्धारित अवधि के लिए संघ से भिक्षु का पृथक्करण। परिहार उससे लघु हैं वे उससे ऊपर हो जाते हैं। दूसरे शब्दों में उसकी तप की अवधि में वह भिक्षु भिक्षुसंघ के साथ रहते हुए भी वरिष्ठता मीनियरिटी) कम ो जाती हैं। और उसे इस आधार अपना आहार-पानी अलग करता था । इससे यह भी स्पष्ट होता पर जो भिक्ष उपसे कमी कनिष्ठ रहे हैं उनको उसे बन्दन आदि है कि परिहार प्रायश्चित्त में तथा अनवस्थाप्य और पासंचिक करना होता है। किस अपराध में कितने दिन का छेद प्रायश्चित प्रायश्चित्त में मूलभूत अन्तर था। अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त में आता है इसका स्पष्ट उल्लेख मुझे देखने को नहीं मिला । जहाँ उसे गृहस्थ वेष धारण करवाकर के ही उपस्थापन किया संभवतः यह परिहारपूर्वक तप प्रायश्चित्त का एक विकल्प है। जाता था, वहाँ परिहार में ऐसा कोई विधान न था। यह केवल अर्थात् जिस अपराध के लिए जितने मास मो दिन के लिए स्प प्रायश्चित्त की तपावधि के लिए मर्यादित पृथक्करण था। निर्धारित हो, उस अपराध के करने पर कभी उतने दिन का सम्भवत: प्राचीनकाल में तप नामक प्रायश्चित्त दो प्रकार से दीक्षा छेद का प्रायश्चित्त दिया जाता है। जैसे जो अपराध दिया जाता रहा होगा । परिहारपूर्वक और परिहाररहित । इसी मासिक प्रायश्चित्त के योग्य होते हैं, उनके करने पर कभी आधार पर आगे चलकर जब अनवस्थाप्य और पासंचिक प्राच- उसे छह मास का छेद प्रायश्वित्त भी दिया जाता है। दूसरे श्चित्तों का प्रचलन समाप्त कर दिया गया तब प्रायश्चित्तों की शब्दों में उसकी वरीयता छह मास कम कर दी जाती है। इस संख्या को पूर्ण करने के लिए पापनीय परम्परा में तप और अधिकतप तपावधि ऋषभदेव के समय में एक वर्ष, अन्य बाईस परिहार की गणना अलग-अलग की जाने लगी होगी। परिहार तीर्थंकरों के समय में आठ मास और महावीर के समय में छह नामक प्रायश्चित्त की भी अधिकतम अवधि छः मास मानी गई मास मानी गई है अतः अधिकतम एक साथ छह मास का ही है क्योंकि तप प्रायश्चित्त को अधिकतम अवधि छः मास ही है। छेद प्रायश्चित दिया जा सकता है। सामान्यतया पावस्थ, परिहार का छेद प्रायश्चित्त से अन्तर यह है कि जहाँ छेद प्राय- अबसन्न, कुशील और संसक्त भिक्षुओं को छेद प्रायश्चित्त दिये Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सदाचरण : एक बौद्धिक विमर्श ६५ जाने का विधान है। स्थानांग सूत्र में ही अन्यत्र अन्योन्य मैथुनसेची भिक्षुओं को मूल प्रायश्चित्त-मूल प्रायश्चित्त का अर्थ होता था, पूर्व पारांचिक प्रायश्चित्त के योग्य बताया गया है यहाँ यह विचारको दीक्षा पर्याय को समाप्त फर नवीन दीक्षा प्रदान करना । जीय है कि जहाँ हिंसा करने वाले को, स्त्री से मैथुन सेवन करने इसके परिणामस्वरूप ऐसा भिक्षु उस भिक्षुसंघ में जिस दिन उसे वाले को मूल प्रायश्चित्त के योग्य बताया, वहाँ हिंसा की योजना यह प्रायश्चित्त दिया जाता था वह सबसे कनिष्ठ बन जाता था। बनाने वाले एवं परस्पर मैथुन सेवन करने वालों को पासंचिक मूल प्रायश्चित्त अनवस्थाप्य और पारांचिक प्रायश्चित्तों से इस प्रायश्चित्त के योग्य बताया। इसका कारण यह है कि जहाँ अर्थ में भिन्न था कि इसमें अपराधी भिक्षु को गृहस्थवेष धारण हिसा एवं मथुन सेवन करने वाले का अपराध व्यक्त होता है करना अनिवार्य न था। सामान्यतया पंचेन्द्रिय प्राणियों को और उसका परिशोधन सम्भव होता है किन्तु इन दूभरे प्रकार हिंसा एवं मैथुन सम्बन्धी अपराधों को भूल प्रायश्चित के योग्य के व्यक्तियों का अपराध बहुत समय तक बना रह सकता है माना जाता है । इसी प्रकार जो भिक्षु मृषावाद, अदत्तादान और संघ के समस्त परिवेश को दुषित बना देता है। वस्तुतः और परिग्रह सम्बन्धी दोषों का पुनः-पुनः सेवन करता है वह जब अपराधी के सुधार की सभी सम्भावनाएँ समाप्त हो जाती भी मूल प्रायश्चित्त का पात्र माना गया है। जीतकल्प भाष्य के हैं तो उसे पारांचिक प्रायश्चित्त के योग्य माना जाता है। जीतअनुसार निश्चयनय की दृष्टि से ज्ञान, दर्शन और चारित्र की कल्प के अनुसार तीर्थकर के प्रवचन अर्थात् श्रुत, आचार्य और विराधना होने पर मूल प्रायश्चित्त दिया जा सकता है, परन्तु गणधर की आशातना करने वाले को भी पाराचिक प्रायश्चित्त व्यवहारनय की दृष्टि से ज्ञान और दर्शन की विराधना होने पर का दोषी माना गया है। दूसरे शब्दों में जो जिन-प्रवचन का मूल प्रायश्चित्त विया भी जा सकता है और नहीं भी दिया जा अवर्णवाद करता हो वह संघ में रहने के योग्य नहीं माना जाता । सकता है परन्तु चारित्र की निराधना होने पर तो मूल प्रायश्चिस जीतराल्पभाष्य के अनुसार कषायदुष्ट, विषयदुष्ट, राजा के दिया ही जाता है । जो ता के गर्व से उन्मत्त हो अथवा जिस वध की इच्छा करने वाला, राजा की अग्रमहिषी से संभोग करने पर सामान्य प्रायश्चित्त या दण्ड का कोई प्रभाव ही न पड़ता बाला भी पाराचिक प्रायश्चित्त का अपराधी माना गया है। हो, उनके लिए मूल प्रायश्चित्त का विधान किया गया है। वैसे परवर्ती भाचार्यों के अनुसार पाराधिक अपराध का दोषी पासंचिक प्रायश्चित्त- वे अपराध जो अत्यन्त गहित है भी विशिष्ट तप-साधना के पश्चात् संघ में प्रवेश का अधिकारी और जिनके सेवन से न केवल व्यक्ति अपितु सम्पूर्ण जैन संघ की मान लिया गया है । पारांचिक प्रायश्चित्त का कम से कम समय व्यवस्था धूमिल होती है, वे पारांचिक प्रायश्चित्त के योग्य होते छह मास, मध्यम समय १२ मास और अधिकतम समय १२ हैं । पाचक प्रायस्तित्त का अर्थ भी भिन संघ से बहिष्कार वर्ष माना गया है । कहा जाता है कि सिद्धसेन दिवाकर को ही है। से जैनाचार्यों ने यह माना है कि पारानिक अपराध बागमों को संस्कृत भाषा में रूपान्तरित करने के प्रयत्न पर १२ करने वाला भिक्षु यदि निर्धारित समय तक निर्धारित तप का वर्ष का पारांचिक प्रायश्चित्त दिया गया था। विभिन्न पारांचिक अनुष्ठान पूर्ण कर लेता है तो उसे एक बार गृहस्थवेष धारण प्रायश्चित्त के अपराधों और उनके प्रायश्चित्तों का विवरण हमें करवाकर पुनः संघ में प्रविष्ट किया जा सकता है। बौद्ध जीतकल्प भाष्य की गाथा २५४० से २५८६ तक मिलता है। परम्परा में भी पारांचिक अपगधों का उल्लेख करते हुए कहा विशिष्ट विवरण के इच्छुक विद्वजनों को वहां उसे देख लेना गया है कि ऐसा अपराध करने वाला भिक्षु सदैव के लिए संघ से चाहिए। बहिष्कृत कर दिया जाता है। जीतकल्प के अनुसार अनवस्थाप्य अनवस्थाप्य-मनवस्थाप्य का शाब्दिक अर्थ व्यक्ति को पद और पारांचिक प्रायश्चित्त भद्रबाहु के बाल से बन्द कर दिया से च्युत कर देना है या अलग कर देना है। इस शब्द का दुसरा गया है। इसका प्रमुख कारण शारीरिक क्षमता की कमी हो अर्थ है - जो संघ में स्थापना अर्थात् रखने योग्य नहीं है। वस्तुतः जाना है। स्थानीय सूत्र में निम्न पांच अपराधों को पासंचिक जो अपराधी ऐसे अपराध करता है जिसके कारण उसे संघ से प्रायश्चित्त के योग्य माना गया है। बहिष्कृत कर देना आवश्यक होता है वह अवस्थाप्य प्रायश्चित्त (११ जो कुल में परस्पर कलह करता हो। के योग्य माना जाता है । पद्यपि परिहार में भी भिक्षु को संघ (२) जो गण में परस्पर कलह करता हो । से पृथक किया जाता है किन्तु वह एक सीमित रूप में होता है (३) जो हिंसा प्रेमी हो अर्थात् कुल या गण के साधुओं का और उसका वेष परिवर्तन आवश्यक नहीं माना जाता। जबकि बात करना चाहता हो। अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त के योग्य भिक्षु को संघ से निश्चित अवधि (४) जो छिद्रप्रेमी हो अर्थात जो छिद्रान्वेषण करता हो। के लिए बहिष्कृत कर दिया जाता है और उसे तब तक पुनः (१) जो प्रश्न शास्त्र का बार-बार प्रयोग करता हो। पिक्ष संघ में प्रवेश नहीं दिया जाता है जब तक कि वह प्राय Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ धरणामुदस्ताव शिवस के रूप में निर्दिष्ट तप साधना को पूर्ण नहीं कर लेता है। और संघ इरा तथ्य से आश्वस्त नहीं हो जाता है कि वह पुन: अपराध नहीं करेगा | जैन परम्परा में बार-बार अपराध करने वा आपराधिक प्रवृत्ति के लोगों के लिए यह दण्ड प्रस्तावित किया गया है। स्थानांग सूत्र के अनुसार साधर्मियों की चोरी करने वाला, अन्यधर्मियों की चोरी करने वाला तथा डण्डे, लाठी बादि से दूसरे भिक्षुओं पर प्रहार करने वाला भिक्षु अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त के योग्य माना जाता है । प्रायश्वित देने का अधिकार सामान्य प्रादेका अधिकार आचार्य या गणि का माना गया है। सामान्य व्यवस्था के अनुसार अपराधी को अपने अपराध के लिए आचार्य के समक्ष अपनी स्थिति स्पष्ट करनी चाहिए और आचार्य को भी परि स्थिति और अपराध की गुरुता का विचार कर उसे प्रायश्चित्त देना चाहिए। इस प्रकार दण्ड या प्रायश्वित देने का सम्पूर्ण अधिकार आचार्य, गणिया प्रवर्तक को होता है। आचार्य या गणि की अनुपस्थिति में उपाध्याय, उपाध्याय की अनुपस्थिति में प्रवर्तक अथवा वह वरिष्ठ मुनि जो छेद सूत्रों का ज्ञाता हो, प्रायश्चित्त दे सकता है। स्वगण के आचार्य आदि के अभाव में अन्य गण के स्वलिंगी आचार्य बादि से भी प्रायश्चित्त लिया जा सकता है । किन्तु अन्य गण के आचार्य आदि तभी प्रायश्चित्त दे सकते हैं जब उनसे इस सम्बन्ध में निवेदन किया जाये जीत कल्प के अनुसार स्वलिंगी अन्य गण के आचार्य या मुनि को अनुपस्थिति में सूत्र का अध्येता गृहस्य जिसने दीक्षा पर्याय छोड़ दिया हो वह भी प्रायश्वित दे सकता है। इन सब के अभाव में साधक स्वयं भी पापशोधन के लिए स्वविवेक से प्रायश्चित्त का निश्चय कर सकता है । क्या प्रायश्चित सार्वजनिक रूप में दिया जाये ? 1 इस प्रश्न के उत्तर में जनाचायों का दृष्टिकोण अन्य पर पराओं से भिन्न है। वे प्रायश्चित्त या दण्ड को आत्मशुद्धि का साधन तो मानते हैं लेकिन प्रतिरोधात्मक सिद्धांत के विरोधी हैं। उनकी दृष्टि में दण्ड केवल इसलिए नहीं दिया जाता है कि उसे देखकर अन्य लोग अपराध करने से भयभीत हों, अत: जैन पर परा सामूहिक रूप में, खुले रूप में दण्ड की विरोधी है, इसके विपरीत बौद्ध परम्परा में दण्ड या प्रायश्चित्त को संघ के सम्मुख सार्वजनिक रूप से देने की परम्परा है। बौद्ध परम्परा में प्रवारणा के समय साधक भिक्षु को संघ के सम्मुख अपने अपराध को प्रकट कर संघ प्रदत्त प्रायश्चित या दण्ड को स्वीकार करना होता है । वस्तुतः बुद्ध के निर्वाण के बाद किसी संघ प्रमुख की नियुक्ति को आवश्यक नहीं माना गया, अतः प्रायश्चित्त या दण्ड देने का दायित्व संघपद पर आ पड़ा। किन्तु मनोवैज्ञानिक दृष्टि से सार्वजनिक रूप से दण्डित करने की यह प्रक्रिया उचित नहीं है, क्योंकि इससे समाज में व्यक्ति की प्रतिष्ठा गिरती है, तथा कभी-कभी सार्वजनिक रूप से दण्डित किये जाने पर व्यक्ति विद्रोही बन जाता है । अपराध की समानता पर दण्ड की समानता का प्रश्न प्रायश्चित्तों की चर्चा के प्रसंग में यह भी विचारणीय है कि क्या जैन संघ में समान अपराधों के समान दण्ड की व्यवस्था है या एक ही समान अपराध के लिए दो व्यक्तियों को अलग-अलग दण्ड दिया जा सकता है। जैन विचारकों के अनुसार एक ही के अपराध के लिए सभी के व्यक्तियों को एक ही समान दण्ड नहीं दिया जा सकता। प्रायश्चित्त के कठोर और मृदु होने के लिए व्यक्ति की सामाजिक स्थिति एवं वह विशेष परिस्थिति भी विचारणीय है जिसमें कि यह अपराध दिया गया है। उदाहरण के लिए एक ही समान प्रकार के अपराध के लिए जहाँ सामान्य विक्षु या भिक्षुणी को अल्प दण्ड की व्यवस्था है नहीं धमण संघ के पदाधिकारियों को अर्थात् प्रतिप्रवर्तक गणि, आचार्य आदि को कठोर दण्ड देने की व्यवस्था है। पुनः जैन आचार्य यह भी मानते हैं कि यदि कोई व्यक्ति स्वतः प्रेरित होकर कोई अपराध करता है और कोई व्यक्ति परिस्थितियों से बाध्य होकर अपराध करता है तो दोनों के लिए अलग-अलग प्रकार के प्रायश्चित्त की व्यवस्था है। यदि हम मैथुन सम्बन्धी अपराध को लें तो जहाँ बलात्कार की स्थिति में भिक्षुणी के लिए किसी दण्ड की व्यवस्था नहीं है किन्तु उस स्थिति में भी यवि बहु सम्भोग का आस्वादन लेती है तो उसके लिए प्रायश्चित्त की व्यवस्था है अतः एक ही प्रकार के अपराध हेतु दो भिन्न व्यक्तियों व परिस्थितियों में अलग-अलग प्रायश्वित्त का विधान किया गया है। यहीं नहीं नाना ने यह भी विचार किया है कि अपराध किसके प्रति किया गया है। एक सामान्य साधु के प्रति किए गये अपराध की अपेक्षा आचार्य के प्रति किया गया अपराध अधिक दण्डनीय है जहाँ सामान्य व्यक्ति के लिए किये गये अपराध को मृदु या अल्प दण्ड माना जाता है वहीं श्रमण संघ के किसी पदाधिकारी के प्रति किये गये अपराध को कठोर दण्ड के योग्य माना जाता है । इस प्रकार हम देखते हैं कि अपने प्रायश्चित विधान या दण्ड प्रक्रिया में व्यक्ति या परिस्थिति के महत्व को ओझल नहीं किया है और माना है कि व्यक्ति और परिस्थिति के आधार पर सामान्य और विशेष व्यक्तियों को अलग-अलग प्रायश्चित्त दिया जा सकता है जबकि सामान्यतया बौद्ध परम्परा में इस प्रकार के विचार का अभाव देखते हैं । हिन्दु परम्परा यद्यपि प्रायश्वित के सन्दर्भ में व्यक्ति की सामाजिक स्थिति का मूल्यांकन करती है किन्तु उसका दृष्टिकोण जैन परम्परा से बिल्कुल विपरीत दिखाई देता है। जहाँ जैन परम्परा उसी अपराध के लिए प्रतिष्ठित Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सदाचरण एक बौद्धिक विमर्श [ ६७ व्यक्तियों एवं पदाधिकारियों के लिए कठोर दण्ड की व्यवस्था किये हैंकरती है वहीं हिन्दू परम्परा आचार्यो, ब्राह्मणों आदि के लिए (१) प्रतिकारात्मक सिद्धांत, (२) निरोधात्मक सिद्धांत, मृदु दण्ड व्यवस्था करती है । उसमें एक सामान्य अपराध करने (३) सुधारात्मक सिद्धांत। प्रथम प्रतिकारात्मक सिद्धांत यह पर भी एक शूट को कठोर दण्ड दिया जाता है वहाँ एक ब्राह्मण मानकर चलता है कि दण्ड के द्वारा अपराध की प्रतिशर्स की को अत्यन्त मृदु दण्ड दिया जाता है। दोनों परम्पराओं का यह जाती है अर्थात् अपराधी ने दूसरे की जो क्षति की है उसकी इस्टिभेद विशेष रूप से द्रष्टव्य है। बहत्वपभाष्य की टीका में परिपूर्ति करना या उसका बदला सेना ही दण्ड का मुख्य उद्देश्य इस तथ्य को स्पष्ट किया गया है कि जो पद जितना उत्तर- है। 'आँख के बदले आँख" और "दांत के बदले दांत" ही इस दायित्व पूर्ण होता है उस पद के धारक व्यक्ति को उतना ही दण्ड सिद्धांत की मूलभूत अवधारणा है। इस प्रकार की दण कठोर दण्ड दिया जाता था । उदाहरण के रूप में भिक्षुणियों का व्यवस्था से न तो समाज के अन्य लोग थापराधिक प्रवृत्तियों से नदी-तालाब के किनारे ठहरना, बहा स्वाध्याय आदि करना भयभीत होते हैं और न उस व्यक्ति का जिसने अपराध किया है, निषिद्ध है । उस नियम का उल्लंघन करने पर जहाँ स्थविर को कोई सुधार ही होता है। मात्र षट्लघु, भिक्षुणी को षट् गुरु प्रायश्चित्त दिया जाता, बही अपराध का दूसरा निरोधात्मक सिद्धांत मूलतः यह मानकर गणिनी को छेद और प्रतिनी को मूल प्रायश्चित्त देने का विधान चलता है कि अपराधी को दण्ड इसलिए नहीं दिया जाता है कि है। सामान्य साधू की अपेक्षा आचार्य के द्वारा बहो अपराध उसने अपराध किया है अपितु इसलिए दिया जाता है कि दूसरे 'कया जाता है तो प्रातःकार या जाता है। लोग अपराध करने का साहस न करें। समाज में आपराधिक बार-बार अपराध या दोष सेवन करने पर अधिक वह प्रवृत्ति को रोकना ही दण्ड का उद्देश्य है, इसमें छोटे अपराध के जैन परम्परा में प्रथम बार अपराध करने की अपेक्षा दूसरी लिए भी कठोर दण्ड की व्यवस्था होती है। किन्तु इस सिद्धांत बार मा तीसरी बार उसी अपराध को करने पर कठोर प्रायश्चित्त में अपराध करने वाले व्यक्ति को समाज के दूसरे व्यक्तियों को की व्यवस्था की गई है। यदि कोई भिक्षु या भिक्षुणी एक नियम आपराधिक प्रवृत्ति से भयभीत करने के लिए साधन बनाया का बार-बार अतिकमण करता है तो उस नियम के अतिक्रमण जाता है। अत: दण्ड का यह सिद्धील न्यायसंगत नहीं कहा जा की संख्या में जैसे-जैसे वृद्धि हो जाती है प्रायश्चित्त की कठोरता सकता। इसमें दण्ड का प्रयोग साध्य के रूप में नहीं अपितु भी बढ़ती जाती है। जिससे उसी अपराध का प्रायश्चित्त मास- साधन के रूप में किया जाता है। लघु से बढ़ता हुआ छेद एवं नई दीक्षा तक बढ़ जाता है। दण्ड का तीसरा सिद्धांत सुधारात्मक सिद्धांत है, इस सिद्धांत प्रायश्चित्त येते समय व्यक्ति की परिस्थिति का विचार के अनुसार अपराधी भी एक प्रकार का रोगी है अतः उसकी जैन दण्ड' या प्रायश्चित्त व्यवस्था में इस बात पर भी पर्याप्त चिकित्सा अर्थात् उसे सुधारने का प्रयल करना चाहिए। इस रूप से विचार किया गया है कि कठोर अपराध को करने वाला सिद्धांत के अनुसार दण्ड का उद्देश्य व्यक्ति का सुधार होना व्यक्ति भी यदि रुग्ण हो, अतिवृद्ध हो, विदिशप्त चित्त हो, उन्माद चाहिए । वस्तुतः कारागृहों को सुधारगृहों के रूप में परिवर्तित या उपसर्ग से पीड़ित हो, उसे भोजन-पानी आदि सुविधापूर्वक ने किया जाना चाहिए ताकि अपराधी के हृदय को परिवर्तित कर मिलता हो अथवा मुनि जीवन के बावश्यक सामग्री से रहित हो उसे सभ्य नागरिक बनाया जा सके। तो ऐसे भिक्षुओं को तत्काल संघ से बहिष्कृत करना अथवा यदि हम इन सिद्धांतों की तुलना जैन प्रायश्चित्त व्यवस्था बहिष्कृत करके शुद्धि के लिए कठोर तप आदि की व्यवस्था देना से करते हैं तो यह कहा जा सकता है कि जैन पिनारक अपनी समुचित नहीं है। प्रायश्चित्त या दण्ड व्यवस्था में न तो प्रतिकारात्मक सिद्धांत को आधुनिक दण्ड सिद्धांत और जैन प्रायश्चित्त पवस्था और न निरोधात्मक सिद्धांत अपनाते है अपितु सुधारात्मक ___ जैसा कि हमने प्रारम्भ में ही स्पष्ट किया है कि दण्ड और सिद्धांत से सहमत होकर यह मानते हैं कि व्यक्ति में स्वतः ही प्रायश्चित्त को अवधारणाओं में एक मौलिक अन्तर है। जहाँ अपराधबोध की भावना उत्पन्न कर सकें एवं आपराधिक प्रवृत्तियों प्रायश्चित्त अन्तःप्रेरणा से स्वतः लिया जाता है, वहां दण्ड से दूर रहने को अनुशासित किया जाये। वे यह भी स्वीकार व्यक्ति को बलात् दिया जाता है । अत: आत्मणुद्धि तो प्रायश्चित्त करते हैं कि जब तक व्यक्ति में स्वतः ही अपराध के प्रति आस्मसे ही सम्भव है, दण्ड से नहीं । दण्ड में तो प्रतिशोध, प्रतिकार ग्लानि उत्पश्न नहीं होगी तब तक बह आपराधिक प्रवृत्तियों से या आपराधिक प्रवृत्ति के निरोध का दृष्टिकोण ही प्रमुख विमुख नहीं होगा। यद्यपि इस आरमग्लानि या अपराधबोध का होता है। तात्पर्य यह नहीं है कि व्यक्ति जीवन भर इसी भावना से पीड़ित पाश्चात्य विचारकों ने दण्ड के तीन सिद्धांत प्रतिपादित रहे अपितु वह अपराध या दोष को दोष के रूप में देखे और यह sher Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ | परणानुयोग : प्रस्तावना समझे कि अपराध एक संयोगिक घटना है और उसका परिशोधन का प्रयोजन बात्म-परिशोधन है, न कि देह-दण्डन । घृत की कर आध्यात्मिक विकास के पथ पर आगे बढ़ा जा सकता है। शुद्धि के लिए पत को तपाना होता है न कि पात्र को। उसी तप का सामान्य स्वरूप : एक मूल्यांकन-तप शब्द अनेक प्रकार आत्मशुद्धि के लिए आत्म-दिकारों को तपाया जाता है न अर्थों में भारतीय आचार दर्शन में प्रयुक्त हुआ है और जब तक कि शरीर को शरीर तो आत्मा का भाजन पात्र होने से तप उसकी सीमाएँ निर्धारित नहीं कर ली जातीं, उसका मूल्यांकन जाता है, तपाया नहीं जाता। जिस तप में मानसिक कष्ट हो, करना कठिन है। "तप" शब्द एक अर्थ में त्याम-भावना को वेदना हो, पीड़ा हो, वह तप नहीं है। पोस का होना एक बात व्यक्त करता है । त्याग चाहे वह वैयक्तिक स्वार्थ नं द्वितों का है और पीड़ा की व्याकुलता की अनुभूति करना दूसरी बात है। हो, चाहे वैयक्तिक सुखोपलब्धियों का हो, तप कहा जा सकता तप में पीड़ा हो सकती है लेकिन पीड़ा की व्याकुलता की अनुहै। सम्भवतः यह तप की विस्तृत परिभाषा होगी, लेकिन यह भूति नहीं। पीड़ा शरीर का धर्म है, व्याकुलता की अनुभूति तप के निषेधात्मक पक्ष को ही प्रस्तुत करती है। यहाँ तप, आत्मा का। ऐसे अनेक उदाहरण हैं जिनमें इन दोनों को अलगसंयम इन्द्रिय निग्रह और देह-दण्डन बन कर रह जाता है। तप अलग देखा जा सकता है। जैन बालक जब उपवास करता है, मात्र त्यामना ही नहीं है, उपलब्ध करना भी है। तप का केवल तो उसे भूख की पीड़ा अवश्य होगी, लेकिन वह पीड़ा की व्याविसर्जनात्मक मूल्य मानना श्रम होगा । भारतीय आचार-दर्शनों कुलता की अनुभूति नहीं करता। यह उपवास तप के रूप में ने जहाँ तप के विसर्जनात्मक मूल्यों की गुण-गाथा गायी है, वहीं करता है और तप तो आत्मा का आनन्द है। वह जीवन के उसके सृजनात्मक मूल्य को भी स्वीकार किया है। वैदिक पर- सौष्ठव को नष्ट नहीं करता, वरन जीवन के आनन्द को परिष्कृत म्परा में तप को लोक-कल्याण का विधान करने वाला कहा गया करता है। है । गीता की लोक-संग्रह की और जैन परम्परा की वैयावृत्य था अब जैन-परम्परा में स्वीकृत तप के भेदों के मूल्यांकन का संघ-सेवा की अवधारणाएँ तप के विधायक अर्थात् लोक-कल्याण- किचित् प्रयास किया जा रहा है। कारी पक्ष को ही तो अभिव्यक्त करती हैं। बौद्ध परम्परा जब अनशन में कितनी शक्ति हो सकती है, उसे आज गोत्री-युग 'बहुजन हिताय बहुजन सुखाय" का उपयोष देती है तब वह भी का हर व्यक्ति जानता है। वह तो उसके प्रत्येक प्रयोग देख तर के विधायक मूल्य का ही विधान करती है। चुके हैं। सर्वोदय समाज-रचना तो उपवास के मूल्य को स्वीकार सुजनात्मक पक्ष में तप आत्मोपलब्धि ही है, लेकिन यहाँ करती ही है, देश में उत्पन्न अन्न-संकट की समस्या ने भी इस स्व-बास्मन इतना व्यापक होता है कि उसमें स्व या पर का भेद ओर हमारा ध्यान आकर्षित किया है। इन सबके साथ आज ही नहीं टिक पाता है और इसीलिए एक तपस्वी का आस्म- चिकिस्सिक एवं वैज्ञानिक भी इसकी उपादेयता को सिद्ध कर कल्याण और लोक-कल्याण परस्पर विरोधी नहीं होकर एक रूप चुके हैं। प्राकृतिक चिकित्सा प्रणाली का तो मूल आधार ही होते हैं । एक तपस्वी के बारमकल्याण में लोककल्याण समाविष्ट उपवास है । रहता है और उसका लोककल्याण आत्मकल्याण ही होता है। इसी प्रकार ऊनोदरी या भूख से कम भोजन, नियमित जिस प्रकार व्यायाम के रूप में किया हुआ शारीरिक कष्ट भोजन तथा रस-परित्याग का भी स्वास्थ्य की दृष्टि से पर्याप्त स्वास्थ्य रक्षा एवं शक्ति-संचय का कारण होकर जीवन के व्याव- मूल्य है। साथ ही यह संयम एवं इन्द्रियजय में भी सहायक हारिक क्षेत्र में भी लाभप्रद होता है, वैसे ही तपस्या के रूप में है। गांधीजी ने तो इसी से प्रभावित हो ग्यारह व्रतों में अस्वाद देह दुःख का अभ्यास करने वाला अपने शरीर में कष्ट-सहिष्णु व्रत का विधान किया था। शक्ति विकसित कर लेता है, जो वासनाओं के संघर्ष में ही नहीं, यद्यपि वर्तमान मुग भिक्षावृत्ति को उचित नहीं मानता है, जीवन की सामान्य स्थितियों में भी सहायक होती है । एक उप- तथापि समाज-व्यवस्था की दृष्टि से इसका दूसरा पहलू भी है। बास का अभ्यासी व्यक्ति यदि किसी परिस्थिति में भोजन प्राप्त जन आचार-व्यवस्था में भिक्षावृत्ति के जो नियम प्रतिपादित हैं नहीं कर पाता, तो इतना व्याकुल नहीं होगा जितना अनभ्यस्त वे अपने आप में इतने सबल हैं कि भिक्षावृत्ति के सम्भावित व्यक्ति । कष्ट-सहिष्णुता का अभ्यास आध्यात्मिक प्रगति के लिए दोषों का निराकरण स्वतः हो जाता है। मिक्षावृत्ति के लिए वावश्यक है। आध्यात्मिक दृष्टि के बिना शारीरिक यन्त्रणा अहं का त्याग आवश्यक है और नैतिक दृष्टि से उसका कम अपने भाप में कोई तप नहीं है, उसमें भी यदि इस शारीरिक मूल्य नहीं है। यन्त्रणा के पीछे लौकिक या पारलौकिक स्वार्थ हैं तो फिर उसे इसी प्रकार आसन-साधना और एकांतवास का योग-साधना तपस्या कहना महान मूर्खता होगी। जैन-दार्शनिक भाषा में की दृष्टि से मूल्य है। यासन योग-साधना का एक अनिवार्य तपस्या में देह-दण्डन किया नहीं जाता, हो जाता है। तपस्या अंग है। Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सवाधरण: एक शैद्धिक विमर्श६१ तप के बाभ्यन्तर भेदों में ध्यान और कायोत्सर्ग का भी देता है। साधनात्मक मूल्य है । पुनः स्वाध्याय, यावृत्य (सेवा) एवं वीर्याचार'-पांच आचारों के इस विवेचन में अन्तिम विनय (अनुशासन) का तो सामाजिक एवं वैयक्तिक दोनों दृष्टियों आचार वीर्याचार है। जैन परम्परा में वीर्याचार का अर्थ से बड़ा महत्व है। सेवाभाव और अनुशासित जीवन ये दोनों पुरुषार्थ या प्रयत्न करना है। अभिधान राजेन्द्र कोश में योग, सभ्य समाज के आवश्यक गुण हैं। ईसाई धर्म में तो इस सेवा- वीर्य क्षमता, उत्साह पराक्रम और चेष्टा को एकार्थक माना भाव को काफी अधिक महत्व दिया गया है । आज उसके व्यापक गया है। यदि हम चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचार में कोई प्रचार का एक मात्र कारण उसकी सेवाभावना ही तो है। विभाजन रेखा खींचना चाहे तो वह इस प्रकार होगी। जहाँ मनुष्य के लिए सेवाभाव एक आवश्यक तस्व है जो अपने प्रार- बारित्राचार संयम अर्थात् मन और इन्द्रियों पर नियन्त्रण का म्भिक क्षेत्र में परिवार से प्रारम्भ होकर 'वसुधैव कुटुम्बकम्" सूचक है वहीं तपाचार कष्ट, तितिक्षा या सहनशीलता का तक का विशाल आदर्श प्रस्तुत करता है। परिचायक है। जबकि वीर्याचार साधना के क्षेत्र में स्वशक्ति का स्वाध्याय का महत्व आध्यात्मिक विकास और ज्ञानात्मक प्रकटन करता है । पारिव संवर करता है, तप सहन करता है विकास दोनों दृष्टियों से है। एक ओर वह स्व का अध्ययन है किन्तु वीर्य प्रयत्ल मा पुरुषार्थ करता है। चारित्र और तप निषेधतो दूसरी ओर ज्ञान का अनुशीलन । ज्ञान और विज्ञान की परक हैं जबकि वीर्य विधिपरक है। यद्यपि तप किया जाता है सारी प्रगति के मूल में तो स्वाध्याय ही है। फिर भी उसे करने में सहना' ही प्रधान होता है। प्रस्तुत कृति प्रायश्चित्त एक प्रकार से अपराधी द्वारा स्वयाचित दण्ड में बीर्याचार के अन्तर्गत किन-किन तथ्यों का संकलन किया गया हैं । यदि व्यक्ति में प्रायश्चित्त की भावना जागृत हो जाती है है यह तत्सम्बन्धी मुद्रित पृष्ठों की अनुपलब्धि के कारण नहीं तो उसका जीवन ही बदल जाता है । जिस समाज में ऐसे लोग कह पा रहा हूँ। किन्तु आचारांग आदि प्राचीन आगम ग्रन्यों हों, वह समाज तो बादर्श ही होगा। के देखने से यह स्पष्ट होता है कि उनमें साधक को बार-बार वास्तव में तो तप के इन विभिन्न अंगों के इतने अधिक यह निर्देश दिया गया है कि वह पराक्रम या पुरुषार्थ करे और पहल है कि जिनका समुचित मूल्यांकन सहज नहीं। साधना के क्षेत्र में शिथिल न हो । यहाँ यह विचार स्वाभाविक तप आचरण में व्यक्त होता है। वह आचरण ही है। उसे ही है कि यह पुरुषार्थ किस रूप में किया जाये। वीर्य शब्द, शब्दों में व्यक्त करना सम्भव नहीं है । तप आत्मा की ऊष्मा है, पुरुषार्थ, प्रयत्न, पराकम या परिश्रम का सूचक है। जैन परजिसे शब्दों में बांधा नहीं जा सकता। म्परा में भिक्षु को श्रमण कहा गया है, जो श्रम करता है वह यह किसी एक आचार-दर्शन की बपौती नहीं, वह तो श्रमण है किन्तु यहाँ श्रम का तात्पर्य शारीरिक श्रम नहीं है, प्रत्येक जागृत आत्मा की अनुभूति है। उसकी अनुभूति से ही यहाँ श्रम से तात्पर्य है अपनी वृत्तियों या वासनाओं के परिमन के कलुष धुलने लगते हैं, वासनाएं शिथिल हो जाती हैं, शोधन हेतु सतत प्रयल करना। आचारांग में साधना को युद्ध अहं गलने लगता है। तृष्णा और कषायों की अग्नि तप की का रूपक दिया गया है और साधक को वीर कहा गया है। ऊष्मा के प्रकट होते ही निःशेष हो जाती है। जड़ता क्षीण हो वस्तुतः अपनी वामनाओं और वृत्तियों पर विजय प्राप्त करता जाती है । चेतना और आनन्द का एक नया आयाम खुल जाता ही बीरख का लक्षण है और इस वीरत्व का प्रदर्शन ही वीर्याहै, एक नवीन अनुभूति होती है। बाद और भाषा मौन हो चार है । जैनाममों में कहा गया है कि सहनों योदाओं पर जाती है. आचरण की वाणी मुखरित होने लगती है। विजय प्राप्त करने की अपेक्षा अपनी आत्मा पर विजय पाना ही तप का पही जीवन्त और जागृत शाश्वत स्वरूप है जो श्रेष्ठ है। जैनागमों में अनेक स्थलों पर साधक को यह निर्देश सार्वजनीन और सार्वकालिक है। सभी साधना पद्धतियाँ इसे दिया गया है कि वह अपनी शक्ति को छिपाये नहीं अपितु उसे मानकर चलती हैं और देश काल के अनुसार इसके किसी एक प्रकट करे। किन्तु यहाँ शक्ति के प्रकटीकरण का तात्पर्य क्या द्वार से साधकों को तप के इस भव्य महल में लाने का प्रयास है, यह विचारणीय है। सांसारिक सुखभोग और उनकी उपलब्धि करती हैं, जहाँ साधक अपने परमात्म स्वरूप का दर्शन करता के प्रयासों में तो अपनो शक्ति का प्रकटन जैन साधु के लिए है, आत्मन् ब्रह्म या ईश्वर का साक्षात्कार करता है। निषिद्ध ही माना गया है अतः उसका शक्ति प्रकटन केवल साधना तप एक ऐसा प्रशस्त योग है जो आत्मा को परमात्मा से के क्षेत्र में ही विहित माना जा सकता है। अतः आत्मविशुद्धि के जोड़ देता है, आत्मा का परिष्कार कर उसे परमात्म-स्वरूप बना लिए प्रयत्न करना वीर्याचार है। अपनी वासनाओं को नियन्वित १ बौर्याचार की विस्तृत विवेचना हेतु देखें-अभिधान राजेन्द्र कोश, माग ६, पृ. १३६७-१४०६ । Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० | परमानुयोग : प्रस्तावना करना, उन पर काबू रखना और उन्हें सजगतापूर्वक आत्मा रो दर्शन, चारित्र गौर तप इन चारों में अपनी सामथ्यं को न बाहर निकाल फेंकना यही बीर्याचार है। छिपाते हुए पुरुषार्थ करना ही बीर्याचार है, इस प्रकार बीर्याचार संक्षेप में कहें तो कषायों, बासनाओं और मनोविकारों पर ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप के क्षेत्र में किया गया पुरुषार्थ है विजय लाभ करने के लिए प्रयत्नशील होना ही बीर्याचार है। और इस दृष्टि से वह इन चारों आवारों में अनुस्यूत है किन्तु आस्मा की वे शक्तियां जो कि कर्मावरण के कारण अनभि- अनुस्यूत होते हुए भी उनका प्राण है क्योंकि बिना पुरुषार्थ और व्यक्त हैं उन्हें अभिव्यक्त करना ही पुरुषार्थ है और यही वीर्य प्रयत्न के साधना सफल नहीं होती है। है। बैन परम्परा में आत्मा को अनन्तज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त- उत्सर्ग और अपवाद - जैन आचार्यों ने आचार सम्बन्धी सुख और अनन्तवीर्य से युक्त माना गया है। आत्मा के उस जो विभिन्न विधि-निषेध प्रस्तुत किये हैं वे निरपेक्ष नहीं है। अनन्तवीर्य को प्रकट कर लेना ही वीर्याचार है। आत्मा की देश-काल और व्यक्ति के आधार पर उनमें परिवर्तन सम्भव हो शक्ति को आवृत या गोपित करने वाले कारणों के उन्मूलन सकता है। आचार के जिन नियमों का विधि-निषेध जिस करने में ही बीर्य या पुरुषार्थ निहित है। जिस प्रकार किन्हीं सामान्य स्थिति को ध्यान में रखकर किया गया है उसमें वे विशिष्ट परिस्थितियों में कोई भौतिक बस्तु अपने यथार्थ गुण- आचार के विधि निषेध यथावत् रूप में पालनीय माने गये हैं, घमों को प्रकट करने में समर्थ होती है। उसी प्रकार किसी वस्तु किन्तु देश-काल, परिस्थिति अयवा वैयक्तिक परिस्थितियों की पा व्यक्ति में निहित क्षमता या शक्ति को ही बीर्य कहा जाता है भिन्नता में उनमें परिवर्तन भी स्वीकार किया गया है। व्यक्ति और उस क्षमता का यथार्थ रूप में प्रकटन कर सेना ही वीर्य और देश-कालगत सामान्य परिस्थितियों में जिन नियमों का पुरुषार्थ है। उदाहरण के रूप में एक उच्च बुद्धिलब्धि बाले पालन किया जाता है बे उत्सर्ग मार्ग कहे जाते हैं किन्तु जब बालक में स्नातकोत्तर अध्ययन की सामर्थ्य होती है किन्तु जब देशकालगत और वैक्तिक विशेष परिस्थितियों में उन सामान्य वह अध्ययन करता हुआ क्रमशः विकास करता है तब वह विधि-निषेधों को शिथिल कर दिया जाता है तो उसे अपवाद योग्यता में बदल जाती है। इसी प्रकार आत्मा में निहित सामर्थ्य मार्ग कहा जाता है। वस्तुतः आचार के सामान्य नियम उत्सर्ग को योग्यता में परिणत कर देना ही वीर्याचार है। वीर्य का मार्ग काहे जाते हैं और विशिष्ट नियम अपवाद मार्ग कहे जाते वर्गीकरण अनेक रूपों में उपलब्ध होता है जैसे कायवीर्व (शारी- है। यद्यपि दोनों को व्यावहारिकता परिस्थिति सापेक्ष होती है। रिक सामर्थ्य), वाग्वीयं (वाग्मिता), आध्यात्मिक बीर्य (आत्म- जैन आचार्यों की मान्यता रही है कि सामान्य परिस्थितियों में शोधन की सामर्म) । अन्यत्र वीर्य का वर्गीकरण आगारवीर्य और उत्सर्ग मार्ग का अवलम्बन किया जाना चाहिए किन्तु देशकाल, अनगारवीर्य के रूप में भी हुआ है। यहाँ आगारवीर्य का सात्पर्य परिस्थिति अथवा व्यक्ति के स्वास्थ्य एवं क्षमता में किसी विशेष गृहस्थ जीवन के प्रतों के पालन की सामर्थ्य और अनगार या परिवर्तन के आ जाने पर अपवाद मार्ग का अवलम्बन किया मुनिजीवन के व्रतों के पासन करने की सामथ्र्य । पुनः वीर्य के जा सकता है । यहाँ इस तथ्य को भी स्पष्ट रूप से समम लेता बालवीय, पंडितवीर्य और बालचितवीर्य, ऐसे विभाग भी किये चाहिए कि अपवाद मार्ग का सम्बन्ध केवल आवरण सम्बन्धी गये हैं। मूखों का पुरुषार्थ या प्रयत्न चालवीर्य है जबकि ज्ञानियों बाह्य विधि-निषेधों से होता है और आपवादिक परिस्थिति में का पुरुषार्थ पडितवीर्य है। पुनः प्रमादीजनों का पुरुषार्थ बाल- किये गये सामान्य नियम के खण्डन से न तो उस निमम का वीयं पोर बप्रमत्त साधकों का पुरुषार्थ पंडितबीर्य है। बालवीय मूल्य कम होता है और न सामान्य रूप से उसके आचरणीय सकर्म अर्थात् बन्धनकारक होता है जबकि पण्डितवीर्य अकर्म होने पर कोई प्रभाव पड़ता है। जहाँ तक आचार के आन्तरिक मर्थात् मुक्ति का साधक होता है। सूत्रकृतांग में कहा गया है पक्ष का प्रश्न है, जैनाचार्यों ने उसे सर्दय ही निरपेक्ष या उत्सर्ग कि जो सम्यष्टि और वीर्य सम्पन्न है उनका पुरुषार्थ शुद्ध के रूप में स्वीकार किया है। हिंसा का विचार या हिंसा की झोता है और वह कर्मफल से युक्त नहीं होता। वीर्याचार के भावना किसी भी परिस्थिति में नैतिक या आचरणीय नहीं मानी सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा वीर्यप्रवाद नामफ पूर्वग्रन्थ में थी, ऐसी जाती, जिस सम्बन्ध में अपवाद की चर्चा की जाती है वह सूचना ज्ञात होती है। सूत्रकृतांग के प्रथम श्रतस्कन्ध के आठवें अहिंसा के बाह्म विधि-विषेधों से सम्बन्धित होता है। मान अध्याय में क्या आचारांग में यत्र-तत्र वीर्याचार की चर्चा देखी लीजिए कि हम किसी निरपराध प्राणी का जीवन बचाने के जा सकती है। अभिधान राजेन्द्र कोश (भाग ६, पृ० १३६७- लिए अथवा किसी स्त्री का शील मु.शित रखने के लिए हिंसा १४०६) में भी वीर्याचार की चर्वा उपलब्ध होती है। इसमें अथवा असत्य का सहारा लेते हैं तो इससे अहिंसा या सत्यकहा गया है कि अपने बल और वीर्य को न छिपाते हुए यथा- सम्भाषण का सामान्य नैतिक आदर्श समाप्त नहीं हो जाता। पाक्ति पुरुषार्थ (पराक्रम) करना वीर्याचार है। वस्तुतः ज्ञान, अपवाद मार्ग न तो कभी मौलिक एवं सार्वभौमिक नियम बनता Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सवाचरण : एक मौद्धिक विमर्श ७१ है और न अपबाद के आचरण का कारण माना जाता है, उसी आचरण किया जाना चाहिए। उत्सर्ग और अपवाद दोनों की प्रकार अनुज्ञा के अनुसार अति अपवाद मार्ग पर चलने पर आचरणीयता परिस्थिति सापेक्ष है निरपेक्ष नहीं । मह उस परिभी आधरण को विशुद्ध ही माना जाना चाहिए। यदि ऐसा न स्थिति पर निर्भर होता है कि व्यक्ति उसमें उत्सर्ग का अवलम्बन माना जाता तब तो एकमात्र उत्सर्ग मार्ग पर ही चलना अति- से या अपवाद का । कोई भी आचार, परिस्थिति निरपेक्ष नहीं वार्य हो जावा, फलस्वरूप अपवाद मार्ग का अवलम्बन करने के हो सकता अतः आचार के नियमों के परिपालन में परिस्थिति के लिए कोई भी किसी भी परिस्थिति में तैयार ही न होता। विचार को सम्मिलित किया गया है फलतः अपवाद मार्ग की परिणाम यह होता कि साधना मार्ग में केवल जिनकल्प को ही आवश्यकता स्वीकार की गई। मानकर चलना पड़ता । किन्तु जब से साधकों के संघ एवं गच्छ जैन संघ में अपवाद मार्ग का कैसे विकास हुआ इस सम्बन्ध बनने लगे, तब से केवल औत्सर्गिक मार्ग अर्थात् जिनकल्प संभर में पं० दलसुख भाई मालवणिया का कथन है कि आचारांग में नहीं रहा । अतएव स्थविरकल्प में यह अनिवार्य हो गया कि निर्ग्रन्थ और निर्यन्थी संघ के कर्तव्य और अकर्तव्य के मौलिक जितना 'प्रतिषेध" का पालन आवश्यक है, उतना ही आवश्यक उपदेशों का संकलन है किन्तु देश काल अथवा क्षमता आदि के 'अनुसा" का माचरण भी है। बल्कि परिस्थितिविशेष में परिवर्तित होने से उत्सर्ग मार्ग पर चलना कठिन हो जाता है। "अनुज्ञा" के अनुसार आचरण नहीं करने पर प्रायश्चित्त का भी अस्तु ऐसी स्थिति में आचारसंग की ही निशीथ नामक खुला में विधान करना पड़ा है। जिस प्रकार प्रतिषेध का भंग करने पर उन आचार नियमों के विषय में जो वितथकारी है उनका प्रायप्रायश्चित्त है उसी प्रकार अपवाद का आचरण नहीं करने पर श्चित्त बताया गया है। अपवादों का मूल सूत्रों में कोई विशेष भी प्रायश्चित्त है। अर्थात् 'प्रतिषेध" और "अनुजा" उत्सर्ग निर्देश नहीं है। किन्तु नियुक्ति, भाष्य, चूणि आदि में स्थानऔर अपवाद दोनों ही सम बल माने गये हैं। दोनों में ही विशुद्धि स्थान पर विस्तृत वर्णन है। जब एक बार यह स्वीकार कर है। किन्तु यह भी नहीं भूलना चाहिए कि उत्सर्ग राजमार्ग है. लिया जाता है कि आचार के नियमों की व्यवस्था के सन्दर्भ में जिसका अवलम्बन साधक के लिए सहज है, किन्तु अपवाद, विचारणा को अवकाका है तब परिस्थिति को देखकर मूलसूत्रों के यद्यपि आचरण में सरल है, तथापि सहज नहीं है।" विधानों में अपवादों की सुष्टि करना गीतार्थ आचार्यों के लिए वस्तुतः जीवन में नियमों जपनियमों की जो सर्व सामान्य सहज हो जाता है। उत्सर्ग भीर अपवाद के बलाबल के सम्बन्ध विधि होती है वह उत्सर्ग और जो विशेष विधि है वह अपवाद में विचार करते हुए पं० जी पुन. लिखते हैं कि 'संयमी पुरुष के विधि है । उत्सर्ग सामान्य अवस्था में आचरणीय होता है और लिए जितने भी निषिद्ध कार्य न करने योग्य कहे गये हैं, वे सभी अपवाद विशेष संकटकालीन अवस्था में । यद्यपि दोनों का उद्देश्य "प्रतिषेध" के अन्तर्गत आते हैं और जब परिस्थितिविशेष में एक ही होता है कि साधक का संयम सुरक्षित रहे । समर्थ साधक उम्ही निषिद्ध कार्यों को करने की "बनुशा" दी जाती है, तब वे के द्वारा संयम रक्षा के लिए जो अनुष्ठान किया जाता है वह ही निषिद्ध कर्म "विधि" बन जाते हैं। परिस्थिति विशेष में उत्सर्ग है और असमर्थ साधक के द्वारा संयम की रक्षा के लिए अकर्तव्य भी कर्तव्य बन जाता है, किन्तु प्रतिबंध को विधि में ही उत्सर्ग से विपरीत जो अनुष्ठान किया जाता है वह अपवाद परिणत कर देने वाली परिस्थिति का औचित्य और परीक्षण है । अनेक परिस्थितियों में यह स्थिति उत्पन्न हो जाती है कि करना, साधारण साधक के लिये सम्भव नहीं है। अतएव ये व्यक्ति उत्सर्ग मार्ग के प्रतिपालन के द्वारा संयम, ज्ञानादि गुणों "अपवाद" "अनुजा" या "विधि" सब किसी को नहीं बताये सुरक्षा नहीं कर पाता तब उसे अपवाद मार्ग का हो सहारा जाते । यही कारण है कि "अपवाद" का दूसरा नाम "रहस्य" लेना होता है। यद्यपि उत्सर्ग और अपवाद परस्पर विरोधी (नि . गा Y६५) पड़ा है। इससे यह भी फलित हो जाता प्रतीत होते हैं किन्तु लक्ष्य की दृष्टि से विचार करने में उनमें है कि जिस प्रकार "प्रतिषेध" का पालन करने से आचरण वस्तुतः विरोध नहीं होता है। दोनों ही साधना की सिद्धि के विशुद्ध माना जाता है, उसी प्रकार अनुज्ञा के अनुसार अर्थात् लिए होते हैं। उसकी सामान्यता एवं सार्वभौमिकता पण्डित अपवाद मार्ग पर चलने पर भी आचरण को विशुद्ध ही माना होती है । उत्सर्गमार्ग को सार्वभौम कहने का तात्पर्य भी यह जाना चाहिए । (देखें निशीथ एक अध्ययन पृ० ५४) प्रशमरति नहीं है कि अपवाद का कोई स्थान नहीं है। उसे सार्वभौम कहने में उमास्वाति' स्पष्ट रूप से कहते हैं कि परिस्थितिविशेष में का तात्पर्य इतना ही है कि सामान्य परिस्थितियों में उसका ही जो भोजन, पाण्या, वस्त्र, पात्र एवं औषधि आदि ग्राह्य होती है १ पं. बससुख मालवणिया, मिशीय : एक अध्ययन, पृ. ५४ । २ प्रशमरति-उमारवाति, क्लोक १४५ । Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२|चरणानुयोग : प्रस्तावना वही परिस्थिति विशेष में अबाह्म हो जाती है और जो अग्राह्य अवलम्बन लेगा है, निर्णय दे। जैन परम्परा में गीतार्थ उस होती है वही ग्राह्य हो जाती है। नितीय भाष्य में स्पष्ट रूप आचार्य को कहा जाता है जो देश, काल और परिस्थिति को से कहा गया है कि समर्थ साधक के लिए उत्सर्ग स्थिति में जो सम्यक् रूप से जानता हो और जिसने निशीथ, व्यवहार, कल्प द्रव्यादि निषिद्ध माने जाते हैं वे असमर्थ साधक के लिए आप- आदि छेद सूत्रों का सम्यक् अध्ययन किया हो । साधक को उत्सर्ग वादिक स्थिति में ग्राह्य हो जाते हैं । सत्य यह है कि देश, काल, और अपवाद में किसका अनुसरण करना है इसके निर्देश का रोग आदि के कारण कभी-कभी जो अकार्य होता है वह कार्य अधिकार गीतार्थ को ही है। बन जाता है और जो कार्य होता है वह अकार्य बन जाता है। जहाँ तक उत्सगं और अपवाद इन दोनों में कौन धेय है उदाहरण के रूप में सामान्यतया ज्यर की स्थिति में भोजन और कोन' अश्रेय अथवा कौन सबल है, कौन निर्बल है? इस निषित माना जाता है किन्तु वात, थम, क्रोध, शोक और कामादि समस्या के समाधान का प्रश्न है। जैनाचार्यों के अनुसार दोनों से उत्पन्न स्वर में लंघन हानिकारक माना जाता है। ही अपनी-अपनी परिस्थितियों के अनुसार श्रेय व सबल हैं। उत्सर्ग और अपवाद की इस चर्चा में स्पष्ट रूप से एक बात आपबादिक परिस्थिति में अपवाद को श्रेय और सबल माना गया सबसे महत्वपूर्ण है वह यह कि दोनों ही परिस्थिति सापेक्ष हैं है किन्तु सामान्य परिस्थिति में उत्सर्ग को श्रेय एवं सबल कहा और इसलिए दोनों ही मार्ग हैं, अमार्ग कोई भी नहीं है । यद्यपि गया है। वृहत्कल्पभाष्य के अनुसार ये दोनों (उत्सर्ग और यहाँ यह प्रश्न उठ सकता है कि यह कैसे निर्णय किया जाये कि अपबाद) अपने-अपने स्थानों में श्रेय व सरल होते हैं। इसे और किस व्यक्ति को उत्सर्ग मार्ग पर चलना चाहिए और किसको अधिक स्पष्ट करते हुए बृहत्करूपभाष्य' की पीठिका में कहा अपवाद मार्ग पर। इस सम्बन्ध में जैनाचार्यों की दृष्टि यह रही गया है कि जो साधक स्वस्थ एवं समर्थ है उसके लिए उत्सर्ग है कि साधक को सामान्य स्थिति में उत्सर्ग का अबलम्बन करना स्वस्थान है और अपवाद परस्थान है। जो अस्वस्थ एवं असमर्थ चाहिए किन्तु यदि वह किसी विशिष्ट परिस्थिति में फंस गया है है उसके लिए अपवाद स्वस्थान है और उत्सर्ग परस्थान है। जहाँ उसके उत्सर्ग के आलम्बन से स्वयं उसका अस्तित्व खतरे वस्तुत: जैसा कि हम पूर्व में सूचित कर चुके हैं यह सब व्यक्ति में पड़ सकता है तो उसे अपवाद मार्ग का सेवन करना चाहिए की सामर्थ्य एवं परिस्थितियों पर निर्भर करता है कि कभी फिर भी यह सदैव स्मरण रखना चाहिए कि अपवाद का आल-आचरणीय अनाचरणीय एवं अनाचरणीय आचरणीय हो जाता भबन किसी परिस्थितिविशेष में ही किया जाता है और उस है। कभी उत्सर्ग का पालन उचित होता है तो कभी अपबाद परिस्थितिविशेष की समाप्ति पर साधक को पुन: उत्सर्ग गार्ग का । वस्तुतः उत्सगं और अपवाद की इस समस्या का समाधान का निर्धारण कर लेना चाहिए। परिस्थितिविशेष उत्पत्र होने उन परिस्थितियों में कार्य करने वाले व्यक्ति के स्वभाव का पर जो अपवाद मार्म का अनुसरण नहीं करता उसे जन आचार्यो विश्लेषण कर किये गये निर्णय में निहित है। वैसे तो उत्सर्ग ने प्रायश्चित्त का भागी बताया किन्तु जिस परिस्थिति में अपवाद और अपवाद के सम्बन्ध में भी कोई सीमा रेखा निश्चित कर का अबलम्बन लिया गया था उसके समाप्त हो जाने पर भी पाना कठिन है, फिर भी जैनाचार्यों ने कुछ बापवादिक परियदि कोई साधक जस अपवाद मार्ग का परित्याग नहीं करता है स्थितियों का उल्लेख कर यह बताया है कि उनमें किस प्रकार तो वह भी प्रायश्चित्त का भागी होता है। कब उत्सर्ग का का आचरण किया जाये। आचरण किया जाये और कब अपवाद का इसका निर्णय देश सामान्यतया बहिसा को जैन साधना का प्राण कहा जा कालगत परिस्थितियों अथवा व्यक्ति के शरीर-सामध्ये पर निर्भर सकता है । साधक के लिए सूक्ष्म से सूक्ष्म हिंसा भी बजित मानी होता है। एक बीमार साधक के लिए अकल्प्य आहार एषणीय गई है। किन्तु जब कोई विरोधी व्यक्ति आचार्य या संघ के वध माना जा सकता है किन्तु उसके स्वस्थ हो जाने पर वही आहार के लिए तत्पर हो, किसी साध्वी का बलपूर्वक अपहरण करना उसके लिए अनंषणीय हो जाता है। चाहता हो वह उपदेश से भी नहीं मानता हो ऐसी स्थिति में यहाँ यह प्रश्न भी स्वाभाविक रूप से उत्पन्न होता है कि भिक्षा, आवार्य, संघ अथवा साध्वी की रक्षा के लिए पुलाकलब्धि साधक कब अपवाद मार्ग का अबलम्बन करे ? और इसका का प्रयोग करता हुआ साधक भी संयमी माना गया है। निश्चय कौन करे ? जैनाचार्यों ने इस सन्दर्भ में गीतार्थ की सामान्यतया श्रमण साधक के लिए वनस्पतिक जीवों अथवा आवश्यकता बनुभव की और कहा कि गीतार्थ को ही यह अधि, अकायिक जीवों के स्पर्श का भी निषेध है किन्तु जीवन रक्षा कार होला है कि वह साधक को उस्सर्ग या अपवाद किसका के लिए इन नियमों के अपवाद स्वीकार किये गये हैं। जैसे २ बृहत्कल्पमाष्प पीठिका गा. ३२२ ॥ १ निशीष भाष्य ५२४५ । ३ वही गा. ३२३-३२४ । Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सवायरण : एक बौद्धिक विमर्श | ७३ पर्वत से फिसलने समय भिक्षा मी . या आदि जो भूत्यू स्वीकार करने में असमर्थ होने के कारण शीलभंय करे को सहारा ले सकता है। जल में बहले हुए साधु-साध्वी की तो इस स्थिति में शीलभंग करने वाले भिक्ष के मनोभावों को रक्षा के लिए नदी आदि में उत्तर सकता है। लक्ष्य में रखकर ही प्रायश्चित्त का निर्धारण किया जाता है। इसी प्रकार उत्सर्ग मार्ग में स्वामी की आशा विना भिक्ष जैनाचार्यों ने ब्रह्मचर्य की सुरक्षा पर सर्वाधिक बल दिया के लिए एक तिनका भी अग्राह्य है। दावकालिक' के अनुसार इसलिए उन्होंने न केवल मैथुन सेवन का निषेध किया अपितु श्रमण अदत्तादान न स्वयं ग्रहण कर सकता है, न दूसरों से ग्रहण भिक्ष के लिए नवजात कन्या का और भिक्ष भी के लिए नवजात करवा सकता है और न अदत्त ग्रहण करने वाले का अनुमोदन शिशु का स्पर्श भी वर्जित कर दिया । आयमों में उल्लेख है कि ही कर सकता है। परन्तु परिस्थितिवश अपवाद मार्ग में भिक्ष भिक्षणी को कोई भी पुरुष चाहे बह उसका पुत्र या पिता ही के लिए अयाचित स्थान आदि ग्रहण के उल्लेख हैं। जैसे भिक्ष, क्यों न हो, स्पर्श नहीं करे किन्तु अपवाद रूप में यह बात स्वीभयंकर शीतादि के कारण या हिंसक पशुब्बों का भय होने पर कार की गई कि नदी में डूबती हुई या विक्षिप्त चित्त भिक्षणी स्वामी की आज्ञा लिए बिना ही ठहरने योग्य स्थान पर ठहर को मिक्ष स्पर्श कर सकता है। इसी प्रकार सर्पदंश या काटा जाए तत्पश्चात् स्वामी की आज्ञा प्राप्त करने का प्रयत्न करें। लग जाने पर उसकी चिकित्सा का कोई अन्य उपाय न रह जाने जहाँ तक ब्रह्मचर्य सम्बन्धी अपवादों का प्रपन है उस पर पर भिक्ष या भिक्ष जी परस्पर एक दूसरे की सहायता कर हमें दो हुष्टि से विचार करना है। जहाँ अहिंसा, सत्य आदि सकते हैं। व्रतों में अपबाद मार्ग का सेवन करने पर बिना तप-प्रायश्चित्त यह स्मरण रखना चाहिए कि उक्त अपदाद ब्रह्मचर्य के के भी विशुद्धि सम्भव मानी गई है वहाँ ब्रह्मचर्य के सम्बन्ध में खण्डन से सम्बन्धित न होकर स्त्री-पुरुष के परस्पर स्पर्श से सप प्रायश्चित्त के बिना विशुद्धि को सम्भव नहीं माना गया है। सम्बन्धित है 1 निशीथ भाष्य और वृहत्कल्पभाष्य के अध्ययन से ऐसा क्यों किया गया इस सम्बन्ध में जैनाचार्यों का तर्क है कि स्पष्ट हो जाता है कि जैनाचार्यों ने ब्रह्मचर्य की सुरक्षा पर हिंसा आदि में राग-द्वेषपूर्वक भोर राग'ष रहित' दोनों ही कितनी गहराई से विचार किया। जैनाचार्यों ने इस प्रश्न पर / प्रकार की प्रतिसेवना सम्भव है और यदि प्रतिसेवना रागदप से भी विचार किया कि एक ओर व्यक्ति शीलभंग नहीं करना रहित है तो उसके लिए विशेष प्रायश्चित नहीं है किन्तु मैथुन चाहता किन्तु दूसरी ओर वासना का आवेग इतना लीन होता का सेवन राम के अभाव में नहीं होता अतः महह्मचर्य व्रत की है कि वह अपने पर संयम नहीं रख पाता। ऐसी स्थिति में क्या स्खलना में तप-प्रायश्चित्त अपरिहार्य है। जिस स्खलना पर तप किया जाये ? प्रायश्चित्त विधान हो उसे अपवाद गार्ग नहीं कहा जा सकता। ऐसी स्थिति में जैनाचार्यों ने सर्वनाश की अपेक्षा अर्द्ध निशीथ भाष्य के आधार पर पं. दलसुख भाई मालबणिया का विनाश की नीति को भी स्वीकार किया है। इसी प्रसंग में जैनाकथन' है कि यदि हिसा आदि दोषों का सेवन संयम के रक्षण चार्यों ने यह उपाय भी बताया है कि ऐसे भिक्ष अथवा भिक्षणी हेतु किया जाय तो तप प्रायश्चित्त नहीं होता किन्तु अब्रह्मचर्य को अध्ययन, लेखन, यावृत्य आदि कार्यों में इतना व्यस्त कर सेवन के लिए तो तप या छेद प्रायश्चित आवश्यक है। दिया जाये कि उसके पास काम वासना जगने का समय ही न पद्यपि ब्रह्मचर्य व्रत की स्खलना पर प्रायश्चित्त विधान होने रहे। इस प्रकार उन्होंने काम वासना पर विजय प्राप्त करने के से ब्रह्मचर्य का कोई अपवाद स्वीकार नहीं किया गया है, किन्तु उपाय भी बताए। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि जैनाचार्यों ने उन सब परिस्थितियों सामान्यतया भिक्ष के लिए परिग्रह के पूर्णत: त्याग का पर विचार नहीं किया है जिनमें कि जीवन की रक्षा अथवा विधान है और इसी आधार पर अचेलता की प्रशंसा की गई है। संघ की प्रतिष्ठा को सुरक्षित रखने के लए शीलभंग हेतु विवश सामान्यतः आचारांग आदि सूत्रों में भिक्ष के लिए अधिकतम होना पड़े। निशीथ और बृहत्कल्पभाष्य में यह उल्लेख है कि तीन वस्त्र और अन्य परिमित उपकरण रखने को बनुमति है यदि ऐसा प्रसंग उपस्थित हो जहाँ शीलभंग और जीवन-रक्षण किन्तु यदि हम मध्यकालीन जैन साहित्य का और साधु जीवन में से एक ही विकल्प हों तो ऐसी स्थिति में श्रेष्ठ तो यही है का अध्ययन करें तो यह स्पष्ट लगता है कि धीरे-धीरे भिक्ष, कि व्यक्ति मृत्यु को स्वीकार करे और भीलभंग न करे, किन्तु जीवन में रखने योग्य वस्तुओं की संख्या बढ़ती गई है। अन्य भी १ दशवकालिक ६, १४ । ३ निशीथ : एक अध्ययन, पृ. ६८॥ ५ बृहत्कल्पभाष्य गाथा ४६४६-४९४७। २ व्यवहार सूत्र उद्दे. । ४ निशीथ गाथा ३६६-७ । Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ | चरणामुयोग : प्रस्तावना आचार सम्बन्धी कठोरतम नियम स्थिर नहीं रह सके हैं। अतः २. अनुयोगो-व्याख्यानम् । पृ. ३५४/१ आपबादिक रूप में कई अकरणीय कार्यो का करना भी विहित ३. अनुरूपो योगः अनुयोगः, सूत्रस्य अर्थन सार्द्ध अनुरूप मान लिया गया है जो सामान्यतया निन्दित माने जाते थे। सम्बन्धो, व्याख्यानमित्यर्थः । पू. ३५५/२२ अपवाद मार्ग के सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा निशीय भाष्य एवं ४. आर्य वजाब यावत् अपृथक्त्वे सति "सूत्र व्याख्या रूपः" निशीथ पूणि आदि में उपलब्ध है। साथ ही पं० दलसुखभाई एकोप्यनुयोगः क्रियमाणः प्रतिवं चत्वारि द्वाराणि भावते: मालवणिया ने अपने ग्रन्थ "निशीथ एक अध्ययन में एवं चरणकरणादोश्चतुरोऽपि अर्थात् प्रतिपादयति इत्यर्थः। पृथमत्वाउपाध्याय अमरमुनिजी ने निशीथ चूणि के तृतीय भाग की नुयोगकरणावेव व्यवछिन्नः। ततः प्रति एक-एक चरणकरणाभूमिका में इसका विस्तार से विवेचन किया है । जिज्ञासु पाठक दोनामन्यतरो अर्थः प्रतिपूत्र व्याख्यायते, न चत्वारोऽमि इत्ययः । उसे वहां देख सकते हैं। निशीश्च सूत्र हिन्दी विवेचन में भी ५. अनुयोगो-अर्थ व्याख्यानम् । प. ३५८/२ पंक्ति १-२ उत्सर्ग अपवाद का स्वरूप ममझाया गया है।' ५. अध्ययनार्थकथन विधि: अयोगः । "अनुयोग द्वार" "अनुयोग" विश्लेषण एवं प्रस्तुत कृति। शब्द दो प्रकार के होते हैं-(१) योगिक, (२) रू । १७. हास्पद मागिय मनुषंगार्थ व्याख्यानार्थ उनमें से कई शब्दों के अनेक अर्थ होते है, भिन्न-भिन्न देश द्वाराणि इति अनुयोग द्वाराणि । काल में भिन्न-भिन्न अर्थ प्रसंगानुसार प्रचलित रहते हैं। किन्तु अणुयोगदारराई, महापुरस्सेव तस्स पतारि । प्रयोग कर्ता के आगय के अनुसार एक अर्थ प्रमुख रहता है। ___ अणुयोगो ति सदस्यो, दाराई तस्स उ महाई॥ तदनुसार अनुयोग शब्द के भी दो अर्थ अपेक्षित हैं "अणुओगहार" प. ३५८/२ (१) सूत्र के अनुकूल अर्थ का योग करना, ६. संहिताय पदं बेव, पयत्थो, पदविग्गहो। (२) एक-एक विषय के अनुस्य (सदृश) विषयों का योग चालगाय पसिनो य, छव्विहं विडि लगवणं ।। करना अर्थात् वर्गीकृत संकलन करना। पृ. ३५५/१६ । प्रस्तुत संकलन में दूसरे अर्थ को अपेक्षित करके संकलन १०.सं अनुयोगो यपि अनेक प्रन्य विषयः संभवति किया गया है जिसका आधार निम्न प्रयोग है तथापि प्रतिशास्त्रं प्रति अध्ययनं, प्रति उद्देशक, प्रति वाक्यं, (१) द्रव्यानुयोग, चरणानुयोग, धमकथानुयोग; गणितानुयोग । प्रति पर्व च उपकारित्वा प. १५९/१ अनुयोगद्वार टीका। (२) दृष्टिवाद का एक विभाग-अनुयोग । ११. "अनुयोगिन"--अनुयोगो व्याख्यानम्, परूपणा इति (३) गणधर गण्डिकानुयोग, तपगडिकानुयोग आदि । यावत्, स यत्र अस्ति । अनुयोगी-आचार्यः, अगुयोगी, लोगाणं इन प्रयोगों से यह ज्ञात होता है कि जिसमें विवक्षित एक संसय णासओ व होति।। विषय का कथन हो या एक व्यक्ति का जीवन हो उसके नाम के अणुओगधर-अनुयोगिकः । माथ अनुयोग या गण्डिकानुयोग शध्द जोड़कर कहा जाता है। १२. अषणेगपर:-सिद्धारत व्याख्याननिष्ठः । आचारांग, उववाई आदि सूत्रों की टीका में कहे गये चार १३, नंदी सूत्र, गाथा ३२ टीका- मलयगिरीया-- अनुयोगों को आधारभूत मानकर प्रस्तुत कृति में सम्पूर्ण आगमों "कालिक तानुयोगिकान्".-कासिकश्रुतानिणेगे व्याख्याने को चार अनुयोगों में विभाजित किया गया है। नियुकाः कालिकश्रुतानुयोगिकाः, तान् । अथवा कालिकतानुअनुपोग शब्द की उपलब्ध व्याख्याएँ योग येषां विधत्ते इति कालिकतानुयोगिनः । अभिधान राजेन्द्र कोष के प्रथम भाग में अनुयोग शब्द के १४. अणुमओगे च नियोगी, भास विभाव य वत्तियं बेव। अनेक अर्थ एवं उनके प्रयोगों की विस्तृत व्याख्या पृ० ३४० रो एए अणुओगम्स उ नामा एमट्टिया पंच ।। ३६. तक है। वृहत्कल्प भाष्य । कोष प. ३४४ .. कुछ अर्थ यहाँ दिये आते है अणुओयणं अणओगो, सुयस्स नियएण जमभिएण । १. अणु-सूत्र, महान अर्थः, ततो महतो अबस्य अणुना सूत्रेण वावारो वा जोगणे, जो अणुसोओ अगुकूलो बा ॥ योगो अनुयोगः । पृष्ठ ३४०/२ १ पं. दलसुखभाई मालवणिया -"निशीय : एक अध्ययन" पृष्ठ ५३-७० । २ निशीथ सूत्र चूमि-तृतीय माग भूमिका पृष्ठ ७-२८ । ३ छेव सूत्र-पृष्ठ ७४-७५ आगम प्रकाशन समिति मावर । Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सवाचरण : एक बौद्धिक विमर्श | ७५ सुत्तत्थो खलु पढमो, बीओ निजत्ति मौसिओ भणिओ। वर्णन एक साथ अत्यन्त सुविधाजनक होता है। तहओ य निरवसेसो, एस विही अणिय अणुओगे ॥ स्वाध्यायशील पाठकों एवं अन्वेषक विद्याथियों के लिए तो पृ. ३४५/१४ वर्गीकृत विषयों का संकलन अत्यन्त उपयोगी होता है । इन उपर्युक्त उद्धरणों में सूत्र के अयं को संक्षिप्त या विस्तृत अतः वर्गीकृत विषयों के संकलन की आवश्यकता एवं उपकहने की पद्धति को अर्थात् व्याख्या करने की पद्धतियों को योगिता सदा मानी गई है। अनुयोग शब्द से परिलक्षित किया गया है। क्षागमों में भी इस पद्धति का ही अधिकांशत: अवलम्बन नदी सूत्र में अनुयोग शब्द के प्रयोग-- लिया गया है। १. रयणकरण्यगभूमी अणुओगो रक्खिाओ जेहि ।।३२॥ विषयों का विभाजन अनेक हल्टिकोणों से किया जाता है। २. अयलपुरा निवसंते कालियसुय अणुओगिए धीरे। यह विभाजनकर्ता के दृष्टिकोण पर निर्भर है। यथा-१. "जीव बभद्दीवा-सीहे, बापग पयमुत्तमं पते ॥३६॥ द्रव्य के विषय का अलग विभाग करना किन्तु उसमें अन्य कोई गरि इमो अधुरोगो पर इनानि प्रष्ट पराक्रम, गति या दण्डक के विभाजन का लक्ष्य नहीं रखना, ॥३७॥ २. गतियों की अपेक्षा विभाजन करना किन्तु दण्डकों के क्रम या ४. कासिय सुय अणुओगस्स धारए, धारए म पुग्धा। व्युत्क्रम का लक्ष्य न रखना, ३. दाडकों के कम से विभाजन हिमवंत समासमणे वन्ये नागज्जुणायरिए ॥३६॥ करना किन्तु उसमें १२ देवलोक ७ नरक या ५ तिर्यच का क्रम ५. गोविंदाणं पि णमो, अशुओगे बिजल धारणिवाणं ४१॥ न रखना इत्यादि स्थल से सूक्ष्म या मूक्ष्मतर अपेक्षित विभाजन ६. सीसगुण गड़ियाणं अणुओग जुगप्पहाणाणं ॥४|| उपयोगितानुसार किये जा सकते हैं। नन्दी सूब की इन गाथाओं से यह निष्कर्ष निकलता है कि अथवा ---(१) प्रायश्चित्त विधानों को एक सूत्र में कहना, कालिक सूत्र की जो संक्षिप्त या विस्तृत व्याख्या की जाती है १२) लघ, गुरु, मासिका, चौमासी इन विभागों के क्रम से करना, उसकी एक विशिष्ट पद्धति होती है जो बागम काल से सूत्रों के (1) इनमें भी पांच महानतों की अपेक्षा से विभाजित करना, साथ ही शिष्यों को समभाई जाती थी। उन व्याख्यानों सहित (४) समिति, गुप्ति, दीक्षा, संघ व्यवस्पा, स्वाध्याय आदि सूत्र विस्तृत हो जाते थे उन्हें कंठस्थ धारण करना क्रमशः कठिन विभागों में विभाजन करना इत्यादि अनेक प्रकार से विभाजन होता गरा । इसलिए अनुयोग पद्धति से की जाने वाली व्याख्या किए जा सकते हैं। युक्त कालिक मूत्रों को धारण करने वाले बहुश्रुत आचार्यों को भागमों में की गई विभाजन पद्धति भी एक सापेक्ष पद्धति भनुयोगधर, अनुयोगरक्षक, अनुयोगिक, अनुयोग प्रधान आदि है यथाविशेषणों से विभूषित किया गया है। (१) आचारांग प्रथम श्रुतस्कन्ध में मंयम के प्रेरक विषय हैं, यहाँ गाथा में प्रयुक्त अनुयोग (ब्यारुमा पद्धति) पहले से (२) आचारांग के द्वितीय श्रुत स्कन्ध में माधु के अत्यावश्यक प्रचलित थी, जिसका रक्षण और धारण युग प्रधान आचार्यों ने आचारों से सम्बन्धित विषय हैं, किया था । अतः इन गाथाओं से अनुमोग के पृथक्करण या (३) सूत्रकृतांग के प्रथम श्रुत स्कन्ध में प्रथम अध्ययन को नवीनीकरण का कुछ भी संकेत समझना भ्रमपूर्ण है। छोड़कर शेष सभी अध्ययनों में साध्वाचार का प्रतिपादन किया गाथा ३७ के अनुसार (नन्दी रचना के समय) में जो सूत्रों गया है। की व्याख्यायें कण्ठस्थ परम्परा में उपलब्ध यीं वे सब स्कंदिला- १४) दशवकालिक में मुनि जीवन का पूर्ण मार्गदर्शन चार्य द्वारा व्यवस्थित एवं निश्चित की गई थी। किया है । अभिधान राजेन्द्र कोष से उस नं. ४ के अनुसार प्रत्येक (५) माता से विपाक पर्यन्त सूत्रों में विविध कर्मकथाएं हैं। अध्ययन के प्रत्येक सूत्र की व्याख्यायें चारों अनुयोगों के आधार (६) प्रश्न व्याकरण में ५ आत्रब ५ संवर का विषय से की जाती थी अर्थात् उस सूत्र में तत्व क्या कहा गया है? संकलित है। उसका संयमाचरण से क्या सम्बन्ध है ? उसके लिए उदाहरण ७) नन्दी में ज्ञान का विस्तृत विषय है। क्या है? इत्यादि यथा सम्भव २-३ या ४ अनुयोगों में घटित (८) चार छेद सूत्रों में भी प्रमुख आचार सम्बन्धी विषयों करके समझाया जाता था। का संकलन है। जिसमें निशीय सूत्र तो पूरा प्रायश्चित्त विधानों समान पाठों (विषयों) का अनुयोग काही संकलन है। सामान्यतया पाठक विषयानुसार वर्गीकरण को पढ़ने में इसी प्रकार अन्य उपांग आदि कई सूत्र एक-एक विषय के विशेष रुचि रखता है। समझने में भी एक विषय का सम्पूर्ण संकलन युक्त है। Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ०६ | चरणानुयोग प्रस्तावना विषयों की विभिकता है। भगवती सूत्र पूरा विविध विषयों के प्रश्नोतर का संकलन है। उत्तराध्ययन सूत्र विभिष विषयों का गद्य-पद्यात्मक सूत्र है। निष्क यह है कि इस आगयों की रचना पद्धति भी विषय संकलन में एक विशेष विवला नावी है फिर भी विषयों के सूक्ष्म सूक्ष्मतर विभाजन की जिज्ञासा वालों को उनके अध्ययन में कठिनाई का अनुभव होना स्वाभाविक है। अतः प्रस्तुत अनुयोग विभाजन एक विशिष्ट विभाजन की पूर्ति के लिए किया गया है । गांग समवायांग का संकलन संख्या प्रधान है किन्तु उसमें किया है और तीस सूत्रों का ट पद्धति से विषयानुसार वर्गीकरण करके संयमी जीवन के पचास वर्षों में श्रुत की अनुपम सेवा की है। आपका यह कार्य जैन धर्म और जैन साहित्य के इतिहास में अत्यन्त महत्वपूर्ण है। आगमों के सन्दर्भ में यह ऐसा महान कार्य है जो विगत दो हजार वर्ष के जैन इतिहास में नहीं हो सका था। इस महान कार्य के लिए निश्चित ही जैन समाज, मुनि श्री जी का आभारी है। मुनि श्री ने न केवल यह वर्गीकरण का महान कार्य किया अपितु उन्होंने इसके साथसाथ शब्दानुसारी हिन्दी अनुवाद देकर उन लोगों का भी उपकार किया जो प्राकृत का ज्ञान न रखते हुए भी आगमों की विषयवस्तु को समझने के लिए उत्सुक हैं। मुनि श्री जी की यह ज्ञान साधना उनकी कीर्ति को अक्षुण्ण रखेगी, इसमें कोई सन्देह नहीं है । यद्यपि इस प्रकार के विभाजन की आवश्यकता प्राचीन समय में भी थी किन्तु ऐसा वर्गीकरण करने का साहस किसी ने भी नहीं किया। क्योंकि ऐसा करने से सूत्रों के अस्तित्व को नष्ट करने का भ्रमित वातावरण उपस्थित होने का भय था किन्तु इसमें सूषों का अस्तित्व नष्ट करना है और आगमों के मूल्य का ह्रास करना है अपितु आगमों की उपयोगिता बढ़ाना है। मैं स्वयं भी व्यक्तिगत रूप से मुनि श्री जी का कृतज्ञ हूँ कि उन्होंने इसकी भूमिका लिखने का निर्देश देकर मुझे आगमों के अध्ययन का एक और अवसर प्रदान किया। माथ ही उनसे इसलिए क्षमाप्रार्थी भी हूं कि प्रस्तुत भूमिका के लिए मैंने उन्हें पर्याप्त रूप से प्रतीक्षा करवाई । यद्यपि इसमें मेरे प्रमाद की अपेक्षा मेरी व्यस्तता व मेरी बाह्य परिस्थितियाँ ही अधिक बाधक रहीं, जिनके कारण मैं इसे शीघ्र पूर्ण न कर सका अन्त में पुनः सभी के प्रति आभार व्यक्त करता हूं, जिनका इस भूमिका लेखन में प्रत्यक्ष या परोक्ष सहयोग रहा है । आगमों का स्वतन्त्र अस्तित्व भी अलग रह जाता है और विषयानुसार वर्गीवाजे पार अनुयोग रूप इन चार अनुपम ग्रन्थों का अलग महत्व भी स्पष्ट है । इस साहस पूर्ण और श्रम पूर्ण रत्न भुनि श्री कन्हैयालालजी म. सा. कार्य को वर्तमान में पं० "कमल" ने स्वेच्छा से डा० सागरमल जैन निदेशक श्री पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, (०२०) Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A अनुक्रमणिका (चरणानुयोग भाग-2) (१) दीक्षा Prari-GAIN Empi1111 समारम्भ-असमारम्भ से संयम-असयम के प्रकार विषय सूत्राक पृष्ठांक 'मयम योग्य जन संयम योग्य प्रहर प्रव्रज्या ग्रहण : विधि-निषेध-१ घमन्तिराय कर्मों के क्षयोपशम से प्रव्रज्या संयम योग्य वय १३३२ यतनावरणीय कर्मों के भयोपशम से सयम प्रव्रज्या-पालक की चौभगी १३४० 'तीन प्रकार के सयत संयमी के लक्षण-४ प्रव्रज्या योग्य जन निर्ग्रन्थ के लक्षण प्रव्रज्या योग्य प्रहर अणगार के लक्षण प्रव्रज्या योग्य वय संयती के लक्षण प्रव्रज्या योग्य दिशा माहण आदि के लक्षण प्रजित करने आदि के विधि-निषेध त्यागी-अस्यागी के लक्षण बालक-बालिका को बड़ी दीक्षा आदि का सुसाधू के लक्षण विधि-निषेध भिसू के लक्षण प्रवृजित होने वाले के उपकरणों का प्ररूपण महर्षि के लक्षण प्रव्रज्या के अयोग्य मुनियों के लक्षण असमर्थ को प्रव्रजित करने का प्रायश्चितसूत्र अमुनि तथा मुनि का स्वरूप प्रमज्या के प्रकार-२ अनात्मवान और आत्मवान विविध प्रकार की प्रव्रज्या अणगार के गुण प्रव्रज्या को कृषि की उपमा मतादि निन्थि का स्वरूप प्रव्रज्या को घान्य की उपमा निर्ग्रन्थों के प्रशस्त लक्षण मुण्न के प्रकार संयमी को विभिन्न उपमाएँ-५ प्रवज्या के दस प्रकार श्रमण की उपमायें दुःख का अंत करने वाली प्रव्रज्या सूर्य सदृश्य महर्षि उपल्यापना विधि-निषेध-३ पक्षी की तरह लघुभूत विहारी बड़ी दीक्षा देने का काल प्रमाण पक्षीवत् अप्रतिबन्ध विहारी उपस्थापन के विधान हाथी के समान धैर्यवान बड़ी दीक्षा के योग्य मेरु के समान अकम्पमान बड़ी दीमा के अयोग्य वृषभ सम भवाटवी पारकर्ता अयोग्य को बड़ी दीक्षा देने का प्रायश्चित्ससूत्र संपम का उपदेश तथा विशिष्ट जाए-६ निर्गन्ध की दुःख शय्याए (२) संयमी जीवन निर्गन्य की सुख शय्याए संपम का स्वरूप-१ संयम ग्रहण का उपदेश संयम का स्वरूप संयम से दुर्गति का निरोध संयम का महत्व जन्म-मरण से विमुक्ति १०० संयम के प्रकार-२ सयती को विनय का उपदेश १०१ पाच प्रकार के चारित्र और उनकी परिभाषा संयम की आराधना का उपदेश १०२ यह प्रकार की कल्प स्थिति गृहस्थों की वैयावृत्य का तथा वन्दन पूजन सयम के भेद-प्रभेद की चाहना का निषेध १०३ सयम के प्रकार अधिकरण विवर्जन १०४ असयम के प्रकार कलहप्रिय-पापश्रमण । १०५ चारित्र के प्रकार १४ परीषहजय का उपदेश १०६ ४२ नोट: चरणानुयोग भाग २ में सूत्राांक १३३९ से प्रारंभ हुआ है । प्रेस की सुविधा के लिए आगे के नम्बर १३00 हटाकर सिर्फ ४१, ४२ आदि लिये है जो क्रमशः १३४१ आदि का बोधक मानना चाहिए । (७७) iiiii Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय सूत्राक १०७ १०८ १४८ ५७ ११० १५० १५२ ५९ १११ ११२ ११४ १५५ १५६ १५७ १६ ११७ १५८ ११८ १५९ १६० ११९ १२० १६१ १२१ १२२ १२३ १२४ १२५ १६२ १६३ १६४ १६५ १६६ १६७ १६८ अध्यात्म जागरण से मुक्ति श्रमणों की तीन भावनाये श्रमणों के बत्तीस योग संग्रह भयम योग में आत्मा की स्थापना संयमी जीवन के अठारह स्थान-७ संयम के अठारह स्थान प्रयम 'अहिंसा स्थान द्वितीय 'सत्य' स्थान तृतीय 'अस्तेय' स्थान चतुर्थ 'ब्रह्मचर्य स्थान पंचम 'अपरिग्रह स्थान छठा 'रात्रि भोजन विवर्जन' स्थान सातदों 'पृथ्वीकाय अनारम्भ स्थान आठवाँ 'अप्काय अनारम्भ स्थान नवमा 'तेजस्काय अनारम्भ स्थान दसवों 'वायुकाय अनारम्भ' स्थान ग्यारहवी 'बनस्पतिकाय अनारम्भ स्थान बारहवाँ वसकाय अनारम्भ स्थान तेरहवाँ 'अकल्प्य आहारादि वर्जन' स्थान चौदहवो 'गृहस्थ पात्र में भोजन निषेध 'स्थान गृहस्थ के पात्र में भोजन करने का प्रायश्चित्र 'सूत्र पन्द्रहवाँ 'पल्यक निषद्या वर्जन स्थान गृहस्थ की शय्या पर बैठने का प्रायश्चित्त सूत्र सोलहवाँ'गृह निषद्या वर्जन स्थान गृह निषद्या के अपवाद सत्रहवाँ 'अस्नान' स्थान अठारहवों 'अविभूषा' स्थान संयमी जीवन का फल-८ सर्वगुण सम्पन्नता का फल सामायिक का फल संयम की आराधना का फल धरािधना का फल संवृस भिक्षु का फल निर्गन्ध की मुक्ति सुश्रमण की समाधि और कुश्रमण की असमाधि अज्ञानी श्रमण की गति भिक्षु के अहिंसा का परिणाम भिक्षु के हिंसानुमोदन का फल भोगासक्ति का परिणाम सुव्रती साधु का संसार पार कुश्रमण की दुर्गति और सुश्रमण की सदगति मद्य सेवन का और विवर्जन का परिणाम . मद्यादि सेवन का निषेध १२६ १२७ १२८ १२९ पृष्ठाक (३) समाचारी विवस रात्रिक समाचारी-१ समाचारी का महत्त्व पकार की समाचारी समाचारी का प्रवर्तन दिवस समाचारी पौरुषी विज्ञान चः क्षय तिधियों छः वृद्धि तिथियाँ पात्र-प्रतिलेखना का काल प्रथम पौरुषीकी समाचारी प्रतिलेखना की विधि प्रतिलेखना के दोष अन्यूनाधिक प्रतिलेखना प्रतिलेखना-प्रमत्त विराधक प्रतिलेखना में उपयुक्त आराधक तृतीय पौरुषी समाचारी चतुर्थ पौरुषी समाचारी देवसिक प्रतिक्रमण समाचारी ४८ निद्राशील पापश्रमण ४९ रात्रि-समाचारी रात्रिपौरुषी विज्ञान ४५ रात्रि के चतुर्थ प्रहर की समाचारी ४९ रात्रि प्रतिक्रमण समाचारी उपसंहार ५० वर्षावास-समाचारी-२ वर्षाकाल के आ जाने पर विहार का निषेध वर्षावास के अयोग्य क्षेत्र वर्षावास योग्य क्षेत्र वर्षावास के बाद विहार के अयोग्य काल वर्षावास के बाद विहार के योग्य काल वर्षावास के अवग्रह क्षेत्रका प्रमाण वर्षावास में विहार करने का विधि-निषेध वर्षावास में ग्लान हेतु गमन का क्षेत्र प्रमाण प्रथम-द्वितीय प्राबृट् में बिहार करने के प्रायश्चित सूत्र वर्षावास आहार समाचारी-३ सर्वत्र आचार्यादि की आज्ञा से जाना, बिना आजा के नहीं जाना ५५ भिक्षापयर्या के लिए जाने योग्य क्षेत्र भिमाचर्या की दिशा कहकर भिक्षार्थ जाने का विधान नित्य भोजी के गोचरी जाने का विधान नित्यभोजी के लिए सर्व पेय ग्रहण करने का विधान अज्ञावान घरों में अदृष्ट पदार्थ मांगने का निषेध ५७ १७० १७१ १७२ الله १७३ १७४ १७५ १७६ १७७ १७८ १३४ الله الله १३५ १३६ الله १३७ فله نعم ५४ १७९ १८० ५५ १८२ १४४ १८४ १८४ १८५ १४७ (७८) Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१३ २१४ २१५ १८९ २१७ २१८ २१९ २२० १९५ विषय सूत्राक पृष्ठाक सूक्ष्माष्टक की प्रतिलेखना का विधान आचार्य की आजानुसार भक्त-पान ग्रहण करना अकाल में पर्युषण करने का तथा काल में पर्युषण न करने के प्रायश्चित्त सूत्र और देना १८६ सांवत्सरिक स्थविर कल्प की आराधना का फल ग्लान को पूछकर के ही आहार पानी लाने का विधान (४) प्रतिक्रमण १८७ विकृति ग्रहण निषेध १८८ आवश्यक स्वरूप-१ आचार्य से पूछकर ही विकृति ग्रहण करने चार प्रकार के आवश्यक का विधान छह प्रकार के आवश्यक ग्लान के लिए विकृति ग्रहण करने का विधान १९० प्रतिक्रमण के प्रकार-२ वर्षा बरसने पर पूर्व गृहीत भक-पान के पांच प्रकार के प्रतिक्रमण उपयोग की विधि छह प्रकार के प्रतिक्रमण १९१ वर्षा बरसने पर एक स्थान में निर्ग्रन्थ अतिक्रमादि के प्रकार निर्गन्थियों के ठहरने की विधि अतिक्रमादि की विशुद्धि गीला शरीर हो तब तक आहार करने का निषेध श्रमण प्रतिक्रमण-३ कायोत्सर्ग करने की प्रतिज्ञा वर्षावास-तप-सलेसना समाचारी-४ सामायिक सूत्र आचार्यदि से पूछकर तप करने का विधान १९४ उपवास करने वाले के पानी ग्रहण करने का गुरु वंदन सूत्र गुरु वंदन के बारह आवर्तन विधान समुच्चय अतिचारों का प्रतिक्रमण सूत्र दो उपवास करने वाले के पानी ग्रहण करने का ऐर्यापधिक प्रतिक्रमण सूत्र विधान शाय्या दोष निवृत्ति सूत्र तीन उपवास करने वाले के पानी ग्रहण करने का गोचर चर्या दोष निवृत्ति सूत्र विधान १९७ स्वाध्याय तथा प्रतिलेखन सूत्र चार आदि उपवास करने वाले के गरम तेतीस प्रकार के स्थानों का प्रतिक्रमणसूत्र पानी ग्रहण करने का विधान १२८ निर्ग्रन्थ धर्मानिचार शुद्धि सूत्र भक्त प्रत्याख्यान अनशन वाले के गरम मारणान्तिक संलेखना के अतिचार पानी ग्रहण करने का विधान १९९ दत्ति की संख्याओं का विधान अमापना सूत्र २०० पर्युषण में गाहार करने का प्रायश्चित्तसूत्र उपसंहार सूत्र २०१ आचार्यादि से पूछकर पादपोषगमन कायोत्सर्ग-विधि सूत्र बस पक्माण-४ करने का विधान २०२ नौकारसी प्रत्याख्यान सूत्र पर्यावास सम्बन्धी प्रकीर्णक-समाचारी-५ पौरुषी प्रत्याख्यान सूत्र तीन उपश्रयों के ग्रहण का विधान २०३ दो पौरुषी प्रत्याख्यान सूत्र भय्या एवं आसन ग्रहण करने का विधान २०४ एकाशन प्रत्याख्यान सूत्र वर्षांवास रहे हुए निन्य-निन्थियों को तीन एक स्थान प्रत्याख्यान सूत्र मात्रक ग्रहण करने कल्पते है; २०५ आयंबिल प्रत्याख्यान सूत्र वर्षावास में पात्र और वस्त्र ग्रहण करने का उपवास प्रत्याख्यान सूत्र प्रायश्चित सूत्र दिवसचरिम प्रत्याख्यान सूत्र वर्षावास में वस्त्र सुखाने के विधि-निषेध २०७ भवचरिम प्रत्याख्यान सूत्र उचार प्रस्रवण भूमि प्रतिलेखना २०८ अभिग्रह प्रत्याख्यान सूत्र आचार्यादि से पूछकर चिकित्सा कराने का विधान २०९ निर्धिकृतिक (नीवी) प्रत्याख्यान सूत्र पर्युषणा के बाद केश रखने का निषेध २१० सर्व प्रस्याख्यान पारण सूत्र पर्युषणा के बाद केश रखने का प्रायश्चिस सूत्र २११ पन्चक्माण के प्रकार-५ पर्युषणा में कलह की क्षमायाचना करने का विधान २१२ ७६ प्रत्याख्यान के प्रकार WWWWWWWWWWWWWW २३१ २३७ २३८ २३२ २४० २४१ لري २४३ २४ २४५ २४६ २४७ २४८ २४९९९ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय १११ २८३ २८४ २८५ २८६ प्रत्याख्यान के भेद-प्रभेद सुप्रत्याख्यानी और दुष्प्रत्याख्यानी का स्वरूप ज्ञान पूर्वक प्रत्याख्यान करने वाले प्रतिक्रमण फल-६ प्रतिक्रमण का फल २८७ २८८ २८९ २९० २९१ २९२ १०३ ११३ ११४ ११४ १२५ ११५ २५४ २९३ २९४ ११६ १२१ २९५ १२१ २६२ २९६ १२१ १२५ २९७ २९८ २९९ सूबाक पृष्ठाक अनर्थदण्ड-विरमण-व्रत का स्वरूप और अतिचार सामायिक व्रत का स्वरूप और अतिचार २५० सामायिक किये हुए की क्रिया २५१ १०१ सामायिक किये हुए का ममत्व २५२ सामायिक किये हुए का प्रेमबंधन देशावगासिक व्रत का स्वरूप और अतिचार २५३ १०२ पौषध व्रत का स्वरूप और अतिचार अतिथि संविभाग-व्रत का स्वरूप और अतिचार श्रमण को शुद्ध आहार देने का फल २५५ असंयत को आहार देने का फल २५६ १०३ मापक प्रतिमा-1 ग्यारह उपासक प्रतिमायें २५८ १०३ श्रमणोपासकों की तीन भावनाएं २५९ १०४ भावक के प्रत्यास्पान-४ २६० १०४ प्रत्याख्यान पालन का रहस्य २६११०४ प्रत्याख्यान का स्वरूप व उसके TOY करण योगों के भंग २६३ १०४ २६४ १०५ गृहस्थ धर्म का फल-५ शीलरहित और शीससहित श्रमणोपासक के प्रशस्त-अप्रशस्त सुव्रती गृहस्थ व उसकी देवगति २६५ १०५ असंयत की गति २६६ १०५ आजीविक श्रमणोपासकों के नाम, कर्मादान २६७ १०६ और गति २६८ १०६ . आराधक-विराधक २६९ १०६ आराधक विराधक का स्वरूप-१ २७० आराधक का स्वरूप विराधक का स्वरूप आराधक-निर्ग्रन्य-निर्ग्रन्थी ર૭ર भिक्षु की आराधना-विराधना २७३ दृष्टांत द्वारा आराधक-पिराधक का स्वरूप २७४. श्रुत और शील से आराधक-विराघक का स्वरूप २७५ आराधक-अनाराधक निन्ध आदि के भंग आपाकर्म आदि की विपरीत प्ररूपणा २७६ १०९ आराधना विराधना के प्रकार-२ आराधना के प्रकार २७७ जघन्य-उत्कृष्ट आराधना विराधना के प्रकार २७८ आराधक विराधक की गति-३ २७९ ११० आराधक-अणारम्भ-अणगार २८० ११० आराधक अल्पारम्भी श्रमणोपासक आराधक' 'सन्निपषेन्द्रिय तिर्यचयोनिक २८१ ११० विराधक एकान्त बाल २८२ १११ विराधक अकाम निर्जरा करने वाले ३०० प्रत्याख्यान का फल संभोग प्रत्याख्यान का फल उपधि प्रत्याख्यान का फल आहार प्रत्याख्यान का फल कषाय-प्रत्याख्यान का फल भोग-प्रयाख्यान का फल शरीर-प्रत्याख्यान का फल सहाय-प्रत्याख्यान का फल भक्त-प्रत्याख्यान (अनशन) का फल सद्भाव-प्रत्याख्यान का फल प्रत्याख्यान भंग का प्रायश्चित सूत्र गृहस्थ-धर्म गृहस्प धर्म श्रमणोपामको के प्रकार श्रमणोपासक के चार विश्रान्ति स्थान सामान्य रूप से मतिचारों का विशुद्धिकरण अल्पायुबंध के कारण दीर्घायु बध के कारण अशुभ दीर्घायुबंध के कारण शुभ दीर्घायुबंध के कारण समकित सहित वाह व्रत-२ सम्यक्त्व का स्वरूप और अतिचार सम्यक्त्व की प्रधानता श्रावक धर्म के प्रकार स्थूल-प्राणातिपात-विरमण-व्रत का स्वरूप और अतिचार स्यूल-मृषावाद-विरमण-श्रत का स्वरूप और अतिचार स्पूल-अदतादानविरमण-व्रत का स्वरूप और अतिचार स्थूल-मैथुन-विरमण-व्रत का स्वरूप और अतिचार परिग्रह-परिमाणवत का स्वरूप और अतिचार दिशाव्रत का स्वरूप और अतिचार उपभोग-परिभोग-परिमाण-व्रत का स्वरूप और अतिचार पन्द्रह कक्षन १२६ ३०१ ३०२ ३०३ ३०४ ३०५ १२७ १२८ १२८ ३०६ १३२ ३०७ ३०८ १३३ १३४ ३०९ ३१० १३५ १३६ २११ ३१२ १३६ १३८ mmmm or or १० १० Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय ३५१ १०४ NE M ३५६ ३५७ १७६ १७६ १७६ १७७ १७७ ३५८ ३५९ १५२ ३६० १७७ १७९ ३६१ mmmmm १८० १८० १८० ३६६ १८१ १५८ १५९ सूत्राक पृष्ठांक मूर्या और अविरति का निषेध अनाचार परिहारपवेश-२ ३१७ १४२ भिक्षु के विविध अनाचरणीय स्थान ३१८ १४३ ३१९ १४४ छः उन्माद स्मान सामुदानिक मवेषणा नहीं करने वाला ३२० पापत्रमण ३२१ स्वच्छन्द विहारी पाए श्रमण ३२२ श्रुतज्ञान की उपेक्षा ३२३ भसविभागी पापश्रमण ३२४ आरम्भ-जीवी को पापासक्ति १५१ बार-बार आहार करने वाला पापत्रमण ३२७ प्रमाव निषेध-३ प्रमाद निषेध ३२८ अप्रमत्त होकर आचरण करने का उपदेश ३२९ १५४ प्रमाव के प्रकारछ: कल्प के विघ्न करने वाले स्थान छः प्रकार के प्रमाद ३३० दस धर्म के घातक दस धर्मविशोधि १५७ अठारह प्रकार के पापस्थान अदिशिकादि समाचार-५ औदेशिकादि अनाचार सबल दोष-६ इकबीस शबल दोष असमाधि स्वान-७ बीस असमाधि स्थान ३३६ महनीय स्थान-८ तीस महामोहनीय स्थान ረ किया स्थान-९ ३३९ तेरह क्रियास्थान २४० मिमित्त कपन-१० आठ प्रकार के महानिमित्त निमित्त कथन निषेध निमित्त का प्रयोक्ता पापश्चमण १७० कषाय निषेध-११ ३४५ कषाय निषेध १७२ कषायों को अग्नि की उपमा १७२ आठ प्रकार के मद ३४८ १७३ मद निषेध ३४९ १७३ रूपमद निषेध लज्जा निषेध कषाय और गर्व का निषेध ३५० १७४ साम्परायिक काँका त्रिकरण निषेध ३६७ विराधक अकाम कष्ट भोगने वाले विराधक भद्र प्रकृति मनुष्य विराधक स्त्रियों विराधक बाल तपस्वी विराधक वानप्रस्थ विराधक कादर्पिक श्रमण विराधक परिद्राजक निराधक प्रत्यनीक श्रमण विराधक आजीविक विराधक आत्मोत्कर्षक श्रमण विराधक निन्हव कादर्पिक आदि विराधक श्रमण विराधकों के संयम का विनाश निवान-अनिवान से आराधना-विराधना-४ (१) निर्ग्रन्थ का मनुष्य सम्बन्धी भौगों के लिए निदान करना (२) निर्ग्रन्थी का मनुष्य सम्बन्धी भोगों के लिए निदान करना (३) निन्य का स्त्रीत्व के लिए निदान करना (४) निर्ग्रन्थी का पुरुषत्व के लिए निदान करना (५) निन्य निर्गन्थी द्वारा पर-देवी परिचारणा का निदान करना (६) निर्ग्रन्थ निर्ग्रन्थी द्वारा स्व-देवी परिचारणा का निदान करना (७) निर्ग्रन्य-निर्ग्रन्धी के द्वारा सहज दिव्य भोग का निदान करना (८)श्रमणोपासक होने के लिए निदान करना (९) श्रमण होने के लिए निदान करना निदान रहित की मुक्ति सप की फलाकाक्षा का निषेध बास-परित मरण से आराधना-विराधना-५ अनेक प्रकार के मरण बालमरण के प्रकार मरण के प्रकार मज्ञानियों के बालमरण बालमरण का स्वरूप पण्डितमरण का स्वरूप बासमरण और पंपिडतमरण का फल बीतराग सम्मत बेहानस बालमरण बालमरण की प्रशंसा के प्रायश्चित्त सूत्र अनाचार अमाचार निषेधअनाचार का निषेध १८१ ३६८१८१ ३६९१८५ १६४ २७० १८५ ३७१ १८९ १६८ १९० १९० ३७३ १९० ३७५ ३७६ ३७७ ३७८ ३७९ १९२ ३८० २८१ २८२ १९२ १९२ १९२ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय क्रोधविजय का फल मान विजय का फल माया विजय का फल लोभ विजय का फल अनाचार प्रायश्चित - १२ अधिक हँसने का प्रायश्चित्त सूत्र शिल्पकलादि सिखाने का प्रायश्चित्त सूत्र अपशब्द और कठोर वचन के प्रायश्चित्त सूत्र आतिना का प्रायश्चित सूत्र सचित गद्य सैंधने का प्रायश्चित्त सूत्र कौतुक कर्म का प्रायश्चित सूत्र भूति कर्म करने का प्रायश्चित्त सूत्र प्रश्नादि कहने के प्रायश्चित्त सूत्र लक्षण - व्यंजन स्वप्नफल कहने के प्रायश्चित सूत्र विद्यादि का प्रयोग करने के प्रायश्चित्त सूत्र मार्गादि बताने का प्रायश्चित्त सूत्र धातु और निधि बताने के प्रायश्चित सूत्र अपने आपको आचार्य के लक्षण युक्त करने का प्रायश्चित सूत्र निमित्त कथन के प्रायश्चित्त सूत्र भयभीत करने के प्रायश्चित्त सूत्र विस्मित करने के प्रायश्चित सूत्र विपर्यासकरण प्रायश्चित्त अन्यतीर्थिकों की प्रशंसा करने का प्रायश्वित्त सूत्र स्वच्छन्दाचारी की प्रशंसा एवं वंदना करने के प्रायश्चित्त सूत्र संघ व्यवस्था १ तीर्थ का स्वरूप तीर्थ प्रवर्तन का काल जिन के प्रकार केवली के प्रकार अरिहन्त के प्रकार रात्निक पुरुषों के प्रकार रात्निक इन्द्रों के प्रकार स्थविर के प्रकार महाव्रत धर्म के प्ररूपक दुर्गम-सुगम स्थान पाँच प्रकार के व्यवहार अनुज्ञा के प्रकार " संघ व्यवस्था सूत्रांक पृष्ठाक ३८३ १९३ ३८४ १९३ ३८५ १९३ ३८६ १९३ ३८७ १९४ ३८८ १९४ ३८९ १९४ ३९० १९४ ३९१ १९५ ३९२ १९५ ३९३ १९५ ३९४ १९५ ३९५ ३९६ ३९७ १९६ ३९८ १९६ ३९९ YOO ४०१ ४०२ ४०३ ४०४ १९५ १९६ ४०५ १९६ १९७ १९७ १९७ १९७ १९७ १९८ ४०६ १९८ ४०७ १९८ YOU १९९ ४०९ १९९ १९९ ४१० ४११ १९९ ४१२ १९९ ४१३ १९९ ४१४ २०० ४१५ २०० ४१६ २०० ४१७ २०१ समनुज्ञा के प्रकार उपसम्पदा के प्रकार पद त्याग के प्रकार तीन प्रकार से आत्म रक्षा जलाशय जैसे आचार्य आचार्य के प्रकार शिव्य के प्रकार विविध प्रकार के गण की वैयावृत्य करने वाले आचार्य के अतिशय- २ आचार्य आदि के अतिशय ऋद्धि के प्रकार गणि-सम्पदा आचार-सम्पदा श्रुत-सम्पदा शरीर-सम्पदा वचन- सम्पदा वाचना सम्पदा मति सम्पदा प्रयोग-सम्पदा संग्रह परिज्ञा सम्पदा सात संग्रह असंग्रह स्थान निर्ग्रन्थ पव व्यवस्था-४ आचार्य उपाध्याय पद योग्य निर्ग्रन्य आचार्य उपाध्याय पद के अयोग्य निर्ग्रन्थ एक पक्षीय भिक्षु को पद देने का विधान ग्लान आचार्यादि के द्वारा पद देने का निर्देश संयम त्याग कर जाने वाले आचार्यादि के द्वारा पद देने का निर्देश पापजीवी बहुतों को पद देने का निषेध आचार प्रकल्प विस्मृत को पद देने का विधि-निषेध अब्रह्मसेवी को पद देने के विधिनिषेध संयम त्याग कर जाने वालों को पद देने का विधि-निषेध उपाध्याय पद देने के विधि-निषेध अनवस्थाप्य और पाराधिक भिक्षु की उपस्थापना आचार्य के नेतृत्व के बिना विचरने का निषेध गणधारण करने योग्य अणगार गणधारण करने का विधि-निषेध अग्रणी के काल करने पर भिक्षु का कर्तव्य निर्गन्धी पद व्यवस्था-४ (८२) ४१८ २०१ ४१९ २०१ ४२० २०२ ४२१ २०२ ४२२ २०२ ४२३ २०२ ४२४ २०३ ४२५ २०३ ४२६ २०५ ४२७ २०५ ४२८ २०६ ४२९ २०६ ४३० २०६ ४३१ २०६ ४३२ २०७ ४३३ २०७ २०७ ४३४ ४३५ २०८ ४३६ २०८ ४३७ २०८ ४३८ ४३९ 180 ४४१ ४४२ 17 ४४४ ४४५ ४४६ ४४७ *. २०९ २१० २११ २११ २१२ २१२ २१३ २१४ २१५ २१५ २१६ ४४९ २१६ ४५० २१६ ४५१ २१६ ४५२ २१७ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय ४७७२२९ ४७८ ४७९ ४८० २२९ २३० २३० ९. ४८१ २३० २३१ ४८२ ४८३ ४८४ ४८५ २३२ २३३ ४८६ ४८७ २३३ २३३ ४८८ २३४ ४८९ २३४ ग्लान प्रवर्तनी के द्वारा पद देने का निर्देश संयम परित्याग करने वाली प्रवर्तिनी बारा पद देने का निर्देश निर्ग्रन्थी के लिए आचार्य उपाध्याय पद योग्य निर्ग्रन्थ आचार प्रकल्प विस्मृत निन्धी को पद देने का विधि-निषेध आचार्यादि के नेतृत्व के बिना निर्ग्रन्थी के रहने का निषेध अग्रणी साध्वी के काल करने पर साध्वी का कर्तव्य विनय-व्यवहार-५ प्रव्रज्या पर्याय के अनुक्रम से वन्दना का विधान शैक्ष और रत्नाधिक का व्यवहार रत्नाधिक को अग्रणी मानकर विचरने का विधान अध्यापन व्यवस्था-६ श्रमण का अध्ययन क्रम आचार प्रकल्प के अध्ययन योग्य वय का विधि-निषेध विचरण-व्यवस्था-७ आचार्यादि के साथ रहने वाले निर्ग्रन्थों की संख्या प्रवर्तिनी आदि के साथ विचरने वाली निन्थियों की संख्या अकेली निन्थी को जाने का निषेध निर्गन्ध-निर्ग्रन्थियों के विचरण क्षेत्र की मर्यादा निर्ग्रन्ध-निन्थियों के विहार करने का विधि-निषेध विकट क्षेत्र में जाने का विधि-निषेध रात्रि में उपाश्रय से बाहर जाने का विधि-निषेध अन्तःपुर में प्रवेश के कारण निर्ग्रन्य-निन्धी के सामूहिक व्यवहार-८ साधु-साध्वी के वार्तालाप करने के कारण साधु-साध्वी के एक स्थान पर ठहरने के कारण अचेलक के सचेलिका के साथ रहने के कारण निर्ग्रन्थीको अवलम्बन देने के कारण सूलांक पृष्ठाक निर्ग्रन्य-निर्ग्रन्थी के सामूहिक साधर्मिक ४५३ अन्य कर्म २१८ निर्ग्रन्थ-निर्गन्थी के परस्पर सेवा करने के विधान ४५४२१८ परस्पर सेवा करने का विधि-निषेध परस्पर मालोचना करने के विधि-निषेध परस्पर प्रस्रवण ग्रहण करने का ४५६ २१९ विधि-निषेध सामोगिक संबध व्यवस्था-९ ४५७ श्रमणों के पारस्परिक व्यवहार २२० सम्बन्ध विच्छेद करने के कारण ४५८ २२० सम्बन्ध विच्छेद करने का विधि-निषेध समनोज-असमनोजों के व्यवहार सदृश आचारवान को स्थान न देने के ४५९ २२१ प्रायश्चित्त सूत्र गाभोग प्रामाभ्यानका फल गृहस्व के साथ व्यवहार-१० ४६१ २२१ सर्पदंश चिकित्सा के विधि-निषेध गृहस्थ आदि के साथ भिक्षार्थ जाने का ४६२ २२३ निषेध गृहस्थ आदि के साथ भिक्षार्ध जाने का प्रायश्चित्त सूत्र गृहस्थ आदि को अशनादि देने का निषेध माग-माँग कर याचना करने के ४६४.२२४ प्रायश्चित्त सूत्र गृहस्थ से उपधि बहन कराने के ४६५ २२५ प्रायश्चित्त सूत्र ४६६ २२५ गृहस्थ को आहार देने का प्रयश्चित्त सूत्र गृहस्यों के साथ आहार करने के प्रायश्चित्त सूत्र गणापक्रमय-११ ४६८ २२६ भिक्षु द्वारा गण-परित्याग आचार्य-उपाध्याय द्वारा गण परित्याग श्रुत ग्रहण के लिए अन्य गण में जाने का ४७० २२६ विधि-निषेध साभोगिक व्यवहार के लिए अन्य गण मे जाने का विधि-निषेध ४७३ २२७ साभोगिक व्यवहार के लिए गणसंक्रमण का प्रयश्चित सूत्र २२७ आचार्य आदि को वाचना देने के लिए अन्य गण में जाने का विधि-निषेध ४७५ २२८ अन्य गण से आये हुओं को गण में २२९ सम्मिलित करने के विधि-निषेध ४९०२३४ ४९१ २३४ ४९२ २३५ ४९३ २३६ ४९५ २३६ २३७ २३७ ४९७ ४९८ २३८ ४९९ २३९ ५०० २४१ ५०१ २४१ (८३) Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय ५३८ ५३९ ५४० २५७ २५८ २५८ २५८ २५९ २६० २६० २६० ५४७ ५४८ २६२ ५१५ ५५० २६३ ५१८ २६५ ५५३ एकल विहार चर्या-१२ एकल बिहारी के आठ गुण अकेले भिक्षु के रहने का विधि-निषेध अपरिपक्व एकाकी भिक्षु के दोष अपवाद में एकाकी विहार का विधान एकाकी भिक्षु की प्रशस्त विहार चर्या एकाकी भिक्ष की अप्रशस्त विहार चर्या एकाकी विहारी का गण में पुनरागमन एकाकी विहारी को समाधि पनवस्य आदि के साथ व्यवहार व्यवस्था-१३ पारिहारिक के साथ भिक्षार्थ जाने का प्रायश्चित्त सूत्र पार्श्वस्थ के साथ देन-लेन करने के प्रायश्चित्त सूत्र अवसत्र के साथ देन-लेन करने के प्रायश्चित्त सूत्र कुशील के साथ देन-लेन करने के प्रायश्चित्त सूत्र संसक्त के साथ देन-लेन करने के प्रायश्चित्त सूत्र नित्यक को देने-लेने के प्रायश्चित्त सूत्र पार्श्वस्थ विहारी का गण में पुनरागमन यघाच्छन्द विहारी का गण में पुनरागमन कुशील विहारी का गण में पुनरागमन अवसन्न विहारी का गण में पुनरागमन संसस विहारी का गण में पुनरागमन अन्य लिग ग्रहण के बाद गण में पुनरागमन कलह और उसकी उपशान्ति-१४ क्लेश के प्रकार असंक्लेश के प्रकार अहित करने वाले स्थान हित करने वाले स्थान गण विग्रह के कारण गण में विग्रह न होने के कारण कलह उपशमन के विधि-निषेध अन्य के अनुपात रहने पर भी स्वयं को उपशात होने का निर्देश भनुपशान्त भिक्षु को पुनः स्वगण में भेजना समापना का फल कलह करने का प्रायश्चित्त सूत्र एकाकी आगन्तुक भिक्षु को बिना निर्णय रखने का प्रायश्चित सूत्र कलह करने वालों के साथ आहार करने का प्रायश्चित्त सूत्र कदाग्राही के साथ लेन देन करने के प्रायश्चित्त सूत्र सूबाक पृष्ठांक आगम के अनुसार प्रायश्चित देने व ग्रहण करने का विधान ५०३ २४४ तपाचार ५०४ सप का स्वरूप एवं प्रकार-1 तपकार ५०६ तप के प्रकार ५०७ २४५ आजीविक तप के प्रकार ५०८ २४६ अनपान सप-२ अनशन के प्रकार ५०९ २४६ ५९० २४६ इत्वरिक लपके भेद तपस्वी भिक्षु के कल्पनीय पानी आजीवन अनशन संलेखना का काल क्रम पंडित मरण का स्वरूप ५१३ २४७ पण्डित मरण के प्रकार भक्त-प्रत्याख्यान अनशन २४८ भक्त प्रत्याख्यात अणगार का परभव में २४८ आहार २४९ इगिनिमरण अनशन ग्रहण विधि ५१७ २५१ पादपोगमन अनशन ग्रहण विधि २५१ पादपोगमन अनशन २५१ ५२० २५१ अनशन ग्रहण करने की दिशाएँ अनशन का फल ५२१ अवमोदरिका-३ ५२२ २५२ अवमोदरिका के भेद द्रव्य अवमोपरिका का स्वरूप ५२३ २५२ द्रव्य अवमोदरिका के भेद-प्रभेद ५२४ २५२ क्षेत्र अवमोदरिका २५३ काल अवमोदरिका ५२६ २५३ भाव अवमोदरिका पर्यव अवमोदरिका ५२८ २५३ भिक्षाचर्या-४ ५२९ २५४ भिक्षाचर्या का स्वरूप भिवाचर्या के प्रकार रस परित्याग-५ रस परित्याग का स्वरूप ५३२ २५५ रस परित्याग के प्रकार ५३३ २५५ काय-क्लेश-६ काय-क्लेश का स्वरूप ५३४ २५५ काय-क्लेश के प्रकार निर्गन्धियों के लिए आतापना का विधि२५५ निषेध निन्थियों के लिए निषिद्ध काय-क्लेश ५३६ २५६ प्रतिसलीनता-७ (८४) २५१ ५५६ ५५७ ५५८ २६६ २६६ २६७ ५६० ५६१ २६८ २६८ ५६२ २६८ ५३० ५३१ २५५ ५६४ ५६५ २७२ २७२ ५६६ ५६७ २७३ २७३ ५६८ ५६९ २७४ २७५ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय ५७२ २७८ ६१८ ५८३ ६२१ ५८५ २८२ ६२३ २९७ २९७ ६२४ प्रलिसलीनता के भेद इन्द्रिय प्रतिसलीनता के भेद कषाय प्रतिसलीनता के भेद योग प्रति संलीनता के भेद एकान्त शयनासन के सेवन का स्वरूप विविक्त शयनासन के सेवन का फल अनेक प्रकार के अप्रतिसलीन प्रतिमाये-८(१) अनेक प्रकार की प्रतिभायें भिक्षु प्रतिमाये-८.(२) भिक्षु प्रतिमाये प्रतिमा आराधन काल में उपसर्ग मासिकी भिक्षु प्रतिमा प्रतिमाघारी के भिक्षा काल प्रतिमाधारी की गोचर चर्या प्रतिमाधारी का वसतिवास काल प्रतिमाधारी की कल्पनीय भाषायें प्रतिमाधारी के कल्पनीय उपाश्रय प्रतिमाहारी के कल्पनीय संस्तारक प्रतिमाघारी को स्त्री-पुरुष का उपसर्ग प्रतिमाघारी को अग्नि का उपसर्ग प्रतिमाधारी को ढूंठा आदि निकालने का निषेध प्रतिमाघारी को प्राणी आदि निकालने का निषेध सूर्यास्त होने पर बिहार का निषेध सचिस पृथ्वी के निकट निद्रा लेने का निषेध मलावरोध का निषेध सचित्त रजयुक्त शरीर से गोचरी जाने का निषेध हस्तादि होने का निषेध दुष्ट अश्वादि का उपद्रव होने पर भयभीत होने का निषेध सर्दी और गर्मी सहन करने का विधान भिक्षु प्रतिमाओं का सम्यग् आराधन द्वि मासिकी भिसु प्रतिमा त्रैमासिकी भिक्षु प्रतिमा चातुर्मासिकी भिक्षु प्रतिमा पचमासिकी भिसु प्रतिमा षण्मासिकी भिक्षु प्रतिमा सप्तमासिकी भिस् प्रतिमा प्रथम सप्त अहोरात्रिकी भिक्षु प्रतिमा सूक पृष्ठांक द्वितीय सप्त अहोरात्रिकी भिक्षु प्रतिमा ६०६ २८६ तृतीय सप्त अहोरात्रिकी भिक्षु प्रतिमा ६०७ २८६ ५७० २७५ अहोरात्रिकी भिक्षु प्रतिमा ६०८ २८७ ५७१ २७६ एक रात्रिकी भिक्षु प्रतिमा ६०९ २८७ २७६ प्रतिमा ग्रहण करने से मुक्ति ६१० ૨૮૮ ५७३ २७७ एषणा प्रतिमाएँ-८ (३) ५७४ २७८ आहार लेने की सात प्रतिमाएँ ६११. २८८ ५७५ २५८ पानी लेने की सात प्रतिमाये २९० प्रतिमा धारण करने वाले का वचन विवेक २९१ सस्तारक लेने की चार प्रतिमाये २९२ ५७७ २७९ वस्त्र लेने की चार प्रतिमाएँ पात्र लेने की चार प्रतिमाएँ २९४ ५७८ स? रहकर कायोत्सर्ग करने की चार २८० प्रतिमाएँ ६१७ २९५ ५८० २८१ अवग्रह लेने की सात प्रतिमाएँ २९५ ५८१ २८१ दत्ति-परिमाऐ-40 ५८२ सप्तसप्तमिका भिक्षु प्रतिमा २९६ २८२ अष्ट-अष्टमिका भिक्षु प्रतिमा ६२० २९७ नव-नवमिका भिक्षु प्रतिमा २९७ दश-दशमिका भिक्षु प्रतिमा ५८६ २८ दो प्रकार की चन्द्र प्रतिमाये ५८७ मबमध्य चन्द्र प्रतिमा ५८८ वज मध्य चन्द्र प्रतिमा ६२५ ३०१ दत्ति प्रमाण निरूपण ३०५ ५८९ मोक प्रतिमा-विधान प्रतिमा सग्रह-८ (५० ५९० प्रतिमाओं का संग्रह ३०७ विनय वैयावृत्य की प्रतिमाएँ ६२९ ३०८ ५९२ २८३ १० प्रायश्चित्त (क) (आभ्यन्तर तप) (१) आभ्यंतर तप का प्ररूपण ६३० आभ्यंतर तप के भेद ६३१ ३०९ ५९४ प्रायश्चित्त योग्य चारित्र ५९५ २८४ प्रायश्चित्त योग्य प्रतिसेवना के प्रकार ६३३ २०१ प्रायचित्त का स्वरूप ६३४ ३१० ५९६ २८४ प्रायश्चित्त के प्रकार ६३५ ३१० ५९७ २८५ आरोपणा-१(क) ५९८ २८५ आरोपणा के पाँच प्रकार ५९९ २८५ आरोपणा के अट्ठाइस प्रकार २८५ दो मास प्रायश्चित्त की स्थापिता आरोपणा ६३८ ६०१ २८५ दो मास प्रायश्चित्त की प्रस्थापिता आरोपणा वृद्धि ६३९ ।। ६०२ २८५ एक मास प्रायश्चित की स्थापिता आरोपणा ६४० ६०३ २८५ एक मास प्रायश्चित की प्रस्थापिता आरोपणा वृद्धि ६४१ ३१५ ६०४ २८६ मालिक और दो मासिक प्रायश्चित्त की ६०५ २८६ प्रस्थापिता आरोपणा वृद्धि (८५) ३०५ ६३२ ३०९ ६३६ ३ ६०० ३१४ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૨૮ सूत्राक पृष्ठाक वैयावृत्य-विधान ग्लान के निमित्त भैजे गये आहार ६४३३१८ का विधि-निषेध विशिष्ट 'चर्या में सेवा करने के संकल्प वैयावृत्य का फल ६४६ ३२० वैयावृत्य न करने आदि का प्रायश्चित्त सूत्र सागरमाने का प्रायश्चित्त सूत्र ६४५ ૬૭૭ ६७८ ६७२ ६८० ६८१ सूत्रांक ३४० विषय ३४१ पृष्ठाक ६४८ ६४९ ६५० ६५१ ६८२ ६८३ ६८४ २४२ ३४२ ३४२ ६५४ ३४३ ६८५ ६८६ ६८७ ३२४ ६५५ ६५६ ३४३ ३४३ ६८८ ६ ८९ ६९० ३४ ६५७ ६५८ ६५९ ३३० विषय आलोचना-१(ग) आलोचना के कारण आलोचना के दोष आलोचना करने का क्रम आलोचना श्रवण के योग्य आलोचना करने के योग्य साधर्मिकों की आलोचना तथा प्रस्थापनाविधि आलोचना न करने वाले का आध्यान आलोचना करने के कारण आलोचना न करने के कारण आलोचना न करने का फल आलोचना करने का फल बालोचना का फल कपट साहेत तथा कपट रहित आलोचक को प्रायश्चित्त देने की विधि प्रस्थापना में प्रतिसेवना करने पर आरोपणा आलोचना और प्रायश्चित्त-१(घ) आक्षेप लगाने वालों को प्रायश्चित्त अनुदातिक प्रायश्चित्त के योग्य अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त के योग्य अनवस्थाप्य ग्लान भिक्षु को मघु प्रायश्चित्त देने का विधान घेदोपस्थापनीय प्राथपिचत के योग्य पाराचिक प्रायधिचत्त के योग्य पारापित ग्लान भिक्षु को लघु प्रायश्चित्त देने का विधान लघु प्रायश्चित्त के योग्य प्रायश्चित्त का फल आत्मनिंदा का फल अनेक प्रकार की माँ आत्मगहों का फल परिहारिक तप-१ (क) परिहारिक और अपरिहारिकों का निषद्यादि व्यवहार परिहारिक और अपरिहारकों के परस्पर आहार सम्बधी व्यवहार परिहारकल्पस्थित रुग्ण भिक्ष की अल्प प्रायश्चित्त देने का विधान परिहार कल्पस्थित भिक्षु की वैयावृत्य यावृत्य-२ वैयावृत्य स्वरूप वैयावृत्य करने वालो की चीभगी वैयावृत्य के प्रकार ६९२ ३४४ ६६० ६९४ ६९५ ६६२ الله ३२० स्वाध्याप-३ स्वाध्याय के भेद ३२१ सूत्र सीखने के हेतु ३२२ स्वाध्याय का फल अन्यतीथिकादि के साथ स्वाध्याय भूमि गमन ३२४ प्रायश्चित्त सूत्र निन्दित कुल में स्वाध्याय देने का प्रायश्चित्त सूत्र सूत्र वाचना के हेत ३२७ सूत्र वाचना के योग्य सूत्र वाचना के अयोग्य सूत्र वाचना का फल ३३० घृणित कुल में वाचना देने लेने के ३३० प्रायश्चित्त सूत्र अविधि से वाचना देने के प्रायश्चित्त सूत्र पार्श्वस्थादि को वाचना देने के प्रायश्चित्त सूत्र प्रतिप्रश्न का फल पुनरावृत्ति का फल अनुप्रेक्षा का फल कधा के भेद प्रवचन का स्वरूप ३३२ धर्म कथा के विधि-निषेध धर्मकथा विवेक धर्मकथा का प्रभाव ३३४ धर्मकथा का फल स्त्री परिषद में रात्रि धर्म कथा करने का प्रायश्चित्त सूत्र ध्यान-४ निषि ध्यान और विहित ध्यान २३५ धान के भेद आर्तध्यान के भेद ३३६ आर्तध्यान के लक्षण ३३७ रौद्रध्यान के भेद रौद्रध्यान के लक्षण ३३७ धर्मध्यान के भेद ३३७ धर्मध्यान के लक्षण ३३७ धर्मध्यान के आलम्बन ६६३ الله ६९७ ३४६ ३४६ ३४८ ६६४ للع ३४८ الله ६९५ ७०० ३४८ ७०१ ३५० ७०२३५१ للبيع ६६७ ६६८ ७०३ ३५१ ६७० ६७१ ६७२ ७०४ ७०५ ७०६ ७०७ ७०८ ७०९ ७१० ३५२ ३५२ ३५२ ३५२ ६७३ ६७४ ६७५ ७१२ ३५३ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय सूनाक पृष्ठांक ७४९ ७५० ७५१ ३७४ ३७४ ३७५ ७१४ ३७६ ३५३ ३५४ ३५४ ३५४ ७५३ ३७६ ३७७ ७१७ ७५५ ३७७ ७१८३५५ ७१९ ३७७ ३७७ ७५७ ७५८ ३७७ ७५९ ७६० ७२१ ७२२ ७२३ ३५७ ३५७ ३५८ ३७७ ३७८ ३७८ ३७८ ३७८ ३७९ ७६२ ७६३ ७६४ ७२५ ७६५ ७६६ ३८० ७६७ ३८० ३८० ७६८ ७२७ ७६९ धर्मध्यान की अनुप्रेक्षाएं शुक्ल ध्यान के भेद शुक्लध्यान के लक्षण शुक्लध्यान के अवलम्बन शुक्लध्यान की अनुप्रेक्षाये कायोत्सर्ग-५ व्युत्सर्ग का स्वरूप व्युत्सर्ग के भेद प्रभेद कायोत्सर्ग का फल तपसमाधि एवं फल-६ तपाचरण का उद्देश्य तपआचरण का फल तपादि के चोरों की दुर्गति तपस्वियों और नरषिकों के कर्म निर्जरा की तुलना तप से प्राप्त चारणलब्धि का वर्णन वीर्याचार वीर्य का स्वरूप-१ वीर्य का स्वरूप बालवीर्य आदि की विवक्षा वालवीर्य का स्वरूप अन्न ही उपदेश योग्य है सकर्मवीर्य का स्वरूप अकर्मवीर्य का स्वरूप पण्डित वीर्य का स्वरूप तितिक्षा से मोक्ष समाधि युक्त की सिद्धगति मान्तचित्त वालों की वीर्यहानि भीषह जप-२ परीषह सहने से कर्मों का क्षय परीषह के प्रकार परीषह प्ररूपणा (१) सुधा परीषह (२) पिपासा परीषह (३) शीत परीपह उष्ण परीषह देश मशक परीपह अचेल परीषह अचेलत्व का प्रशस्त परिणाम (७) अरसि-परीषह (2) स्त्री परीषह (९) चर्या परीषह ३६३ ३६३ (१०) निपीधिका परीषह (११) शय्या परीषह (१२) आक्रोश परीषह (१३) वध परीषह . (१४) याचना परीषह (१५) अलाभ परीषन (१६) रोग परीषह (१७) तृण स्पर्श परीषत (१८) जल परीषह (१९) सत्कार पुरस्कार परीषह (२०) प्रज्ञा परीषह (२१) अज्ञान-परीषह (२२) दर्शन-परीषह सभी परीषह जीतने का निर्देश परीषहीं से अपराजित मुनि परीषहों से पराजित मुनि परीषह सहन करने वाला भिक्षु परीषहजय का फल उपसर्ग-जप-३ अनेक प्रकार के उपसर्ग देवकृत उपसर्ग मानवकृत उपसर्ग तिर्यचकृत उपसर्ग अविधेकोत उपसर्ग प्रतिकूल उपसर्ग मोह संग सम्बधी उपसर्ग उपसर्गों से अपीडित मुनि पूर्व पुरुषों के दृष्टात से सयम शिथिल मुनि परीषद सहने का निर्देश परीषह सहने का फल पचेन्द्रिप विरतिकरण-४ शब्द की आसक्ति का निषेध रूप की आसक्ति का निषेध गध की आसक्ति का निषेध रस की आसक्ति का निषेध स्पर्श की आसक्ति का निषेध वीर्य-शाक्ति-५ समत्व बुद्धि से आत्म-शक्ति का समुत्थान आत्म-वीर्य में चार अग दुर्लभ आत्म-बल से कर्म क्षय मुनित्व से कर्म क्षय अप्रमस भावना से करणीय कृत्य आज्ञानुसार आचरण करने का उपदेश प्रमाद परित्याग का उपदेश ३८० ७७० ३८१ ३८१ ७३० ३६४ ३८१ ७७२ ७७३ ३८१ ७३२ ७३३ ३६५ ३६६ فای ७७५ ३८३ ३८४ ३८५ ३८५ ७३५ ३६७ ७७७ ७३६ ३६८ ७७८ ७७९ ७८० ७८१ ७८२ ३८५ ३८६ ३८८ ३८९ ३९० 6838 ७४० ७४१ ७४२ ७४३ ७४४ ७४५ ७४६ ३६९ ३६९ ३६९ ३७० ३७० ३७० ३७१ ३७१ ३७२ ३७४ ७८४ ५८५ ३९२ ३९२ ३९२ ३९२ ७८७ ७८८ ७८९ १९३ ३९३ ७४८ ३९४ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय तीन प्रकार की धर्म जागरणा एकत्व अन्यत्व भावना अनित्य [- भावना अशरण भावना मैत्री भावना संवर भावना संयम में पराक्रम- ६ प्रज्ञावानों का पराक्रम पण्डित का पराक्रम समत्वदर्शी का पराक्रम मुक्तात्मा का स्वरूप वीर पुरुष का पराक्रम भिक्षु का पराक्रम आत्मगुप्त भिक्षु का पराक्रम मेधावी मुनि का पराक्रम महर्षि का पराक्रम परिग्रह के परित्याग में अप्रमत का पराक्रम कर्म भेदन में पराक्रम सूखाक पृष्ठाक ७९० ३९४ ७९१ ३९४ ७९२ ३९५ ७९३ ३९५ ७९४ ३९६ ७९५ ३९६ ७९६ ३९६ २७९७ ३९७ ७९८ ३९७ ७९९ 194 200 ३९७ ८०१ ३९९ ८०२ ३९९ ८०३ ४०० COY ४०२ ८०५ ४०२ ८०६ ४०२ कषायों को कुश करने का पराक्रम बंधन से मुक्त होने का पराक्रम लोकज्ञ ही आत्मज (८८) आत्मवादी का सम्यक् पराक्रम ज्ञानादि से युक्त भुनि का पराक्रम समाधि के इच्छुक श्रमण का पराक्रम संयम में पराक्रम करने वाले की मुक्ति धर्म मे पराक्रम के लिए एलक का दृष्टांत धर्म में पराक्रम के लिए काकिणी और आम्र का दृष्टात धर्म में पराक्रम के लिए वणिक का दृष्टात धर्म में पराक्रम के लिए दिव्य मानुषिक भागको तुलगा धर्म में पराक्रम के लिए उपदेश धर्म में पराक्रम का समय वीतराग भाव-७ वीतराग भाव की प्ररूपणा कर्म निर्जरा का फल भीतरागता का फल उपसंहार | • ८०७ ४०३ ८०८ ४०३ ८०९ ४०४ ८१० ४०४ ८११ ४०४ ८१२ ४०४ ८१३ ४०५ ८१४ ४०६ ८१५ ८१६ ८१७ ८१८ ८१९ ८२० ૮૨ ८२२ ८२३ ४०७ ४०७ ४०८ ४०८ ४०८ ४०९ ४११ ४९१ ४११ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -संकेत स्पष्टीकरण Here प्रस्तुत ग्रन्थ में उद्धृत आगमों के संक्षिप्त संकेतों का स्पष्टीकरण आ. सु. ब. उ. सु. आधारांग, श्रुतस्कन्ध, अध्ययन, उद्देशक, सूत्र आ. अ. मावश्यक सूत्र, अध्ययन उ.म. गा. उत्तराध्ययन, अध्ययन, गाथा उप.सु. उथवाइ (औपपातिक) सूत्र उवा. अ. उवासगदशा (उपासकदशा) अध्ययन कप्प. उ. सु. कल्पदशा (बृहत्कल्प सूत्र) उद्देशक, सूत्र ठाण. अ. उ.स. ठाणांग, अध्ययन (स्थान) उद्देशक, सूत्र णाया. अ. णायाधम्मकहा (शाता धर्मकथा) अध्ययन दस.अ. गा. दशर्वकालिक, अध्ययन, गाथा दसा.द. दशाथ तस्कन्ध-दशा, सूत्र नि. उ. निशीय सूत्र, उद्देशक, सूत्र पण्ह. (प.) सु अ. सु. पण्हावागरण (प्रश्न व्याकरण) श्रुतस्कन्ध, अध्ययन, सूत्र धच. उ. व्यवहार सूत्र उद्देशक वि. (विया) स. उ. विवाह प्रज्ञप्ति (भगवती सूत्र) शतक, उद्देशक सम. स. समवायांग, समवाय सूत्र सूय. अ. उ. गा. सूयगडांग (सूत्रकृतांग श्रुतस्कन्ध, अध्ययन, माथा Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 好好好好好好好好好好丘与好丘 चरणानुयोग [ d ] 好好与坏女式耳环长44h好丘丘丘占占占占占占占占占占占占 好好好好好好好好好与马丘好好好好好 चारित्राचार [gan m and Her: ] F兵马云马五岳岳虹 Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१) दीक्षा प्रवज्या ग्रहण : विधि-निषेध–१ घमंतराय कम्मखओवसमेणं पक्ष्वज्जा धर्मान्तराय कर्मों के क्षयोपशम से प्रवज्या*१३३९. ५०-असोचा गं भंते ! केवलिस वा-जाव-सप्पक्खिय- १३२९. प्र.--भन्ते ! केवली से-पावत्-केवलिपाक्षिक उपासिका उवासियाए वा केवलं मुण्ड मवित्ता अगाराओ अग- से बिना सुने कोई जीव मुण्डित होकर गृहस्थावास को छोड़कर गारियं पवएग्जा? प्रजित हो सकता है? उ०—गोयामा ! असोच्चा पं फेलिस्स वा-जाव-तप्पक्खिय- 30-गौतम ! केवली से --यावत्-केवलिपाक्षिक उपा उवासियाए वा अरगतिए केवल मुंडे भवित्ता अगा- सिका से सुने बिना कोई एक जीव मुण्डित होकर गृहस्थादास राओ अणगारियं पधएज्जा, अत्यगतिए केवल मुंडे को छोड़कर प्रअजित हो सबता है और कोई एक जीव मुण्डित मविप्ता अगाराओ अणगारियं नो पब्वएग्जा। होकर गृहस्थावास को छोड़कर पनजित नहीं हो सकता है। प-से केणठे भंते । एवं बुच्चद - प्र. . भन्ते ! किस प्रयोजन से ऐसा कहा जाता है? असोच्या गं फेवलिस वा-जाव-तप्पक्खिय-उवासियाए केवली रो-यामत् केवलिपाक्षिक उपासिका से सुने था अन्यगतिए केवल मुंहे भक्त्तिा अगाराओ अण- बिना कोई एक जीव मुण्डित होकर गृहस्थावास को छोड़कर गारिणं परवएज्जा, अत्यगलिए केवलं मुंरे भवित्ता प्रत्रजित हो सकता है और कोई एक जीव मुण्डित होकर गृहस्थाअगरराओ अणगारियं नो पश्वएज्जा वास छोड़कर प्रवजित नहीं हो सकता है ? उ.- गोयमा ! जस्स ण धम्मतराइयाण कम्माण खो- उ. - गौतम ! जिराके धर्मान्तराप कर्मों का क्षयोपशम पसमे कडे भवइ से णं असोचा फेवलिस वा-जाब- हुआ है वह केवली से—यावत् – केबलिपाशिक उपासिका से तप्पक्खिय-जवासियाए वा केवलं मुंडे भवित्ता अगा- सुने बिना मुण्डित होकर गृहस्थावास को छोड़कर प्रवजित हो रामो अणगारियं पश्य एज्जा । सकता है। जस्स ग धम्मंतराइया कम्मागं खओवसमे नो कई जिसके धर्मान्तराव कर्मों का प्रयोपशम नहीं हुआ है वह भवइ, से णं असोच्चा केवलिस वा-जाव-तपक्खिय- केबली से यावत्-केवलिपाक्षिक उपासिका से सुने बिना उत्रासियाए वा केवल मुझे भवित्ता अगाराओ अण- मुण्डित होकर गृहस्थावास को छोड़बार प्रजित नहीं हो गारियं नो पञ्ष एज्जा। सकता है। से तेणठेणं गोयमा ! एवं बुच्च ___ गौतम ! इस प्रयोजन से ऐसा कहा जाता है किअसोच्चा जं केलिस्स या-जाव-सप्यक्खिय-उवासियाए केवलि से-पावत्-केवलिपाक्षिक उपासिका से मुने अत्यगाइए केवलं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं बिना कोई एक जीव मुण्डित होकर गृहस्थावास को छोड़कर पच्चएज्जा अत्थेगइए केयसं मुंडे भवित्ता अगाराओ प्रत्रजित हो सकता है। और कोई एक जीव मुण्डित होकर अणगारियं नो पवएज्मा ।' गृहस्थावास को छोड़कर प्रवजित नहीं हो सकता है। ...वि. ग. ६, उ. ३१, सु. ४ यह सूत्रांक भाग १ से आगे चालू है। प्रथम भाग में १३३८ तक सूत्र हैं। १ (क) अनगार धर्म की प्राप्ति में चारित्रमोहनीय कर्म अन्तराय करता है अतः धर्मान्तराय कर्म, चारित्रमोहनीय कर्म ही है-- उसके क्षयोपशम से प्रवज्या ग्रहण की जा सकती है, ऐसा समझना चाहिए। (च) वि. स.६, उ. ३१, सु. १३ । Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ घरणानुयोग-२ प्रव्रज्या पालक की चौभंगी सूत्र १२३६-१३४० प०. सोच्चा णं भंते ! केलिस्स वा-जाव-तप्पवित्रयउवा- प्र० -- भन्से ! केवली से- यावत् -केबलिपाक्षिक उपा. सिस का केवल मुंजे भरिता अगाराओ अणगारियं सिवा से सुनकर कोई एक जीव मुष्टित होकर गृहस्थावास को पम्वएज्जा? छोड़कर प्रवजित हो सकता है ? ज०-गोयमा ! सोच्चा णं केवलिस वा-जाव-तपक्खिय- उ..गौतम ! केबली से यावत्-केवनिपाक्षिक उपा उवासियाए वा अत्येतिए केवल भविता सिका से सुनकर कोई एक जीव मुण्डित होकर गृहस्थावास को अगाराओ अणगारियं पवएज्जा, अत्येगतिए केवलं छोड़कर प्रव्रजित हो सकता है और कोई एक जीव मुण्डित होकर मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं नो परुषएग्जा। गृहस्थावास को छोड़कर प्रबजित नहीं हो सकता है। प०---से केणठेणं मंते ! एवं बुताई प्र.-भन्ते ! किस प्रयोजन से ऐसा कहा जाता है-- केवली से-यावत्- केवलिपाक्षिक उपासिका से सुनकर या अत्धेगतिए केवलं मुडे भविता अगाराओ अणगा- कोई एक जीव मुण्डित होकर गृहस्थावारा को छोड़कर प्रनजित रियं पध्वएग्जा, अत्यगतिए केवल म भवित्ता अगा- हो सकता है और कोई एक जीव मुण्डित होकर गृहस्थावास को राओ अणगारियं नो पश्चएग्जा? छोड़कर प्रबजित नहीं हो सकता है ? To-गोग्रमा ! जस्स गं धम्मतराइयाणं कम्माणं खओषस में उ०—गौतम ! जिसके धर्मान्तराय कमों का अयोपशम कडे भवइ से सोचा केवलिस्त वा-जाव-तप्पविषय- हुआ है वह कैश्वी से यावत्-केवलिपाक्षिक उपमिका से आवासियाए वा केवलं मुंडे भक्त्तिा अगाराओ अणगा- सुनकर मुण्ठित होकर गृहस्थावान को छोड़कर प्रवजित हो रिवं पश्यएज्जा। सकता है। जस्स गं धम्मतराइयाणं कम्माणं खोयसमे नो को जिसके धर्मान्तराय कर्मों का क्षयोपशम नहीं हुआ है वह भवइ, से णं सोचा केलिस्स या-जाव-तप्पविषय- केवली से - पावत् – केबलिपाक्षिक उपासिका से सुमबार मुण्डित उवासियाए वा केवसं मुंडे भवित्ता अगाराओ अण- होकर गृहस्थावास को छोड़कर प्रवजित नहीं हो गवना है । गारियं गो पवएज्जा। से सेणठे गं गोयमा ! एवं स्वइ गोलम ! इस प्रयोजन से ऐसा कहा जाता है किसोच्चा केवलिस्स वा-जाव-सप्पक्खियउवासियाए वा केबली सेय.व - केलिपाक्षिक उपासिका से मुनकर अत्येगहए केवल मुंडे मवित्ता अगाराओ अणगारियं कोई एक जीव मुण्डित होकर गृहस्थावान को छोड़कर प्रबजित पन्चएचजा । अत्धेगहए केवल मुंडे भवित्ता अगाराओ हो सकता है। कोई एक जीव मुण्डिस होकर गृहस्यावास को अणगारियं णो पब्बएग्जर। छोड़कर प्रवजित नहीं हो सकता है। -वि.स., उ. ३१, सु. ३२ पव्वज्जा पालगस्स चउभंगो-- प्रवज्या-पालक को चौभंगी१३४०. चत्तारि पुरिसजाया पण्णता, तं जहा १३४०. पुरुष चार प्रकार के कहे गये हैं। जैसे(१) सीहताए णाममेगे णिक्वंते सोहत्साए विहरइ, (१) कोई पुरुष सिंहवृत्ति से प्रत्रजित होता है और सिंह वृत्ति से ही विचरता है अर्थात संयम का दृढ़ता से पालन करता है। (२) लोहताए णाममेगे णिक्वते सियालसाए विहरह, (२) कोई पुरुष सिंहवत्ति से प्रवजित होता है किन्तु शृगाल वृत्ति से विचरता है, अर्थात् दीनवृत्ति से संयम का पालन करता है। (३) सौयालत्ताए गाममेगे णिक्खंते सोहसाए विहरइ, (१) कोई पुरुष मालवृत्ति से प्रवजित होता है, किन्तु सिंह्वत्ति से विचरता है, (४) सोयासत्ताए णाममेगे णिक्खते सीयालताए विहर। (४) कोई पुरुष शृगालवृत्ति से प्रभाजित होता है और ठाणं. अ. ४, उ. ३, सु. ३२६ शृगालवृत्ति से ही विचरता है। Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १३४१-१३४४ तीन प्रकार के संयत दीक्षा [३ तिविहा संजया तीन प्रकार के संयत*४१. (१) जे पुथ्वट्ठाइ णो पच्छाणिवाती, ४१. (१) सो महो प्रव्रज्या स्वीकार करते है और उसी ठिा से उसका पालन करते हैं वे साधना पथ से च्युत नहीं होते हैं। (२) मे पुम्बुढाई, पच्छाणिवाती, (२) जो पहले प्रत्रज्या स्वीकार करते हैं किन्तु बाद में उससे न्युत हो जाते है। (३) जे णो पुनवाई को पच्छाणिवातो । (३) जो न तो पहले प्रमज्या स्वीकार करते हैं और न ही बाद में च्युत होते हैं। से बिसारिसए सिया जे परिणाय लोगमपणे सयति । जो साधक लोक को परिक्षा से जानकर उसका त्याग कर पुनः लोषणा में संलग्न हो जाता है वह भी गृहस्थ जैसा ही हो जाता है। एवं णिवाय मुणिणा पवेदितं-इह आणाको पंरिते अणिहे यह केवलज्ञान से जानकर तीर्थंकरों ने कहा है--पंडित पुष्वावरराय जयमाणे सया सील संपेहाए सुणिया भवे मुनि आज्ञा में रुचि रखे, स्नेह न करे । रात्रि के प्रथम और अकामे अन्न। अन्तिम भाग में (स्वाध्याय और ध्यान) करे। सदा शील का -आ. सु. १, न. ५, उ. ३, सु १५८ अनुपालन करे । परमतत्व को सुनकर काम और कलह से मुक्त हो जाय । पध्वजा जोग्गाजणा प्रवज्या योग्य जन-- ४२. वो ठाणाई अपरियाइत्ता आया जो केवलं मुंडे भविता ४२. आरम्भ और परिग्रह-इन दो स्थानों को जाने और छोड़े अगारामो अणगारियं 41, बिना आत्मा मुण्ड होकर, घर को छोड़कर सम्पूर्ण अनगारिता तं जहा आरंभे चैव, परिग्गहे चेव । को नहीं पाता। दो ठपणाई परियाइसा आया केवल मुंखे भवित्ता अगाराओ आरम्भ और परिग्रह-इन दो स्थानों को जानकर और अणगारियं पञ्चहज्जा, छोड़कर आत्मा मुण्ड होकर घर छोड़कर सम्पूर्ण अनगारिता को सं जहा-बारमे घेत्र, परिगहे चैव । पाता है। -~-ठाणं. अ. २, उ. १, सु. ५४-५५ पध्वज्जा जोग्गा जामा प्रवज्या योग्य प्रहर४३. तो जामा पश्णता, तं जहा--- ४३. तीन प्रकार के माम (प्रहर) कहे गये हैं यथापढमे जामे, मजिसमे जामे. पच्छिमे जामे। (१) प्रथम याम, (२) मध्यम याम, (३) अन्तिम याम । तिहिं जामेहि आया फेवलं मुंडे भविसा अगाराओ अणगा- तीनों ही यामों में आत्मा मुण्डित होकर गृहवास का परिरियं परवइज्जा, तं जहा त्याग कर प्रवजित होता है । यथापढमे जामे, मजिसमे जामे, पछिमे जामे। (१) प्रथम याम, (२) मध्यम याम, (३) अन्तिम याम । -ठाणं, अ. ३. उ. २, सु. १६३ पवाजा जोग्गा वया प्रव्रज्या योग्य वय४४, तो क्या पणत्ता, तं अहा ४४. तीन प्रकार के वय कहे गये हैं । यथापढमे वए, मजिसमे वए, पच्छिमे वए । (१) प्रथम वय, (२) मध्यम वय, (३) अन्तिम दय । तिहि बरहि आषा केवलं मुटे भविता अगाराओ अणयारिय तीनों ही बयों में आत्मा मुण्डित होकर गहवास का परिपव्वइन्जा । तं जहा त्याग कर प्रवजित होता है । यथा सूत्रांक ४१ में १३०० जोड़कर पढ़ें। आगे प्रेस की सुविधा व स्थान अधिक खाली न रहे अतः १३०० कम करके ४१ का अंक . ही रखा गया है। १ (क) जामा तिणि उदाहिया जेसु इमे आमरिया राबुज्झमाणा समुट्ठिया। -आ. सु. १. अ. ८, उ.१, सु. २०२ (ख) मज्झिमेणं वयसा वि एगे संबुज्ममाणा समुट्टिता सोच्चा मेधादी बयण पंडियाणं णिसामिया । - आ. सु. १, म. ८, ज. ३, मु. २०६ (क) Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४] चरणानुयोग-२ प्रव्रज्या योग्य दिशा पढमे बए, मजिसमे वए, परिछमे वए। (१) प्रथम वय में, (२) मध्यम क्य में, (३) अन्तिम -ठाण. आ ३, उ. २, मु.१६३ वय में । पबज्जा जोग्गा विसा प्रव्रज्या योग्य दिशा--, ४५. दो दिसाओ अभिगिरा ति णिगि मोग ४... नि और निर्गन्धियाँ पूर्व और उत्तर इन दो दिशाओं या पक्वाक्तिए-पाईणं चेय, उजीणं चेव ।। की ओर मुंह कर प्रजित करें। दो दिसाओ अभिगिज्या कप्पति णिगाणं वाणिग्गीण निर्ग्रन्थ और निग्रन्थियाँ पूर्व और उतर इन दो दिशाओं वा, मुंडावित्तए सिक्लावित्तए उवट्ठावित्तए संभुंजित्तए संव- की ओर मुंह कर मुष्टित करें, शिक्षा दें, महाव्रतों में आरोपित सित्तए समायमुद्दिसित्तए समायं समुद्दिसित्तए समायमणु- करें, भोजन-मण्डली में सम्मिलित करें, संस्तारक मण्डली में जाणितए आलोइत्तए पडिक्कमित्तए णिदित्तए गरहित ए सम्मिलित करें, स्वाध्याय का उद्देश दें, स्वाध्याय का समुद्देश विट्टिलए विसोहितए अकरणयाए अन्मुट्टितए अहारिह दें, स्वाध्याय की अनुशा दें, आलोचना करें, प्रतिक्रमण करें, पायच्छित्तं तबोकम्भं पडिज्जित ए निन्दा करें, गहीं करें, पश्चात्ताप करें, विशोधि करें, साबद्धपाईण चेव, उदीणं चेव । प्रवृत्ति न करने के लिए उठे, यथायोग्य प्रायश्चित्त रूप तप कर्म -ठणं. अ. २. उ. १, सु. ६६ (क) स्वीकार करें । पव्दावणाईणं विहि-णिसेहो प्रवजित करने आदि के विधि-निषेध४६. नो कप्पइ णिग्गंथाणं णिम्गथि अप्पणो अट्ठाए पवावेत्तए था, ४६. निर्गन्थियों को अपनी शिष्या बनाने के लिए प्रअजित मुंडायत्तए वा, सेहावेत्तए वा, उवटाखेतए वा, संवासित्तए करना, मुण्डित करना, शिक्षित करना, चारित्र में पुनः उपस्थाघा, संभुजित्तए वा, तीसे इसरियं दिसं वा अणु विसं वा पित करना, उसके साथ रहना और साथ बैठकर भोजन करना उद्दिसित्तए वा धारेत्तए वा । निग्रंन्य को नहीं कल्पता है तथा अल्पकाल या यावज्जीवन के लिए पद देना या उसे धारण करना नहीं कल्पता है । कप्पत णियाण जिग्गथि अन्नेसि अट्टाए पखावेत्तए वा अन्य की शिष्या बनाने के लिए किसी निग्रन्थिनी को प्रत्र-जाव-संभुजित्तए वा, तोसे इत्तरिय विसं या अणुरिस वा जित करना--यावत्-साथ बैठकर भोजन करने के लिए निर्देश उदिसित्तए वा धारेत्तए था। देना निर्ग्रन्थ को कल्पता है तथा अल्पकाल या यावज्जीवन के लिए पद देना या उसे धारण करना कल्पता है। नो कप्पह णिगथीणं णिगंयं अपणो बट्टाए पवावेत्तए वा निर्ग्रन्थ को अपने लिए प्रजित करना-पावत्-साथ -जाव-संभुजित्तए था, तोसे इत्तरिय विसं वा अविसं वा बैठकर भोजन करने के लिए निर्देश करता निन्थी को नहीं उहिसित्तए वा धारेत्तए था। कल्पता है तथा अल्पकाल या यावज्जीवन के लिए पद देना या उसे धारण करना नहीं कल्पता है। कम्प णिग्गंधीणं णिगय अण्णेसि अदाए पवावेत्तए वा-जाव- निर्ग्रन्थ को अन्य (आचार्य-यावत्-गयावच्छेदक) के संभुज्जित्तए वा, तीसे इत्तरिय दिसं वा अणुविसं या उद्दि- लिए प्रव्रजित करना-यावत्-साथ बैठकर भोजन करने के सित्तए वा धारेत्तए खा। -वन, च.७, सु. ६-६ लिए निर्देश करना निग्रंथी को कल्पता है तथा अल्पकाल या' यावज्जीवन के लिए पद देना या उसे धारण करने के लिए अनुज्ञा देना कल्पता है। खड्डगस्स खुड्डियाए वा उवद्वाषण विहि-णिसेहो- बालक-बालिका को बड़ी दीक्षा आदि का विधि-निषेध४७. नो कप्पा णिग्गंधाण वा णिग्गंथीण वा खुट्टगं वा खुड्डिय वा ४७. निर्ग्रन्थ-निम्नन्थियों को आठ वर्ष से कम उम्र वाले बालकअगदवासमायं उचढावेत्तए वा संभुजित्तए वा। बालिका का बड़ी दीक्षा देना और उनके साथ आहार करना नहीं कल्पता है। कप्पर जिग्गंधाण वा पिनांथोण वा सुष्टुगं वा खुष्टियं वा निन्थ-नियन्थियों को आठ वर्ष से अधिक उम्र वाले बालक साइरेगअट्टवासजाय उवढावेतए वा संभूजित्तए वा। बालिका को बड़ी दीक्षा देना और उनके साथ आहार करना -वच, ३.१०. सु. २७-२१ कल्पता है। Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ४-५० प्रअजिस होने वाले के उपकरणों का प्ररूपण दीक्षा ५ पठ्वयमाणस्स उवगरणपरूवणा प्रवजित होने वाले के उपकरणों का प्ररूपण - ४८. निग्गयस्स तप्पटमयाए संपवयमाणस्स कप्पद रयहरण- ४८. गृहदास त्वागकर सर्वप्रथम प्रवजित होने वाले निम्रन्थ को गोश्छग-पजिग्गह-मायाए तिहि कसिगेहिं वत्येहि आयाए रजौहरण, गोच्छक, पात्र तथा तीन अखण्ड बस्त्र अपने साय संपबहत्तए। लेकर प्रबजित होना कल्पता है । से य पुग्योवहिए सिया, एवं से नो कप्पद रयहरण-गोच्छग- यदि वह पहले दीक्षित हो चुका हो तो उसे रजोहरण, पडिग्गहमायाए तिहिं कसिहि वस्थेहि आपाए संपब्बइत्तए। गोच्छक, पात्र तथा तीन अखण्ड वस्त्र लेकर प्रमजित होना नहीं कल्पता है। कम्पा से अहापरिग्गहियाई वत्थाई महाय-आयाए संपव- किन्तु पूर्व गृहीत वस्त्रों को लेकर आत्मभाव से प्रजित होना कल्पता है। निग्गंधीए पंतप्पडमयाए संपवयमाणीए कप्पद रयहरण- गृहवास त्यागकर सर्वप्रथम प्रवजित होने वाली निर्ग्रन्थी गोन्छग-पडिग्गहमायाए चाहिं कसिहि आयाए संपथ्य- को रजोहरण गोच्छक पात्र तथा चार अखण्ड वस्त्र अपने साथ इत्तए। लेकर प्रबजित होना कल्पता है। सा य पुव्योवद्विया सिया एवं से मो कयह रयहरण-गोच्छग यदि वह पहले दीक्षित हो चुकी हो तो उसे रजोहरण, पजिग्गहमायाए चहि कसिणेहि यत्यहि आयाए संपव- गोच्छक, पात्र तथा चार अखण्ड वस्त्र लेकर प्रवृजित होना नहीं इसए। कल्पता है ! कप्पड़ से अहापरिग्गहियाई वत्थाई गहाय-आयाए संपव्व- किन्तु पुर्व गृहीत वस्त्रों को लेकर आत्मभाव से प्रवजित इत्तए। -कप्प. उ. ३, सु. १४-१५ होना कल्पता है। पव्यज्जा अजोग्गा प्रव्रज्या के अयोग्य४६. तओ णो कप्पति परवावेतए तं महा ४६. तीन को प्रन्नजित करना नहीं कल्पता है, यथा(8) पंजए, (२) बातिए, (३) की । (१) नपुंसक, (२) वातिक, (३) और क्लीब। तओ को कप्पंति मुंगवित्तए, सिक्शावित्तए, उबटावितए, तीन को मुण्डित करना, शिक्षा देना महायतों में आरोपित संभुजित्तए संवासिसए, तं जहा करना, उनके साथ आहार आदि का सम्बन्ध रखना और उनके साथ रहना या उसे साथ रखना नहीं कल्पता है । यथापंडए, वातिए, कोये। -ठाणं. अ. ३, उ. ४. सु. २०४ नपुंसक, वातिक और क्लीब। असमत्थपवावण-पायच्छित्तसुतं असमर्थ को प्रवजित करने का प्रायश्चित्त सूत्र५०. जे मिक्खू णायगं बा, अणायगं वा, उवासगं वा, अणुवासगं ५०. जो भिक्षु अयोग्य स्वजन को, परिजन को, उपासक को, था, अणसं पवावेद पवावेतं वा साइज्जइ। और अनुपासक को प्रवजित करता है, करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है। तं सेवमाणे आवाज चाउम्मासिय परिहारद्वाणं अणुग्घाइयं। उसे चातुर्मासिक अनुद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि. स. ११, सु. ४ आता है। १ कप्प. उ. ४, सु. ४-६ | २ प्रथम सामान्य नपुंसक है, द्वितीय-तृतीय विशेष प्रकार के नपुंसक हैं। Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६] परगानुयोग-२ विविध प्रकार की प्राण्या सूत्र ५१-५२ प्रवज्या के प्रकार-२ विविधिहा पधज्जा - ५१. चउब्धिहः पवाजा परणता, तं महा-- (१) इहलोगपटियता, (२) परलोगपडिबडा, (३) बुहओलोगपडिया (४) अप्पडिबद्धा । चउधिना पव्वज्जा एण्णता, सं जहा--- (१) पुरओ पडिवदा, (२) मग्गो परिवता, (३) बुहमो पडिया' (४) अप्पडिबवा। विविध प्रकार का प्रत्रग्या५१. प्रमज्या (निर्ग्रन्थ दीक्षा) चार कार को कही गई है। जैसे-- (१) इस लोक की सुख-कामना से ली जाने वाली प्रव्रज्या । (२) परलोक की सुख-कामना से ली जाने वाली प्रव्रज्या । (३) दोनों लोकों की सुख-कामना से ली जाने वाली प्रवज्या । (४) किसी भी प्रकार की कामना से रहित होकर ली जाने वाली प्रव्रज्या। गु नार मार की कही गई है। जैसे(१) मनोज्ञ आहारादि की प्राप्ति के लिए ली जाने वाली प्रवण्या। (२) परिवार की प्रतिष्ठा बढ़ाने की कामना से ली जाने वाली प्रद्रज्या। (३) उपरोक्त दोनों प्रकार की कामना से ली जाने वाली प्रत्रज्या । (४) उक्त दोनों प्रकार की कामनाओं से रहित होकर ली जाने वाली प्रज्मा। पुनः प्रव्रज्या चार प्रकार की कही गई है । जैसे(१) सद्-गुरुओं की सेवा से प्राप्त होने वाली दीक्षा । (२) दूसरों के कहने से ली जाने वाली दीक्षा । (३) परस्पर प्रतिज्ञाबद्ध होने से ली जाने वाली दीक्षा । (४) परिवारादि से अलग होकर देशान्तर में जाकर ली जाने वाली दीक्षा। पुनः प्रव्रज्या चार प्रकार की कही गई है। जैसे(१) कष्ट देकर दी जाने वाली दीक्षा । (२) अन्यत्र ले जाकर दी जाने वाली दीक्षा । (३) बातचीत करके दी जाने वाली दीक्षा । (४) स्निग्ध, मिष्ट भोजन कराकर दी जाने वाली दीक्षा। पुनः प्रव्रज्या चार प्रकार की वही गई है। जैसे--- (१) नट की तरह धर्मकथा कहकर आजीविका की जाने घाली प्रव्रज्या (२) सुभट के समान बल प्रदर्शन कर आजीविका की जाने वाली प्रव्रज्या । (३) सिंह के समान दूसरों को भयभीत कर आजीविका की जाने वाली प्रवज्या। अम्बिहा पठसज्जा एण्णत्ता, तं जहा(१) ओवाय-पषज्जा, (२) अक्वात-पवाजा, (३) संगार-पख्वाजा, (४) विगह-ाह-पवण्जा । चम्यिहा पम्यम्जा पण्णत्ता, तं महा(१) तुयावहता, (२) पुपावत्ता , (३) बुआवइत्ता, (४) परिपुयावत्ता। चविहा पाचज्जा पण्णता, तं जहा(१) गडखाया, (२) भडसाइया, (३) सोहखइया, १-२-३-४ ठाणं. अ. ३, उ. २, सु. १५५ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ५२-५५ प्रवज्या को कृषि को उपमा योमा [. (४) सियालखाया। (४) सियाल के समान दीन-वृत्ति से आजीविका को जाने -ठाणं. अ. ४, ७.४, सु. १ ली प्रवासा: पव्वज्जाए किसी-उवमा.. प्रव्रज्या को कृषि की उपमा५२. चाउम्विहा किसी पण्णता, तं जहा ५२. कृषि (खेती) चार प्रकार की कही गई है । जैसे(१) बाविया, (१) एक बार बोयी गई कृषि। (0) परिवाबिया, (२) उगे हुए घान्य को उखाड़कर रोपण की जाने वाली कृषि। (३) णिविता, (३) घास को निकालकर तैयार की आने वाली कृषि । (४. परिणिदिता। (४) चास को अनेक बार निवारण करने पर होने वाली कृषि । एवामेव बडविहा पवज्जा पण्णता, तं जहा इसी प्रकार प्रत्रज्या भी चार प्रकार की कही गई है। जैसे(१) वाविता, (१) सामायिक चारित्र में आरोपित करना (छोटी दीक्षा) (२) परिवाविसा, (२) महावतों में आरोपित करना (बड़ी दीक्षा) (३) णिविता, (३) एक बार आलोचना से आने वाली दीक्षा । (४) परिणिदिता । -ठाणं. अ. ४, उ. ४, सु. ३५५ (४) बार-बार आलोचना से आने वाली दीक्षा। पन्वज्जाए धण्णोबमा - प्रवज्या को धान्य की उपमा - ५६. चाउरिवहा एवज्जा पणत्ता, तं जहा ५३. प्रव्रज्या चार प्रकार की कही गई है, जैसे(1) धष्णपुंजितसमाणा, (१) खलिहान में साफ करके रखे गए धान्यपुंज के समान निर्दोष प्रवज्या। (२) धणविरल्लितसमाणा, (२) साफ किये गये किन्तु खलिहान में बिखरे हुए धान्य के समान अल्प-अतिचार वाली प्रवज्या । (३) अण्णविक्खितसमाणा, (३) खलिहान में देनों आदि के द्वारा कुचले गये धान्य के समान बहु-अतिचार वाली प्रजज्या । (४) धण्ण संकदित समाणा। (४) खेत से काटकर खलिहान में लाए गये धान्य-फूलों के -- ठाणं. अ ४, ३. ४, सु. ३५५ समान बहुतर अतिचार बाली प्रवज्या । मुण्डणस्सप्पगारा . मुण्डन के प्रकार५४. पंच मुंडा पण्णत्ता, तं जहा ५४. मुण्ड (जयी) पाँच प्रकार के होते हैं(१) सोतिदियमुंडे (२) चक्विवियमुंडे, (३) घाणिरियमुंडे, (१) श्रोरेन्द्रिय मुण्ड, (२) चक्षुरिन्द्रिय मुण्ड, (३) प्राणे(1) जिभिदियमुंडे, (५) फासिरियमुंडे । न्द्रिय मुण्ड, (४) जिह्वन्द्रिय मुण्ड, (५) स्पर्शनेन्द्रिय मुण्ड । पंच मुंडा पण्णता, तं जहा मुण्ड पाँच प्रकार के होते हैं(१) कोहमुंडे, (२) माणमुंडे, (३) मायामुंडे, (१) क्रोध मुण्ड, (२) मान मुण्ड, (३) माया मुण्ड, (४) लोभमुंडे, (५) सिरमुंडे।। (४) लोभ मुण्ड, (५) शिरो मुण्ड । -ठाणं. अ. ५, २.३, सु. ४४३ (२-३) बस पथ्वज्जा पगारा प्रव्रज्या के दस प्रकार५५. यसबिधा पटवज्जा पण्णता, तं जहा ५५. दस प्रकार से प्रव्रज्या ली जाती है, जैसे(१) छंचा, (२) रोसा, (६) परिजुण्णा, (१) आनी इच्छा से, (२) रोष से, (३) दरिद्रता से, (४) मुषिणा, (५) पडिस्मता चेव, (६) सारणिया (४) स्वप्न के निमित्त से, (५) पहले की हुई प्रतिज्ञा के कारण, Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८] चरणानुयोग-२ दु:ख का अन्त करने वाली प्रवग्या सूत्र ५६-५८ (७) रोगिगिया, (८) अणादिता, (३) देवसग्णत्ती, (६) पूर्व जन्म स्मरण से, (७) रोग के निमित्त से, (८) अनादर (१०) बच्छाणुबंधिया । -ठाणं अ. १०, सु. ७१२ होने पर, (6) देव द्वारा बोध पाने पर, (१०) दीक्षित होते हुए पुत्र के निमित्त से ली जाने वाली दीक्षा। दुक्खांतकरी पव्वज्जा दुखना शस्त करने वाली प्रवज्या५६. सुमेह मे एगगामणा, मग बुद्धहि वेसियं । ५६. तुम एकास मन होकर (तीर्थंकरों) के द्वारा उपदिष्ट मार्ग जमायरन्सो भिषलू दुक्खाणन्तकरो भवे ।। को मुझ से सुनो जिसका आचरण करता हुआ भिक्षु दुःखों का अन्त कर देता है। गिहवासं परिच्चज्ज पवाजा मासिओ मुणी। जो मुनि गृहवास को छोड़कर प्रश्रज्या को अंगीकार कर इमे संगे वियाणिज्जा हि सज्जन्ति गाणवा ॥1 चुका है वह इन कर्मबन्ध के स्थानों को जाने जिनमें कि मनुष्य -उत्त. अ. ३५, गा. १-२ आसक्त होते हैं। उपस्थापना-विधि-निषेध-३ उबट्टावणं कालमाणं बड़ी दीक्षा देने का काल प्रमाण५७. तओ सेहभूमिओ एण्णताओ, ते जहा ५७, नवदीक्षित शिष्य की तीन शैक्ष भूमियां कही गई हैं। जैसे१. सत्त-राइंदिया, २. चाउम्मासिया, (१) सप्लरात्रि-देवसिक, (२) चातुर्मासिक और ३. छम्मासिया । (३) षागमासिक। छम्मासिया उक्कोसिया । उत्कृष्ट छह मास से महाबत आरोपण करना। चाउम्मासिया मज्जामिया । मध्यम चार मास से महावत आरोपण करना । सत्त-राइविया जहन्निया । - वद. उ. १०, सु. १६ जघन्य सातवें दिन महावत आरोपण करना । उपटावण विहाणाई उपस्थापन के विधान५८. आयरिय-उबझाए सरमाणे परं चउराय पंचरायाओ कप्पागं ५८. आचार्य या उपाध्याय को स्मरण होते हुए भी बड़ी दोक्षा भिक्खु नो उबट्टावा, कप्पाए, अस्थिपाई से केइ माणणिज्जे के योग्य भिक्षु को चार पाँच रात के बाद भी बड़ी दीक्षा में कापाए, नत्यि से केह छए वा, परिहारे वा। उपस्थापित न करे। उस समय यदि उस नवदीक्षित के कोई पूज्य पुरुष की बड़ी दीक्षा होने में देर हो तो उन्हें दीक्षा घेद या तप रूप कोई प्रायश्चित्त नहीं आता है। स्थियाइं से के माणणिज्जे कप्पाए, से सन्तरा छए वा यदि उस नवदीक्षित के बड़ी दीक्षा लेने योग्य कोई पूज्य परिहारे ना। पुरुष न हो तो उन्हें उस चार पाँच रात्रि उल्लंघन करने का छेद या तप रूप प्रायश्चित्त आता है। १ इन गाथाओं से आगे की गाथामें प्रत्येक महावत के साथ संकलित की गई हैं अतः मानब की आसक्ति के हेतु "संग" के प्रकार वहाँ से जान लें। २ ठाणं. अ. ३, उ. २, सु. १६७ (१)1 Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ५५-५६ बड़ी दीक्षा के योग्य दीमा [6 -Aan नयम-t आयरिय-उबमाए असरमाणे परं चउरायाओ पंचरायाओ आचार्य या उपाध्याय को स्मृति में न रहने से बड़ी दीक्षा वा कप्पागं भिक्खु नो उबट्टायेइ, कप्पाए, अस्थियाई से केई के योग्य भिक्षु को चार पांव रात के बाद भी बड़ी दीक्षा में भागणिज्जे कप्पाए, मस्थि से फेह छेए वा परिहारे वा, उपस्थापित न करे । उस समय यदि वहां उस नवदीक्षित के कोई पूज्य पुरुष की बड़ी दीक्षा होने में देर हो तो उन्हें दीक्षाच्छेद या तपरूप कोई प्रायश्चित्त नहीं आता है। पस्थियाहं से केई माणिज्जे व.प्प.ए. से संतरा छेए वा यदि उम स्वदीक्षित के बड़ी दीक्षा लेने योग्य कोई पूज्य परिहारे वा। पुरुष न हो तो उन्हें उस पार पाँच रात्रि उल्लंघन करने का छेद या तप रूप प्रायश्चित्त आता है । आयरिय-वज्शाए सरमाणे षा असरमाणे या परं वसराय आचार्य या उपाध्याय को स्मृति में रहते हुए या स्मृति में कप्पाओ कप्पागं भिक्खु नो उबट्टावे कप्पाए. अस्थियाई से न रहते हुए बड़ी दीक्षा के योग्य भिक्षु को दस दिन के बाद भी केद्द भाणणिज्जे कप्पाए, नस्थि से कइ छए वा परिहारे वा। बड़ी दीक्षा में उपस्थापित न करे। उस समय यदि उस नवदीक्षित के कोइ पूज्य पुरुष की बड़ी दीक्षा होने में देर हो तो उन्हें दीक्षा लेद या तप रूप कोई प्रायश्चित्त नहीं आता है। पस्थियाई से केइ मापणिज्जे कप्पाए, संवच्छर तस्स तप्प- यदि उस नवदीक्षित के बड़ी दीक्षा के योग्य कोई पूज्य लियं नो कप्पइ आयरियतं वा-जाव-गणाबच्छेइयत्त चा पुरुष न हो तो उन्हें उम दश त्रि उल्लंघन करने के कारण उद्दिसित्तए। -धव. उ. ४, सु. १५-१७ एक वर्ष तक आचार्य-शवत्-रणावश्छेदक पद पर रहना नहीं कल्पता है। उवदावण जोगा बडी दीक्षा के योग्य५६ पुढविक्काइए जीये, सद्दहइ जो जिणेहि पण्णते । ५६. जो जिन-ग्रजाल विकायिक जीवों में (जीव है इस प्रकार अभिगयपुग्ण पायो, सो इ उवट्ठावणे जोग्गो ।। की) श्रद्धा रखता है और पुण्य एवं पाप को जानता है, वह बड़ी दीक्षा के योग्य है। आउक्काइए जीवे. सहइ जो जिहि पण्णत्ते । जो जिन-प्रज्ञप्त अकायिक जीवों में (जीव है इस प्रकार अभिगयपुण्ण-पावो, सो हु उबट्टावणे जोग्गो ॥ की) श्रद्धा रखता है और पुण्य एवं पाप को जानता है, वह बड़ी दीक्षा के योग्य है। तेउक्काइए जोवे, सद्दहइ जो जिणेहि पणत्ते । ___जो जिन-प्रज्ञात तेजस्मायिक जीवों में (जीव है इस प्रकार अभिगयपुषण-पावो, सो है उषावणे जोम्यो । की) श्रद्धा रहता है और पुष्प एवं पाप को जानता है, वह बड़ी दीक्षा के योग्य है। माउपकाइए जीवे, दहाइ जो जिहि पणते । जो जिग-प्रज्ञप्त वायुकायिक जीवों में (जीव है इस प्रकार अभिगयपुण्ण-पागे सो ह उक्टावणे जोम्गो ॥ की) श्रवा रखता है और पुण्य एवं पाप को जामता है, वह बड़ी दीक्षा के योग्य है। वणसइकाइए जीवे, सद्दहा जो जिणेहिं पणते। जो जिन-प्रज्ञाप्त वनस्पतिकायिक जीवों में (जीव है इस अभिगयपुण्ण-पायो, सो ह उचट्ठावणे जोग्यो । प्रकार बी) श्रद्धा रखता है और पुण्य एवं पाप को जानता है, वह बड़ी दीक्षा के योग्य है। तसकाइए जीवे, सद्दह्इ जो जिहिं पत्ते । जो जिन-प्रज्ञप्त प्रसका यिक जीवों में (जीच है इस प्रकार अभिगयपुग्ण-पापो, सो है उष्टावणे जोग्गो ॥ की) श्रद्धा रखता है और पुण्य एवं पाप को जानता है, वह बड़ी --दम. अ. ४. गा. ७-१२ दीक्षा के योग्य है। १ उपरोक्त गाथायें महावीर विद्यालय की प्रति में है। Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०] चरणानुयोग-२ बड़ी दीक्षा के अयोग्य सूत्र ६०६१ उवट्ठावणा अजोग्गा बड़ी दीक्षा के अयोग्य६०. पुढविक्काइए जीवे, ण सद्दहइ जो जिणेहि पण्णत्ते । ६०. जो जिन-प्रज्ञप्त पृथ्वीकायिक जीवों में (जीव है इस प्रकार भणभिगयपुण्णा-पावो, सो उबढायणा जोग्गो । की) थदा नहीं रखता है और पुण्य एवं पाप को नहीं जानता है वह बड़ी दीक्षा के अयोग्य है। आउपकाइए जीवे, ण सदहाइ जो जिणेहि पण्णत्ते । जो जिन-प्रशप्त अपकायिक जीवों में (जीव है इस प्रकार अभिगयपुग्ण-पावो, ग सो उवट्ठावणा जोगो ॥ की) श्रद्धा नहीं रखता है और पुण्य एवं पाप को नहीं जानता है रबड़ी दीक्षा के अयोग्य है। तेउक्काइए जीवे. ण सहइ जो जिहि पण्पत्ते । जो जिन-प्रशप्त तेजस्कायिक जीवों में (जीव है इस प्रकार अभिगयपुग्ण-पावो, सो उबट्टावणा जोगो ॥ की) श्रद्धा नहीं रखता है और पुण्य एवं पाप को नहीं जानता है वह बड़ी दीक्षा के अयोग्य है। बाउक्काइए जीबे, ण सहहइ जो जिणेहि पण्णत्ते। ____ जो जिन-प्रज्ञप्त वायुकायिक जीवों में (जीव है इस प्रकार अणभिगमपुण्ण-पायो, ण सो उबटविणा जोग्यो । की) श्रद्धा नहीं रखता है और पुण्य एवं पाप को नहीं जानता है यह बड़ी दीक्षा के अयोग्य है। वणस्सइकाइए जोवे, ण सहइ जो जिणेहिं पण्णते। जो जिन-प्रज्ञप्त वनस्पतिकायिक जीवों में (जीव है इस अणमिगयपुष्ण-पादो, सो उबट्टावणा जोग्यो ।। प्रकार की) श्रद्धा नहीं रखता है और पुष्प एवं पाप को नहीं जानता है वह बड़ी दीक्षा के अयोग्य हैं। तसकाइए जीवे, ण सहइ जो जिणेहि पण्णसे। जो जिन-प्रज्ञात अस कायिक जीवों में (जोव है इस प्रकार अभिगयपुग्ण-पावो, ण सो उपट्टावणा जोग्गो ।। की) श्रद्धा नहीं रखता है और पुण्य एवं पाप को नहीं जानता है -दस. अ. ४, गा. १-६ वह बड़ी दीक्षा के अयोग्य है। अजोग्गस्स उबट्टावणपायच्छित्तसुत्तं अयोग्य को बड़ी दीक्षा देने का प्रायश्चित्त सुत्र - ६१. जे भिक्खू णायगं बा, अणायगं वा, उवासगं था, अगुवास ६१. जो भिक्षु अयोग्य स्वजन को, परिजन को, उपासक को वा अणलं उवट्ठावेह उबट्ठातं वा साइज्जद। और अनुपासक को बड़ी दीक्षा देता है, दिलाता है या देने वाले का अनुमोदन करता है। त सेवमाणे आवज्जद्द चाउम्मासियं परिहारहाणं .मुघाइय। उसे चातुर्मासिक अनुद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि. उ. ११, सु. ५ आता है। Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ६२-६५ संयम का स्वरूप संयमी जोबन [११ (२) संयमी जीवन संयम का स्वरूप--१ संजम सरूवं संयम का स्वरूप६२. एगमो विरई कुज्जा, एगओय पवत्तमं । ६२. भिक्षु को एक स्थान से निवृत्ति और एक स्थान में प्रवृत्ति असंजमे नियति च, संजमे ८ पवत्तणं ॥ करनी चाहिए अर्थात् असंयम से निवृत्ति और संयन में प्रवृत्ति -उत्त. अ. ३१, गा, २ करनी चाहिए। संजमस्स महत्तं संयम का महत्व६३. मासे मासे तु जो बालो, कुस्सगेणं तु मुंजए। ६३. अज्ञानी जीव एक-एक मास की तपश्चर्या के पारणे में न को सुअक्खायधम्मस्त, कलं अग्घद सोलसि ॥ कुशाग्र जितना आहार करे तो भी सर्वज्ञ-प्ररूपित चारित्रधर्म -उत्त. अ., गा. ४४ की सोलहवीं कला को भी प्राप्त नहीं होता। संयम के प्रकार-२ पंच चरिता, चरित-परिभासा य पांच प्रकार के चारित्र और उनकी परिभाषा ६४. (चारित्र पाँच प्रकार के हैं) ६४. सामाइयस्य पदम, छेओवट्ठावणं भवे दीयं । १. पहला-सामायिक, २. दूसरा छेदोपस्थापनीय परिहारविसुशीयं, सुहम तह संपरायं च ॥ २. तीसरा-परिहार-विशुद्धि, ४. चौथा-सूक्ष्म-संपराय, अकसायं अहसखायं छउमस्थरस जिणस्त था। ५. पांचा-यथाख्यात-चारित्र-कषाय रहित होता है। वह छमस्थ और केवली दोनों को होता है। एवं चरितकर, चारितं होद आहियं ।। ये सभी बारित्र कर्म संचय को रिक्त (खाली) करते हैं, इस. -उत्त. अ.२८, गा. ३२-३३ लिए ये चारित्र कहे जाते हैं । छब्धिहा कप्पद्विती छह प्रकार की कल्पस्थिति६५. छबिहा कप्पद्विती पण्णता, तं जहा ६५. कल्प की स्थिति छह प्रकार की कही गई है । जैसे(१) सामाइथसंजयकप्पट्टिती, १. सामायिक चारित्र की मर्यादाएँ। (२) छेओवट्ठावणियसंजयकरपट्टितो, २. छेदोपस्थापनीय चारित्र (बड़ी दीक्षा के बाद) की मयी दाएँ। (३) णिविसमाण कप्पद्विती, ३. परिहारविशुद्धि चारित्र में तप वहन करने वालों की मर्यादाएँ। (४) णिस्विटुकास्य कप्पद्विती, ४. परिहारविशुद्धि चारित्र में गुरुकल्प तथा अनुपरिहारिक भिक्षुओं की मर्यादाएं। (५) जिणकप्पद्विती, ५. गच्छ निर्गत विशिष्ट तपस्वी जीवन बिताने वाले जिन कल्पी भिक्षुओं की मर्यादाएँ । (६) बेरकप्पट्टितो।। ___ ---कप्प, ज. ६, सु. २० . स्थविर-कल्पी अर्थात् गच्छवासी भिक्षुओं की मर्यादाएँ। १ ठाणं. अ. ६, सु. ५३० । Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [3] धरणामुयोद–२ संघम भेयपमेया ६६. जप व जहा (१) राय, (२) बीयरागसंजमे चेत्र । सराग विहे पत्र तं जहा रारा (२) बादरप (१) संजमे चैव । - । पराजि (१) समय-संवरारा- संज (२) अपवम समय सुम- संपराय-राग-संजमे चेष । जया चरमसमयमराज सुमपरायसराग संजमे चैव । अहवा सुमपरायसरायसं जमे दुबिहे पनसे, तं जहा किमान पाए । जहा संयम के प्रमे बारपरायसराय कपि तं जहा समय बादरपरायसर गजमे चेय, अपरमसमयबावरसंपरायसरागसंजमे चैव । हवा परि समयबादर-पराय-सत्य-संगमेष, अबरिम समय बादर-संपराय सराग-संजमे चेष । हवा मायरपरागमेपि तं जहा पडवाति चेव, अपडियाति क्षेत्र । वीरादुपय तं जहा -- Reeb वसंतराव बीपराज चेव । वसंत कसायवीय रागसंजमे बुबिहे पण्णसे, तं जहा र अश्मिसमय पढमसम्म उवसंत सायवीयरागसंजमे चैव अपढमसमयउव संतक सायवीय रागसंजमे चंद | अवा चरिमसमयउचसंत कलावधीयरागसंजमे वेव, अतरिमसमय उवसंतकसामशय रागसं जमे चंव | श्रीराममंग विहे पद्म तं जहा छउमत्थी कसायवीयरागमंजमे वेव, केबलिषीणकसायचीमरागसंयमे वेव । उत्थाय वोयराय संगमे दृष्णिसं जीण कलायचीयरायजमे उमत्यशी सायीतरामेव छउमत्थखोणकसाय- वीतरागसंजमे चैव । संयम के भेद प्रभेद - ६९. संयम दो प्रकार का कहा गया है, यथा-सरानसंयम और वीतराग संयम | सरागसंयम दो प्रकार का कहा गया है, यथासूक्ष्मसम्पराय सराग संयम और बादरसम्पराय सराग संवम । ९६ सूक्ष्मसम्पराय सरागसंयम दो प्रकार का कहा गया है, यथाप्रथमसमव सूक्ष्मसम्पराय सरागसंयम और अभयमसमय सूक्ष्मसम्पराय सरागसंयम | अथवा वरमसमय सूक्ष्मसम्पराय सरागसंयम और अचरमसमय सुनसम्पराय सरागसंयम । अथवा सूक्ष्मसम्पराय नरागसंयम दो प्रकार का कहा गया है, यथा संक्लिश्यमान सूक्ष्मसम्पराय सरागसंयम और विशुद्धयमान सूक्ष्मसम्पराय सरागसंयम । बादरसम्पराय सरागसंयम दो प्रकार का कहा गया है. यथा प्रथमसमय - बादरसम्पराय सरागसंयम और अप्रथमसमयबादरसम्पराय सरागसंयम । अथवा चरमसमय बादरसम्पराय सरागसंयम और अधरमरामय वादरमम्पराव सरागसंयम अथवा वादसम्पराय सरागसंयम दो प्रकार का कहा गया हैं, यथा प्रतिपाती बादरसम्पराय सरागसंयम और अतिपाती बादरसम्पराय सरागसंयम । वीतराग संयम दो प्रकार का कहा गया है। यथाउपशान्तकषाय वीतरागसंयम और क्षीणकषाय वीतराग संगम । उपशान्तकषाय वीतरागसंयम दो प्रकार का कहा गया है। यथा प्रथमसमय उपशान्तकषाय वीतरागसंयम और अप्रथमतभय उपशान्तकाय वीतरागसंयम । अथवा चरमसमय उपशान्तकषाय वीतरागसंयम और अचरमसमय उपशान्तकषाय वीतराननयम | क्षीणकषाय बील रागसंगम दो प्रकार का कहा गया है, यथाछद्मस्थ क्षणक्रमाय वीतरागसंयम और केवली क्षीणकषाय वीतरागसंयम । reera क्षीणकषाय वीतरागसंयम दो प्रकार का कहा गया है, यथा स्वयं छद्मस्थ क्षीणकषाय वीतरागसंयम | — उमस्थक्षीणावीतरागसंयम और बोधित Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संयम से भेद-प्रभेव संयमी जीवन [१३ सबंदुछउमत्थखीणकसायचीयरागसंजमे विहे पण्णते, तं स्वयं बुद्ध छमस्थक्षीणकषाय वीतराग संयम दो प्रकार का जहा कहा गया है, यथापढमसमयसयंत्रुद्ध उमत्थखीण फसायवीतरागसंजमे चेव प्रथमसमय यंबुद्ध छदमस्थक्षीणकपाय बीतराग संयम और अपढमसमयसयंबुद्ध उमस्परखीणकसायचीतरागसजमे वेव। अप्रथमममय-स्वयंबुद्ध-छदमस्थक्षीणकषाय वीतरागसंयम । अहवा-चरिमसमयसयंबुजछउमत्यवीणकसायवीतरागसंजमे अथवा नरमसमय स्वयं बुद्ध छमस्थ क्षीणकपाय वीतराग चेव, अचरिमसमयसयंबुद्धछ उमत्यवीणकसायवीतरागसंजमे संयम और अ पय स्वयं बुद्ध-मस्थक्षीणकषाय वीतरागचंव। संग। बुद्धबोहियछ उमस्थवीणकसायबोतरागसंजमे दुबिहे पण्णसे, बुद्धयोधितमस्तक्षीणकषायवीतरागसंयम दो प्रकार का कहा गया है, यथा- . पढमसमयधुद्धबोहियछउमत्यत्रीणफसायवीतरागसंजमे चेव, प्रथमभगय बुद्धबोधित छद्मथक्षीणकषायीतरागसंयम और अपढमसमयबुद्धचोहिय छउमत्यस्यीणकसायवीतरागसंजमे चैव। अप्रथमममय बुसबोधित छद्मस्थ क्षीणकपाय वीतराग संयम । अहका चरिमसमययुद्धयोहियछउमथस्वीणकसायवीयराम- अथवा चरमसमय बुद्धबोधित छद्भस्थक्षीणकषायवीतराग संजमे चैव, अचरिमसमयबुद्धबोहियछ उमस्थतीणकसायचीय. संयम और अचरमसमय बुद्धबोधित छद्मस्थक्षीणकषाय वीतराग रागसंजमे घेव। संयम । केवलिखीणकसायवीनरागसंजमे दुबिहे पण्णसे, तं जहा-- केवली-क्षीणकषाय वीतरागसंवम दो प्रकार का कहा गया है, यथा-- सजोगिकेचलिखीणकसायवीतरामसंजमे थेव, अजोगिकेयलि- सयोग केवली-क्षीणवषाय वीतरागस यम और अयोगीखीणफसायवीतरागसंजमे चैव । केवली-क्षीणकषाय वीतराग संयम । समोगिफेवलिखीणकसायबोयरायसंजमे विहे पन्नते, तं सयोगी नेवली क्षीणकषाय वीतराग संयम दो प्रकार का कह गया है, यथापत्मसमयसजोगिकेवलिखीणकसायवीयरागसंजमे घेव, अपक्ष- प्रथम समय सयोगीकेवली क्षीणकषाय वीतराग रायम और मसमयसजोगिकेवलिखीणकसायवीयरागसंजमे चेय। अप्रथम समय सयोनीकेवली क्षीणकषाय वीतरागसंयम । अहवा चरिमसमयसजोगिकेवसिसीणकसायवीयराम संजमे अथवा घरमसमय सयोभी केवली क्षीणकषाय वीतरागसयम घेव, अचरिमसमयसजोगिकेवलिखीणकसायवीयराग संजमं और अचरमममय सयोगीकेवली क्षीणकवाय वीतराग यम । चेव । अजोगिकेबलिखीण कसायवीयरागसंजमे दुबिहे पन्नते, तं अयोगीकेवली क्षीणकपाय वीतरागसंयम दो प्रकार का कहा नहा गया है, यथापढमसमयमजोगिकेवलिखीणकसायवीयरागस जमे चैव, अपढ- प्रथमरामय अयोगीकेवली क्षीणकषाय वीतरागसंयम और मसमयअजोगिकेशलिखोणकसायवीयरागसंजमे चैव । अप्रथमसमय अयोगीके बली क्षीगकताय वीतरागसंयम । अहवा चरिमसमयअजोगिकेवलिखीणकसायवीयरागसंजमे अथवा चरमसमय अयोगीकेबली क्षीणकषाय वीतरागसंयम चेव अचरिमसमयअजोगिकेवलित्रीणकसायवोयरागसंजमे और अचरम समय अयोगीकेपली भीणकषाय वीतरागसंयम । घेव। - ठाणं. ब. २, उ. १. सु. ६२ घउबिहे संजमे पग्णसे, तं जहा संयम के चार प्रकार हैं(१) मणसंजमे, (२) बहसंजमे, १. मन-मयम, २. वाक-संयम, (३) कायसंजमे, (४) उनगरणसंजमे । ३. काय-संयम, ४. उपकरण-संयम। बउविहे चियाए पण, तं जहा त्याग के चार प्रकार है-- (१) मणचियाए, (२) वहचियाए, १. मन-त्याग, २, बाकु-न्याग, (३) कायचियाए, (४) उवगरणचियाए। ३. काय-त्याग, ४. उपकरण-श्याग: चश्विहा ऑकवणता पण्णता, लं जहा - अकिञ्चनता के चार प्रकार हैं(१) मणकिवणता, (२) बहकिंचणता, १. मन-अकिञ्चनता, २. वाक्-अकिञ्चनता, Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४] चरणानुयोग-२ संयम के प्रकार सूत्र 40-50 (३) कायअकिंचणता, (४) उवरणविणता। ३. बाय-अकिञ्चनता, ४. उपकरण-अकिञ्चनता। -~-ठाणं. अ. ४. उ. २, सु. ३१० (१-३) संयमप्पगारा संयम के प्रकार६७. सत्तरसविहे संजमे पण्णते, तं जहा-- ६७. संबम सतरह प्रकार के कहे गये हैं, यथा - (१) पुरुवीकायसंजमे, (२) आउकायसंजमे, १. पृथ्वी काय संयम, २. अकाय संबम, (३) तेउकायसंजमे, (४) बाउकायसंजमे, ३. तेजस्काय संयम, ४. बायकाय संयम, (५) वणस्सहकायसंजमे, (६) बेइबियसंजमे, ५ बनस्पतिकाय संयम, ६.दीन्द्रिय संयम, (७) तेइ दियसंजमे, (८) चरिदियसंजमे, ७. श्रीन्द्रिय संयम, चतुरिन्द्रिय संयम, (8) पंचिदियसंजमे, (१०) अजीवकायसंजमे, ९. पंचेन्द्रिय संयम, १०, अभीनकाय संयम, (११) पेहासंजमे, ११. अंधा मंयम -प्रत्येक प्रवृत्ति देखभालकर करना । (१२) उपहासंजमे, १२. उपेक्षा संगम असंयम में प्रवृत्ति करने वालों के प्रति उपेक्षा भय रखना। (१३) अवटुसंजमे. १३. अपहत्य मंयम उच्चार प्रस्रवण आदि का विधि से परिष्ठापन करना । (१४) पमज्जणासजमे, (१५) मणसंजमें, १४. प्रमार्जना संयम, १५. भन संयम, (१६) वइसजमे, (१७) कायसंजमें। १६. वचन संयम, १७. काय संयम । -सम. स. १७, सु.१ असंयमप्पगारा असंयम के प्रकार६८. सत्तरसविहे असंजमे पष्णते, तं जहा ६८. असंयम मतरह प्रकार के कहे हैं. जैसे- . (१) पुडयोकायअमंजमे, (२) माउकायमसंजमे, १. पृथ्वीकाय असंयम, २. अकाय असंयम, (३) ते उकायअसं जमे (४) वाउकायअसंगमे, ३. तेजस्काय अमंयम, ४. वायुकाय असंयम, (५) वणस्सइकायअसंजमें, (६) बेइंदियअसंजमें, ५. वनस्पतिकाय असंयम, ६. दोन्द्रिय अगंयम (७) तेइंदियअसंजमे, (1) चरिदियअसंजमे, ७. वीन्द्रिय असं बम, E. चतुरिन्द्रिय असंयम, (६) पचिदियअसंजमें, (१०) अजीवकायअसं जमे, ६. पंतेन्द्रिय असंयम. १०. अजीवकाय असंयम, (११) पेहाअसंजमे, (१२) उपेहाअसंजमे, ११. प्रेक्षा असंयम, १२. उपेक्षा असंयम, (१३) अवहट्टुअसंजमे, (१४) अप्पमज्जणावसंजमे, १३. अपहुत्य असंयम, १४. अप्रमार्जना असंयम, (१५) मणअसंजमे, (१६) अनसंजमे. १५. मन असंयम, १६. वचन असंयम, (१७) कायअसं जमे । -सम. स. १७, सु. १ १७. काय नसंयम । धरित्तस्स-पगारा चरित्र के प्रकार-- ६६. पंचविहे संजमे पण्णते, तं जहा ६६. संयम के पांच प्रकार है(१) सामाइयसंजमे, (२) छेत्रोवट्ठावणियसंजमे, १. सामायिक संयम, २. छेदोपस्थापनीय संयम, (३) परिहारविसुद्धियसंजमे, (८) सुहमसंपरागसंजमे, ३. परिहारभिशुद्धिक संवम, ४. सूचमसम्पराय संयम, (५) अहवायचरित्तसंजमे। ५. यथाख्यातचरित्र संयम । -ठाणं अ.५, उ २, सु. ४२५ समारंभ-असमारंभण संयम असंयमप्पगारा समारम्भ-असमारम्भ से संयम-असंयम के प्रकार -- ७०. एगिदिया पं जीवा असमारंभमाणस पंचविहे संजमे ७०. एकेन्द्रिय जीवों का असमारम्भ करता हुआ जीव पाँच प्रकार कम्जति, तं जहा का संयम करता है(१) पुरविकायसंजमे, (२) आउकाइयसंजमें, १. पृथ्वीकाय संयम, २. अप्काय संयम, Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समारम्भ-असभारम्भ से संयम-असंयम के प्रकार संयमी जीवन [१५ - - - (३) तेउकास्यसंजमे, (४) बाउकाइयसंजमे, ३. तेजस्काय संयम, ४. वायुकाय संयम, (५) वणस्स इकाइयसं जमे । ५. वनस्पतिकाय संयम । एगिदिया णं जीवा समारंभमाणस्स पंचबिहे असंजमे कज्जति, एकेन्द्रिय जीवों का समारम्भ करता हुआ जीव पाँच प्रकार तं जहा - का असंयम करता है-- (१) पुढविकाइयअसंजमे, (२) आउकाइयअजमे, १. पृथ्वी काय असंयम, २. अकाय असंयम. (३) तेउकाइयअसंजमे, (४) वाउफाइयअसंजमे, ३. तेजस्काय अमयम, ४. वायुवस्य असंयम, (५) बणस्सइकाइयअसंजमे । ५, वनस्पतिकाय असंयम । --ठाणं. म. ५. उ. २, सु. ४२६ बेहवियाणं जीवा अममारममाणस चविहे संजमे काजति, द्वीन्द्रिय जीवों का आरम्भ नहीं करने वाले के चार प्रकार का संयम होता है(१) जिम्मामयातो सोक्तातो अववरोविता भवन, १. रसमय सुख का त्रियोग नहीं करने से, २) जिभामएणं दुक्खेणं असंजोगेसा भवइ, २. रनमय दुःख का संयोग नहीं करने से, (३) फासामयातो सोक्षातो अथवरोवेत्ता भवाड, ३. स्पर्शमय सुख का वियोग नहीं करने से, (४) फासामएणं दुक्खेणं असंजोगिता भवइ । ४. स्पर्शमय दुःस का संयोग नहीं करने से। बेईदिया णं जीवा समारभमायास्स चविहे असंज में अति, द्वीन्द्रिय जीवों का आरम्भ करने वाले के चार प्रकार का तं जहा असंयम होता है(१) जिन्भामयातो सोक्खातो ववरोबित्ता भवइ, १. रममय सुख का वियोग करने से, (२) जिभामएणं दुक्खेण संजोगित्ता स्वइ, २. रसमय दुःख का संयोग करने से, (३) फासामयातो सोक्खातो ववरोवेत्ता भवई. ३. रसमय सुख का वियोग करते रो, (४) फासामएणं युक्खेणं संजोगित्ता भवइ । ४. स्पर्शभय दुःख का संयोग करने से । -ठाण. अ. ४.उ., सु. ३६८ ते इंदिया णं जीवा असमारममाणस्म छन्मिहे संजमे कज्जति, त्रीन्द्रिय जीवों का आरम्भ न करने वाले के छः प्रकार का तं जहा-- गंयम होता है(१) प्राणामयातो सोनक्षातो अवबरोवेत्ता भबइ, १. प्राणमय सुख का वियोग नहीं करने से, (२) पाणामएणं तुक्खेणं असंजोएत्ता भवह २. घ्राणमय दुःख का संयोग नहीं करने से, (३) जिम्भामयासो सोखातो अयवरोवेत्ता भवद्द, ३. ररामय सुख का वियोग नहीं करने से, (४) जिल्मामएण दुक्खेणं असंजोएता भवइ । ४. रसमय टुःख का संयोग नहीं करने से, (५) फासामयातो सोक्सातो अबवरोबेत्ता भवदा ५. स्पर्शमय सुख का वियोग नहीं करने से, (६) कासामएणं दुक्खेणं असंजोएत्ता भवद । ६. स्पर्शमम दुःख का संयोग नहीं करने से । तेरिया णं जीवा समारभमाणस्स छबिहे असंजमे कज्जति, श्रीन्द्रिय जीवों का आरम्म करने वाले के छः प्रकार का तं जहा -- मसंयम होता है(१) घाणामथातो सोक्खासो वधरोवेत्ता भवइ, १. घ्राणमय मुल का वियोग करने से, (२) घाणामएणं चुक्खेगं संजोगेत्ता भवइ. २. प्राणमय दुःख का संयोग करने से, (३) जिम्मामयातो सोक्खातो ववरोवेत्ता भवड, ३. रसमय मुख का वियोग करने से, (४) लिटमामएणं दुक्खेण संजोगेता भवह, ४. रसमय दुःख का संयोग करने से, (५) फासामयातो सोक्खातो बबरोवेता भवर, ५. स्पर्णमय सुख का नियोग करने से, (६) फासामएणं दुक्खेणं संजोगेत्ता भवइ । ६. स्पर्शमय दुःख का संयोग करने से । -- ठाणं.स. ६, सु. ५२१, घरिबिया जे जीवा असमारनमाणस्स अटुविधे संजमे चतुरिन्द्रिय जी का आरम्म नहीं कसे वले के प्राय काजति, तं जहा प्रकार का संयम होता है Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६) चरणानयोग-२ सशरम्भ-असमाराम से संयम-असंयम के प्रकार (१) पक्खुमातो सोक्त्रातो अववरोवेसा भवति, १. चक्षुमय सुख का वियोग नहीं करने से, सुमएणं दम असंजोग त, २. नक्षुमय दुःख का संयोग नहीं करने से, (३) धाणामातो सोक्खातो अवयरोवेत्ता भवति, ३. प्राणमय सुत का वियोग नहीं करने से. (४) घाणामएणं दुफ्षेणं असंजोएता भवति. ४. घाणमय दुःख का संयोग नहीं करने से, (५) जिम्मामातो सोक्खातो अवघरोवेत्ता भवति, ५. रसमय सुख का वियोग नहीं करने से, (६) जिम्मामएणं दुक्खेणं असंजोएता भवति, ६. रसमय दुःम का संयोग नहीं करने से, (७) फासामातो सोक्खातो अक्वरोवेत्ता भवति, ७ स्पर्शमय सुध का वियोग नहीं करने से, (6) फासामएणं दुक्खेणं असंजोएका भवति । . स्पर्शमय दुःख का संयोग नहीं करने से, चरिदिया णं जीया समारभमाणस्त अटुविधे असंजमे चतुरिन्द्रिय जीवों का आरम्भ करने वाले के आठ प्रकार काजति, तं जहा का असंयम होता है(१) चक्नुमातो सोक्खातो ववरोवेशा भवति, १. चक्षुमय सुख का वियोग करने से, (२) चक्खुमाएणं दुक्खेणं संजोगेशा भवति, २. चक्षुमय दुःख का संयोग करने से, (३) घाणामातो सोक्खातो बवरोवेत्ता भवति ३. प्राणमय सुख का वियोग करने से, (४) घाणामएण दुषस्येण संजोगेत्ता भति, ४. प्राणमय दुःव का संयोग करने से, (५) जिम्मामातो-सोक्खातो बबरोवेत्ता भवनि, ५. रसमय सुख का वियोग करने से, (६) जिम्मामएणं दुक्खेणं संजोगेत्ता भवति, ६. रसमय दुःख का संयोग करने से, (७) फासामातो सोक्खातो बवरोवेत्ता भवति, ७. स्पर्शमय मुल का वियोग करने से, (८) फासामाएणं दुक्खेंणं संजोगेत्ता भवति । ८. स्पर्शमय दुःल का मंयोग करने से । -ठाणं. अ.८, सु. ६१५ पंचिदिया चं जीवा असमारममाणस्स पंचविहे संजमें पंचेन्द्रिय जीवों का असमारम्भ करता हुआ जीव पनि प्रकार ज्जति, तं जहा का संगम करता है(१) सोतिवियांजमे, (२) चविखदियराजमे. १. श्रोत्रेन्द्रिय संयम, २. चक्षुरिन्द्रिय संयम, (३) घाणिदियजमे, (४) जिभिरियजम, ३. प्राणेन्द्रिय संयम, ४. जिह्वन्द्रिय संयम, (५) फासिदिवसंजमे। ५. स्पर्गेन्द्रिय गंयम । पचिदिया णं जीवा समारभन्माणस्स पंचविहे असंजमें कज्जति, पंचेन्द्रिय जीवों वा रामाराम करता हुआ जीव पांच प्रकार तं जहा का असंगम करमा है(१) सोतिदियअसंजम, (२) चक्विदियअसंजमें, १. श्रोत्रेन्द्रिय असंयम, २. चक्षुरिन्द्रिय असंयम (३) धाणिदियअसंजमे, (४) जिग्मिदियअसंजमे, ३. घाणेन्द्रिय असंयम, ४. जिह्वेन्द्रिय असंबम, (५) कासिवियअसंजमे। ५. स्पर्शन्द्रिय असंयम । सस्वपाणभूयजीवसत्ता णं असमारममाणस्स पंचबिहे संजमें सर्व प्राण, भूत, जीव और सत्वों का असमारम्भ करता हुआ करजति, तं जहा जीव पांच प्रकार का संयम करता है(१) एगिदियसंजमे, (२) बेइंदियसंजमे, १. एकेन्द्रिय संयम, २. द्वीन्द्रिय संयम, (३) तेइंटियसंजमे, (४) चरिदियसंजमे, ३. कीन्द्रिय संयम, ४. चतुरिन्द्रिय संयम, (५) पंचिदियांजमे । ५. पंचेन्द्रिय संयम । सम्वपाणभूयजोक्सत्ता गं समारभमाणस्स पंचविहे अजमे सर्व प्राण, भूत, जीव और सत्वों का समारम्भ करता हुआ कज्जति, तं जहा जीव पांच प्रकार वा असंयम करता है(१) एगिदियअसंजमे, (२) बेइंवियअसंजमे, १. एकेन्द्रिय असंयम, २. द्वीन्द्रिय असंयम, (३) तेइंदियअजमे, (४) चरिदियबसंजमे, ३. त्रीन्द्रिय असंयम, ४. चतुरिन्द्रिय असंयम, () पंचेदियअसंजमें। - ठाणं. अ.५,उ. २, सु. ४३० ५ . पंचेन्द्रिय असंयम । १ इसी प्रकार पंचेन्द्रिय के मारम्भ-अलमारम्न का सु. ११५ आहे महाबत पृ. २६६ पर देखें । Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुत्र ७१-७४ संयम योग्य जन संयमो जीवन १७ संजम जोग्या जणा संयम योग्य जन७१. वो ठाणाई अपरियाणता आया णो केवलेणं संजमेणं संज- ७१. आरम्भ और परिग्रह-इन दो स्थानों को जाने और छोड़े भेज्जा, तं जहा बिना आरमा सम्पूर्ण संयम के द्वारा संयत नहीं होता। (१) आरंभे चैत्र (२) परिग्रहे चेव। दो ठाणाई परियाणेता आया केवलेणं संजमेणं संजमेम्जा, आरम्भ और परिग्रह-इन दो स्थानों को जानकर और तं जहा - ___ छोड़कर आत्मा सम्पूर्ण संयम के द्वारा संपत्त होता है। (१) आरंभे रोव (२) पशिगहे ग्रेव। -~ठाणं, अ.२, उ. १, सु. ५४-५५ संजमजोग्गा जामा-. संयम योग्य प्रहर-- ५२. तओ जामा पणत्ता, ते जहा ७२. तीन प्रकार के याम (प्रहर) कहे गये हैं-यथा(१) पहमे जामे, (२. मजिसमे जामे, (३) पच्छिम जामे। (१) प्रथम याम, (२) मध्यम याम, (३) अन्तिम याम । तिहिं जामेहि आया केवलेलं संजमेणं संजमेज्ना, तं जहा --- तीनों ही यामों में आत्मा विशुद्ध संयम से संयत हो सकता है-यथा - (१) पलमे जामे, (२) मजिसमे जामे, (३) पच्छिमे जामे। (१) प्रथम याम में, (२) मध्यम याम में, (३) अन्तिम -ठाणं. अ. ३, उ. २, सु. १६३ याम में । संजमजोग्या वया - संयम योग्य वय - ७३. तओ वया पण्णता, तं जहा ७३. तीन प्रकार के वय कहे गये हैं-यथा(१) पढमे धए, () मज्झिमे वए. (३) पछिमे वए। (१) प्रथम वय, (२) मध्यम वय, (३) अन्तिम बय । तिहिं वएहि आया केवलेणं संजमेणं संजमेज्जा, तं जहा... सीनों ही वयों में आत्मा विशुद्ध संयम से संयत हो सकता है-यथा(१) पढमे षए, (२) मजिसमे वए, १३) पच्छिमे वए। (१) प्रथम वय में, (२) मध्यम वय में, (३) अन्तिम -ठाणं अ. ३. उ. २, सु. १६३ वय में। जयणावरणिज्जकम्मखओवसमेण संजमं- यतनावरणीय कर्मों के क्षयोपशम से संयम७४. प० ---असोच्चा णं भंते ! केलिस्स वा-जाव-तपस्विय- ७४. प्र. - मन्ते ! केवनी से-यावत्-केवली पाक्षिक उपा उवासियाए वा केवलेणं संजमेणं संजमज्जा? सिका से बिना सुने कोई एक जीव रांयम पालन कर रावता है ? उ०-गोयमा ! असोच्चा णं केलिस्स बा-जाब-तपक्षिय- .- गौतम ! केवली से-यावत्-केवली पाक्षिक उपा उवासियाए वा अत्थेगइए केवलेष संजमेणं संजमेज्जा, सिका से सुने बिना कोई जीव संयम पालन कर सकता है और अत्यगइए केवलेणं संजमेणं नो संजमेज्जा। कोई जीव संयम पालन नहीं कर सकता है। ५० - से केणठेणं भंते ! एवं युवई प्र०-- भन्ते ! किस प्रयोजन से ऐसा कहा जाता है किअसोच्चा णं केवलिस्स बा-जान-सम्पक्खियतवासियाए केवली से यावत् - केवली पाक्षिक उपासिका से सुने बिना वा अत्येगइए केवलेणं संजमेणं संजमेम्जा, अत्यगइए कोई जीव संयम पालन कर सकता है और कोई जीव संयम केवलेणं संजमेणं नो संजमज्जा ? पालन नहीं कर सकता है? उ-गोयमा! जस्स णं जयणावरणिज्जाणं कम्माण उ.-गौतम ! जिसके यतनावरणीय कर्मों का क्षयोपशम अयतना प्रमाद से होती है, प्रमाद आधव है । यतना अप्रमाद से होती है, अप्रमाद संवर है। मेवर ही संयम है। वीर्यान्तराय के क्षयोपशम से अप्रमत्तता और उससे यातना होना निश्चित है। यही वीर्यास्तराम के पायोपशम को यतनावरणीय कर्म का क्षयोपशम समझना चाहिए। Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८] चरणानुयोग-२ यतनावरणीय कर्मों के क्षयोपशम से संयम पोवसमें कडे भवाइ से णं असोच्या केवतिस्स वा हुआ है वह केवली से-पावत्-केवली पाक्षिक उपासिका से जाव-तपक्षिय उवासिवाए वा केवलेणं संजोगं सुने बिना संयम पालन कर सकता है। संजमेजा। जस्स पं जयणावरणिजाणं कम्माणं खओवसमें नो जिसके यतनावरणीय कर्मों का क्षयोपशम नहीं हुआ है वह करें सबइ से गं असोच्या केलिस्स वा-जाव-तपक्खि. केवली से यावत्-केवलीपाक्षिक उपासिका से सुने बिना पउवासियाए वा केबसेणं संजमोफ नो संजमेज्जा। संयम पालन नहीं कर सकता है। गौतम ! इस प्रयोजन से ऐसा कहा जाता है किअसोचा केवलिस्स वा-जाव-तप्पक्विपउवासियाए केवली से—पावत्-केबली पाक्षिक उपासिका से सुने बिना वा अत्यगए केवलेणं संजमेणं यंजमोजजा । अत्यगइए कोई एक जीव संयम पालन कर सकता है और कोई एक जीव केवलेणं संजमेणं नो संजमेजा। संयम पालन नहीं कर सकता है। -विया. स. ६, उ. ३१, सु. ६ प०-सोच्चा णं मंते 1 केवलिस्त वा-जाव-तप्पक्खियउषा- प्र-मन्ते ! केवली रो-यावत्-केवली पाक्षिक उपा सियाए वा केवलेष संजमेणं संजमेज्जा ? सिका से सुनकर कोई जीव संयम पाला क सकता है ? उ. -गोयमा ! सोच्चा णं केवलिस्स बा-जाव-सम्पक्खिय- उ०---गौतम ! केवली से-पावत् --के पली पाक्षिक उपा उवासियाए वा अस्गहए केवलेग संजमेणं संजमेरमा, सिका से सुनकर कोई एक जीव संवम पालन कर सकता है और अत्यगइए केबसेणं संजगणं नो संजमेज्जा। कोई जीव संयम पालन नहीं कर सकता है। १०- से केणठेणं भते ! वुच्चा H०-भन्ते ! विस प्रयोजन से ऐसा कहा जाता है किसोच्चा गं केवलिस्म या-जावतप्पक्लिपउवासियाए केवली से-यावत् - केवली पाक्षिक उपासिका से सुनकर या अत्गइए केवलेग संजमेणं संज मेज्जा, अत्थेगइए कोई जीव संयम पालन कर सकता है और कोई जीव संयम केवलेणं संजमेणं नो संजमेगा? पालन नहीं कर सकता है? - गोयमा ! जस्स पं जयणावरणिज्जाणं कम्माणं उ.-पौतम ! जिसके पतनावरणीय कर्मा का क्षयोपशम खओवसमे कडे भवइ सेणं मोच्चा केवलिस्त वा-जाव- हुआ है वह केवलो से-यावत् केवली पाक्षिक उपासिका से तपक्खियउवासियाए या केबलेणं संजमेणं सुनकर संयम पालन कर सकता है । संजमेजा। जस्स गं जयणावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमे नो जिसके यतनावरणीय कर्मों का अयोपशम नहीं हुआ है वह कडे भवद सेणं सोचा केवलिस्स बा-जात्र-सप्पशिखय- केवली से-यावत्-के.वनी पाक्षिक उपासिका से सुनकर संयम उवासियाए वा केवलेणं संजमेणं नो राजभेजा। पालन नहीं कर सकता है। से तेणठेगं गोयमा ! एवं बुच्च-- गौतम ! इस प्रयोजन से ऐसा कहा जाता है किसोच्चा णं केवलिसा वा-जाव-तप्पक्खियउवासियाए केवली से—यावत्- केवली पाक्षिक उपासिका से सुनकर या अत्यगइए केवलेषं संजमेणं जमेण्जा । अत्येगइए कोई एक जीव संयम पालन कर सकता है और कोई एक जीव केवलेणं संभमेणं नो संजमेज्जा। संयम पालन नहीं कर सकता है। -बिया. स. ६, उ, ३१, सु. ३२ १ बिया० स०६, ३० ३१, सु०१३ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ७५-७६ निर्गन्ध के लक्षण संयमी जीवन १६ संयमी के लक्षण-४ निग्गंथ लक्खणाई निर्ग्रन्थ के लक्षण७५. पंचासषपरिमाया, तिमुत्ता छसु संजया । ७५. पांच आषवों का निरोध करने वाले, तीन गुप्तियों से गुप्त, पंचनिग्महणा धीरा, निग्गथा उज्जुदंसियो । छह काथा के जीवों के प्रति संयत, पांचों इन्द्रियों का निग्रह करने -दश. अ. ३, गा. ११ वाले, धीर निर्ग्रन्थ मोक्षमार्गदर्शी होते हैं। ते अणवकखमाणा, अणतिवातेमाणा, अपरिग्गहेमाणा, णो वे काम-भोगों की आकांक्षा न रखने वाले, प्राणियों के प्राणों परिगहायति समयावति च लोगसि णिहाय दंड पाणेहि का अतिपात न करते हुए और परिग्रह न रखते हुए समग्र लोक पावं कामं अकुश्वमाणे एस महं अमेथे वियाहिये। में अपरिग्रहवान होते हैं । जो प्राणियों के लिए दण्ड का त्याग' करके पाप-कर्म नहीं करता, उसे ही महान् अग्रन्थ (निम्रन्थ) कहा गया है। ओए अदमस्त खेतपणे उववायं छयणं च णच्चा। वह साधक राग-द्वेष से रहित है, संयम एवं मोक्ष का ज्ञाता -आ. सु. १, अ., उ. ३, सु. २०६ है एवं जन्म मरण के स्वरूप को जानकर पाप का आचरण नहीं करता है। अणगार लक्खणाई अणगार के लक्षण७६.णो करिस्सामि समुट्टाए मत्ता मतिम, ७६. मुनि धर्म को स्वीकार कर, जीवों के स्वरूप को जानकर बुद्धिमान साधक यह संकल्प करे कि "मैं बनस्पतिकाय के जीवों की हिंसा नहीं करूंगा।" अभयं विविसा तंजे णो करए एसोवरते, एत्योवरए एस "प्रत्येक जीव अभय चाहता है" यह जानकर जो हिंसा अणगारे ति पतति । नही करता, वही आरंभनिवृस कहा जाता है। वहीं जिनमार्ग -आ. सु. १, अ.१, उ.५, सु. ४० में स्थित है, वही "अपगार" कहलाता है। जणाणाए पुट्ठा वि एगे णियट्टन्ति मन्दा मोहेणं पाउडा । ___ अज्ञान से आवुत, विवेकशून्य कितने ही कायर प्राणी परीषहों के उपस्थित होने पर वीतराग आज्ञा से विरुद्ध आचरण करके संयम मार्ग से च्युत हो जाते हैं । ''अपरिगगहा भविस्सामो" समुदाए लड़े कामे अभिवाहति । कई साधु हम "अपरिग्रही बनेंगे इस तरह का विचार अणाणाए मुणिणो पडिलेहति । एत्य मोहे पुणो पुणो सग्णा, कर तथा दीक्षा लेकर भी प्राप्त काम-भीमों का सेवन करते हैं। जो हवाए, प्यो पाराए। वे मुनि वीतराग आज्ञा से बाह्म काम-भोगों की आकांक्षा करते हैं। वे मोह में बार-बार निमग्न होते हैं, इसलिए वे न तो इस तौर (गृहवास) पर आ सकते है और न उस पार (श्रमणत्व) जा सकते हैं। विमुक्का ते जणा, जे जगा पारगामिणो लोमं अलोमेणं जो विषयों के दलदल से पारगामी होते हैं, ये वास्तव में गुंछमाणे लढे कामे गाभिगाहति । विमुक्त है । वे अलोम (सन्तोष) से लोभ को पराजित करते हुए काम-भोग प्राप्त होने पर भी उनके सेवन की इच्छा नहीं करते हैं। विणा विलोभ निक्खम्म, एस अकम्मे जाणति पासति । जो लोभ से निवृत्त प्रमज्या लेता है, वह अकर्म होकर सब कुछ जानता है, देखता है। पहिलहाए णावखति, एस अणगारे ति पवुच्चति । जो हिताहित का विचार कर विषयों की आकांक्षा नहीं -आ. सु. १, अ. २, उ. २, सु. ७०-७१ करता है वह "अनगार" कहलाता है। साता Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धरणामु — से बेमि से जहा व अणगारे उज्जुकडे नियागपडिवते अमाकुखगाणे विवाहिते । जाए खाए तो तमेव अनुपालिना विमहिला विसोसियं । पणा शेरा महावी अंकेक्षण -आ. सु. १, अ. १, उ. ३, सु. १६-२१ संजयाण लक्खणं ७७. आयावति गहे हेमन्ते अवाजका । वासासु पडिलीणा संजया सुसमाहिया || दस. अ. ३, गा. १२ माहणाईनं सखगाई– ७८.० - कहं से दंते दविए घोसटुकाए ति वच्चे-माहने त्ति वा समयेति वा मिक्यू सिया विवेति वा? तंगो बृह महागुणी ।। ० एवं से देते एक (१) मह त्ति वर, (२) समणे ति था, (३) भिक्खू ति वा (४) वा इति विरए सव्यपावकम्मे पेज्ज-बोस- कलह-अमरवाण पेन-परपरि अतिरति मायामोस मिच्छास सत्य विरए समिए महिए. सयाजए भी ज्णो पाणी माणे ति बच्चे । एवं विराम-चिस्सिए अणिणे आवशगं च अतिवा च मुसावाच महिच को मार्च चना लोच मे जी जयो आयाणामी पोसतो तो विए बोस आयाणा काए समने ति बच्चे । परिएला ७६-०८ 'हे शिष्य !' अणगार — मुनि का जो वास्तविक स्वरूप है, वह मैं कहता हूँ। जो प्रबुद्ध पुरुष संयम का परिपालक है, मोक्षमार्ग पर गतिशील है और मामा छल-कपट आदि कषायों का त्यागी है मा निश्चल एवं निष्कपट (शुद्ध हृदय वाला है, वही अवगार — मुनि कहा जाता है । - जिस श्रद्धा (निष्ठा-वेराग्य भावना) के साथ संयम पथ पर कदम बढ़ाया है, उसी श्रद्धा के साथ संयम का पालन करे, संयम में आने वाली बाधाओं को दूर करते हुए जीवन पर्यन्त संयम का पालन करे । यह संयमश अनेक वीर पुरुषों द्वारा आसेवित है। संयतों के लक्षण ७७. समाधियुक्त गर्मी में सूर्य की आतापना लेते हैं, सर्दी में खुले बदन रहते हैं और वर्षा में एक स्थान में रहते हैं । माहूण आदि के लक्षण ७८. प्र० - किस प्रकार दमितेन्द्रिय, मोक्षगमन वोग्य तथा शरीर के प्रतिमा करने वाला माण, धरण, भिक्षु वा निर्ग्रन्थ कहलाता है ? हे महामुने ! कृपया यह हमें बताइये । उ०- - इस प्रकार दमितेन्द्रिय मोक्षगमन योग्य तथा शरीर के प्रति ममत्व त्याग करने वाला (१) माहण, (२) श्रमण, (३) भिक्षु (४) निर्ग्रन्थ कहलाता है । जो साधक समस्त पापकर्मी से विरत है, जो राग-द्वेष नव, मिथ्या दोषारोपण, चुगली, निन्दा, संयम में अि असंयम में रुचि (अवटयुक्त सत्यादर्शन शल्य से विरत होता है, पाँच समितियों से युक्त और ज्ञान-दर्शन पारिश से सम्पन है सदैव जीवनिकाय की यतना में तत्पर रहता है, किसी पर क्रोध नहीं करता है, न अभिमान करता है, इन गुणों से सम्पन्न अणगार "माहत" कहे जाने योग्य है। ये 'भ्रमण' ऐसे समझे जायें जो अति है, निदान रहित है तथा कर्मबन्ध के कारणभूत प्राणाविपाव, मृगाभाद मैन और परिवह (उपलक्ष मे दत्तादान) से रहित है, तथा श्रोध, मान, माया, लोभ, राम और द्वे इत्यादि जो जो कारण हो आत्मा के लिए दो के कारण उनके कारणों से पहले से ही है वह निद्रिय मनमन योग्य तथा शरीर के प्रति ममत्व र 'म' कहे जाने है। P Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ७९-८० स्थागी बरयानी के लक्षण एस्य वि भिक्खु अणुभए, नावणए दंते, दबिए बोegere. संविचीय विश्यब्वे परीसहोम अपयोगद्वारा दिए डिप्पा संाए पर दत्तमो भलिब विवि-गे एनवि बुडे निमो सुसंजते सुसमिए सुसामाइए, आयवायपत्ते, विक तो ये जो पासवार लामट्ठी धम्मट्टी, धम्मविक, नियागपडिवण्णे, संमियं चरे, दंते, दबिए पनि से एवमेव जानह जगहंभयंता बेनि - सू. सु. १, अ. १६, सु. ६३२-६३७ चाई अचाई लक्खणं७६. षत्यगंधकार, हरपीओ सयाणि य । अच्छंवा जे न मुंजंति न से "घाइ" ति बुच ॥ पिएमएस व पिकुम्बई। साहब से ४ बद ॥ - दस. अ. २, मा. २-३ www.w ये ''ऐसे समझे जाये जो निराभिमान हो किन्तु हीन भावनाओं से न हो, से, मोदागमन योग्य हो, कायममत्वरहित हो, नाना प्रकार के परोयहाँ और उपसदों को संयमी जीवन २१ भावपूर्वक सहने वाला हो, अध्यात्मयोग से जिसका चारित्र शुद्ध हो, जो सच्चारित्र-प्रासन में उद्यत हो, जिसकी आत्मा शुद्ध भाव में स्थित हो, संसार की असारता जानता हो तथा जो परदन्तभोजी हो वह 'भिक्षु' कहे जाने योग्य है । थे 'निन्थ' ऐसे समझे नाय जो अकेला हो, जो एकवेत्ता हो, जो तत्वज्ञ हो, जिसने आस्रवों को रोक दिया हो, जो सुसंगत हो, जो पाँचों समितियों से युक्त हो, सम्भाव वाला हो, जो आत्म स्वरूप का ज्ञाता हो, जो विद्वान हो, जो द्रव्य और भाव दानों प्रकार से इन्द्रियों का संयम करने वाला हो, जो पूजा सत्कार एवं द्रव्यादि के लाभ का अभिलाषी नहीं हो, जो धर्मार्थी और धर्मवेत्ता हो जिसने मोक्षमार्ग को सद प्रकार से स्वीकार कर लिया हो, जो सम्यग् आचरण करने वाला हो, वह दमितेन्द्रिय, मोक्षगमन के योग्य और शरीर के ममरन से रहित 'निर्मन्थ' कहे जाने योग्य है। इसे ऐसा ही जातो जो मैंने भगवान सेना है त्यागी - अत्यागी के लक्षण ७१. जो व्यक्ति परवण होने से या रोगादिग्रस्त होने से वस्त्र, बन्ध, अलंकार का तथा स्त्रियों का एवं पय्याओं का उपभोग नहीं करता, वह त्यागी नहीं कहलाता है । किन्तु जो कान्त और प्रिय भोग उपलब्ध होने पर उनकी ओर से पीठ फेर लेता है अर्थात् स्वेच्छा से भोगों का त्याग करता है वही त्यागी बहलाता है। - सुसाधु के लक्षण ८०. सुसरहु लक्खणाई८०. एवं से संजते विमुनिरिव निम्ममे निन्नेह-बंधणे. साप । वविरए । मासी मंद-समये पूर्वोक्त अपरिग्रहवती नंयमी साधु धन-धान्यादि का त्यागी आसक्ति रहित, अपरिग्रह में रुचि वाला, ममत्व रहित स्नेह सम-त-प-बन्धन से मुक्त, समस्त पापों से निवृत कुल्हाड़ी से काटे जाने समे मरणावमाणणाए समिबरए, समितरागदोते, समिए समिती सम्मविट्ठी रामे यजे सम्यपाण-भूते "समणे" सुधारए उज्जुए संजए सुसाहू । से पर या चन्दन से चर्चित करने पर समबुद्धि रखने वाला, तृण, मणि, मुसा मिट्टी के क्षेते और सोने में सामान रखने वाला सम्मान और अपमान में समता का धारक, पाप कर्म रूपी रज की शान्त करने वालो अथवा राग-द्वेष को शान्त करने वाला, पाँच समितियों से युक्त, सम्यग्दृष्टि और सब जीवों पर समभाव रखने वाला है, वही श्रमण है, श्रुत धारक है, सरल है, संगत है। जर है। वह साधु समस्त प्राणियों के लिए शरणभूत है, समस्त है के किनारे पर स्थित है, भवपरम्परा को नष्ट करने वाला है, निरन्तर होने वाले बाल मरण का पारगामी है और सब संशयों से रहित होगया है । सच्चभागा य सरणं सम्भूयनं, सम्बजवच्छ संसार म संसार-समुछिने सततं मरणापार जगतीं जीवों का हितैषी है पारगे य सवेसि संसयागं । Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२] चरणानुयोग – २१ पणमामा हिम्मती भवति । साधु के लक्षण अमय महणे, अम्मितर बाहिरंमि समा तवोवहाणंमि य सुजुत्ते, खते, निरते । चाई, लग्ने, तबस्सी, अणियाणे, अवहिल्लेसे, अममे, लेवे । इरियासगिए, भालासमिए, एसमासमिए, जापान-मंत्र-य- ईर्यासमिति, भाषासमिति एषणासमिति, आदान- भाण्डविशेवणसलिए उपचारपाया-परि-मात्र-निक्षेपणासमिति और मल-मूत्र कफ-नासिकामल रमल जियासमिए मण वयसुशे, कायगुत्ते, गुसिदिए. गुल आदि के परिष्ठापना समिति से युक्त, मनोगुप्ति, वचन गुप्ति बंजयारी। और कामगुप्ति से युक्त, इन्द्रियों का गोपन करने वाला, ब्रह्मचर्यं की सुरक्षा करने वाला, लिलिदिए अचिणं, छिन्नगंथे, निरुव - सु. २, अ. ५.१ | अरिमाह-संडे व समारंभ परिहानी विरते, विरले कोमामादा-लोभा एगे अंसज मे - जाब- तेत्तीसा आसायणा एक्कावियं करेशा एस्कुराए हिडाए तो ये तिमाहिया विरतिपणिही अविरतीसु य एवमाइएसु बहस ठाणेसु जिण पसत्येसु, अतिसु सासयभावेषु अवट्टिएम संक कंखं निश करेला सदहए सासणं भगवओ अणियाणे अगार अनु अमूह-मण-वयण कायते । पण्ह. सु. २, अ. ५, सु. १ पंच गावाने एमरा बिए जिलपरी ओवि सत्शिाचिस मीसके विराग संपात विरए मुझे सह निश्यक जीविय - मरणास विध्यमुक्के, निस्संधं निवणं चरिते धीरे कारणं फासयंते, अप्पम्भाणडुसे निहुए, एगे घरेज्ज धम्मम - पण्ह. सु. २, अ. ५, सु. ११ सूत्र भिषणाई ६१. साहो भवेया । इस्थीण वसं न मावि गच्छे, वंतं नो पडियाय जे स भिक्खू ।। जो आठ प्रवचनमाताओं के द्वारा गाठ कर्मों की ग्रन्थि को नष्ट करने वाला है, आठ जो स्वसमय में निष्णात है। रामान रहता है । मदों का मयन करने वाला है और वह सुख दुःख दोनों अवस्थाओं में आभ्यन्तर और बाह्य तप रूप उपधान में सम्यक् प्रकार से सदा उद्यत रहता है। क्षमावान् इन्द्रियविजेता, स्व पर हित में सलग्न रहता है । परिईयागी, पाप से लज्जा करने वाला, धन्य, तपस्वी क्षमागुण के कारण सहनशील, जितेन्द्रिय सद्गुणों से सुत निदान से रहित, परिणामों को संयम परिधि से बाहर न जाने देने वाला, अभिमानसूचक शब्दों से रहित सम्पूर्ण रूप से द्रव्य रहित, स्नेह बन्धन को काटने वाला और कर्म के उपलेप से रहित होता है । ! हे जम्मू अपरिह से संत अपग बारम्भ परिग्रह से विरत होता है, क्रोध, मान, माया, लोभ से विरत होता है, एक प्रकार का असंयम यावत्-तेत्तीस प्रकार की असातना इस प्रकार एक से लेकर तेतीस संख्या तक के स्थानों में हिंसा आदि आस्रव स्थानों और संयम स्थानों में जो कि जिनेन्द्र भगवान के द्वारा उपदिष्ट, शाश्वत, अवस्थित भाव है उन में शंका कांक्षा को दूर करके भगवान के शासन में शुद्ध श्रद्धा रखता है। निदान रहित, गर्न रहित, आसक्ति रहित और मूढ़ता रहित होकर मन वचन काया को गुप्त रखता है। , वह अनगार, गाँवों में एक रात्रि और नगरों में पांच रात्रि तक निवास करने वाला जितेन्द्रिय परीयों को जीतने वाला निर्भय, विद्वान समिति और वियों में मान, संग्रह से विरत, मुक्त, परिग्रह के भार से हल्का, आकांक्षा रहित जीवन मरण की आशा से मुक्त, संधि और व्रण रूप दोष से रहित चारित्र वाला, धैर्यवान्, शरीर से चारित्र का पालन करने वाला, सदा अध्यात्म ध्यान से युक्त, उपशान्त, अकेला अर्थात् रागीय रहित होकर धर्म का आचरण करे । भिक्षु के लक्षण ८१. ओकर के उपदेश से संयम ग्रहण कर सदा प्रति वाला होता है, जो स्त्रियों के वशीभूत नहीं होता है, जो व्यक्त भोगों का पुनः सेवन नहीं करता है, वह भिक्षु है । Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ८१ पुरवी न लणे न खणावए, सीओदगं न पिए न पियावए । अगणित जहा मुनिसियं तं न जलाए । अनिलेप्य न वीए वीयावए हरियाणि न छिंदे न छिदावए । वीवाणि सया विवज्जयंतो, सचिव नाहारए जे स भिक्खू || वहणं तस-यावराणं होइ विनिश्वा हा उद्देसिन मुंजे, नो विपद न भाव जे सभ । रोम नावपुरुषपणे, मशगे मन छपिकाए पंच फासे महत्ववाई पंचासबसंवरे जे स मिश् ॥ चत्तारि दमे का कांग अनि भिक्षु के लक्षण सम्मट्ठी सा वपूढे अत्यि गाणं तवे संजय ताण पुराणपावणं, मणदमकाय सुसंबुठे जे स भिक्खू || दस. अ. १०. गा. १०७ न यह कह कहेज्जा, न य कुप्ये निहूइं दिए पते । संजय जोगते सनि ॥ दम. अ. १०. गा. १० उहिम्मि नमुछिए अगि मप्राप - हुए ( अपने निमित्त) का बना हुआ नहीं खाता तथा जो स्वयं न पकाता है और न दूसरों से पकाता है वह भिक्षु है । जो ज्ञातपुत्र के वचन में श्रद्धा रखकर छह काय के जीवों को आत्मा के समान समझता है, पाँच महाव्रतों का पालन करता है औरों का पराग करता है-यह है। जो नारों कषायों का परित्याग करता है, निर्ग्रन्यन्यवचन में पो परिस मिक्सू ॥ नियमित रूप से प्रवृत्ति करने वाला है, घन-सोना-नवी आदि से रहित है और विश्रय आदि) गृहस्य के कार्यों का त्यागी - भिक्षु है। जो सम्यदर्शी है, रादा अमूह है, ज्ञान, तप और संयम के अस्तित्व में आस्थावान है, जो तप के द्वारा पुराने पापों को नष्ट कर देता है और मन वचन तथा काया से सुसंवृत है वह भिक्षु है । जो कलहकारी कथा नहीं करता किसी पर क्रोध नहीं करता इन्द्रियों को चंचल नहीं होने देता, सदा प्रशान्त रहता है, संयम में तीनों योगों को नियमित रूप से जोड़ता है. उपशान्त है, दूसरों को तिरस्कृत नहीं करता वह भिक्षु है। वो भूमि वस्त्रादि उपधि में समस्थ नहीं रखता हूं पदार्थों में आसक्त नहीं होता है, अज्ञात कुलों से थोड़ा-थोड़ा आहार लेता है, संयम को असार करने वाले दोषों से रहित है, प विक्रय और निधि से विरत है, सब प्रकार के कर्म बंध के स्थानों से रहित है मह भिक्षु है। अलोल भिक्खू न रसेषु गिद्धे, इडिपसचारण पत्ते पुलनिष्पुलाए । विरए सथ्य-संगावगए य ने स भिक्खू ॥ न परं वज्जासि अयं कुसीले અભિય छं चरे जीविय नाभिखे । जो भी है, रसों में वृद्ध नहीं है, अज्ञात बुदों से थोड़ी-थोड़ी भिक्षा लेता है, असंयमी जीवन की आकांक्षा नहीं करता है, ऋद्धि, सत्कार और पूजा की आकांक्षा नहीं रखता है, ar ठिया अणि जे स भिक्खू | स्थितात्मा है, अपनी शक्ति का गोपन नहीं करता है - वह भिक्षु है । प्रत्येक व्यक्ति के पुण्य पाप पृथक् पृथक् होते हैं - ऐसा जानकर जो दूसरे को "यह कुशील हैं" ऐसा नहीं कहता है और जिससे दूसरा कुपित ही ऐसी बात नहीं कहता है, जो अपन विशेषताओं पर अहंकार नहीं करता है वह भिक्षु है। जेणश्नर कुप्पेज्ज न तं यज्जा जान सक्ने संयमी जीवन २३ जो पृथ्वी का खनन न करता है और न कराता है, जो शीतोदक (सचित्त जल ) न पीता है और न पिलाता है, सुतीक्ष्ण शस्त्र के समान अग्नि को न जलाता है और न जलवाता है, वह भिक्षु है । क् - स. अ. १०, मा. १६-१८ जो पंखे आदि से हवा न करता है और न कराता है, जो हरित का देश्न न करता है और न कराता है, जो बीजों के स्पतं आदि का सदा त्रिवर्जन करता है, जो सत्रित पदार्थो का आहार नहीं करता है- वह भिक्षु है। भोजन बनाने में पृथ्वी, तृण और काष्ठ के आश्रय में रहे स्वायर जीवों का वध होता है, अतः जो बौद्देशिक Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४] पवेपए अजप नियम जे कुसीलिंग धरणानुयोग – २ न देहवासं असुई छिदितु जाईपरणरस संघर्ष जहिज्ज मोणं परिरमामि समिन्धम्भ पन्ने पन्त रायोवरमं परेशन अक्कोसदहं अध्यतामणे महामुनी, धम्मे दिओ ठावयई परं पि । अभिभूय न मावि हासं कुहए जे स भिक्खू ॥ असासर्य · सया च निच्च हिमट्टिया बंधनं, उवे भिक्लू अनाथमं गई ॥ - दस. अ. १०, गा. २०-२१ अवरणपणे सयणासणं अंगवियारं सहिए उज्जुकडे नियाणछिन् । कामकामे, यस परिस्वए सभ बिरए चित्तु ढे वी जे कहिए ॥ धीरे मुगी परे लाई ममायते । अपहर J जे कसिणं अहियासए स भिक्खू || नो सक्कियमिच्छाई न पूयं से संजए सुकाए देवर। भइत्ता, सोविवि सम असं पहिले जे सि अहिया । नो वि य वन्दणगं कुओ पसंसं । बरसी सहिए यस भिक्लू ।। जीवियं, जेण पुर्ण जहाद मो नरमार पड़े aur aयस्सी, नय कोमल ने मिश् ।। छिन्नं सरे मोर्म, अन्तलिक्वं सुमिणं, लक्खणदण्डयत्युविज्जं । विजय, जो वाहनोई सभ सरस्स मिक्षु के लक्षण , मु जो महामुनि शुद्ध धर्म का उपदेश करता है स्वयं धर्म में स्थित होकर दूसरों को भी धर्म में स्थित करता है, प्रब्रजित होकर कुशल आचार का वर्जन करता है, जो दूसरों को लाने के लिए कुहलपूर्ण चेष्टा नहीं करता है-वह भिक्षु है। अपनी आत्मा को सदा हित में स्थापित रखने वाला भिक्षु अनुनय नश्वर देवास को सदा के लिए स्थान देता है और वह जन्म-मरण के बन्धन को काटकर मोक्ष को प्राप्त कर लेजा है। "धर्म को स्वीकार कर मुनि-यत का आचरण करूँगा"-.. वो ऐसा करता है, ज्ञानादि से सहित है, जिसका अनुष्ठान सरलता से युक्त है, निदान से रहित है, जो परिचय का त्याग करता है काम-भोगों की अभिलाषा को छोड़ चुका है अथवा मोक्ष की कामना करने वाला है। अज्ञात कुल में भिक्षा ग्रहण करते हुए विचरण करने वाला है। जो राग से रहित और सदनुष्ठान पूर्वक विचरने वाला, असंयम से निवृत्त, विद्वान्त का वेता, आत्मरक्षक, बुद्धिमान हो तथा परीषों को जीतकर सर्व प्राणियों को अपने समान देखने वाला हो और किसी भी पदार्थ में आसक्त नहीं होता है-वह भिक्षु है। जो धीर मुनि आक्रोश और वध आदि परीषहों को अपने कर्मों का फल जानकर शान्त भाव से सहन करता है, नित्य आत्मगुप्त होकर सदनुष्ठानपूर्वक विचरण करता है तथा आकुलता और हर्ष से रहित होकर सब कुछ सहन करता हैवह है। साधारण शय्या और आसन आदि प्राप्त होने पर तथा सद गर्मी, डांस और मच्छरों का उपन होने पर ले आकुलता और リ हर्ष से रहित होकर सब कुछ सहन करता है यह भिक्षु है। जो सत्कार, पूजा और वन्दना की इच्छा नहीं करता और को भी नहीं चाहता। जो संयत सुनती, तपस्वी ज्ञानादि युक्त है तथा आत्म-वेषक है-वह भिक्षु है । जिसके संयोग मात्र से संयम जीवन छूट जाता है और सम्पूर्ण मोह की प्राप्ति हो जाती है वैसे स्त्री पुरुष की संपति को जो उपस्वी सदा के लिए छोड़ देता है और को प्राप्त नहीं होता है— है। स्वर विद्या, भूकम्प विद्या, अन्तरिक्ष विद्या 1 विद्या, वण्ड विद्या, वास्तुविद्या, अंग स्फुरण जो स्वप्न विद्या, विद्या और शब्द विद्या आदि इन विद्याओं के द्वारा जो आजीविका नहीं करता है - वह भिक्षु है । Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १ भिक्षु के लक्षण संयमी जीवन [२५ मन्तं मूसं विविहं वेचिन्तं, जो मन्त्र प्रयोग, जड़ी बूटी प्रयोग अनेक प्रकार की चिकित्सा बमणविरेयणधूमणेत्तसिणाणं । वमन, विरेचन, धूम्र प्रयोग, मन्त्रित जल से स्नान प्रयोग तथा आउरे सरणं तिपिन्छियं च, रोगातुर होने पर स्वजन की शरण व चिकित्सा-- इनका परितं परिप्राय परिवए स मिक्खू ।। त्याग कर जो संयम मार्ग में विचरण करता है-वह भिक्षु है। खरितयगगनगरायपुत्ता, क्षत्रिय राजा, गणराजा, आरक्षकादि कुल, ब्राह्मण, भोगमाहणभोहय त्रिविहाय सिप्पिणो । कुल के पुत्र, विविध प्रकार के शिल्पी, उनकी जो पलाघा और नो सेसि वयद सिलोगपूर्व, पूजा नहीं करता है किन्तु उनका परित्याग कर जो संयम मार्ग त परिनाय परिवए स भिक्खू ।। में विचरण करता है-वह भिक्षु है। गिहिणो जे पवइएण दिट्टा, जो गृहस्थ पद्रजित होने के पश्चात् परिचय में आये हों अप्पच्वइएण व संथ्या हविज्जा। अथवा गृहस्थ अवस्था के परिचित हों उनके साथ इहलौकिक तेसिं ह लोइयफलट्ठा, फल की प्राप्ति के लिए जो परिचय नहीं करता-वह भिक्षु है। जो संथवं न करेइ स भिक्खू ॥ सपणासणपाणभोयणं, शयन, आसन, पान, भोजन और विविध प्रकार के खाद्यविविहं खाइम साइमं परेसिं। स्वाद्य गृहस्थ न दे तथा मांगने पर भी इन्कार हो जाये. उस अदए पडिसेहिए नियाले, स्थिति में जो निग्रन्थ प्रवष न करे–बह भिक्षु है। जे तत्य न पउस्सई स भिक्खू ।। जं किचि आहारपाणगं, गृहस्थों से जो कुछ आहार, पानी और विविध प्रकार के विविहं खाइमं साइम परेसि लड़। खाद्य-स्वाश्च प्राप्त कर जो मन, बनन, काया से अनुकम्पित न हो जो तं तिविहेण नाणु कम्पे, मर्थात् विचलित न हो और जो मन, वचन, काया से सुसंवत ___ मणवयकाय-सुसंधुडे स भिक्खू ॥ रहे-वह भिक्षु है। आयामगं व अबोवणं च, ओसामन, जी का दलिया, ठण्डा बासी आहार, कांजी का सीयं च सोधीर जयोदगं । पानी, जौ का पानी, ऐसी नीरस भिक्षा की जो निन्दा नहीं नो होलए पिण्डं नीरसं तु. करता, अपितु जो सामान्य घरों में भिक्षा के लिए जाता है-यह पन्तंकुलाई परिवए स मिक्खू ॥ भिक्षु है। सहा विविहा भवन्ति लोए, लोक में देवता, मनुष्य और तियंचों के अनेक प्रकार के दिवा माणुस्समा तहा तिरिछा । रौद्र, अत्यन्त भयंकर और अद्भुत शब्द होते हैं, उन्हें सुनकर जो भीमा मयमेरमा उराला, नहीं डरता है-वह भिक्षु है। जो सोच्चा न घिहिज्जई स भिक्ख ।। बाद विविहं समिच्च लोए, लोक में विविध प्रकार के वादों को जान कर ज्ञानादि से सहिए खेयाणुगए । कोवियप्पा। युक्त होकर संवम का पालन करते हुए जिरो आगम का परम पाने अमिभूय सम्बवंसी उबसन्ते, अर्थ प्राप्त हुआ है, जो प्राज्ञ है, परोषही को जीतने वाला है अविडए स भिक्खू ।। और सब जीवों को आत्म-तुल्य समझने वाला है, जो उपशान्त और किसी को भी अपमानित न करने वाला है-वह भिक्षु है । असिप्पज यो अगिहे अमित्ते, जो शिल्प-जीवी नहीं होता है, जिसके घर नहीं होता है, जिहन्दिए सवओ निष्पमुक्के । जिसको मिष नहीं होते, जो जितेन्द्रिय होता है, सब प्रकार के अणुक्कसाई लहुअप्पमक्खी चेच्चा, परिग्रह से मुक्त होता है, जिसका कषाय पन्द होता है, जो योड़ा गिहं एगचरे स भिक्खू ॥ और निस्सार भोजन करता है, जो घर को छोड़ अकेला विच --उत्त. अ. १५. मा. १-१६ रता है-वह भिक्षु है। हिरणं जायव मणसा वि न पत्थए । ऋय और विक्रय से निवृत्त, मिट्टी के देने और सोने को समलेठकषणे भिषन, बिरए कयविषकए॥ समान समलने वाला झिक्ष सोने और चांदी की मन से भी --प्रत्त. भ. ३५, गा.१३ इच्छा न करे। .. . Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६] घरणानुयोग महर्षि के लक्षण सूत्र ८१-८३ विरया वीरा समुट्ठिया, कोहाकायरियाइपीसणा। जो हिसा आदि से विरत है, क्रोध-माया आदि कषायों का पाणे ण हपति सव्वसो, पावाओ विरयाऽपिणियुग ।। विदारण करने के कारण वीर है और मोक्षमार्ग में उद्यत है । जो -सूय. सु. १, २, ७.१, गा. १२ मन-व-ग-काय से सर्वथा प्राणी हिमा से उपरत हैं. ने पापों से रहित मुक्त जीवों के समान ही परिशान्त हैं। सीअरेग पडिदुगंछिणी, अपरिग्णस्स लवासविकणो। जो साधु अचित्त जल से घृणा करता है, दुःसंकल्प या निदान सामाइपमा तस्स जं, जो गिहिमत्तेऽसर्फ न भुजह ।। नहीं करता है. बर्मबन्धन से दूर रहता है तथा जो गृहस्थ के -सूम. सु. १,अ. २, उ. २, गा.२० बर्तन में भोजन नहीं करता असे सर्वज्ञों ने सामायिक चारित्र वान् अर्थात् संयमी कहा है । महेसिणं लक्खणाई महर्षि के लक्षण८२. परोसहरिऊरता, धुपमोहा जिईदिया। ८२. परीषहरूपी शव ओं का दमन करने वाले, अजान का नाश सम्पयुक्खप्पहोणट्ठा, पक्यमंति महेसिणो ।। करने वाले, जितेन्द्रिय, महर्षि मई दुःखों के नाश के लिए परा -दस.अ. ३, गा.१३ क्रम करते हैं। मुणोणं लक्खणाई मुनियों के लक्षण८३. अरिस्सं च है, कारवेसुंच है, ८३. मैंने क्रिया की थी, मैं श्रिया करवाता हूँ, मै क्रिया करने करओ पावि समणुणे मषिस्सामि। वाने का अनुमोदन करूगा । एपालि सवाति लोगसि, समस्त लोक में कर्मबन्ध के हेतुभूत किमाएँ इतनी ही कम्मसमारंभा परिजाणियवा प्रवति ।। जाननी चाहिये। अपरिणायकम्मे खलु अयं पुरिसे, जो हमालो दिसाओ वा जो पुरुष क्रियाओं के यथार्थ स्वरूप को भलीभांति नही अणुविलाओ वा, अणुसंवरति, सध्याओ दिसाओ सय्वाओ जानता है, वह दिखाओं विदिशाओं में परिभ्रमण करता है, अणविसाओ सहेछ, अणेगरूवाओ जोणीओ संघति, विसवस्वे सभी दिशाओं विदिशाओं में कर्मों के माथ जाता है। अनेक फासे प.पडिसवेवयप्ति । प्रकार की जीवयोनियों को प्राप्त होता है। विविध प्रकार के दुःखों का संवेदन करता है। तत्थ खलु भयवया परिण्णा पवेदिता। कमबन्धन के कारणों के विषय में भगवान ने यह उपदेश दिया है कि सांसारिक प्राणी-- इमस्स चेव जीवियस्स, (१) वर्तमान जीवन निर्वाह के लिए, परिवंचण-मायण-पूयणाए; (२) प्रशंसा, सम्मान व पूजा के लिए, जाइ-मरण-मोयणाए, (३) जन्म मरण से मुक्त होने के लिए, दुक्खपडिग्यायहे। (४) दुःख के प्रतिकार के लिए, पाप क्रियाएँ करते हैं। एताबसि सध्यावति लोगसि कम्मसमारंभा परिजाणियषा समस्त लोक में वे सभी कर्म समारम्भ जानने योग्य और भवति । त्यागने योग्य होते हैं। जस्सेते लोमंसि कम्मसमारंभा परिपणापा भवंति से हु मुणी लोक में ये जो कर्म समारम्भ हैं इन्हें जो जान लेता है और परिणाय-कम्मे ति बेमि । त्याग देता है, वह परिज्ञातकर्मा मुनि होता है। __ -आ. सु. १, अ. १, उ. १, सु. ४-६ एवं से उट्टिते ठितप्पा अणिहे अचले चले अहिलेस्से वह उत्थित, स्थितात्मा, स्नेह रहित, अविचल, चल, अध्यपरिवए। यसाय को संयम से बाहर न ते जाने वाला मुनि अ तिवद्ध होकर संयम में विचरण करे । १ आदि मध्य तथा अन्त की क्रिया से यहाँ नव क्रियाएं समझनी चाहिए । १. मैंने क्रिया की थी, २. कराई थी, ३. अनुमोदन किया था, ४. मैं क्रिया करता हूँ, ५. कराता हूँ, ६. अनुमोदन करता हूँ, ७. मैं क्रिया करूंगा, ८. कराऊंगा, ६. करने वाले का अनुमोदन करूंगा, पांचवी और नौवी क्रिया का निर्देश सूत्र में हुआ है। Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पून ३ मुनियों के लक्षण संयमी जीवन [७ मुणी। संखाय पेसलं दिट्टिमं परिणिबुडे । वह सम्यग्दृष्टि मुनि पवित्र उत्तम धर्म को सम्यक् रूप से जानकर क्षायों को सर्वथा उपशान्त करे। तम्हा संगति पासहा। इसलिए तुम आसक्ति के विपाक को देखो। गंथेहि गढिता जरा विसष्णा कामक्कता। परिग्रह में गृद्ध और उनमें निमग्न बने हुए मनुष्य काम भोगों से आक्रान्त होते हैं। तम्हा लहातो णो परिवित्तसेज्जा । जस्सिमे आरंभा स यतो इसलिए मुनि संयम से उद्विग्न न हो। जिन आरम्भों से सश्चताए सुपरिपणाता भवति जस्सिमे लूसिणो णो परिवित्त- हिंसक वृत्ति बाले मनुष्य उद्विग्न नहीं होते उन आरम्भों को जो संति, से बंता कोधं व माणं च मायं च लोभं च । एस मुनि सब प्रकार से सर्वात्मना भलीभांति त्याग देते हैं। वे ही तिउट्ट विवाहिते ति बेमि। मुनि क्रोध, मान, मावा और लोभ का वमन करने वाल होते है । वे ही मुनि संसार-शृंखला को तोड़ने वाले कहलाते है । कायस्स वियावाए एस संगामसांसे वियाहिए । से पारंगमे शरीर का विनाश (मृत्यु) फर्म संग्राम का अग्रिम मोर्चा वहा गया है । इसमें पराजित नहीं होने वाला मुनि पारगामी होता है। अवि हम्ममाणे फलगावतट्टी कालोवीते कखेज कालं-जाव- मुनि परीषहों से आहत होने पर भी लकड़ी के पाटिये की मरोरभेदी ति बेमि। भौति स्थिर रहकर मृत्युकाल निकट आने पर समाधिमरण की -आचा. सु. १, अ६, उ. ५, सु. १६४-१९८ आकांक्षा करते हुए जब तक शरीर का आत्मा से वियोग महो तब तक वह मरणकाल की प्रतीक्षा करे । सुत्ता अमुणी मुणिणो सया जागरति। अज्ञानी सदा सोये रहते हैं और मुनि निरन्तर जागृत रहते हैं । लोगसि जाण अहियाय दुक्क । इस बात की जानो कि लोक में अज्ञान अहित के लिए होता है। समयं लोगस्स जाणिता एत्थ सत्थोषरते। मुनि सभी आत्माओं को समान जानकर उनकी हिंसा से -आ. सु. १. अ. ३. उ. १, सु. १०६ उपरत रहे। अस्सिमे सद्दा य हवा य गंधा य रसाय फासा य अमिस- जिस पुरुष ने शब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्श को सम्यक् मण्णागता मयंति से आतवं णाणवं वेयवं धम्मयं बंभवं प्रकार से जानकर उनकी नासक्ति का त्याग कर दिया है वह आत्मवान्, ज्ञानवान्, शास्त्रज्ञ, धर्मवान् और ब्रह्मचारी होता है। पष्णाणेहि परिजाणंति लोग, मुणी ति बच्चे धम्मविबु ति जो पुरुष अपनी प्रज्ञा से लोक को जानता है, वह मुनि अंजू आवट्टसोए संगममिजाणंति । कहलाता है । वह धर्मवेत्ता और ऋजु होता है। यह आसक्ति -बा. सु. १, अ. ३, उ. १, सु. १०७ को संसार भ्रमण का हेतु समझता है। संधि लोमस्स जाणित्ता आयओ बहिया पास । साधक धर्म के अवसर को जानकर अपनी आत्मा के समान तम्हा ण हंता ण विघातए। ही बाह्य जगत के जीवों को देखे । (कि सभी जीवों को सुख प्रिय है और दुःख अप्रिय है।) इसलिए किसी भी जीव का हनन न करे और न दूसरों से हनन करवाये । जमिणं अण्णमण्णवितिगिछाए पडिलेहाए ण परेति पावं कम्मं जो व्यक्ति परस्पर आशंका भय एवं लज्जा के कारण पाप कि तत्व मुणी कारणं सिया? ___ कम नहीं करता है, तो क्या यह भी मुनित्व का कारण है ? -आ. सु. १, अ. ३, उ, ३, सु. १२२ अर्थात् नहीं है । अलोलुए अक्नुहए अमाई, जो साधु रस लोलुप नहीं होता, इन्द्रजाल मआदि के अपिसुणे यावि अवीणवित्ती। चमत्कार प्रदर्शित नहीं करता, माया नहीं करता, चुगली नहीं भो भावए नो वि य मावियप्पा, करता, दीन भावना से याचना नहीं करता, दूसरों से आत्मअकोउहल्ले यसपा स पुजो।। एलाचा नहीं करवाता, स्वयं भी आत्मश्लाघा नहीं करता और जो कुतूहल नहीं करता, वह पूज्य है। Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८] धरणामुयोग ममुनि तथा मुनि का स्वरूप सूत्र ६३-६४ गुणेहिं साहू अगुणेह साहू, __ मनुष्य गुणों से साधु होता है और अवगुणों से असाधू होता गिहाहि साहू गुणमुंघऽसाहू। है। इसलिए साधु के गुणों को ग्रहण करना चाहिए और अवबियाणिया अपगमप्पएणं, गुणों को छोड़ देना चाहिए। अपनी ज्ञान-आत्मा के द्वारा आत्मा जो रागदोसेहि समो स पुन्जो ।। को बोधित कर जो राग-द्वैष में समभाव रखता है, बह पूज्य है। तहेव सहर महल्लग वा, ___ जो साधु बालक वा वृद्ध की, स्त्री या पुरुष की, साधु या इत्थी पुमं पब्वइयं गिहि वा। गृहस्थ की हीलना लिसा नहीं करता है, गर्व और क्रोध का नो हीलए नो वि य खिसएग्जा, त्याग करता है, वह पूज्य है। भं च कोहं च पए स पुज्जो ॥ -दस अ.६, उ. ३, गा.१०-१२ अमुणी-मुणी सरूवं अमुनि तथा मुनि का स्वरूप५४. दुरवसु मुगी अणाणाए, तुच्छए गिलाति वत्तए। ८४. जो मुनि वीतराग की आज्ञा का पालन नहीं करता वह संयम-धन से रहित होता है, वह चारित्र से तुच्छ (हीन) होने के कारण धर्म का कथन करने में लज्जा का अनुभव करता है। एसवीरे पसंसिए अच्चेति लोगसंजोगं । एस पाए पत्रुच्चति। वहीं वीर पुरुष सर्वत्र प्रशंसा प्राप्त करता है जो लोक संयोग से दूर हट जाता है वही नायक (अग्य को मोक्ष की ओर ले जाने वाला) कहलाता है। जं दुक्खं पवेदितं इह मागवाणं तस्स दुक्खस्स कुसला इस संसार में मनुष्यों के जो दुःख बताये हैं, कुशल पुरुष परिणमुवाहरति इति कम्भ परिण्णाय सथ्यसो । उन दुःखों से मुक्त होने का मार्ग बताते हैं कि सब प्रकार के कर्म बन्ध के कारणों को जानकर उनका त्याग करना चाहिये । जे अणण्णवंसी से अणण्णारामे, जे अणण्णारामे से, जे अण- जो स्वयं की आत्मा को देखता है, वह आत्मा में रमण ग्णवंसी। - आ. सु. १, अ. २, उ. ६, सु. १००-१०१ करता है । जो आत्मा में रमण करता है, वह अपनी मारमा को देखता है। संजयमगुस्सापं सुत्ताणं पंच जागरा पणत्ता, तं जहा- संयत मनुष्य सुप्त होते हैं तब उनके पांच जागृत होते हैं-- (१) सदा, (२) रुवा, (३) गंधा (४) रसा, (५) फासा । (१) शब्द, (२) रूप, (३) गन्ध, (४) रस, (५) स्पर्श । संजयमगुस्साणं जागराणं पंच सुत्ता पाणता, तं जहा संयत मनुष्य जागृत होते हैं तव उनके पांच सुप्त होते हैं(१) सद्दा, (२) रूषा, (३) गंधा, (४) रसा, (५) फासा । (१) शब्द, (२) स्प, (३) गन्ध, (४) रस, (५) स्पर्श । असंजयमणुस्साणं सुत्ताणं वा जागराणं वा जागरा पपणत्ता, असंयत मनुष्य सुप्त हो या जागृत फिर भी उनके पांच तं महा जागृत होते हैं(१) सद्दा, (२) रुवा, (३) गंधा, (४) रसा, (५) फाला। (१) शब्द, (२) रूप, (३) गन्ध, (४) रस, (५) स्पर्श । -ठाणं अ. ५, उ. २, सु. ४२२ अणत्तवओ अत्तवओयणा-- अनात्मवान और आत्मवान५५. छठाणा अणत्तवमओ अहिताए असुनाए अखमाए अणीसेसाए ८५. अनात्मत्रान के लिए छह स्थान-अहित, अशुभ, अक्षम, अणाणुगामियत्ताए भवति, तं जहा ___ अनिःश्रेयस तथा अनानुगामिकता (अशुभ अनुवन्ध) के हेतु होते हैं(१) परियाए, (२) परियाले, (३) सुते, (१) पर्याव-अबस्था या दीक्षा में बड़ा होना, (२) परिवार (४) तवे, (५) लाभे, (६) पूपासक्कारे। (३) श्रुत, (४) तप, (५) लाभ, (६) पूजा-सत्कार । छट्टाणा अत्तवतो हिसाए सुमाए बमाए गोसेसाए आणुगामि- आत्मवान के लिए छह स्थान हित, शुभ, क्षम, निःश्रेयस यत्ताए मयंति, तं जहा--- तथा आनुगामिकता के हेतु होते है - (१) परियाए, (२) परियाले, (३) सुते, (१) पर्याय, (२) परिवार, (३) श्रुत, (४) तो, (५) लामे, (६) पूयासबकारे । (४) तप, (५) लाभ, (६) पूजा सत्कार । -ठाणं. अ. ६, सु. ४६६ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ८६-८७ अणगार गुणा ८६. सत्तावीस अणगारयुगा पता तंज (१) पाणातियातवेश्मने, (३) मदिष्णादाण वेरमणे, (1) परिवारम (७) (२) मुसावा वेरमणे (४) मेर (६) सदिय (८) दिन (१०) साहे (१२) मावि (१४) (). (११) कोहविवेगे, (१२) मायाविवे (१५) नाव (१६) करण सच्चे, (१७) जोगसच्चे (१८) समा (२०) समाहरणा (२१) वइसमाहरणता, (२३) जाणपणा, (२५) परित संपण्णया, (२६) (२०) मारणंतियअहियासणया । महाई निर्दठ सहवं 101 (१९) विनता, माता, (२२) (२४) सण संपण्या, - अणगार के गुण या, सम. सम. २७, सु. १ ८७. १० - माई णं मंते । नियंदे णो निरुद्धभवे, णो निरुद्धअब भी पीयसंसारे, णो पहीणसंसारये अभिने णी बसंसारे, णो वोच्छिम संसारवेअणिज्जे, तो निपट्ठे नोकर पुरवित्वं वं अरगच्छ ? उ०- हंता गोषमा ! मडाई नं नियंडे जाव पुणरहितत्वं आगच्छ । - वि. स. २ . १, सु. ६-६ प० - से णं मंते ! कि ति वस्तभ्यं सिया ? -गोयमा ! "पाणे" सि वसव्वं सिया, "ए" ति वसव्वं सिया, "जी" सिसिया, "सते" ति बस शिवा, "विष्णू" ति वसव्वं सिया, "वेवे" सि यसव्वं सिया, पाणे, भूए, जी, ससे, विष्णू बेटे नि बलव्यं लिया ! प० सेकेणं ते! पागे ति तवं शिया नाव- येरे तिवसम्वं सिया ? संयमी जीवन अणगार के गुण ६. मुनि के सत्ताईस गुण कहे गये हैं, यथा- (१) प्राणातिपात विरमण, (३) अदत्तादान विरभण (2) परिवह विरगण, (1) fir (६) रसनेन्द्रियनिष (२) मृषावाद विरमण (४) मैथुन विरमध (९) श्रन्द्रियनिग्रह (८) प्राद्रियनिग्रह [२९ (१०) स्पर्शनेन्द्रिय निग्रह, (१२) मानविवेक (१४) सोम विवेक, (११) क्रोध विवेक, (१३) माया विवेक, (१५) भाव सस्य (वन्तरात्मा की पवित्रता), (१६) करण सत्य (या को सम्यक् प्रकार से करना) (१७) योग सत्य भन, वचन, काया का सम्यक् प्रवर्तन) (21) STAT (११) वैराग्य, का संकोचन ) (२०) मन समाहरण (मन (२१ वचन समाहरण, (२२) काय समाहरण, (२४) दर्शन सम्पन्नता, (२६) बेदना सहन करना, (२३) ज्ञान सम्पन्नता, (२३) चारित्र सम्पा (२७) मारणान्तिक कष्ट सहन करना । मृतादि निर्मन्थ का स्वरूप ८७. प्र० - भगवन् ! जिसने संसार का निरोध नहीं किया है, संसार के प्रपंचों का निरोध नहीं किया है, संसार को क्षीण नहीं किया है, संसार वेदनीय कर्म को क्षीण नहीं किया है, जिसका संसार नहीं हुआ है, संसार बेदनीय कर्म नहीं हुआ है, जिसका प्रयोजन सिद्ध नहीं हुआ है, जिसका कार्य पूर्ण नहीं हुआ है, ऐसा आयु आहार करने वाला अनगार क्या पुनः शीघ्र मनुष्यमत्र आदि भावों को प्राप्त करता है ? उ०- हाँ गौतम ! ऐसा प्रासुक भोजी अनगार - यावत्पुनः शीघ्र मनुष्यभव आदि भावों को प्राप्त करता है। प्र०- भन्ते ! उसे किस शब्द से कहा जाये ? उ०- गौतम ! वह "प्राण" ऐसा कहा जा सकता है, "भूत" ऐसा कहा जा सकता है. "जीव" ऐसा कहा जा सकता है। "सर" ऐसा कहा जा सकता है, "विज्ञ" ऐसा कहा जा सकता है, "वेद" ऐसा कहा जा सकता है। तथा एक साथ प्राण, भूत, जीव, सत्व, विज्ञ और वेद भी कहा जा सकता है । प्र०---धन्ते ! किस कारण से उसे प्राणघात्-वेद कहा जा सकता है ? Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३.] घरगानुयोग-२ निग्रंन्यों के प्रशस्त लक्षण सूत्र ८७-८८ उ.-गोयमा ! जम्हा आणमह वा पाणमह या, उस्ससइ उ.-गौतम ! क्योंकि वह बाध और आभ्यन्सर श्वासोच्छ - वा, णीससह दा, तम्हा 'पाणे" ति वत्तवं सिया, वास लेता है और छोड़ता है इस कारण "प्राण" वाहा जा सकता है। जम्हा भूते, भवति, भविस्सति य तम्हा 'भूए" ति बह भूतकाल में श्रा, वर्तमान में है और भविष्य में रहेगा, वत्तवं सिया, इस कारण "भूत" कहा जा सकता है। आम्हा जीवे जीवत्ति, जोवत्तं आउयंत्र काम उब- यह जीता है तथा जीवन का और आयुकर्म का अनुभव जोबति, तम्हा "जोये" ति क्त्तव्वं सिया, करता है, अतएव "जीव" कहा जा सकता है। जम्हा सत्ते सुमासुमेह सम्मेहि सः "" व शुभ अशुभ कर्मों से सम्बद्ध है, अतः "रात्व" कहा जा वत्तव्वं सिया, सकता है। जम्हा तित्त-कडुप-फसायंबिल-महुरे रसे जाणइ तम्हा वह तीखा, कड़वा, कषैला, खट्टा और मीठा इन रसों को विन' ति वत्तवं सिया। जानता है, अतः वह "विज्ञ" कहा जा सकता है। जम्हा घेवैद य मुह-बुक्खं तम्हा 'वे ति बसवं बह मुख दुःत का वेदन करता है अतः वह "वेद" कहा जा सिया, सकता है। से तेण?णं गोयमा ! 'पाणे' ति वसवं सिया इस कारण से गौतम ! उसे 'प्राण'-यावत् . 'वेद' वहा -जाव-वेदे त्ति वत्तम्वं सिया। जा सकता है। ५०-माई गं मंते ! नियंठे निरुतभवे, निस्वभवपवंचे प्रा० - मन्ते ! जो मासुक भोजी अनगार संसार का निरोध -जाव-मिट्टिअटुकरणिज्जे णो पुणरवि इत्तत्य हव्वं कर चुका है, भवनपंच का निरोध कर चुका है यावत्आगच्छद? जिसका कार्य पूर्ण हो चुका है, वह पुनः मनुष्यत्व आदि भावों को प्राप्त नहीं करता है ? उ०-हंता गोयमा ! मडाई यं नियंठे-जाव-नो पुणरवि उ०—गौतम ! ऐसा प्रासुक भोजी अनगार-यावत्इत्तत्वं हवं आगच्छद । पुनः मनुष्यत्व आदि भावों को प्राप्त नहीं करता । प.--से णं भंते ! कि वत्तम् सिया? प्र.-'भन्ते ! उसे किस शब्द से वहना चाहिए? ३०-गोयमा 1 "सिद्धे" सि बत्तव्य सिया, उ.--गौतम ! उसे "सिद्ध" कहा जा सकता है, "बुद्ध" ति वत्तव्वं सिया, प्रबुद्ध" कहा जा सकता है, "मुत्ते" ति वत्तवं सिया, "मुक्त" कहा जा सकता है, संसार के पार पहुंचा हुआ कहा जा सकता है, "पारगए" ति बत्तव्वं सिया, "परम्परगए" ति बत्तम्ब अनुक्रम से संसार के पार पहुँवा हुआ वहा जा सकता है सिया, सिद्ध, बुद्धे, मुत्ते, परिनिन्बुद्धे, अंतकडे, सचदुक्थ- तथा सिद्ध, वुद्ध, मुक्त, परिनिवृत, अन्तकृत और सब दुःखों का पहीणे ति बत्तठन सिया, -बि. स. २, उ. १, सु. -- नाश करने वाला कहा जा सकता है। निग्गंथाणं पसत्य लक्खणा निर्ग्रन्थों के प्रशस्त लक्षण८८ ५०-से नूर्ण भंते ! लावियं अप्पिच्छा अमुच्छा अगेही ५८. भगवन् ! क्या लाव, अल्प इच्छा, अमूर्छा, बनासक्ति अपडिबक्षया समणाणं णिग्यं थाणं पसस्य ? और अप्रतिबद्धता, ये श्रमण निग्रंथों के लिए प्रशस्त है ? उ.--हता, गोयमा! लावियं-जाव-अपडिबद्धया समणणं उ०-हाँ गौतम ! लापब-यावत्-अप्रतिबद्धता ये श्रमण निगाथागं पसत्यं । निर्ग्रन्थों के लिए प्रशस्त हैं। १०–से नूर्ण भंते ! अकोहत्तं अमागतं अमाय अलोभतं म०-भगवन् ! क्रोधरहितता, भानरहितता, मायारहितता समणाणं निभाणं पसत्यं ? और अलोभत्व, क्या ये श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए प्रशस्त है ? उल-हंता, गोपमा ! अशोहरत-जाव-अलोमस्त समगाणं -हां गौतम ! क्रोधरहितता-पावत् :-अलोभत्व, ये निगंयाणं पसत्यं । सब श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए प्रशस्त हैं। प०-से मूणं भंते ! कखा-पदोसे खीणे समणे निगये अंत- प्र-मगजन् ! क्या कांक्षाप्रदोष क्षीण होने पर श्रमण करे भवति, अंतिमसरीरिए वा, बहमोहे विचणं निर्ग्रन्थ अन्तकर अथवा अन्तिम शरीरी (चरम) होता है ? अथवा नि Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ८६.९० श्रमण की उपमाएँ संयमी जीवन [३१ पुब्धि विहरिसा अह पच्छा संबुरे कालं करेति तओ पूर्वावस्था में बहुत मोहवाला होकर विहरण करे और फिर पच्छा सिमसि-गाव-अंत करे? संवरयुक्त होकर मृत्यु प्राप्त करे, तो क्या तत्पश्चात् वह सिद्ध, बुद्ध, मुक्त होता है-यावत-मब दुःखों का अन्त करता है? उ.-हंता, मोयमा । खा-पदोसे खीणे-जान-सब्ब दुक्खाण- उ०- हो गौतम ! कांशाप्रदोष नष्ट हो जाने पर-यावत् म रति -नियास. १, 3... सु. १६-१९ सब दुःखों का अन्त करता है। संयमी की विभिन्न उपमाएं-५ समणोवमाओ-. ८६. एवं से हांजए विमुत्ते निस्सगे-जाब-निरुत्रलेवे. श्रमण को उपमायें६. इस प्रकार वह (अपरिग्रही संयमी) साधु धन आदि के लोभ से मुक्त, आसक्ति रहित-पावत्-कर्म या आमक्ति के लेप से रहित, १. सुविमलवर-कंसमायणं व मुक्कतोए, (१) गिर्मल उत्तम कांस्य भाजन के समान स्नेह बन्धन से रहित । २. सखे विव निरंजणे विगय-राय-दोस-मोहे । (२) शंत्र के समान शुद्ध अति राग-द्वेष और मोह से रहित । ३. कुम्मे इव इंदिए गृत्ते । (२) कछुए के समान गुप्तेन्द्रिय। ४, जच्चकंचणं अजायसवे। (४) उत्तम स्वर्ण के समान शुद्ध अर्थात् दोष रहिल । ५. पोक्खर पत्त व निरूवलेवे । (५) कमल के पत्ते के सदृश निलेप । ६. चन्दे इक सोमभावयाए। (६) चन्द्रमा के समान सौम्य स्वभाव वाला । ७. सूरोग्य विस्ततेए । (७) सूर्य के समान देदीप्यमान तेज वाला ! ८. अचले जह मन्दरे गिरिवरे । (८) परीषह होने पर मन्दर पर्वत के समान अचल । ६. अक्षोमे सागरोख थिमिए । (९) सागर के समान क्षोभरहित एवं स्थिर । १०. पुटवो व सवफास-विसहे । (१०) पृथ्वी के समान समस्त अनुकूल एवं प्रतिकूल स्पर्शी को सहन करने वाला। ११. तबसा वि व भासरासिष्छन्निध्वजाततेए । (११) भस्म राशि से आच्छादित अग्नि के समान तप तेज वाला। १२. जलियट्टयासणे विव सेयसा जलते । (१२) प्रज्वलित अमित के सदृश सेजस्विता से दैदीप्यमान । १३. गोसीसचंदणं पि व सीयले सुगंधे य । (१३) गोशीर्ष वन्दन की तरह शीतल और शील के सौरम से युक्त। १४. हरय इव समियभावे । (१४) सरोवर के समान प्रशान्त स्वभाव वाला। १५. उग्पसियसुनिम्मलं आयंसमंडलतलं व पागञ्जमायेणं सुख- (१५) चित कर चमकाए हुए निर्मल दर्पण तल के समान माये। स्वच्छ एवं प्रकट भाव दाला। १६. फुजरोग्य सोंडोरे। (१६) गजराज की तरह शूरवीर । १७. वसमे ब्व जायभामे। (१७) बुषभ की तरह अंगीकृत व्रत भार का निर्वाह करने वाला। १८. सोहे व जहा मिगाहिवे होति दुप्पधरिसे। (१८) मृगाधिपति सिंह के समान परीषहादि से अजेय । १९. सारपसलिलं व सुबहियए । (१९) शरत्कालीन जल के सहरा स्वच्छ हृदय वाला। Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२] वरणानुयोग-२ श्रमण की उपमाएं २०. भारंडे व अप्पमले। २१. खग्गिषिसाणं व एगजाते। २२. खाणु चेष उहकाए। २३. सुन्नागारे व अपडिकम्मे । २४. सुमागाराषणांतो निवाय-सरण - पवीप-उमाणमिव निप्पकंपे। २५. सहा खुरो चेव एगधारे । (२०) भारण्ड पक्षी के समान अप्रमत्त । (२१) ग. के सींग के समान अकेला। (२२) स्थाणु (ठूठ) की भांति कायोत्सर्ग में स्थित । (२३) शून्य गृह के समान शारीरिक साज सज्जा से रहित । (२४) वायुरहित शून्य घर में स्थित प्रदीप की तरह ध्यान में निश्चल । (२५) छुरे की तरह धार वाला, अर्थात् एक उत्सर्गमार्ग में ही प्रवृत्ति करने वाला। (२६) सर्प के समान एकाग्र (मोक्ष) दृष्टि वाला । (२७) आकाश के समान किसी का सहारा न लेने वाला। १२८) पक्षी के सहश पूर्ण निष्परिग्रही। (२१) मार्ग के समान दूसरों के लिए निर्मित स्थान में रहने वाला । (३०) वायु के समान प्रतिबन्ध से मुक्त। (३१) जीव के समान अधतिहत बिरोकटोक) गति वाला। २६. जहा अही चेव एगविट्ठी । २७. आगा चेव निरालम्बे । २८. विहग विश्व सम्वओ बिप्पमुक्के । २६. कपपरनिलए जह चेव उरए। ३०. अपशिबढे अनिलोब्ध । ३१. जीयो सव अप्पडिहयगतो।'--प. म. २, अ५, सु. १० १ (क) से जहानामए अणगारा भगवंतो रियास मिता-जाव-निरुवलेवा, १. कंसपाई व मुक्कतोया, २. संखो इव गिरंगणा ३. जीवो इव अप्पडिहयपती, ४. गगगतलं पि व निरालवणा, ५. दायुरिव अपडिबद्धा, ६. सारदसलिन व सुद्धहियया, ७. पृथ्तरपत्तं व निरुवलेवा, ८. कुम्मो इव गुत्ति दिया, ९. विहम इव विप्पमुक्का, १०. खरगविसाणं व एगजाया, ११, भारंउपक्खी व अप्पमता, १२. कुंजरो इब सोंडोरा, १३. वसभी इव जातत्थामा, १४. सीहो इव दुद्धरिसा, १५. मंदरो इव अपकंपा, १६. सागरो इव गंभीरा, १७. चंदो इव सोमलेसा, १८, सूरो इव दित्ततेया, १६. जच्चकणगं व जातरूवा, २०. बसुन्धरा इब समकासविसहा, २१. सुहृतहुयासगो विश्व तेयसा जलता। -सूय सू०२, अ० २, सु. ७१४ (ख) से जहाणामए अणगारा भवंति इरियासमिया-जाव-दिवलेबा, १. कंसपाईव मुक्कतोया, २. संस्न इव निरंगणा, ३. जीवो इव अप्पडिहयगई. ४. जच्चकणगं पिव जायरूवा, ५. आदरिसफलगा इव पागडभावा, ६. कुम्भो इष] मुत्तिदिया, ७. पुक्खरपत्तं व निरुवलेवा, .. गमणमिव निरालंबणा, १. अणितो इव निरालया, १०. चंदो इव सोमलेसा, ११. सूरो इव दिसतेया, १२. सागरी इव गम्भीरा, १३. विहग इव सवयो दिप्पमुक्का, १४. मन्दरो इव अपकंपो, १५. सारयसलिलं इव सुद्धहियया, १६. खम्गिविसाणं इन एगजाया, १७. भारंडपक्षी व अप्पमत्तो, १८. कुंजरो इत्र सौंडीरा, १६. वराभो इव जायत्थामा, २०. सीहो इन दुरिसा, २१. पसुन्धरा हव मध्वफासविसहा, १२. सुहवहयासणी इव तेयसा जलता। -उब सु. १२६ (ग) उव० सु०२७ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र तीनों आगमों में प्ररूपित इन उपमाओं के संख्या मेव और क्रम की तालिका संयमी भीवन [३३ (टिप्पण पृष्ठ ३२ से चालू) तीनों आगमों में प्ररूपित इन उपमाओं के संख्या भेव और कम की तालिका प्रश्नव्याकरण सूत्र (३१) १. कांस्य पात्र २. शंख सूत्रकृतांग सूत्र (२१) १ कांस्य पात्र २ शंख ८ कूर्म १६ मानक ७ पदमपत्र १७ चन्द्र १८ सूर्य १५ मंदर पर्वत १६ सागर २० पृथ्वी औपपातिक सूत्र (२२) १ कांस्य पात्र २ शस्त्र ६ कूर्म ४ कनका ७ पद्मपत्र १४चन्द्र ११ सूर्य १४ मंदर पर्वत १२ सागर २१ पृथ्वी २१ प्रज्वलित अग्नि २२ प्रज्वलित अग्नि ४. कनक ५. पदमपत्र ६. चन्द्र ७. सूर्य १. मंदर पर्वत ६. सागर १०. पृथ्वी ११. भस्माच्छादित अग्नि १२. प्रज्वलित अग्नि १३. चन्दन १४. ह्रद (मरोवर) १५. दाण १६. कुंजर १७. वृषभ १८. सिंह १६. शारद सलिल २०. भारंड पक्षी २१. गेंडा २२. स्थाणु २३. शून्यागार २४. दीपक २५. शुर (उस्तरा) २६. सर्प २७, गगन २८. बिग २६. उरग (सर्प) ३०. वायु ३१. जीव १२ कुंजर १३ वषम १४ सिंह ६ शारद सलिल ११ भारंड पक्षी १. गेंडा ५ दर्पण १८ कुंजर १९ वृषभ २० सिंह १५ शारद सलिल १७ भारंड पक्षी १६ गेंडा ४ गगन ९ विहर ८ गगन १३ बिग -- ५ वायु ३ जीव १ वायु ३ जीव -1 - Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४] धरणामुयोग-२ सूर्य सहश महर्षि सूत्र ६०-६५ सूरियसरिसो महेसो - सूर्य सदृश महर्षि६०. सन्नाणनाणीवगए महेसी, अणुसरं चरि धम्मसंचयं । ६०. अनुत्तर चारित्र धर्म का आचरण करने वाला, सम्यग्ज्ञान अणुत्तरमाणघरे जसंसी, आमासई सूरिए वन्तलिखे ।। से युक्त तथा अनुत्तर ज्ञानधारी, यशस्वी, महर्षि, अन्तरिक्ष में -उत्त. अ. ६१, गा. २३ मूर्य की भांति धर्म-संघ में प्रकाशमान होता है। पवखी विव लहुभूविहारी-- पक्षी की तरह लघु-भूत विहारी६१. भोगे भोच्चा पमित्ता य, लाभूपविहारिणो । ६१. जो भौगों को भोगकर तथा यथावरार उनका त्याग करके आमोयमाणा गच्छन्ति, दिया कामकमा इव ।। लघुभूत होकर विचरण करते हैं। वे अपनी इच्छानुसार विचरण -उत्त. अ. १४, गा. ४४ करने वाले पक्षियों की तरह साधुचर्या में प्रसत्रतापूर्वक विवरण करते हैं। विहग इव अपडिबद्ध विहारी-- पक्षीवत् अप्रतिबन्धविहारी१२. हयरो विगणसमिद्धो, तियत्तिगुत्तो तिवंडविरओ य । ६२. गुणों से समृद्ध तीन गुप्तियों मे गृप्त. तीन दण्डों से विरत विहग इव विप्पमुक्को, विहरइ वह विगयमोहो । मुनि पक्षी की तरह प्रतिवन्धमुक नया मोह रहिन होकर . --उत्त. अ, २०, गा. ६० मण्डल पर विचरण करता है । कंजर इब धोरो हाथी के समान धैर्यवान१३. परीसहा कुच्चिसहा अणेगे, सोयन्ति जस्था बहुकायरा नरा। ६३. अनेक असह्य परीषह होने पर बहुत से कायर व्यक्ति वेद से तत्व पत्तं न बहेज मिक्खू, संगामसीसे इष नागराया ॥ का अनुभव करते हैं किन्तु भिक्षु परीपह होने पर संग्राम में आगे -उत्त, अ. २१, गा. १७ रहने वाले हाथी की तरह व्यथित नहीं होता है । मेरु इव अकम्पो मेरु के समान अकम्पमान१४. पहाय रागं च तहेव दोसं, मोहं च भिक्खू सययं वियपणो। १४. विलक्षण भिक्षु सतत राग-द्वेष और मोह को छोड़कर मेरुन वाएण अकंपमाणो, परीसहे आयगुत्ते सहेज्जा ।। वायु से अकषित मे की भांति आत्नगुप्त बनकर परीषहों को -वत्त. अ. २१, मा. १६ सहन करे। वसह इव संसार कतार पारगामी वृषभ सम भवाटवी पारकर्ता६५. बहणे वहमाणम्स, कन्तारं अइवत्तई । ६५. शकटादि वाहन को ठीक तरह वहन करने वाला बैल जैसे जोए बहमाणस्स, संसारो अइयत्तई ।। अटवी को सुखपूर्वक पार करता है, उसी तरह संयम भार का -उत्त, अ. २७, गा.२ वहन करने वाला मुनि संसार को पार कर जाता है। १ बहुश्रुत भिक्षु की उपमाएँ मानाचार १ बहुश्रुत भिक्षु की उपमाएँ ज्ञानाचार (चरणानुयोग भाग १) पृ. १०६. सु. १६१ में देखें। Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ļ ९६ निर्ग्रन्यको तुय्यायें 3 संयम का उपदेश तथा विशिष्ट चर्याएं--६ निर्ग्रन्थ को दुःख शय्याएँ९६. चार दुःख शय्या है(१) पहली दुआ निवरस हवेज्जाओ ६६. चत्तारि बुहसेजजाओ पण्णत्ताओं तं जहा१. स खलु इमा पढमा वुहसेज्जा - से मुं भविता अगाराम अणमारिय पावणे संकिते करियते वितिगिच्छिते भेषसमावणे कलुस समावण्णे णिग्गंथ पावयणं णो सद्दहति णो पत्तियति णो एड. पाय असावेत असे मार्ग मर्ण उच्चाक्यं निजति पढमा दुहसेज्जा । — २. महासेना--- सेविता अगाराम अगरिय प मेोतुरसति परस्स नाभमानाति पोलेलि परमेति अभिलसति परस्स लाभमासाएमाणे पीहेमाणे पत्येमाणे अभिसमाणे मण उवावयं नियच्छ विणिधातमावति बोचा दुहसेज्जा । २. हा ताजा से णं मुंडे भविता अगाराओ उपरि द माणुस्सर कामभोगे आसाएइ पीहेति पत्थेति अभिलसति दिये मास्कमोगे आसाएमा पोहेमाचे पत्मा अभिलसमाने मणं उच्चावयं विच्छति, विणिघात भावज्जति - तच्चा सेवा | ४. अहावरा उत्पा हसेज्जा से णं मुंढे भवित्ता अगाराओ अनगारिय पथवडए, तस्स णं एवं भवति जया पं अहमवाश्वासमावसामि तदाणम्हं संचार मण-गात गातुम्छोलाई नमामि जन्यभिच गं अहं मुंडे भवित्ता अगाराओ अनगारियं पथ्यइए तप्यभिनं च णं अहं संवरण- परिमारमंग गातुन्डोलमा भी लभानि । से गं संवाहणं परिमद्दण-गाता भंग गातुच्छोलाई आसाएति पीहेति पति अनिलखलि संयमी जीवन [x · re यह है कोई व्यक्ति मुण्ड होकर अगार से अनगारत्व में प्रब्रजित होकर, निर्धन्य प्रवचन में शंकित, कांक्षित विचिकिति भेदसमापन, कलुष समापन्न होकर निर्ग्रन्थ प्रवचन में श्रद्धा नहीं करता प्रतीति नहीं करता, रुचि नहीं करता, वह निधन पर अद्धा करता हुआ, अतीति करता हुआ, अनि करता हुआ, मानसिक उतार-चढ़ाव और विनिधात को प्राप्त होता है। , (२) दूसरी दुःखशय्या यह है कोई व्यक्ति मुण्ड होकर अगार से अनगार में प्रश्नजित होकर अपने साथ (भिक्षा में लब्ध आहार आदि) से मन्तुष्ट नहीं होकर दूसरे के लाभ का आस्वाद करता है, स्पृहा करता है, प्रार्थना करता है, अभिलाषा करता है, वह दूसरे के लाभ का आस्वाद करता हुआ, स्पृहा करता हुआ, अभिलाषा करता हुआ, मानसिक उतार-चढ़ाव और विनिधात को प्राप्त होता है । (१) तीस 3 कोई व्यक्ति मुण्ड होकर अगार से अनगारत्व में प्रब्रजित होकर देवताओं तथा मनुष्यों के काम-भोगों का आस्वादन करता है, स्पृहा करता है. प्रार्थना करता है, अभिलाषा करता है, वह उनका आस्वाद करता हुआ, स्पृहा करता हुआ, प्रार्थना करता हुआ, अभिलाषा करता हुआ मानसिक उतार-चढ़ाव और विभि घात को प्राप्त होता है । (४) कोई व्यक्ति मुण्ड होकर आगार से अनवारत्व में होने के बाद ऐसा सोचता है जब मैं गुहवास में नाम परिवर्तन-जन मात्राभ्यंग तेल आदि की मालिश, गोल्छाल स्नान आदि करता था पर जब से मुण्ड होकर अगार से अनगारत्व में प्रब्रजित हुआ है तब से संबाधन, परिमर्दन गावाभ्यं तदाग नहीं कर पा रहा है. ऐसा सोचकर वह संबाधन, परिमर्दन, गात्राभ्यंग तथा गात्रीरक्षालन का आस्वाद करता है, स्पृहा करता है. प्रार्थना करता है, अभिलाषा करता है, से णं संवाहण परिमण गातभंग गातुच्छोलणाई बसाएमाणे वह सम्बाधन, परिवर्तन मात्राभ्यंग गात्रा का पीमा पालिसमा मणं उच्चार निछति आस्वाद करता हुआ स्पृहा करता हुआ, प्रार्थना करता हुआ, विविधतावज्जति चउरथा बुहसेज्जा । अभिलाषा करता हुआ मानसिक उतार-चढ़ाव और विनिघात को - ठा. अ. ४, उ. ३, सु. ३२५ प्राप्त होता है । Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६) चरणानुयौन-२ निर्णयस्य सुहसेाओ २७. साराओ पन्नताओ, तं जहा १. निर्धन्य को सुख सम्याएं निर्भय की सुख शय्याएँ १७. सुखशय्या चार हैं परमा (१) पहली सुखवय्या यह है सेना नारियं पय्वग्गिं कोई व्यक्ति मुण्ड होकर अनार से अनगारत्व में प्रव्रजित urana frried तिहोकर निन्नन में निशांक, निष्कांस, निविपिति अभेद समापन, अकलुषसमापन्न होकर निर्ग्रन्थ प्रबचन में बढ़ा करता है. प्रतीति करता है। रुचि करता है। वह नित्य प्रवचन में श्रद्धा करता हुआ, प्रतीति करता हुआ, रुचि करता हुआ मन में समता को धारण करता है और धर्म में स्थिर हो जाता है । (२) दुसरीला वह है भाषणे णो कलुससमावण्णे णिगंध पावयणं सगृह पत्तियह रोति, जिग्ये पावयणं सद्दह्माणे पत्तियमाणे रोएमाणे णो मगं चावयं नियच्छति णो विणिघातमावज्जति पढमा सुहसेज्जा । · - २.हा- सेणं मुळे भविता मगाराओ अगवारियं पवईएसए लाभेणं तुरसति परस्स लाभं जो बाताइति णो पोहेति णो परमेड गो अभिसरति, परम्स लाभमणासाएमा अपना अपरबेमाथे अणमिलसमाणे णो मणं उच्चावयं नियच्छति, णो विणिपातमायजति रोना मुहमेजा। २. अहावरा सच्चा सुहसेज्जा से णं मुण्डे भविता नगारामो अगवारियं पयइए विक मापस्सए कामभोगे जो आसाएति णो पोहेति जो पश्यति णो अभिलसति दिव्वमाणुस्साए कामभोगे अणासाएमाणे अपत्येमाणे अणभिलसमाणे णो मणं उच्चावयं नियच्छति, मी वाजत-गुजर -- ४. अहावरा - सेवता जगाराओ अनगारि पए तरस एवं अहंता तो हट्टा अरोगाला कल्ससरीरा अण्णय राई ओरालाई करुलाणाई विजलाई पयपहिला महाणुभामा कम्मलकरणाई तबोमा पति अहं अग्मोषमिवक्कयिं वेय जो सम्म सहामि खमामि तितिषखेमि अहिया सेमि ? J ममं च गं अम्भोग मिओषरक मियं सम्ममसहमाणस्स अक्खममाणस्स अतितिखेमाणस्स अमहिया सेमाणस्स कि मण्णे कति ? एगंतसो मे पाये कम्मे अति ममं च णं अग्मोयगमिरे arकमियं सम्म सहभागस्स सममाणस्स तितिक्ले मागस्स यमाणस्स कि मध्ये कति ? एवंतसो मे गिज्जरा कज्जति उत्पा सुहसेज्जा । सूत्र १७ - ठाणं. अ. ४, उ. ३. सु. ३२५ कोई व्यक्ति मुण्ड होकर अगार से अनगारत्व में प्रवजित होकर अपने लाभ से सन्तुष्ट होता है, दूसरे के लाभ का आस्वा दन नहीं करता, स्पृहा नहीं करता, प्रार्थना नहीं करता, अभिलाषा नहीं करता, वह दूसरे के लाभ का आस्वादन नहीं करता हुआ पहा नहीं करता हुआ, प्रार्थना नहीं करता हुआ, अभिलाषा नहीं करता हुआ मन में समता को धारण करता है और धर्म में स्थिर हो जाता है । (३)यह है कोई व्यक्ति मुण्ड होकर अगार से अनगारत्य में प्रवजित होकर देवों तथा मनुष्यों के काम दोनों का आस्वाद नहीं करता, स्पृहा नहीं करता, प्रार्थना नहीं करता, अभिलाषा नहीं करता, वह उनका आस्वाद नहीं करता हुआ, स्पृहा नहीं करता हुआ, प्रार्थना नहीं करता हुआ, अभिलाषा नहीं करता हुआ मन में समता को धारण करता है और धर्म में स्थिर हो जाता है। (४) चौधी सुखशय्या यह है कोई व्यक्ति मुण्ड होकर जगार से अनगारत्व में प्रव्रजित होने के बाद ऐसा सोचता है-जय भगवान हृष्ट नीरोग, बलवान तथा स्वस्थ होकर भी कर्मक्षय के लिए उदार, कल्याण, विगुन, सुसंगत प्रगृहीत सादर स्वीकृति महानुभाग –श्रमेय तिलानी और कर्मकारी विचित्र तपस्याएँ स्वीकृत करते हैं तब मैं आभ्युपगकी तथा ओनिकी वेदना को ठीक प्रकार से क्यों न सहन करता हूँ । यदि मैं आभ्युपगमिकी तथा औपकमिको वेदना को ठीक प्रकार से सहन नहीं करूँगा तो मुझे क्या होगा ? मुझे एकान्ततः पाप कर्म होगा यदि मैं मानविकी और औपकमिकी वेदना को ठीक प्रकार से सहन सरूंगा तो मुझे क्या होगा ? मुझे एकान्तः निर्जरा होगी । Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ सूत्र २८-६६ संजय गण ६८. माहमा खत्तिया वेस्सा, चंडाला अटु बोक्कसा। जे आरम्भ ॥ एशिया बेतिया मुद्दा. - परिग्गहे निविद्वाणं, मेरं आरम्भसंभिया कामा, न ते आपाताधा नायओ अग्ने हरंति तं वित्तं की कम्येहि ि तेसि पत्रई दुक्खविमोयगा ॥ माया पिया सा माया, मज्जा पुता य ओरसा जासं ते तव ताणाए, लुध्यंतस्स सम्पुणा ॥ चिच्च विच से य चेकचाणं अंतर्ग' सोयं विसएसिणो । एम सपेहाए. परमट्टानुगामियं । नियमो निरहंकारी, परे भणु निनाहिं ॥ संयम ग्रहण का उपदेश 1 णायओ य परिगहूं । निरवेक्खो परिब्धए ।। संयमी जीवन संजमेण दुग्गड निरोहो २९. १० अधू असासयथि संसारम्भि खपराए। किं नाम होज्ज तं कम्मयं, जेणाई दोगगइ न गरछेज्जा ॥ ०वसंयोगं न सिहि कहिनि फुना । असिणेह सिणेहकरेहि, दोसपओसेहि मुच्चए भिक्खू [३७ संग्रहण का उपदेश - ६८. ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, चांडाल, वर्ण संकर, शिकारी, वेष से या विभिन्न कलाओं से जीविका चलाने वाले और खेती करने वाले आदि जो भी आरम्भ में रत रहते हैं । तथा जो परिग्रह में मूच्छित रहते हैं उनके वैर की वृद्धि होती है। वे आरम्भ और परिग्रह से प्राप्त काम भोग, उन्हें दुःखों से मुक्त नहीं कर सकते । सूय. सु. १, अ. ६, या २७ करे । पुरिनोरम पाहणः पयिन्तं मदानीषियं । पावकम्मणा राम्रा काम मोहं जति नरा ॥ विषय मुख के अभिलाषी ज्ञतिजन या अन्य लोग मृत व्यक्ति का दाहसंस्कार आदि भरणोत्तर कृत्य करके उस धन को ग्रहण कर लेते हैं, परन्तु नाना पापकर्म करके धन संचित करने वाला वह मृत व्यक्ति अकेला अपने पापकर्मों के फलस्वरूप दुःख को भोगता है । अपने पापकर्म से संसार में पीड़ित होते हुए तुम्हारी रक्षा करने में माता, पिता, पुत्रवधु, भाई, पत्नी और सगे आदि पुर कोई भी नहीं होते। परमार्थ की ओर जाने वाले इस अर्थ को समझकर ममता और अहंकार से रहित होकर भिक्षु जिनो धर्म का आचरण करे । धन, पुत्र, ज्ञातिजन और परिग्रह का त्याग करके अन्तर के शोक-सन्ताप को छोड़कर साधक निस्पृह होकर संयम पालन हे पुरुष ! उस पाप कर्म से उपरमण कर (क्योंकि) मनुष्य जीवन का अन्त अवश्यम्भावी है। जो काम भोग आदि में निमग्न - १, सू. सु. १, अ. २. व. ग. १० र इन्द्रिय-विषयों में मूर्च्छित है वे वसंत पुरुष मोह को प्राप्त होते हैं । किन संयोहोला। हे भव्यो ! तुम बोध प्राप्त करो। तुम बोध क्यों नहीं प्राप्त जो हणमंत रातिओ, जो सुलभं पुणराखि जीषियं ॥ करते? जीत चुकी है वापस लौटकर नहीं आती और - सू. सु. १, अ. २, ३. १, गा. १ यह गंयमी जीवन भी फिर सुलभ नहीं है। मायाहि पियाहि सुई, जो सुलहा सुगद्द य पेन्चओ । एurs भयाइ बेहिया आरंभा विरमेज्ज सुवइ ॥ -सू. सु. १, अ. २, उ. १, गह. ३ जो व्यक्ति माला, पिता के मोह में पड़कर धर्म मार्ग से भ्रष्ट हो जाते हैं, उनकी असे जन्म में पति सुलभ नहीं है। इन स्थानों पर विचारकर सुपारी पुरुष हिना से विश्व हो जाए । संयम से दुर्गति का निरोध ६६. प्र०—-अन व, अशाश्वत और दुःख-बहुल संसार में ऐसा कौन सा कार्य है, जिससे मैं दुर्गति में न जाऊँ ? उ०- पूर्व सम्बन्धों का त्याग कर, किसी भी वस्तु में स्नेह करे | स्नेह करने वालों के साथ भी स्नेह न करता हुआ भिक्षु दोषों और प्रदोषों से मुक्त हो जाता है। Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ घरणानुयोग-२ जन्म-मरण से विमुक्ति सत्र ६९-१०२ तो नाण सणसमग्गो, हियनिस्साए सबजीवाणं । केवलज्ञान और केवलदर्शन से युक्त तथा मोह से रहित तसि विमोक्खणट्टाए, भासई मुणिबरो विगयमोही ।। मुनिवर ने सब जीवों के हित और कल्याण के लिए तथा उन्हें (पांच सौ चोरों को) प्रतिबोध देने के लिए कहा। सर्व गंथं कलहं च, विष्पजहे तहाविह भिक्खू । भिक्षु सभी कर्मबन्ध के हेतुभूत पारग्रह और कलह का सरवेसु कामनाएमु पासमाणो न लिष्पई ताई ।। त्याग करे। सब प्रकार के काम भोगों में दोष देखता हुआ -उत्त. अ. ८, गा. १-४ आत्म-रक्षक मुनि उनमें लिप्त न बने । जम्म-मरणेण विमुत्ति जन्म-मरण से विमुक्ति१००. तिउति तु मेधाबी, जाणं लोगसी पावगं । १००. लोक मैं पाप कर्म को जानने वाला मेधावी सभी बन्धनों तुति पावकम्माणि, नवं कम्ममफुधओ ॥ को तोड़ देता है क्योंकि नवा कर्म बन्धन न करने वाले पुरुष के पापकर्म रूपी सभी बन्धन टूट जाते हैं। अकुब्बतो गवं नस्थि, कम्मं नाम बिजाणइ । जो पुरुष नये कर्म (कार्य) नहीं करता है, उसके कर्मों का विन्नाम से महावीरे, जेण जाति ण मिज्जती ।। बन्ध नहीं होता है । वह कमों को विशेष रूप से जान लेता है, - सूय. सु. १, अ. १५, गा. ६-७ इस प्रकार जानकर वह वीर पुरुष न जन्म लेता है और न मरता है। एस्योवरए मोसमाणे । विषय से उपरत साधक उत्तरवाद का आसेवन करता है। आयाणि परिणाम, परिवाएण विनियह॥ वह कर्म-बन्ध का विबेक कर (संयम) पर्याय (मुनि जीवन) के -आ० सु० १, मा ६, उ०२, सु० १८५ (ग) द्वारा उसका विसर्जन कर देता है। संजयस्स विणयोवएसो संयती को विनय का उपदेश१०१. राणिएम विणयं पजे, हरावि य जे परियाम जेट्टा। १०१. जो अल्पवयस्क होते हुए भी दीक्षा वाल में ज्येष्ठ नियत्तणे बदह सच्चवाई, ओवायचं बक्ककरे स पुज्जो ॥ उन पूजनीय साधुओं के प्रति जो भिक्षु दिनय का प्रयोग करता -ग. अ.८.३, गा.३ है, नम्र व्यवहार करता है, सत्यवादी है, मुह के समीप रहने वाला है और जो गुरु की आज्ञा का पालन करता है यह पूज्य है। निद च बहमन्लेज्जा, संपहासं विवज्जए। भिक्षु निद्रा अधिक न ले, हंसी मजाक न करे, विधाओं में भिहो कहाहि न रमे, समायम्मि रमओ सया ।। समय न खोवे, किन्तु सदा स्वाध्याय में लगा रहे । जोगं च समणधम्मम्मि, जुजे अणलसो धुवं । मुनि आलस्य रहित होकर श्रमण धर्म में अपने मन, वचन जुत्तो य समणधम्मम्मि, अटुं लहइ अणुसरं । और काया को लगावे, क्योंकि धमण धर्म में तल्लीन बना हुआ – दस. अ. ८, गा. ४१-४२ मुनि मोक्ष को प्राप्त करता है । हत्य पायं च कार्य छ, पणिहाय जिइंदिए । जितेन्द्रिय मुनि हाथ, पैर और शरीर को संयमित कर मन अल्लीण युत्तो निसीए, सगासे गुरुणो मुणी ॥ और वाणी रो संयत होकर गुरु के समीप बैठे। न पक्लओ न पुरओ, नेय किस्वाण पिटुओ। आचार्य आदि के बराबर न बैठे, आगे और पीछे भी न नय करू समासेज्मा, चिट्ठमा गुरुणतिए॥ बैठे । गुरु के समीप उनके उरू से अपना उरू सटाकर न बैठे। -दस. अ.क, गा. ४४-४५ संजमस्त आराहणाए उधएसो संयम की आराधना का उपदेश१०२. जीवितं पिटुतो किसचा, अंतं पायति कम्मुणा। १०२. भिक्षु अपने जीवन के प्रति निरपेक्ष होकर कर्मों का अन्त कम्मुणा समुहीभूया, जे मगमणुसासति ॥ कर लेते हैं। वे कर्मों के सामने खड़े होकर मोक्ष मार्ग का मनुशासन करते हैं। Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १०२ संयम की आराधना का उपदेश संपनी जीवन [३९ अणुसासणं पुडो पाणे, वसुमं पूयणासए । अणासए जए बत्ते, रठे आरयमेहणे ॥ संयम धन से सम्पन्न संयमी प्राणियों की योग्यता के अनुसार अनुष्णारान करते हैं किन्तु वे पूजा की इच्छा नहीं रखते हैं और वे अभिलाषा रहित, संयत, दान्ल, दृढ़ संयमी मैथुन से विरत .... णीवारे य न लोएज्जा, छिन्नसोते अणाविले । जिसने आसबहारों को रोक दिया है, जो निर्मल चित्त अणाइले सया दंते, संधिपते अर्गलिसं ।। वाला है यह प्रलोभन के स्थान में लिप्त नहीं होता है। वह सदा निर्मल चित्त याला दान्त अनुपम संधि (ज्ञान आदि) को प्राप्त करता है। अलिसस्स खेतणे, " विरुज्मेजज केणइ । अनुपम सन्धि को जानने वाला पुरुष किसी भी प्राणी के मणसा पयसा चेव, कायसा बेष चक्खुमं ॥ साथ मन बचन और काया से विरोध नहीं करता हैं वही परमा र्थदर्गी है। से हु चषखू मणुस्साणं, जे कखाए तु अंतए। जो आकांक्षाओं का अन्त करता है वह मनुष्यों का चक्षुभूत अंतेणं सुरो बहती. चक्क अंतेण लोदृति ।। (मार्ग दर्शक) है क्योंकि अन्त (धार) बाला उस्तरा ही चलता है और गाड़ी का चक्का अन्त (छोर) से ही चलता है। अंताणि धीरा सेवंति, तेणं अंतकरा इहं । धीर पुरुष अन्त प्रान्त आहार का सेवन करते हैं इसलिए वे इह मागुस्सए ठाणे, धम्मभाराहि गरा॥ समस्त दुःखों का अन्त कर देते हैं ऐसे ही पुरुष लोक में इस • सूम. स. १. अ. १५, गा. १०-१५ धर्म की आराधना करने के योग्य होते हैं। माहत्तहियं समुपेहमाणे, सम्वेहि पाहि निहाय दई । साधु सभ्यग शान आदि को भली-भांति जानता देखता नो जीवियं नो मरणामिकत्री, परिच्चएग्जा वलयाविमुक्के॥ हुआ समस्त प्राणियों को हिंसा का त्याग कर जीवन एवं मरण -सूय. सु. १, अ. १३. सु.२३ की आकांक्षा न करे, तथा गाया से मुक्त होकर संयम का पालन करे। बहिया उड्ढमावाय नावखे कयाइ वि। जननक्षी होकर मुनि कभी भी बाह्य (विषयों) की आकांक्षा पुश्वकम्म स्वयट्टाए, इमं देहं समुखरे॥ न करे। पूर्वीपाजित कर्मों के क्षय के लिए ही इस शरीर को -उत्त. अ. ६, गा. १३ धारण करे। आघं महर्म अणुवीति धर्म, सर्वज्ञ भगवान महावीर ने केवलशान के द्वारा जानकर अंजू समाहि तमिणं सुह । सरलता व समाधि धर्म का प्रतिपादन किया है, वह तुम सुनो ! अपठिष्ण भिक्खू तु समाहिपते, समाधि प्राप्त भिक्षु अमूच्छित और हिंसा आदि आश्रवों से मुक्त अणियागभूते सुपरिश्वएग्जा॥ रहकर शुद्ध संयम का पालन करे । -सूय. सु. २, म. १०, गा.१ इस्थीसु या अरओ मेहुणा उ, परिगहं व अकुस्खमाणे। जो स्त्रियों के साथ मैमुन सेवन नहीं करता हैं, परिग्रह नहीं अन्दावएसु विसएसु ताई, णिसंसयं भिक्खू समाहिपत्ते ॥ रखता है, नाना प्रकार के विषयों में राग द्वेष रहित होकर - मूय. सु. १, अ. १०, गा. १३ जीत्रों की रक्षा करता है निःसन्देह वही भिक्षु समाधि प्राप्त होता है। आहारमिच्छे मिय मेसणीयं, सहायमिन्छे पिउणस्थ अखि। समाधि की आकांक्षा रखने वाला तपस्वी श्रमण परिमित नियमिच्छेन विवेग जोग, समाहि कामे समणे तबस्सी॥ और एषणीय आहार की इच्छा करे । तत्वार्थों को जानने में --उत्त. अ. ३२, गा. ४ निपुण बुद्धि वाले को सहायक साथी बनावे तथा स्त्री आदि से रहित एकान्त स्थान में निवास करे । समिवियाभिनिष्ब पयासु, चरे मुणी सम्वतो विप्पमुक्के। मुनि सभी इन्द्रियों से स्त्रियों के प्रति संयत तथा सर्वस पासाहि पाणे य पुढो बि सत्ते, बुझ्षेण अद्वै परिचवमाणे ॥ बन्धन मुक्त होकर रहे। पृथक-पृथक् रूप से दुःख से पीरित और -सूय सु. १, अ. १०, गा. ४ सताये जाते हुए प्राणियों को देखें। -- . .- - . . .-. - - - - - - Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०] चरणानुयोग-२ संयम की आराधना का उपदेश सूत्र १०२ अधिसु पुरा वि भिक्खयो, आएसा पनि सुन्दा . firsa मकान में भी जो (सर्वज्ञ) हो चुके हैं और एयाई गुणाई आह ते, कासवस्स अणुधम्मचारिणो । भविष्य में भी जो होंगे, उन सुव्रत पुरषों ने इन्हीं गुणों को मोक्ष का माधन बताया है, उन्होंने ऋषभदेव भगवान के द्वारा प्रति पादित धर्म का ही अनुसरण किया है। तिबिहेप वि पाग मा हणे, आयहिते अणियाण संवुडे । सावक मन, वचन और काया से प्राणियों की हिसा न करे एवं सिद्धा अर्गतगा, संपत्ति जे प अगागवाऽबरे ॥ नपा पात्नहित में संलग्न रहकर स्वर्गादि सुखों के निदान से रहित होकर संयम पालन करे इस प्रकार की साधना से अनन्त जीव मुक्त हुए हैं, वर्तमान में होते हैं और भविष्य में भी अनन्त जीव मुक्त होंगे। एवं से उदाह अणुत्तरनाणी अणुत्तरवसो अणुसरनाणदंसणधरे। इस प्रकार अनुत्तरज्ञानी, अनुत्तरदर्शी, अनुत्तर शान-दर्शन अरहा पायपुसे भगवं वैसालीए वियाहिए। धारतः इन्द्रादि देवों द्वारा पूजनीय (अहंन्त) ज्ञातपुष तथा -सूय. सु. १, अ.२, उ.३, गा. २०-२२ ऐश्वर्यादि गुण युक्त भगवान महावीर स्वामी ने वैशाली नगरी में कहा था सो मैं कहता हूँ। जाए ससाए निक्वंतो परियापट्टाणमुत्तमं । जिस श्रद्धा से उत्तम प्रव्रज्या स्थान के लिए घर का त्याग तमेव अणुपालेज्जा, गुणे आयरियसम्मए । किया है उसी श्रद्धा को पूर्ववत् बनाये रखें और सर्वश सम्मत -दस. अ.८, गा. ६० गुणों का अनुपालन करे। सोच्चा भगवाणुसासणं, सच्चे तस्थ करेज्नुवक्फम । भिक्षु भगवान के अनुशासन (आगम वाणी) को सुनकर सम्वत्य विणीयमच्छरे उंछ भिक्ख विसुब माहरे ॥ उसमें कहे गये संयम में पुरुषा करें एवं सर्वत्र मत्सरभाव रहित होकर अल्प और शुद्ध आहार ग्रहण करें। सव्वं गच्चा अहिट्ठए, धम्मट्ठी उबहाणबोरिए। साधु सब पदायों को जानकर संयम का आचरण करे, गुत्ते जुत्ते सदा जए, आय-परे परमाययहिए । धर्मार्थी रहे, तप में अपनी शक्ति लगाये, मन-वचन-काया को -सुय. सु. १, अ.२, उ, ३, गा.१४-१५ गुप्ति से मुक्त होकर रहे, सदा स्व-पर का कल्याण करें अथवा आत्मपरायण होकर यत्न करे और मोक्ष के लक्ष्य में स्थित रहे। सुअक्क्षातधम्मे वितिगिच्छतिणे, उत्तम तपस्वी भिक्षु तीर्थकरोक्त धर्म में शंकाओं से रहित लाळे बरे आयतुले पपासु । होकर पृथ्वीकाय आदि प्राणियों के प्रति आत्मतुल्य होकर योग्य आयं न कुरजा इह जीवियट्ठी, जनपद में नितरण करे । इस लोक में चिरकाल तक जाने की चयं न कुज्जा सुलवस्सि भिश्व ॥ इच्छा से आय' अर्थात् आश्रवों का सेवन न करे तथा कर्मों का -सूर्य, मु. १, अ.१०, गा. ३ संचय न करे । गुत्ते तईए य समाहिपसे, लेसं समाहटु परिवएज्जा । भिक्षु वाणी से संयत हो समाधि-प्राप्त बने, विशुद्ध लेश्या गिहं छाए ण वि छाबएन्जा, सम्मिस्सिमावं पजहे पयासु ॥ के साथ परिव्रजन करे, स्वयं घर न छाए और दूसरों से न -सूय. सु. १, अ. १०, गा, १५ वाए, गृहस्थों के साथ एक स्थान में न रहे। जहित्तु संयं थ महाकिलेसं महाक्लेशकारी, महामोहोत्पादक और महाभय को उत्पन्न महतमोहं कसिगं भयावहं । करने वाले संपूर्ण परिग्रह एवं स्वजनादि का त्याग करके मुनि परियायधम्म चभिरोमएग्जा, प्रव्रज्या धर्म में लीन रहे। पांच महाव्रतों तथा पिंड विशुद्धि बयाणि सोलाणि परीसहे य ॥ आदि के पालने में और परीषहों को समभाव से सहन करने में अभिचि रखे। हिंस सच्चं च अतेणयं च, विद्वान् मुनि अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरितत्तो य बंभ अपरिगहं च । ग्रह -इन पांच महायतों को स्वीकार करके जिनोपदिष्ट धर्म पडियज्जिया पंच महब्बयाई, का भलीभाँति आचरण करे । घरेज्ज धम्म जिगदेसियं विदुः ।। Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १०२ सहि मूहि वयाणुरूपी, किसमे परितो परेज, भिवधूनमाहिदिए । सावन्नजोगं काले ब संजयनं मयारी | बसावलं जाणिय अप्पयो । सोहो व सद्देण न संतसेज्जा, लोग सोच्या न समा बुसिए य विषयगेही आयाणं सं ( सम्म) रखखए । परिमाण भत्तपाणे य अंतसो ॥ उत्त. अ. २१, गए. ११-१४ सिपाएका अनियि बोटुकाए बिहरेज्जा जाव कालस्स पज्जओ ॥ एतेहि तिहि ठाणेह, संजए राततं पुणी । उeri जलणं णूमं मज्जत्वं च विशिषए । समिए य सया साहू पंच सिविल अमोश्याय परिष्वजानि ॥ सू. सु. १. अ. १. उ. ४ मा १२-१३ अणिएयवासी सम्प्राणचरिया अभ्यायचं यह रिक्क्या य अलाहाररियादसि परवा -वश. चू. २, गा. ५ सम अपरम्य संजसं सम परि जे आवकला समाहिए, दबिए कालमकासि पंडिए । वरं अनुपस्सिया मुणी, तीतं धम्ममणागयं तहा पुट्ठे फरह माहणे, अति हष्णु समयंस शेयइ ॥ संयम योग्य जन पण सवा एघारे मुगी । मुहमे उस अलूस जो कुछ को माणि मागे ॥ - www जय-मम्मि परे हर व या अभाविपाकासि फास || बनेपामा होदिया, पतेयं समयं महा मेोरिति तत्यमा पक्षिते ॥ .सु. १.२२४६ उन. म. ३५, ३. ४, गा. ११-१३ करे । संयमी जीवन I've प्रति करुणाशील रहे, क्षमा से से संयत हो, ब्रह्मचारी ही करता हुआ विचरण करे । इन्द्रियों का सम्यक संदरण करने वाला भिक्षु सब जीवों के दुर्वचनादि को सहन करने वाला यह सत्र सावययोग का परि मुनि यथासमय क्रियानुष्ठान करता हुआ राष्ट्र में विचरण करे। अपनी आत्मा के बलाबन को जानकर तप में प्रवृत्ति करे तथा प्रतिकूल शब्दों की सुमर सिंह की भांति किसी से त्रस्त न हो तथा असभ्य वचन भी न कहे । दस प्रकार की साधु समाचारी में स्थित और आहार बादि की आसक्ति से रहित मुनि आत्मा की सम्यक प्रकार से रक्षा करे तथा चर्या, आसन और शय्या के सम्बन्ध में जीवन पर्यन्त विवेक रखे । इन तीनों स्थानों में सतत संयत मुनि क्रोध, मान, माया और लोभ का त्याग करे । सदा पाँच समितियों से युक्त पाँच संबर से संत भिक्षु गृहस्थों में मुर्छा न रखता हुआ मोक्ष प्राप्त होने तक संयम में पुरुषार्थ करे। ऋषियों के लिए अनिता सामुदानिको भिक्षा बजात कुलों की भिक्षा, साधारण आहार ग्रहण एकान्तमाप उपकरणों की अल्पता और कलह का वर्जन इत्यादि संयम चर्या कल्याणकारी कही गई है। मुनि शुक्लध्यान ध्याए । अनिदान और ऑकंचन रहे । वह जीवन पर्यन्तस्य देहायास से मुक्त होकर बिहार जो शुद्ध भ्रमण प्रत्येक संयम स्थान में जीवन पर्यन्त प्रवृत्त रहे वह समाधिस्य पंडित काल करके मुक्त होता है। मुनि दोषं दृष्टि से भूत और भविष्य का तथा जीवों स्वभाव का अवलोकन करके कठोर वाक्यों को समभाव से सहन करे तथा मारे जाने पर भी दृढ़ता से संयम में ही विचरण करे । कुशल प्रज्ञावाला और सदा अप्रमत्त मुनि समता धर्म का निरूपण करे वह सूक्ष्मद मुनि सदा कोध करे और न अभिमान करे । रहे अनेक लोगों द्वारा नमस्करणीय मुनि समस्त पदार्थों में अतिवद्ध होकर सरोवर की तरह सदा निर्माण रहता हुआ काश्यप गोत्रीय भगवान महावीर के धर्म का कथन करे . संसार में अनन्त प्राणी है। इनका अस्तित्व पृथक-पृथक है, प्रत्येक प्राणी में समानता है अर्थात् उन्हें सुख जय है और इस है यह विचार कर जो मुनि पद में उपस्थित है वह पंडित अप्रिय उनसे विरति करे अर्थात् किसी प्राणी का उपघात न करे । J Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२] चरणानुयोग-२ गृहस्थों की बेयावत्य का तथा धन्दन पूजन की चाहना का निषेध सूत्र १०२-१०६ ... - -- ------ --- ------ - -. .... अमज्जमंसासि अमच्छरीया, अभिक्षणं निषिगई गओ य। गाधु मद्य. मांस और मत्स्य का अभोजी हो, बार-बार दूध अभिक्खणं काउस्सगकारी, सज्मायजोगे पथओ हवेज्जा । दही आदि विगयों को रोका न करने वाला हो, बार-बार कायो त्यर्ग करने वाला और स्वाध्याय की प्रवृत्तियों में प्रयत्नशील हो। नं पडिप्रवेज्जा सयणाऽसणाई. सेज्ज निसेज्जतह भत्तपाणं । भिक्षु शयन, आसन, शय्या, निषगा नया आहार पानी में गामे कुले वा नगरे व देसे, ममत्तमावं न कहिं चि कुज्जा ॥ आमक्तिपूनम कोई प्रतिज्ञा न करे और ग्राम, नगर तथा देश दरा, अ. १०, नू. २, गा. ७.८ में श्रद्धाल घरों में कहीं भी ममत्व भाषन पारे । गिहत्याण वेयावडियं तह बंदण पूयण कामणाणिसेहो- गृहस्थों की वैयावृत्य का तया वन्दन पूजन की चाहना का निषेध१०३. सचं जगं तु समयाणुपेहो, १०३. साधु समस्त जगत को समभाव से देने। वह किसी का पियमपियं कस्सइ नो करेज्जा। भी प्रिय या अप्रिय न करे। कोई साधक प्रजित होकर भी सट्ठाय दोणे तु पुणो विसणे, परीषहों एवं उपसर्गों की बाधा आने पर दीन और चिन्न हो संपूयणं चैव सिलोयकामी॥ जाते है और कोई-कोई अगनी प्रमोसा व पूजा के अभिलाषी बन -सूय. गु. १. अ. १०, मा. ५ जाते हैं (किन्तु साधक को गंगा नहीं करना चाहिये ।) गिहिणो वेयावडियं न कुरुजा, अभिवायण वंदण पूयणं च। माधु गहस्थ वा वैयावृत्य न करे, अभिवादन वन्दन और असंकिलिठेहि सम इसेज्जा, मुणी चरित्तस्स जभी ने हाणी। पूजन न बारे । मुनि संक्लेशरहित साधुओं के साथ रहे जिससे -वस. चू २. गा कि नारिप बी हानि न हो। इस्त्रियं पुरिसं वा बि, डहर वा महल्लगं । वन्दना करते समय किसी भी स्त्री या पुरुष से, बानक या चवमाणे न जाएज्जा, नो व णं, फरसं वए । वृद्ध से साधु याचना न करे और आहार न देने वाले गृहस्थ को कठोर वयन भी न कहे । जेन बंदे न से कुप्पे, बंदिओ न समुक्कसे । जो वन्दना न करे उस पर कोप नवरे, बन्दना करने पर एवमन्नेसमाणस्स सामणमणुचिदई ।। गवं न करे । इस प्रकार अन्वेषण करने वाले मुनि का श्रामण्य - दस. अ. ५, उ, २, गा. २६-३० भाव अखण्ड रहता है। अपचण रयणं नव वन्दणं पूर्वणं तहा। मुनि अर्चना. रत्ता (अनन भोती आदि का स्वस्तिका इड्ढीसरकारसम्माणं मणसा वि न पत्थए । बनाना) बन्दना, पूजा, ऋद्धि, सकार और राम्मान को मन से --उत्त. अ. ३५, गा. १८ भी न चाहे । अहिगरण णिसेहो अधिकरण विवर्जन-- १०४. अगिरण करस्स भिक्खुणो, ययमाणस्स पासज्ज दारुणं । १०४. कलह करने वाले तथा कलहयश भयंकर कठोर वचन अटु परिहायती हू. अहिरणं न करेज पंडिए॥ बोलने वाले भिा का बहुत संयग' नष्ट हो जाता है। अतः -सूय सु. १, अ. २, उ. २, गा १६ पंडित मुनि कभी भी बनहग करे । कलहकारगो पावसमणो कलहप्रिय-पाप श्रमण . . १०५. विवादं च उदोरेइ, अहम्मे अत्तपन्नहा । १०५. जो शान्त हुए विवाद को पुनः उत्तेजित करता है, जो बुग्गहे कलहे रत्ते, पावसम्णे ति बुच्चद ।। सदाचार रहित है, जो कुतों द्वारा अपनी बुद्धि को मलिन उत्तअ. १७, गा.१२ करता है, जो कदाग्रह और कलह में प्रवृत्त रहता है वह पाप श्रमण कहलाता है। परीसहजय उबएसो परीषहजय का उपदेश - १०६. भरति रति च अभिभूय भिक्सू, तणाइफासं सह सोतफासं। १.६. भिक्ष अरति और रति परोपह को जीते, तृण आदि का उहं च दंसं च हियासएज्जा, सुबिभ घ दुमि च तितिक्माएजा ॥ स्पर्श तथा रार्दो गरमी के मार्श और मकर आदि के दंश की —सूय. सु. १, अ. १०, गा. १४ महे । सुगन्ध और दुर्गन्ध में समभाव रखे। Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १०६-१०७ अध्यात्म जागरण से मुक्ति संयमी जीवन [४३ foner उवेहमाणो उ परिव्यएज्जा, संयमी प्रतिकूलताओं की उपेक्षा करता हुआ विचरण करे। पियमप्पियं सब तितिक्सएज्जा। अनुकूल-प्रतिकूल सब परीषहों को सहन करे। वर्ष जो भी न सध्च सध्यस्याभिरोयएज्जा, १ का देस या भुने उनकी अभिलाषा न करे, पूजा और न यावि पूर्य गरहं च संजए । गर्दा भी न चाहे। अणेगछन्वा इह माणवेहि. इस संसार में मनुष्यों के अनेक प्रकार के अभिप्राय होते हैं. जे भावओ संपकरेइ भिक्खू । । भिक्षु उन अभिप्रायों का सम्यक् रीति से विचार करे तथा अपने भयभेरवा तत्व उइन्ति भोमा, उदय में आये हुए देवकृत, मनुष्यकृत तथा तियंचकृत भयोत्पादक दिवा मणुस्सा अदुवा तिरिच्छा ॥ भीषण उपसगो को सहन करे । -उत्त. अ. २१, गा.१५-१६ सोओसिणा समसा य फासा, आयंकाविविहा फुसन्ति देह । शीत, उष्ण, डांस, मच्छर, तृण-स्पर्श तथा अन्य विविध अकुक्कुओ तत्यऽहियासएज्जा, रयाई खेवेज्ज.पुरेकडाई ।। प्रकार के आतंक जद भिक्षु को स्पर्श करें, तब वह कुत्सित शब्द न . -उत्त. अ. २१, गा. १८ करते हुए उन्हें समभाव से सहन करे तथा पूर्वको को क्षीण करे । अणुभए नायणए महेसो, न यावि पूर्ण गरहं च संजए। जो साधु पूजा-प्रतिष्ठा में उन्नत और गहा में अवनत नहीं स उज्जुभावं पडिवज्ज संजए, निव्वाणमग विरए उवेह ॥ होता है वह समभावी विरत संयमी सरलता को स्वीकार करके निर्वाण-मार्ग को प्राप्त होता है। अरहरइसहे पहोणसंथवे विरए जाहिए पहाणवं । __ जो अरति और रति को सहन करता है, संसारी जनी के परमट्ठपहिं चिटई, छिन्नसोए अममे अन्त्रिणे ॥ परिचय से दूर रहता है, जिरक्त है, आत्म-हित का साधक है, संयमशील है, शोक रहित है, ममत्त रहित है, परिग्रह रहित है, वह सम्यन् दर्शनादि मोक्ष-साधनों में स्थित होता है। विवित्तलयणाई भएज्ज ताई, निरोबलेबाई असंथा। षट्काय रक्षक मुनि-अलिप्त वीज आदि से रहित और इसीहि चिष्णाई महायसेहि, कारण फासेज्ज परीसहाई॥ महायशस्वी ऋषियों द्वारा सेवित एकान्त स्थानों का सेवन करे उत्त. अ. २१, गा, २०-२२ तथा काया से परीपहों को सहन करे। अज्झत्थ जागरणाए मुत्ति - अध्यात्म जागरण से मुक्ति१०७. जो पुश्वरसावररतकाले, १०७. जो साधु रात्रि के पहले और पिछले प्रहर में स्वयं आत्मसंपेहए अप्पगमप्पएणं । निरीक्षण करे कि--"मैंने क्या किया? मेरे लिए क्या कार्य कि मे का कि च मे फिच्च सेस; करना शेष है? वह कौनसा बार्य है जिसे मैं कर सकता हूँ कि सक्कणिज्जं न समायरामि ।। परन्तु नहीं बार पा रहा हूँ? कि मे परो पासइ कि च अप्पा, दूसरा मेरे किन दोषों को देखता है अथवा कोन सी अपनी कि चाहं खलियं न विवजयामि । भूल को मैं स्वयं देख लेता हूँ ? वह कौन सा दोष है जिसे मैं इन्चेब सम्म अणुपासमाणो, नहीं छोड़ रहा हूँ? इस प्रकार सम्या प्रकार से आत्म-निरीक्षण अणाय नो पतिबंध कुज्जा ।। करता हुआ मुनि भविष्य में कोई दोष न लगादे । जत्थेव पासे कई दुश्पउत्तं काएण वाया अदु माणसेण । जब कभी मन, वचन और काया को दुष्प्रवृत्त होता हुआ तत्येव धोरो परिसाहज्जा, आइन्नो खिप्पमिवक्सलीणं ॥ देखे तो धैर्यवान साधु वहीं सम्हल जाये। जैसे जातिमान अश्व लगाम को खींचते ही शीघ्र सम्हल जाता है। जस्सेरिसा जोग जिइंदियस्स, धिईमओ सुपुरिसास निच्च। जिस जितेन्द्रिय धैर्यवान सत्पुरुष के योग सदा इस प्रकार तमाह लोए पडिबुद्धजीवी, सो जीबई संजमजीविएणं ।। के होते हैं उसे लोक में प्रतिबुद्धजीवी कहा जाता है वही मयमी जीवन जीता है। अप्पा खलु लययं रक्खियचो, सविदिएहिं सुसमाहिएहि। ममाधियुक्त इन्द्रियों से आत्मा की सतत रक्षा करनी अरक्सिओ जा पहं उयेई, सुरक्खिओ सम्बबुहाण मुच्चद॥ चाहिए। क्योंकि अरक्षित आत्मा जन्म-मरण को प्राप्त होता है - दस. चू. २, गा. १२-१६ और सुरक्षित आरमा सब दुःखों से मुक्त हो जाता है। Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४] वरणानयोग-२ अमणों को तीन भावनायें सूत्र १०८-१०६ समणाणं तिविहा भावणा धमणों को तीन भावनायें-- १०८. तिहि ठाणेहि समणे णिगंथे महाणिज्जरे महापज्जवसाणे १०८. तीन कारणों से श्रमण निन्थ महानिर्जरा और संसार भवति. तं जहा-- का अन्त करने वाला होता है(१) कया गं अहं अप्पं वा बहुय वा सुयं अहिल्जिस्सामि ? (१) कब मैं अल्प या बहुत श्रुत का अध्ययन करूंगा? (२) कया णं अवं एकल्लविहारपटिम उपसंपज्जित्ता गं (२) कब मैं एकल विहारी प्रतिमा को स्वीकार कर बिहार बिहरिस्सामि? करूंगा? (३) कया णं अहं अपच्छिममारणांतियसलेहणा-झूसणा- (३) कब मैं अपश्चिम भारणान्तिक संलखना की आराधना सिते भत्तपाणपडियाइक्षिते पाओवगते कातं अणवस्ख- से युक्त होकर भक्त-पान का परित्याग कर पादपोपगमन संथारा माणे विहरिस्सामि। स्वीकार कर मृत्यु की आकांक्षा नहीं करता हुआ विचरूंगा? एवं समणसा सवयसा सकायसा पागडेमाणे समणे निग्गंथे इस प्रकार मन, वचन और वाया से युक्त प्रकट रूप से महाणिज्जरे महापजधसाणे भवति । भावना करता हुआ श्रमण निग्रंन्थ कर्मों का क्षय और संसार -ठाणं अ.३, उ. ४. सु. २१० का अन्त करने वाला होता है। समणाणं बत्तीसं जोग-संगहा धमणों के बत्तीस योग संग्रह-- १०६. धत्तोस जोगसंगहा पण्णता, तं जहा १०६. बत्तीस योग संबह कहे गये हैं, यथा(१) आलोयणा, (१) दोषों को यथार्थ आलोचना करना, (२) निरवसावे, (२) आलोचना सुनकर अन्य को नहीं कहना, (३) आवईसु बढधम्मया, (३) संकट पड़ने पर भी धर्म में हट रहना, (४) अणिस्सिओवहाणे, (४) आसक्ति रहित तप करना, (५) सिक्खा , (५) आचार्य द्वारा दी गई शिक्षा ग्रहण करना, (६) नितिफम्मया, (६) शरीर का परिकर्म न करना, (७) अण्णायता, (७) गुप्त तप करना, (८) अलोभे य, (८) निर्लोभी रहना, (6) तितिक्खा, (8) कष्टसहिष्णु होना, (१०) अज्जवे, (१०) व्यवहार में सरलता रखना, (११) हृदय पवित्र रखना, (१२) सम्मविट्टी, (१२) सम्यक्त्व शुद्ध रखना, (१३) समाहो, (१३) प्रसन्न चित्त रहना, (१४) आयारे, (१४) पंचाचारों का पालन करना, (१५) विणओवए, (१५) रत्नाधिक का विनय करना, (१६) धिईमई (१६) धैर्य रखना, (१७) संवेगे, (१७) संवेग युक्त रहना, (१८) पणिही, (१८) अध्यवसायों की एकाग्रता रखना, (१६) मुविहि, (१६) आचरण शुद्ध रखना, (२०) संबरे, (२०) संवर की वृद्धि करना, (२१) अत्तवोसोवसंहारे, (२१) आत्मा में आते हुए दोषों को रोकना, (२२) सम्वकामविरत्तया, (२२) समस्त विषपों से विरक्त रहना, (२३) मूलगुण- प साणे, (२३) मूलगुणों का शुद्ध पालन करना, (२४) उत्तरगुण-पस्वखाणे, (२४) उत्तरगुणों का शुद्ध पालन करना, (२५) विउस्सगे, (२५) बस्त्र-पात्रादि उपकरणों तथा कषायादि का व्यत्सर्ग करना, Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्र १०६-११२ संयम योग में आत्मा की स्थ पना संयमी जीवन ४५. (२६) अपमादे, (२६) प्रमाद बा त्याग करना, (२७) लवालवे, (२७) समाचारी में सतत सावधान रहना, (२८) माणसंवरजोगे या (२८) शुभ ध्यान में रहना, (२६) उपए मारणतिए. (२६) मारणान्तिक वेदना होने पर भी अधीर न होना, 1.) गाव (३०) आसक्ति के स्वरूप को जानकर परित्याग करना, (३१) पायच्छित्तकरणेत्ति य, (३१) गृहीत प्रायश्चित्त का अनुष्ठान करना, (३२) आराहणा य मरणंते, (३२) मरण समय में संलेखना करके आराधक बनना । बत्तीसं जोगसंगहा। -सम.मम. ३२. मु. १ ये बत्तीस योग संग्रह (रामाधि के कारणभूत स्थान) है। संजम जोगे अप्पाणं ठवणा संयम योग में आत्मा की स्थापना११०. हाचेहि ठाणेति, जिणे बिठेहि संजए। ११०. जिनेश्वर भावान द्वारा उपदिष्ट इन स्थानों से अपनी धारयन्ते उ अपाणं, आमोक्लाए परिवएज्जासि ॥ मात्मा को संयम में स्थापित करता हुआ मुनि मोक्ष प्राप्त होने -सूय. सु.२, अ. ५, मा. ३३ तक पंचाचार पालन में प्रगति करे। संयमी जीवन के अठारह स्थान-७ संजमस्स अट्ठारस ठाणाई संयम के अठारह स्थान१११. समणेणं भावया महावीरेणं समणागं णिग्गंधाणं सलापवि- १११, श्रमण भगवान् महावीर ने आबाल वृद्ध सभी श्रमण अत्ताणं अट्ठारस ठाणा पग्णत्ता । तं जहा निग्रंन्यों के लिए अठारह स्थान कहे हैं । जैसेक्यछक्क कायछक्क, अकप्पो मिहिभायणं । छः व्रत का पालन, छः काया का रक्षण, अकल्पनीय आहार पलियंक निसिज्जा य, सिणाणं सोमवज्जणं ।। आदि, गुहि-भाजन, पर्यक (पलंग आदि), निपया, स्नान और -सम. स. १८, सु.१ शोभा (इन छ:) का वर्जन । बस अट्ठ य ठाणाहं जाई बालोऽबरमई। साध्वाचार के ये अठारह स्थान हैं जो बाल अज्ञानी साधु तत्थ अन्नयरे ठाणे निगंयत्ताओ भस्सई ॥ इन अटारह स्थानों में से किसी एक भी स्थान को विराधना -देश. अ. ६, गा ७ करता है, वह साधुपने से भ्रष्ट हो जाता है। पदम 'अहिंसा' ठाणं प्रथम 'अहिंसा' स्थान११२. तस्थिम पढमं वाणं, महावीरेणं देसियं । ११२. भगवान महावीर ने इन अठारह स्थानों में से पहला अहिंसा निउगं विट्ठा, सध्वभूएसु संजमो । स्थान अहिंसा का कहा है। इसे उन्होंने सूक्ष्मरूप से देखा है। सब जीवों के प्रति संयम रखना अहिंसा है। जावंति सोए पाणा, तसा अदुव थायरा । लोक में जितने भी बम और स्थावर प्राणी हैं, मुनि उनका ते जाणमजाणं वा, न हणे णो वि घायए । जान या अनजान में न हनन करें और न कराए। सम्वे जीवा वि इच्छन्ति, जीविन मरिज्जिङ । सभी जीव जीना चाहते हैं, मरना नहीं चाहते। इसलिए तम्हा पाणवहं घोरं, निगंथा बजयंति प्राण-बध को भपानक जागवार निर्गन्थ उसका वर्जन करते हैं । -दस. अ. ६, गा ८-१० १ दस. अ.६, गा. ७. Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६] धरणानुयोग-२ द्वितीय 'सत्य' स्थान सत्र ११२-११६ जगनिस्सिएहि भूएहि तसनामेहि थावरेहि च। संसार में रह हुए जो भी त्रग और स्थायर प्राणी है, उनके नो तेसिमारमे बंड, मणसा वयसा कायसा व ॥ प्रति मन, वचन, वाया रूप किसी भी प्रकार के दण्ड वा प्रयोग - उत्त, अ. ८, गा. १. न करे। अहे य तिरिय दिसासु. तसा पजे थावर जे प पाणा। ऊँची-नीची और तिरजी दिशाओं में जोत्रा और स्थावर हत्थेहि पाएहि य संजमेता, अश्विणमन्नेसु य नो गहेज्जा ।। प्राणी है उन्हें अपने हाथों और पैरों को संयम में रखकर किसी -सूब. गु. १. अ. १, गा.२ भी प्रकार से पीड़ा नहीं देनी चाहिए तथा दूसरों के द्वारा न दिये हुए पदार्थ को ग्रहण नहीं करना चाहिए। बितीयं 'सच्च' ठाणं बिपी 'सत्य' मान .. ११३. अप्पणट्ठा परट्ठा वा, कोहा चा जह वा भया । ११३. निग्रंन्य अपने या दूसरों के लिए, कोध से या भय से पर हिंसयं न मृसं बूया, नो वि अन्नं व्यावए । पीड़ाकारक असत्य न बोले, म दूसरों से कुलगाए । मुसाबाओ प लोगम्मि, सब्यसाहूहि गरहियो । इस लोक में मृपावाद सगस्त साधुओं द्वारा गहित है और अबिस्सासो य भूयार्ण, तम्हा मीसं विवजए॥ वह प्राणियों के लिए अविश्वसनीय है। अत: निम्रन्थ असल्म -दरा. अ. ६, या. ११-१२ न बोले। ततियं 'अतेणगं ठाणं तृतीय 'अस्तेय' स्थान११४. चित्तमंतचित्तं वा, अप्प वा जइ वा बहुं । ११४. संयमी मुनि सजीव या निर्जीव, अल्प या बहुत, दन्तशोधन दंतसोहणमेतं पि, ओग्यहंसि अजाइया ।। मात्र वस्तु का भी उसके अधिकारी की आजा लिए बिना स्वयं तं अस्पणा न गेण्हंति, नो वि गेहाबए परं । ग्रहण नहीं करता, दूसरों से ग्रहण नहीं कराता और ग्रहण करने अन्नं वा गेण्हमाणं पि, नाणुजाणंति संजया ।। वाले का अनुमोदन भी नहीं करता। -दस. अ. ६, गा. १३-१४ चउत्थं 'बंभरिय' ठाणे चतुर्थ 'ब्रह्मचर्य' स्थान११५. अबमचरियं घोर, पमा दुरहिटियं । ११५. अब्रह्मचर्य लोक में पोर प्रमाद-जनक और दुर्जन व्यक्तियों नायरंति मुणो लोए, मेयाययणज्जियो । द्वारा सेनन किया जाता है। चारित्र-भंग के स्थान से बचने वाले मुनि उसका सेवन कभी भी नहीं करते ।। मूलमेयमहम्मस्स, महादोससमुस्सयं । यह अब्रह्मचर्य अधर्म का मूल और गहादोषों का समूह तम्हा मेहुणसंसरग, निम्मा बज्जयंति णं ॥ है। इसलिए निर्ग्रन्थ भैथुन के गंगर्ग का सर्वशा परित्याग -दम', अ. ६. मा. १५-१६ करते हैं। पंचमं 'अपरिगह' ठाणं पंचम 'अपरिग्रह' स्थान११६. बिडमुम्मेहम लोणं, तिल्ल सपि ध फाणियं । ११६. जो महावीर स्वागी के बचनों में रत हैं, वे मुनि विडन ते सन्निहिमिच्छन्ति, नायपुस्तबओरया ।। लवणं (जलाकर अचित्त वना नमक) उद्विग्न (अन्य शस्त्रों से अचित्त बना) लवण, तेल, घी, और गीले गुड़ के संग्रह करने की इच्छा नहीं करते। लोहस्सेस अणुफासे, मन्ने अन्नयरामवि । जो कुछ भी संग्रह किया जाता है वह लोभ का ही प्रभाव जे सिया सन्निहीकामे, गिही पवइए न से ॥ है अत: तीर्थकर देव ऐसा मानते हैं कि जो धमण सनिधि का कामी है वह गृहस्थ है, साधु नहीं है। जं पि बत्थं व पायं वा, कंबलं पायपुंछणं । जो भी वस्त्र, पात्र, कम्बल और रजोहरण हैं, उन्हें भी तं पि संजमलज्जट्टा, धारेंति परिहरंति य ।। मुनि संयम और लज्जा की रक्षा के लिए ही रयते है और उनका उपयोग करते हैं। न सो परिगहो वुत्तो, नायपुत्तेण ताइणा। सब जीवों के रक्षक ज्ञातपुत्र भ्रमण भगवान महावीर ने मुच्छा परिग्गहो वुत्तो, इइ चुत्तं महेसिणा ॥ बस्त्र आदि को परिग्रह नहीं कहा है। 'मूर्छा परिग्रह है ऐसा महषियों ने कहा है। Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - सूत्र ११६-१२० छठा 'राधि भोजन विवर्जन' स्थान संयमी जीवन [४७ - - . सध्वत्थुवहिणा बुद्धा, संरक्षणपरिगहे । तत्वज़ मुगि संयम में सहायक उपकरणों को संयम की रक्षा अवि अपणो वि देहम्मि, नायरंति ममाइयं ॥ के लिए ही रखते हैं, मूर्छा भाव से नहीं रखते, और तो क्या -- दम, अ. ६, गा. १७-२१ ये अपने शरीर पर भी ममस्य भाव नहीं रखते। छठे 'राइभोयण-विरमणं' ठाण छठा 'रात्रि भोजन विवर्जन' स्थान११७. अहो निच्च सबोकम्म, सम्वबुद्धहि वणियं । ११७ अहो ! सभी तीर्थंकरों ने प्राणों के लिए संयम के अनुजा य लज्जासमा वित्ती, एगभत्तं प भोयणं । कुल वृत्ति और देह पालन के लिए केवल दिन में हो एक बार भोजन रूम इस नित्य' तपःकर्म का उपदेश दिया है। संतिमे सुहमा पापा. तसा अवुव थावरा । वे जो अस और स्थावर अनेक सूक्ष्ग प्राणी है जिनको कि जाईराओ अपासंतो, कहमेसणियं चरे? ।। . रात्रि में साथ नहीं देख सकता है तो उनकी रक्षा करता हुआ किस प्रकार एषणीय आहार की गवेषणा कर सकेगा? उबउल्लं, बीयसंसत, पाणा निवडिया महि । उदक से आई और श्रीज रो युक्त भोजन तथा जीव युक्त दिया ताई विवरजेज्मा, राओ तत्थ कह सरे ? ॥ मार्ग हो तो उन्हें दिन में टाला जा सकता है पर रात में उन्हें टाल कर मुगि कैसे भिक्षाचर्या कर सकेगा? एवं च दोसं बरण, नायपुत्तण भासियं । ___शातपुत्र भगवान महावीर स्वामी के बताये हुए इन रात्रि सन्याहारं न भुजंति, निगाथा राइभोयणं ।। भोजा के दोषों को सम्यक्तया जानकर निर्ग्रन्थ किसी भी प्रकार - दस. अ. ६, गा. २२-२५ का आहार रात्रि में नहीं करते । सत्तमं 'पुढविकाय-अणारंभ' ठाणं - सातवाँ पृथ्वीकाय अनारम्भ' स्थान११८. पुढधिक्कार्य में हिंसात, मसा वयता कारता । ११८. सुतमाहित संयमी पृथ्वीवाय की मन, वचन, गाया रूप तिविहेण करणजोएण, संजया सुसमाहिया ।। तीन योगों से और तीन बारण से हिंसा नहीं करते हैं। पुढविकार्य विहिसतो, हिसई उ तयस्सिए । पृथ्वीकाय को हिंगा करता हुआ व्यक्ति उसके आश्रित तसे म यिविहे पाणे, चक्खुसे य अचवखुसे ।। अनेक प्रकार के हग्यमानव अदृश्यगान बस और स्थावर प्राणियों की भी हिंसा करता है। तम्हा एवं वियाणित्ता, दोस, दुग्गइवहदणं । इसलिए इन दुर्गति-वर्धन दोषों को जागकर मुनि जीवनपुढविकायसमारंभं जावज्जीवाए बज्जए । पर्यन्त पृथ्वीकार के समारम्भ का वर्जन करे। -दम. अ. ६. गा. २६-२८ अठ्ठमं 'आउकाय अणारंभ' ठाणं आठवा अपकाय अनारम्भ' स्थान११६. माउकायं न हिसंति, मणसा वयसा कायसा । ११६. सुसमाहित संयमी अपकाय' की मन, वचन, काया रूप तिविहेण करणजोएण, संजया सुसमाहिया ॥ तीन योगों से और तीन करण से हिसा नहीं करते है। आउकायं विहिंसंतो, हिंसई उ तपस्सिए। । अपकाय की हिंसा करता हुआ व्यक्ति रसके आश्रित अनेक तसे व विविहे पाणे, चक्खसे य अचवक्षसे ।। प्रकार के दृश्यमान व अदृश्यमान त्रस और स्थावर प्राणियों की भी हिंसा करता है। तम्हा एयं वियाणित्ता, दोसं दुग्गइवडवणं । इसलिए म दुर्गति-वर्धक दोरों को जानकर मुनि जीवनआउकायसमारंभ, जावजीवाए बजए । पर्यन्त अप्काय वो समारम्भ का वर्जन करे। - दस. अ. ६, गा २६-३१ नवमं तेउकाय-अणारंभ' ठाणं नवमा 'तेजस्काय अनारम्भ' स्थान - ११० जायतेयं न इच्छति पावगं जलइत्तए। १२०. मुनि पापरूप अग्नि को लाने की इच्छा नहीं करते। तिखमलयर सस्थ, सरवओ वि दुरसयं ।। क्योंकि वह दूसरे शस्त्रों की अपेक्षा तीक्ष्ण पास्थ है तथा मब ओर से दुराश्रय है। पाईणं परिण वा वि, उड्ड अणुविसामवि । यह अग्नि पूर्व, पश्चिम, दक्षिण, उत्तर, जर्व, अधः दिशा अहे बाहिणओ वा वि, बहे उत्तरओ विय॥ और विदिशाओं में रहे हुए सभी जीवों को जलाती है। Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८] चरणानुयोग-२ वसा 'वायुकाय अनारम' स्थान सूत्र १२०१२४ भूयाणमेसमाघाओ, हायवाहो न संसयो । निःसन्देह अग्नि जीवों को आघात पहुँचाने वाली है, संयमी तं पईवपयायटा, संजया किचि नारभे ॥ मुनि प्रकाश और ताप के लिए इसका कुछ भी आरम्भ न करे। तम्हा एवं पियाणित्ता. दोसं बुग्गहषहणं । इसलिए इन दुर्गति-वर्धक दोषों को जानकर मुनि जीवनतेउकायसमारंभ, जावज्जीमाए वजए॥ पर्यरत अग्निकाय के समारम्भ का वर्जन करे । - दस.अ. ६, गा. ३२-३५ दसमं 'बाउकाय-अणारंभ' ठाणं दसा वायुकाय अनारम्भ' स्थान१२१. अनिलस्स समारंभ, जुजा मन्नति तारिसं । १२१. नत्वज्ञ पुरुष वायु के समारम्भ को अग्नि सगारम्भ के सावज्जनलं चेयं, नेयं ताईहिं सेत्रियं ।। तुल्य ही प्रचुर पाप युक्त मानते हैं । अतः यह छहकाय के प्राता मुनियों के द्वारा आसेवित नहीं है । तालियटेण पत्तेण, साहाविठ्ठपणेण वा । वे साधु ताड के पंखे से, पत्र से, वृक्ष की शाखा से; न तो न ते वीजमिच्छन्ति, धीयावेजण या परं ।। स्वयं हवा करना चाहते हैं और न दूसरों से हवा कराना चाहते हैं। जंपि पत्य व पाय था, कंबसं पायपुंछणं । जो भी वस्त्र, कम्बल और पादपुंछन आदि उपकरण है न ते वायमुईरति, जयं परिहरति य॥ उनके द्वारा वे वायु की उदीरणा नहीं करते, विन्तु यतनापूर्वक उनका परिभोग करते हैं। तम्हा एवं बियाणित्ता, दोसं दुग्गइवढणं । इसलिए इन दुर्गतिवर्धक दोगों को जानकर मुनि जीवनवाउकायसमारंभ, जावज्जीवाए यजए । पर्यन्त वायुकाय के समारम्भ का वर्जन करे। -देस. अ.६, गा.३६-३६ एगादसमं 'वणस्सइकाय-अणारं ठाणं - ग्यारहवाँ 'वनस्पतिकाय अनारम्भ' स्थान१२२. वणस्सईन हिसंति मणसा वयसा कायमा । १२२. सुसमाहित संयमी बनस्पतिकाय की मन, वचन, काया तिविहेण करणजोएण, संजया सुसमाहिया ।। रूप तीन चोगों से और तीन करण से हिसा नहीं करते। वणस्सई विहिसंतो, हिसई उ तयस्सिए । वनस्पतिकाय की हिंसा करता हुआ व्यक्ति उसके आश्रित ससे य विविहे पाणे, चक्षुसे य अचवखुसे ।। अनेक प्रकार के दृश्यमान । अदृश्यमान' अस और स्थावर प्राणियों की भी हिंसा करता है। तम्हा एवं वियाणित्ता, दोसं दुग्गइयणं । इसलिए इन दुर्गति-वर्धक दोनों को जानकर मुनि जीवनवणस्सइसमारंभ, जावज्जीवाए बजए। पन्त वनस्पति के समारम्भ का वर्जन करे। -दमअ.६, गा. ४०-४२ बारसमं 'तसकाय-अणारंभ ठाणं बारहवाँ 'सकाय अनारम्भ' स्थान - १२३. तसकायं न हिसंति, मणसा बयसा कायसा। १२३. सुसमाहित संयमी त्रसकाय' की मन, वचन, काया रूप तिविहेण करणजोएण, संजया सुसमाहिया ।। तीन योगों से और तीन करण से हिंसा नहीं करते। ससकायं विहिसंलो, हिंसई उ तयस्सिए । सकाय की हिंसा करता हुआ व्यत्तिः उसके आश्रित अनेक तसे य विविहे पाणे, चक्खुसे य अचस्खुसे ।। प्रकार के दृश्यमान व अदृश्यमान त्रस और स्थावर प्राणियों की भी हिंसा करता है। तम्हा एवं वियाणित्ता, बोस दुग्गवडणं । इसलिए इन दुर्गति-वर्धक दोपों को जानकर मुनि जीवनतसकायसमारंभ, जावज्जीयाए रजए । पर्यन्त सकाय के समारम्भ का वर्जन करे। -दस. अ. ६, मा. ४३-४५ तेरसमं अकपिय-आहाराइ-विवज्जणं' ठाणं-- तेरहवां अकल्प्य आहारादि वर्जन' स्थान१२४. जाई चत्तारिभोज्जाई, इसिणाऽहारमाईणि । १२४ भुनियों के लिए आहार आदि चार पदार्थ जो अकल्पीय ताई तु विवज्जतो. संजमें अणुपालए ।। है उनका वजन करता हुआ यथाविधि संयम का पालन करे। पिड सेज्जं च वत्थं च, चउत्यं पायमेव य । मुनि अकल्पनीय आहार, गया, वस्त्र और पात्र को ग्रहण अकप्पियं न इच्छेम्जा, पडिगाहेज्ज कप्पियं ।। करने की इक्या न करे किन्तु कल्पनीय ही ग्रहण करे। Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १२४-१२८ चौदहवाँ 'गृहस्थपात्र में भोजन निषेध' स्थान संयमी जीवन [४६ जे नियागं ममायंति, कोयमुद्देसियाहङ । आमन्त्रित पिण्ड, निर्ग्रन्थ के निमित्त बरीदे हुए, निर्ग्रन्थ के वह ते समजागति. ६३ भुतं महेसाणा ।। निमित्त बनाये गमे, सम्मुख लाये गये आहार आदि को जो साधु ग्रहण करते हैं ये प्राणि-वध का अनुमोदन करते हैं। ऐसा महर्षि महावीर ने कहा है।। तम्हा असणपाणाई कोयमुद्दे सियाहां। __ इसलिए धर्मपूर्वक जीवन व्यतीत करने वाले स्थितात्मा यज्जयंति ठियप्पाणो, निग्गंथा धम्मजीविणा ।। निबन्ध मुनि श्रीत, औद्देशिक और आहृत अशन, पान आदि -दस. अ. ६, गा. ४६-४६ का वर्जन करते हैं। चोदसमं 'गिहि-मायण-अभुजणं' ठाण-- चौदहवां 'गृहस्थपात्र में भोजन निषेध' स्थान१२५. फंसेमु कंसपाएसु, कुंडमोएषु या पुगो । १२५. जो मुनि गृहस्थ के कांसे के प्याले में, कांसे के पात्र में भंजतो असणपाणाई. आयारा परिभस्सइ। और मिट्टी के बर्तन में आहार पानी भोगता है वह श्रमण के आचार से भ्रष्ट होता है। सीओदनसमारंभे, भत्तधोयणटुणे । बर्तनों को सचित्त जल से धोने में और बर्तनों के धोए हुए जाई छन्नति भूयाई, विठ्ठो तत्थ असंजमो ।। पानी को अयतनापूर्वक डालने में प्राणियों की हिंसा होती है अतः पृहस्थ के बर्तन में भोजन करने में तीर्थबरों ने असंयम देखा है। पच्छाकम्म पुरेकम्म सिया तत्थ न कप्पइ । गृहस्थ के बर्तन में भोजन करने से पश्चात कर्म' और एयमढ़ न मुंजंति, निग्गंधा गिहिभायणे ।। 'पूर्वकर्म" दोष लगने की सम्भावना रहती है। वह निम्रन्थ के - दस. अ. ६. रा. ५८-५२ लिए कल्प्य नहीं है इसलिए वे गृहस्थ के बर्तन में भोजन नहीं करते। गिहिमत्ते भोयण करणरस पायच्छित्त-सुतं गृहस्थ के पात्र में भोजन करने का प्रायश्चित्त सूत्र१२६. जे भिक्खू गिहमत्ते भुंजइ, भुजंतं वा साइज्जइ । १२६. जो भिक्षु गृहस्थ के पात्र में आहार करता है. आहार करवाता है या आहार करने वाले का अनुमोदन करता है। तं सेवमाणे आवजह चाउम्मासिय परिहारद्वाणं उग्घाइयं ॥ उसे चातुर्मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) ___--नि. उ. १२, सु. १० आता है। पण्णरसमं 'पलियंक-अनिसेज्ज' ठाणं पन्द्रहवा 'पल्यंक निषद्या वर्जन' स्थान१२७. आसंदीपलियंकेमु, मंचभासालएसु वा । १२७. बेंत आदि की कुर्सी, पलंग, खांट और आराम कुर्सी अणायरियमज्जाणं, आसइत्त सइत्तु वा ॥ आदि पर बैठना या सोना साधुओं के लिए अनाचार रूप है। नासंवीपलियंकेसु, न लिसेज्जा न पीढए । तीर्थकर भगवान की आज्ञा पालन करने वाले निग्रन्थ निग्गंयाऽपडिलेहाए, बुद्धवृत्तमहिलगा। आसन्दी, पलंग, आसन और पीढ़ का (विशेष स्थिति में उपयोग करना पड़े तो) प्रतिलेखन किए बिना उन पर न बैठे और न सोए। गंभीरविजया एए, पाणा दुप्पडिलेहगा। आसन्दी पलंग आदि गहरे छिद्र वाले होते है। इनमें आसंदीपलियंका य, एयमझें विवज्जिया ॥ प्राणियों की प्रतिलेखना करना कठिन होता है। इसलिए इन - दस. अ. ६, गा. ५३.५५ पर बैठना या सोना वजित किया है। गिही णिसेज्जाए णिसीयण पायच्छित्त-सुतं गृहस्थ की शय्या पर बैठने का प्रायश्चित्त सूत्र१२८. जे भिक्खू गिहिणिसेज्ज वाहेह, वाहेत वा साइन्मइ । १२८. जो भिक्षु गृहस्प के पल्पकादि पर बैठता है, विठाता है या बैठने वाले का अनुमोदन करता है। १ सूय. सु. १, अ.२, उ. २. गा. २० । Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० ] धरणानुयोग -२ सं सेवमाणे आवश्यक बाउम्बासिय परिहारद्वाणं उत्पाद - नि. उ. १२. सु. १२ सोलसमं गिही निसेज्जा वज्जणं' ठाणं१२६. गोयग पविस निसेज्जा जस्स करवई । इमेरिसमापार बाज अहि ॥ दिवस मंचनेरस्त पाणा अवहे वही । पिटिकोटो अगारिण 11 अगुती प्रेमरस, इत्थोओ यानि संकणं । सीमवर ठाणं दूरओ परिवञ्जए ॥ - दस. अ. ६, गा. ५७-५६ गोवरगापविट्टो उ, न निसीएज्ज कत्थई । कहना चट्टान व संजए ॥ - दम. अ. ५, उ. २, ग्रा. अंतरगि मिसेज्जाए अथवाओ १३०. नो कम्पनियाणं वा निग्गंीण वा-अंतरहिंसि (१) (११) पासवणं चा (१३) सिघाणं वा परिवेत्तए (१४) सायं याकरित वा (२) ना (३) तुर्यात्तिए वा (४) निहाइत्तए वा (५) (६) असणं वा (७) पानं वा (e) वा (e) साइमं या आहार माहरि (१०) (१२) वा (१५) माणं या साइत ए. (१६) कास या ठाणं ठाइत्तए । अह पुण एवं जाणेज्ज' बाहिए. जराजुण्णे, सवस्सी, दृश्यले, विले जावा एवं से कद अंतर गतिविट्टिए वा जाब काउसम्म वा ठाणं ठात्तए । it कप्पड़ निधाण वा णिग्गंधीण वा अंतरगिस जावचाहं वा पंचगाहं वा आइक्लिए वा विभवितए वा किट्टित्तए वा पवेद्दत्तए वा । एगनाए वा वागणं या एनए एसिलोण या से विमानो क्षेत्र अि वि भूष १२०-१२० N उसे चातुर्मासिक उद्घातिक परिहारस्थान ( प्रायश्चित ) आता है। सोलहवाँ गृह निषद्या वर्जन' स्थान - १२२. भिक्षा के लिए प्रविष्ट सुनि गृहस्थ के घर में बैठता है तो वह इन अनाचार और दोपों को प्राप्त होता है । ब्रह्मचर्य व्रत का विहाण प्राणियों का अकाल में वध, अन्य भिशाचरों के अन्तराय और घर वालों को कोध उत्पन्न होना। ब्रह्मचयं असुरक्षित होता है और स्त्री के प्रति शंका उत्पन होती है अतः गृहस्य के घर में बेडमा कुशीलवर्धक स्थान समझ कर मुनि इसका दूर से ही वर्जन करे । गोवरी के लिए या हुआ साधु कहीं मीन और खड़ा रहबार भी अधिक समय कथा वार्ता न करे । गृह निषद्या के अपवाद -- १३०. निर्ग्रन्थों और निर्ग्रन्थियों को गृहस्थ के घर में, (t) gear, (२) बैठना, (२) सोना, (४) निद्रा लेना, (६) अमन, (५) चलेगा (७) पान, (५) श्रादिम (2) स्वादिम आहार करन्दा, (१०) मल, (११) सूत्र. (१२) कार (१२) परिष्ठापन करना, (१४) स्वाध्याय करना, ( ५ ) ध्यान वरना (१५) कायम कर स्थित होना नहीं करता है। यदि वह जाने कि जो भिक्षु व्याधिग्रस्त हो, वृद्ध हो, उपस्थी हो या न हो, नत हो, यह हो जाये या गिर पड़े तो उसे के ठहरना - यावत्- कायोत्सगं कर स्थित होना कल्पता है । निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थियों को गृहस्थ के घर में चार या पांच गाथाओं द्वारा कथन करना, उनका अर्थ करना, धर्माचरण का कहना एवं विस्तृत विवेचन करना नहीं कल्पता है । किन्तु आवश्यक होने पर केवल एक उदाहरण, एक प्रश्नो तर एक गाथा या एक एलोक द्वारा कथन आदि करना कल्पता है । वह भी खड़े रहकर कथन करें किन्तु बैठकर नहीं । · लिष्टमा निखेजा जा पाई जाए अभिभूयरस वाहिस्त r - दस. अ. ६, गा. ६० इस गाया में अतियुद्ध और तपस्वी इन तीन को अपवाद रूप में गृहस्वके पर में बैठने का विधान है किन्तु बृहत्कल्पसूत्र में दुर्बल और परिश्रान्त का अधिक उल्लेख है। जिनका समावेश व्याधिग्रस्त में समझा जा सकता है । Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १३०-१३३ सत्रहवाँ 'अस्नान' स्थान संयमी जीवन [५१ नो कप्पा निगंयाण या निधीण वा अंतरगिहसि, इमाई निर्ग्रन्थ और नियन्थियों को गृहस्थ के घर में भावना सहित पंच महम्बयाई समावणाई आइक्वित्तए वा, विभा वित्तए पांच महाव्रतों का कथन, अर्थ विस्तार या महाव्रताचरण के फल षा फिट्टित्तए वा पवेदसए था। का कथन करना एवं विस्तृत विवेचन करना नहीं कल्पता है। मन्नत्य एगनाएण वा-जाव-एगसिलोएण वा। किन्तु आवश्यक होने पर केवल एक उदाहरण -यावत्से विय ठिचा, नो व गं अडिच्चा। एक श्लोक से कथन आदि करना कल्पता है। वह भी बड़े रह -प. उ. ३, मु. २१-२३ कर किन्तु बैठकर नहीं । सत्तरसमं 'असिणाण' ठाणं - सत्रहवाँ 'अस्नान' स्थान१३१. वाहिओ वा अरोगी वा, सिणाणं जो उ पत्थए । १३१. जो अस्वस्थ या स्वस्थ साधू स्नान करने की अभिलाषा बुक्कतो होइ आयारो, जढो हवइ संजमो ।। करता है उसके आचार का उल्लंघन होता है तथा उसका संयम शिथिल हो जाता है। संतिमे सुहमा पाणा, घसरसु भिलुगासु य । पीली भूमि और दरार युक्त भूमि में अनेक प्रकार के सूक्ष्म जे उ भिक्षू सिणायतो, वियजेणुप्पिलाबए ।। जीब होते हैं। भिक्षु के प्रासुक जल से स्नान करने पर भी उन जीवों की जल में डूबने से विराधना अवश्य होती है। तम्हा ते न सिणायंति, सीएण उसिणेण वा। इसलिए मुनि शीत या उष्ण अचित्त' जल से भी स्नान जायज्जीवं वयं घोर, असिणाणं महिङगा ।। नहीं करते हैं वे जीवनपर्यन्त अस्नान रूप कठिन व्रत का पालन करते हैं। सिणाणं अबुवा कक्क, सोद्धं पउमपाणि य । मुनि शरीर का उबटन करने के लिए सुगन्धित चूर्ण, कल्क, पायस्सुवटुणट्टाए. नाशि कयाः नि। लोष गोवर आदि का प्रयोग कभी भी नहीं करते हैं । - दस.. ६, गा. ६१-६४ अट्ठारसमं 'अविभूसा' ठाणं.. अठारहवां अविभूषा' स्थान - १३२. नगिणस्स वा वि मुंडास, बीहरोम-नहंसिणो । १३२, मलिन एवं परिमित वस्त्र होने से नग्न, द्रव्य-भाव से मेहूगा उवसंतस्स, कि विमूसाए कारियं ॥ मुण्डित, दीर्घ-रोम और नग्लों वाले तथा मैथन से निवृत्त मुनि को विभूषा से क्या प्रयोजन है ? अर्थात् कोई प्रयोजन नहीं होता है। विभूसावत्तिय भिक्खू, कम्मं बंधइ चिक्कणं। विभूषा वृत्ति के द्वारा भिक्षु चिकने (गाढ़) कर्म का बन्धन संसारसायरे घोरे, जेणं पडई तुरुत्तरे ।। करता है उससे वह दुस्तर और घोर संसार सागर में गिरता है। विभूसावत्तियं चेयं, बुद्धा मन्नति तारिसं। तीर्थकर विभूषा के संकल्प को भी विभूषा प्रवृति के समान सावजबहल चेयं, नेयं साईहि सेवियं ।। ही मानते हैं यह विभूषा वृत्ति प्रचुर पाप का कारण है अत: -दस. अ. ६, गा, ६५-६७ छहकाय के रक्षक मुनि इसका सेवन नहीं करते हैं। संयमी जीवन का फल सव्वगुण सम्पन्नयाए फल सर्व गुण सम्पन्नता का फल१३३. ५०-सव्वगुणसंपन्नयाए णं भंते । जीये कि जणयह ? १३३. प्राभन्ते ! सर्वगुण-पम्पन्नता से जीव क्या प्राप्त करता है? उ०-सब्वगुणसंपन्नवाए गं अपुण राबत्ति जणथइ । अपुग- उल-मर्वगुण सम्पन्नता से वह अपुनरावृत्ति अर्थात् मुक्ति राबत्ति पत्तए ण जीवे सारीरमाणसाणं शुक्खाण मो को प्राप्त होता है। अपुनरावृत्ति को प्राप्त करने वाला जीव भागो भबड़। -उत्त. ब. २६, गा. ४६ शारीरिक और मानसिक दुःमों का भागी नहीं होता। Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६] परणानुयोग-२ सामायिक का फल सूत्र १३४-१३५ सामाइय फलं सामायिक का फल१३४. प.-सामाइएणं भंते ! जीये किजणयह? १३४. प्र-मन्ते ! सामायिक की आराधना से जीन क्या प्राप्त करता है? 30-सामाइएणं सावजजोगविरई जणयह । उ०-सामायिक से वह योगों को गारद्य प्रवृत्ति से पिरति --उत्त. अ. २९, सु.१० को प्राप्त होता है। संजमाराहणाए फलं संयम की आराधना का फल१३५. दुरुकराई करेत्ताणं, दुस्सहाई सहेत्तु य । १३५. दुष्कर आचार का पालन करते हुए और दुःमह परीषहीं के इत्थ देवलोएसु, केई सिम्मति नीरया ।। को सहते हुए उन निर्बन्धों में से कई देवलोक में जाते हैं और कई कर्म रहित होकर सिद्ध होते हैं। खवित्ता पुम्बकम्माई संजमेण तवेण य। काय के रक्षक मुनि संयम और तप द्वारा पूर्व संचित सिसिमागमणुप्पत्ता ताइको परिनिथ्थु । कमों का क्षय करके सिद्धि मार्ग को प्राप्त कर मुक्त हो जाते हैं। __ --दस. ब. ३. गा. १४-१५ ।। सर्वति अप्पाणममोहबसिगो, तवे रया संजम अज्जवे गुगे। अमोघदशी, तप, संयम और ऋजुता आदि गुणों में रत पंति पाबाई पुरेकडाई, नवाई पावार न ते करेंति ॥ मुनि अपने प्रारीर को कृश कर देते हैं। वे पुराफुत पाप कमो का नाश करते हैं और नए पाप कर्म नहीं करते हैं। सोवसंता अममा अकिंत्रणा, सदा उपशान्त, ममता-रहित, अकिंचन, आत्म-विद्यायुक्त, तविज्जविज्जाणुगया जसंसिणो। यशस्वी और काया के रक्षक मुनि शरद ऋतु के चन्द्रमा की उउम्पसन्ने थिमले व विमा, तरह निर्मल होकर मुक्त हो जाते हैं या वैमानिक देवों में उत्पन्न सिद्धि विमागाई उति ताहगो होते हैं। —वस. अ, ६, गा. ६७-६८ एते ओथं तरिस्संति, समुई य ववहारिणो । जिरा संसार समुद्र में पड़े हुए प्राणी अपने कर्मों से पीड़ित जत्य पाणा विसष्णासी, किन्ती सयकम्मुणा ॥ होते हैं उम संसार को मुनि उसी तरह पार कर लेते हैं जिस तरह कि व्यापारी समुद्र को पार कर लेते हैं । तं च भिक्खू परिणाय, सुय्वते समिते चरे। संयम व परीपहों को स्वरूप को जानकर भिक्षु महायतों का मुसावायं च बजेम्जा, अदिखणादाणं च बोसिरे। सम्वग् रूप से पालन करे । असत्य भाषण का पूर्ण रूप से बर्जन करे तथा अदन ग्रहण आदि का भी पूर्ण त्याग करे । उढमहे तिरिय बा, जे केई तस-थावरा । ऊपर नीचे तिरछे लोक में जो कोई भी त्रस स्थावर प्राणी सम्वत्थ विरति कुज्जा, संति निय्याणमाहितं ।। है उनकी हिंसा से पूर्ण निवृत्त रहे। ऐसा करने से ही शान्ति -सूय. सू. १, अ. ३. उ. ४, गा. १८-२० रूपी निर्वाण पद की प्राप्ति कही गई है। प.- इसे भंते ! अज्जताए समणा निरगया विहरति प्र०-भगवन् ! जो ये श्रमण निम्र न्य आर्यत्व युक्त (पाप एते गं कस्स तेयलेस्सं बीयाययंति ? रहित) होकर विचरण करते हैं, वे किसकी तेजोलेण्या का अति क्रमण करते हैं ? उ०-गोयमा ! मास परियाए समणे निगंथे वाणमंतराणं उ०—गौतम ! एक मास की दीक्षा पर्याय वाला श्मणदेवागं तेयलेस्सं बीयोवयति । निर्गन्थ बाणव्यन्तर देवों की तेजोलेश्या का अतिक्रमण करता है। तुमासपरियाए समणे निग्गथे असुरिंदरज्जियाणं दो मास की दीक्षा-पर्याय बाला श्रमण-निग्रंन्य असुरेन्द्र के भवणवासीण देवाणं तेयलेस्सं बोयीचयति । सिवाय भवनवासी देवों की तेजोलेश्या का अतिक्रमण करता है । तिमासपरियाए समणे निगथे असुरकुमाराणं देवाणं तीन मास की दीक्षा-पर्याय वाला श्रमण-निर्ग्रन्थ, असुरकुमार तेयलेस्स बीयौवति। देवों की तेजोलेश्या का अतिक्रमण करता है। नयति। Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १३५-१३६ धर्माराधना का फल संयमी जीवन [५३ चउम्मासपरियाए समणे निग्गंधे नक्षत्ततासस्वाणं चार मास की दीक्षा-पर्याय वाला श्रमण- मिल ग्रहगणजोतिसियाण देवाणं तेयलेस्सं श्रीयीवति । नक्षष तारारूप ज्योतिष्क देयों की तेजोलेश्या का अतिक्रमण करना है। पंचमासपरिवाए समणे निम्गथे चंदिमरियाणं पांच मारा की दीक्षा पर्याय वाला श्रमण निर्ग्रन्य ज्योतिष्कन्द्र जोतिसियाण जोतिसर ई. ससस वीवा म.विकराल ६५ और सूर्य की तेजोलश्या का अतिक्रमण करता है। छम्मासपरियाए समणे निम्मये सोहम्मीसागाणं देवाणं छह मास की दीक्षा-पर्याय बाला श्रमण-निर्ग्रन्थ सौधर्म और तेयलेसं बोयोवति । ईशानवल्पनासी देवों की तेजोलेश्या का अतिक्रमण करता है। सत्तमासपरियाए समणे निग्गंधे सणंकुमार माहिकाणं सात माम की दीक्षा-पर्याय वाला श्रमण-निर्ग्रन्थ सनत्कुमार देवाणं तेयलेस्स वीयीवति । और माहे.द्र देवों की तेजोलेश्या का अतिक्रमण करता है। अट्रमासपरियाए बंभलोग-संतगाणं वेवाणं तेयलेस्सं आठ मास की दीक्षा-पर्याय वाला थमण-निर्गन्य ब्रह्मलोक वोयीवपति । और लान्तक देवों की तेजोलेश्या का अतिक्रमण करता है। नवमासपरियाए समणे निगंथे महासुक्क-सहस्साराणं नौ मास की दीक्षा-पर्याय वाला श्रमण-निर्ग्रन्थ महाशुक्र और देवाण तेयनेस्स बीयोवति । सहस्रार देवों की तेजोलेश्या का अतिक्रमण करता है। दसमासपरियार समणे निम्मंये आणय-पाणय-आरण- दस मास की दीक्षा पर्याय वाला श्रमण-निग्रन्थ आनत, अच्चुयाणं देवाणं तेयलेस्सं बोयीययति । प्राणत, आरण और अच्युत देवों की तेजोलेश्या का अतिक्रमण करता है। एमकारसमासपरियाए समणे निग्गये गेबेज्जगाणं म्यारह मास की दीक्षा-पर्याय वाला थमण-निन्, बेयक देवाणं तेयलेस्स चोयीपयति । देवों की तेजोलेधया का अतिक्रमण करता है। बारसमासपरियाए समणे निग्गंधे अणुत्तरोपवातियाणं बारह मास की दीक्षा-पर्याय वाला श्रमण निन्थ अनुत्तरोदेवाणं तेयलेस्स वीतोषयति । पपातिक देवों की तेजोलेश्या का अतिक्रमण करता है। तेणं पर सुक्के सुक्काभिजातिए भविता ततो पच्छा इसके बाद शुक्ल एवं परम शुक्ल होकर फिर वह सिद्ध सिमति-जाव-अंतं करेति । होता है,-यावत्-समस्त दु:खों का अन्त करता है। -विया. स. १४. उ. ६. सु. १७ धम्मराहणाए परिणामो धर्माराधना का फल१३६. अणागयमपस्संता, पच्चप्पलगयेसगा। १३६. भविष्य में होने वाले दुःख को न देखते हुए जो लोग ते पच्छा परितप्पंति, खोणे आइम्मि जोग्यणे ।। वर्तमान सुख के अन्वेषण में रत रहते हैं वे बाद में आयु और युवावस्था क्षीण होने पर पश्चात्ताप करते हैं । जेहि काल परक्कत, न पच्छा परितप्पए। जिन पुरुषों ने धर्मोपार्जन के समय पर ही धर्माचरण में ते धीरा बंधणुमुक्का नायकंखति जीवियं । पराक्रम किया है, वे पीछे पश्चात्ताप नहीं करते। वे धीर पुरुष -सूय. सु १, अ. ३, उ.४, गा. १४-१५ बन्धनों से उन्मुक्त होकर असंयमी जीवन की आकांक्षा नही करते हैं। तिहि ठाणेहि संपणे अणगारे तीन स्थानों से सम्पन्न अनगार अनादि अनन्त अतिविस्तीर्ण १. अणावीय, २. अणवदग्गं, ३. दोहमद। भातुर्गतिक मंसार कातार से पार हो जाता है-(१) अनिदानता पाउरत संसारकतार वोईवएज्जा, जहा --भोग प्राप्ति के लिए संकल्प नहीं करने से, (२) दृष्टि सम्पन्नता १. अणिवाणयाए, २. विद्विसंपग्णयाए ३. जोगवाहियाए। -सम्यग् दृष्टि से, (३) योगवाहिता-योग का वहन करने या -ठाणं. अ. ३, उ. १, सु. १४४ समाधिस्थ रहने से। Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४] चरणानुयोग – २ संबुभिरसफ १२५. समिक्ष अबोलिए। तं संजम ओषचिज्जइ मरणं हेच वयंति पंडिता ॥ - भूय. मु. १. अ. २, उ. ३. गा. १ गिग्यं पुत्ति ३८. साई से संत भिक्षु का फल अरति-रति फाइसिनो वेदेति, जागर - वेरोबर बीरे । एवं बुक्खा पमोक्खसि । -- आ. सु. १, अ. १, ७ १, १०७ (ब) उ सु. सुसमणस् समाहितह कुसमपरम असमाहि १२६. अहो रातो पम्मिं । समहिमापातमवता, सत्थारमेव फक्सं वति ॥ विसोते असे जे आताच विपाना अट्टाए होति बहुगुणा जे पाणसंकाए सं वक्शा || जेवावा पचिति आदानमचर्यति । असाणो से साधुमागी, मायणि एहिति ॥ जनभासी व उदीरा अंधे से गाय, अबिजोरिए, घास पावकम्मी || जे विग्गहीए अायमासी ओवायकारो य हिरोमणे य न से समे होति अपत्ते । एतदिट्ठी य अमाइये || से पेसले सुहुने पुरिसजाते, बहुप असा तया जब मारे । समे हु से होति अपते ॥ जे आदि अध्यं वसुमं ति मत्ता, सवेण वा सहजति मत्ता, संवाद अपरिन्छ फुज्जा । अण्णं जणं परसति विबभूतं ॥ सूत्र १३७-१३८ संवृत भिक्षु का फल - १३७. अष्टविध कर्मों का आगमन जिसने रोक दिया है। ऐसे निक्षु की अज्ञानवश जो दुख स्पृष्ट हो चुका है, वह संयम से क्षीण हो जाता है। वे पण्डित मृत्यु को छोड़कर मोक्ष को प्राप्त कर लेते हैं । निषेध की मुक्ति १३० निर्ग्रन्थ सर्दी और गर्मी को सहन करता है, अर्शत और रति को सहन करता है, कष्ट का वेदन नहीं करता । जागृत रहता है और पैर से उपरत होता है, वह शेर दुख से मुक्त हो जाता है | सुक्षमण की समाधि और कुमण की समाधि१३६. दिन-रात सम्यक् रूप से अनुष्ठान करने में उद्यत, तीर्थकरों से उदार धर्म को पाकर उनके द्वारा कथित माध का सेवन न करते हुए कुछ अविनीत शिष्य अपने धर्मोपदेशक को ही कठोर शब्द कहते हैं । जो शुद्ध वीतराग भार्ग से विपरीत अपनी रुचि के अनुसार प्ररूपणा करते हैं तथा तीर्थंकर के ज्ञान में शंका करके मिथ्याभाषण करते हैं वे उत्तम गुणों के पात्र नहीं होते हैं जो पूछने पर अपने गुरु आदि का नाम छिपाते हैं, वे मोक्ष से अपने आप को वंचित करते हैं। वे वस्तुतः इस जगत् में असा होते हुए भी स्वयं को बाधु मानते हैं ऐसे मायादी अनन्त बार जन्म मरण को प्राप्त होते हैं । जो पुरुष क्रोधी है, परदोषभाषी है, जो उपशान्त हुए कलह को फिर जगाता है, वह पापकर्मी, सदा कलहग्रस्त व्यक्ति, संकड़ी पगडंडी से जाते हुए अंधे की तरह दुःख का भागी होता है। जो साधक कलह करता है, न्याय विरुद्ध बोलता है, वह मध्यस्थ नहीं हो सकता है तथा कलह रहित भी नहीं होता किन्तु जो गुरु के निर्देशानुसार चलने वाला, पाप कार्य से लज्जित होने वाला, जीवादि तत्वों में निश्चित दृष्टि वाला तथा माया रहित व्यवहार जाना होता है। भूल होने पर आचार्य आदि के द्वारा अनेक बार अनुशासित होकर भी वो अपनी लेश्या शुद्ध रखता है, वह सुसाधक मृदुभाषी या विमादिगुणयुक्त है। सूक्ष्माद है, संयम में पुरुषार्थी है, उत्तम जाति से समन्वित और साध्वाचार में सहज सरल भाव से प्रवृत रहता है मध्यस्थभाव युक्त और मायादि कपाय से रहित होता है। जो अपने आप को संयम एवं ज्ञान का धनी मानकर अपनी परीक्षा किये बिना ही किसी के साथ बाद छेड़ देता है, अथवा अपनी प्रशंसा करता है, तथा "मैं महान् तपस्त्री हूँ", इस प्रकार के मद से मत्त होकर दूसरे व्यक्ति को जल में पढ़े हुए चन्द्रमा के प्रतिदिन की तरह निश्क समझता है। Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १३६-१४४ अज्ञानी भ्रमण की गति संयमी जीवन ५५ एगंतकडेण उ से पलेइ, बह मदलिप्त साधु एकान्तरूप से गोहरूपी कूटपाम में फंस ग विग्जती मोणपरसि गोत्ते। कर संमार में परिभ्रमण करता है, तथा जो सम्मान प्राप्ति के जे माणगळेण विउक्सेज्मा, लिए संयम, तपस्या, ज्ञान आदि में विविध प्रकार का मद करता वसुमणतरेण अबुद्धप्रमाणे ॥ है, वह संयम पथ में स्थित नहीं है। वास्तव में संयम' लेकर जो जानादि का मद करता है, वह परमार्थतः सर्वज्ञ-गार्ग को नहीं जानता। जे माहणे जातिए खत्तिए वा; जो ब्राह्मण, क्षत्रिय, उग्र अथवा लिच्छवीवंगी है जो प्रत्रजित तह उमापुत्ते तह लेखमती वा। होबर परदत्तभोजी है, जो मभिमान योग्य (उच्च) गोत्र का मद जे पब्बढ़ते परदत्तमोई, नहीं करता है, वही सर्वजोक्त मथातथ्य चारित्र में प्रवृत्त गोते ण जे वन्मति माणबद्ध । साधु है। ण तस्स जाई व कुलं प ताणं. भलीभांति प्राचरिता ज्ञान और चारित्र के सिवाय अन्य यात्म विजा-घरणे सुचिणं । जाति कुल आदि दुर्गति से उसकी रक्षा नहीं कर सकते। जो णिक्खम्म जे सेवइगारिकम्म, प्रवज्या सेकर फिर गृहस्थ के कर्मों (साबध कार्य) का सेवन __ण से पारए होइ विमोयणाए। भारता है वह कर्मों से विमुक्त होने में समर्थ नहीं होता । -सूय. सु. १, अ. १३, गा, २-११ अण्णाणी समणस्स गई - अज्ञानी श्रमण की गति१४०. समणा मु एगे वयमाणा. पाणवह मिया अपागन्ता । १४०. कुछ पशु को भाँति अनानी पुरुप 'हम श्रमण है" एमा भन्दा निरयं गच्छन्ति, बाला पावियाहिं दिट्ठीहि ॥ कहते हुए भी प्राणवध को नहीं जानते। वे मन्द और बालगुरुष - उत्स. अ. ८, गा.७ अपनी पापमयी दृष्टियों से नरक में जाते हैं। भिक्खुस्स अहिंसा फलं भिक्षु के अहिंसा का परिणाम -- १४१. पाणे य नाइनाएज्ना, से "समिए" ति वुरचई ताई। १४१ जो जीवो की हिंसा नहीं करता वह माधक गमित" तओ से पावयं कम्म, निज्जाइ उवगं व यलाओ ।। सम्यक् प्रवृत्ति वाला कहा जाता है। उस आत्मा से पान-कर्म - उत्त. ज. ८, गा. वैसे ही निकल जाता है जैसे ऊँचे स्थान से जल । भिक्खुस्स हिसाणुमोयण फलं भिक्षु के हिंसानुमोदन का फल - १४२. "न पाणवह अणजाणे, मुच्चेज्ज कयाद सन्चदुक्खाणं"। १४२. जिन्होंने साधु धर्म की प्ररूपणा की है, उन बायं पुरुषों ने एषारिएहि अक्खाय, जेहिं इमो साधम्मो पणतो। ऐसा कहा है कि-"जो प्राणवध का अनुमोदन भी करता है, -उत्त, अ. भा. ८ वह कभी भी सत्र दुःखों से मुक्त नहीं हो सकता।" भोगासत्ति परिणामो-- भोगासक्ति का परिणाम - १४३ भोगामिसदोसविसणे हियनिहसेयस बुद्धिवोच्चस्थे। १४३. आत्मा को दूषित करने वाले, आमिषरूप भोगों में माले म मन्दिए मूढे, बग्नई मच्छिया व खेलमि।। निमग्न, हित और मोक्ष के विषय में विपरीत बुद्धि रखने वाला, - उत्त, अ. , गा, ५ अज्ञानी, मन्द और मून जीन कर्मों से वैसे ही बंध जाता है, जैसे प्लेष्म में मक्खी। सुबयाणं संसारतारो-- सुव्रती साधु का संसार पार - १४४. बुपरिच्चया इमे कामा, नो सुजहा अधीरपुरिहि । १५४. इन काम-भोगों का त्याग दुष्कर है, अधीर पुरुषों के अह सन्ति सुरुवया साहू, जे तरन्ति अतरं वणिया व ॥ द्वारा कामभोर आसानी से नहीं छोड़े जाते । किन्तु जो सुबती -उत्त. अ.८, गा. ६ साधु है वे दुस्तर काम भोगों को उमी प्रकार पार कर लेते हैं, जैसे-वणिक समुद्रको । Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६] परमानयोग-२ मुखमन को और रुपमा जी सद्गति सूत्र १४५-१४६ कुसमणस्स दुग्गई सुसमणस्स सुग्गई. कुथमण की दुर्गति और सूक्ष्मण की सद्गति१४५. एपारिसे पंच कुसीलसंवुडे, रूपंधरे मणिपबराण हेट्रिमे । १४५. जो पुर्व वर्णित आचरण करने वाला, पाँच प्रकार के अयंसिलोए विसमेव गरहिए, न से इन्हें नेव परस्यलोए ॥ कुशीनों मे युक्त केवल मुनि के वेश को धारण करने वाला और --उत्त, अ. १७, गा. २० श्रेष्ठ मुनियों की अपेक्षा होन संयम वाला होता है, वह इम लोक में विष की तरह निदित होता है तथा उसके यह लोक और परलोक दोनों ही नहीं सुधरते । सहसायगरस समयस्स, सायाउलगस्स निगामसाहस्स। जो श्रमण इन्द्रिय सुख का इच्छुक, माता के लिए आकुल, उच्छोलणा पहोइस्स, दुल्लहा सुग्गइ तारिसगस्स ।। अधिक सोने याला और हाथ पर आदि को बार-बार धोने वाला -दम . अ. ४, गा. २६ होता है उसके लिए सुगति दुर्लभ है। चौराजिणं भगिणिणं जडी संघाडो मुंठिण। वस्त्र, चर्म, नम्नता, जटा धारण, गुदड़ी धारण, सिरमुंडन एयाणि विन तायंति वुस्सीलं परियागयं ॥ आदि दुःशील साधू को दुर्गति से रक्षा नहीं कर सकते । पिहोलए ध्व वुस्सीलो नरगाओ न मुच्चई। शिक्षाजीवी साधु यदि दुःशील है तो वह नरक से मुक्त भिक्खाए वा गिहत्ये बा सुट्यए कमई दिवं॥ नही हो सकता। भिक्षु हो या गृहस्थ यदि नह सुबती है तो - उत्त. अ. ५, गा. २१-२२ दिव्य गति को प्राप्त करता है । जे वज्जए एए सया उ बोसे, से सुब्बए होड मुणोणमउसे। जो इन पूर्वोका दोषों का मदा वजन करता है वह मनियों अपंसि लोए अमयं व पूइए, आराहए लोगमिणं तहापरं ॥ में मुरती होता है। वह इस लोक में अमृत की तरह पूजित -उत्त. अ. १७, गा. २१ होता है तथा इस लोक और परलोक दोनों लोक की आराधना करता है। मज्ज सेवणस्स विवज्जणस्सय परिणामो-. मद्य सेवन का और विवर्जन का परिणाम१४६ सुरं घर मेरग वा वि, अन्न वा मज्जग रसं । १४६. अपने संयम का संरक्षण करता हुआ भिक्षु सुरा, मेरक या ससक्खं न पिवे भिक्खू, जसं सारक्खमप्पणो। अन्य किसी प्रकार का मादक रस आरम साक्षी से न पीए। पिया एगइओ तेणे, न मे कोइ वियाणइ । जो मुनि मुझे कोई नहीं जानता (यों मोचता हुआ) एकान्त तस्म पस्सह दोसाई, नियदि च सुह मे ॥ में स्तेनवृनि से मादक रस पीता है. उसके दोषों को देखो और मायाचरण को मुझसे सुनो। बहई सौंडिया तस्स, मायामोसं च मिक्खणो। उस भिक्षु के उन्मलता, माया मृषा, अवय, अतृति और अयसो य अनिवाणं, सययं च असाहुया ।। मतत अमाधुता ये दोष बढ़ते हैं। निविगो जहा तेणो, अत्तकम्मेहि दुम्मई । नह दुर्मलि अपने दुष्कर्मों से चोर की भाँति सदा उद्विग्न तारिसो मरणते वि, नाराहेइ संवरं ।। रहता है। मद्यप मुनि मरणान्त-काल में भी मंदर की आराधना नहीं कर पाता। आयरिए नाऽऽराहेइ, समणे यावि तारिसो। ___वह न तो आचार्य की आराधना कर पाता है और न मिहत्व वि गरहंति, जेण जाति तारिस । श्रमणों की भी । गृहस्थ भी उसे मद्यप मानते हैं, इसलिए उसकी गहीं करते हैं। एवं तु अगुणप्पेही, गुणाणं च विवजओ । सकार अगुणो की प्रेक्षा (आसेवना) करने वाला और तारिसो मरणते वि, नाउराहेइ संवरं ।। गुणों को वर्जने बाला मुनि मरणान्त-काल में भी संबर की आराधना नहीं कर पाता। तवं कुम्वइ मेहावी, पणोयं वज्जए रस ! जो बुद्धिमान माधः प्रणीत रय युक्त भोजनों को छोड़कर मजपमायविरओ, तबस्सी उपकसो।। तपश्चर्या करता है, जो मद्य प्रमाद से विरत होता है। बह तपस्वी विकास मार्ग में आगे बढ़ता है। Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म १४६-१४६ मद्यादि सेवन का निषेध संयमी जोवन [५ तस्स पस्सह कल्लाणं, अगसाहपूइयं । अनेक साधुओं के द्वारा प्रशंसा को प्राप्त उस भिक्षु के कल्याण निजलं अत्यसंजन, किसहस्सं सुह मे ॥ को देखो-वह विपुल संयम गुणों से युक्त होता है। मैं उसके गुणों का कथन करूंगा उसे मुझसे सुनो - एवं तु गुणप्येही, अगुणाणं च विवजओ। इस प्रकार गुण की प्रेक्षा (आसेवना) करने वाला और अगुणों तारिसो मरणते वि, आराहेछ संवरं ॥ को वर्जने वाला, शुद्ध भोजी मुनि मरणान्तकाल में भी संवर की आराधना करता है। आयरिए आराहेइ, समणे यावि तारिसो। ___ वह आचार्य की आराधना करता है और श्रमणों की भी। गिहत्या वि णं पूर्वति, जेण जागंति तारिस । गृहस्थ भी उसे शुद्ध भोजी मानते हैं, इसलिए उसकी पूजा -स. ब. ५, उ, २, गा.३६-४५ करते हैं। मज्जाइ सेवण-णिसेहो मद्यादि सेवन का निषेध१४७. अमज्ज-मंसासि अमच्छरिया, अभिक्षणं निविगईगया य। १४७. साधु मद्य और मांस का अभोजी हो, अमरमरी हो, वारअमिक्खणं काउसगकारी. समायजोगे पयओ हवेकजा ॥ बार विकृतियों को सेवन न करने वाला हो, बार-बार कायोत्सर्ग - दस, अ.१०, च.२, गा.७ करने बाजा और स्वाध्याय के लिए योगोबहन में प्रयत्नशील हो। दिवस रात्रिक समाचारी-१ समायारो महत्तं१४८. सामापारि पवपखामि, सम्बदुक्खविमोक्पणि । जं चरित्ताण निगथा, तिष्णा संसार सागर ।। -उत्त. अ.२६, गा.१ बसविहा समायारी१४६. पक्षमा आवस्सिया नाम, बिया व निसीहिया। आपुच्छणा 4 तइया, घउत्थी परिपुच्छणा । पंचमी छन्वणा नाम, इच्छाकारो प छटुओ। सत्तमो मिच्छकारो य, तहक्कारो य अट्ठमो ॥ अग्मुट्ठाणं च नवम, दसमो उपसंपदा । एसा बसंगा साहणं सामायारो पवेइया ।' -उत्त. अ. २६, गा. २-४ समाचारी का महत्त्व-- १४८. मैं सब दुःखों से मुक्त करने वाली उस समाचारी का निरूपण नारू गा, जिसका आचरण कर अनेक निधन्थ संसारसागर से तिर गये। सागर से तिर गय । दस प्रकार की समाचारी१४६. पहली आवश्यकी, दूसरी नैषेधिकी, नीसरी आपृच्छना, चौथी प्रति-गृच्छना है। पाँचबी छन्दना, छठी इच्छा कार, सातवीं मिध्याकार, आठवीं तथाकार । नौंवी अभ्युत्थान, दयीं उपसम्पदा, ज्ञानियों ने यह दा प्रकार की साधुओं की समाचारी कही है। दस प्रकार की समाचारी, उत्तराध्ययन अ. २६, गाथा २-३-४, स्थानांग अ. १०, सूत्र ७४६, भगवती श, २५, उ.७, सूत्र १९४ स्थानांग और भगवती में नाम और कम समान है अतः भगवती और उत्तराध्यगन की तालिका दी जाती है:उत्तराध्ययन सूत्र भगवती सूत्र (१) आवश्यकी (४) आवश्यिकी (२) नषेधिकी (५) नैधिकी, (३) आपुच्छणा (६) आपुच्छणा (शेष टिप्पण अगले पृष्ठ पर) Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०] धरणानुयोग- २ समायारीए पव्वत्तणं १५०. (१) गम आवस्य कुल्जा (२) निपिं ठाणे कुज्जा (३) आयुष्यासकरणे, (४) परकरणे परिपृच्छणा (५) छन्दणा भाएणं, (१) इच्छाका सारने, (७) बिछाकरी व निदाए (८) तक्कारो य पडिस्सुए, (१) अणं गुरुपूया, (१०) उपसंपदा । एवं बु.पंच संजुत्ता, सरमायारी पवेश्या । वेयसिय समावारी१५१. पुलाआए आमि समुट्टिए । पहिला पन्दितायत ॥ पंज किए। इच्छं निभइ भन्ते ! बेयावच्चे व सम्झाए | उत्स. अ. २६, मा. ५-७ या निणं काय अविना यानि सव्यदुवोक्स | (पृष्ठ का उत्तराध्ययन सूत्र (४) परिणा (५) छंदणा (६) इच्छाकार (७) भिच्छाकार (८) सहकार (१) अभ्युत्यान (१०) उपसंपा समाचारों का प्रवर्तन समाचारी का प्रवर्तन- १५०. १. स्थान से बाहर जाते समय आवस्सही ३ कहना | २. स्थान में प्रवेश करते समय निस्सही ३ कहना । ३. अपना कार्य करने से पूर्व गुरु से अनुमति लेना । ४. एक कार्य से दूसरा कार्य करते समय गुरु से पुनः अनुमति लेना । ५. 'आपकी इच्छा हो तो इन पदार्थों में से कुछ ने इस प्रकार गुरु आदि से कहना | ६. सारणा में इच्छाकार का प्रयोग करे, आपकी इच्छा हो तो मैं आपका अमुक कार्य करू, आपकी इच्छा हो तो कृपया मेरा अमुक कार्य करें। ७. साधु वृत्ति से विपरीत आचरण होने पर 'मिच्छामि दुक्क' देना । ८. गुरु के वचनों को सुनकर "तहत्ति" - 'जैसा आपने कहा वैसा ही है' इस तरह कहना ६. गुरु के प्रति पूज्य भाव दिखाने के लिए गुरु के आने पर खड़ा होना । १०. ज्ञान प्राप्ति के लिए आचार्य या उपाध्याय आदि के पास रहना । यह दश प्रकार की समाचारी कही गई है। सूत्र १५०-१५१ दिवस समावारी १५१. सूर्य के उदय होने पर दिन के प्रथम प्रहर के चतुर्थ भाग में उपकरणों की प्रतिलेखना करे। तदनन्तर गुरु को वन्दना कर हाथ जोड़ कर पूछे - " अव मुझे क्या करना चाहिए ? भंते ! मैं चाहता हूँ कि आप मुझे वैयावृत्य या स्वाध्याय में से किसी एक कार्य में नियुक्त करें।" में नियुक्त किये जाने पर अम्लान भाव से या करे अथवा सर्व दुःखों से मुक्त करने वाले स्वाध्याय में नियुक्त किये जाने पर अग्लान भाव से स्वाध्याय करे । भगवती सूत्र (७) (८) छंदणा (१) इच्छाकार (२) मिष्ठाकार मा (३) तहकार (१) निमन्त्रण (१०) सं १०वीं समाचारी का क्रम तीनों सूत्रों में समान है। शेष के क्रम में भिन्नता है। वीं ममाचारी के नाम की मित्रता है किन्तु अर्थ समान होना है। Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १५१-१५५ पौरवी विज्ञान संयमी जीवन ५६ दिवसस्स चउरो भागे, कुजजा भिक्खू वियक्तणो । विचक्षण भिक्षु दिन के चार भाग करे। उन चारों भागों में तो उत्तरगुणे कुज्जा, दिणभागेसु चउसु वि। स्वाध्याय आदि उत्तरगुणों की आराधना करे । परम पोरिसिं समायं, यो माणं शियायई । प्रथम प्रहर में स्वाध्याय और दूसरे प्रहर में ध्यान करे । तइयाए भिक्खायरियं पुणो चउत्थीए समायं ।। तीसरे प्रहर में भिक्षाचरी और चौथे में पुनः स्वाध्याय करे। - उत्त. अ. २६, गा. ८.१२ पोरिसी विष्णाणं पौरुषो विज्ञान१५२. जासाठे मासे दुपया, पोस मासे चउपया। १५२. आषाढ़ मास में दो पाद प्रमाण पौष मास में पार पाद चित्तासोएसु मासेसु, तिपया हबइ पोरिसी ॥ प्रमाण, चैत्र तथा आश्विन मास में तीन पाद प्रमाण छाया होने पर पौरुषी होती है। अंगुलं सत्तरत्तेणं, पक्वेणं य यंगुलं । सात दिन रात में एक अंगुल, पक्ष में दो अंगुल और एक वढए हायए वावी, मासेणं चउरंगुलं ॥ मास में चार अंगुल वृद्धि और हानि होती है। (श्रावण माम से -उत्त. अ, २६, गा. १२.१५ पौर तक वृद्धि और माघ से आषाड़ तक हानि होती है।) छ ओमरत्ताओ छः क्षय तिथिया१५३. छ ओमरता पण्णता, तं जहा - १५३. छह अवमरात्र (क्षय तिथियाँ) होते हैं, यथा(१) ततिए पन्ये, १. तीसरे पर्व-आषाढ़ कृष्णपक्ष में, (२) सत्तमे पव्वे, २. सातवें पर्व-भाद्रपद कृष्णपक्ष में, (३) एक्कारसमे पव्वे, ३. ग्यारहवें पर्व -कार्तिक कृष्णपक्ष में, (४) पण्णरसमे पच्चे, ४. पन्द्रहवें पर्व-पौष कृष्णपक्ष में, (५) एणवीस इमे पव्वे, ५. उन्नीसवे पर्व-फाल्गुन कृष्णपक्ष में, (६) तेवीसदमे पवे । --ठाणं. अ. ६, सु. ५२४ (क) ६. तेईसवे पर्व-वैसाख कृष्णपक्ष में, छ अतिरत्ताओ - छ: वृद्धि तिथियाँ१५४. छ अतिरत्ता पण्णता, तं जहा १५४. छह अतिरात्र (वृद्धि तिथियाँ) होती हैं, यथा(१) चउत्थे पनवे, १. चौथे पर्व-आषाढ़ शुक्लपक्ष में, (२) अटुमे पब्वे, २. आठवें पवं-भाद्रपद शुक्लपक्ष में, (३) बुवालसमे पटवे, ३. बारहवें पर्व-कार्तिक शुक्लपक्ष में, (४) सोलसमे पडवे, ४. सोलहवें पर्व-पौष शुक्लपक्ष में, (५) बीसइम पध्वे, ५. बीसवें पर्व--फाल्गुन शुक्लपक्ष में, (६) चउवोसइमे परखे। - ठाणं. अ. ६, सु. ५२४ (ख) ६. चौबीसवें पर्व-साख शुक्लपक्ष में, पत्त-पडिलेहणा कालो पात्र-प्रतिलेखना का काल१५५. जेट्टामूले आसाद साबणे, छह अंगुलौह पजिलेहा । १५५. ज्येष्ठ, आषाढ़, थावण इस प्रथम विक में छह अंगुल, अहि बीय तियंमी, तइए दस अट्टहि चजत्थे । भाद्रपद, आश्विन, कातिक इग द्वितीय त्रिक में आठ अंगुल, -उत्त. अ. २६, गा. १६ मृगशिर, पौष, माघ इस तृतीय त्रिक में दस अंगुल और फाल्गुन, पत्र, वैशाख इस चतुर्य त्रिक में आठ अंगुल पीरूपी के माप में वृद्धि करने से पौन पौरुषी (अर्थात् पान-प्रतिलेषगा) का समय होता है। १ उत्त. अ.२६, गा.१५ । Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणानुयोग २ पढम पोरिसो समायारी १२६.मम्मा परिनेहिला भण्ड गुरु वन्दित्तु सभायं कुज्जा बुक्खमि ॥ - पहिलेमा बिही १५७. मुहपोतियं पडिलेहिता, पडिले हिज्ज गोच्छ । ओ बत्या पडिलेहए || पोरिसीए उन्माए बन्धिमाण तओ गुरु । अपविकमिला कालम भाषणं पहिए ॥ उत्त. अ. २६, ग. २१-२२ करे । 1 उचिरं अतुरियं पुख् ता मत्यमेव पहिले सोहित व पुणो ॥ अनादियं बलिय रिमा नव खोडा, प्रथम final को समाधारी पहिणा दोसाई१५. (१) र (२) सम्म पाणीपाणविसरेहणं ॥ — उत्त. अ. २६ गा. २३-२५ वज्जेयाय मोसली (३) नइया | परफोरणा (४) चस्थी, (५) बेवा (1) छट्टा (७) पसिडिल (८) पल (१) सोला (१०) एगामोसा (११) अगलवधुणा । (१२) पार्थ संकिए गणणोगं (१३) कुज्जा ।। - उत्स. अ. २६, गा. २६-२७ ww.w प्रथम पौरुषी को समाचारी १५६. दिन के प्रथम प्रहर के प्रथम प्रति को स्वाध्याय करे । सूत्र १५१-११० प्रतिलेखना को विधि wwwwwww पौन पौरुषी बीत जाने पर गुरु को बन्दना करके स्वाध्याय काल का प्रतिक्रमण कायोत्सगं किए बिना ही पात्र की प्रतिलेखना चतुर्थ भाग में उपकरणों का दुःख से मुक्त करने वाला १५७. मुखका को प्रतिलेखना कर गोच्छग की प्रतिलेखना करे और गोच्छ को अंगुलियों से पकड़कर वस्त्रों की प्रतिलेखना करे । प्रतिलेखना करते समय वस्त्र को ऊंचा रखे, स्थिर रखे और शीघ्रता किए बिना उसकी प्रतिलेखना करे। दूसरे में वस्त्र को झटकाए और तीसरे में वस्त्र को प्रमार्जना करे । प्रतिलेखना करते समय - १. वस्त्र या शरीर को न नचाए, २. वस्त्र कहीं मुड़ा हुआ न रहे, ३. वस्त्र पर निरन्तर उपयोग रखे, ४. भीत आदि से वस्त्र का स्पर्श न करे, ५. वस्त्र के छह पूर्व और नौ वोट करे और ६. जो कोई भी हो उसको हाथों पर लेकर वो करे। प्रतिलेखना के दोष - १५८. (१) आरमदा--उतावल से प्रतिलेखना करना । (२) सम्मर्दा उपधि पर बैठकर प्रतिलेखना करना । (३) मोसली — प्रतिलेखन करते समय वस्त्र को ऊपर, नीचे, तिरछे दिवाल आदि से संघट्टित करना । (४) प्रस्फोटना -- अयतना से वस्त्र को झटकना (५) विक्षिप्त प्रति अतिथि वस्त्रों को एक साथ रखना । (६) बेदिका विपरीत आसन से बैठकर प्रतिलेखना करना । (७) प्रशिथिल - वस्त्र को ढीला पकड़ना । (८) प्रलम्ब वस्त्र की प्रतिलेखना दूर से करना । (१) लोल - प्रतिलेख्यमान वस्त्र का भूमि से संघर्ष करना (१०) एकामशा - एक दृष्टि में ही समूचे वस्त्र को देख लेना । (११) अनेक रूप धूनना--वस्त्र को अनेक बार झटकाना । (१२) प्रमाण-प्रमाद प्रस्फोटन प्रमार्जन का जो प्रमाण बताया है उसमें प्रमाद करना । (१३) गणनोपगणना प्रस्फोटन और प्रमार्जन के निर्दिष्ट प्रमाण में शंका होने पर उसकी गिनती करना । Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १५६-१६४ अन्यूनाधिक प्रतिलेखना संयमी जीवन ३१ अणूणाइरित्त-पडिसेहणा अन्यूनाधिक प्रतिलेखना१५६. अणूणारित्तपडिलेहा अविवश्चासा तहेव य । १५६. प्रतिलेखना के विषय में शास्त्रोक्त विधि से कम न करना, पढ़मं पर्य एसत्यं सेसाणि उ अप्पसस्थाई । अधिक न करना और विपरीत न करना यह प्रथम विकल्प -उत्स. अ. २६, गा.२८ प्रशस्त है और शेष अप्रशस्त है। पडिलेहणा पमत्तो विराहओ . प्रतिलेखना-प्रमत्त विराधक-- १६०. पडिले हणं कुणन्तो, मिहीकहं कुणा जणवयकह वा । १६०, जो प्रतिलेखना करते समय परस्पर वार्तालाप करता है, बेड पच्चवखाणं, बाएइ सय परिच्छद वा ॥ जन-पद की कथा करता है, प्रत्याख्यान कराता है, दूसरों को पढ़ाता है अथवा स्वयं पढ़ता है। पुड़वी-आउकाए, तेऊ-बाऊ-बगस्सइ-तमाणं । इस प्रकार प्रतिलेखना में प्रमत्त मुनि पृथ्वीवाय, अकाय, पडितहणापमतो, छहं पि विराहो हो । तेजस्काय, यात्रुकाय, वनस्पतिकाय और उसकाय-इन छहों -उत्त, अ. २६, गा. २६-३० । कायों का विराधक होता है। पडिलेहणा आउत्तो आराहओ-- प्रतिलेखना में उपयुक्त आराधक - १६१. पुढवी आउपकाए, तेऊ-नाऊ-वणस्सइ-तसाणं । १६१. प्रतिलेखना में अप्रमत्त मुनि पृथ्वीकाय, अकाय, तेजपडिलेहणाऽउत्तो छह आराहो हो । स्काय, -7युार बनाना उसकार.-इन छहों कायों -उत्त. अ. २६, गा. ३० का आराधक होता है। तइयाए पोरिसीए समायारी तृतीय पौरुषी समाचारी१६२. तइयाए पोरिसोए भत्तं पाणं यसए । १६२. छह कारणों में से किसी एक के उपस्थित होने पर तीसरे छाहं अनयरागम्मि. कारणमि समुदिए । प्रहर में भक्त और पान की गवेषणा करे । -उत्त. अ. २६. गा. ३१ चउत्थोए पोरिसीए समायारी चतुर्थ पौरुषी समाचारी१६३, पउत्थोए पोरिसीए, निषिसविताण भायणं । १६३. चौथे प्रहर में प्रतिलेखना करके पात्रों को बांध कर रख सज्मायं तओ कुरजा, सम्बभाषिभावणं ।। दे, फिर सर्व भावों को प्रकाशित करने वाला स्वाध्याय करे । पोरिसीए चकमाए, वन्दित्ताग तओ गुरु। चौथे प्रहर के चतुर्थ भाग में (पौन पौरुषी बीत जाने पर) परिषकमित्ता कालस्स, सेज्जतु पडिलेहए ।। . गुरु को वन्दना कर, स्वाध्याय काल का प्रतिक्रमण कर शव्या की प्रतिलेखना करे। पासवणुरुधारभूमि च, पडिलहिज्ज जयं गई। ____ यतनाशील मुनि फिर प्रत्रवण और उच्चार-भूमि की प्रतिकाउस्सग्गं तो कुज्जा, सम्बदुमलविमोक्खणं ।। लेखना करे । तदनन्तर सर्व दुःखों से मुक्त करने वाला कायो -उत्त. अ. २६, गा. ३६-३८ त्सर्ग करे । देवसिय-पडिक्कमण समायारी देवसिक प्रतिक्रमण समाचारी१६४. देवसियं च अईयार, चिन्तिज्न अणुपुग्यसो । १६४. ज्ञान, दर्शन और चारित्र में लगे दिन सम्बन्धी अतिचारों नाणे 4 बंसणे चेव, चरित्तम्मि तहेव य ।। का अनुक्रम से चिन्तन करे। पारिय-काउत्सग्गो, वन्दिताण तओ गुरु । कायोत्सर्ग को समाप्त कर गुरु को बन्दना करे। फिर अनु. देवसियं तु अईयारं, आलोएज्ज जहक्कम ।। कम से दिन सम्बन्धी अतिचारों की आलोचना करे। पहिस्कमित्तु निस्सल्सो, वन्दित्ताण तओ गुरु । प्रतिक्रमण से निःशल्य होकर गुरु को बन्दना करे। फिर काउस्सगे तो कुज्जा, सव्वदुक्खविमोक्खणं । सर्व दुःखों से मुक्त करने वाला कायोत्सर्ग करे। पारियकाउस्सरगो, बम्बिसाण तो गुरु। वायोत्सर्ग यो समाप्त कर गुरु को वन्दना करे। फिर "युद्धमंगसं घ फाऊणं" काल संपडितहए ।। ___ 'स्तुति-मंगल' (णमोत्थुर्ण का पाठ) करके स्वाध्याय काल की -उत्त.अ. २६, गा. ३९.४२ प्रतिलेखना करे। Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२] wwww रेणानुयोग- २ गिद्दासीलो पावसमणो १९५. पाए निहासोले भोच्या पेन्वा मुहं सुघड़, पावसमणि त्ति बच्चई -उ. अ. १७.३ राईय समाया १६६. रति पिचउरो भागे भिक्खू कुज्जा विक्खणो । लओ उत्तरपुर्ण कुआ, सहभाि पढमं पोरिसि सज्झायं, बोयं साणं शिवाय तथा निमोक्खं तु चउत्थो भुज्जो वि सज्झायं ॥ - उत्त. अ. २६, 19-25 राईय पोरिसी विष्णाण १६७. जं ने जया ति नक्तं तंमि नह चराए । संपत्ते विरमेज्जा, सम्झायं पओस-कालमि || तम्मेव य नक्खत्ते, गयण- चउदभाग- सावसेसंमि । रलिपि का पत्रलेहिता भूमी कुणा ॥ 2 - उ. अ. २६, गा. १६-२० । राईय चत्थीए पोरिसीए समायारी १६०. "पोरसीएचस्पी का तु पहिलेहिया | कालं सज्झायं तओ कुज्जा, अबोहतो असंजए ॥ पोरिसीए उमाए forefer कालee कालं तु पडिलेहए || । उत्त. अ. २५, गा. ४३ । — आगए काय-वोसो, सध्या-विम काम्यं तओ कुज्जा, सभ्य दुक्ख- -विमोक्त्यणं ॥ - उत्त. अ. २६. मा. ४४-४६ राईय पडिक्कमण समायारी । १६. इयं च अईयारं विन्तिज्ञ्ज अणुपुब्वसो । नामि समि परिमितभि पारियको दावी शइयं तु अईयारं आलोएज्जा लहक्कमं ॥ पक्कि मत्तु निसस्तो वन्दत। काउस्सग्गं तओ कुज्जा, सब्व- तुक्खविमोकवणं ॥ किं तवं परिवज्जामि, एवं तस्थ विचिन्तए । काउस तु पारिता करा मन ।। निनाशील पापश्रमण १६५-१६९ www निद्राशील पापश्रमण - १६५. जो प्रत्रजित होकर बार-वार नींद लेता है, खा-पीकर आराम से लेट जाता है, वह पाप श्रमण कहलाता है । - रात्रि समावारी १६६. विवक्षण भिक्षु रात्रि के भी चार भाग करें। उन चारों भागों में स्वाध्याय आदि उत्तर गुणों की आराधना करे । प्रथम प्रहर में स्वाध्याय, दूसरी में ध्यान, तीसरी में निद्रा और चोधी में पुन स्वाध्याय करे । रात्रि पौरुषी विज्ञान - १६०. जो नक्षत्र जिस रात्रि को वहन करता है, वह नक्षत्र जब आकाश के चतुर्थ भाग में आये तब प्रदोष काल (रात्रि के प्रारम्भ में प्रारम्भ की हुई स्वाध्याय से विरत हो जाए । वही नक्षत्र जब आकाश के चतुर्थ भाग में शेष रहे तब वैदिक काल अर्थात् रात का चतुर्थ प्रहर आया हुआ जानकर मुनि फिर स्वाध्याय काल की प्रतिलेखना करे । रात्रि के चतुर्थ प्रहर की सदाचारी--- १६५. चीधे प्रहर में काल की प्रतिलेखना कर असंयत व्यक्तियों को न जगाता हुआ स्वाध्याय करे अर्थात् ऊँचे स्वर से न बोले । रात्रि के प्रहर के चतुर्थ भाग में गुरु को बन्दना करे, स्वाध्याय काल से निवृत्त होकर प्रतिक्रमण काल की प्रतिलेखना करें । कायोत्सर्ग का समय आने पर सर्व प्रकार के दुःखो से मुक्त करने वाला कायोत्सर्ग करं । रात्रि प्रतिक्रमण समाचारो १६६. ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप में लगे रात्रि सम्बन्धी अतिचारों का अनुक्रम से चिन्तन करे । कायोत्सर्ग को समाप्त कर गुरु को वन्दना करे। फिर अनुक्रम से रात्रि सम्बन्धी अतिचारों की आलोचना करे । प्रतिक्रमण से निःशल्य होकर गुरु को वन्दना करें, फिर स दुःखों से मुक्त करने वाला कायोत्सर्ग करे | मैं कौन-सा तप ग्रहण करू ? कायोत्सर्ग में इस प्रकार का चिन्तन करे । फिर कायोत्सर्ग को समाप्त कर जिन संस्तव (शोरस का पाठ करे। Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १६६-१७२ उपसंहार संयमी जीवन [१३ पारिय-काउस्सम्यो, बन्वित्ताण तमो गुच। कायोत्सर्ग पारित होने पर (जिन संस्तव करके) मुनि गुरु तवं संपविजेता, कुज्जा सिद्धाण संथ ।। को वन्दना करे। फिर सप को स्वीकार कर सिद्धों की स्तुप्ति -उत्त. अ. २६, गा. ४७-५१ (गमोत्गुणं का पाठ करे । उवसंहारो उपसंहार१७०. एसा सामायारी, समासेण विवाहिया। १७०. यह समाचारी मैंने संक्षेप में कही है। इसका आवरण जं चरिता बहु ओवा, तिष्णा संसार सागर ।। कर बहुत से जीव संसार सागर से तिर गये। • ति बेमि। -ऐसा मैं कहता है: -उत्त. अ.२६, गा.५२ वर्षावास समाचारी–२ वासावासे संपत्ते विहार गिसेहो वर्षाकाल आ जाने पर विहार का निषेध१७१. अभुवगते खलु वासावासे अभिपवट्ठे, बहते पाणा अभि- १७१. वर्षाकाल आ जाने पर वर्षा हो जाने से बहुत से प्राणी संभूया, यहवे बीया अहणुकिमण्णा, अंतरा से मग्गा बहुपाणा उत्पन्न हो नये हों, बहुत से वीज अंकुरित हो गये हों, मार्ग के जाव-मक्फडा-संताणगा, अणभिक्कता, पंथा, णो विणाया बीच में बहुत से जीव जनते हों - यावत् --मकड़ी के जाले हो मागा, सेवं गला गो गामाणुगाम दम्गेज्जा, ततो गये हों, वर्षा के कारण मार्ग चलने योग्य न रहे हों या मार्ग का संजयामेव वासायासं उल्लिएज्जा । पता नहीं चलता हो, ऐसी स्थिति जानकर साघु एक ग्राम से - आ. सु. २, अ. ३, ज. १, सु. ४६४ दूसरे ग्राम को विहार र करे। अपितु यतनापूर्वक वर्षावास व्यतीत करे। वासावास-अजोग्गं खेत्तं वर्षावास के अयोग्य क्षेत्र१७२. से मिक्खू वा भिक्खूणी वा से ज्ज पुण जाणेज्जा गाम था १७२ वर्षायास करने वाले भिक्षु या भिक्षुषी उस ग्राम-पावत्-जाव-रायहाणि वा, राजधानी की स्थिति जाने किइमंसि खलु गामंसि वा-जाव-रायहाणिसि वा गो महती इस ग्राम-यावत् -राजधानी में स्वाध्याय करने योग्य विहारमूमि, णो महती विया रभूमि । विशाल भूमि नहीं है, मल-मूत्र त्यागने के लिए योग्य विशाल भूमि नहीं है। जो सुलभे पीट-फलग-सेज्जा संथारए णो सुखभे फासुए-ऊंछे चौकी, पाटे, शय्या एवं संस्तारक की प्राप्ति भी सुलभ नहीं अहेसणिक, है और न प्रासुक निर्दोष एवं एषणीय आहार पानी ही सुलभ है । बहवे अस्थ समण-माहण-असिहि-किवण-वणीमगा-उवागता, जहाँ बहुत से धमण, ब्राह्मण, अलिथि, दरिद्री और भिखारी उवागमिस्संति य, अन्चाइण्णा-वित्ती, जो पण्णस्स णिकाखमण लोग पहले से आए. हए हैं और भी दूसरे आने वाले हैं, जिससे पोसाए-जाद धम्माणुओग-चिताए। मांगने वालों की अत्यन्त भीड़ रहती है, प्रज्ञावान साधु-साध्वी को वहाँ निकलना और प्रवेश करना-यावत् - धर्मचिन्तन करना उपयुक्त नहीं हो सकता है। . सेवं गच्चा तहप्पगार गाम बा-जाव-रायाणि वा णो यह जानकर ऐसे ग्राम-यावत्-राजधानी में वर्षावास बासावासं उल्लिएज्जा। न करे । -आ. सु. २, अ.३, उ. १, मु. ४६५ १ नो कप्पड पिगंधाण वा णिगंथीण वा वासावासासु चारए । .... कप्प. उ. १, सु. ३७ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ घरणानुयोग-२ वर्षावास योग्य पत्र सूत्र १७३-१७७ वासावसजोग्ग खेत्तं -- वर्षावास योग्य क्षेत्र१७३. से भिषण वा भिक्खूणी बा से उजं पुण जाणेज्जा गार्म वा १७३. वर्षावाम करने वाला भिक्षु या भिक्षुणी यदि ग्राम-यावत्-जाव-रायहाणि वा, राजधानी के राम्बन्ध में यह जाने किइमंसि खलु मामंसि वा-जाव-रायहाणिसि वा महती विहार- इस ग्राम---यावत्-राजधानी में स्वाध्याय करने योग्य भूमी, महती वियारभूमि । विशाल भूमि है, मल-मूत्र विसर्जन के लिए विशाल भूमि है । सुलझे जत्थ-पीढ-फरलग-सेपजा-संधारए, सुलभे फासुए उछ यहाँ पीठ, फलक, शय्या एवं संस्तारक की प्राप्ति भी सुलभ अहेसणिज्जे, है, साथ ही प्रासुक निर्दोष एवं एषणीय आहार पानी भी सुलभ है। णो जत्य बढे समण-जाव-वणीमगा उवागया उवागमिस्सति यहां बहुत से श्रमण यावत्-भिखारी आये हुए नहीं हैं य, अप्पाइण्णा-वित्ती, पण्णस्स मिक्खमण पवेसाए-जाव- और न आयेंगे, अतः वहाँ मांगने वालों की भीड़ भी नहीं रहती धम्माणुओग-चिताए। है, प्रज्ञावान साधु-साध्वी को यहां निकलना और प्रवेश करना --यावत्-धर्मचिन्तन करना उपयुक्त हो सकता है। सेवं गच्चा तहप्पगारं ग्राम वा-जाब-रायहाणि दा ततो यह जानकर ऐसे ग्राम-यावत्-राजधानी में यतनापूर्वक संजयामेव धामावासं उल्लिएज्जा । वावास व्यतीत करे । आ. सु. २, अ. ३. 3.१. सु. ४६६ वासावासाणंतर-विहार-अज्जोगं कालं वर्षावास के बाद विहार के अयोग्य काल१७४. अह पुणे जाणज्जा- चत्तारि मासा वासा-वासाणं १७४. यदि माधु-गाको यह जाने कि वर्षाकाल के चार मास थोतिबकता, हेमंताण य पंचा-दस-रायकप्पे परिसिते. म्यतीत हो चुके हैं तथा हेमन्त ऋतु को पांच या दस दिन व्यतीत अंतरा से मग्गा बहुपाणा जाव-संताणगा, णो जत्थ बहवे हो गये है। उस समय यदि मार्ग में अंडे हो-यावत् -मकड़ी समण जाव-वणीमगा उवागया उवामिस्संति य, सेवं गचा के जालों से युक्त हो, बहुत से श्रमण -गावत्-वणीमक आदि गो गामाणगाम दूइज्जेज्जा । उन गानों से आए न हों, न ही आने वाले हों तो यह जानकर -आ. सु. २, अ.३, उ. १. सु. ४६७ ग्रामानुयाम बिहार न करे। यासावासाणंतर विहार जोगं कालं.. वर्षावास के बाद बिहार के योग्य काल - १७५. अह पुणे जाणे ज्जा-चत्तारि मासा बासा-वासाणं १७५. यदि साधु साध्वी यह जाने कि वर्षाकाल के चार मास योतिकता, हेमंताण य पंच-बस-रायकप्पे परिसिते अंतरा गतीत हो चुके हैं तथा हेमन्त ऋतु के पांच दस दिन व्यतीत हो से मागा अपंडा-जाव-संताणमा, यहवे अस्थ समण-जाव- गए हैं । उस समय यदि मार्ग में अंडे नहीं है--यावत्-मकड़ी वणीमगा प्रवाण्या उवागमिस्संति य । सेवं गच्चा ततो पो जाले नहीं है। बहुत से धमण-यावत्-भिखारी भी उन संजयामेव गामाणगाम दूइज्जेज्जा । मागों पर आने जाने लगे हैं. या आने जाने वाले भी हैं तो यह -आ. सु. २, अ. ३, उ. १. शु. ४६८ जानकर, साधु यतनापूर्वक ग्रामानुग्राम विहार कर सकता है। वासावासावरगह खेत्तपमाण वर्षावास के अबराह क्षेत्र का प्रमाण१७६. वासावास पज्जोसवियाणं कपई निग्गयाण या, निगंथीण १७६. वर्षावास में रहे हुए निर्गन्धों और नियन्थियों को चारों या सवओ समं ला सबकोसं ओवणं उगह ओमिण्हिताणं दिशाओं में तथा विदिशाओं में एक कोश सहित एक योजन क्षेत्र घिटिलं अहालवमयि उम्महे । -दमा. द. ८, गु. ८ का अवयह (स्थान) ग्रहण करके रहमा कल्पता है। उस अपग्रह से बाहर "यथालन्द काल" ठहरना भी नहीं कल्पता है। यासायासे बिहार करण विहि णिसेहो वर्षावास में विहार करने का विधि-निषेध - १७७. गो कप्पड़ निग्गंयाण दा जिग्गंथीण वा पहमपाउसंसि १७७. निर्ग्रन्थ और निग्रन्थियों को प्रथम प्रावृट् में प्रामानुग्राम मामाणुगामं दूधज्जित्तए। बिहार करना नहीं कल्पता हैपंचहि ठाणेहि कप्पइ, तं जहा बिन्तु पाँच कारणों से बिहार करना कल्पता है । जैसे Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १७७-१७६ वर्षावास में ग्लान हेतु गमन का क्षेत्र प्रमाण संयमो जीवन [६५ www (१) मयंसि वा, (१) शरीर या उपकरण आदि के अपहरण का भय होने (२) दुनिमक्खंसि वा, (२) दुभिक्ष होने पर। (३) पायहेज या पं कोई, (३) किसी के द्वारा व्यथित किये जाने पर (या ग्राम से निकाल दिये जाने पर)। (४) बोघंसि वा एज्ममाणसि, (४) बाढ़ आ जाने पर। (५) महता वा अणारिएहि (उबद्दबमाणेहि)। (५) अनार्यों के द्वारा उपद्रव किये जाने पर। वासावासं पज्जोसवियाणं णो कप्पद पियंयाण था जिग्ग- वर्षावास में पर्युषण करने के बाद निग्रन्थ और निन्थियां योण वा गामागुगाम सूइज्जित्तए। को ग्रामनुग्राम विहार करना नहीं कल्पता है। पंचहि ठा!हं कप्पर, तं जहा किन्तु पाँच कारणों से बिहार करना कल्पता है । जैसे(१) णाणट्टयाए, (१०वोग की पारित ने लिए। (२) दसणट्ठयाए, (२) दर्शन-प्रभावक शास्त्र का अर्थ पाने के लिए। (३) परित्तट्टपाए, (३) चारित्र की रक्षा के लिए। (४) आयरिए उवजताया वा से वीसुभेज्जा, (४) आचार्य या उपाध्याय को मृत्यु हो जाने पर। (५) आयरिय-उवमायाण वा बहिया वावच्चं-करणयाए। (५) अन्यत्र रहे हुए आचार्य या उपाध्याय को वैयावृत्य - ठाणं. अ. ५. उ. २, सु. ४१३ करने के लिए। वासावासे गिलाण? गमण खेत्तप्पमाणं -- वर्षावास में ग्लान हेतु गमन का क्षेत्र प्रमाण-- १७८. वासावासं पम्जोसरियाणं कप्पह निगाथाण वा, निग्गयोण?... वर्षावास रहे हए निर्ग्रन्थ-निर्गन्थियों को ग्लान के लिए वा गिलाणहेज-जाब-सारि पंच जोयणाई गंतु पहिनि- चार पनि योजन तक जाकर लौट आना कल्पता है । यत्तए। अंतरा वि से कप्पा वस्थए, मार्ग में रात्रि रहना भी वल्पता है, नो से कप्पहतं रयणि तत्थेव उवायणावितए। किन्तु जहाँ जावे वहां रात रहना नहीं कल्पता है। -दसा.द.८, सू.७५ पढम-बितीयपाउसंमि विहार करण पायच्छित्त सुत्ताई- प्रथम-द्वितीय प्रावृट् में विहार करने के प्रायश्चित्त सूत्र१७६. चे भिक्खू पहम पाउसम्मि गामाणगाम हाजइ, इज्जतं १७६. जो भिन्न प्रथम वर्षावास (संवत्सरी के पूर्व) में ग्रामानुग्राम वा साइजह। विहार करता है, करवाता है या करने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू वासावाससि पज्जोसवियंसि दुमड, चूइज्जत जो भिक्षु वर्षावास रहने पर (संवत्सरी के बाद) विहार वा साइम्मा। करता है, करवाता है या करने वाले का अनुमोदन करता है। तं सेवमाणे आवस्जद चाउम्मासियं परिहारट्टाणं अणुग्धाइये। उसे चातुर्माभिक अनुद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि. उ. १०, सु. ४०-४१ आता है। १ बृहत्कल्प उद्दे० १, सु० ३५, की नियुत्ति, गा० २७३४ में वर्षावास दो प्रकार का कहा है--- (१) प्रावट और (२) वर्षांरात्र । श्रावण और भाद्रपद मास "प्रावृट्", आश्विन और कार्तिक मास "वर्षारा" कहे जाते हैं । निशीथ पूणि भाग ३, पृ०७७४ में भी यही कहा गया है। ठाणं. अ. ५, उ. २, सु ४१३, टीका पृ० ३०८ में वर्षाकाल के चार मास को प्रावट कहा है तथा प्रावट के दो भाग किए गए हैं। प्रथम प्रावृद्ध पचास दिन का, द्वितीय प्रावृटु सत्तर दिन का। Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परणानुयोग-२ सर्वत्र आचार्यावि की आज्ञा से जाना, बिना आज्ञा के नहीं जाना सूत्र १८०-१२ वर्षावास आहार समाचारी-३ सम्वत्थ आयरियाईण आणाए गमणं अणाणाए अगमणं- सर्वत्र आचार्यादि की आज्ञा से जाना, बिना आज्ञा के नहीं जाना१८०. वासावासं पज्जोसबिए भिक्खू इच्छिज्जा गाहावहकुलं १८०. वर्षावास रहा हुआ भिक्षु ग्रहस्था के घरों में भन-पान भताए वा. पाणाए वा, निक्खमिलाए वा, पविसित्तए पा। के लिए निजमण और प्रवेश करना चाहे तोनो से कप्पइ अणापुच्छित्ता, (१) आयरियं वा, (२) उवज्झायं वा, (३) थेरं वा, (१) आचार्य, (२) उपाध्याय, (३) स्थविर (४) पवत्तयं दा. (५) गणि वा. (६) गणहरं वा, (४) प्रवर्तकः, (५) गणित (5) रणधर या (७) गणावन्छअयं वा, जं च वा पुरओ का विहरह। (७) गणावच्छेदक अथवा जिसको अग्रणी मानकर वह विचार रहा हो, उन्हें पूछे बिना आना-जाना नहीं कलाना है। कम्पह से आपुरिछउं-आयरियं वा-नाव गणावच्छेअयं वा, जं किन्तु आचार्य यावत्-गणावच्छेदक अथवा जिराको च वा पुरओ का विहरह अग्रणी मानकर वह विचर रहा हो उन्हें पूछकर ही आना-जाना कल्पता है। (आज्ञा लेने के लिए भिम प्रकार कहे-) "इच्छामि ण मते ! तुभेहि अन्नणुण्णाए समाणे गाहावइ- "हे भगवन ! आपको आपकी आज्ञा मिलने पर गृहस्थों के कूतं भत्ताए वा, पाणाए वा, निक्खमित्तए वा, पविसित्तए घरों में भक्ता-पान के लिए निष्क्रमण-प्रवेश करना चाहता हूँ।" वा ?" ते य ते वियरेज्जा, एवं से कप्पा गाहायइफुलं भत्ताए वा, यदि आवार्यादि आया दे तो गृहस्थों के घरों में भक्तान पाणाए वा, निक्वमित्तए वा. पबिसिलए वा। के लिए निष्क्रमण-प्रवेश करना कल्पना है। ते ये से नो वियरेज्जा, एवं से नो करपट गाहावाकुलं यदि आचार्यादि आज्ञा न दें तो गृहस्थों के घरों में भक्तपान भत्ताए वा, पाणाए वा, निक्खमित्तए वा, पविसित्तए वा। के लिए निष्क्रमण-प्रवेश करना नहीं पता है। प०-से किमाहू भंते ! प्र.--हे भगवन् ! ऐसा क्यों कहा? उ.-आरिया पच्चवायं जाणंति । उ.-आचार्यादि आने वाली विघ्न बाधाओं को जानने है । एवं विहारभूमि बा, थियार भूमि का, अन्न या किवि इसी प्रकार स्वाध्याय भूमि और णांचभूमि या अन्य भी गओअणं, एवं गामाणु गार्म दुइग्जित्तए । किसी प्रयोजन के लिए उक्त आनार्मादि को आज्ञा लेकर ही -दसा. द. ८, गु. ५१-६१ आना-जाना कल्पता है। इसी प्रकार ग्रामानुगाम जाने के लिए भी उक्त आचार्यादि की आज्ञा लेकर जाना-बाना कल्पता है । भिक्खायरियाए गमण जोग्गखेत मिक्षाचर्या के लिए जाने योग्य क्षेत्र१८१. वासावासं पज्जासचियाण कम्पह निग्गंथाण वा, निग्गयोण १५१. वर्षावास रहने वाले निर्ग्रन्व-नियंन्थियों को एक कोय वा सम्बओ समता सकोस जोधणं भिक्खायरियाए गतं पडि- सहित एक योजन' क्षेत्र में चारों और भिक्षा नर्या के लिए जाना नियत्तए। -दसा. द. ८, सु. ६ एवं लौटकर आना कल्पना है । भिक्खारिया दिसंकहिता भिक्खागमण बिहाणं- भिक्षाचर्या की दिशा वाहकर भिक्षार्थ जाने का विधान ... १८२. वासावासं पज्जोसचियाणं नियंयाण चा, निग्गंथीण वा १८२, वर्षावास रहे हए नियन्थ-निर्ग्रन्थियों को किसी एक दिशा कप्पई अण्णरि विसं वा अणुदिसं वा अवगिज्झिय भत्तपाण या विदिशा का निश्चय करके आहार पानी की गवेषणा करना गवेसित्तए। कल्पता है। १०-से किमाह भते! १०- हे भगवन् ! आपने ऐसा क्यों कहा? उ.-उस्सणणं समणा भगवंतो मासासु सवसंपत्ता भवति । उ-वर्षाकाल में श्रमण भगवन्त प्रायः तपश्चर्या करते रहते हैं। Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १०२-१८६ नित्यभोजी के गोचरी आने का विधान संयमी जीवन [६७ तबस्सी दुखले किलते मुहिवा, पबडिज्ज वा, अतः वे तपस्वी दुर्बल क्लान्त कहीं मूच्छित हो जाएं या तमेव दिसं वा अणुदिन वा समगा भगवतो पडिजा- गिर जाएं तो साथ वाले श्रमण भगवन्त उसी दिशा में उनकी गरंति । - दसा. द.८, सु. ७४ शोध कर सकें। णिच्चभत्तियस्स गोअरकाल विहाण नित्यभोजी के गोचरी जाने का विधान - १८३. यासायासं पज्जोस बियस्स निश्चत्तियस्स भिक्खुस्स कप्पड १८३. वर्षावाग रहे हुए सदा आहार करने वाले भिक्षु के लिए एग गोअरकालं पाहायइकुल भत्ताए वा, पाणाए वा, एक गोबर फाल का विधान है और उसे गृहस्पों के घरों में निक्लमित्तए वा, पविसित्तए था। भक्तपान के लिए एक बार निष्क्रमण रवेश करना कल्पता है । नन्नत्य बायरिम-बेयावच्चेण वा, उवमाय-बेयावच्चेण या, किन्तु आचार्य, उपाध्याय, तपस्वी, ग्लान की वैयाबृत्य करने तबस्सि-चेयावर चेण घा, गिलाण-वेयावच्चेण वा, हरण वाले तथा अप्राप्त यौवन वाले लधु शिष्यों को छोड़कर । वा अवंजण-जाणएण। --दसा. द. ८, मु. १६-२४ (अर्थात् इनको अनेक बार भी जाना कल्पता है ।) निच्चभत्तियस्स सव्वपाणय-गहण-विहाणं . नित्य भोजी के लिए मर्व पेय ग्रहण करने का विधान१८४. वासावासं पज्जोसविधस्स निच्चभत्ति यस्स भिक्खुस्स कम्पति १८४. वर्षावास रहे हुए नित्यमोजी भिक्षु के लिए सभी प्रकार सम्बाई पाणगाई पडिगाहित्तए। -- दसा. द. ८, सु. २६ के अचित्त पानी ग्रहण करने वल्पते हैं । सड्डी फुलेसु अदिट्ट जायणा णिसेहो-- श्रद्धावान घरों में अदृष्ट पदार्थ मांगने का निषेध१८५. वासावार्स एज्जोसषियाणं अस्थि गं थेराणं तहप्पगाराई १८५. वर्षावास में रहने वाले साधु-साध्वी इस प्रकार के कुलों कुलाई कडाई पत्तिआई थिज्जाई सासियाई समयाई को जाने कि -जिनको स्थविरों ने प्रतिबोधित किये हैं, जो बहुमयाई अणुमयाई भवति । प्रीतिकर है, दान देने में उदार हैं, विश्वस्त हैं, जिनमें साधुओं का प्रवेश सम्मत है, साधु सम्मान को प्राप्त है, साधुओं को दान देने के लिए नौकरों को भी स्वामी द्वारा अनुमति दी हुई है । सत्य से नो कप्पढ़ अदक्खु वहत्तए "अस्थि ते आउसो ! इमं ऐसे कुलों में अदृष्ट वस्तु के लिए 'हे आयुष्मन् ! तुम्हारे यहाँ वा, इम वा" यह वस्तु है, वह वस्तु है ?" ऐसा पूछना नहीं कल्पता है । ५०-से किमाह भंते ! प्र... हे भगवन् ! ऐसा क्यों कहा? उ०-सढी गिही गिहा, तेगिय पि कुज्जा । ३०-श्रद्धालु गृहस्वामी मांगी गई वस्तु को खरीद कर -दसा, द. ८, सु. १८ लायेगा या चुराकर लायेगा । आयरिय आणाणसारेण भत-पाणगहणं वाणं च आचार्य की आज्ञानुसार भक्त-पान ग्रहण करना और देना१८६. वासावासं पज्जोसवियाणं अस्वगइयाणं एवं वुत्तपुरवं भवह- १६. वर्षावास रहे हुए साधुओं में से किसी साधु को आचार्य "बावे भंते !'' एवं से कप्पड दावितए, नो से फप्पह पडि. इस प्रकार कहे कि "हे भदन्त ! आज तुम ग्लान साच के लिए गाहित्तए। आहार लाकर दो।" तो लाकर देना उसे कल्पता है। किन्तु स्वयं को दूसरों से ग्रहण करना नहीं कल्पता है। वासावासं पक्जोसवियाणं अत्यहयाणं एवं धुत्तपुरवं भवद- वर्षावास रहे हुए साधुओं में से किसी साधु को आचार्य इस "पडिगाहेहि भंते !" एवं से कप्पा पडिगाहितए नो से प्रकार कहे कि "हे भदन्त ! आज तुम दूसरों से आहार ग्रहण कप्पड वावित्तए। करो।" तो ग्रहग करना कल्पता है किन्तु दूसरे को देना नहीं कल्पता है। वासायास पज्जोसवियाणं अस्थगइयाणे एवं वृत्तपुश्यं भवह- वर्षावास रहे हुए साधुओं में से किसी साधु को आचाई "दावे मते ! पटिगाहेहि भते ।" एवं से कप्पद दावित्तए वि इस प्रकार कहे कि "हे भदन्त ! तुम आज ग्लान साधु को पडियाहिनए वि। आहार लाकर दो और हे भदन्त ! तुम दूसरों से ग्रहण भी कर लो।" ती लाकर देना और स्वयं को ग्रहण करना भी कल्पता है। Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८] चरणानुयोग- २ साम को पूछकर के हो बाहार पानी लाने का विधान वासायास पन्जोसवियार्थ अश्वेगहया एवं "जो दावे ते न पाते। एवं बातिए नो परिगाहित्तए । दसा. द. 1 भद पो सु. १२-१५ बिलानं पुच्छिता एवं महणा... १८७. बासावासं पज्जोसविधाणं नो वप्प निगंधाण वा निगीना परिसरास अए असणं वा पायाला साइमं वा डिमालिए। कमाते ? उ० – इच्छा परो अपरिणए भुजिज्जा इच्छा परो न निजा सा.द. ८ सु. ४८ r -- कपद से अरपुसिा आयरिये या जाव-गणावच्छेययं वा जं वा पुरओ काउं विहरद्द, विगह गहण जिसेहो १८८ वासावासं पज्जोस बियाणं नो कप्पह निम्गंधाण वा निग्गंधीण या हट्टानं आरोग्याणं यलिय - सरीराचं अण्णबरीओबिओआहालिए। - दसा. द. सु. १६ आरिहि पुच्छिता एवं वियई गहन विहरणं १०. सारा थिए मिलू इच्छिन्मा अनादि आहारितए आचार्य से पूछकर ही विकृति ग्रहण करने का विधान-१८६. वर्षावास में रहा हुआ भिक्षु किसी विषय का आहार करना चाहे तो आचार्य यावत् गणावच्छेदक अथवा जिसको नो से कम्प अगापुसिा आपरियं वा नाव- गणबच्छेय अनुआ मानकर वह विनर रहा हो उन्हें पूछे बिना लेना नहीं पुरोका बिर कल्पता है । "इच्छामि न मते ! तुमेहिण समार विग हारिए तं एव वा एव वा ।" ते से परे एवं से कम्मर अणरि विगई महा रिसए । तेथ से नो वियरेखा, एवं से मरे कप्पइ अण्णयर बिगई आहारिए । ९० - से किमा भंते! उ०- आयरिमा परथवा जागंति । www. वर्षावास रहे साधुओं में से किसी साधु को आचार्य इस प्रकार कहे कि "हे दन्त! आज तुम ग्लान साधु को आहार लाकर न दो और तुम स्वयं भी आहार ग्रहण न करो।" तो न देना कल्पता है और न स्वयं को ग्रहण करना कल्पता है । को ककर के हो आहार पानी लाने का विधान१८. वर्षावान रहे हुए निग्ध-निन्थियों को महान भिक्षु की सूचना के बिना या उसे पूछे बिना तन, पान, बाय स्वा ग्रहण करना नहीं कल्पत है। ग्लाग प्र० - हे भगवन् ऐसा क्यों कहा ? उ०- म्लान की इच्छा हो तो यह अपरिशप्त ( बिना मंगाया हुआ) आहार भोगे, इच्छा न हो तो न भोगे । विकृति ग्रहण निषेध १८८. वर्षावास रहे हुए हृष्ट-पुष्ट, निरोग एवं सशक्त शरीर वाले निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों को कोई भी विकृतियों का आहार करना नहीं कल्पता है । १०६-१०९ - किन्तु आचार्य - यावत् - गणावच्छेदक अथवा जिसको अगुआ मानकर वह विचर रहा हो उन्हें पूछकर लेता कल्पता है । आता लेने के लिये भिक्षु इस प्रकार कहे (घ) ठाणं० अ० ४ उ० १, सु० २७४ में ४ महाविगय का कथन है । (क) विकृति भक्षण पश्चिस नि० ० ४ ० २१ 'हे भगवन् ! आपकी आज्ञा हो तो किसी विजय का आहार करना चाहता हूँ। वह भी इतने परिमाण में और इतनी बार ।" यदि वे आज्ञा दें तो किसी विगय का आहार करना करूपता है । यदि आज्ञा न दें तो किसी भी विगय का आहार करना नहीं कल्पता है। प्र०-हे भगवन् ! ऐसा कहने का क्या कारण है? २० आचार्यादि जाने वाली विघ्न बाधाओं की जानते हैं। दसा. द. सु. ६२ १ (क) तरुण अवस्था में विकृति ग्रहण का निषेध है परन्तु रुग्ण अवस्था में गुरु बादि की आशा लेकर विगय ग्रहण करना कल्पता है । (ख) उत्त० ब० १७, गा० १५ में विगयभोजी को पापी श्रमण कहा है। (ग) विकृति के नव प्रकार-ठाणं० अ० ६, सु० ६७४ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११०-१९२ गिलाण्ट्ठा बिगड़ गहण विहाणं १६० मा प 'अट्ठो मंते ! गिलाणस्स' से य वइज्जा - "अडो" से ये पुच्छिमध्ये "केवइएण अड्डो ?" की बक्ता एवएवं अट्टो विलासा" ये जं से पमाणं वयह, से य पमाणओ वितध्ये । — के लिए विकृति प्रण करने का विधान से व विभा से व विधवेमा सा सेय पमाणपते हो "अलाहि" इय वसथ्यं सिया । से किमाहू मते ! एवएवं अट्टी दिलास सिया गं एवं जयं परोपजि पछा तुम सिया पाहता।" एवं से कप्प पाहिलए नो से कम्प गिलानीसाए परिवाहिताए । -दसा. द. ८, सु. १७ बुट्टिकाए एवमहिय भरा-पाण भक्तण-विही १६१. वासावासं पज्जोसवियरस निर्णयस्स वा निगांधीए वा महापापडियाए अनुपविटुस्स निगिशिव निक्स मुट्टिकाएं निवइज्जा, कापड से आहे आरामंसि या, आहे उवत्सयसिवा, अहे विमहिंसि वा आहे मूलसिया sarve नो से कप्पड़ पुध्वगहिएणं भस-पाणं वेलं उत कम्प से पुण्यामेव विडग भुरखा, पिकवा पहिगं लिहिलय संयमविजय-संपमजिय गाव कद्दू से पूरे जेणेव उवस्सए तेणेव उपायच्छित भो से कप्पड़ तं योग सत्येव उवायणा वित्तए । संयमी जीवन --दसा. द. सु. ४४ P [16 NNN गतान के लिए विकृति ग्रहण करने का विधान १०.रहे एनियों में सेवा करने वा नाव से पूछे कि "हे भगवन् ! आज किसी ग्लान के पथ्य की आवश्य कता है ?" आचार्य कहे- 'हाँ आवश्यकता है।' निर्ग्रन्थ पूछे 'कितनी मात्रा आवश्यक है ?" आचार्य कहे " इतनी मात्रा आवश्यक है ।" इस प्रकार ने जितना प्रमाण कहें उस प्रमाण से लाना चाहिए। वैयावृत्य करने वाला निर्ग्रन्थ गृहस्थ के घर जाकर पथ्य की याचना करे तथा आवश्यकतानुसार प्राप्त होने पर "बस पर्याप्त है" इस प्रकार कहे । गृहस्य यदि वाहे "हे भदन्त ! बार ऐसा क्यों कहते हैं? तब निग़न्थ इस प्रकार कहे "ग्लान साधु के लिए इतनी ही पर्याप्त है ।" इस प्रकार कहने पर भी यदि हस्य कि "हे! और भी ग्रहण करो । ग्लान के उपयोग में आने के बाद आप भी खा लेना या पी लेना ।" १९१ वर्षावास रहे हुए निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियाँ गृहस्थों के घरों में आहार के लिए गये हुए हों और उस समय रुक कर वर्षा आने लगे तो उन्हें आराम गृह, उपाश्रय विकट (चौतरफ से खुले ) गृह और वृक्ष के नीचे आकर ठहरना कल्पता है । किन्तु पूर्व गृहीत भक्त पान से भोजन वेला का अतिक्रमण करना नहीं कल्पता है । ( अर्थात् सूर्यास्त पूर्व) निर्दोष आहार खा-पीकर पात्रों को मंडपोंछकर और साफ करके एकत्रित करे तथा सूर्य के रहते हुए । जहाँ उपाश्रय हो वहाँ आ जाए। किन्तु वहाँ (अन्यत्र) रात रहना नहीं कल्पता है। गृहस्थ के ऐसा कहने पर अधिक पथ्य लेना कल्पता है। मिलान के निमित्त से अधिक ग्रहण करना नहीं कल्पता है । वर्षा बरसने पर पूर्व गृहीत भक्तन्पान के उपयोग की विधि 1 बुद्विकाए विडिए णिग्गंध-निग्गंधी एगयओ चिट्ठ वर्षा दरसने पर एक स्थान में निर्धन्यनिन्थियों के छह विही रने की विधि १२. बासावा जोसवियरस निगमरस वा निपीए वा १९२. वर्षावास रहे हुए निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियाँ गृहस्थों के घरों में १ दसा० द० ८, सु० ४० Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७.] परणानुयोग-२] गीला शरीर हो तब तक आहार करने का निषेध पत्र १९२-१६३ गाहावहकुलं पिंडवाय-पडियाए अणुपविदुस्स निमिजतय आहार के लिए गए हुए हो और उस समय रुक-रुक कर वर्षा निगिजाय वृष्ट्रिकाए निवइज्जइ कप्पद से अहे आर.मंसि आने जगे तो उन्हें आराम-गृह, उपाश्रय, विकट गृह या वृक्ष के वा, अहे अबस्ससि वा, अहे बियाडगिहसि वा, अहे रुख- नीचे आकर ठहरना काल्पता है । मूलसि वा उवागछित्तए। १. तरप नो कम्पइ एगस्स निग्गंधस्स, एगाए य निम्नथीए (१) किन्नु वहाँ अकेले निन्थ को अकेली निर्ग्रन्थी के साथ एगयओ चिट्टिसए। ठहरना नहीं कल्पता है। २. सत्य नो कप्पह एगस्स निग्गंथस्त दुहं निग्गंधीणं एग- (२) मले निन्थ को दो निग्रंथियों के साथ ठहरना नहीं यओ चिट्ठिसए। कल्पता है। ३. तत्य नो कप्पद बुहं निग्गंधाणं एगाए प निग्गंथीए (३) दो निग्रन्थों को अकेली निर्ग्रन्थी के साथ ठहरना नहीं एगपओ चिट्टित्तए। कल्पता है। ४. तत्थ नो कप्पह दुण्हं निगंथाणं, दुहं निमगधोणं य (४) दो निर्गन्धों को दो निग्रंथियों के साथ ठहरना नहीं एण्यओ विद्वित्तए। कल्पता है। अत्यि व इत्थ केइ पंचमे खुदाए खुड्डीया वा अन्नेसि वा यदि यहां पर पांचवां व्यक्ति बालक या बालिका कोई भी संलोए सपडिनुवारे, एवं ण कम्पद एयो चिद्वित्तए। हो अथवा वह स्थान आने-जाने वालों को स्पष्ट दिखाई देता हो तो वहाँ पर एक गाय ठहरना कल्पता है । वासावासं परजोसवियस्स निग्गंथम्स गाहावइकुल पिडवाय- वर्षावास रहा हुआ निग्रंन्य गृहस्यों के घरों में आहार के पडिपाए अपविट्ठस्स निगिजिमय निगिज्य बट्टिकाए लिए गया हुआ हो और उस समय रुक-रुक कर वर्षा आने लगे निवाजा, कल्पह से अहे रामसि वा, अहे उबस्सयंसि तो उसे आरामगृह, उपाश्रम, विकटगृह या वृक्ष के नीचे आकर वा, अहे वियगिहसि वा, अहे लक्खमूलसि वा उश- ठहरना कल्पता है । गकिछत्तए। तस्य नो कप्पइ एगस्स निग्गंधस्स, एगाए य आगारीए किन्तु वहाँ अकेले निर्ग्रन्थ को अकेली स्त्री के साथ ठहरना एगयो चिद्वित्तए। नहीं कल्पता है। एवं पत्तारि भंगा भाणियवा । इस प्रकार (उपरोक्त) चार भंग कह लेने चाहिये। अस्थि या इत्व के पंचमए थेरे वा, थेरियाइवा, अन्नेसि यदि वहां पर पांचवा स्थायर पुरुष या स्थविर स्त्री हो वा संलोए सपरिवारे, एष णं कप्पद एगयो चिट्ठिसए। सवा यह स्थान आने-जाने वालों को स्पष्ट दिखाई देता हो तो __ वहाँ पर एक साथ ठहरना कल्पता है । एवं चेव निग्गंधीए अगारस्स य चत्तारि भंगा भाणियव्वा । इसी प्रकार निर्गन्धी और गृहस्थ पुरुष के चार भंग कहने -दसा. द. 4, सु. ४५-४७ चाहिए। उपउल्लकाएण आहार-णिसेहो गीला शरीर हो तब तक आहार करने का निषेध१९३. वासाबास पज्जोसवियाणं नो कप्पह निम्नभाण बा, १६३. वर्षावास रहे हुए निग्रंन्य-निग्रन्थियों को वर्षा के जल से निग्गयोग वा उदउल्लेग बा, ससिणिण या कारणं असणं स्वयं का शरीर गीला हो या वर्षा का जल स्वयं के शरीर से बा-जाव-साइमं वा आहारित्तए। टपकता हो तो अशन-पावत्-स्वाद्य आहार करना नहीं कल्पता है। प.-से किमाइ मते? प्र०—हे भगवन् ! ऐसा क्यों कहा गया है? -सत्त सिहाययणा पण्णता, तं जहा उ.-शरीर पर पानी दिकने के सात स्थान कहे गये हैं। यथा--- १. पाणी, २. पाणिलेहा, (१) हाथ और, (२) हाथ की रेखाएँ, ४. नहसिहा, (३) नख और, (४) नव के अग्रभाग, ५. भमुहा, ६, अहरोट्टा, (५) भौहा (६) दाढ़ी और ७. उत्तरोदा। (७) मुंछ । Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १९३-१६६ मात्रा से हमारा करी : भिन संयमी जीवन [७१ अह पुण एवं जाणिजा-विगओवगे मे काए छिनसिणेहे यदि वह ऐसा जाने कि मेरे शरीर से वर्षा का जल नितर एवं से कप्पा असणं वा-जाव-साइमं वा आहारित्तए। गया है अथवा वर्षा का जल सूख गया है तो उसे अशन-यावत -दसा. द. य, सु. ४६ स्वाद्य आहार करना कल्पता है। वर्षावास-तप-संलेखना समाचारो-४ आयरियाइएहि आपुच्छित्ता तवोकम्म करण विहाणं- आचार्यादि से पूछकर तप करने का विधान१९४. वासावासं पज्जोविए भिक्खू इच्छेज्जा अग्णयर ओराल १६४, वर्षावास रहा हुआ भिक्षु यदि किसी प्रकार का प्रशस्त, कल्लाणं सिवं अयं मंगलं सस्सिरीयं महामावं तबोकम्मं कल्याणकर, शिवनद, धन्यकर, मंगलरूप, श्रीयुक्त, महाप्रभावक उपसज्जितागं विहरितए। तपःकर्म स्वीकार करना चाहे तो--- मो से कप्पह अणापुभिछत्ता आयरियं वा-जाव-गणावच्छेययं आचार्य-यावस--गणाबच्छेदक अथवा जिसको अगुत्रा वाज वा पुरओ का बिहरहा। मानकर वह विचर रहा हो उन्हें पूछे बिना नपःकर्म स्वीकार करना नहीं कल्पता है। कप्पद से आपुरिछत्ता आपरियं वा-जाव-गणावच्छेमयं वा विन्तू आचार्य-यावत् -गणावच्छेदक अथवा जिसको जंच वा पुरओ का विहरह। अगुआ मानवार वह विचर रहा हो उन्हें पूलकर ही तरःकर्म स्त्रीकार करना कल्पता है। (आज्ञा लेने के लिए भिक्षु इस प्रकार पूछ-) 'इच्छामि गंमते ! तुम्भेहि अश्मणुग्णाए समाणे अग्णयर "हे भगवन् ! आपकी आज्ञा हो तो किसी प्रकार का ओराल-जान-तबोकम्म उबसपज्जित्ताणं विहरितए तं एवढ्यं प्रशस्त-यावत् –तपःकर्म स्वीकार करना चाहता हूँ वह भी • वा, एवइस्तो था।' अमुक प्रकार का और इतनी बार।" ते य से विवरेजा, एवं से फापा अग्णयर ओरा-जान- यदि वे आशा दें तो मन्यतर प्रशस्त यावत् - तपःकर्म तवोकम्म उवसंपज्जिताणं विहरित्तए । स्वीकार करना काल्पता है। ते प से नो वियरेज्जा, एवं से नो कप्पड़ अण्णयरं ओरालं यदि वे आज्ञा न दें तो अन्यतर प्रशस्त यावत् - तपःकर्म -जाव-तबोकम्म उवसंपज्जित्ता विहरित्तए। स्वीकार करना नहीं कल्पता है । ५० --से किमाणु भंते ! प्रहे भगवन् ! ऐमा कहने का क्या कारण है ? 10--आयरिया पञ्चवायं नाणंति । उ०...-आचार्यादि आने वाली विघ्न-बाधाओं को जानते हैं । -दया. द. ८, सु. ६४ पउत्थभस्तियस्स पाणगगहण विहाणं उपवास करने वाले के पानी ग्रहण करने का विधान - १६५ वासावासं पज्जोसवियस्स-उत्थभत्तियस्स भिक्खुस्स १६५. वर्षावास रहे हुए चतुर्य भक्त (उपवास) करने वाले भिक्षु कम्पति सओ पाणगाई पबिगाहितए, तं जहा को तीन प्रकार के पानी लेने कल्पसे हैं। यथा१. उस्सेहम, २. संसेइम, (१) उत्स्वेदिम, (२) संस्वेदिम, ३. घाउलोदगं । -दसा. द. ८, सु. ३० (३) और चावलों का धोवन । छ?भत्तियस्स पाणग गहण विहाणं दो उपवास करने वाले के पानी ग्रहण करने का विधान१६६. वासावासं परजोसवियस्त छत्तिपस्स भिक्खुस्स कम्पति १९६. वर्षावास रहे हुए षष्ठ भक्त (बेले) करने वाले भिक्षु को तओ पाणागाई पडिगा हित्तए. सं जहा-- तीन प्रकार के पानी लेने कल्पते हैं, यथा१ तिलोवगं वा, २. सुमोदगं वा, (१) तिलोदक, (२) तुषोदक और, ३. जबावगं वा। -मा.द.८, सु. ३१ (३) यबोदक । Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२] वरणानुयोग-२ तीन उपवास करने वाले के पानी ग्रहण करने का विधान सूत्र १६७-२०१ अदृमभत्तियस्स पाणग गहण विहाणं तीन उपवास करने वाले के पानी ग्रहण करने का विधान१६७. आसावासं पजोसवियस्स अट्टमभत्तियस्स भिक्षुस्स कप्पइ १६७. वर्षावास रहे हुए अष्टम भक्त (तेले) करने वाले भिक्षु को तओ पाणगाई पडिगाहित्तए, तं जहा नीन प्रकार के पानी लेने कल्पते हैं यथा--- १. आयामेवा, २. सोवीरे वा, (१) आयाम, (२) सौवीर और, ३. सुखवियो वा। -दसा. द. ८, सु. ३२ (३) शुद्ध बिकट जल। विगिभस्तियस्स उसिणोदग गहण विहाणं- चार आदि उपवास करने वाले के गरम पानी ग्रहण करने का विधान-- १९८. वासावासं पज्जोसवियस्स विगिट्टभत्तिपस्स मिक्षुस्स १६८. वर्षादास रहे हए तेले से अधिक तपस्या करने वाले भिक्षु कप्पड़ एये उसिणंपियरे पडिगाहित्तए। को एकमात्र उष्ण अचित्त जल ग्रहण करना कल्पता है। वह से विय असित्थे, नो वि य णं ससित्य । भी अन्न कण से रहित हो किन्तु अन्न कण युक्त नहीं हो। -दया. द. ८, सु. ३३ भत्त-पडियाइक्खियस्स उसिणोदग गहण-विहाणं मक्त प्रत्याख्यान अनशन वाले के गरम पानी ग्रहण करने का विधान१६१. वासावास पज्जोसवियस्स भत्तपडियाइक्लियस्स भिक्खुस्स १९९. वर्षावास रहे हुए भक्त प्रत्याख्यानी भिक्षु को एक मात्र कपद एगे उसिणविपई पडिगाहित्तए । उष्ण अचित्त जल ग्रहण करना कल्पता है। से दिय गं असित्थे, नरे चेष णं ससित्थे। वह भी असिस्थ हो, ससिक्य न हो । से विपण परिपुए, नो चेक पं अपरिपुए। वह भी छाना हुआ हो, बिना छाना न हो। से वि य पं परिमिए, नो चैव गं अपरिमिए। बह भी परिमित हो, अपरिमित न हो। से विय णं असंपन्ने, नो दणं अबहुसंपन्ने । वह भी अच्छी तरह उबाला हुआ हो, कम उबाला हुआ दसा. द. ८, मु. ३४ न हो। दस्तिसंखा-विहाणं दत्ति की संख्याओं का विधान२००. वासावासं पन्नोसवियस्स संखादत्तियस्स भिक्षुस्स कति २००. वर्षावास रहे हुए तथा दत्तियों की संस्था का नियम पंच दत्तीओ भोअणस्स पडिगाहित्तए, पंच पाणयस्स । धारण करने वाले भिक्षु को आहार की पांच दत्तियाँ और पानी की पांच दत्तियाँ ग्रहण करना कल्पता है। अहवा चत्तारि भोअणस्स, पंच पाणगस्स । अथवा --आहार की चार और पानी की पाँच । अहया पंच मोमणस्स, घसारि पाणगस्म । अथवा-आहार की पांच और पानी की चार । तत्य गं एगा लोणासायणमवि पडिगाहिया सिया कप्पद से उनमें एक दत्ति नमक की डली जितनी भी हो उस दिन तदिवस तेणेव भत्तठेणं पणजोसवित्तए । उसे उसी आहार से निर्वाह करना चाहिए । नो से कप्पाइ दुच्चपि गाहावइ-कुल भत्ताए वा पाणाए वा, किन्तु उसे गृहस्यों के घर में आहार पानी के लिए दूसरी निक्समित्तए था, परिसित्तए वा। -दसा. द. ८, सु. ३५ बार निष्क्रमण-प्रवेश करना नहीं कल्पता है। पज्जोसवणाए आहारकरणस्स पायच्छित्त सुत्तं- पर्युषण में आहार करने का प्रायश्चित्त सूत्र२.१. जे भिक्खू पज्जोसवणाए इत्तरिय आहारं आहारेड आहा- २०१. जो भिक्ष पर्युषण अर्थात् संवत्सरी के दिन अल्प आहार रतं वा साइजह । भी करता है, करवाता है या करने वाले का अनुमोदन करता है। त सेवमाणे आवज्जा चाउम्मासियं परिहारट्टाणं अणुग्घाइयं। उसे चातुर्मासिक अनुपातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) ---नि.उ. १०, सु. ४५ आता है। १ यहाँ वर्षावास समाचारी में यह विशेष कथन है। मामान्य कथन ठाणांग सूत्र में है। अतः चातुर्मास में या शेष काल में उक्त तपश्चर्याओं में उक्त प्रासुक जल ग्रहण किये जा सकते हैं ऐसा समझना चाहिए।' २ दत्ति का स्वरूप व्यवहार सूत्र ३०६ में भी है, वह तपाचार में देखें। Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र २०२-२०३ आचार्यावि से पूछकर पादपोपगमन करने का विधान संयमो जीवन [७३ आयरियाइएहि आपुच्छित्ता पाओवगमणकरण विहाणं- आचार्यादि से पूछकर पादपोपगमन करने का विधान२०२. वासायासं पम्जोसविए भिक्खू इच्छिाजा अपच्छिम-मार- २०२. वर्षावास रहा हुआ भिक्षु मरण-समव समीप आने पर गंतिय-संलेहणा-सूसणा मूसिए, भत्त-पाण-पडियाइपिखए, संलेखना द्वारा कम तय करना चाहे. आहार पानी का त्याग पाओवगए, अणवस्खमाणे विह रित्तए वा, करके कटे हुए वृक्ष के समान रहकर मृत्यु की कामना नहीं करता हुआ रहना चाहे, निक्खमित्तए वा, पविसिसए था। उपाश्रव से निष्क्रमण-प्रवेश करना चाहे, असगं वा-जाव-साइमं वा आहारितए, अशन-यावत् -स्वाध का आहार करना चाहे, उपचारं वा, पासवणं वा, परिद्वावित्तए, मल-मूत्र त्यागना चाहे, समझायं वा करिसए. स्वाध्याय करना चाहे, धम्मजागरियं वा जागरित्तए। और धर्म जागरणा करना चाहे तो, नो से कप्पद अणापुच्छिता आयरियं वा-जाव-गणावच्छेययं आचार्य-यावत् -गणावच्छेदक अथवा जिनको अगुआ वा, जंचवा पुरओ कार्ड बिहारद । मानकर विचर रहा हो उन्हें पूछे बिना उक्त कार्य करना नहीं काल्पता है। कम्पह से आपुग्छिता आयरियं वा-जाव-गणावच्छेपयं वा, किन्तु आचार्य-यावत्-गगावणेदक को अथवा जिनको जंछ वा पुरओ कार्ड वितरह । अगुआ मानकर विचर रहा हो, उन्हें पूछकर करना कल्पता है। (जाजा लेने के लिए भिक्षु इस प्रकार रहे ) "इच्छामि गं मंले ! सुबभेहि अभणणाए समाणे अपतिम- "हे भगवन् ! आपने आज्ञा हो नो मरण गमय समीप आने मारणंतिय सलेहणा-सूसणा सिए-जाव-धम्मजागरियं वा पर संलवना द्वारा कर्मक्षय यावत्-धर्म जागरणा करता जागरितए।" चाहता हूँ।" हे व से वियरिज्जा, एवं से कप्पइ अपच्छिम-मारणतिय- यदि वे आज्ञा दें तो गरण समय समीप आने पर संलेखना संलेहणा-सूसणामूसिए-जान-धम्मनागरियं वा जागरिसए। द्वारा वर्मय-यावत्-धर्मजामरगा करना बाल्पता है। ते य से नो वियरेग्जा एवं से नो कम्पद अप-छिम-मारणं- यदि वे आज्ञा न दें तो मरण समय समीप आने पर संलेसिय-संलेहणा-असणा मूसिए-जान-धम्मजागरियं वा जाग- खना द्वारा कर्मश्नय --यावत् -धर्मजागरणा करना नहीं रितए। कल्पता है। प०-से किमाह मंते ? हे भगवन् ! ऐसा कहने का क्या कारण है। उ.-आयरिया पन्चवायं आगति । आवार्यादि आने वाली विध्न-बाधाओं को जानते हैं । -दसा. ६.८, सु. ६५ वर्षावास सम्बन्धी प्रकीर्णक-समाचारी–५ तिण्हं उवस्सयाणं ग्रहण-विहाणं तीन उपाययों के ग्रहण का विधान२०३. घरसावासं पज्जोसतियाण निगंधाण वा निमांधीण वा २०३. वर्षावास रहे हुए निन्थ-निर्ग्रन्थियों को सीन उपाश्रय तओ उपस्सया गिहिप्सए, ग्रहण करना चाहिए। वे कुम्विया पविलेहा, साहजिया समजणा। दो उपाययों की केवल अनिलेवना करना नथा प्रनिदिन -दसा.द. सु.७३ उपयोग में आने वाले उपायय की प्रमार्जना करना । Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४] चरणामुयोग-२ राध्या एवं आसन ग्रहण करने का विधान सूत्र २०४-२०५ सेज्जासण गहण विहाणं शय्या एवं आसन ग्रहण करने का विधान२०४. वासावासं पज्जोसधियाणं नो कम्पइ निग्गंधाण बा, २०४. वर्षावास रहे हुए निर्यन्य-निर्ग्रन्थियों को शय्या और आसन निपथीण वा अणभिग्गहिय सिज्जासणियाणं हत्तए। ग्रहण किए बिना रहना नहीं कल्पता है। आयाणमेयं शय्या और आसन नहीं रखना फर्म बन्ध का कारण है। क्योंकि, १. अणमिम्गहिय सिज्जासणियस्स, (१) शय्या और आसन नहीं ग्रहण करने वाले, २. अणुमचाकुछ यस्त, (२) एक हाथ से नीचा और चू करने वाला शय्या और आसन रखने वाले । ३. अणटाबंधियस्स, (३) हिलने वाले शय्या और मासन रखने वाले, ४. अमियासगियस्स, (४) परिमाण से अधिक शय्या और आसन रखने वाले, ५. अशातावियस्स, (५) यथासमय शय्या और आसन को धूप में नहीं सुखाने वाले। ६. असमियस्स, (६) एषणा समिति के अनुसार शय्या और आसन नहीं लेने वाले । ७. अभिदखणं अभिक्खणं अपडिलेहणासोबस्स, (७) शव्या और शासन की बार-बार प्रतिलेखना नहीं करने वाले तथा, ८. अपमज्मणासीलस्स, तला तहा संजमे चुराराहए मवह । (4) शया और आसन की प्रमार्जना नहीं करने वाले भिक्ष का संयम दुराराध्य होता है। अणायाणमेय किन्तु शय्या और आसन रखना कर्मबन्ध का कारण नहीं है । क्योंकि १. अभिग्यहिय सिज्जासपियस्स, (१) शय्या और आसन ग्रहण करने वाले, २. उच्चाकुदयस्स, (२) एक हाथ ऊँचा और चूं चूं नहीं करने वाला शय्यासन रखने वाले, ३. अट्टाबंधियस्स, (३) नहीं हिलने वाले शय्यासन रखने वाले, ४. मियासणियस्स, (४) परिमाण युक्त शय्या आसन रखने वाले, ५. आयावियस्स, (५) यथासमय शय्या और आसन को धूप में देने वाले, ६. समियम, (६) एषणा समिति के अनुसार शम्या और आसन लेने वाले, ७. अभिक्षण अभिक्खणं पजिसेहणासीलस्स, (७) शय्या और मासन की बार-बार प्रतिलेखना करने वाले तथा ८. पमज्जणासीलस्स तहा तहा संजमे सुआराहए भवद । () शय्या और आसन की प्रमार्जना करने वाले भिक्षु का -दसा. ६.८,सु. ६७ संयम सु-आराध्य होता है। तिणि मत्तगगहण-विहाणं तीन मात्रक ग्रहण करने का विधान-- २०५. वासावासं पऊजोसविधाणं कम्पा निम्याण पा, निगंधीग २.५, वर्षावास रहे हुए निर्ग्रन्थ-निर्गन्थियों को तीन मात्रक ग्रहण या तओ मत्तगाई गिरिहत्तए, तं जहा~ करने कल्पते हैं, यथा१. उच्चार-मसए, २. पासवण-मत्तए, (१) मल त्यागने का पात्र, (२) मूत्र त्यागने का पात्र, ३. खेल-मत्तए । -इसा.द.८, सु. ६१ (३) कफ त्यागने का पात्र । Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्र २०६-२०८ वर्षावास में पात्र और वस्त्र ग्रहण करने का प्रायश्चित्त सूत्र संथभी जीवन [७५ पढमसमोसरणे पत्त-चीवर-गहण पायर्याछत्त सूत्तं वर्षावास में पात्र और वस्त्र ग्रहण करने का प्रायश्चित्त २०६. जे भिक्यू पढ़म-समोसरणुदेसे पत्त-चीवराई पहिगाहेर २०६, जो भिक्षु चातुम सि में पात्र और वस्त्र ग्रहण करता है, पजिग्गाहेंतं वा साइजद। ____ करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है। तं सेवमाणे आवम्जइ चाउम्मासियं परिहारदाणं अणुपयाइर्य। उसे चातुर्मालिका अनुघातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि.उ. १०, सु. ४५ आता है। बासायासे वत्थ आतावण विहि-णिसेहो वर्षावास में वस्त्र सुखाने के विधि-निषेध२०७. वालावास पज्जोसविए भिषय इशिछष्मा वरवं वा, पडिगह २०७, वर्षावास में रहा हुआ भिक्षु यदि वस्त्र, पात्र, कम्बल, वा, कंबलं या, पापपुंछणं वा अण्णरि वा उहि आयाक्त्तिए पादपुंछनक या किसी प्रकार की उपधि को धूप में थोड़ी देर या वा, पयावित्तए वा । नो से कप्पड एग वा, अणेग वा अधिक देर तक सुखाना चाहे तो एक या अनेक भिक्षुओं को अपरिणवित्ता सूचित किए बिना, १. पाहावाकुलं भत्ताए या, पाणाए षा, निक्खमित्तए पा, (१) गृहस्थों के घरों में आहार-पानी के लिए निष्कमण पविसिसएगा। प्रवेश करना, २.असणं बा-जाब-साइम वा आहारित्तए । (२) अशन-यावत्-स्वाध का आहार करना । ३. मलिया विटामिन (३) उपाश्रय के बाहर स्वाध्याय स्थल में जाना या, ४. जियारभूमि वा निहरितए, (४) मल-भूत्र त्यागने के स्थान में जाना। ५. समायं वा करितए, (५) स्वाध्याय करना, ६.काउस्सगं वा, (६) कायोत्सर्ग करना, ७. ठाणे वा ठाइत्तए। (७) ध्यान करना नहीं कल्पता है । अश्षि य इस्थ के अभिसमण्णागए अहासण्णिहिए एगेवा, यदि वहाँ पर आये हुए या समीप बैठे हुए एक या अनेक अणे वा कप्पड से एवं बहसए मुनि हों तो उन्हें इस प्रकार काहना कल्पता है"इमं ता अज्जो | तुम मुहत्ता जाणेहि-जाव-ताव अहं, "हे आय ! धूप में सुखाये हुए इन उपकरणों का मुहूर्त गाहावइकुल भत्ताए या पाणाए वा निक्वमित्तए वा पवि- पर्यन्त ध्यान रखना जब तक कि मैं गृहस्थों के घरों में आहार सिलए वा-जाव-काउस्सगं वा ठाणं वा ठाइत्तए।" पानी के लिए निष्क्रमण प्रवेश करूं,-यावत्-कायोत्सर्ग या ध्यान करू'। ते य पडिसुणेज्जा, एवं से करपई-जाव-ठाणं वा ठाइत्तए। यदि वे स्वीकार कर लें तो उसे कल्पला है-यावत्-ध्यान करना। है य गो पविणेजा, एवं से नो कप्पई-जाव-काणं वा यदि वे स्वीकार नहीं करें लो उसे नहीं कल्पता है-यावत्ठाइत्तए। --दसा. ६. ८, सु. ६६ ध्यान करना। उच्चार-पासवण भूमि पडिलेहणा उच्चार प्रस्रवण भूमि प्रतिलेखना२०८. वासावास परजोसवियाणं कप्पड निम्नथाण वा, निग्गंधोग २०८. वर्षावास रहे हुए निम्रन्थ निन्थियों को तीन उच्चार था तो उरचार-पासवण भूमिओ पडिलेहित्तए, तं जहा प्रस्त्रवण भूमियों की प्रतिलेखना करना कल्पता है । हेमन्त और हेमंत-गिम्हासु, जहा पं वासासु । ग्रीष्म ऋतु में तीन उपचार प्रस्रवण भूमियों की प्रतिलेखना करना वर्षाकाल के समा। आवश्यक नहीं है। प-से किमाह मते ! प्र-हे भगवन् ! आपने ऐसा क्यों कहा? उ-बासातु णं उस्सपणं पाणा य, तणा य, बीया य, पणगा उ.-वर्षा ऋतु में प्रायः सर्वत्र पस प्राणी, हरी घारा, बीज, य, हरियाणि य भवति । -दसा. द.८, सु. ६८ फूलग और हरे अंकुर पैदा हो जाते हैं । Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६] चरणानयोग -२ आचार्यावि से पूछकर चिकित्सा कराने का विधान सूत्र २०९-२१२ आयरियाइहि पुच्छित्ता तिगिच्छा विहाणं- आचार्यादि से पूछकर चिकित्सा कराने का विधान२०६. वासावासं पज्जोसविए भिक्खू इच्छिज्जा अरुणरि तेइच्छियं २०६. वर्षावास रहा हुआ भिक्ष किसी एक रोग की चिकित्सा आउट्टित्तए नो से कप्पह अणापुन्छित्ता आयरियं वा-जाव- कराना चाहे तो आचार्य -यावत-गणावच्छेदक अथवा जिसको गणावच्छेययं वा जं वा पुरा काउं विहारह । अगुजा मानकर वह विधर रहा हो उन्हें पूछे बिना चिकित्सा कराना नहीं कल्पता है। कप्पड़ से आपुसिछत्ता आयरियं दा-चाच-गणावच्छययं बा जं किन्तु आचार्य-यावत्-गणावच्छेदक अथवा जिसको वा पुरओ का विहरह। अगुआ मानकर वह विचर रहा हो उन्हें पूछकर ही चिकित्सा कराना कल्पता है। (आज्ञा लेने के लिए भिक्षु इस प्रकार कहे-) "इच्छामि गं भंते ! तुम्भेहि अब्मणुण्णाए समाणे अण्णयरि "हे भगवन् ! आपकी आज्ञा मिलने पर अमुक रोग की तेइच्छियं आउट्टित्तए" चिकित्सा करना चाहता हूँ।" ते य से वियरेज्जा, एवं से कम्पइ अण्णरि तेइच्छियं आज- यदि आपार्यादि आज्ञा दें तो चिकित्सा कराना कल्पता है। ट्टित्तए। ते य से नो बियरेज्जा, एवं से कप्पा अपणयरि तेइच्छियं यदि आचार्यादि आज्ञा न दे तो चिकित्सा कराना नहीं आउट्टित्तए। कल्पता है। प.-से किमाह भंते । प्र--हे भगवन् ! आपने ऐसा क्यों कहा? उ.-आयरिया पच्चवायं जाणंति। ज०-आचार्यादि आने वाली विघ्न-गाधाओं को जानते है । -दसा. द. ८, सु. ६३ पज्जोसवणाओ पर केस-रक्खण णिसेहो- पर्युषण के बाद केश रखने का निषेध२१०. वासावासं पज्जोसवियाणं नो कप्पड़ निग्गंधाण वा २१०. वर्षावास रहे हुए निर्ग्रन्थ-निन्थियों को पर्युषणा (संव निग्गंधीणं वा परं पज्जोसवाणाओ गोलोसम्पमाणमित्त वि तरारी) की रात्रि के वाद गाय के रोम जितने केश भी रखना केसे तं रर्याणं उवाइणावित्तए। --दसा. द. ८, सु. ७० नहीं कल्पता है। पज्जोसवणाओ पर कंस-रक्षण पायच्छित्त सुतं- पर्युषणा के बाद केश रखने का प्रायश्चित्त सूत्र२११. जे भिक्खू पाजोसवाणाए गोलोममायं पि बालाई उवा- २११, जो भिक्षु पर्युषणा के बाद गाय के रोम जितने भी बाल इणावेह उवाइणावेत बा साइज्जा । रन्त्रता है, रखवाता है या रखने वाले का अनुमोदन करता है। तं सेवमाणे आवस्जद चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं अणु ग्याइयं। उसे चातुर्मासिक अनुदातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) --नि.उ, १०, सु. ४४ आता है। पज्जोसवाए अहिगरण खमात्रण विहाणं पर्युषणा में कलह की क्षमायाचना करने का विधान२१२. वासावासं पज्जोसधियार्ण नो कप्पा निग्गंधाण या निर्गीण २१२. वर्षावास रहे हुए निर्ग्रन्थ-निर्गन्थियों को पर्युषणा (संवया परं पउजोसवणाओ अहिगरणं वइत्तए । त्सरी) के बाद पूर्व वर्ष में हुए कलह को पुनः कहना नहीं कल्पता है। जो गं निग्गंधी या, निगंथो वा परं पज्जोसवणाओ जो निम्रन्य या निर्मन्यी पर्यषणा (संवत्सरी) के बाद पूर्व अहिगरणं बयइ-से णं "मकप्पे गं अज्जो बयसी ति" वर्ष में हुए अधिकरण को कहता है तो उसे कहा जाये कि "हे बत्तवे सिया। आर्य ! पूर्व वर्ष में हुए अधिकरण को कहना तुम्हें नहीं कल्पता है।" जो पं निग्गंधी वा, निगंथी था परं पज्जोसवणाए अहि इतना कहने पर भी जो निम्रन्थ-निर्ग्रन्थी पूर्व वर्ष में हुए गरण वयइ-से णं निहियरवे सिया। ___अधिकरण को कहता है उसे संघ से निकाल देना चाहिए। ---दसा.द. ८. सु.७१ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्र २१२-२१५ मुश्माष्टक की प्रतिलेखना का विधान संयमी जीवन [७७ wwwwwwwwwwwwwwwwwwwww.rrmwarmummraamwomearnwrrrrwwwrrammarw..rrrrrrrrr वासावासं पज्जोसवियाण इह खलु निग्गंयाण या, निमगंथीण वर्षा-दास रहे हुए निर्गन्थ-निर्गन्धियों में जिस दिन कर्कश वा अज्जेव कपडे-कडए बुम्गहे समुप्पतिजा कटु वचनों से क्लेश हुआ हो, खमियम् खमावियवं, तो उन्हें उसी दिन मायाचना करनी चाहिए और क्षमा याचना करने वाले को क्षमा कर देना चाहिये । भरल एवं शुद्ध मन से बारम्बार कुशल क्षेम पूछना चाहिये । उपसमियध्वं उसमावियावं, ___ स्वयं को उपशान्त होना चाहिए और प्रतिपक्षी को भी सुमह संपुच्छणा बहलेणं होयध्वं । उपशान्त करना चाहिये ।। जो उनसमह तस्स अस्थि आराहणा, जो उपशान्त होता है उसकी ही धर्माराधना होती है। जो नो जवसमइ तस्स नस्य आराहणा। जो उपशान्त नहीं होता है उसकी धर्माराधना नहीं होती है। तम्हा अप्पणा चेव उचसमियहवं । पसलिए स्वयं को तो उपशान्त बना ही लेना चाहिये । प०-से किमाह भंते ! प्र०-हे भगवन् ! ऐसा कहने का क्या कारण है? उ.-"उवसमसारं र सामणं ।"-दसा. द. ८, सु. ७२ उ-उपशान्त होना ही संयम का सार है। अट्ठसुहम पडिलेहण विहाणं सूक्ष्माष्टक को प्रतिलेखना का विधान२१३. वासापास पन्जोसवियाण इह खलु निग्गंधाण या, निग्गयीण २१३. वर्षावास रहे हुए निर्मन्थ-निग्रन्थियों को ये आठ सुक्ष्म वा, इमाई अट्ट सुहमाई अभिपखणं अभिस्खणं जाणियथ्याई बार-बार जानने योग्य, देखने योग्य और प्रतिलेपन करने योग्य पासियवाई पडिलेहियव्वाई भवात, त जहा -- है, यथा(१) पाणमुद्रम, (२) पणगसुहम, (३) बोअसुहम, (१) प्राणी सुक्ष्म, (२) पनवा सूक्ष्म, (३) बीज सूक्ष्म, (४) हरियसुहम (५) पुष्फमुहम, (६) अंडसुहम, (४) हरित सूक्ष्म, (५) पुष्प सूक्ष्म, (६) अण्ट सूक्ष्म, (७) लेणसुहम, (८) सिणेहसुहमं । (७) लयन सूक्ष्म, और (८) रनेह सुक्ष्म । -दसा. द. ८, सु. ५० अकाले पज्जोसवणा करणस्स काले पज्जोसवणा अकाल में पर्युषण करने का तथा काल में पर्युषण करने अकरणस्स पायच्छिस सुताई के प्रायश्चित्त सूत्र२१४. जे भिक्खू अपज्जोसवणाए पज्जोसवेद पज्जोस-तं वा २१४. जो भिक्ष पर पण के दिन में अन्य दिन में पयुषण करता साइज्जा । हैं, करवाता है, या करने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्ख परजोसवणाए ग पज्जोसवेह ण पन्नोसर्वतं वा जो भिक्षा पय पण (संवत्सरी) के दिन पथुपण नहीं करता साइजद। है, नहीं करवाता है, या नहीं करने वाले का अनुमोदन करता है। जे मिक्लू अगाषियं या गारस्थियं वा पज्जोसबेह, जो भिक्ष अभ्यतीरिक या गृहस्थ के साथ पर्युषणा कल्प परजोसवेत या साइज वाचन करता है, करवाता है या करने वाले का अनुमोदन करता है। सं सेवमाणे आवमइ चाजम्मातियं परिहारदाणं अणुग्धाइयं। उसे पातुर्माशिक अनुनातिक परिहा रस्थान (प्रायश्चित्त) -नि. उ. १०, सु. ४२, ४३, ४६ आता है। सबिच्छरिय पविरकप्पस्स आराहणा फल सांवत्सरिक स्थविर कल्प को आराधना का फल२१५. इसचेइयं संवन्छरियं मेरकल्प अहासुतं अहाकप्पं महामग्गं २१५. इस गांवत्मरिक स्थविरकल्स का सूत्र, कल्प और मार्ग के सम्म कारण कासित्ता पालित्ता सोधित्ता सीरिसा किट्टिता अनुसार सम्यकतया काया से स्पर्श कर, पालन कर, अतिचारों आराहित्ता आणाए-अणुपालित्ता का शोधन कर, जीवन-पर्यन्त आचरण कर, अन्य को करने का उपदेश देकर भगवान की आज्ञा के अनुसार आराधना कर और अनुपालन कर१ सूक्ष्माष्टक का स्वरूप तथा प्रकार प्रथम महावत में लिये हैं परन्तु जानने, देखने और प्रतिलेखा रूप विशिष्ट समाबारी युक्त होने से यह एक सूत्र यहाँ लिया है। Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८) चरणानुयोग-२ चार प्रकार के आवश्यक पूध २१५-२१६ अस्धेगव्या समणा निग्गंथा तेणेव मवरगहणं सिमंति युजति मुच्चति परिनिवाइति सन्वयुक्खागमत करति । अत्येगइया दुष्टयेणं भवामहणेणं-जाव-सम्वदुक्खाणमत करंति। कितने ही श्रमण निन्य तो उसी भव से सिद्ध होते हैं, बुद्ध होते हैं, मुक्त होते हैं, निर्वाण को प्राप्त होते हैं और सर्व दुखों का अन्त करते हैं। कितने ही दो भन ग्रहण करके यावत् - सवं दुखों का अन्त करते हैं। कितने ही तीन भव ग्रहण करके–पावत्-सर्व दु:खों का अन्त करते हैं । किन्तु उत्कृष्ट सात आठ भव ग्रहण का तो कोई अतिक्रमण नहीं करते हैं। अत्य ण तच्चेणं भवग्रहणेणं-जाब-सअनुस्खाणमंतं करंति । सत्तट्ट भवग्गहणाई पुण नाइक्कमति । -दसा. द. ८, मु. ७६ प्रतिक्रमण-४ आवश्यक स्वरूप-१ चउबिहे आवस्सए गार कारोबालश्यक२१६.५०-से कि तं आवस्सयं? २१६. प्र०-आवश्यक कितने प्रकार के कहे गए हैं। 10--आवस्सयं चउम्विहं पण्णतं, तं जहा उ०-आवश्यक चार प्रकार के कहे गए हैं-यथा(१) नामावस्सयं, (२) ठवणावस्सयं, (१) नाम आवश्यक, (२) स्थापना आवश्यक, (३) दवावस्सयं, (४) भावावस्सयं । (३) द्रव्य आवश्यक, (४) भाव आवश्यक । पा-से कितनामावस्सयं? प्र०-नाम आवश्यक क्या है? उ.--नामावस्सयं जस्स पं जीवस्स था, अजीवस्स बा, उ.-नाम आवश्यक-जिस जीव का या अजीव का, जीवाण बा, अजोवाण वा, तबुभयस्स वा, तवुभयाण जीवों का या अजीवों का जीवाजीव का या जीवाजीवों का बा 'आवस्सए' सिनामं कोरए । से तं नामावस्मयं। "आवश्यक" नाम किया गया है। वह नाम आवश्यक है। प-से कि तं ठवणावस्मयं ? -स्थापना आवश्यक क्या है? उ.-रावणावस्सयं जगणं कट्टकम्मे वा, चितकम्मे वा, उ.-स्थापना आवश्यक-किसी काष्ठ की पुतली में, पोत्यकम्मे वा, लेप्पकम्मे था, गंधिमे वा, बेडिमे वा, चित्र में, पुस्तक में, मिट्टी आदि के लेप से बनी हुई, मुंथी हुई, पूरिमे वा, संघाइमें वा, अक्खे वा, वराइए या, एमो वस्त्रादि लपेट कर बनाई हुई, पूरित की हुई, संग्रहित को हुई या, अणेगा चा, सम्मावठषणाए वा, असम्भावठवणाए आकृति में, अक्ष में, कौड़ी में, एक या अनेक पदार्थ की सदभाव वा 'आवस्सए प्ति ठेवणा ठविज्जति । रोतं ठवणा- या असद्भाव स्थापना से "आवश्यक" इस नाम की स्थापना की वस्सयं। गई हो-वह स्थापना आवश्यक है। प.-नाम-उवणाणं को पहविसेसो ? प्र-नाम और स्थापना में क्या अन्तर है? ज-नाम आवकहियं, ठवणा इत्तरिया वा होना, उ.- नाम यावज्जीवन के लिए होता है और स्थापना आवकहिया वा। अल्पकालिक तथा दीर्घकालिक भी होती है। प०-से कि तं दवावस्मयं । प्र-द्रव्य आवश्यक कितने प्रकार के कहे गये हैं ? उ-वव्यावस्सयं दुषिह पण्जतं, तं जहा उ०-द्रव्य आवश्यक दो प्रकार के कहे गए हैं-यथा(१) आगमतो य. (१) आगम से दब्यावश्यक और, (२) नाआगमतो य1 (२) नोआगम से द्रध्यावश्यक । Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुत्र २१६ चार प्रकार के आवश्यक संयमी जीवन [७e १०-से कि आगमतो बचावस्सय? पा-आगम से द्रव्यावश्यक क्या है? उ.-आगमतो दवावस्सयं-जस्सणं "आवस्सए" ति पर्व उ०-आगम से टल्यावश्यक- 'आवश्यक' यह पद जिसके सिविणस, ठितं, जितं. मितं, परिजितं, णामसमं, सीखा हुआ है, धारण किया हुआ है. गाना हुआ है, पूर्णाक्षर है. घोससम, अहोणपखरं, अपच्चक्खरं, अभ्याइसक्खर, सम्यक् प्रकार से जाना हुआ है, स्वनाम समान सदा याद है, शुद्ध अक्वालियं, अमिलियं, अवच्चामेलियं, परिपुण्ण, उच्चारण किया हुला है, न हीनाक्षर है, न अधिकाक्षर मुक्त है, परिपुष्णघोसं, कंठोढविप्पमुक्कं गुरुवायणोवगयं । सभी अक्षर क्रमबद्ध है, अस्खलित है, अक्षर मिले हुए नहीं है, अपुनरुक्त है, प्रतिपूर्ण है, प्रतिपूर्ण स्वर से घोषित है, कंठ और ओ से सुप्रयुक्त है, गुरु द्वारा दी गई वाचना से युक्त है। से गं तत्थ वागणाए, पुरछणाए. परिपट्टणाए, धम्म- जो कि वाचना से, पृच्छाओं से, पुनरावृत्ति से और धर्म कहाए, गो अणुप्पेहाए । कथा से युक्त होता है, किन्तु अनुप्रेशा से नहीं होता है। १० : कहा? प्र.---इसका क्या कारण है ? - अणुवओगो दव्यमिति कट्ट। उ०-उपयोग रहित होना ही द्रव्य आवश्यक होने का कारण है इसलिये अनुप्रेक्षा का निषेध किया गया है। (१) णेगमस्स-एगो अणुवउत्तो आगमओ एग (१) नेगमनय के अनुसार -उपयोग रहित एक व्यक्ति वम्यावस्सर्य, वोणि अणुवउत्ता आगमजो दोणि आगम से एक न्यावश्यक है, उपयोग रहित दो व्यक्ति आगम रव्यावस्सयाई, तिणि अणुवजत्ता आगमओ लिग्णि से दो द्रव्यावश्यक है, तीन उपयोग रहित व्यक्ति आगम से तीन सम्यावस्सपाई एवं जावइया अणुवउत्ता तावयाई ताई द्रव्यारण्यक है। इस प्रकार जितने उपयोग रहित व्यक्ति हों उतने गंगमस्स आगमओ वव्यावस्सयाई । ही दे नैगमनयानुसार आगम से द्रव्यावश्यक हैं। (२) एवमेव वबहारस्स वि । (२) इसी प्रकार व्यवहार नप के अनुसार भी द्रव्यावश्यक होते हैं। (३) संगहस्स-एगो वा, अगेगा वा, अणुवउत्तो वा, (३) संग्रहनय के अनुसार - एक हो या अनेक, एक व्यक्ति अणुवउत्ताबा, आगमओ दध्वावस्मयं वा. दयावस्स- उपयोग रहित हो या अनेक व्यक्ति उपयोग रहित हों, आगम से याणि वा से एगे दवावस्सए। एक द्रव्यावश्यक हो या अनेक द्रव्यावश्यक हों, वे संग्रहनयानुसार एक ध्यावश्यक है। (४) उज्जुसुयस्स–एगो अणवउत्तो आगमओ एग (४) ऋजुसूत्रनय के अनुसार-एक व्यक्ति जो उपयोग दब्यावस्सयं, पुहत्त नेनछ । रहित हो रही एक अत्यावश्यक है। ऋजसूत्रनय भिन्न-भित्र व्यक्तियों की विवक्षा नहीं करता। (५) तिण्हं सदनयाण-जागए अणुवउसे अवस्यू। (५-६-७)-शब्द आदि तीन नयों के अनुसा हो और उपयोग रहित भी हो ऐसा नहीं हो सकता है। प.-कम्हा ? प्र. - इसका क्या कारण है? ज० बा जाणए अणुवउसे न भवा, जन अणुक्जत्ते जाणए उ-जो ज्ञाता हो वह (इन नयों की अपेक्षा) उपयोग न भया, सम्हा गपि आगमको दवावस्सयं । रहित नहीं होता है। जो उपयोग रहित हो वह ज्ञाता नहीं कहलाता है, अतः वह आगम से द्रव्यावश्यक नहीं है । से तं आगमओ दब्बावस्सयं । यह आगम से द्रव्यावश्यक हुआ। ५०-से कितं नोमागमतो पवावस्सय? प्र०-नोआगम से द्रव्यावश्यक क्या है ? --नोबागमतो दवावस्सयं-तिविह पण्णत्तं तं जहा- ३०-नोआगम से व्यावश्यक तीन प्रकार का कहा गया है। यथा(१) बागगसरीर दवावस्मय, (१) ज्ञायकशरीर द्रव्यावश्यक, (२) भवियसरीर वायस्सर्ष, (२) भव्य शरीर द्वब्यावश्यक, • Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८०] धरणानुयोग-२ चार प्रकार के आवश्यक सूत्र २१६ (३) जाणगसरीर भवियसरीर वररित दवावस्सथ । (३) जायक्रोर मध्यवर व्यतिरिक्त द्रब्यावश्यक । . प.-से कि त जाणगसरीर दवाबस्सय ? प्र०-ज्ञायकशरीर द्रव्य आवश्यक क्या है ? उ०–जापगमरीर दवावस्सयं-"आयस्सए" ति पदत्था- उ.-जायकशरीर ध्यावश्यक-'आवश्यक' इस पद के धिकार जाणगस्स जं सरोरयं ववमय चुत चावित अर्थ और अधिकार को जानने वाले के जीव रहित शरीर को नत्त देई, जीव विष्पजद, सेम्जागयं वा, संथारगयं शय्या पर. संस्तारक पर पड़ा देखकर या सिद्ध शिला पर देखवा, सिद्धसिलाललगयं वा पासित्ता णं कोइ भणेज्जा। कर कोई कहे कि-- "अहो 4 इमेणं सरीरसमुस्सएप जिगविढेणं "अहो इस शरीर से सर्वज्ञ प्ररूपित भावानुसार 'आवश्यक' भावेण "आवस्तए" ति पयं आधधियं, पणावियं, यह पद कहा, प्रापित किया. उसका अध्ययन कराया, दृष्टान्त पवियं, दंसिय, निसियं, उवदेसियं । द्वारा समझाया और उपदेश किया है।। प०-जहा को दिटुन्तो ? प्र०-इस विषय में दृष्टान्त क्या है ? उ.- अयं महकमे आसी अयं घयभे आसी । उ०... यह मधु का कुंभ या, यह घृत का कुंभ था, ये दृष्टान्त समझना । से तं जाणगसरीर वव्याबस्सयं । यह जायफशरीर द्रश्यावश्यक हुआ । प०-से कि तं वियसरीर दवावस्मयं ? म०--भव्य शरीर द्रव्यावश्यक क्या है? उ०-भनियमावर पप्यानररावं-- जे जीवे जोणिजम्मण- उ.-भव्यशरीर द्रव्यावश्यक जो जीव योनि से जन्म णिक्वते इमेणं चैव मरोरसमुस्साणं आदसएणं लेकर क्रमश: बकने वान शरीर को प्राप्त कर जिनकरित भावाजिणोदिठेणं भावेणं "आवस्सए" ति पयं रोयकाले नुसार मा बस्यक इस पद को भनिष्य में सीखेगा किन्तु वर्तमान में सिक्खिस्सइ, न ताव सिक्लइ। सीखता नहीं है। प०- जहा को दिद्वन्तो ? प्र० -. इस विषय में क्या दृष्टान्त है ? उ. - अयं महुईभे गविस्तइ. अगं प्रयकुंभे भविस्राई । उ.. यह मधु का कुंभ होगा. यह घृत का कंभ होगा ये से तं भवियसरीर दवापरायं । दृष्टान्त समदाना । यह भव्यशरीर व्यावश्यक हुआ। प० - से कि तं जाणगारीर भनियसरीर दरिते दवा- H-जण्यकशरीर-भव्यशरीर न्यतिरिक्त द्रव्यावश्यक वस्सए ? क्या है ? 30 - जाणगसरीर-भषियसरीर वहरिते दथ्यावस्मए ज्ञायकशरीर भव्यगरीर व्यतिरिक्त द्रव्यावश्यक तीन तिविधे पणत्ते, तं जहा प्रकार का वाहा गया है, यथा(१) लोइए, (१) लौकिक, (२) कुप्पावपणिए, (२) कुप्रावनिक, (३) लोगुत्तरिए। (३) लोकोत्तरिक । १०-से कि तं लोइयं दध्यावस्सयं ? प्र०-लौकिक द्रव्यावश्यक क्या है ? उ० लोऽयं दवा यस्तयं इसे राईसर-तलवर-मानिय उ०-लौकिक भ्यावश्यक-जो ये राज्येश्वर, नगर रक्षक, कोडबिय-इस्स-लेटि-सेणावइ-सत्यवाहप्पमितिओ-कल्लं सीमा रक्षक, ग्राम रक्षक, धनी, सेठ, सेनापति, सार्थवाह आदि पाउप्पभायाए रयणोए सुधिमलाए फुल्लुप्पल-कमल प्रातःकालीन प्रभायुक्त निर्मल रजनी में कोमल उत्पल कमल कोमलुम्मिल्लियम्मि अहापंडरे पभाए रत्तासोगप्पगास- पुष्प सिले हुए पाण्डुवर्ण प्रभात में रक्त, अशोक, किंशुक, सुककिसुय-मुयमुह-गुंजकुरागसरिसे कमलागर-नलिणि- मुख तथा गुजार्ध मदृश, रक्त कमस समूह एवं नलिनी को संडबोहए, द्वियम्मि सरे सहस्वरस्सिम्मि विषयरे विकसित करने वाले, लेज से जाज्वल्यमान, सहस किरण तेया जलने मुहबोयण-दंतपक्वालण-तेल्त-कणिह दिनकर (सूर्य) के उदय होने पर मुंह धोकर दन्त प्रधानन कर सिद्धत्थय-हरियालिय-उद्दाग-धूव-पुष्फ-मल्ल-गंध-तंबोल आरीसे को सामने रखकर शिर में तेल मल कर, कंधे से केश Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र २१६ चार प्रकार के आवश्यक संयमो जीवन [१ वस्थमाइयाई दवावस्सयाई करेत्ता ततो पच्छा राय- संवार कर, धूप, पुष्प, माला, सुगन्ध, पान वस्त्र आदि द्रव्य कुसंवा, देवकुलं वा, आराम वा, उज्जाणं वा, समं आवश्यक करके राजकुल में, देवकुल में, आराम, उद्यान, सभा वा, पर्व या गच्छति । में तं लोइयं दब्वावरसयं । या क्रीडास्थल पर जाते हैं । यह लौकिक व्यावश्यक है। १०-से कि तं कुम्पावणिय दवावस्मयं ? H०-कुप्रावनिक द्रव्यावश्यक क्या है ? उ०-कुष्पावयोगय दवावस्सयं--जे इमे चरण-चौरिग-धम्म- उ.-कुप्रावनिक व्यावश्यक जो ये पिदण्डी, फटे खंजिय - भिन्छुलग-पंचरंग-गोत्तम-गोन्बतिय-गिहिधम्म पुरान वस्त्र पहनने वाले, भिक्षुक, चर्म घारी, भिकारी, वैनयिक धम्मचितग-अविवाविरुद्ध-बुद्ध-सावगप्पधितयो पास- भिक्षु गौतम गोत्रीय गोत्रतिक, अनिरुद्ध धर्म चिंतक अविरुद्ध वृद्ध डत्या कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए-जान-तेयसा जलते श्रावक ब्राह्मण वतधारी-प्रातःकालीन प्रभायुक्त प्रभात में-यावत्इंवस्स वा, खंबस्स वा, रहस्स बा, सिवस्स या, बेस- सूर्योदय होने पर इन्द्र, स्कन्द, रुद्र, शिव, वैश्रमण, देव, नाग, यक्ष, मणस्स बा, देवस्स बा, नामस्स वा, जस्लम्स बा, भूत, मुबंद, पार्वती या दुर्गादेवी के चन्दन का लेपन, मार्जन, मूयस्स वा, मुनस्ल था, अजाए वा, को? किरियाए सिंचन, धूप, पुष्प, गन्ध, माल्य आदि ध्यावश्यक करते हैं। या उबलेवण-सम्मज्जणावारिसण-धून-पुष्फ गंघभल्लाइयाई दवावस्सयाई करेंति । से तं कुणावयणि दव्यावस्मयं । यह कुप्रावनिक व्यावश्यक हुआ । 40 से कि तं लोगुत्तरियं यम्वावस्सयं? प्र०-लोकोत्तरिक द्रच्यावश्यक क्या है? जल-लोगुत्तरियं दावस्स-जे हमे समणगुणमुक्कजोगो 3.- लोकोत्तरिक तव्यावश्यक- जो ये भ्रमण के गुणों से छक्कायनिरणुकंपा हया दव उद्दामा, गया इष रहिरा प्रवृत्ति वाले, छः काय पर अनुकम्पा न करने वाले, अश्य निरंकुसा, घट्ठा, मट्ठा, तुप्पोट्ठा, पंडरपउपाउरणा, के गमान स्वच्छन्द, निरंकुश गज के समान, पित-म्रश्चित जियाण अणाणाए सच्छंद विहरिऊणं उमसोकालं शरीर वाले, चूत से सिग्ध ओष्ठ नाले, धूले स्वच्छ वस्त्र धारण आवस्सगस्स उषदेति । सेतं लोगुनरियं दबा- करने वाले, जिग्गाज्ञा से विपरीत स्वच्छन्द विचरण कर उभयबस्सयं । से तं जाणगसरीर भवियसरीर बारितं काल आवश्यक करते है। यह लोकोत्तरिक व्यावश्यक इमा। दबावस्मयं । सेत नोआगमओ दच्यावस्सयं । सेनं मह जायकशरीर भव्यशरीर व्यतिरित व्यावश्यक हुआ । दवावम्सयं। यह नोखागम से ब्यावश्यक हुआ। यह द्रष्यावश्यक हुआ। ५०-से कितं भावावस्सय? प्र०-भाव आवश्यक क्या है? उ.-भावावस्सयं विहं पण्णसं-तं जहा .. .-भाव आवश्यक दो प्रकार का कहा गया है, यथा - (१) आगमतो य, (२) नोयागमतो य । (१) आगम से, (२) नोआगम से । ५०-से कि त आयमातो भावावस्स? प्र.-आमम से भावावश्यक क्या है? उ.-आगमतो भावावस्मयं-जाणए उपउत्ते 1 से त आर- उ०-जो जानकार है और उपयोग युक्त है बह आगम से मतो भावावस्मयं । भावावश्यक है । यह आगम से भावावश्यक हुआ। पत-से किं तं नोआगमतो भावावस्सयं? प्र०-नोआगम से भावावश्यक क्या है? उ.-नोआगमतो भावावस्सयं तिविहं पण्णते, तं जहा- 3०-नोआगम से भावावश्यक तीन प्रकार का है, यथा(१) लोइय, (२) कुप्पावणियं, (१) लौकिक, (२) कुप्रावनिक, (३) लोगुत्तरियं । (३) लोकोत्तरिक । प०-से कितं लोइयं भावावस्सय? प्र० - लौकिक भावावश्यक क्या है? उ.-लोइयं भावावस्सयं-पुतण्हे भारहं, अबरण्हे रामा- उ०-लोकिक भावावश्यक पूर्वाण्ट (प्रातःकाल से मध्यांर यणं से तं लोइयं भावानस्सयं । तक) में महाभारत का पारायण, अपराह (मध्यान्ह के बाद सार्यकाल तक) में रामायण का पारायण। यह लौकिक भाषा वश्यक हुआ। १०-से कि त कुप्पावणियं भावावस्सय? प्र-कुशावनिक भारावश्यक क्या है? Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२] परणानुयोग-२ छह प्रकार के आवश्यक पून २१६-२१७ ज-कुप्पावणियं भावावस्सव-जे इमे चरग चीरिग-जाव- उ०-कुप्रावधनिक भाषावश्यक-जो ये त्रिदण्डी, फटे पासण्डत्या इज्जंजलि-होम-जप-जंबुरूपक-नमोक्कार- पुराने वस्त्र पहनने वाले - पावत् - व्रती यज्ञ, होम, गम, वृषभ माझ्याई माधावस्सयाई कति । से तं कुप्पापयणियं की तरह आवाज करना, नमस्कार करना आदि भावावश्यक भावावस्स। करते हैं। यह कुप्रावनिक मावावश्यक है। पर-से कि तं लोगुत्तरिय भावावस्सयं? प्र०-- लोकोत्तरिक भावावश्यक क्या है ? उ. . लोगुत्तरियं भावावस्सयं-जंण इमं समणे वा, समपी 3 लोकोतरिक मावावश्यक - जो ये श्रमण, श्रमणी, वा, सावए था, साविया वा तच्चित्ते, तम्मणे, सल्लेसे, श्रादक, श्राविका आवश्यक में चित्त व मन लगाकर तल्लीन हो सदासिए, तत्तिम्वजनबसाणे, तबट्ठोवउत्ते तदपि- उत्साह युक्त आवश्यक के अर्थ में उपयोग मुक्त, पूर्णत: एकाग्र यकरण तम्मावणामाविते अण्णस्थ कत्यह मणं अक- भाव से अन्य किसी भी चिन्तन में मन को न लगाते हुए उभयरेमाणे उमओ कालं आवस्तर्य करेंति । से तं लोगुत्त- काल आवश्यक करते हैं। रियं भावाचल्सयं । से तं नोआगमतो भावावस्मयं । यह लोकोत्तरिक भावावश्यक है। यह नोआगम से मावासे तं भावावस्मयं । वश्यक है । यह भावावश्यक है। सस्स णं इमे एगट्रिया पाणाघोसा पाणावंजणा णाम- उस आवश्यक के वे एक अर्थ वाले नाना ध्वनि वाले, धेम्जा भवंति । तं जहा -- गाहाओ-- नाना व्यंजन वाले नाम हैं-यथा-गाथार्थ - (१) आवस्सा, (२) अवस्सकरणिज (१) आवश्यक, (२) अनश्यकरणीय, (३) युवगिगाहो, (४) विसोही य। (३) ध्र व-निग्रह, (४) विशुद्धी, (५) अज्मयण छक्कवग्गो, (६) नाओ, (५) छह अध्ययनों का वर्ग, (६) ज्ञात', (७) आराहणा, (८) मग्गो ॥ (७) आराधना और (८) मार्ग। समणेण सावरण य, अयस्सकायब्वयं हकति ज़म्हा । यह श्रमण और श्रावक को दिन और रात के अन्त में अंतो अहो निसिस्स , तम्हा आवस्मयं चाम।। अवश्य करणीय होता है। इसलिए इसका 'आवश्यक' नाम है । से तं आवस्सयं ॥ मह आवश्यक है। अण. सु. ६-२६ बिहे आवस्सए.. - छह प्रकार के आवश्यक...२१७. छविहे आवस्सए पण्णते, तं जहा -- २१७. छह प्रकार के आवश्यक कहे गये हैं, यया(१) सामाइयं, (२) घउबीसस्थओ, (३) वणं, (१) मामायिक, (२) चतुविशतिस्तव, (३) वन्दना, (४) पडिक्कमण, (५) काउन्सगो, (६) पचखाणं । (४) प्रतिक्रमण, (५) कायोत्सर्ग, और (६) प्रत्याख्यान । -अणु. सु. ७४ आवस्सगस्स गं इमे मस्थाहिगारा मवति । तं जहा आवश्यक के अधिकारों के नाम इस प्रकार हैं(१) सावज्जजोगविरती, (२) उक्कित्तण, (१) सावद्ययोगविरति, (२) उत्कीर्तन (३) गुणवयो य परिवती । (३) गुणवत्प्रतिपत्ति, (v) बलियस्स मिवणा, (५) यतिगिच्छ, (४) स्खलितनिन्दा, (५) चिकित्सा और (६) गुणधारणा, चैत्र ।। (६) गुणधारणा। -अणु. सु. ७३ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र २१८ २२० पाँच प्रकार के प्रतिक्रमण संयमी जीवन [३ mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm प्रतिक्रमण के प्रकार-२ पंचविहे पक्किमणे पाँच प्रकार के प्रतिक्रमण२१८: पंचविहे पडिक्कमणे पणत्ते, त जहा -- २१८. प्रतिक्रमण पाँच प्रकार का कहा गया है। यथा(१) आसबदारपडिपकमणे. (१) प्राणातिपात आदि आथवों से आत्मा को निवृत्त करना। (२) मिच्छत्तपडिक्कमणे, (२) मिथ्यात्व का परित्याग करना। (३) कसायपडिक्कमणे, (३) कषायों से आत्मा को निवृत्त करना । (४) जोगपडिक्कमणे, (४) मन-वचन-वाया को अशुभ प्रवृत्तियों से निवृत्त करना । (५) भावपडिक्कमणे । -ठाणं. अ.५, उ. ३, सु. ४६६ (५) राग-द्वेष के भावों का परित्याग करना । छबिहे पडिक्कमणे छह प्रकार के प्रतिक्रमण२१६. छविहे परिपकमणे पण्णत्ते, सं जहा २१६. प्रतिक्रमण छह प्रकार का होता है(१) उच्चार-पजिक्कमणे, (१) उच्चार प्रतिक्रमण-मल त्याग करने के बाद वापस अररिकी सूत्रप्रतिक्रमण करना । (२) पासवण-पडिक्कमणे, (२) प्रस्रवण प्रतिक्रमण-मूत्र-त्याग करने के बाद वापस आकर ईपिथिकी सूत्र के द्वारा प्रतिक्रमण करना । (३) इत्तरिए पडिक्कमणे, (३) स्वरिक प्रतिक्रमण-देवसिक, रात्रिक आदि प्रतिक्रमण करना। (४) आवकहिय-परिषकमगे, (४) यावत्वाधिक प्रतिक्रमण-हिंसा आदि से सर्वथा निवृत्त होना अथवा आजीवन अनशन करना । (५) चिमिच्छा-परिवकमणे, (५) यत्किचित् मिथ्यादुष्कृत प्रतिक्रमण - साधारण अयतना होने पर उसकी विशुद्धि के लिए "मिच्छामि दुक्कडं" इस भाषा में खेद प्रकट करना । (६) सोमणतिय-पडिक्कमणे, -ठाण. अ. ६, सु. ५३८ (६) स्वप्नान्तिक प्रतिक्रमण-गोकर उठने के पश्चात् शय्या दोष निवृत्ति सूत्र के द्वारा प्रतिक्रमण करना। अइक्कमाईणं पगारा अतिक्रमादि के प्रकार२२०. तिविहे अइक्कमे पण तं जहा २२०. अतिक्रम (प्रतिकूल आचरण का संकल्प) तीन प्रकार का कहा गया हैं यथा(१) गाणअइक्कमे, (२) वंसणअइफमे, (१) ज्ञान-अतिक्रमण, (२) दर्शन-अतिक्रमण, (३) चरित्तअइक्कमे। (३) चारित्र अतिक्रमण, तिविहे बहक्कमे पण्णते, तं जहा .. ध्यतिक्रम (प्रतिकूल आचरण का प्रयत्न) तीन प्रकार का कहा गया है यथा - (१) णाणवहमकमे, (२) दसणबइक्कमे, (१) ज्ञान-व्यतिक्रमण, (२) दर्शन-व्यतिक्रमण, (३) चरित्तबइक्कमे । (३) चारिप-व्यतिक्रमण, तिविहे अइयारे पाणसे, तं जहा अतिचार (आंशिक प्रतिकूल आचरण) तीन प्रकार का कहा गया है, अथा(१) गाणअइयारे, (२) सणअइयारे, (१) ज्ञान-अतिचार, (२) दर्शन-अतिचार, (३) चरितअइयारे । (३) चारित्र-अतिचार, Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४] चरगानुयोग -२ अतिक्रमादि की विधि सूत्र २२०-२२३ तिविहे अणायारे पण्णते, तं जहा अनाचार (पूर्ण प्रतिकुल आचरण) तीन प्रकार का कहा गया है, यथा(१) णाणणायारे, (२) सणअणायारे, (१) ज्ञान-अनाचार, (२) दर्शन-अनाचार, (३) चरितअणायारे। -ठाणं अ. ३. उ. ४, सु. १६८ (३) चारित्र-अनाचार।। अइकम्माईणं विसोही अतिक्रमादि को विशुद्धि२२१. तिहमइक्कमाणं आलोएज्जा, पडिक्कमेग्जा, णिवेज्जा, २२१. तीन प्रकार के अतिक्रमों की आलोचना कर, प्रतिक्रमण गरहेज्जा, विजट्टेउजा, विसोहेज्जा, अकरणयाए करे, निन्दा करे, गहीं करे, पाप से निवृत्त होवे, विशुद्धि करे, असमुज्जा , अहारिहं तबोकम्मं पायच्छित्तं पडिबज्जेज्जा, पुनः पैसा नहीं करने का संकल्प करे, यथोचित तप रूप प्राय तं जहा श्चित्त स्वीकार करे । यथा - (१) गाणातिक्कमस्स, (२) सणातिकमस, (१) ज्ञानातिकमण की, (२) दर्शनातिक्रमण की, 11 पारितालिकामारा। (३) चारित्रातिक्रमण की, सिहं बदमकमाण-आलोएज्जा-जाब-अहारिहं तवोकम तीन प्रकार के व्यतिकमों की आलोचना करे--यावत्पायच्छित पडिवग्जेज्जा, तं जहा यथोचित सप रूप प्रायश्चित्त स्वीकार करे । यथा(१) णाणवहरकमस्स, (२) सणवइक्कमस्ल, (१) ज्ञान-व्यतिक्रमण बी, (२) दर्शन-व्यतिक्रमण की, (३) चरित्तषइक्कमस्स । (३) पारित्र-व्यतिक्रमण की। तिहमतिचाराणं-आलोएज्जा-जाव-अहारिहं तबोफम्म तीन प्रकार के अतिचारों की आलोचना करे—यावत्पायच्छित्तं परिवज्मेम्जा, तं जहा यथोचित सपरूप प्रायश्चित्त स्वीकार करें । यथा(१) णाणातिचारस, (२) सणातिधारस्त, (१) ज्ञानातिचार की, (२) दर्शनातिचार को, (३) चरितातिचारस्स। (३) चारिमातिचार की। तिहमणायाराण-आलोएज्जा-जाव-अहारिहं तवोकम्म तीन प्रकार के अनाचारों की आलोचना करे-यावतपायच्छित पतिवज्जेज्जा, तं जहा यथोचित तपरूप प्रायश्चित्त स्वीकार करे । यथा(१) णाणअगायारस्त, (२) दंसग-अणायारस्स, (१) ज्ञाना-अनाचार की, (२) दर्शन-अनाचार की, (३) परित्त अणापारस्स !- ठाणं. अ. ३, उ. ४. सु. १६८ (३) चारित्र-अनानार की। श्रमण प्रतिक्रमण-३ काउस्सग-करण पइण्णा कायोत्सर्ग करने की प्रतिज्ञा२२२. आवस्सही इच्छाकारेणं संदिसह भगवन् ! २२२. हे भगवन् ! मुझे आज्ञा प्रदान करें, देवसी परिक्कमपं ठाएमि. मैं दिवस सम्बन्धी प्रतिक्रमण (आवश्यक) करने की इच्छा रखता हूँ और वेवसी पाण-सम-चरित्त-तक-अइयार चितणस्थं करेमि ज्ञान, दर्शन, चारित्र एवं तप के दिवस सम्बन्धी अतिचारों काउसग्ग। -सुत्तागमे. आव. अ. १, स. १ का चिन्तन करने के लिए कायोत्सर्ग करना चाहता हूँ। सामाइय सुतं सामायिक सूत्र-- २२३. करेमि मंते ! सामाइयं सव्वं सावज जोगं पञ्चपयामि, २२३. भन्ते ! मैं सामायिक ग्रहण करता हूँ। सर्व सावद्य (पाप कम वाल) व्यापारों का त्याग करता हूँ। Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२-२२५ जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं, वायाए कारण न करेमि न फारमेमि, करंतं पि अन्नं न समणुजाणामि, 1 तरस भंते! पश्विकमानि नियामि परिहामि, अप्पानं वोसिरामि । - आव. अ. १, सु. २ गुरु बंदणमुक्त - २२४. इच्छामि माम बंदि जाए जिसीहियाए, अहम, निमीहि, अहो काय काय संकासं, स्वमगिज्जो मे फिलामो, बंजन सूत्र अतितार्थ बहुसुमेणं मे दिवसो वडतो ? जत्ता मे ? जवणिज्जं वं मे ? खामि बामणी देवकर्म गुरुवंदणस्स वालसावलाई २२५. बुबालसा कितिकम्मे पण्णसे, तं जहा आयरिसाए पकिमानि समालमा देवसियाए आसामचाए तित्तीसबराए fefa fमछाए मणक्कडाए, वयरकडाए कायक्कडाए, कोहार मानाए. माधाए, लोमाए, सव्वकालिए, सव्य मोयारा, सधन्माषक मणाए आवाज मे अध्यारो को तरस समासमणो 1 परिमामि विदामि गरिहामि अध्याणं वोसिरामि । - आव. अ. २, सु. १० संयमी जीवन [ -५ जीवनपर्यन्त तीन करण तीन योग से अर्थात् मन, वचन, और काया से (सर्व सावध पाप कर्म ) न मैं स्वयं करूंगा, न दूसरों से कराऊंगा और न पाप कर्म करने वाले का अनुमोदन ही करूँगा। भन्ते ! मैं पूर्वकृत पापों से निवृत्त होता हूँ, आत्मसाक्षी से उसकी निन्दा करता हूँ, आपकी साक्षी से में उसकी गर्दा करता हूँ और पाप कर्म करने वाली आत्मा की अतीत अवस्था का पूर्ण रूप से त्याग करता हूं । गुरु वंदन सूत्र - २२४. हे क्षमाशील श्रमण ! मैं पाप प्रवृत्ति से निवृत्त हुए अपने शरीर से आपको यथाशक्ति बन्दना करना चाहता हूँ । अतएव मुझे आपके चारों और के अवग्रह ( तीन हाथ जितने क्षेत्र में प्रवेश करने की आशा दीजिए। नै अशुभ क्रियाओं को त्यागकर अपने मस्तक तथा हाथ से आपके चरणों का सम्यग् रूप से स्पर्श करता हूँ । चरण स्पर्श करते समय आपको जो कुछ भी पीड़ा हुई हो वह क्षन्तव्य है अतः क्षमा करें । क्या ग्लानिरहित आपका आज का दिन बहुत आनन्द से व्यतीत हुआ, आपकी तप एवं संयम रूप यात्रा निर्बाध है ? और आपका शरीर मन तथा इन्द्रियों की बाधा से रहित हैं ? हे क्षमा श्रमण गुरुदेव ! मेरे से दिन में कोई अपराध हुआ हो तो मैं क्षमा चाहता हूँ । भगवन् ! आवश्यक क्रिया करते समय मेरे से कोई विपरीत आचरण हुआ हो तो मैं उसका प्रतिक्रमण करता हूँ । जं आप क्षमाश्रमणों को दिवस सम्बन्धी तंतीस आशातनाओं में से किसी एक प्रकार की आशातना मिथ्याभाव से, मानसिक से, दुधन से शारीरिक कुओं से से, मान से, माया से लोभ से सर्वकाल से सम्बन्धित सब प्रकार के मियाभावों से सब प्रकार के धर्मों को अतिक्रमण करने वाली आशातदा के द्वारा मैंने जो कोई भी अतिचार किया हो तो हे क्षमा श्रमण ! उसका मैं प्रतिक्रमण करता हूँ, मन से उसकी निन्दा करता हूं, आपके समक्ष उसकी गर्दा करता हूँ, और पाप कर्म करने वाली आशातना युक्त उस आत्मा का परित्याग करता हूं । गुरु वन्दन के बारह आवर्तन २२५. बारह आवर्तनयुक्त गुरु वन्दन किया जाता है, यथा Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८] वरणानुयोग-२ तेतीस प्रकार के स्थानों का प्रतिक्रमण पूत्र सूत्र २३०-२३१ णाए, दुप्पमज्जणाए, अइएकमे, वाकमे, अइयारे, अणायारे, करने से, अच्छी तरह प्रतिलेखन न करने से, प्रमार्जन न करने जो मे देवसिओ यारो को तस्स मिच्छा मि दुक्कडं। से, अच्छी तरह प्रमार्जन न करने से, जो अतिक्रम, व्यतिक्रम, -आव. अ.४, मु. १९ अतिचार या अनाचार सम्बन्धी जो भी देवसिक अतिचार लगा हो उसका दुष्कृत मेरे लिए मिथ्या हो । तेत्तीसविह ठाणाई पडिक्कमण सुतं तेतीस प्रकार के स्थानों को अतिक्रमण सूत्र२३१. पडिक्कमामि एगविहे असंजमे । २३१. एक प्रकार के असंयम से निवृत्त होता हूँपटिक्कामि दोहि अंधणेहि--- दो प्रकार के बन्धनों से लगे दोषों का प्रतिक्रमण करता हूँ-- (१) रागबंधणेणं, (२) दोसबंधणे (१) राग के बन्धन से, (२) द्वेष के बन्धन से । (१) पडिस्कमामि तिहि डेहि (१) तीन प्रकार के दण्डों से लगे दोषों का प्रतिक्रमण करता हूँ(१) मणवंडेणं, (२) अपडेण, (३) काजवंडेण । (१) मनोदण्ड से, (२। बसम-दण्ड से, (३) काय-दण्ड से। (२) परिक्कमामि तिहि गुत्तीहि-- (२) तीन प्रकार की गुप्तियों में जो भी दोष लगे हों, उनका प्रतिक्रमण करता हूँ - (१) मणगुत्तीए, (२) वयगुत्तीए, (३) कायगुत्तीए । (१) मनोगुरित में, (२) वचनगुप्ति में, (३) कायगुप्ति में । (३) परिक्कमामि तिहि सल्लेहि (३) तीन प्रकार के शल्यों से होने वाले दोषों का प्रतिक्रमण करता हूं - (१) मायासल्लेणं, (२) नियाणसल्लेणं, (१) मायाशल्य से, (२) निदान शल्य से, (३) मिच्छामणसस्लेणं । (३) मिथ्यादर्शन शल्य से । (४) पडिक्कमामि तिहिं गारवेहिं (४) तीन प्रकार के गर्व से लगने वाले दोषों का प्रतिक्रमण करता हूँ(१) इतोगारखेग, (२) रसगारवेणं, (१) ऋदि के गर्व से, (२) रस के गर्य से, (३) सायागारवेणं ।। (३) साता-सुख के गर्व से ।। (५) एडिक्कमामि तिहि विराहणाहि (५) तीन प्रकार की विराधनाओं से होने वाले दोषों का प्रतिक्रमण करता हूँ-- (१) गाणविराहणाए, (२) सणविराहणाए, (१) ज्ञान की विराधना से, (२) दर्शन की विराधना से, (३) चरित्तविराहणाए। (३) चारित्र की विराधना से । (१) परिक्कमामि चहि कसाएहि (१) चार कषाय के द्वारा होने वाले अतिचारों का प्रति क्रमण करता है(१) कोहकसाएग, (२) माणकसाएणं, (३) मायाकसाएग (१) क्रोध कषाय, (२) मान कषाय, (३) माया कषाय, (४) लोहफसाए। (४) लोभ कषाय । (२) पशिफमामि चहि सणाहि (२) चार प्रकार की संज्ञाओं के द्वारा जो भी अतिपार लगा हो उसका प्रतिक्रमण करता हूँ १ सम, सम. २, सु. १ २ (क) ठाण. अ.३,उ.१, सु. १३४ (५) - ३ (क) ठाणं अ. ३, इ. १, सु. १३४ (१) ४ (क) ठाणं. अ. ३, उ. ३, सु. १५८ ५ (क) ठाणं. अ. ३. उ. ४, रा. २१५ ६ सम, सग. ३. मु.१ ७ (क) ठाणं. अ. ४, उ. १, सु. २४६ (ख) सम, सम. ३, सु. १ (ख) सम. सम. ३. सु. १ (ख) सम. सम.., सु. १ (ख) सम. सम. ३, सु. १ (ख) सम. मम. ४, सु१ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३१ १ २ ३ ४ (१) आहारसाए (१) मे. (३) पविमामि च (२) मय सण्णाए, (४) परिमाणाए 12 विकलाहिं (३) सका (४)-- (१) अणं शाणेणं, (३) धम्मेणं आणेणं, (१) मा (1) WER (४) रामकहा। किरियाह (२) द्दणं (४) सुक्केणं शा तेतीस प्रकार के स्थानों का प्रतिक्रमण सूत्र (१) काडया (४) पारितानिया (२) मा हि कामगुणेहि (२) अहिरवा (३) बालोसियाए (५) पाणावारियाए ।* (१) सद्द ेणं. (२) हवेणं, (३) गंधेणं, (४) रसेणं. (५) फासेणं । (२) पंचमिवहि (१) पाणावायाओ बेरम (२) मुसाबायाओ वेरमणं, (३) अविण्णावाणाओ वेरमणं, (४) मेहुणाओ बेरमणं, (२) परिमाणं ।" (४) माथि हि समिि (१) इरियासमिईए (२) भासामईए (३) एसणासमिईए (४) आपागमंडल निश्वेवासमिईए. परिहाणिया (५) उपचार-पा समिए (१) पडिवकमामि छह जीवनिकाएहि सम सम ४, सु. १ (क) वर्ण. अ. ४, उ. २, सु. २८२ (क) ठाणं. अ. ४, उ. १, सु. २४७ सम. सम. ५, सु. १ ५ (क) ठाणं. अ. ५, उ. १, सु. ३६० ६ (क) ठाणं. अ. ५, उ. १, सु. ३५६ (१) पुढविकाएणं, (२) आउकाएणं (३) लेखकाएणं, (४) वाकारणं. (५) अगस्लहकारण, (६) तसा एवं ।" ७ ८ (क) ठाणं. भ. ६, सु. ४५० (क) ठाणं. म. ५, उ. २, सु. ४५७ (१) आहार संशा, (२) भय वंशा (४) परिसंज्ञा । (३) मैथून संज्ञा, (३) चार विकथाओं के द्वारा जो भी अतिचार लगा हो, उसका प्रतिक्रमण करता हूं (१) स्त्री कथा, (२) भक्त कथा, (३) देश कथा, (४) राज कथा | (४) चार ध्यानों में से दो के करने पर और दो के न करने पर जो भी अतिचार लगा हो तो उसका प्रतिक्रमण करता हूँ(१) मा ध्यान, (२) रो (४) शुक्ल ध्यान | (३) धर्म ध्यान, (१) पांच त्रियामों के द्वारा जो भी अतिचार लगा हो उसका प्रतिक्रमण करता हूँ (१) कायिकी (२) अधिकरी, (२) चिकी, (४) पारितानिकी ( ५ ) प्राणातिपात क्रिया । (२) पाँच काम गुर्जो के द्वारा जो भी अतिचारला हो उसका प्रतिक्रमण करता हूँ -- (२) रूप, संयमी जीवन (३) ना (४) रस (५) स्पर्श । (३) पाँच महाव्रतों का सम्यक् रूप से पालन न करने से जो भी अतिचार लगा हो, उसका प्रतिक्रमण करता हूँ -- (१) सर्व प्राणातिपात विरमण, (२) सर्वं मृषावाद - विरमण, (२) सर्व भादानविरमण (४) सर्व मैथुन- विरमण, (५) सर्व परिग्रह-विरमण । (४) पाँच समितियों का सम्यक् पालन न करने से जो भी अतिचार लगा हो, उसका प्रतिक्रमण करता हूँ (१) ईर्ष्या समिति, (२) भाषा समिति, (३) समिति (४) वादान-निक्षेपणमिति, (५) उच्चार-प्रस्रवण श्लेष्म जल्ल- सिंघाण पारिष्ठापनिका समिति (ख) सम. सम. ४, सु. १ (ख) सम सम ४, सु. १ (१) छह प्रकार के जीवनकायों की हिंसा करने से जो भी अतिचार लगा हो उसका प्रतिक्रमण करता हूँ(१) पृथ्वीकाय, (२) अप्काय, (३) तेजस्काम, (४) वायुकाय, (५) वनस्पतिकाय, (६) सकाय । (ख) सम सम. ५, सु. १ * (ख) सम सम ५, सु. १ [ce ब) सम, राम (ख) सम. सम ५ सु. १ t ६, सु. १ (ग) तपाचार Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०] चरणानुयोग-२ तेतीस प्रकार के स्थानों का प्रतिक्रमण सूत्र सूत्र २३१ (२) पडिक्कमामि छहिं खेसाहि तीन अधर्म लेश्याओं के करने से और तीन धर्म लेश्यामों के न करने से जो भी अतिचार लगा हो, उसका प्रतिकमण करता (१) किन्हलेसाए, (२) नीललेसाए, (३) काउलेसाए, (४) तेउलेसाए, (५) पम्हलेसाए, (६) सुक्कलेसाए।। परिकमामि सत्तहि भयाणेहि अहिं मपट्ठाणे हि' नहिं बंगचेरगुतीहि, वसबिहे समणधम्मेएपफारसहिं उवासग-परिमाहि पणासा बारसहि मिर-पडिमाहिर (१) कृष्णलेण्या, (२) नीललेश्या. (३) कपोतलेण्या, (४) तेजोलेश्या, (५) पद्मलेश्या, (६) शुक्ललेश्या। प्रतिक्रमण करता हूँ-सात भय के कारणों से आठ मद स्थानों के सेवन से, नौ ब्रह्मचर्य की गुप्तियों का सम्यक् पालन न करने से, दश विध क्षमा आदि श्रमण-धर्म की विराधना से, ग्यारह श्रावक की प्रतिमाओं की अश्रद्धा तथा विपरीत प्ररूपणा से, बारह भिक्षु प्रतिमाओं की श्रद्धा, प्ररूपणा तथा पालन अच्छी तरह से न करने से, तेरह क्रिया-स्थानों के करने से, चौदह प्रकार के जीवों की हिंसा से, पन्द्रह परमाधार्मिकों के प्रति अशुभ परिणाम करने से, सूत्रकृतांग सूत्र के प्रथम श्रुतस्कन्ध के गाथा अध्ययन सहित सोलह अध्ययनों में प्ररूपित धर्मानुसार आचरण न करने से। सत्तरह प्रकार के असंयमों के आचरण से, अट्ठारह प्रकार के अब्रह्मचर्य से, शाता सूत्र के उन्नीस अध्ययनों में प्रतिपादित भावानुसार संयम में न रहने से, वीस असमाधि स्थानों के सेवन से, तेरसहि किरियाठागेहि चउसेहि भूयगामेहि पन्नरसहि परमाहम्मिएहि,10 सोलसहि गाहासोलसएहि.11 सत्तरसविहे असंजमे, अट्टारसबिहे अबंभे,13 एगणवीसाए नायग्मयहि,१७ बीसाए बसमाहिद्वाहि.15 (ग) चतुर्थ महायत १ (क) ठाणं. अ. ६, सु, ५०४ २ (क) ठाणं. अ.७,सु. ५४६ ३ (क) ठाणं. अ. ८, सु. ६०६ ४ (क) ठाणं. अ. ६, सु ६६३ ५ (क) ठाणं. अ. १०, सु. ७१२ ६ (क) ठाणं. अ. १०, सु. ७५५ (ग) दसा. द. ६, सु. १-३० ७ (क) ठाणं अ., १०, सु. ७५५ (ग) दसा. द. ७, सु. १-३६ ८ (क) अनाचार है सम. सम. १४, सू.१ ११ सम, सम. १६, सु. १ १२ (क) सम. सम. १७, सु. १ १३ (क) सम. सम. १८, सु. १ १४ सम. सम. १६, सु. १ १५ (क) ठाणं. अ. १०, सु. ७५५ (ख) सम. सम.६; सु. १ (ग्व) सम. सम.७, सु. १ (ख) सम. सम. ८, सु.१ (ख) सम. सम. ६, सु. १ (ख) सम. सम. १०, सु. १ (ख) सम. सम. १०, सु. १ (घ) गृहस्थ धर्म (ख) सम. सम. १२. सु.१ (घ) संयमी जीवन (ख) सम. सम. १३, सु. १ १० सम. सम.१५, सु.१ (ख) संयमी जीवन (ख) चतुर्थ महानत (ख) सम. सम. २०, सु. १ (ग) अनाचार, Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र २३१-२३२ निनन्य धर्मातिचार शुद्धि मूत्र संयमी जीवन [६१ इक्क वीसाए सबलेहि इक्कीस शबल दोषों के सेवन से, मावीसाए परीसहेहि बाईस परीष महन न करने से, तेवीसाए सूपगड जमायणेहि सूत्रकृमांग मूत्र के तेईस अध्ययनों में प्ररूपित आचरण न करने में चउव्वीसाए वेवेहि चौबीस देवों की अवहेलना करने से, पणवीसाए मावणाहि. पाँच महाबतों की परचीस भावनानुसार आचरण न करने से, छब्बीसाए साकप्पक्वहाराणं उद्दसणकालेहि दशा-श्रुतस्वन्ध, बृहत्कल्प और व्यवहार-रक्त सूर त्रयी के छब्बीस उद्देशन कालों में प्रतिपादित विधि-निषेधों का आचरण न करने से, सत्तावीसाए अणगारगुणेहि सत्ताईम साधु के गुणों को पूर्णत: धारण न करने से, अट्ठावीसाए आयारपकहि.' आचार-प्रकल्प =आचारांग तथा निशीथ सूत्र के अट्ठाईस अध्ययनों में प्रतिपादित विधि-निषेधों का माचरण न करने से. एगणतोसाए पावसुपपसंगेहि, उन्तीस पाप-श्रुतों का प्रयोग करने से, तीसाए मौहणीयट्ठाणेहि, महामोहनीय कर्म के तीस स्थानों के सेवन करने से, एगतीसाए सिद्धाइगुणेहि11 गिद्धों के इकत्तीस गुणों की उचित श्रद्धा प्ररूपणा न करने से, बत्तीसाए जोगसंगहेहि बत्तीस योग संग्रहों का यथार्थ आचरण न करने से, तेत्तीसाए आसायणाहि, तेतीस आशातनाओं के करने से, जो मे वेवसिओ अदयारो को सस्स मिच्छामि तुस्कर । जो मुझे दिवस सम्बन्धी अतिचार दोष लगा हो उसका मेरा -आव. . ४, सु. २०-२६ पाप निष्फल हो। जिग्गंध धम्माइयार विसोहि सुतं निग्रंथ धर्मातिचार शुद्धि सूत्र२३१. ममो पजवीसाए तिस्पयराणं उसमाए-महावीरपज्जव- २३२. भगवान् ऋषभदेव से लेकर भगवान् महावीर पर्यन्त साणा। चौबीस तीर्थकर देवों को नमस्कार करता हूँ। पणमेव निग्ग पाययण यह निर्ग्रन्थ प्रवचन, समचं, अणुसरं, फेवलियं, परिपुण्णं, नेआउयं, संसुयं, सत्य है, सर्वोत्तम है, केवलज्ञानियों से प्ररूपित है, मोक्ष सल्लकातणं, सिद्धिमागं, मुत्तिमार्ग, निज्जाणमार्ग, निव्याण- प्राप्त कराने वाले गुणों से परिपूर्ण है, मोक्ष पहुँचाने वाला है या माग, अवितहमविसंधि, सव्वक्सप्पहोणमगं । न्याय से अबाधित है. पूर्ण शुद्ध है, माया आदि शल्यों को नष्ट करने वाला है, सिद्धि की प्राप्ति का उपाय है, मुक्ति का साधन है, मोक्ष स्थान का मार्ग है, पूर्ण शान्ति रूप निर्वाण का मार्ग है, असत्य नहीं है यथार्थ है, विच्छेद रहित है अथवा पूर्वापर विरोध से रहित है, सब दुःखों को पूर्णतया क्षय करने का मार्ग है। १ (क) ठाणं. अ. १०, सु. ७५५ (ख) सम. सम. २१, सु. १ (ग) अनाचार २ (क) सम. सम. २२, मु.१ (ख) वीर्याचार (ग) उत्त. १.२ ३ सम. सम. २३, सु.१ ४ सम. सम. २४, सु. १ ५ (क) सम. सम. २५, सु. १ (ख) गाँच महाव्रत ६ सम. सम. २६, सु.१ ७ (क) सम. सम, २७, सु. १ (ख) संयमी जीवन ८ सम, सभ. २८, सु. १ ६ सम. सम. २६, सु. १ १० (क) ठाणं. अ. १०,सु. ७५५ (ख) सम, मम. ३०, सु. १ (ग) अनाचार ११ सम, सम. ३१, गु. १ १२ (क) सम. सम. ३२, सु. १ (ख) संयमी जीवन १३ (क) सम, सम. ३३, सु. १ () সালাৰাৰ (ग) दशा. द.३ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २] चरणानुयोग – २ इत्यंडिया जीवासियांति, यंति, सम्यक्ाणमंत करेंति । अपा धम्मं सहामि पलिआम रोएम, फासेमि, पालेमि अणुपामि । सहंतो पत्तिअंतो, शेअंती फासतो, पातो निन्-धर्मातचार सूत्र संति, मुज्वंति, परिनिष्या तस्स धम्मस्स अमुट्ठिओमि आराहणाए, विरवीमि विराह णाए । (१) असंजनं परिमाणामि, उपसंजामि (२) अपरिणाम संभवामि । (३) अकप्पं परिणामि, कर्ण उवसंपज्जामि । (४) अन्नाणं परिमाणामि, नाणं उवसंपज्जामि । (५) अतिरियं परिपामि किरियं उपसंपजामि । (६) मिच्छतं परिमाणामि, सम्मतं उपसंपन्नामि । (७) अबोहि परिजानामि बोह (८) अमर्ग परिमाणामि, मग्गं उबसंपज्जामि । जं संभरामि, जं च न संभरामि, पडिक्यमाथि - न पडकमाि तस्स सास्स देवसियस्स अइभरस्स पक्किमामि । समणोऽहं संजय विरय परिचय पावकम्मो अनियाणो, दिद्विसंपन्नो माया- मोस- विवज्जिओ । - बाजे बी समुद्देसु. पर भूगी। जावंत के वि साहू, महरण-गुच्छ परिग्गह-धरा ॥ २३२ इस निर्णय प्रवचन में स्थित रहने वाले अर्थात् तदनुसार आचरण करने वाले भव्य सिद्ध होते है, सर्वज्ञ होते हैं. पूर्ण आत्म-शान्ति को प्राप्त करते हैं तथा समस्त दुःखों का (सदा काल के लिए) अन्त करते हैं । मैं इस निर्मन्थ-प्रवचन स्वरूप धर्म की श्रद्धा करता हूँ, भक्ति स्वीकार करता हूँ, रूचि करता हूँ, स्पर्शना करता हूँ, पालन करता हूँ, विशेष रूप से निरन्तर पालन करता हूँ । हुआ, मैं प्रस्तुत जिन धर्म की श्रद्धा करता हुआ, प्रतीति करता रुचि करता हुआ, आचरण करता हुआ, पालना करता हुआ, विशेष रूपेण निरन्तर पर हुआ उस धर्म की आराधना करने में पूर्ण रूप से तत्पर हूँ और धर्म की विराधना से पूर्णतया निवृत्त होता है ( १ ) असंयम को जानकर त्यागता हूँ, संयम को स्वीकार करता हूँ। (२) अब्रह्मचर्य को दान त्यामता है, ब्रह्मचर्य की स्वीकार करता हूँ । (३) अकल्म को जानकर त्यागता हूँ, कल्प्य को स्वीकार करता हूँ । ( ४ ) अज्ञान को जानकर त्यागता हूँ, ज्ञान को स्वीकार करता हूँ । ( ५ ) अकृत्य को जानकर त्यागता हूँ, कृत्य को स्वीकार करता हूँ । (६) मिथ्यात्व को जानकर त्यागता हूँ, सम्यक्त्व को स्वीकार करता हूँ । (७) मिथ्यात्व के कार्य को जानकर त्यागता हूँ, सम्यक्त्व के कार्यको स्वीकार करता है। (८) हिंसा आदि अमार्ग को जानकर त्यागता हूँ, अहिंसा आदि भार्ग को स्वीकार करता हूँ । जो दोष स्मृति में है और जो स्मृति में नहीं है, जिनका प्रतिक्रमण कर चुका हूं और जिनका अतिक्रमण नहीं कर पाया हूँ । उन सब दिवस सम्बन्धी अतिचारों का प्रतिक्रमण करता हूँ, मैं श्रमण है, संयमी है, विरत हूँ पाप कर्मों को रोकने वाला हूँ, एवं पाप कर्मों का त्याग करनेवाला हूँ, निदान - शल्य से रहित हूँ, सम्यग्दर्शन से युक्त हूँ माया सहित गाद का परिहार करने वाला हूँ । 1 अठाई द्वीप और दो समुद्र के परिमाण वाले मनुष्य क्षेत्र में अर्थात वह कर्मभूमियों में जो भी रजोहरण, गुच्छक एवं पात्र के धारण करने वाले हैं Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र २३३-२३६ भरणान्तिक संलेखना के अतिचार ___ संयमी नौवन [६ पंचमहत्वय-धरा अट्ठारस सहस्स-सीलंगधरा। तथा पांच महाव्रत, अठारह हजार संयम के गुणों को धारण अक्खयायारचरिता, ते सम्वे सिरसा मणसा मत्यएग वामि || करने वाले एवं अक्षत आचार के पालक जो त्यागी साधु हैं, उन -आव. अ. ४, सु. २७-३१ सबको मैं शिर से, मन से, मस्तक से बन्दना करता है। मारणन्तिय संलेहणा सुत्त'-. मरणान्तिक संलेखना के अतिचार२३३. तयाणंतरं च ण अपच्छिम-मारणंतिय-संलेहणा-सूसगर २३३. तदनन्तर अपश्चिम-मरणान्तिक-संलेखणा-झोपशा आराधना आराहणाए पंच अहयारा जाणियस्वा न समायरियच्या, के पाँच अतिचारों को जानना चाहिए उनका आचरण नहीं तं जहा करना चाहिए, वे इस प्रकार हैं(१) इहलोशससप्पओगे (१) इहलौकिक सुख की चाहना करना। (२) परलोगासंसप्पओगे, (२) परलोकिक सुख को चाहना करना । (३) जीवियासंसप्पओगे, (३) जीने की चाहना करना। (४) मरणासंसप्पओगे, (४) मरने की चाहना करता। (५) कामभोगासंसप्पओगे। -आव, अ. १, सु. ५७ (५) काम-भोगों की आकांक्षा करना । खामणा सुत्त-- क्षमापना सूत्र२३४. खामेमि सम्वेजीवा, सवे जीवा खमंतु मे । २३४. मैं सब जीवों को क्षमा करता हूँ और वे सब जीव भी मितो मे सव्यभूएम, वेरं ममं न केणइ ।। मुझे क्षमा करें। मेरी सब जीवों के साथ पूर्ण मित्रता है, किसी के साथ भी मेरा वरभाव नहीं है। आयरिय-उवजमाए-सोसे साहम्मिए कुल गणे य। आचार्य, उपाध्याय, शिष्य, सामिक, कुल एवं गण के प्रति ओ मे के फसाया सम्वे तिविहेण खामेमि ।। जो मैंने कोई भी कषाय किये हों उनकी मन, वचन, काया से क्षमा याचना करता हूँ। सस्वस्स समणसंघस्स, भगवओ अंजलि करोय सीसे । मस्तक पर अंजली चढ़ाकर भगवान महावीर के समस्त सर्व कमावइत्ता, खमामि सम्बस्स अहमवि ।। श्रमणसंघ से मैं क्षमा याचना करता हूँ वह संघ मुझे भी क्षमा प्रदान करे। सबस्स जीवरासिस्स, भावो धम्म निहियनियचिसो।। मैं धर्म में दत्तचित्त होकर समस्त जीव राशि से क्षमा सम्वं खमावत्ता, समामि सम्वस्स अहमयि ॥ याचना करता हूँ, वह जीवराशि मुझे भी क्षमा प्रदान करे । – सुत्तागमे आव. अ. ४, सु. ३२ उपसंहार सुत्तं-- उपसंहार सूत्र - २३५. एवमहं आलोइ, निवियं गरहि दुगंछियं सम्म। २३५. इस प्रकार में सम्पन प्रकार से आलोचना, निन्दा, गही तिविहेणं पडिकतो, बंदामि जिग चउम्बीसं ॥ और जुगुप्सा के द्वारा तीन प्रकार से अर्थात् मन, वचन, काया -आब, अ.४, सु. ३३ से, प्रतिक्रमण कर पापों से निवृत्त होकर चौबीस तीर्थकर देवों को वन्दना करता हूँ। काउस्सग्ग विहि सुत्तं कायोत्सर्ग-विधि सूत्र२३६. तस्स उत्तरीकरणेणं, पायच्छित्त-करणे, विसोहि-करणेणं, २३६. आत्मा की श्रेष्ठता के लिए, प्रायश्चित्त के लिए, विशेष विसल्ली-करणेणं, पावागं कम्माणं निघायणटाए ठामि निर्मलता के लिए, सल्य-रहित होने के लिए, पाप कर्मों का कास्सगं । पूर्णतया विनाश करने के लिए, आगे कहे जाने वाले आगारों को छोड़कर मैं कायोत्सर्ग करता हूँ। अन्नत्य सिसिएग, नीससिएणं, खासिएण, छोएणं, जंभाइ- उच्छ्वास, निःश्वास, खांसी, छींक, उबासी, डकार, अपानएणं, उड्डएणं, कार्यानसग्गेणं, ममलोए, पित्तमुच्छाए, सुध- वायु, चक्कर, पित्त-विकारजन्य मूळ, सूक्ष्म रूप से अंगों का मेहि अंगसंचालेहि, मुहमेहि खेलसंचालेहि, सुटुमेह विट्टि- हिलना, सूक्ष्म रूप से कफ का संचार, सूक्ष्म रूप से दृष्टि चलना Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ev परमानुयोग-३ बस प्रकार के प्रत्याख्यान सू२३६-२३६ संचालहि एकमाइएहिं आगारहि, अभग्गो, अविराहिओ, इत्यादि आगारों से मेरा कायोत्सर्ग अभग्न एवं अविराधित हो। हुज्ज मे काउस्सगो। जाव अरिहंताणं भगवंताणं. नमुक्कारेण न पारेमि, ताब जब तक अरिहंत भगवान् को नमस्कार न कर लूं अर्थात् कायं ठाणण, मोणेणं, शाणेणं, अपागं वोसिरामि। "नमो अरिहताणं" न पड़ लू, तब तक एक स्थान पर स्थिर --आव, अ. ५, सु. ३६-३७ रहकर, मौन रहकर, धर्म ध्यान में चित्त की एकाग्रता करके अपनी आत्मा को पाग व्यापारों से अलग करता है। बस पच्चक्खाग-४ बसविह-पचक्खाणा दस प्रकार के प्रत्याख्यान-- णमोक्कार-सहियं पच्चक्लाण-सुतं नौकारसी प्रत्याख्यान सूत्र२३७. उग्गए सूरे नमोक्कारसहिय' पस्चक्यामि, चम्विहं पि २३७. सूर्योदय बाद से (एक मुहूर्त पर्यन्त) “नमस्कार सहित" माहार-असणं, पाणं, खाइम, साइमं । अशन, पान, खादिम, स्वादिम चारों ही प्रकार के बाहार का प्रत्याख्यान करता हूँ। १. अन्नस्थऽणामोगेणं, २. सहसागारेणं, (१) अनाभोग, (२) सहसाकार, वोतिरामि। याव. अ. ६, सु. ६५ इन दो आगारों के सिवाय चारों प्रकार के आहार का त्याग पोरिसी परचक्खाण-सु.. पौरुषी प्रत्याख्यान सूत्र२३८. जग्गए सूरे पोरिसि' पच्चरखानि, उठिवह पि आहार- २३८. सूर्योदय से लेकर पौरुषी तक अशन, पान, खादिम, असणं, पाणं, खाइम, साइमं । स्वादिम इन चारों प्रकार के आहार का प्रत्यास्पान करता हूँ। १. समत्थाणाभोगेगं, २ सहसागारेणं, ३. पच्छन्नकालेणं, (१) अनाभोग, (२) सहसाकार, (३) प्रच्छन्नकाल, ४. विसामोहेणं, ५. साहुवयणेणं, (४) दिशामोह, (५) साधु-वचन, ६. सम्बसमाहिवत्तियागारेणं, (६) सर्व-समाधि प्रत्ययागार, दोसिरामि। -आव. अ. ६, सु.८७ इन छह आगारों के सिवाय पूर्णतया चारों आहार का त्याग करता हूँ। पुरिमड्ड पम्यवखाण-सुतं दो पौरुषी प्रत्याख्यान सूत्र२३६. उग्गए सूरे, पुरिमड्ड' पच्चरखामि, चम्विहं पि आहारं - २३६. सूर्योदय से लेकर दिन के पूर्वार्द्ध तक अर्थात् दो प्रहर तक भसणं, पाणं, खाइम, साइमं । अशन, पान, खादिम, स्वादिम चारों प्रकार के आहार का प्रत्याख्यान करता हूँ। है यह नमस्कार सहित" प्रत्याख्यान का सूत्र है। सूर्योदय से लेकर एक मुहुर्त बाद जब तक नमस्कार मन्त्र न पड़े तब तक माहारादि ग्रहण नहीं करना नौकारसी' कहलाता है। २ सूर्योदय से लेकर एक प्रहर दिन चढ़े तब तक चारों प्रकार के बाहार का त्याग करना 'पौरुषी' प्रत्याख्यान है। ३ यह 'पूर्वाध' प्रत्यारूमान का सूत्र है। इसमें सूर्योदय से लेकर दिन के पूर्व भाग तक अर्थात् दो प्रहर दिन चढ़े तब तक चारों बाहार का त्याग किया जाता है। Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र २३६-२४२ एकाशन प्रत्याख्यान सूत्र संस्मी जीवन [er १. अन्नपणा मोगेणं, २. सहसागारेणं, ३. पच्छन्नकालेणं, (१) अनाभोग, (२) सहसाकार, (३) प्रच्छनकाल, ४. दिसामोहेणं, ५. साहषयणेणं, ६. महसरागारेणं, (४) दिशामोह, (५) सरधुवचन, (९) महत्तराकार, ७. सम्बसमाहियत्तियागारेणं योसिरामि । (७) सर्वसमाधिप्रत्ययागार। इन सात आगारों के सिवाय -आव. अ. ६. सु६८ पूर्णतया चारों आहारों का त्याग करता हूँ। एगासण पच्चक्खाण-सुत्तं-- एकाशन प्रत्याख्यान सूत्र२४०. एगासण पाचक्खामि तिविहं पिाहारं असणं, खाइम, २४०. एकाशन तप स्वीकार करता हूँ', अशन, खादिम, स्वादिम, साइम, इन तीनों प्रकार के आहारों का प्रत्याख्यान करता हूँ। १ अन्नस्याणाभोगेणं, २. सहसागारेणं, (१) मनाभोग, (२) सहसागार, ३. सांगारियागारेगं, ४. आउंटण-पसारणेणं, (३) सागारिकाकार, (४) आकुंचनप्रसारण, ५. गुरु-अगट्टाणेणं, ६. पारिद्वावणियागारेणं, (५) गुर्दावन पारिष्टापनिकाकार, ७. महत्सरागारेणं, ८. सध्यसमाहिवत्तियागारेणं, (७) महत्तराकार, () सर्व-समाधिप्रत्ययाकार, बोसिरामि। -आव. अ. ६, सु. ६ इन आठ आगारों के सिवाय पूर्णतया तीनों माहारों का त्याग करता हूँ। एगट्ठाण पश्चक्खाण-सुतं एकस्थान प्रत्याख्यान सूत्र२४१. एक्कासन एगट्ठाणं पञ्चपखामि, परिवह पि आहारं असणं, २४१. एकाशन रूप एकस्थान ग्रहण करता हूँ', बशन, पान, . पाणं, खाइम, साइमं । खादिम और स्वादिम इन चारों प्रकार के माहारों का प्रत्यासयान करता हूँ। १. अन्नस्थाणामोगेणं, २. सहसागारेणं, (१) अनाभोग, (२) सहसाकार, ३. सागारियागारेणं, ४. गुरुआमुट्ठाणेणं, (३) सागारिकाकार, (४) गुर्बभ्युत्थान, ५. पारिद्वाषणिपागारे, ६. महत्तरागारेणं, (३) पारिष्टापनिकाकार, (६) महत्तराकार, ७. सम्बसमाहित्तियागारेणं वोसिरामि। (७) सर्वसमाधि-प्रत्ययाकार, इन सात आगारों के सिवाय -आव. अ. ६, सु. १०० पूर्णतया चारों आहारों का त्याग करता है। आयंबिल-परचक्खाण-सुतं आयंबिल प्रत्याख्यान सूत्र२४२. आयंबिल पच्चस्लामि' तिविहं पि आहार असणं, खाइम, २४२. आयंबिल तप स्वीकार करता हू', अशन, खादिम, साइमं । स्त्रादिम इन तीनों आहारों का त्याग करता हूँ। १. अन्नस्थाणाभोगेणं, २. सहसागारेणं, (१) अनामोग, (२) सहसाकार, ३. सेवालेवेणं, ४. उक्वित्तविवेगे, (३) लेपालेप, (४) उत्क्षिप्त विवेक, ५. गिहत्य संसट्ठग, ६. पारिवावगियागारेणं. (५) गृहस्थसंसृष्ट, (६) पारिष्ठापनिकाकार, ७. महत्तरागारेणं, ६. सव्वसमाहित्तियागारेणं, (७) महत्तराकार, (८) सर्वसमाधिप्रत्ययाकार, बोसिरामि। -आव. अ. ६, सु.१०१ इन आठ आगारों के अतिरिक्त तीनों आहार का त्याग करता हूँ। १ पौरुषी या पूर्वार्ड के बाद दिन में एक बार भोजन करना उसके बाद तीनों आहारों का त्याग करना 'एकाशन' तप होता है। एकाशन का अर्थ है-एक अशन अर्थात् दिन में एक बार भोजन करना अथवा एक आसन से भोजन करना। १ दिन में एक बार एक ही बासन से भोजन एवं पानी ग्रहण करना उसके बाद चारों आहार का त्याग करना 'एक स्थान एगलवाण तप होता है। १ दिन में एक बार, रूमा, नीरस एवं विगय रहित एक आहार ही ग्रहण करना और उसके बाद तीन आहार का त्याग करना 'पायबिल' तप कहा जाता है । दूध, दही, घी, तेल, गुड़, शक्कर और पक्वान आदि किसी भी प्रकार का स्वादु भोजन आयंबिल व्रत में ग्रहण नहीं किया जा सकता है। Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ e चरणानुयोग – २ अभत्तट्ट-पच्चखाण-मुत्तं २४३. मसहूर पन्चस्वामि, असणं, पाणं, खरइमं साइमं १. अमो ३. पारिहाणियारेण ५. सव्वस माहित्तियागारेणं योसिरामि । २. महलणारे, ४. महत्तरागारे, १. ३. महसरागारे, वोसिरामि । १. अन्नत्थामोगेणं, पै. महत्तरागारेणं, वोसिरामि । उपवास प्रत्याख्यान सूत्र १ अभक्तार्थदास = दिवसचरिम-पच्चक्खाण-सुतं २४४. विसरिमं पच्चक्खामि चविहं पि आहारं असणं, २४४ दिवस नरिम का व्रत ग्रहण करता हू, अशन, पान, खादिम और स्वादिम चारों आहार का त्याग करता हूँ । पाणं, खाइमं साइमं । भोगे उपवास प्रत्याख्यान सूत्र - आहार २४३. सूर्योदय से उपवास तप ग्रहण करता हूं, अशन, पान, खादिम, और स्वादिम चारों ही आहार का त्याग करता हूँ । (२) सहसाकार, (४) महत्तराकार, (२) सत्यवाकार इन पांच आगारों के शिवान (१) बनाभोग, (२) सहसरकार (४) सर्व समाधियक्षतर (३) महतराकार, इन चार आगारों के सिवाय सब प्रकार के आहार का स्थान करता हूँ । भवचरिम प्रत्याख्यान सूत्र - नवचरिम-परचक्खाण-मुस्त २४५. चरिमं पञ्चकखामि पि आहार करता हूँ, अशन, पान, खादिम और पाणाम साह स्वादि चारों आहार का त्याग करता हूँ । - - आव. अ. ६, सु. १०२ सब प्रकार के आहार का त्याग करता हूँ । दिवसचरिम प्रत्याख्यान सूत्र २. सागारे ३. सब्वस माहित्तियागारेणं, - (१) अनाभोग, (३) परिष्ठापनिकाकार, सूत्र २४३-२४६ . ६ सु. १०३ (१) (१) अनाभोग, (२) सहसाकार (२) महत्तराकार, (४) सर्व समादित्यागार, इन चार आगारों के सिवाय सब प्रकार के आहार का त्याग करता हूँ । अभिग्गह-पञ्चवाणं गुस्तं- अभिग्रह प्रत्याख्यान सूत्र २४९. अहं पञ्चस्यामि चउध्विहं पि आहारं असणं २४६. अभिग्रह ग्रहण करता हूँ, अशन, पान, खादिम, और पाणं, साइमं साइमं । स्वादिम चारों ही आहार का त्याग करता हूँ । २. सारे ४. सत्यसमाहिपतियागः रे - आय. अ. ६, सु. १०३ (२) नहीं भक्त आहार का अर्थ प्रयोजन तीनों का सम्पूर्ण अर्थ यह होता है कि भक्त का प्रयोजन नहीं है जिस व्रत में वह 'उपवास' है। सूर्योदय से दूसरे दिन सूर्योदय तक चारों बहार का त्याग करना उपवास तप है । पानी के आधार से उपवास करना हो तो प्रत्याख्यान सूत्र में "उब्विहं पि आहार" के स्थान पर "तिविहं पि आहारं" ऐसा पाठ महना चाहिए। २ यह चरम प्रत्याख्यान सूत्र है। "चरम" का अर्थ "अन्तिम भाग" है। वह दो प्रकार का है - दिवस का अन्तिम भाग और भव अर्थात् आयु का अन्तिम भाग | सूर्य अस्त होने से पहले ही दूसरे दिन सूर्योदय तक साधु को चारों आहार का त्याग करना और गृहस्थ को चारों अथवा तीनों आहारों का त्याग करना "दिवस चरम " प्रत्याख्यान है । ३ 'भवचरम' प्रत्याख्यान का अर्थ है जब साघु को यह निश्चय हो जाय कि आयु थोड़ी ही शेष है तो यावज्जीवन के लिए चारों या तीनों आहारों का त्याग कर दे और संयारा ग्रहण करके संयम की आराधना करे भवचरम का प्रत्याख्यान जीवन भर का संयम साधना का उज्ज्वल प्रतीक है। भव चरम चउविहार या तिविहाहार दोनों प्रकार से होते हैं ४] गवेषणा के सामान्य नियमों के सिवाय अन्य व्यक्ति, वस्तु और वर्ण आदि के संकेतों से युक्त भिक्षा ग्रहण करने के लिए नियम करना 'अभिग्रह' तप होता है। संकल्प निश्चित करने के बाद उक्त पाठ से प्रत्याख्यान किया जाता है। अभिग्रह पूर्ण होने पर ही आहार ग्रहण किया जाता है एवं अभिग्रह पूर्ति के पूर्व अभिग्रह विषयक संकल्प प्रकट नहीं किया जाता है । Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूष २४६-२४७ निवित्तिक (नीवी) प्रत्याख्यान भूत्र संयमो जीवन [६७ १. मन्नत्पाणाभोयेणं, २. सहसागारेणं, ३. महत्तरागारेणं, अनाभोग, सहसाकार, महत्तराकार और सर्वसमाधिप्रत्ययासम्बसमाहिबत्तियागारेणं गोसिरामि । __ कार, इन चार भागारों के सिवाय अभिग्रहपति तक चारों बाहार --आव. अ. ६, सु. १.४ का त्याग करता हूँ। निम्बिगइया-पच्चक्वाण-सुतं निर्विकृतिक (नीवी) प्रत्याख्यान सूत्र२४७. निविगहों एवलामि २४७. निदिकृतिक तप स्वीकार करता हूँ, (१) अन्नत्यऽणाभोगेनं, (२) सहसागारेग, (१) मनाभोग, (२) सहसाकार, (३) लेवावे, (४) गिहत्यसंस?णं, (३) लेपालेप, (४) ग्रहस्थ-संसृष्ट, {५) उक्वित्तविगेन, (६) पच्चममिक्षएणं, (५) उत्क्षिप्तविवेक, (६) प्रतीत्यप्रक्षित, (७) पारिद्वावनियागारेणं, (८) महत्तरागारेणं, (७) परिष्ठापनिकाकार, (८) महत्तराकार, (९) सध्यसमाहित्तियागारे, बोसिरामि । (E) सर्वसमाधिप्रत्ययाकार, इन नी आगारों के सिवाय सब - आव. अ. ६, सु. १०५ प्रकार के विगयों का परित्याग करता हूँ। १ (क) दिन में एक बार बिगय रहित आहार करना "निविकृति" (निबी-नीवी) तप होता है। (ख) मन में विकार उत्पन्न करने वाले पदार्थों को 'विगय' कहते हैं। "मनसो विकृतिहेतुत्ववाद् विकृतयः" योगशास्त्र तृतीय प्रकाश सि । विकृति में दूध दही. मक्खन, घी, तेल, गुड, मधु आदि पदार्थ सम्मिलित हैं। २ दस प्रत्याख्यानों के १५ आगारों का विवेचन - (१) अनाभोग-'अभी मेरे प्रत्याच्यान' है यह सर्वथा विस्मृत हो जाये और ऐनी स्थिति में भून से कुछ खा ले या पी ले तो यह अनाभोग बागार है। (२) सहसाकार अनिच्छा से कोई पदार्थ मुंह में चला जाय, यह सहसाकार आगार है, या-पानी, छाछ आदि के छीटें मुंह में चले जायें । अथवा कोई जबरदस्ती से मुंह में ढूंस दे या बलपूर्वक खिलावे तो यह भी सहसाकार आगार समझ सकते हैं। (३) प्रच्छन्नकाल-बादल आदि से सूर्य न दिखने पर पौरुषी का निश्चित काल ज्ञात न होने से पौरुषी के पूर्व प्रत्याख्यान पार लेवे तो यह प्रकछन्नकास आहार है। (४) दिशामोह-भ्रान्ति से पूर्व या पश्चिम दिशा का यथार्थ भान न रहे और पौरुषी न आने पर भी पौरुषी आ गई ऐसा मानकर पौरुषी का प्रत्यास्यान पार ले तथा स्वा ले पी ले तो यह दिशामोह आगार है। (५) साधु वपन-"पोरषी आ गई है" ऐसा साधु पुरुष के कहने पर पौरुषी आये बिना प्रत्याख्यान पार लेना--यह साधु वचन भागार है। (६) सर्व समाधि प्रत्यय बागार-ब तक समाधिभाव है तब तक प्रत्याख्यान है, प्राणघातक शूल आदि रोग निमित्तक असमाधि से प्रत्याख्यान पार लेना यह सर्वसमाधि प्रत्यय आगार है। (७) महत्तरागार-आचार्य आदि बड़े पुरुषों की आज्ञा से प्रत्याख्यान पार लेना, पह महत्तरागार है। (4) सागारिक आगार-एक आसन से एक बार भोजन करने का प्रत्याख्यान होने पर भी भोजन करते समय यदि कोई गृहस्थ आ जाए तो उठना पड़े और अन्यत्र जाकर भोजन करना पड़े तो यह सागारिक आगार है। (e) माचन-प्रसारण आगार-एकासन से भोजन करते हुए भी बैठे-बैठे पैर आदि शून्य हो जाए तो हाथ पैर आदि को फैलाना या सिकोड़ना पड़े तो यह आकुंचन-प्रसारण लागार है। (१०) गुरु-अभ्युस्थान भागार : एकासन से भोजन करते हुए यदि गुरुदेव आ जायें तो खड़ा होना और बाद में पुनः बैठकर भोजन करना, यह गुरु-अभ्युत्थान आगार है । (११) पारिष्ठापनिका आगार-यदा-कदा आहार गवेषक की असावधानी से या दाता के आग्रह से अधिक आहार आ जाए और आहार कर लेने के बाद भी जो शेष बन जाये तो सभी स्वर्मिक साधुओं को दे कदाचित् फिर भी शेष रह जाये तो स्थविर गुरुजनों की आज्ञा से प्रत्याख्यान वाला उस आहार का उपयोग करे --यह पारिष्ठापनिका आगार है। (शेष टिप्पण अगते पृष्ठ पर) Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८) चरणानुयोग-२ सर्व प्रत्यास्थान पारण सूत्र सूत्र २४८ सयपच्चक्वाण-पारण-सुत्तं सर्व प्रत्याख्यान पारण सूत्र२४८. जग्गए सूरे 'नमुक्कार-सहिय' पञ्चरखाणं' कयं । सं २४८. सूर्योदय होने पर जो 'नमस्कार-सहित' प्रत्याख्यान किया पच्चक्खाणं सम्म काएण फासियं, पालियं, तीरियं, किट्टियं था वह प्रत्याख्यान मन, वचन, काया के द्वारा सम्यक् रूप से सोहिय, आराहियं । अंघन आराहिय, तस्स मिछा मि स्पृष्ट, पालित, तीरित, कोतित, शोधित एवं आराधित किया हो •-सुत्तागमे आव. अ.६ और सम्यक् रूप से जो आराधित न किया हो उसका दुष्कृत मेरे लिए मिथ्या हो । -- (टिप्पण पृष्ठ ६७ से चालू) (१२) लेपालेप यागार-आयंबिल = (आचाम्ल) में सरस आहार लेने का प्रत्याख्यान होते हुए भी दाता यदि शाक तथा घृत आदि विकृति के लेप वाले चम्मच को पोंछकर दे तो उसे ग्रहण करना यह लेपालेप आहार है। (१३) उत्क्षिप्त विवेक आगार- आयंबिल योग्य निरस आहार पर गुड़ आदि (लेप रहित) पहे हए पदार्थ को उठाकर दाता उस निरस आहार को दे तो उसे ग्रहण करना यह उरिक्षप्त विवेक आगार है। (१४) गृहस्थ संसष्ट आगार-दाता के हाथ अंगुलियां आदि घृत, तेल, गुज आदि से लिप्त हो तो उसके हाथ से आयंबिल योग्य निरस आहार ग्रहण करना, यह गृहस्थ संसष्ट आगार है। (१५) प्रतीत्य प्रक्षित आगार-गेहूं आदि के गीले आटे पर धृत, तेल आदि चुपड़ दिया जाता है उससे बनाये गये रोटी पापढ़ आदि रूक्ष खाद्य पदार्थ ग्रहण करना, यह प्रतीत्य प्रक्षित आगार है। उक्त १५ आगारों में ६ आगार केवल साधु-साध्वियों के लिए ही निमत हैं। (१) सागारिक आगार, (२) पारिष्ठापनिका आगार, (३) लेपालेष बागार, (४) उक्षिप्त विवेक आगार, (५) गृहस्थ संसृष्ट आगार, (६) प्रतीत्यक्षित आगार, शेष : आगार साधु-साध्वी धावक-श्राविका आदि सबके लिए उपयुक्त हैं(१) अनाभोग आगार, (२। सहसाकार आगार, (1) दिशामोह आगार, (४) साधु वचन आगार, (५) आकुंचन प्रसारण आगार, (६) गुरु अभ्युत्थान आगार, (७) महत्तरागार, (८) प्रच्छन्नकाल आगार, (E) सर्व समाधि प्रत्ययागार । दस प्रत्याख्यानों में से पांच प्रत्याख्यानों में पारिष्ठापनिका आगार है-यथा - (१) एकासन, (२) एक स्थान, (३) आयंबिल, (४) उपवास, (५) निर्विकृतिक । शेष ५ प्रत्याख्यानों में पारिष्ठापनिका आगार नहीं है। यथा(१) नमस्दार सहित (नौकारसी) (२) पौरुषी, (३) पूर्वार्ध (दो पौरुषी), (४) दिवस-चरिम, (५) अभिग्रह। पहा नमुक्कार सहियं नमस्कारिका का सूचक सामान्य शब्द है। इसके स्थान में जो प्रत्याख्यान ग्रहण कर रकबा हो उसका नाम लेना चाहिए । जैसे कि पौरुषी रक्खी हो तो "पौरिसीपच्चरवाणकय" ऐसा कहना चाहिए। प्रत्याख्यान पालने के छह अंग बतलाये गये हैं, वे ये हैं(१) फासि-विधि पूर्वक प्रत्याख्यान लेना। (२) पालियं--प्रत्याख्यान को बार-बार उपयोग में लाकर सावधानी के साथ उसकी सतत रक्षा करना। (1) सोहियं-कोई दूषण लग जाये तो उसकी शीघ्र शुद्धि करना । (४) तीरियं-लिए हुए प्रत्याख्यान का समय पूरा हो जाने पर भी कुछ समय ठहर कर भोजन करना । (५) किट्टिय --लिए हुए प्रत्याख्यान का उत्कीर्तन करना कि मेरा प्रत्याख्यान भलीभांति पूर्ण हो गया है। (६) बाराहिम-सब दोषों से दूर रहते हुए माराधना करना। जं च न आराहियं इस प्रकार यदि शुद्ध आराधना न की हो तो आलोचना एवं प्रतिक्रमण करने से व्रत शुद्ध हो जाता है। Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र २४६-२५० प्रत्याश्यान के प्रकार संयमी जीवन पच्चक्खाण के प्रकार-५ पञ्चक्खाणपगारा२४. तिविहे पवाखाणे पण्णते, ते अहा १. मणसा वेगे पच्चखाति, २. वयसा बेगे पच्चक्खाप्ति, ३. कापसा बेगे पश्चक्खाति, पाचार्ण कम्माणं अकरणयाए । अहवा- पक्षा तिबिहे पण, तं जहा प्रत्याख्यान के प्रकार२४६. प्ररमियान तीन प्रकार का कहा गया है, यथा पाप कर्म न करने के लिए(१) कोई मन से प्रत्याख्यान करते हैं । (२) कोई वचन से प्रत्याख्यान करते हैं। (३) कोई काया से प्रत्यास्यान करते हैं । अथवा प्रत्याख्यान तीन प्रकार का कहा गया है, यथापाप कर्म न करने के लिए (१) कोई दीर्घकाल के लिए पापकर्मों का प्रत्याश्यान करते है। (२) कोई अल्पकाल के लिए पाप-कर्मों का प्रत्याख्यान करते हैं। (३) कोई काया का निरोध कर लेते हैं। १. बोहपेगे अदं पच्चजाति, २. रहस्सपेगे अचं पन्चरखाति', ३. कार्यपेगे पढिसाहरति, पावागं फम्माणं करणयाए । -ठाणं. भ. ३, ३.१, मु. १३६ पंचबिहे पश्चपहाणे पणसे, तं पहा१. सदरणसुबे, २. विणयसुसे, ३. अगुभासणामु. ४. अणुपासणासुळे, ५. भावसुद्ध। ---ठाणं. अ. ५,उ.३.सु. ४६६ पश्चक्खाण-भेयप्पभेया२५०. ५०–कतिविहे गं भंते ! पवखाणे पग्णते ? प्रत्याख्यान पाँच प्रकार का कहा गया है, जैसे(१) शुद्ध श्रद्धा पूर्वक किया गया त्याग । (२) विनय पूर्वक किया गया त्याग । (३) 'वोसिरामि' कहते हुए प्रत्याख्यान ग्रहण करना। (४) विकट स्थिति में भी प्रत्याख्यान का निर्दोष पालन करना। (५) राग द्वेष से रहित होकर शुद्ध भाव से प्रत्याभ्यान का पालन करना। प्रत्याख्यान के भेद-प्रभेद२५०. ०-भगवन् ! प्रत्याख्यान कितने प्रकार का कहा गया है? 30-गौतम ! प्रत्याख्यान दो प्रकार का कहा गया है, यथा (१) मूत्रगुण प्रत्याख्यान, (२) उत्तरगुण प्रत्याख्यान । प्र०-भगवन् । मूलगुण प्रत्याख्यान कितने प्रकार का कहा गया है? उ.-गौतम ! दो प्रकार का कहा गया है, वह इस प्रकार है-- (१) सर्वमूलगुण प्रत्याख्यान, (२) देशमूलगुण प्रत्याख्यान । उ.-गोषमा | बुबिहे पश्चस्थाणे पण्णत्ते, तं महा १. मूलगुणपश्चखाणे य, २. उत्तरगुणपच्चक्खाणे य। ५० - मूलगुगपच्चक्खाणे गंमते ! कतिषिहे पण्णत्ते ? उ गोयमा ! वुविहे पण्णसे, सं जहा १. सम्बमूलगुणपच्चक्खाणे य, २. देसमूलगुणपश्चखाणे प । १-१ ठाणं. अ. २. उ. १, सु. ५२ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० ] उ० योग – २ २० सयमपञ्चश्वा भंते! कति? गोयमा ! पंचविहे पणते, तं जहा १. साओ पापा म २. साओ पाओ बेरम २. सवामी अविभावर्ण ४. साओ मेगा ५. साओ परिव्हाओ बेरमणं । प० - बेस मूलगुणपरत्वाने णं भंते! कतिविहे पण ? उ०- गोधमा ! पंचवितं जहा लाओ पाणावायाओ वेरमणं - जाव-यूलाओ परिण हामी वेरमणं । प० उत्तरगुणपचखाणं ते कतिविहे? उ०- गोषमा विहे पण तं जहा- १. सम्युत्तरगुणपच्चरवाने प २. देसर गुण परचमाणे य - प० गुणा ७० गोपमा | वसविणतं जहा - प्रत्यास्थान के मेव प्रमेव १२. ३. कोडीसहि १६. सागारमणागार, ७. परिमाणकचं मंते ] कतिविहे पण्णले ? ४. नियंटियं शेष, ८. निरवसे, ९. १०. मढाए पछचक्खाणं भने सहा' । ५० सुसरणं यं उ०- गोमा | सत्तविहे पण जहा १ ठाणं. अ. १०, सु. ७४८ कतिविहे पण ? १. ३. अणत्थवंड-वेरमणं, ४. सामाइयं, ५. वेश्वगायिं २. उपयोग- परिभोगपरिमाण, ६. पोसोबास, प्र० - भगवन् ! सर्वमूलगुणप्रत्याख्यान कितने प्रकार का कहा गया है ? उ०- गौतम ! पाँच प्रकार का कहा गया है वह इस प्रकार है (१) सर्व - प्राणातिपात से विरमण (२) सर्व विरमण (३) सर्व अवसान से दिरमण (४) सर्व – मैथुन से विरमण, — ww.w - (५) सर्व परिग्रड् से विरमण । प्र० - भरनन् । देशमूलमुपप्रत्याख्यान कितने प्रकार का कहा गया है ? उ०- गौतम ! पाँच प्रकार का कहा गया है, वह इस प्रकार है स्कूल प्राणातिपात से विरमण यावत्स्थूल परिग्रह से विरमण | सूत्र २५० प्र० -भगवन् ! उत्तरगुण प्रत्याख्यान कितने प्रकार का कहा गया है ? उ०- गौतम ! दो प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकार (१) सर्व-उत्तरगुण प्रत्याख्यान, (२) देश-उत्तरगुण प्रत्याख्यान | प्र० - भगवन् ! सर्व उत्तरगुण प्रत्याख्यान कितने प्रकार का कहा गया है ? उ०- गौतम हा गया है, वह इस प्रकार है(१) अनागत, (३) कोटिसहित, (५) सातार (७) परिमाणकृत, सर्व उत्तरगुण प्रत्यास्मान दस प्रकार का (१)दिपरिमाण (३) अनर्थदण्डविरमण, (५) देशावकाशिक, (२) अतिकान्त, (c) frufine, (६) अनागार, (-) निरवशेष, (९) संकेत, (१०) श्रद्धाप्रत्याख्यान । अ०] [भगवन् ! देश-उत्तरान कितने प्रकार का कहा गया है ? उ०- गौतम ! सात प्रकार का कहा गया है, वह इस प्रसर है (२) उपभोग परमोपरिमाण, (४) सामायिक, (६) पोपवास, Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र २५०-२५२ सुप्रत्याख्यानी और सुष्प्रत्याश्यानी का पाप संयमी जीवम १०१ ANN ७. अतिहिसंविभागो, (७) अतिथि संविभाग तथा अपश्चिम मारणांतिक-संलेखनाअपछिममारणतिय-संलेहणा असणा आराहणया। झोषणा-आराधना । -दि स.७. उ. २, सु. २-८ सुपच्चवखाणी-चुपच्चवस्थाणी सरूवं सुप्रत्याख्यानी और दुष्प्रत्याख्यानी का स्वरूप - २५१ प. से नूष मंते ! सम्पाणेहि सम्वभूतेहि सम्यजीवहिं २५१. प्र०-हे भगवन् ! "मैंने सर्व प्राण, सर्व भुत, सर्व जीव सध्वसहि पच्चक्लाय इति वयमाणस्स सुपन्धक्सायं और सभी सत्तों की हिंसा का प्रत्याख्यान किया है। इस प्रकार भासखणं रति: रहने वाले के सुपत्याख्यान होता है या दुरुपत्याख्यान होता है? ३०-गोयमा ! "सम्वयाहि-जाव-सम्बसतंहिं पच्चस्लायं' उ-गौतम ! "मैंने सभी प्राण-पावत्-सभी सत्त्वों की इति बदमाणस सिय सुपावसायं भवति, सिय हिंसा का प्रत्याख्यान किया है", इस प्रकार कहने वाले के कदादुपच्चक्खायं भवति । चित् सुप्रत्याख्यान होता है और कदाचित् दुष्प्रत्यारूपान होता है। प० से षट्ठे गं अंते ! एवं पुच्चा "सम्पपाहि-जाब- प्र. भगवन ! ऐसा क्यों कहा जाता है कि "समस्त प्राण सरुवसहि पश्चक्खाय" इति कपमागस सिय यावत्---समस्त सत्वों की हिंसा का प्रत्याख्यान किया है" सुपच्चक्लायं भवति सिय दुपस्यक्लायं प्रवति? इस प्रकार उच्चारण करने वाले के कदाचित् सुप्रत्याख्यान होता है और कदाचिन् दुष्प्रत्याख्यान होता है ? उ.-गोममा ! अस्स ण 'सयपाहि-जाव-सम्वसहि उ–गौतम ! "मैंने समस्त प्राण-यावत्-समस्त सत्वों एचपलाय" इति वयमाणस्स पो एवं अभिसमन्ना- की हिंसा का प्रत्याख्यान किया है", इस प्रकार कहने वाले जिस गतं भवति पुरुष को यदि यह ज्ञात नहीं हो कि, इमे जीवा, इमे अजीवा, ये जीव हैं, ये अजीव है, हमे तसा, इमे पावरा, ये त्रस है, ये स्थावर हैं, सस्त में "सम्वपाहि-जाव-सम्वसहि पन्धखाय" उस पुरुष का "समस्त प्राण-यावत्-सर्व सत्वों का इति चयमाणस्स नो सुपञ्चासायं भवति, तुपच्चक्वायं प्रत्याख्यान" सुप्रत्याख्यान नहीं होता किन्तु दुष्प्रत्याख्यान होता भवति । एवं खतु से बुपयलाई सम्वपाहि-जाव: है इसलिए वह दुष्प्रत्याख्यानी पुरुष "मैंने सभी प्राण--यावत् - सम्बसत्तेहिं "पच्चस्खाय" इति वयमागो नो सम्वं सभी सत्यों की हिंसा का प्रत्याख्यान किया है", इस प्रकार कहता मासं भासति, मोसं मासं भासह, एवं खलु से मुसा• हुआ सत्यभाषा नहीं बोलता, किन्तु मृषाभाषा बोलता है और वाती सम्वपाणेहि-जाव-सव्वसत्तेहि तिविहं तिविहेणं यह मृषावादी सर्व प्राण-यावत् : समस्त सत्वों के प्रति तीन असंजय-अविरय-अपरिहयपत्याखायपावकम्मे सकि- करण, तीन मोग से असंयत, अविरत, पापकर्म से अधतिहत और रिए असंधुदे एगंतवर एगंतबामे याषि भवति। पापकर्म का अप्रत्याख्यानी, क्रियाओं से युक्त, संवररहित, एकान्त दण्डकारक एवं एकान्त बाल होता है। अस्स णं "सव्वपाहि-जाव-सम्यसत्तेहि पञ्चसायं" "मैंने सर्व प्राण - यावत्-सर्व सत्वों की हिंसा का प्रत्याइति वयमाणस्स एवं अभिसमन्नागतं भवति । म्यान किया है", यों कहने बाले जिस पुरुष को यह ज्ञात होता है कि, इमे जीवा, इमे अजीवा, ये जीव हैं, ये अजीव हैं, इमे तसा, इमे पावरा, ये त्रस है, ये स्थावर है, तस्स गं-जान-सुपरपसायं भवति, नो दुपच्चक्लायं उस पुरुष का-पावत्-प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यान होता है, भवति । एवं खसु से सुपरचक्खाई-जाव-एगंतपंहिते किन्तु दुष्प्रत्याख्यान नहीं होता है और यह सुप्रत्याख्यानी-यावत्पावि भवति । एकान्त पण्डित होता है। से तेण→णं योयमा ! एवं बुबह-जाव-सिय दुपच्च- इसीलिए हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि-पावत्क्लायं भवति । -वि. स.७, उ. २, सु.१ कदाचित् सुप्रत्याख्यान होता है और कदाचित् दुष्प्रत्याख्यान होता है। Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२] चरणानुयोग-२ हानपूर्वक प्रत्यारपान करने वाले सूत्र २५२-२५३ णाणपुरवगपच्चक्खाणकारी . शानपूर्वक प्रत्याख्यान करने वाले२५२. चत्तारि पुरिसजाया पणत्ता, तं जहा . २५२. पुरुष च.र प्रकार के कहे गये हैं, यथा१.परिणायकम्मे नाममेगे नो परिणायमणे, (१) कुछ पुरुष पाप कर्म का तो परित्याग कर देते हैं, किन्तु पाप भावना का त्याग नहीं कर पाते। २ परिणायसणे नाममेगे नो परिणायकम्मे, (२) कुछ पुरष पाप भावना का तो परित्याग कर देते हैं. किन्तु पाप कर्म का परित्याग नहीं कर पाते। ३. एगे परिण्णायकम्मे वि, परिणायसाणे वि, (३) कुछ पुरुष पाप कर्म और पाप भावना दोनों का परि त्याग कर देते हैं। ४. एगे ना परिचायकम्मे, नोकरभाससम्म । (४) कुछ पुरुष न पाप कर्म करना छोड़ते हैं और न पाप भावना का परित्याग करते हैं। चत्तारि पुरिसजाया पण्णता, तं जहा पुरुष चार प्रकार के होते हैं मथा१. परिण्णायकम्मे नाममेगे नो परिष्णायनिहावासे, (१) कुछ पुरुष पाप कर्म का परित्याग कर देते हैं किन्तु गृहवास का परित्याग नहीं करते। २. परिणायगिहावासे नाममेगे नो परिणायकम्मे, (२) कुछ पुरुष गृहवास का तो त्याग कर देते हैं किन्तु गु . वास के कार्यों का परित्याग नहीं कर पाते । ३. एगे परिण्णायकम्मे वि परिष्णायपिहावासे वि, (३) कुछ पुरुष पाप कर्म और गृह्यास दोनों का परित्याग कर देते हैं। ४. एगे गो परिष्णायकम्मे गो परिम्यायगिहावासे । (४) कुछ पुरुष पाप कर्म और गृहवास दोनों का परित्याग नहीं कर पाते। चत्तारि पुरिसजाया पण्णता, तं जहा-- पुरुष चार प्रकार के होते हैं, यथा-- १. परिण्णायसम्णे नाममेगे नो परिण्णायगिहावासे, (१) कुछ पुरुष पाप भावना का परित्याग कर देते हैं किन्तु गृहवास का परित्याग नहीं करते । २. परिणायगिहाबासे नाममेगे नो परिणायसम्णे, (२) कुछ पुरुष गृहवाम का त्याग कर देते हैं, किन्तु पाप भावना का त्याग नहीं करते । ३. एगे परिणायसपणे विपरिषणायगिहावासे वि, (३) कुछ पुरुष पाप भावना एवं गृहवास दोनों का परित्याग कर देते हैं। ४. एगे नो परिणायमण्णे नो परिणायगिहावासे । (४) कुछ पुरुष पाप भावना एवं गृहवास दोनों का परित्या -ठाणं. अ. ४, उ. ३, सु. ३२७ नहीं कर पाते । प्रतिक्रमण फल-६ पडिक्कमण फलं प्रतिक्रमण का फल२५३. १०-पडिक्कमणं मन्ते ! जीये कि जणयह ? २५३. प्र-भन्ते ! प्रतिक्रमण से जीव क्या प्राप्त करता है ? - उ०-परिक्कमणेगं बयछिद्दाई पिहेई। पिहियवयछिदे पुण ३०-प्रतिक्रमण से वह प्रत के छिद्रों को ढक देता है। जौवे निवासवे, असबलचरित्ते, असु पवयणमायासु जिसने व्रत के छेदों को भर दिये वह जीव आश्रवों को रोक देता उवउत्ते अपुहते सुप्पणिहिए बिहरह। है, चारित्र छिटों को मिटा देता है, पाठ-प्रवचनमाताओं में सात्र-उत्त. अ. २६, सु. १३ धान हो जाता है, संयम में एकरस हो जाता है और भली-भांति समाधिस्थ होकर विहार करता है। Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र २५४-२५८ प्रत्याख्याम का फल संयमी जीवन १०३ पच्चक्खाण फल-७ पच्चक्खाणं-फल प्रत्याख्यान का फल-- २५४. ५०-पच्चक्खाणणं भन्ते ! जीवे कि जणयह ? २५४.७०-भन्ते ! प्रत्याभ्यान से जीव क्या प्राप्त करता है? ज० .. परचक्खाणेणं आसक्दारा निम्ड ।। उ.--प्रत्याख्यान से वह आथव-द्वारों का निरोध करता है। -उत्त, अ, २६, सु०१५ संभोग-परचक्वाण-फलं संभोग प्रत्याख्यान का फल२५५. प० संमोग-पच्चक्खाणं भंते 1 जीबे कि जणयइ ? २५५, प्र मन्ते ! संभोग के प्रत्याख्यान से जोब क्या प्राप्त करता है? उ० . संभोग-पच्चक्लागणं आलंबणाई खवेह निरासंदणस्स उ०-संभोग प्रत्याख्यान से जीव का परावलम्बीपन छूट य आययट्ठिया जोगा भवंति । सएणं लाभेणं संतुस्सह जाता है। स्वावलम्बी होने से उसकी सभी प्रवृत्तियां आत्म परलाभं नो आसावेद, नो तपकेह. नो पीहेइ, नो प्रयोजन वाली हो जाती हैं, वह अपने लाभ में मन्तुष्ट रहता है। पत्थेइ, नो अभिलसइ । परलार्म अणासायमागे, पर के लाभ का उपभोग नहीं करता कल्पना नहीं करता, इच्छा अतक्केमाणे, अपोहेमाणे, अपत्थेमाणे, अमिलसमाणे. नहीं करता, प्रार्थना नहीं करता और अभिलाषा नहीं करता है । दुच्च मुहसेज उपसंपज्जित्ता ण विहर। इग प्रकार पर के लाभ का आस्वादन, कल्पना, चाहना, प्रार्थना ... उत्त. अ २६. सु. ३५ और अभिलापा न करता हुआ वह दूसरी स्थलाम संतोष-सुख शय्या (प्रथम सुख-शव्या संवम) को प्राप्त करके विवरण करता है। उहि-परचक्खाण-फलं उपधि प्रत्यख्यान का फल .. २५६ १०- उवहिपच्चक्खाणेणं मन्ते । भीखे कि जणयह? २५६ प्र०-भन्ते उपधि (वस्त्र आदि उपकरणों) के प्रत्याख्यान से जीव क्या प्राप्त करता है? उ० . उवहिपच्चवखाणं अपलिमन्य जणयह । नियहिए - उपधि के प्रत्याख्यान से वह स्वाध्याय ध्यान में होने गं जीवे निक्कचे उवहिमंतरेण य न संकिलिस्सई। वाली क्षति से बच जाता है। उपधि रहित मुनि अभिलाषा से -उत्त, अ. २०, सु. ३६ मुक्त होकर उपधि के अभाव में मानसिक संक्लेश को प्राप्त नहीं होता। आहार-पच्चक्खाण-फलं आहार प्रत्याख्यान का फल२५७ प०-आहारपच्चक्खाणेणं मन्ते ! जीवे कि जणयह ? २५७.३० भन्ते ! आहार-प्रत्याख्यान से जीव क्या प्राप्त करता है? उ०-आहारपच्चखाणेगं जीवियासंसप्पओगं वोग्छिदइ, उ०—बाहार-प्रत्याख्यान से बह जीवित रहने की लालसा जोवियासंसपोगं शेच्छिन्निसा जीवे आहारमंतरेणं करना छोड़ देता है। जीवित रहने की अभिलाषा छोड़ देने न संकिलिस्सद । - उत्त. अ. २६, सु. ३७ वाला व्यक्ति आहार के बिना (तपस्या आदि में) संक्लेश को प्राप्त नहीं होता । कसाय-पच्चक्खाण-फलं -- कषाय-प्रत्याख्यान का फल - २५८. ५०-फसायपञ्चपस्त्राणं मन्ते । जीवे कि जणयह ? २५८.०-भन्ते ! कषाय (क्रोध मान, माया और लोभ) के प्रत्याख्यान से जीव क्या प्राप्त करता है? ज-सायपच्चखाणेणं वीयरागमा जणयह । वीयराम- ज० - कषाय-प्रत्याख्यान से वह वीतराग-भाव को प्राप्त भावपडिबग्ने य जीवे समसुहदुरले भवा होता है। वीतराग-भाव को प्राप्त हुआ जीव सुख-दुःख में सम -इत्त, अ. २६ सु. ३८ भाव को प्राप्त होता है। Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ चरणानुयोग-२ योग-प्रत्याख्यान का फल सूत्र २५६-२६३ जोग-पश्चाक्खाण-फल योग-प्रत्याख्यान का फल२५९. प०-जोगपच्चरखाणेणं भन्ते ! जीवेक जणय ? २५९. प्र.-भन्ते ! योग (मन, वचन, काया की प्रवृत्ति) के प्रत्याख्यान से जीव क्या प्राप्त करता है ? -योगपचक्लाणे अजोगतं जणयह । अजोगी उ.-योग-प्रत्याख्यान से वह अयोगत्व को प्राप्त होता है। जीवे नवं कम्म नबन्धह पुण्य निम्जरेइ। अयोगी जीव नए कर्मों का उपार्जन नहीं करता और पूर्व उपाजित -उत्त, अ. २६ सु. ३६ कर्मों को भीण कर देता है। सरीर-पच्चक्खाण-फल शरीर-प्रत्याख्यान का फल२६. १०-सरीर-पच्चखाणेणं भन्ते ! जीवे कि जणयह? २६०. प्र.-भन्ते ! शरीर का स्पाग करने से जीव क्या प्राप्त करता है? उ.--- सरीरपस्वखाणेगं सिडाइसयगुगत निश्वत्ता 3०- शरीर का त्याग करने से यह मुक्त अवस्था के अति सिवाइसयगुणसंपन्ने प ग जोवे लोगग्गमुखगए परम- शम गुणों को प्रकट करता है, मुक्त आत्माओं के अतिशय गुणों सुही भवद । -उत्त, अ. २६ सु. ४० को प्राप्त करने वाला जीव लोक के शिखर में पहुंचकर परम सुखी हो जाता है। सहाय-पच्चक्खाण-फलं सहाय प्रत्याख्यान का फल२६१.५०-सहायपग्धताणेणं भंते जीवे कि जणयह? २६१. १०-भन्ते ! सहाय-प्रत्याख्यान (दूसरों का सहयोग न नेने) से जीव क्या प्राप्त करता है? उ.-सहायरचक्खाणणं एगीमा जणयह । एगीमावभूए उ०-सहाय-प्रत्याख्यान से वह एकत्वभाव को प्राप्त होता विय गं जीवे एगग्गं भावेमागे अप्पस, अप्पझो, है । एकत्वभाव को प्राप्त हुआ जीव एकत्व के बालम्बन का अप्पकलहे. अप्पकसाए, अप्पतुमंतुमे, संजमबहुले, संवर अभ्यास करता हुआ कोलाहल पूर्ण शब्दों से मुक्त, कलह से मुक्त, बहुले, समाहिए यावि भवद । झगड़े से मुक्त, कषाय से मुक्त, तू-तू से मुक्त, विशिष्ट संयम -उत्त. अ. २६, सु. ४१ बाला, विशिष्ट संवर वाला और समाधि युक्त हो जाता है। मत-पच्चक्खाण-फलं भक्त-प्रत्याख्यान (अनशन का फल२६२. पत-भत्तपरक्याणे भन्ते । जीवे कि जणयह? २६२. ३०-भन्ते ! भक्त-प्रत्याख्यान (अनशन) से जीव क्या प्राप्त करता है ? उ.-मसपच्चक्लागं अणगाई भवसयाई निहम्मड। उ०-भक्त-प्रत्याख्यान से वह अनेक संकड़ों भवों का निरोध उत्त, अ. २६, सु. ४२ करता है। सम्भाव-पच्चक्याण-फलं सद्भाव-प्रत्याख्यान का फल२६३. प०-सम्भावपस्चक्खाणेणं भन्ते । जीवे कि जणवर? २६३.प्र. भन्ते ! सदभाव-प्रत्याख्यान (पूर्ण संबर रूप शैलेशी भवस्था) से जीव क्या प्राप्त करता है? उ.-सम्भावपच्यासाणेणं अनिपट्टि जणयह । नियट्टि उ०—सदभाव-प्रत्याख्यान से बह अनिवृत्ति (शुक्ल ध्यान) परिवन्ने यजगारे सारि केवलिकम्मसे जबेह, को प्राप्त होता है -अनिवृत्ति को प्राप्त हुआ अणगार केवली के तं जहा विद्यमान चार कर्मों को क्षीण कर देता है । यथा१. वेयणिज्ज, २. आउयं, (१) वेदनीय कम, (२) आयुष्यकर्म, ३. नाम, ४. गोयं । (३) नाम कर्म, (४) गोत्र कर्म । तो पन्छा सिज्मइ, बुनाह, मुच्चा, परिनिवाएद उसके पषचात् वह सिद्ध होता है, बुद्ध होता है, मुक्त होता सत्यधुक्खाणं अन्तं करे। - उत्त. अ. २६, सु. ४३ है, पूर्ण शांति को प्राप्त करता है, और सब दुःखों का अन्त करता है। १ भक्त प्रस्याश्यान अनशन का वर्णन 'अनशन' तप में देखिये । Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र २६४-२६६ प्रत्याश्यान मंग का प्रायश्चित्त सूत्र गृहस्थ धर्म [१०५ परचक्खाण-भंजण-पायच्छित्त-सुत्तं - प्रत्याख्यान भंग का प्रायश्चित्त सूत्र२६४, जे भिक्खू अभिक्सगं अभिवखणे पचमलाणं भंजद भजत २६४. जो भिक्षु बार-बार प्रत्याख्यान तोड़ता है, तुड़वाता है या वा साइजइ। तोड़ने वाले का अनुमोदन करता है। त सेवमाणे आवजई चाउम्मासिन परिहारदाण उपघाइयं उसे चातुर्मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि. उ. १२, सु. २ जाता है। गृहस्थ-धर्म गृहस्थ धर्म-१ समणोवासगप्पगारा श्रमणोपासकों के प्रकार--- २६५. पत्तारि समणोवासमा पण्णता, तं जहा - २६५. श्रमणोपासक चार प्रकार के कहे गये हैं । यथा१. अम्मापितसमागे, २. भाइसमाणे. 1) माता-पिता के समान, (२) भाई के समान, ३. मिससमाणे, ४. सत्तिसमाणे । (३) मित्र के समान, (४) सपत्नी (सोक) के समान । पत्तारि समणोबासगा पग्णता, तं जहा पुनः श्रमणोपासक चार प्रकार के कहे गये हैं । जैसे१. अद्दागसमाणे, २. पडागसमाणे, (१) दर्पण के समान, (२) ध्वजा के समान, ३. खाणुसभाणे, ४. खरकंटमसमाणे। (३) ढूंठ के समान, (४) तीक्ष्ण कांटे के समान । —ाणं. अ. ४, उ. ३. सु. ३२२ समणोवासगस्स चत्तारि आसासा श्रमणोपासक के चार विश्रान्ति स्थान-- २६६. भारणं वहमाणस चत्तारि आसासा पण्णसा, तं जहा- २६६. भारवाही के लिए चार आश्वास (विधाम) स्थान होते है१. अस्प अंसाओ असं साहरइ, तस्यविय से एगे मासासे (१) पहला आश्वास तब होता है जब वह भार को एक पष्णते, कंधे से दूसरे कंधे पर रख लेता है, २. जत्य वि में गं उपचारं वा पासवणं वा परिवेति, (३) दुसरा आश्वास तब होता है जब वह भार को रखकर तत्थविय से एगे आसासे पण्णत्ते, लघुशंका या बड़ी शंका करता है, ३. जत्थवि य ण णागकुमारावासंसि था, मुग्णकुमारा- (३) तीसरा माश्यास तब होता है जब वह नागकुमार, वासंसि वा वास उति, तरपति य से एगे आसासे पण्णत्ते, सुपर्णकुमार आदि के आवासों में (रात्रिकालीन) निवास करता है, ४. जत्थवि य गं आवकहाए चिति, सत्यवि य से एगे (४) बौथा आश्वास तब होता है जब यह कार्य को सम्पन्न आसासे पण्णते। कर भारमुक्त हो जाता है। एवामेव समणोवासगस्स चत्तारि आसासा पण्णसा. इसी प्रकार श्रमणोपामक (श्रावक) के लिए भी पार तं जहा आश्वास होते हैं१. जयदि य णं सोलवयगुणव्यय-वेरमगं-पन्चक्वाण- (१) जब वह शीलवत, गुणवत, विरमण, प्रत्याख्यान और पोसहोववासाई पजियजति. तत्थवि य से एगे आसासे पौषधोपवास को स्वीकार करता है, तब पहला आश्वास होता है। पण्णसे, २. जयवि घणं सामाइयं देसावगासियं सम्ममणुपालेइ, (२) जब बह सामायिक तथा देशावकाशिक यत का सम्यक तस्थति य से एगे आसासे पण्णते, अनुपालन करता है तब दूसरा आश्वास होता है, Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १.६ चरणानुयोग-२ सामान्य रूप से अतिचारों का विशुद्धिकरण सूत्र २६६-२७० ३, जयवि य गं धाउद्दसमुद्दिपुग्णमासिणीसु पडिपुणं (३) जब वह अष्टमी, चतुर्दशी, अमावस्या तथा पूर्णिमा के पोसहं सम्म अणुपालेह, तस्यवि य से एगे आसासे पण्णते, दिन परिपूर्ण-दिन रात भर पौषध का सम्यक् अनुपालन करता है, तब तीसरा भाश्वास होता है, ४. जत्थवि य अपच्छिममारणंतियसलेहणा-सूसणा-भूसिते (४) जब वह अन्तिम मारणांतिक संलेखना की आराधना मत्तपाणपडियाक्खिते पाओवगते कालमणवक्खमाणे बिह- से युक्त होकर भक्त-पान का त्याग कर पादोपगमन अनशन को रति, तत्यवि य से एगे आसासे पण्णते। स्वीकार कर मृत्यु के लिए अनुत्सुक होकर विहरण करता है, -ठाणं. अ. ४, उ. ३. सु. ३१४ तब चौथा आश्वास होता है। ओघाइयार विसोहोकरणं सामान्य रूप से अतिचारों का विशुद्धिकरण२६७, इच्छामि ठामि कास्सग, जो मे देवसिओ अारो को २६७. मैं कायोत्सर्ग करना चाहता हूँ, जो मैंने दिबस सम्बन्धी काइओ, वाइमो, मागसिओ, उस्सुत्तो, उम्मग्गो, अकप्पो, अतिचार किये हों वे कायिक, वाचिक, मानसिक, सूत्र से विरुद्ध, अकरणिन्नो, दुझाओ, दुविचितिओ अणायारी अणिन्छि- मार्ग से विरुख, अकल्पनीय, नहीं करने योग्य, दुर्ध्यान रूप, यच्यो असावगपावागो । नागे तह बसणे परिसाचरिते सुए दृश्चिन्तन रूप, नहीं आचरने योग्य, नहीं चाहने योग्य, श्रावक सामाइए तिम्हं गुत्तीणं, चउन्हं कसायाणं, पंचहं अणुन- के लिए अनुचित, ज्ञान, दर्शन व चारित्राचारित्र में, श्रुत शान में, याण, सिहं गुणध्वयार्ण, चउहं सिक्खाबयाणं, बारस सामायिक में तथा तीन गुप्ति की, चार कषायों से निवृत्ति की, विहस्स सावगधम्मस्स जखडियं जं बिराहियं तस्स मिच्छामि पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाप्रत एवं बारह प्रकार -आव. अ.४ के धावक धर्म की जो खण्डना की हो, जो विराधना की हो तो उसका दुष्कृत मेरे लिए मिथ्या हो । अप्पाउबंधकारणाई अल्पायु बंध के कारण२६८. तिहि ठाणेहिं जीवा अप्पाजयत्साए कम्म पगति तं जहा- २६८, तीन प्रकार से जीव अल्प आयुष्य कर्म बांधते हैं, यथा - १. पाणे अतियानित्ता भवति, २. मुस यतिता भवति, (१) प्राणियों की हिंसा करने से, (२) असत्य बोलने से, ३. तहाकव समर्ण वा माहणं या अफासुएणं अणेसणिज्जेणं (३) तथारूप घमण माहन को अप्रासुक, बनेषणीय अशन, असण-पाग-खाइम-साइमेणं पडिलामेता भवति, पान, खाध, स्वाद्य, आहार का दान करने से। इच्चतेति तिहिं ठाणेहि जीवा अप्पाजयत्ताए कम्म पयरेंति । इन तीन प्रकारों से जीव मल्प आयुष्य कर्म का बन्ध - ठाणं. अ. ३, उ. १, सु. १३३ (१) करते हैं। बोहाउबंध कारणाई दीर्घायु बंध के कारण२६६. तिहि ठाणेहि जीवा दीहाउयत्ताए कम्म पगति, तं जहा- २६६. तीन प्रकार से जीव दीर्घायुष्य कर्म बांधते हैं, यया१. गो पाणे अतिवातित्ता भवति, (१) प्राणियों की हिसा न करने से, २. णो मुसं पतिता भवति, (२) असत्य न बोलने से, ३. तहारूव-समणं वा माहणं वा फास्यएमणिग्जेणं असण- (३) तथारूप श्रमण माहन को प्रामुक एषणीय अशन, पान, पाण-खाइम-साइमेणं पडिलाभेत्ता भवति, खाद्य, स्वाध आहार का प्रतिलाभ करने से, इच्चतहि तिहि वाहिं जीवा वोहाउयताए कम्म पगरेति । इन तीन प्रकारों से जीव दीर्घ आयुष्य कर्म का बन्ध --ठाणं. अ. ३, उ. १, सु. १३३ (२) करते हैं। असुह दोहाउबंधकारणाई अशुभ दीर्घायु बंध के कारण२७०. तिहिं गणेहि जोवर असुभदोहाउयसाए कम पगरेंति, २७०. तीन प्रकार से जीव अशुभ दीर्घायुष्य फर्म बांधते हैं, तं जहा यथा१. पाणे अतियातिता भवति, २. मुसं बतित्ता भवति, (१) प्राणों का घात करने से, (२) मृषावाद बोलने से, ३. तहारूवं समणं वा माहर्ग वा हीलिता, णिविता, (३) तयारूप श्रमण माहन बी अवहेलना, निन्दा, अवज्ञा, Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०१-२७३ P लिखित्ता, गरहिता, अवमाणित्ता अनयरेगं अमगुण्णेणं अपीह-कारण असण-पान-खान-साइमे पढितामेता भवति, इज्तेहि तिहि ठाणेहि जोवा अनुभवोहाय्यसाए कम्म गति । - ठा. अ. ३, उ. १, सु. १३३ (३) सुहवोहार बंध कारणाई२०१. हि लं जहा १. मी पाचे अतिवाता भवति, २. यो बरामद २. समय माहणं या दिशा नानाऐसा सम्माता कहलाणं मंगलं देवयं चेइयं पवासेसा मयुष्णं पीइकारएणं असमान वाइम साइमेनं पडिला भेता भवति । इच्येतेहि तिहि ठाणेहि जीवा सुभवीहाउयताए कम डा. अ. ३ . १ . १३३ (४) ग 1 शुभ दीर्घायु बन्ध के कारण समत्त सरूवं अडवारा ब२७२. से सम्पले सत्य-सम्म मोहणीय-सम्भाणुवेयनोवसम यसमध्ये पस-संपाइल सुहे आप परिणामेतं । १. सं २. वि ५. परपासंसंघ के 12 इन तीन प्रकारों के जीव अशुभ दोघं आयुष्य कर्म का बन्ध करते हैं । शुभ दीर्घायु बन्ध के कारण - जीवा सुभवोहाजलाए कम्मं पति २७१. वीन प्रकार से नीच दीर्घायुष्य कर्म बांचते हैं, यथा--- सम्मत्तस्स समणोवास एवं पंच अइयारा पेयाला जाणियस्वा न समायरियवा तं जहा - २. कंखा, ४. परवापा 陶鐵 समकित सहित बारह व्रत – २ १ विया. श. ५, उ ६. सु १.४ ॥ गृहस्वधर्म आव. अ. ६, सु. ६४-६५ पंचातिचार विसुद्ध अनुययगुणयवाद ि अगय पडिमा विसेसकरमजोगा अपना मारणंतिया सासारामा । - आव. म. ६, सु. ६४ गर्हा और अपमान करने से तथा अन्य अमनोज अप्रीतिकर अमन, पान, साय, स्वाद्य का प्रतिलाभ करने से, खाद्य, [१०७ (१) प्राणों का घात न करने से, (२) मृषावाद न बोलने से, ( ३ ) तथारूप श्रमण माहन को वन्दन - नमस्कार कर, उनका सत्कार सम्मान कर कल्याण-रूप, मंगलरूप, देवरूप तथा ज्ञानवंत मानकर उनकी सेवाभक्ति कर उन्हें मनोश एवं प्रीतिकर अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य आहार का प्रतिलाभ करने से । इन तीन प्रकारों से भी शुभ दीर्घायुष्य कर्मका करते है। सम्यक्त्व का स्वरूप और अतिचार २७२. यह सम्यक्त्व-मोहनीय कर्म के उदय प शम अथवा क्षय से निष्पन्न, सभ संवेग आदि का हेतुभूत एवं आत्मा के शुभ परिणामस्वरूप कहा गया है । (१) (३) विकित्सा (५) पर-पायंड- संस्तव । सम्यक्त्व की प्रधानता समत्त पाहणं २७२. एतस्स पुण समणोबा सगधम्मस्स मूलबरणुं सम्पत्तं । तं २७३. इस श्रमणोपासक धर्म का मूल सम्यक्त्व है। वह सम्यक्त्व निसगोण वा अधिगमेण वा । स्वभाव से या उपदेश से होता है । पाँच अतिचारों से विशुद्ध सम्ययुक्त तत अभिग्रह और अन्य प्रतिमा मादि विशेष करने योग्य धार्मिक आचार वालों को जीवन के अन्त में या मरण समय में कवाय पाक के लिए संलेखना करनी चाहिए। २ उषा. अ. १, सु. ४४ । श्रमणोपासक को सम्यक्त्व के पाँच मुख्य अतिचार जानने योग्य हैं आचरण करने योग्य नहीं हैं। वे अतिचार इस प्रकार हैं (२) कक्षा (४) पर-पार्थसा Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८] वरणानुयोग-२ धावक धर्म के प्रकार सघ २७४.२७५ समणोवासगधम्मप्पगारा २७४. अगारधम्म दुवालसविहं आइक्खा, तंजहा श्रावक धर्म के प्रकार२७८. भगवान् ने श्रावक-धर्म बारह प्रकार का बतलाया है यथा पंच अणुब्बयाई, तिण्णि गुणव्दयाई, सारि सिपसावयाई । पाँच अणुनत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाप्रत । पंच अणुब्बया तं जहा पांच अणुव्रत इस प्रकार है१. थूलामो पाणाइवायाओ वेरमणं, (१) स्कूल प्राणातिपात से निवृत्त होना, २. यूलाओ मुसावायाओ वेरमण, (२) स्थूल मृषावाद से निवृत्त होना, ३. बुलाओ अदिण्णावाणाओ देरमगं, (३) स्थूल अदनादान से निवृत्त होना, ४. सवारसंतोसे, (४) म्वदार संतोष करना, ५. छापरिमाणे (५) इच्छा का परिमाण करना 1 तिणि गुणम्बयाई तं जहा तीन गुणवत इस प्रकार हैं६, दिसिम्वयं, (६) दिग्बत दिशा का परिमाण करना, ७. उवमोगपरिमोगपरिमाण, (७) उपभोग-परिभोग का परिमाण व्रत, ५. अणत्थदंडवेरमणं । (८) अयंदण्ड से निवृत्त होना। चत्तारि सिपखावपाई, तं जहा चार शिक्षावत इस प्रकार हैं ६. सामाइयं, १०. देसावगासियं. (8) सामाश्रिक त्रत. (१०) देशावकाशिक व्रत, ११. पोसहोववासे, १२. अतिहित विभागे। (११) पोषधोपवारा प्रत, (१२) अतिथि-रात्रिभाग ब्रत । अपच्छिमा मारणतिया सलेहणालमगाराहणा । तथा अन्तिम मरणरूप संलेखना-अनगन की आराधना । अयमाउसो ! अगारसामाइए धम्मे पण्णते । एपस्स धम्मस्स हे आयुष्यमन् ! यह गृहस्थ का आचरणीय धर्म है। इस सिमखाए उबट्ठिए समणोबासए वा समणोवासिया वा विहर- धर्म के अनुसरण में प्रयत्नशील होते हुए श्रमणोपासक या श्रमणोमाणे आणाए आराहए मवई'। - उबा. अ. १, सु. ११ पासिका आमा के आराधक होते हैं। एत्य पुण समणोवासगधम्मे पंचागुम्खयाई सिनि गुणवयाई इस बारह प्रकार के श्रमणोपासक धर्म में पांच अणुव्रत और आयकहियाई चत्तारि सिक्सावयाई इत्तरियाई। तीन मुणवत जीवन पर्यन्त के लिये ग्रहण किए जाते हैं तथा चार -आर. अ. ६. सु. ६३ शिक्षाव्रत अल्प काल के लिए ग्रहण किए जाते हैं। यूल-पाणाइवाय-विरमणस्स सरूवं अइयारा य स्थूल-प्राणातिपात - विरमण - व्रत का स्वरूप और अतिचार२७५. थूलगपाणाहवायं समणोवासो पश्चक्खाइ। से य पाणा- २७५. स्थूल प्राणातिपात का श्रमणोपासक प्रत्याख्यान करता वाए दुविहे पन्नते. तं जहा -- है। वह प्राणातिपात दो प्रकार का कहा गया है । जैसे१. संकप्पओ य, २. आरम्भओ य, (१) मंकल्प से, (२) आरम्भ से, तस्य समणोबासओ संकप्पो जायज्जीवाए पच्चरवाह, नो उसमें धमणोपासक संकल्प से स्थूल प्राणातिपात का यावआरम्भओ। ज्जीवन प्रत्याख्यान करता है, आरम्भ से स्यूल-प्राणानिपात का प्रत्याश्यान नहीं करता है। थूलगपाणाइवायरमणस्स समणोवासएणं इमे पंच अइयारा श्रमणोपासक को स्थूल प्राणातिपात विरमण अत के पांच जागियव्या, न समायरियल्वा । तं जहा प्रमुख अतिचार जानना चाहिए उनका आचरण नहीं करना चाहिए । वे इस प्रकार हैं१. बंधे, २. वहे, (१) बाँधना, (२) मारपीट करना, ३. छविच्छेए, ४. अइभारे, (३) अंगोपांग का छेदन करना, (४) अधिक भार लादना, ५. मत्त-पाण-वोच्छेए। -आव. अ. ६, सु. ६६-६७ (५) भोजन पानी बन्द करना । १ ३ ठाण. भ.१.उ.१, सु. ३८९ | उवा. २. १, सु. ४५ । २ उव. सु. ५७। Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र २७६-२७६ स्यूल-मृषावाव-विरमग-व्रत का स्वरूप और अतिचार गृहत्य धर्म [१०६ थूल-मुसाबायविरमणस्स सहवं अइयाराय स्थूल-मृषावाद-विरमण-व्रत का स्वरूप और अतिचार२७६. धूलगमुसावा समणोवासओ पञ्चक्खाइ। सेब पुसावाए २७६. श्रमणोपासक स्थूलमृषावाद का प्रत्याख्यान करता है । वह पंचविहे पन्नते, तं महा मृषाबाद पांच प्रकार का कहा गया है । जैसे - १. कन्नालीए. (१) कमा सम्बन्धी मृषावाद, २. गोवालीए, (२) गाय आदि पशु सम्बन्धी मृषावाद, ३. भोमालीए. ४. नासाबहारो, (३) भूमि सम्बन्धी मृषावाद, (४) धरोहर का अपहरण, ५. कूडसंविखजले। (५) कूट साक्षी अर्थात् शूठी साक्षी । बुलगमुसावायवेरमणस्स समणोवासएक पंच अइयारा जाणि- श्रमणोपासक को स्थलमृषावादविरमण व्रत के पांच प्रमुख यस्वा न समायरियम्वा । अतिचार जानना चाहिए, उनका आचरण नहीं करना चाहिए । तं जहा वे इस प्रकार हैं१. सहसाझमक्खाणे, (१) सहसा (बिना विचारे) झूठा कलंक लगाना, २. रहस्साकमक्खाणे, (२) एकान्त में मन्त्रणा करने वालों पर आरोप लगाना । ३. सबारमंतभेए, (३) स्थी की गुप्त बातें प्रगट करना। ४. मोसोयएसे, (४) मिथ्या उपदेश देना या खोटी मलाह देना । ५. कूडलेहकरणे'। -आव. अ. ६.सु. ६८-६६ (५) असत्य लिखावट करना। थूल-अवत्तादाण-विरमणस्स सरूवं अइयारा य स्थूल-अदरसादान-विरमण-व्रत का स्वरूप और अतिचार२७७. थूलगअवसादागं समणोवासओ पच्चयाई । से य अवत्ता- २७६. श्रमणोपामक स्थूल अदत्तादान का प्रत्याख्यान करता है। दाणे दुबिहे पालते, त जहा यह अदत्तादान दो प्रकार का कहा गया है। जैसे --- १. सचित्तादत्तादाणे य, (१) सचित्त अदत्तादान, २. अविसावत्तावाणे य। (२) अचित्त अदत्तादान, थूलग अदिग्णादाणवेरमणस्स समणीबासएणं इमे पंच अद- श्रमणोपासक को स्थूल अदतादानविरमण व्रत के पाँच यारा जाणियल्वा न समायरियब्धा । तं जहा प्रमुख अतिचार जानना चाहिए उनका आचरण नहीं करना चाहिए। वे इस प्रकार है१. सेणारी, (१) चोरी की वस्तु लेना, २. तक्करप्पओगे, (२) चोर को महायता देना, ३. विद्य-रज्जाइक्कमणे, (३) राज्य-विन्द्र का करना, ४. कूबतुल्ल-फूलमाणे, (४) झूठा तोल व माप करना, ५. तप्पाजश्वववहारे। -आव. अ. ६. सू. १०-११ (५) अच्छी वस्तु दिखाकर बराव देना। चुल-मेहण-विरमणस्स सरूवं अइयारा य । स्थूल-मैथुन-विरमण-वत का स्वरूप और अतिचार२७८. परदारगमण समणोवासओ पच्चरखाइ, सवारसंतोसंवा पडि- २७८. श्रमणोपासक परस्त्रीगमन का प्रत्यास्यान करता है और बज्जई। स्वदारा से संतोष करता है। से व परदारगमणे विहे पत्ते, जहा परस्त्रीगमन दो प्रकार का कहा गया है । जैसे१. ओरालिय-परदारगमणे य, २. वेउध्विय-परदारगमणे पा (१) औदारिक परस्त्रीगमन, (२) वैश्यि परस्त्रीगमन । सदार-संतोसस्स समणोवासएक इमे पंच अइयारा जाणियच्या श्रमणोपासक को स्वदारसंतोष-व्रत के पांच प्रमुख अतिचार न समायरियडवा, तं जहा जानना चाहिए उनका आचरण नहीं करना चाहिए। वे इस प्रकार हैं-- १. इत्तरियपरिग्गहियायमणे, (१) अल्प वय वाली स्त्री के साथ गमन करना, १ उया. अ. १. सु. ४६ । २ स्वा. अ. १, सु. ४७ । Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११०] चरणानुयोग-२ परिग्रह-परिमाण-प्रत का स्वरूप और अतिधार सूत्र २७८-२८१ २. अपरिहियागमणे, (२) विवाह के पूर्व स्त्री के साथ गमन करना, ३. अणंगकीडा, (३) अन्य अंग से काम क्रीडा करना, ४. परविवाहकरणे, (४) अन्य का विवाह कराना, ५. काममोगतिण्याभिलासे ।। -आव. स. ६,सु.७२-७३ (५) काम भोग की तीन अभिलाषा करना । परिग्गह-परिमाणस्स सहवं अइयारा य परिग्रह-परिमाण-व्रत का स्वरूप और अतिचार२७६. अपरिमियपरिगह समणोवासओ पचममाति, इच्छापरिमाणं २७६. श्रमणोपासक अपरिमित परिग्रह का प्रत्याख्यान करता है उपसंपज्मा । एवं इच्छाओं का परिमाण करता है। से य परिगहे बुविहे पत्ते, तं जहा परिग्रह दो प्रकार का कहा गया है । जैसे१. सचित्तपरिग्गहे य, २. अविसपरिगहे य । (१) सचित्त परिग्रह, (२) अचित्त परिग्रह । इच्छा परिमाणस्स समणोवासएणं इमे पंच अहयारा आणि- श्रमणोपासक को इच्छा-परिमाण-व्रत के पांच प्रमुख मतियम्वा, न समायरियम्वा । तं जहा चार जानना चाहिए, उनका आचरण नहीं करना चाहिए । वे इस प्रकार हैं१. खेत्त-वत्थु-पमाणाइक्कमे । (१) घर तथा बुली भूमि के परिमाण का अतिक्रमण करना । २. हिरण-सुवष्ण-पमाणाइक्कमे । (२) सोना-चांदी के परिमाण का अतिक्रमण करना। ३. घण-धम्न-पमाणाइक्कमे । (३) धन-धान्य के परिमाण का अतिक्रमण करना । ४. दुपय-बउप्पय-पमाणाइएकमे।। (४) द्विपद-चतुष्पद के परिमाण का अतिक्रमण करना । ५. कुविय-पमाणाइक्कमे । -आव. अ. ६, सु. ७४-७५ (५) अन्य सामग्री के परिमाण का अतिक्रमण करना । दिसिक्य सहवं अइयारा य दिशावत का स्वरूप और अतिचार - ८०. दिसिवए तिबिहे पन्नते । तं जहा २८०. दिन्नत तीन प्रकार के कहे गए हैं१. उपखदिसिपए, २. अहीदिसिवए, (१) ऊर्ध्व दिशापमाण व्रत, (२) अधोदिशा प्रमाण व्रत, ३. तिरिदिसिवए। (३) तिर्यक-दिशा प्रमाण व्रत । विसिवपस्स समणोवासएणं इमे पंच अइयारा जाणियब्या, श्रमणोपासक को दिशावत के पांच प्रमुख अतिचार जानना न समायरियण्वात जहा चाहिए, उनका आचरण नहीं करना चाहिए । वे इस प्रकार है१. उदिसिपमाणाइक्कमे । (१) ऊँची दिशा के परिमाण का अतिक्रमण करना । २. अहोदिसिपमाणाइक्कमे । (२) नीची दिशा के परिमाण का अतिक्रमण करना । ३. तिरियविसिषमागाइक्कमे । (३) तिरछी दिशा के परिमाण का अतिक्रमण करना। ४. खेतो , (४) एक दिशा में घटाकर दुसरी दिशा में क्षेत्र बढ़ाना । ५. सइअंसरवा । आव. अ. ६. सु.७६-७७ (५) क्षेत्र परिमाण के भूलने पर आगे चलना । उवभोग-परिभोग-परिमाणस्स सहवं अइयारा य-- उपभोग-परिभोग-परिमाण-व्रत का स्वरूप और अतिचार२८१. उवभोगपरिभोगबए विहे पण्णत्ते, सं जहा २८१. उपभोग-परिभोग दो प्रवार का कहा गया है--- १. भोयणओ य, २. कम्मओ य । (१) भोजन की अपेक्षा से, (२) कर्म को अपेक्षा से। भोयणओ समणोवासएणं इमे पंच अइयारा जाणियस्वा न भोजन की अपेक्षा से श्रमणोपासक को पांच अतिचार जानने न समायरियडवा, तं जहा चाहिए, उनका आचरण नहीं करना चाहिए । वे इस प्रकार हैं१. सचित्ताहारे, (१) प्रत्याख्यान उपरांत गचित्त का आहार करना । २. सनित्तपडियाहारे, १२) सचित्त संबद्ध का आहार करना । ३. अप्पर लिओसहिमक्खणया, (३) अपक्त्र को पक्व समझकर जाना । २ उया. अ.१,सु. ४६ । १ ३ उवा. अ.१, सु. ४८ । स्वा. अ.१, सु. ५० । Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्र २८१-२८४ पन्ध्र का दान हस्थ धर्म [१११ ४. चुप्पउलियोसहिमवलणया, (४) अर्धपक्ष्य को पूर्णपक्व समझकर खाना। ५. तुच्छोसहिमक्खगया । -आव. अ. ६, सु. ७८-७९ (१) (५) तुच्छ वस्तुओं का आहार करना। पण्णरस कम्मावाणाई पन्द्रह कर्मादान२८२. कम्मओ पं समणोबासएणं पण्णरस कम्मााणाई आणि- २८२. कर्म की अपेक्षा से श्रमणोपासक को पन्द्रह-कर्मादान जानना यवाई न समायरियव्याई। तं जहा चाहिए, उनका आचरण नहीं करना चाहिए । वे इस प्रकार है१. इंगालकम्मे, (१) अग्नि आरम्भजन्य कर्म, २. वणकम्मे, (२) बनस्पति आरम्भ जन्य कर्म, ३. साडीकम्मे, (३) बाहृन निर्माण फर्म, ४. भाडीकम्मे, (४) वाहन द्वारा भाड़ा कमाने का कर्म, ५. फोडीकामे, (५) पृथ्वीकाय के आरम्भ जन्य कर्म, ६. बंतवाणिज्जे, (६) त्रस जीवों के अवयवों का व्यापार, ७. लक्खवाणिज्जे, (७) लाख आदि पदार्थों का व्यापार, ८. रसवाणिग्जे, (८) रस वाले पदार्थों का व्यापार, ६. विसवाणिजे, (8) विषले पदार्थ ओर शस्त्रों का व्यापार, १०. केसवाणिज्जे, (१०) पशु पक्षी आदि के केशों का व्यापार, ११. पंतपोलणकम्मे, (११) तिल, ईख आदि पीलने के पन्नों का कर्म, १२. निस्लछणकम्मे, (१२) बिंधना, खस्सी करना आदि कर्म, १३. ववग्गिवावणया, (१३) जंगल आदि में भाग लगाना, १४. सर-वह-तलापपरिसोसणया, (१४) तालाब, नदी, द्रह आदि को सुखाना, १५. असईजणपोसणया। -आव. अ. ६, सु. ७६ (२) (१५) हिंसक जानवरों का और दुश्चरित्र स्त्रियों का पोषण करना । अणस्थदंड विरमणस्स सरूवं अश्यारा य अनर्थदण्ड-विरमण-व्रत का स्वरूप और अतिचार२६३. अणत्या मउम्विहे पन्नतेतं जहा २८३. अनर्थदण्ड चार प्रकार का कहा गया है। जैसे१. अवज्माणाचरिए, (१) आर्त, रौद्र ध्यान करना, २. पमायाचरिए, (२) प्रमाद से अविवेक पूर्ण प्रवृत्ति करना, ३. हिसापयाणे, (३) हिंसा करने के शस्त्र देना, ४. पायकम्मोवएसे । (४) पाप कर्म करने की प्रेरणा करना । अणदुवंशवरमणस्स समणोवासएणं इमे पंच अइयारा जाणि- श्रमणोपासक को अनर्थ-दण्ड विरमण व्रत के पांच प्रमुख यव्या, न समायरियम्वा, तं जहा अतिचार जानना चाहिए, उनका आचरण नहीं करना चाहिए । वे इस प्रकार है१. कंदप्पे, (१) विकार युक्त कथा करना, २. कुक्कुइए, (२) शरीर से हास्यकारी कुचेष्टाएं करना, ३. मोहरिए, (२) अति वाचालता करना, ४. संयुत्ताहिगरणे, (४) हिसाकारी उपकरणों को अविधि से रखना, ५. उवमोग-परिभोगाइरित्ते . अ.६, सु.८०-८१ (५) खाद्य सामग्री आदि का अधिक संग्रह करना । सामाइय-सत्वं अध्यारा य सामायिक व्रत का स्वरूप और अतिवार२५४. सामाइयं नाम सावज जोगपरिवज्जगं निरवाजजोगपति- २६४. सावधयोगों का परित्याग करना और निरवद्ययोगों का सेवणं च। आचरण करना इसको सामायिक कहते हैं । १ उवा. म.१, मु.५१ । २ उवो. अ. १, सु. ५२ 1 Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२] घरगानुपौग-२ सामायिक किये हुए की क्रिया सूत्र २८४-२८६ सामाइयस्स समणोवासएणं इमे पंच अश्यारा आणियव्वा, श्रमणोपासक को मामायिक प्रत के पांच प्रमुख अतिचारों न समायरियरवा तं जहा को जानना चाहिए, उनका आचरण नहीं करना चाहिए । वे इस प्रकार हैं१. मणदुप्पणिहाणे, १. मन से अशुभ चिन्तन करना, २. वयबुप्पणिहाणे, २. बचन से अशुभ शब्द बोलना, ३. कायदुप्पणिहाणे, ३. काया से अशुभ प्रवृत्ति करना, ४. सामाइयस्स सइ अकरणया, ४, सामायिक को स्मृति न रखना, ५. सामाइयस्स अगवष्ट्रियस्स करणया। ५. दोषरहित व विधियुक्त सामायिक न रहना । -आव. अ. ६. सु. ८२-८६ सामाइयकडस्स किरिया सामायिक किये हुए की क्रिया२८५, प.. -समणोवासगास गं अंते ! सामाझ्यफस्स समणीवस्सए २५५. प्र. हे भगवन् ! श्रमण के उपाश्रय में बैठकर सामायिक अच्छमाणस्स तस्स गं मंते कि ईरियावहिया किरिया किये हुए श्रमणोपासक को क्या ईपिथिकी क्रिया लगती है, कज्जइ ? संपराइया किरिया कजइ ? अथवा साम्परायिकी क्रिया लगती है ? उ.--गोयमा ! नो इरियावहिया किरिया कम्जह, संपरा- उल-गौतम ! उसे ईर्यापथिकी क्रिया नहीं लगती है किन्तु इया किरिया कम्जा। साम्पराविकी क्रिया लगती है। प० -से केणटुण मंते ! एवं वुच्चा-जाव-संपराइया किरिया प्रल-हे भगवन् किस कारण से ऐसा कहा जाता है --यावत्-साम्परामिको क्रिया लगती है। उ. -मोपमा! समाणोवासयरस णं सामाइयकडस्स समणो- 30-गौतम ! श्रमण के उपाश्रय में बैठकर मामायिन किये यस्सए अच्छमाणस्स आया अहिगरणी भवति । आया- हुए श्रमणोपासक की आत्मा कषाय से युक्त होती है। जिसकी अहिंगरणवत्तिय च गं तस्स नो ईरियावहिया किरिया आत्मा कपाय से युक्त होती है, उसे एर्यापथिकी क्रिया नहीं लगती कज्जति, संपराइया किरिया कमजति । है किन्तु साम्परायिकी क्रिया लगती है। से लेण?णं गोयमा ! एवं बुच्चा-जाव-संपराजया हे गौतम ! इस कारण से ऐसा कहा जाता है -यावत् किरिया कज्जइ। -वि. स. ७, उ. १, सु. ६ साम्पराविकी क्रिया लगती है। सामाइयकडस्स भमत्तभावं-- सामायिक किये हुए का ममत्व२८६. आजीविया गं मंते ! थेरे भगवते एवं बयासि . २८६. हे भगवन् ! आजीविक गोशालक के शिष्य स्थविर भगवन्तों से इस प्रकार पूछते हैं किप.-- समणोबासगस्स गं भंते ! सामाइयास समणोवस्सए प्र-श्रमण के उपाधय में बैठकर सामायिक किये हुए अच्छमाणस्स के मंझे अपहरेज्जा, से पं मते ! तं धमणोपासक के वस्त्र आदि सामान को कोई अपहरण कर ले मंडं अगदेसमाणे कि समंड अगगवेसई ? परायणं जाए तो सामायिक पूर्ण होने पर उन घरतुओं का अन्वेषण करता म अणुगवेसइ ? हुधा मह आने सामान का अन्वेषण करता है या दूमरों के सामान का अन्वेषण करता है? उ.-गोपमा ! समंड अणुगवेसइ, नो परायगं मडं अणु- उ-गोतम ! वह अपने ही राभान का अन्वेषण करता है, गवई। पराये सामान का अन्वेषण नहीं करता । ५०... तस्स णं मंते ! तेहि सौलस्वत-गुण-वेरमण-पच्चक्खाण- प्र--भगवन् ! उन शीलात, गुणवत, विरमणवत, पोसहोववाहिं से मंडे अभंडे भवति ? प्रत्याख्यान और पोषधोपवास को स्वीकार किये हुए थावक के थे भाण्ड क्या उसके लिए अभाण्ड हो जाते है ? उ०-हंता, अति । उ०-हे गौतम ! वे भाण्ड उसके लिए अभाण्ड हो जाते है। -. -.-. - - -- १ उना. अ.१, मु.५३ ।। Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र २०६-२८८ सामायिक किये हए का प्रेममन्धन गृहस्थ धर्म [११३ प.-सेकेणं बाइगं अगं भंते ! एवं बुन्धति "स -हे भगवन् ! यदि वे भाण्ड उसके लिए अभाण्ड हो अगवेता नो परायगं भर अगुगवेसा? जाते हैं तो आप ऐसा क्यों कहते है कि वह श्रावक अपने भाण्ड का अन्वेषण करता है, दूसरे के भाण्ड का अन्वेषण नहीं करता? उ.--गोयमा! तस्स एवं प्रति उ-गौतम ! सामायिक आदि करने वाले उस श्रावक के मन में ऐसे परिणाम होते हैं कि--- "णो मे हिरणे, नो मे मुवाणे, नो मे कसे, नो मे "हिरण्य मेरा नहीं है, सुवर्ण मेरा नहीं है, कॉस्म मेरा नहीं दूसे, नो मे विजल घण-कणंग-रयण-मणि-मोत्लिय- है, वस्त्र मेरे नहीं हैं तथा विपुल धन, कनक, रत्न, मणि, मोती, संख-सिप्ल-पवाल-रसरयण-मादीए, संतसारसाव- शंख, मूंगा, पदमरागादि मणि इत्यादि विद्यमान सारभूत द्रव्य देखने", ममत्तभावे पुण से अपरिषणाते भवति। मेरा नहीं है।" किन्तु उसके ममत्वभाव का प्रत्याख्यान नहीं होता है। सेगमग गाय- गुच्चा साज बागवेसइ, हे गौतम ! इस कारण से ऐसा कहता है कि वह श्रावक नो परामगं भर अणुगवेसह। अपने ही भाण्ड का अन्वेषण करता है किन्तु दूसरों के भाण्ड का -वि. स. ८, इ. ५, सु. २-३ अन्वेषण नहीं करता । सामाइयकस्स पेजबंधणं सामायिक किये हए का प्रेमबन्धन२८७.५०--समगोवरसगस्स गं भंते ! सामाइयकडस्स समणो- २८७. प्र. हे भगवन् ! श्रमण के उपाश्रय में बैठकर सामायिक बस्सए अच्छमाणस्स के जायं परेषजा, से गं भंते ! किये हुए श्रमणोपासक की पत्नी के साथ कोई भोग भोगता है कि जायं सरइ, अजायं परइ ? तो क्या वह श्रावक की पत्नी को भोगता है या दूसरे की स्त्री को भोगता है? ज०-गोयमा ! जायं चरइ, नो अजायचरह । उ.-गौतम ! वह श्रावक की पत्नी को भोगता है किन्तु दूसरे की स्त्री को नहीं भोगता है। प०-तस्स गं भले ! तेहि सीलम्बय-गुण-धरमण-परचक्माण प्र.-हे भगवन् ! शीलवत, गुणवत, विरमण, प्रत्याख्यान पोसहोववासेहिं सा जाया अजाया प्रवइ ? और पौषधोपवास कर लेने से क्या उस प्रावक की बह जाया "अजाया" हो जाती है? उ०-हंता, भवद । उ०-हाँ गौतम ! श्रावक की वह जाया अजाया हो जाती है। प०-से केणं खाणं अठेणं मंते ! एवं वृच्चइ "जायं प्रo.-हे भगवन् ! जब श्रावक की जाया 'अजाया" हो चरह, नो अजायं चर?' जाती है, तब आप ऐसा क्यों कहते हैं कि वह व्यभिचारी उसकी जाया को भोगता है, अजाया को नहीं भोगता? उल-गोयमा ! तस्स पं एवं भवह 'णो मे माया, णो मे उ०—गौतम ! उस श्रावक के मन में ऐसे परिणाम होते पिया, णो मे भाया, णो मे भगिणी, णो मे मज्जा, हैं कि-"माता मेरी नहीं है, पिता मेरे नहीं हैं, भाई मेरा नहीं णो मे पुत्ता, गो मे धूया, णो मे सुण्हा", पेज्मबंधणे है, बहन मेरी नहीं है, स्त्री मेरी नहीं है, पुत्र मेरे नहीं हैं, पुण से अव्वोच्छिन्ने भवइ, पुत्री मेरी नहीं है, पुत्रवधू मेरी नहीं है", किन्तु इन सबके प्रति उसका प्रेम बन्धन टूटा हुआ नहीं होता है। से तेज गोयमा । एवं चचाई जायं परड, नो हे गौतम ! इस कारण से ऐसा कहता हूँ कि वह पुरुष अजायं घर। ..-दि. म. ८, उ.५, सु. ४-५ तस श्रावक को जाया को भोगता है, अजाया को नहीं भोगता। वेसावगासिय-सरुवं अइयारा य देशावगासिक व्रत का स्वरूप और अतिचार२८. विसिष्यय-गहियस्स दिसा परिमाणस्स पइविणं परिमाण- २८८. ग्रहण किये हुए दिशाग्रत का प्रतिदिन संक्षिप्त परिमाण करणं वैसाबगासियं। करना देशावगासिक व्रत है। Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ परगामुयोग---२ पौवध व्रत का स्वरूप और अतिचार सूत्र २८८-२ देसावगासियल्स समोवासएणं इमे पंच महयारा जागियन्दा, श्रमणोपासक को देशावकाशिक व्रत के पांच प्रमुख अतिचार न समायरिया, जहा जानना चाहिए, उनका आचरण नहीं करना चाहिए। वे इस प्रकार हैं(१) आणवणपोये, (१) मर्यादा के बाहर की वस्तु मँगाना, (२) पेसवणापओगे, (२) मर्यादा के बाहर वस्तु भिजवाना, (३) सहाणुवाए, (३) मर्यादा के बाहर शब्द से संकेत करना, (४) वागवाए, (४) मर्यादा के बाहर रूप से संकेत करना, (५) बहियापोगालपरतेवे। -आव. अ. ६, सु. 50-45 (५) मर्यादा के बाहर पुगल फेंककर संकेत करना । पोसह-सहवं अइयारा य पौषध व्रत का स्वरूप और अतिचार२८६. पोसहोववासे चविहे पन्नत, तं महा--- २८९. पौषधोपवास बत के चार प्रकार कहे गये हैं। जैसे(१) आहारपोसहे, (१) आहार त्याग रूप पौषध, (२) सरीरसक्कारपोसहे, (२) शरीर सत्कार त्याग प पोषध, (३) बंभरपोसहे, (३) ब्रह्मचर्य पोषध, (४) अम्बावारपोसहे। (४) सावध प्रवृत्ति परित्याग पौषध । पोसहोववासस्स समणोवासएवं इमे पंच अहयारा आणि- श्रमणोपासक को पौषधोपवास व्रत के पांच प्रमुख अतिचार यम्वा, न समायरियन्या, तं जहा जानना चाहिए, उनका आचरण नहीं करना चाहिए। वे इस प्रकार हैं(१) अप्पहिलेलिय-नुपखिलहिय-सिज्जासंपारे । (१) शय्या संस्तारक की प्रतिलेखना नहीं करना या अविधि से करना। (२) अप्पमज्जिय-दुप्पमज्जिय-सिज्जासंथारे । (२) शय्या संस्तारक का प्रमार्जन नहीं करना या अविधि से करना। (३) अपजिलेहिय-चुप्पडिसेहिय-उच्चारपासवणभूमी। (३) परठने की भूमि का प्रतिलेखन नहीं करना या अविधि से करना। (४) अप्पमज्जिय-नुप्पमज्जिय-उच्चारपासवणभूमी । (४) परठने की भूमि का प्रमार्जन नहीं करना या अविधि से करना। (५) पोसहोववासस्स सम्म अणणुपालणया। (५) पौषच के नियमों का सम्यक् प्रकार से पालन नहीं -आव. अ. ६, सु. ८६.६० करना । अतिहि संविभागस्स सख्यं अइयारा य अतिथि-संविभाग-व्रत का स्वरूप और अतिचार--- २६०. अतिहिसंविभागो नाम नायागयाणं कप्पणिजाणं अन- २९०. भोजन पानी आदि द्रव्यों का देश काल के अनुकूल, श्रद्धा पाणाईचं वयाणं बेसकाल-सहा-सक्कारकमजुयं पराए सत्कार युक्त, परमभक्ति से तथा आत्म कल्याण की भावना से मत्तीए आयाणुग्गहडीए संअवाणं वाणं । ज्ञातपुष श्रमण भगवान महावीर के संयतों को दान देना अतिथि संविभाग है। अतिहि -संविभागस्स-समणोवासएग हमे पंच अइयारा श्रमणोपासक को अतिथि संविभाग व्रत के पांच प्रमुख जाणियव्वा, न समायरियध्वा, तं जहा अतिचारों को जानना चाहिए, उनका आचरण नहीं करना चाहिए, वे इस प्रकार हैं(१) सचित्तनिवेषणपा, १२) विवेक न रखते हुए अचित्त वस्तु सचित्त पर रखना, उवा. अ.१, सु. ५४ २ उवा. अ. १, सु. ५६ यहाँ "अतिहिसंविभागस्स" शब्द के स्थान पर "अहासं विगस्स" शब्द का प्रयोग है। Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र २६.-२६२ श्रमण को शुद्ध आहार देने का फल गृहस्थ धर्म [११५ (२) सचित्तपिणया, (२) विवेक न रखते हुए अचित्त बस्तु सचित्त से ढकना । (३) कालाइएकमे, (३) विवेक न रखते हुए भिक्षा के समय में दान की भावना रखना। (४) परववएसे, (४) विवेक न रखते हुए दूसरों से दान दिलाना । (५) मारिया । -आव. अ. ६, सु. ६.१-६२ (५) कषाय युक्त भावों से दान देना । समणस्स सुद्ध आहार दाणफलं माण को मुत अनारोगापाल-.. २६१. ५०-समणोवासएणं भंते। तहारूवं समग मा माहगं २६१. प्र०-हे भगवन् ! उत्तम श्रमण और माहन को प्रासुक वा फासुएणं एसगिज्जेणं असणं पाणं-खाइम-साइमेणं, एषणीय अशन, पान, खादिम, स्वादिम द्वारा प्रतिलाभित करते पहिलामेमाणे कि लमति ? हुए श्रमणोपासक को क्या लाभ होता है ? जायमा ! समणोवासएणं तहारूवं समगं वा माहणं 30-गौतम ! तयारूप श्रमण या माहन का-यावत् वा-जान-पडिलामेमाणे सहावस समणस्स वा प्रतिलाभित करता हुआ श्रमणोपासक, तथारूप श्रमण या माइन माहणस्स वा समाहि उम्पाएति, समाहिकारएणं से को समाधि पहुंचाता है। उन्हें समाधि प्राप्त कराने वाला वह तामेव समाहि पडिलभति। श्रमणोपासक स्वयं भी उसी समाधि को प्राप्त करता है। १०--समणोवासए गं भंते तहारूवं समणं वा माहणं वा प्र०-हे भगवन् ! तथारूप श्रमण या भाहण को-यावत्-जाब-पडिलामेमाणे किं चयति । प्रतिलाभित करता हुआ श्रमणोपासक क्या त्याग करता है ? जा--गोवमा ! जीवियंचयति, पुण्यं चयति, दुमकरंज --गौतम ! श्रमणोपासव जीवन के आधारभूत अन्न करेड़, दुल्लम लमति, बोहि बजाति तो पच्छा पानादि का त्याग करता है, दुस्त्यज वस्तु का त्याग करता है, सिज्मइ-जाव-अंत करे। दुष्कर कार्य करता है, दुर्लभ वस्तु से लाभ लेता है, बोधि को ---वि. स. ७, उ. १, सु. ६-१० प्राप्त करता है, उसके पचनात् वह सिद्ध होता है-यावत् सब दुःखों का अन्त करता है। प.-समणोवासए ण भंते ! तहारू समणं वा माहणं पा प्र०—हे भगवन् ! तथारूप श्रमण अथवा माइन को प्रासुक फासुयएसणिजेणं असण-पाण-खाइम-साइमेणं पडित एवं एषणीय अशन, पान, खादिम और स्वादिम आहार द्वारा लाभेभाणे कि फज्जति? प्रतिलाभित करने वाले श्रमणोपासक को किस फल की प्राप्ति होती है? पाले जा--गोयमा! एपंतसो से निज्जरा कज्जा, नरिय य से उ०—गौतम 1 वह एकान्त रूप से निर्जरा करता है और पावे कम्मे कमजह। वह पापकर्म का बन्ध नहीं करता है। प-समणोवासए णं भते ! तहारूवं समर्ण वा माहणं वा प्र-हे भगवन् ! तथारूप श्रमण या माहन को अप्रासुक अफासुएणं अणेसणिज्जेणं असग-पाण-खाइम-साहमेणं एवं अनेषणीय आहार द्वारा प्रतिलाभित करते हुए श्रमणोपासक पडिलाभेमाणे कि कज्जइ? को किस फल की प्राप्ति होती है ? उ०-गोयमा ! बहुतरिया से निजरा कज्जा, अप्पतराए उ.--गौतम ! उस के अधिक निर्जरा होती है और अल्प से पावे मम्मे करजई। " पापकर्म का बन्ध होता है। -वि. स. ८, 3.६, सु. १-२ असंजयस्स आहार-दाणं-फलं असंयत को आहार देने का फल२६२, ५०-समणोवासए ण मंते ! तहारूवं अस्संजय-अविरय. २६२.५०-हे भगवन् ! तथारूप असंयत, अविरत, जिसने अपडिहय-अपच्चालाय-पाषकम फासुएणं वा अफा- पाप कर्मों को नहीं रोका और पाप का प्रत्याख्यान भी नहीं किया सुएणं वा एसणिज्जेण वा अप्रेसगिज्जेग वा, असण. उसे प्रासुक या अप्रासुक, एषणीय या अनेषणीय अशन-पान, पाण-वाइम-साइमेणं पश्लिामाणे कि जह? खादिम, स्वादिम द्वारा प्रतिलाभित करते हुए श्रमणोपासक को किस फल की प्राप्ति होती है ? १ उदा. अ.१, सु. ५६ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६] परणानुयोग-२ ग्यारह उपासक प्रतिमाएँ सूत्र २९२.२६३ उ.--गोयमा! एतसो से पाये कम्मे कम्ना, गत्वि से काह निक्जरा कज्जद –वि. स.८, उ.६, सु. ३ उ०--गौतम ! उसे एकान्त पाप कर्म होता है, निर्जरा कुछ भी नहीं होती। धावक प्रतिमा-३ एगावस-उवासगपडिमाओ ग्यारह उपासक प्रतिमायें२६३. एक्कारस उवासग-पडिमाओ पपणताओ तं जहा- २६३. ग्यारह उपासक प्रतिमायें कही गई है। यथा(१) बसणसावए, (१) दर्शन श्रावक प्रतिमा, (२) कयन्वयकम्में, (२) कृतवत कम प्रतिमा, (३) सामाइयको, (३) सामायिक कृत प्रतिमा, (४) पोसहोववासणिरते, (४) पौषधोपवास निरत प्रतिमा, (५) दिया बंभयारी, रति परिमाणकरें, (५) दिवा ब्रह्मचारी और रात्रि परिमाणकृत प्रतिमा । (६) असिणाली, विउमोह, मोलिका, विमा वि रामो (६) अस्नान, दिवस भोजन, मुकुलिकृत, दिवा-रात्रि ब्रह्मवि बंभषारी। चयं प्रतिमा। (७) सचिसपरिणाए, (७) सचित्त परित्याग प्रतिमा । (८) आरंभपरिणाए, (4) थारम्भ-परित्याग प्रतिमा । (६) पेसपरिणाए, (8) प्रेष्य-परित्याग प्रतिमा । (१०) उद्दिभत्तपरिणाए, (१०) उद्दिष्ट भक्त-परित्याग प्रतिमा । -- --..-- यहाँ संरत को सुगुरुभाव से सन्मान करके सर्वथा निर्दोष आहार देने का फल श्रमणोपासक के लिए एकान्त निर्जरा कहा है। सामान्य सदोष आहार देने का फल' अल्प पाप अधिक निर्जरा कहा है और तयारूप के (सन्यासी) असंयत को पूज्य भाव से सदोष-निर्दोष आहार देने का फल एकान्त पाप कहा है। किन्तु अन्य असंयत भिखारी पशु-पक्षी आदि को अनुकम्पा बुद्धि से आहार देने का फल श्रमणोपासक के लिए यहाँ एकान्त पाप नहीं कहा है। आगमों में नौ प्रकार के पुण्यों का कथन है। 'रायप्पसेणिय' सूत्र में प्रदेशी राजा ने श्रमणोपासक होने के बाद दानशाला प्रारम्भ की ऐसा वर्णन है। दान के सम्बन्ध में मुनियों के मौन रहने का जो सूत्रकृतांग में विधान है वहाँ यह स्पष्ट कहा है कि "दान के कार्यों में पुण्य नहीं है" ऐसा भी साधु म कहे तथा ऐसा कहने वाले मुनि प्राणियों की आजीविका का नाश करते हैं । निष्कर्ष यह है कि असंयत भिखारी पशु पक्षी आदि को अनुकम्पा बुद्धि से आहार देने का फल एकान्त पाप नहीं है। किन्तु तथारूप के संन्यासी आदि को पूज्य भाव (गुरुबुद्धि) से देने में एकान्त (मिथ्यात्वरूप) पाप होता है ऐसा समझना चाहिए। २ दसा. द ६, सु. १-२ पांचवीं प्रतिमा का नाम दशाश्रुतस्कंध में और समवायोग में भिन्न-भिन्न है। किन्तु वर्णित विषयानुसार दशाश्रुतस्कंध में कथित नाम विशेष संगत प्रतीत होता है। "एक रात्रि की कायोत्सर्ग-प्रतिमा" यह नाम दशाश्रुतस्कंध सूत्र के मूल पाठ में है। इस प्रतिमा में श्रावक पोषध के दिन सम्पूर्ण रात्रि कायोत्सर्ग करता है। समवायांग सूत्र में सूचित नाम उपयुक्त भी नहीं है । क्योंकि "दिन में ब्रह्मचर्य पालन करना और रात्रि में परिमाण करना" यह तो प्रतिमा धारण के प्रारम्भ में ही आवश्यक होता है । अतः पाँचवी प्रतिमा में इस नियम का कोई महत्व नहीं रहता है । Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र २६३ (११) समणए पापि समणासी । पढमा उवासँग पडिमा - सब धम्म-वई यावि भवति । से सं पढमा उवासंग-पडिमा । अहावरा दोच्चा उपास पडिमा सभ्य धम्म रुई यावि भवइ । लक्ष्य में बहू सीलवर बनासा सम्बं पबिता ति ग्यारह उपासक प्रतिमाएं तस्स णं महूई सोलवय-गुणवय- वेरमण- पञ्चखाण-पोसहीarrer नो सम्मं पट्टविता" भवंति । - सम. ११, सु. १ से तं तच्चा उसग पडिमा | अहावरा चउत्था उवासग पडिमा पोहो से गं सामाइ सागास नो सम्मं अनुपालिता । से तं वोच्या उषासग पडिमा । अहावरा तच्चा उवासँग पडिमा सब धम्म रुई यावि भवइ । तब सीवगुणय- वेरमणं पचवाण पोहो वासाई सम्म पट्टनियाई भवति । से सामाहदेवासवं सम् अनुपातित्ता भव । सेणं उस अमर-पुष्णमाशिषी पडणं सो ववासं नो सम्मं अनुपालित्ता भवद्द । सव्वधम्म-ई यावि मवइ । ree णं बहूई सोलवय-गुणवय- वेरमणं-पच्चक्खाणं-पोसहोवसासम्म विवाहं भवति । गृहस्थ धर्म [११७ (११) प्रतिमा । हे व्यायुष्मन् श्रमणो ! उपासक ग्यारह प्रतिमाओं से संप होता है । प्रथम उपासक प्रतिमा वह प्रतिमाधारी श्रावक सर्वधर्म रुचिवाला होता है, अर्थात् धर्म और चार धर्म में बता रखता है। किन्तु वह अनेक व्रत, मुगवत प्राणातिपातविरमण, प्रत्याख्यान और पौषधोपवास आदि का सम्यक् प्रकार से धारक नहीं होता। यह प्रथम उपासक प्रतिमा है। अब दूसरी उपासक प्रतिमा का वर्णन करते हैं-वह प्रतिमाधारी आप सर्वधर्माला होता है- उसके बहुत से शीलव्रत, गुणव्रत, प्राणातिपातादि विरमण, प्रत्याख्यान और पौषधोपवास आदि सम्यक् प्रकार से धारण किये हुए होते हैं । किन्तु वह सामायिक और देशावका शिकवत का सम्यक् प्रतिपालक नहीं होता है। यह दूसरी उपासक प्रतिमा है । अब तीसरी उपासक प्रतिमा का निरूपण करते हैंयह प्रतिभाधारी भासा होता है उसके बहुत से शीलव्रत, गुणवत, प्राणातिपातादि विरमण, प्रत्याख्यान और पौषधोपवास आदि सम्यक् प्रकार से धारण किये हुए होते हैं। वह सामायिक और देशावकाशिक शिक्षायत का भी सम्यक परिपालक होता है । किन्तु चतुर्दशी, अमावस्या और पूर्णमासी इन तिथियों में परिपूर्ण पौषधोपचास का at परिपाक नहीं होता यह तीसरी उपासक प्रतिभा है । अब चौथी उपासक प्रतिमा का निरूपण करते हैं - यह प्रतिमाधारी भाव सर्वधर्मविला होता है, उसके बहुत से गलत, सुनवल, प्रातिपातादि विरमण, प्रत्याख्यान और पौषधोपवास आदि सम्यक् धारण किये हुए होते है । १ प्रतिमा धारण करने के पूर्व श्रावक साधारणतया अनेक व्रत पञ्चकखाण करने वाला व बारहव्रत धारी श्रावक भी होता है, राधाय विभिष्ट प्रतिमा रूप में धारण किया हुआ नहीं होता है इस अपेक्षा से यहाँ पूर्व प्रतिमाओं में अगली प्रतिमा के विषय भूत व्रत नियम का निषेध किया है। Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११] धरणानुयोग-२ ग्यारह उपासक प्रतिमाएं सूत्र २६३ से णं सामाइयं देसावगासिब सम्म अणुपालित्ता भवइ । वह सामायिक और देशावकाशिक शिक्षावत को भी सम्यक प्रकार से पालन करता है। से णं चढ़द्दसटूमुदिड-पुण्णमासिणीसु पविपुष्णं पोसहोदवासं बह चतुर्दशी, अष्टमी, अमावस्या और पूर्णमासी तिथियों सम्यं अगुपालिसा भवा। में परिपूर्ण पोषधोपवास का सम्यक् परिपालन करता है। से णं एगराइयं काउस्सग-परिमं नो सम्म अगुपालिसा किन्तु एक रात्रिक कायोत्सर्ग प्रतिमा का सम्यक् परिपालन नहीं करता है। से तं चइत्या उवाप्तग-पतिमा । यह चौथी उपासक प्रतिमा है। अहावरा पंचमा उवासग-पडिमा अब पाँची उपासक प्रतिमा का वर्णन करते हैसव्य-धम्म राई मावि भबइ। वह प्रतिमाधारी थावक सर्वधर्मरुचिवाला होता है। तस्स णं बनई सीलवय-गुणवय-वेरमण-पाचवताण-पोसहोव- उसके बहुत से शीलवत, गुणवत, प्राणातिपातादि विरमण, बासाई सम्म पट्टवियाई भवंति। प्रत्याझ्याग और पौषधोपवास आदि सम्यक् धारण किये हुए होते हैं। से गं सामाइयं देसावगासिय सम्म अणुपालिसा भवइ । वह सामायिक और देशाववाशिक व्रत का सम्यक् प्रकार से परिपालन करता है। से णं चउद्दसि-अदृमि उद्दिट्ट-पुष्णमासिणीसु परिपुण्णं पोसही- वह चतुर्दगी, अष्टमी, अमावस्या और पूनमसी तिथियों में वयास सम्म अणुपातिता भवद । परिपूर्ण पोषधोपवाग का मम्यक् परिपालन करता है। से णं एमराइयं काउस्सग-पडिमं सम्म अणुपासिता भव। बह एक रात्रिक बायोत्सर्ग प्रतिमा का सम्यक् परिपालन करता है। से गं असिणाणए, वियउभोई, मलिकडे, दिया य राओ य किन्तु अस्नान, दिवरा गोजन, मुकुलीकरण, दिवस एवं बंमचेरं, जो सम्म अणुपालित्ता प्रवह।। रात्रि में ब्रह्मचर्य पालन इनका सम्यक् परिपालन नहीं करता है । से णं एयारवेणं विहारेण विहरमाणे जहणणं एगाहं वा, वह इस प्रकार के आचरण से विचरता हुआ जघन्य एक दुयाहं वा, सियाहं वा, जाव-उक्कोसेणं पंच मासं विहरह।। दिन, दो दिन या तीन दिन से लगाकर उत्कृष्ट पाँच मास सक इस प्रतिमा का पालन करता है। से तं पंचमा उवासप-पडिमा। यह पाँचदी उपासक प्रतिमा है। अहाबरा छट्टा उवासंग-पडिमा अब छठी उपासक प्रतिमा का निरूपण करते हैंसम्व-धम्म रई यावि मवइ-जाव-से गं एगराइयं काउस्सप वह प्रत्तिमाधारी श्रावक सर्वधर्मरुचिवाला होता है यावत्पडिमं सम्म अणुपालिता भवइ । वह एक रात्रिक कायोत्सर्ग प्रतिमा का सम्यक् प्रकार से पालन करता है। से गं असिणाणए, बियडभोई, मउसिकडे, बिया य रामओय वह स्नान नहीं करता, दिन में भोजन करता है, धोती की संभयारी, लांग नही लगाता, दिन में और रात्रि में पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करता है। सचित्ताहारे से अपरिष्णाए भवद । किन्तु वह सचित्त आहार का परित्यागी नहीं होता है। से णं एयारवेणं बिहारेणं विहरमाणे जहाणेणं एगाहं वा इस प्रकार का आचरण करते हुए विचरता हुआ वह जघन्य दुआएं बा, तिमाहं या-जाव-उक्कोसेणं छम्मासे विहरेजा। एक दिन, दो दिन या तीन दिन से लगाकर उत्कृष्ट छह मास तक इस प्रतिमा का पालन करता है। प्रारम्भ की चार प्रतिमाओं का काल मान नहीं कहा गया है, तथापि उपासकदशा की टीका में इनका काल बताया है वह इस प्रकार हैपहली प्रतिमा का उत्कृष्ट एक मास, दूसरी का उत्कृष्ट दो मास, तीसरी का उत्कृष्ट तीन मास, और चौथी का उत्कृष्ट चार मास। Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्र २२३ ग्यारह उपासक प्रतिमाएं गृहस्थ धर्म (१९ से तं छठा उवासग-पतिमा। यह छठी उपासक प्रतिमा है । अहावरा सत्तमा उवासग-पडिमा--- अब सातवीं उपासक प्रतिमा का निरूपण करते हैंसष-धम्म-सर्ग यावि भवति-जाव दिया य राओ य वह प्रतिमाधारी श्रावक सर्वधर्मरुचि वाला होता है-यावत्मयारी। वह दिन में और रात्रि में पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करता है। सचित्ताहारे से परिणाए भवति । वह सचित्ताहार का परित्यागी होता है, आरम्भे से अपरिणाए भवति। किन्तु वह आरम्भ करने का परित्यागी नहीं होता है। से पं एयारूपेणं विहारेणं विहरमाणे जहणणं एगह वा इस प्रकार के विहार से विचरता हुआ, यह जघन्य एक दुआई वा तिमाहं वा-जाव-उक्कोसेणं सप्तमासे विहरेज्जा । दिन, दो दिन या तीन दिन से लगाकर उत्कृष्ट सात मास तक इस प्रतिमा का पालन करता है। से तं ससमा उवाप्लग-पडिमा । यह सातवीं उपासक प्रतिमा है। अहावरा अट्ठमा उवासग-पडिमा अब आठवीं उपासक प्रतिमा का निरूपण करते हैंसम्ब-धम्म-रुई यावि भवति-जाव-विधायराओवभयारी, बह प्रतिमाधारी श्रावक सर्वधर्मगचिवाला होता है-यावत् वह दिन में और रात में पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करता है। सचित्ताहारे से परिणाए भवइ । वह सचित्ताहार का परित्यागी होता है, आरम्भे से परिणाए भवइ । वह सर्व बारम्भों का परित्यागी होता है। पेसारम्भ से अपरिग्णाए भवइ । किन्तु वह दूसरों से आरम्भ कराने का परित्यागी नहीं होता है। से गं एयारवेणं विहारेण विहरमागे जहण्योणं एगाहं वा इस प्रकार के बिहार से विचरता हुआ वह जघन्य एक बुआहं वा सियाहं वा-जाब-उवाकोसेणं अदमासे बिहरेज्जा। दिन, दो दिन या तीन दिन से लगाकर उत्कृष्ट आठ मास तक इस प्रतिमा का पालन करता है। से तं अट्रमा उबासग-पडिमा । यह आठवीं उपासक प्रतिमा है। अहावरा नवमा उवासग-पडिमा अय नवमी उपासक प्रतिमा का निरूपण करते हैंसम्ब-धम्म-वई यावि भवइ-जाव-विया य राओ म वह प्रतिमाधारी श्रावक सबंधमचिदाला होता है-यावत्बंभयारी। बह दिन में और रात्रि में पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करता है। सचित्ताहारे से परिणाए भवद । वह सचित्ताहार का परित्यागी होता है। आरम्भे से परिणाए मवह । वह आरम्भ का परित्यागी होता है । पेसारम्भे से परिणाए भवइ । वह दूसरों के द्वारा आरम्भ कराने का भी परित्यागी होता है । उद्दि-मसे से अपरिणाए मवह । किन्तु वह उद्दिष्ट भक्त का परित्यागी नहीं होता है। से गं एपालवेणं विहारेणं विहरमाणे जहणणं एगाहं वा इस प्रकार के विहार से विचरता हुआ वह जघन्य एक दिन, दुआहं वा तिमाहं वा-जाव-उपकोसेणं नव मासे विहरेज्जा। दो दिन या तीन दिन से लगाकर उत्कृष्ट नो मास तक इस प्रतिमा का पालन करता है। से तं नवमा उवासग-पडिमा । यह नवमी उपासक प्रतिमा है । अहवरा दसमा उवामग-पडिमा अब दसकी उपासक प्रतिमा का निरूपण करते हैंसध्य-प्रम-नई यावि भवन-जाव-उहिट-मसे से परिम्पाए वह प्रतिमाधारी श्रावक सर्वधर्मरुचिबाला होता है-यावत्भव। वह उद्दिष्ट भक्त का परित्यागी होता है। से गं खुरमुंडए वा, सिहा-धारए वा, तस्स र्ण आभट्ठस्स या वह शिर के बालों का झुर मुंडन करा देता है अथवा शिखा समाभटुस्स वा कप्पंति बुवे मासाओमासिसए। (बालों) को धारण करता है, किसी के द्वारा एक बार मा अनेक संजहा बार पूछे जाने पर उसे दो भाषा बोलना कल्पता है। यथा Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२०] परणानुयोग-२ ग्यारह उपासक प्रतिमाएं सूत्र २६३ (१) जाणं वा जाणं, (१) यदि जानता हो तो कहे-"मैं जानता हैं।" (२) अजाणं वा जो जाणं । (२) यदि नहीं जानता हो तो कहे-"मैं नहीं जानता हूं।" से गं एयारवेणं विहारेणं विहरमाणे जहणणं एगाहं वा इस प्रकार के विहार से विचरता हुआ वह जघन्य एक दिन, बुआई वा, तिआहं वा-जाब-उक्कोसेणं बस मासे विहरेज्जा। दो दिन या तीन दिन से लगाकर उत्कृष्ट दश मास सफ इस प्रतिमा का पालन करता है। से तं रसमा उवासग-पडिमा। यह दशवीं उपासक प्रतिमा है। अहाबरा एकादसमा उवासग-पडिमा--. अब ग्यारहवीं उपासक प्रतिमा का निरूपण करते हैंसम्ब-धम्म-कई यानि अवा-जाव-उद्दिष्ट-भत्ते से परिणाए वह प्रतिमाधारी श्राबक सर्वधर्मरुचिवाला होता है-पावत्-- भवद । बह उद्दिष्ट भक्त का परित्यागी होता है । से णं खुरमुंडए वा, संचसिरए वा, गहियायार-मंग्ग-नवस्थे बह क्षुरा के तिर का मुंड। कराता है अथवा केशों का जारिसे, लुंचन करता है, वह साधु का आचार, भण्डोपकरण और वेष भूषा ग्रहण करता है, समणाणं निग्गंधाणं धम्मे पण्णते तं सम्म काएणं फासेमाणे, जो श्रमण निग्रंन्थों का धर्म होता है, उसका सम्यक्त्तया पालेमाणे, पुरओ बुगमायाए पेहमाणे, बठूर्ण ससे पाणे काया से स्पर्श करता हुआ, पालन करना हुआ, चलते समय उद्घट्ट पाए रीएन्जा, साहटु पाए रीएन्जा, तिरिन्छं आगे चार हाथ भूमि को देखता हुआ, अस प्राणियों को देखकर वा पायं कटु रोएज्जा, सति परक्कमे संजयामेय परिक्क. उनकी रक्षा के लिए अपने पैर उठाता हुआ, पर संकुचित करता मेजा, नो उज्जुयं गच्छेज्जा। हुआ, अथवा तिरछे पर रखकर सावधानी से उलता है । यदि दूसरा जीव रहित मार्ग हो तो उसी मार्ग पर यतना के साथ चलता है किन्तु जीव सहित सीधे मार्ग से नहीं चलता। केवलं से नायए पेज्जबंधणे अयोचिछरने मवइ, एवं से केवल जाति-वर्म से उसके प्रेम-बन्धन का विच्छेद नहीं कप्पति नाय-विहिं एत्तए।' होता है इसलिए उसे ज्ञातिजनों के घरों में भिक्षा वृत्ति के लिए जाना कल्पता है। तस्स गं गाहायद-कुलं पिंजबाय-परियाए अणुप्पविदुस्स जब वह गृहस्थ के घर में भक्त पान की प्रतिज्ञा से प्रविष्ट कपति एवं वदित्तए होवे सब उसे इस प्रकार बोलना कल्पता है"समणोवासगस्स पडिमापरिवन्नास भिक्ख दलयह" "प्रतिमाघारी श्रमणोपासक को भिक्षा दो।" तं च एमालवेणं विहारेण विहरमाणं केइ पासित्ता दिज्जा- इस प्रकार की चर्या से उसे विचरते हुए देखकर यदि कोई पूछे --- ५० के आउसो ! तुम बसम्वं सिया ? प्र. हे आयुष्मन् ! तुम कौन हो? तुम्हें क्या कहा जाए? 30-"समणोवासए पडिमा-पडिवण्णए अहमसी" ति उ० -- 'मैं प्रतिमाघारी श्रमणोपासक हूँ" इस प्रकार उसे बसवं सिया। ___ कहना चाहिए। से गं एयारवेणं विहारेणं विहरमाणे बहण्णेयं एगाहं या इस प्रकार के विहार से विचरता हुआ वह जघन्य एक दिन, तुआहं या तिमाहं वा-जाव-उपकोसणं एफ्फारसमासे दो दिन या तीन दिन से लगाकर उत्कुष्ट ग्यारह मास तक विहरेज्जा। विचरण करे। से तं एकावसमा उवासग परिमा। यह ग्यारहवीं उपासक प्रतिभा है । एयाओ खलु तामओ थेरेहिं भगवतेहिं एक्कारस उवासग- स्थविर भगवन्तों ने ये ग्यारह ज्पामक प्रतिमाएं कही हैं। पडिमाओ पण्णत्ताओ। दसा. द. ६. सु. १७-३० १ सूत्र २६ एषणा समिति में देखें। Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र २६४-२६६ श्रमणोपासकों को तीन भावनाएँ गृहस्थ धर्म [१२१ समणोवासगाणं तिविहा भावणा श्रमणोपासकों की तीन भावनाएं२६४, तिहि ठाणेहि समणोबासए महाणिज्जरे महापज्जवसाने २६४. तीन कारणों से श्रमणोपासक कर्मों का क्षय और संसार भवति, तं जहा का अन्त करने वाला होता है। यथा(१) कया णं अहं अप्पं वा बल्यं वा परिग्गहं परिचद- (१) कव में अल्प या बहुत परिग्रह का परित्याग करूंगा? सामि ? (२) कपाणं अहं मुंडे भक्त्तिा अगाराओ मणगारिय पञ्च- (२) कब मैं मुंडित होकर गृहस्थ से साधुपने में प्रवजित इस्सामि? होऊँगा? (३) कया गं अहं अपच्छिम-भारतिय-संसेहणा असणा- (३) कब मैं अपश्चिम मारणान्तिक संलेखना की आराधना मूसिते मत-पाग-पडियाह पिखते पाओषयते काल अणवकख- से युक्त होकर भक्त-पान का परित्याग कर पादोपगमन संथारा माणे विहरिस्सामि? स्वीकार कर मृत्यु की आकांक्षा नहीं करता हुआ विचरू'गा। एवं समगसा सवयसा सकापसा पागउँमाणे समणीवासए इस प्रकार मन, वचन और काया से युक्त होकर प्रगट रूप महाणिज्जरे महापज्जवसाणे भवति । से भावना करता हुआ श्रमणोपासक महानिर्जरा और महापर्यवठाणं. अ. ३, उ. ४, सु. २१० सान वाला होता है । श्रावक के प्रत्याख्यान-४ पच्चखाण-पालण-रहस्सं प्रत्याख्यान पालन का रहस्य२९५. ५०-समणीवासगस्स भंते ! पुस्खामेव तसपागसमारंभे २९५. प्र०—हे भगवन् ! जिस श्रमणोपासक ने पहले से ही पच्चक्साते भवति, पुविसमारम्भे अपनचक्खाते अस-प्राणियों के समारम्भ का प्रत्यास्यान कर निया हो किन्तु भवंति से य पुरवि खणमाणे अन्नयर तस-पाणं विहि- पृथ्वीकाय के समारम्भ का प्रत्याभ्यान नहीं किया हो, उस सेम्जा, से णं भंते ! संघवं अतिसरति ? श्रमणोपासक से पुरानी खोदते हुए किसी त्रसजीव की हिंसा हो जाए तो हे भगवन् ! क्या उसके अत का उल्लंघन होता है ? उ०—णो इग? समठे, नो खलु से तस्स अतिवायाए उ०-गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है, क्योंकि यह पस माउति । जीव के वध के लिए प्रवृत्त नहीं होता। प० - समणोवासगस्स गं भंते ! पुष्वामेव वणसतिसमारंभे प्र-हे भगवन् ! जिस श्रमणोपासक ने पहले से ही पच्चक्खाते भवति, पुवि-समारंभे अपच्चक्खाते बनस्पति के समारम्भ का प्रत्याख्यान कर लिया हो किन्तु पृथ्वी भवति, से य पुढवि खपमाणे अन्नयरस्स सक्खस्स के समारम्भ का प्रत्याख्यान न किया हो, उस श्रमणोपासक से मूलं छिदेज्जा, से गं भंते ! तं वयं अतिपरति ? पृश्वी खोदते हुए किसी वृक्ष का मूल छिन्न हो जाए तो हे भगवन् ! क्या उसका ब्रत भंग होता है ? उ०-णो इणठे समठे, नो खलु से तस्स अतिवायाए उ०-गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है, क्योंकि वह थमणो ___आउद्दति । –वि. स. ७, उ. १, सु. ७-८ पासक उसके वध के लिए प्रवृत्त नहीं होता । पच्चक्खाणं सरूवं तस्स करणजोगाण य भंगा- प्रत्याख्यान का स्वरूप व उसके करण योगों के भंग२९६.५०-समणोवासगरस ग मते ! पुवामेव पूलए पागाइ- २६६. प्र. हे भगवन् ! जिस श्रमणोपासक ने पूर्व में स्थूल वाए अपच्चखाए भवड, से गं भंते ! पच्छा पच्चा- प्राणातिपात का प्रत्याख्यान नहीं किया है तो है भगवन् ! यह इक्खमाणे कि करेति। बाद में प्रत्याख्यान करता हुआ क्या करता है? Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२] परणानुयोग - २ प्रत्याल्यान का स्वरूप उसके करण योगों के मंग पूत्र २९६ उ० --गोपमा ! तीत परिक्कमति, पड़प्पन्नं संवरेति, १०.गौतम ! अतीत काल में किये हुए प्राणातिपात का अगागत पच्चक्खाति। प्रतिक्रमण करता है, वर्तमानकालीन प्राणातिपात का संवर करता है एवं भविष्यत्कालीन प्राणातिपात का प्रत्याख्यान करता है। प०-तोतं परिक्कममा कि प्र०-अतीतकालीन प्राणातिपात का प्रतिक्रमण करता हुवा क्या१. सिविहं तिविहेणं पम्पिकमति, (१) तीन करण, तीन योग से, २. तिविहं बुधिहेणं पठिपकमति, (२) तीन करण, दो योग से, ३. तिविहं एगविहेणं परिक्कमति, (३) तीन करण, एक योग से, ४. सुविहं सिविहेगं पडिम्फमति, (४) दो करण, तीन योग से, ५. विहं दुषिर्ण परिक्कमति, (५) दो करण, दो योग से, ६. दुविहं एगविहेगं पडिस्कमति, (६) दो करण, एक योग से, ७. एक्कविहं सिविहेगं परिक्कमति, (७) एक करण, तीन योग से, ८. एक्कविहं बुविहेणं पडिएकमति, (८) एक करण, दो योग से, ६. एक्कविहं एगविहेणं पक्किमति ? (E) एक करण, एक योग से, प्रतिक्रमण करता है? उ०-गोयमा ! तिविहं का तिविहेणं पडिक्कमति-जाव- उ०-गौतम ! वह तीन करण तीन योग से प्रतिक्रमण एक्कविहं वा एक्कविहेणं पडिक्कमति । करता है - गावर -- का पट योरोमतिकमण करता है। (१) सिविहं वा तिविहे परिक्कममाणे १. जब वह तीन करण तीन योग से प्रतिक्रमण करता है, न करेति, न कारवेति, करेंत गाणुजाणति, मणसा वयसा स्वयं करता नहीं, दूसरे से करवाता नहीं और करते हुए कायला, का अनुमोदन करता नहीं मन से, वचन से और काया से। (१) (२) तिविहं दुबिहेणं पडिक्कमाणे, २. जब वह तीन करण दो योग से प्रतिक्रमण करता है। तब१. न करेति, न कारवेति, करतं गाण जाणति, मणसा (१) स्वयं करता नहीं, दूसरे से करवाता नहीं और करते वयसा, हुए का अनुमोदन करता नहीं, मन से और वचन से, २. महवा न करेति, न कारवेति, करत जाणुजागति, (२) अथवा वह स्वयं करता नहीं, दूसरे से करवाता नहीं मणसा, कायसा, __ और करते हुए का अनुमोदन करता नहीं मन से और काया से । ३. अहवा न करे, म फारवेश करते णागुजाणति, बयसा, (३) अथवा वह स्वयं करता नहीं, दूसरे से करवाता नहीं कायसा । और करते हुए का अनुमोदन करता नहीं, वचन से और काया से । (२-४) (३) तिषिह एगविहेगं परिक्कममागे, ३. जब तीन करण एक योग से प्रतिक्रमण करता है, तब१. करेति, न कारवेति, करें णाणुजाणति मगसा, (१) स्वयं करता नहीं, दूसरे से करवाता नहीं और करते हुए का अनुमोदन करता नहीं मन से, २. अहवा न करे, न कारवेति, करेंतं णागुजाणति, अयसा, (२) अथवा स्वयं करता नहीं, दूसरे में करवाता नहीं और करते हुए का अनुमोदन करता नहीं वचन से, ३. अहवा न करेति, म फारवेति, करेंतं णानुजाणति, (३) अथवा स्वयं करता नहीं, दूसरे से करवाता नहीं और कायसा । करते हुए का अनुमोदन करता नहीं काया से । (५-७) (४) बुविहं तिविहे पनिषकममाणे, ४. जब दो करण तीन योग से पतिक्रमण करता है, तब - - १. न करे, न कारवेति, मणता, वयसा, कायसा, (१) स्वयं करता नहीं, दूसरों से करवाता नहीं, मन, वचन, और काया से, Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र २६६ प्रत्याल्यान का स्वरूप में उसके करण योगों के मंग गृहस्थ धर्म [१२३ २. अहबा न करेति, करेंत नाणुजाणइ, मणसा, वयसा, (२) अथवा स्वयं करता नहीं, करते हुए का अनुमोदन कायसा, करता नहीं, मन, वचन और काया से, ३. अहषा न कारवेध, करेंतं नाणजाणा, मणसा, वयसा, (३) अथवा दूसरों से करवाता नहीं, करते हुए का अनुकायसा। मोदन करता नहीं, मन, वचन और काया से। (८-१०) (५) दुविहं दुविहेणं पडिक्कममाणे, ५. जद दो करण दो योग से प्रतिक्रमण करता है, तब-.. १. न करेति, न कारवेति, मणसा, वयसा, (१) स्वयं करता नहीं, दूसरों से करवाता नहीं, मन और वचन से, २ अहवान फरेसि, न कारयेति, मणसा कायसा, (२) अथवा स्वयं करता नहीं, दूसरों से करवाता नहीं, मन और काया से, ३. अहवा न करेति, न कारणेति, थपसा करयसा, (३) अथवा स्वयं करता नहीं, दूसरों से करवाता नहीं, वचन और काया से । ४. अहवा न करेति, करेंतं नाणजाणद, मगला वयसा. (४) अथवा स्वयं करता नहीं, करते हुए का अनुमोदन करता नहीं, मन और वचन से। ५. अहवा न करेति, करें नाणुजाणइ, भणसा कायसा, (५) अथवा स्वयं करता नहीं, करते हुए का अनुमोदन करता नहीं, मन और काया से। ६. अस्वा न फरेति, करत नाणुमागाइ, वयसा कायसा, (६) अथवा स्वयं करता नहीं, करते हुए का अनुमोदन करता नहीं, वचन और काया से। ७. अहवा न कारवेति, करेंसं नागुजाणति, मणसा वयसा, (७) अथवा दूसरों से करवाता नहीं, करते हुए का अनु मोदन करता नहीं, मन और वचन से । ८. अहवान कारयेह, करें नाणुजाणइ, मगला कायसा, (4) अथवा दूसरों से करवाता नहीं, करते हुए का अनु मोदन करता नहीं, मन और काया से। ६. अहवा म कारवेति, करेंतं नाणुमाणह, वसा कायसा । (e) अथवा दूसरों से करवाता नहीं, करते हुए का अनु भोदन फरता नहीं, वचन और काया से। (११-१६) (६) दुविहं एस्कविहेणं पडिक्कममाणे, ६. जब दो करण एक योग से प्रतिक्रमण करता है, तब१. न करेति, न कारवेति, मगसा, (१) स्वयं करता नहीं, दूसरों से करवाता नहीं, मन से । २. अहवा न करेति, न कारवेति वयसा, (२) अथवा स्वयं करता नहीं, दूसरों से करवाता नहीं, वचन से। ३. अहवा न करेति, न कारवेति कायसा, (३) अथवा स्वयं करता नहीं, दूसरों से करवाता नहीं, काया से। ४. अहवा न करेति, करेंत नाणुजाण भणसा, (४) अथबा स्वयं करता नहीं, करते हुए का अनुमोदन करता नहीं, मन से। ५. अहया न फरेइ, करेंतं नाणुजाणइ वयसा, (५) अबदा स्वयं करता नहीं, करते हुए का अनुमोदन करता नहीं, वचन से। ६. अहवा न करेइ, फरेंत नाणुजाण कायसा, (६) अथवा स्वयं करता नहीं, करते हुए का अनुमोदन करता नहीं, काया से। ७. अहवा न कारवेद, करतं नाणुजाणह मणसा, (७) अथवा दुसरों से करवाता नहीं, करते हुए का अनुमोदन करता नहीं, मन से। ८. अहवा न कररवेइ, करेंतं नाणुजाणद वयसा, (4) अथवा दूसरों से करवाता नहीं, करते हुए का अनुमोदन करता नहीं, वचन से । . Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४] परणामुयोग-२ प्रस्थास्थानका स्वयउसके करण योगों के भंग पूर्व २९६ .. बाबा मकरस, करमा काभसा । (e) अथवा दूसरों से करवाता नहीं, करते हुए का अनु मोदन करता नहीं, काया से । (२०-२८) (७) एगविहं तिविहेणं पक्किममाणे, ७. जब एक करण तीन योग से अतिक्रमण करना है, तब१. न करेति मणमा वयसा कायसा, (१) स्वयं करता नहीं, मन, वचन और काया से । २. अहवा न कारह मणसा पयसा कायसा, (२) अथवा दूसरों से करवाता नहीं, मन, वचन और काया से। ३. अहवा करेंसं नाणुजाणति मगसा वयसा कापसा। (३) अथवा करते हुए का अनुमोदन करता नहीं, मन, वचन और काया से। (२९-३१) (८) एस्कविहं दुविहेणं पडिक्कममाणे १.जब एक करण दो योग से प्रतिक्रमण करता है, तब१. न करेति मणसा मसा, (१) स्वयं करता नहीं, मन और वचन से, २. अल्वा न करेति मणसा कायसा, (२) अथवा स्वयं करता नहीं, मन और काया से, ३. अहबा न करेइ वयसा कश्यसा, (३) अथवा स्वयं करता नहीं, वचन और काया से, ४. अहवा न कारवेति मणसर वयसर, (४) अथवा दूसरों से करवाता नहीं, मन और वचन से, ५. अहवा न कारवेति मणसा कायसा, (५) अथवा दूसरों से करवाता नहीं, मन और काया से, ६. अहवा न कारवे वयसा कायसा, (६) अथवा दूसरों से करवाता तहीं, वचन और काया से, ७. अहवा करेंत नाणुजाणइ मणमा वयसा, (७) अथवा करते हुए का अनुमोदन करता नहीं, मन और वचन से, 4. अहवा करेंतं नाणुजाण मणसा कापसा, (4) अथवा करते हुए का अनुमोदन करता नहीं, मन और काया से, ६. अहवा फरेंत नाणुजाणइ वयसा कायसा। (E) अथवा करते हुए का अनुमोदन करता नहीं, मन और काया से । (३२-४०) (8) एमकविहं एगविहेणं पडिफममाणे ६. जब एक करण एक योग से प्रतिक्रमण करता है, तब१.न करेति, मणसा, (१) स्वयं करता नहीं, मन से, २. अहवा न करेति वयसा, (२) अथवा स्वयं करता नहीं, बचन से, ३. अहवा न करेति कायसा, (३) अथवा स्वयं करता नहीं काया से, ४. अहवा न कारवेति मगसा, (४) अथवा दूसरों से करवाता नहीं, मन से, ५. अहवा न कारवेति वयसा, (५) अथवा दूसरों से करवाता नहीं, वचन से, ६. अहवा न कारवेति कायसा, (६) अथवा दूसरों से करवाता नहीं, काया से, ७. अहवा करेंतं नाणुजाणा मगसा, (७) अथवा करते हुए का अनुमोदन करता नहीं, मन से, ८. अहवा करतं नरगुजाणइ वयसा, (6) अथवा करते हुए का अनुमोदन करता नहीं, वचन से, ९. अहवा करेंतं नाणुजागा कायसा। (8.) अथवा करते हुए का अनुमोदन करता नहीं, काया से । (४१-४६) प०-पप्पन्न संवरमाणे कितिविहं संबरेह-जाव-एगविहं -हे भगवन् ! वर्तमानकालीन संवर करता हुआ, एगविहेणं संबरे? श्रावक क्या तीन करण तीन योग से संवर करता है--यावत् एक करण एक योग से संवर करता है? उ.---एवं जहा परिक्कममाणेणं एगणपणं भंगा, भणिया उ०-जिस प्रकार प्रतिकमण सम्बन्धी ४६ भंग कहे उसी एवं संघरमाणेण बि एगणपण्णं भंगा भाणियब्बा। प्रकार संपर सम्बन्धी ४६ मंग कहने चाहिये । ५०–अगागय पच्चक्खमाणे किं तिविहं तिषिहर्ग पच्चालाइ प्र०-हे भगवन् ! भविष्यत काल का प्रत्याख्यान करता -जाव-एगविहं एगविहेणं पच्चसाइ? हुआ थावन क्या तीन करण तीन योग से प्रत्याख्यान करता है -यावत्-एक करण एक योग से प्रत्याभ्यान करता है ? Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन २६६-२६८ शौल रहित और शील सहित श्रमणोपासक के प्रशस्त-अप्रशस्त गृहस्थ धर्म [१२५ ज-एवं ते चेव एगणपण्ण भंगा भाणियन्वा । उ०-यहाँ केही ४६ भंग कहने चाहिए। पल-समनोवासगस्सन मंते ! पुष्यामेव धूलमुसायावे प्र०—हे भगवन् ! जिस श्रमणोपासक ने पूर्व में स्थल अपञ्चखाए भवा, से गं ते | पच्छा परुचाइक्त- मृषावाद का प्रत्याख्यान नहीं किया है, किन्तु बह बाद में प्रत्यामाणे कि करेति ? ज्यान करता हुआ क्या करता है ? - एवं जहा पाणाइवायस्स सीयालं भंगसतं भगित, उ०—जिस प्रकार प्राणातिपात के विषय में एक सौ सतातही मुसाचायस्स वि भाणियन्वं । लीस भंग कहे गए है, उसी प्रकार भूषापार के सम्बन्ध में भी एक सौ संतालीस भग कहने चाहिए। एवं अदिग्णादाणस्स वि । एवं थूलगस्स मेहुणस्स वि, इसी प्रकार स्थूल अवत्तादान के विषय में, एवं थूलगस्स परिग्गहस्म वि सीयाल भंगसतं इसी प्रकार स्थूल मैथुन के विषय में, इसी प्रकार स्यूल भाणियव्वं । -बि. स. ८, ज.५, सु. ६-८ परिग्रह के विषय में भी एक सौ सेंतालीस-एक तो संतालीस अंकालिक भंग कहने चाहिए । गृहस्थ धर्म का फल-५ निस्सील सस्सील समणोवासगस्स पसत्था-अपसत्था- शीलरहित और शीलसहित श्रमणोपासक के प्रशस्त अप्रशस्त२९७. तओ ठाणा णिसीसस्स णिध्वयस्स णिग्गुणस्स गिम्मेरस्त २६७. शील, बत, गुण, मर्यादा, प्रत्याख्यान और पौषधोपवास णिप्पसमक्खाण-पोसहोववासस्स गरहिता भवंति, तं जहा- से रहित पुरुष के तीन स्थान गहित होते हैं१. अस्सि लोगे गरहिते भवा, (१) इहलोक (वर्तमान) गहित होता है, २. उवमाते गरहिते मवइ, (२) उपपात (देवलोक तथा नर्क का जन्म) पहित होता है, ३, आयाती गरहिता प्रवइ । (३) आगामी जन्म (देवलोक या नरक के बाद होने वाला मनुष्प या तिथंच का जन्म) गहित होता है । तओ ठाणा सुसीलस्स सुम्बयस्स सगुणस्स समेरस्स सपन्न- शील, व्रत, गुण, मर्यादा, प्रत्याख्यान और पोषधोपवास से पखाण पोसहोववासस्स पसस्था भवति, तं जहा युक्त पुरुष के तीन स्यान प्रशस्त होते हैं१. अस्ति लोगे पसत्मे भवा, (१) इहलोक प्रशस्त होता है, २. उववाए पसरथे भवह, (२) उपपात प्रशस्त होता है, ३.आजाती पसत्या भवा । ठाणं. अ. ३. उ.२, सु. १६६ (३) आगामी जन्म (देवलोक या नरक के बाद होने वाला मनुष्य जन्म) प्रशस्त होता है । सुब्बई निहत्थ तस्स देवगई य-- सुव्रती गृहस्थ व उसकी देवगति-- २६८. अगारि-सामाइयंगाई, सबढी कारण फासए। २६८. श्रद्धालु श्रावक गृहस्थ धर्म की सामायिक के अंगों का पोसह वहओ परलं, एगरायं न हाबए । मन वचन काया से पालन करे। दोनों पक्षों में पथासमय (अष्टमी, चतुर्दशी, पूर्णिमा, अमावस्या) को पौषध करे। यदि पूर्ण पोषध न कर राके तो रात्रि पौषध तो अवश्य करे । एवं सिक्खा-समावस्ने, गिह-वाले वि सुथ्वए । इस प्रकार व्रत पालन रूप शिक्षा से सम्पन्न सुव्रती श्रावक मुच्चा छवि-पण्याओ गमछे जाख-सलोगयं ।। गृहवास में रहता हुआ भी औदारिक शरीर से मुक्त होकर देव--उत्त. अ. ५, मा. २३-२४ लोक में जाता है। Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६] चरणानुयोग-२ असंयत की गति सूत्र २१८-३०० गारं पि य आवसे नरे, अणुपुष्वं पाहि संजए। गृहवास में रहता हुआ जो मनुष्य क्रमशः प्राणियों पर संयम समया सम्पत्य सुम्बए, देवाणं गच्छे सलोगयं ॥ रखता है तथा सर्वत्र समता रखता है वह मुव्रत्ती देवलोक में -सूय. सु. १, अ. २, उ. ३, गा. १३ जाला है। असंजयस्स गई असंयत की गति२६६. -जीये भंते ! असंजते अविरते अप्पडिहय-पत्र- २६६. प्र.-हे भगवन् ! असंयत, अविरत तथा जिसने पाप वसाय-पावकम्मे इसो चुए पेच्चा देवे सिया ? कर्मों को नहीं रोका एनं त्याग नहीं किया है, वह जीव इस लोक से मर पर क्या परलोक में देव होला है? उ6--गोया ! अत्थेगहए वे सिया, अत्थेगइए नो देवे उ०-गौतम ! कोई जीव देव होता है और कोई जीव देव लिया। नहीं होता। ५०-से केणठेणं भंते ! एवं बच्चद अत्यगइए देवे सिया, प्र०-हे भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा है कि कोई अत्यगइए नो देवे सिया? जीव देव होता है और कोई जीव देव नही होता है ? । ज०-गोयमा ! जे इमे जीवा गामाऽऽगर-नगर-निगम- उ.- गौतम ! जो ये जीव-(१) ग्राम, (२) आकर, रापहाणि-खेस-कन्नड-मसंब-दोणमुह-महनारसम-सशि- (३) नार. निगग (५१ रामभाली, (६) खेट, (७) कबंट, सेमु अकामतण्हाए अकामछुहाए अकामबंभचेरवा- (८) मउम्च, (6) द्रोणमुख (१०) पट्टण, (११) आश्रम, सेग अकामसीतासब-इंसमसग अव्हाणगसेष-जल्ल- (१२) सनिवेश आदि स्थानों में अकाम तृषा से, अकाम शुधा से, मल-पंकपरिदाहेणं अप्पतरो वा भुज्जतरो वा कालं अकाम ब्रह्मचर्य पालन से, अकाम शीत उष्ण तथा डांस-मच्छरों अप्पाणं परिकिलेसंति, अपाणं परिकिलेसित्ता कास- के काटने के दुःख को सहने से, अकाम अस्नान, पसीना, जल्ल मासे कास किच्चा अनतरेसु वाणमंतरेसु वेषलोगेसु मैल तथा पंक द्वारा होने वाले परिदाह से, थोड़े समय तक या देवत्ताए उववत्तारो भवति । बहुत समय तक अपनी आत्मा को फ्लेशित करते हैं, वे अपनी -वि. स. १, उ. १, शु. १२ आत्मा को क्लेशित करके मृत्यु के समय पर मर कर वाणध्यन्तर देवों में देवरूप से उत्पन्न होते हैं। आजीविय समणोवासगाणं णामाई, कम्मादाणाई, गई य-- आजीषिक श्रमणोपासकों के नाम, कर्मादान और गति३००, एए खालु एरिसगा समणोशसगा भवति, नो खलु एरि- ३००. ये इस प्रकार के ४६ भंगों से प्रत्याख्यान आदि करने सगा आजीविओवासगा भवति । बाले श्रमणोपासक होते हैं, किन्तु आजीविकोपासक ऐसे नहीं होते। आजीवियसमयस्सणं अयमझे पणत-अक्खीणपडिमोहणो आजीविक (गोशालक) के सिद्धान्त का यह अर्थ है कि सम्वे सत्ता, से हता छत्ता भेत्ता पित्ता विलुपित्ता उद्द- समस्त जीव सचित्ताहारी होते हैं। इसलिए वे प्राणियों को वाता आहारमाहारेति । हनन, छेदन-भेदन करके, पंख आदि को लुप्त कर, चमड़ी आदि को उतार कर और जीवन से रहित करके खाते हैं। तत्य खलु इमे दुवालस आजीवियोवासगा भवंति, सं जहा- उस आजीबिक मत में ये प्रमुख बारह आजीविकोपासक हैं उसके नाम इस प्रकार हैं१. ताले, २. तालपलबे, ३. उम्बिहे, (१) ताल, (२) तालमलम्ब, (३) उदविक, ४. संविहे, ५. अबबिहे, ६. उदए (४) संविध, (५) अवविध, (६) उदय, ७. नामुवए, . गम्मदए, ६. अणुबालए, (७) नामोदय, (८) नमोदय, (६) अनुपालक, १०. संखवालए, ११. अयं पुले, १२. कायरए। (१०) शंखपालक, (११) अयम्पुल, (१२) कातर । स्वेते दुवालस आजीविओवासग अरहतदेवतागा अम्मा. इस प्रकार बारह आजीविकोपासक हैं । इनका देव गोशालक पिउसुस्ससगा पंचफल-परिपकता, तं जहा-उबरेहि, बहि, है । वे माता-पिता की सेवा करने वाले हैं। वे पाँच प्रकार के बोरेहि, सतरेहि, पिसंखुहि, पलं-लहसणं-कंव-मूलविवज्जगा, फल नहीं खाते यथा-गुल्लर के फल, बड के फल, बोर, शहतूत Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वत्र ३००-३०१ आराधक का स्वरूप आराधक-विराधक [१२७ अपिल्लंछिएहि अणपकमिस्नेहि गोणेहि, तस पाणविवजि- के फल, पीपल के फल, प्याज, लहसुन आदि कन्दमूल के त्यागी एहि खित्तेहि वित्ति कप्पेमाणे विहरति । होते हैं । तथा खस्सी न किये हुए और नाक नहीं नाथे हुए बैलों से, प्रस प्राणी से रहित भूमि के द्वारा आजीविका करते हैं। एए वि ताव एवं इच्छति. किमंग पुण जे इमे समणोवासगा जब इन आजीविकोपासकों का भी यह अभीष्ट है, तो फिर भवंति, ये जो श्रमणोपासक हैं, उनका तो कहना ही क्या ? जेसि भी कपात इमाई ५०जारस कमावणा सर्व करेत्तए जिनको कि ये पन्द्रह कर्मादान स्वयं करना, दूसरों से कराना था, कारवेत्तए वा, करें या अन्नं समणुजाणेत्तए, तं जहा- और करते हुए का अनुमोदन करना कल्पनीय नहीं है। वे कर्मादान इस प्रकार है१. इंगालकम्मे, २, वणकम्मे, ३. साडीकम्मे, (१) अंगार कम, (२) वनकर्म, (३) शाकटिक कर्म, ४. भाडाकम्मे, ५. फोडौकम्मे, ६. वंतवाणिज्जे, (४) भाटी कर्म, (५) स्फोटक कर्म, (६) दन्तवाणिज्य, ७. लखवाणिज्जे, ८. केसवाणिज्जे, ६. रसवाणिज्जे, (७) लाक्षणिज्य, (८) केशवाणिज्य, (९) रसवाणिज्य, १०. विसवाणिज्जे, ११. जंतपीलणकामे, (१०) विषवाणिज्य, (११) यंत्रपीडन कर्म, १२. निल्लंछणकम्मे, १३. दवग्गिदावणया, (१२) निर्लानक, (१३) दावाग्निदापनता, १४. सर-वह तलायपरिसोसणया, १५. असतीपोसणया । (१४) र बह तडाग-शोषणता, (१५) असतीपोषणता । चेते समणोवासमा सुक्का सुक्काभिजातीया भवित्ता गेसे ये बतपालक श्रमणोपासक मत्सरभाव रहित पवित्र कालमासे कालं किच्चा अन्नयरेस वेवलोएमु देवताए उव- धार्मिक जीवन से मुक्त होक: मरण के समय मृत्यु प्राप्त करके बतारो भवति । वि. स. ८, उ. ५, सु. ६.१४ किन्हीं देवलोकों में देवरूप से उत्पन्न होते है । आराधक-विराधक आराधक विराधक का स्वरूप-१ आराहगसल्व आराधक का स्वरूप३०१. प.-से नूर्ण भंते ! तमेव सच्चं गोसक जं जिणेहिं ३०१. प्र०—भन्ते ! क्या वही सत्य और असंदिग्ध है जो पवेइयं ? जिनेन्द्रों ने कहा है ? उ०-हंता गोयमा ! तमेष सच्चं णीसंक जं जिणेहिं उ.-हाँ गोतम ! वही सत्य और असंदिग्ध है जो जिनेन्द्रों पवेवितं । ने कहा है। १ (क) प्रतिमा धारण करने वाला आगधक कहलाता है। -दसा. द. ७, सु. १-२५ (ख) पाँच प्रकार का व्यवहार करने वाला आराधक है। --दसा.द.१०.सु.५ (ग) विवेकपूर्वक सत्यादि चारों भाषाओं का वक्ता भाराधक और अविवेकपूर्वक चारों भाषाओं का वक्ता विराधक होता है। -प्रज्ञापना पद ११, सु. ८६६ (घ) पापश्रमण (दोषसेबी) विगधक होता है और जो श्रमण ममाचारी का निर्दोष आचरण करता है वह आराधक होता है। (क) सूय. सु. १. अ. २, गा. १२६ (ख) उत्त. अ.१७, गा. १२ (1) आलोचना न करने वाला साधकः विराधक और आलोचना करने वाला साधक आराधक होता है।-ठाणं. अ. १, सु. ५६७ (च) उपशान्त न होने वाला साधक संयम की आराधना नहीं कर सकता है । जो उपशान्त होता है उसकी आराधना होती है। २ आ. सु. १, अ. ५, उ, ५. सु. १६८ | Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ ] चरणानयोग २ विराधक का स्वरूप www २० से नृणं ते! एवं मणं पारेमाणे एवं परेमागे, एवं चिट्टेमागे एवं संवरेमाणे आणाए आराहए भवति ? उ०- हंता गोयमा 1 एवं मणं धारेमाणे - जाब- आराहए भवद्द | — वि. स. १, उ. ३ सु. ६ विराग स ३०२. अम्मी तुम सिनाम वाले आरंभट्टी अनुबधमा 'पार्थ' पारमाणे हया समागमाणे धीरे मेजोरि हतिनं माणाए । तत्रो पच्छा पेरा जति आलोस्वामि-जा तीकम्मं परिवरिसानि । सेव संपनसंपत्ते बेरा अासिया, सेणं भंते! कि बारहए विराहए ? एस बसवित वि - आ. सु. १, अ. ६, उ. ४, सु. १६२ कहा जाता है । आराहूगा जिया-निग्गयोओ ३०३. १० --- निगांथेण य गाहाबडकुलं पिडवापपडियाए पविद्वेणं अरे अकिञ्चट्टाने पडिसेबिए, तस्स गं एवं भवति इहेब ताद अहं एयस्स ठाणस्स आलोएमि, पश्चिक्क मामि निरामि गरिहामि, विउट्टामि, विसोहेमि अकरणयाए अबमुटु भि, अहारिहं पायच्छितं तवोकम्मं विज्जामि, उ०- गोयमा ! माराहए, नो बिराइए प० - सेय संपट्टिए असंपते अपणाय पुत्रामेव अमुहे सिया से णं भंते! कि आराहए, बिगहए ? उ०- गोधना ! आराहए, न बिराए ! ० से संपट्टिए असंपले घेरा य का करेक्जा से ते कि आराहए विराहए ? उ०- गोवमा ! आराहए, नो विराहए । सूत्र ३०१-३०३ प्र० - हे भगवन् ! क्या इस प्रकार मन में धारण करता हुआ, आचरण करता हुआ रहता हुवा और संवरण करता हुवा प्राणी वीतराग की आशा का आराधक होता है ? उ०- हीं गौतम ! इस प्रकार मन में धारण करता हुआ - यावत् - आज्ञा का आराधक होता है। विराधक का स्वरूप २०२. धर्मसाधक को आचार्यादि इस प्रकार अनुपासित करते है तूं अधर्मार्थी है. बाल-अक्ष है, बारम्वार्थी है, तूं इस प्रकार कहता है कि 'प्राणियों का वध करो' अथवा तूं स्वयं प्राणीवध करता है और प्राणियों का वध करने वाले की अनु मोदना करता है । 'भगवान् ने दुष्कर धर्म का प्रतिपादन किया है' ऐसा कहकर तूं उनकी आज्ञा का अतिक्रमण कर उपेक्षा करता है | ऐकामभोगों के कीचड़ में लिप्त और हिंसक बाराक निर्दग्ध-निधी ३०३ - गृहस्थ के घर में आहार के लिए प्रविष्ट निर्ग्रन्य द्वारा किसी अकृत्य स्थान का प्रतिसेवन हो जाए और उसके मन में ऐसा विचार आवे कि "मैं यहीं पर इस अकृत्य स्थान की आलोचना, प्रतिक्रमण निन्दा और गर्दा करू", उसके अनुबन्ध का छेदन करू, इससे विशुद्ध बनूं पुनः ऐसा अकृत्य न करने के लिए प्रतिज्ञाबद्ध हो और ययोचित प्रायथित रूप तप कर्म स्वीकार करूँ, उसके बाद स्थविरों के समीप में आलोचना करूंगा यावत्तप कर्म स्वीकार ना", ऐसा विचार कर वह निग्रन्थ स्थविर मुनियों के पास जाने के लिए रवाना हुआ, किन्तु स्थविर मुनियों के पास पहुंचने से पहले ही हो जाएँ (बोनस अर्थान् प्रायश्चित न दे सकें। तो हे भगवन् ! वह निर्ब्रम्य आराधक है या विराधक है ? उ०- गौतम ! वह निर्बंध आराधक है, विराधक नहीं । प्र ० - स्थविर मुनियों के पास जाने के लिए रवाना हुमा किन्तु उनके पास पहुंचने से पूर्व ही स्वयं सूक हो जाए तो हे भगवन् ! यह निम्ब आराधक है या विशयक ? उ०- गौतम ! वह निर्ग्रन्थ आराधक है, विराधक नहीं। प्र० - स्थविर मुनियों के पास जाने के लिए रवाना हुआ किन्तु उसके पहुँचने से पूर्व ही स्वर निकाल कर जाएँ तो हे भगवन् ! वह निर्ग्रन्थ आराधक है या विराधक ? उ०- गौतम ! वह निर्ग्रन्थ आराधक है, विराधक नहीं । Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ३०३ ० से संपट्टिए जसंपते अप्पा व मेवा करेज, से कि बाराहए विराहए ? उ०- गोमा ! आर नो बिराए १०- सेय संपट्टिए संपले, थेरा य अमुहा सिपा, सेमं मं कि बाराहए विराहए ? नारायक- निम्ब-मिप्रंग्वी उ०---- गोपमा ! आराहए, नो विराहए। प० ० से व संपद्विट संपते अध्यमा व पुरुषामेव विवा से मंते कि आराहए, बिराहए ? उ०- गोयमा ! आराहए, नो बिराहए । प० से संपट्टिए संपले बेरे सेमं कि आराहए विराहए ? उ०--- गोथमा ! आराहए, तो विराहए । ५० से संपड़िए संपते अव्यमा पपुवामेव कार्य सेमं कि आररहए विराहए ? उ०- गोया ! आराहए, जो विराहए । एवं महिया विधारभूमि वा विहारभूमि वा क्ि दि एए चैव अट्ठ आलावा भाणियन्वा । एवं गामाणुगामं इज्जमाणेण वि एए चेव अट्ट आलावा भाणियब्वा एवं जहा णिग्गंथस्स तिणि गम्मा भणिया, एएए र तिमि ममा भागिव्या प०- से केणट्टेणं मंते ! एवं शृच्च आहए, नो बिराए ? गोषमा से महानामए के पुरिसे एवं महं सोमं वा, गयलोमं वा, सणलोमं वा कप्पासलोमं वा, तसू वा, हावा, तिहा वा, संखेकहा था, fafter अगणिकासि पवित्र बेज्जा से सूजं गोषमा! जिमा पिलिप्यमाणे पश्चि समाने सत्तव्यं शिया ? हंसा भगवं । जिमाने डिजाल बत्त सिया । आराधक-विराधक [१२३ प्र० - स्थविर मुनियों के पास जाने के लिए रवाना हुवा किन्तु वहाँ पहुंचा नहीं उससे पूर्व ही स्वयं काल कर जाये तो है भगवन् I वह निर्धन्य धाराधक है या विराधक ? उ०- गौतम ! बहू निर्ग्रन्य आराधक है, विराधक नहीं । प्र० - स्थविर मुनियों के पास जाने के लिये रवाना हुआ और स्थविरों के पास पहुँच गया, तत्पश्चात् वे स्थविर मुनि मुक हो जाएं तो हे भगवन् वह निर्धन्य आराधक है मा विरा? उ०- गौतम ! वह निम्रन्थ आराधक है, विराधक नहीं । प्र० - स्थविर मुनियों के पास जाने के लिये रवाना हुआ किन्तु स्थविरों की सेवा में पहुंचने के पश्चात् वह स्वयं मूक हो जाये तो हे भगवन् ! वह निर्ग्रन्थ आराधक है या विराधक ? उ०- गौतम ! वह निर्ग्रन्य आराधक है, विराधक नहीं । प्र० - स्थविर मुनियों के पास जाने के लिये रवाना हुआ और स्थविरों की सेवा में पहुंचने के पश्चात् स्थविर मुनि काल कर जाये तो हे भगवन् ! वह निर्ग्रन्थ आराधक है यश विराधक ? उ०- गौतम ! वह निर्ग्रन्थ आराधक है, विराधक नहीं। प्र० - स्थविर मुनियों के पास जाने के लिये रवाना हुआ और भी सेवा में पहुंचने के पश्चात् वह स्वयं काल कर जाये तो हे भगवन् ! वह निर्ग्रन्थ बाराधक है या विराधक ? उ०—गौतम ! वह निर्ब्रन्थ आराधक है, विराधक नहीं । इसी प्रकार उच्चार प्रत्रवन भूमि या स्वाध्याय भूमि के लिए बाहर निकले हुए निर्णय के भी ये आठ बालापक कहने चाहिये । इसी प्रकार आठ आवश्यक कहने चाहिये । धाम विहार करते हुए निर्धन्य के भी जिस प्रकार निन्म के तीन गमक (२४ आलापक) कहे वैसे ही निम्मी के भी तीन गमक कहने चाहिये। प्र० - भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा गया है कि वे आराधक हैं, विराधक नहीं ? उ०- गौतम ! जैसे कोई पुरुष विशाल मात्रा में भेड़ के बाल, हाथी के रोम, सण के रेशे, कपास के रेगे, अथवा तृण समूह के दो, तीन या संख्यात टुकड़े करके भाग में डाले तो है गौतम ! कांटे जाते हुए वे काटे गए, अग्नि में डाले जाते हुए वे डाले गए या जलते हुए जल गए, इस प्रकार कहा जा सकता है ? - ( गौतम स्वामी) हो भगवन 1 काटते हुए वे काटे गए - यावत् जलते हुए वे जल गए यों कहा जा सकता है। Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३०] परमामुयोग--२ शिशु की आराधमा-विराधना सूत्र १०३-३०४ से जहा का पुरिसे बत्वं महवं वा, धोयं वा, जैसे कोई पुरुष बिल्कुल नये, धोये या करघे से तुरन्त उतरे संतुग्गय वा, मंजिहादरेणीए पक्सिबेन्जा, से नूगं हुए वस्त्र को मजीठ के द्रोण पात्र में डाले तो हे गौतम ! उठाते गोयमा ! उपिलप्पमागे उणिवत्ते, पक्षिप्पमाणे हुए वस्त्र को उठाया गया, डालते हुए वस्त्र को डाला गया फोक्सो, सामा रात सिपा अथवा रंगते हुए वस्त्र को रंगा गया यों कहा जा सकता है। हंसा, भगवं ! उमिखप्पमाणे-जाव-रते सि क्सम्व (गौतम स्वामी)--हाँ भगवन् ! उठाते हुए वस्त्र को उठाया सिया। गया-थावत्-रंगते हुए वस्त्र को रंगा गया, इस प्रकार कहा जा सकता है। से तेण?णं गोपमा! एवं स्वर-आराहए, नो (भगवान्) इसी कारण से हे गौतम ! कहा जाता है कि विराहए। -वि. स. ८, उ, ६, मु. ७-११ (बाराधना के लिए उद्यत हुए साधु या साध्वी) आराधक हैं, विराधक नहीं। भिक्खुस्स आराहणा-विराहणा भिक्षु की आराधना-विराधना३०४. भिक्यू य अप्रयरं अकिन्चट्ठाणं पडिसेविता, से णं ठाणस्स ३०४, कोई भिक्षु किसी अकृत्य स्थान का सेवन करफे, यदि उस तस्स अणासोहय-ऽपरिमकते कालं करेति, नस्थि तस्स आरा- अकृत्यस्थान की आलोचना तथा प्रतिक्रमण किये बिना ही काल कर जाता है तो उसके आराधना नहीं होती। से णं तस्स ठाणस्स आलोहयपडिक्फते काल करेति अस्यि यदि वह भिक्षु उस सेवित अकृत्यस्थान की आलोचना और तस्स आराहणा। प्रतिक्रमण करके काल करता है तो उसके आराधना होती है। प्रिमखू य अनयर अकिच्चद्वाणं पडिसेवित्ता, तस्स णं एवं कदाचित् किसी भिक्षु ने किसी अकृत्यस्थान का सेवन कर भवति पच्छा विगं अहं चरिमकालसमयसि एयस्म ठाणस्स लिया, किन्तु बाद में उसके मन में ऐसा विचार उत्पन्न हो कि आलोएस्लामि-जान-परिवपिजस्सामि, मैं अपने अन्तिम समय में इस अकृत्यस्थान को आलोचना करूंगा -यावत्-तपरूप प्रायश्चित स्वीकार करूंगा परन्तु उस से तस्स ठाणस्स अगालोइयऽपडिक्कते काल करेति नपि अकृत्पस्थान की आलोचना और प्रतिक्रमण किये बिना ही काल तस्स आराहणा। कर जाए तो उसके आराधना नहीं होती। से गं तस्स ठाणस्स आलोइयपशिक्कत कालं करेड, अस्थि यदि वह (अकुत्यस्थानसेवी भिक्षु) आलोचन और प्रतिक्रमण तस्स आराहणा। करके काल करे, तो उसके आराधना होती है। भिक्खू य अनवरं अकिच्चट्ठाणं पउिसे वित्ता, तस्स पं एवं कदाचित् किसी भिक्षु ने किसी अकृत्यस्थान का सेवन कर भवति-"जह ताव समणोवासया विकालमासे कालं किच्चा लिया हो और उसके बाद उसके मन में यह विचार उत्पन्न हो अन्नयरेसु देखलोगेसु वेषताए उवषत्तारो भवति किमंग पुग कि-'"श्रमणोपासक भी काल के अवसर पर काल करके किन्हीं अहं अणपन्नियवेवसणं पिनो लमिस्सामि ?' सिकद्ध से देवलोकों में देवरूप में उसन्न हो जाते हैं, तो क्या मैं अपपनिक णं तस्स ठाणस अणालोइयऽपडिक्कते कालं करेति, मस्थि देवत्व भी प्राप्त नहीं कर सकूँगा?" यह सोचकर यदि बह उस समस आराहणा। अकृत्य स्थान की आलोचना और प्रतिक्रमण किये बिना ही काल कर जाता है तो उसके आराधना नहीं होती। से गं लस्स ठाणस्स आलोइयपशिक्कते कालं करेति, अस्थि यदि वह (अकृत्यसेवी साधु) उस अकृत्यस्थान की आलोचना तस्स आराहणा। -विया. स. १०, उ. २, सु. ७-६ और प्रतिक्रमण करके काल करता है तो उसके आराधना होती है। भायी गं तस्स ठाणस्स अणालोइयऽपरिक्फले कालं करेष्ठ, मायी मनुष्य उस स्थान (वैक्रियकरणरूप प्रवृत्ति प्रयोग) की . नस्थि तस्स आराहणा। आलोचना और प्रतिक्रमण किये बिना काल करता है तो उसके आराधना नहीं होती। अमायो गं तस्स ठाणस्स आलोइयपरिकते कालं करेइ, अमायी मनुष्य उस विराधना स्थान की आलोचना और अस्थि तस्स आराहणा ।-विया. स. ३, उ. २, सु. १६(३) प्रतिक्रमण करके काल करता है, तो उसके आराधना होती है। Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ T सूत्र ३०५ दृष्टान्त द्वारा आराधक विराधक का स्वरूप विट्ठन्तेण आराहग विराग सरूयं ३०५ तए गं गोपमे सम मग महावीर एवं बयासी प० - कहं णं भंते! जीवा माराहगा या दिराहगा वा भवंति ? ४० पोषमा से हाणामए एसि समुहबाबा नाम पताका जानिया पवित्र पुल्फिया, फलिया, हरियन - रेरिज्जमाना सिरोए। अईव जयमोममाणा उबसोममाणा चिट्ठन्ति । समाज में दीविवगा इस पुरा छावाया मंदावाया, महावामा वायंति, तथा णं बहुना ear दतिया-नाव- उबसोमेमाणा चिट्ठन्ति । अप्पेगइया वावद्दया क्या जुन्ना सोडा परिसडिय पत्त-फ-फला-सुक्क दव व ओविव मिलायमाणामिलायमानाचिति। एवामेव समणासो ! जे अम्हं निग्गंयो वा निग्गंधी वा आयरियवायाचं अंतिए मुंडे भविता मागाराओ अथगारियं पम्पए समाणेच समणानं. बहूणं समगीण, बहूणं सदा साचियाणं सावयाणं, बहूणं सम्म सहइ जाव अहियासे. बहूणं अण्णजरियाणं बहूगं मिहत्थाणं नो सम्भ सहावा एक भए पुरिसे देस णं . पण्णले । समाजसो जया णं सामुद्दा ईस पुरेवाया, पच्छावाया मंदावण्या, महावामा वायंति, तथा गं बहने बाबा स्क्याण्णा सोडा-जाक मिलायमाना मिलायमाणा चिटुन्ति । अप्पेगमा दावा पतिया पुष्किया-गाव-बसोममाणा वसोमेमाचा चिति । एवमेव समास! जो अहं जियो वा विनी वाइए समाने बहूणं अगत्यानं बहु महत्या सम्म सहद्द जामहिया बहूणं सम जाणं, बहूणं समणोणं, बहूणं सावयाणं, बहूणं सावि आराधक -विराधक [१३१ हृष्टांत द्वारा आराधक विराधक का स्वरूप - ३०५. किसी समय गौतम स्वामी ने श्रमण भगवान् महावीर से इस प्रकार पूछा प्र. - भन्तं ! जीव किस प्रकार आराधक और किस प्रकार विधिक होते हैं ? उ०- गौतम 1 जैसे एक समुद्र के किनारे दावद्रव नामक वृक्ष कहे गये हैं वे वर्ण वाले बाबतुच्छा रूप है । पत्तों वाले फूलों वाले फलों वाले अपनी हरियाली के कारण मनोहर और भी से अत्यन्त मोभित होते हुए रहते हैं। 7 " हे आयुष्मन् श्रमण ! जब द्वीप सम्बन्धी कुछ-कुछ लिध वायु, वनस्पति के लिए हितकारक वायु भन्द और प्रचण्ड वायु चलती है तब बहुत से दान वृक्ष पत्र से युक्त होकर यावत्शोभित होते हुए रहते हैं । उनमें से कोई-कोई दावद्रव-वृक्ष जीर्ण जैसे ही जाते हैं, सड़े पत्तों वाले, खिरे हुए पत्तों वाले, पीले पत्तों वाले और पुष्प फल से रहित होकर सूखे पेड़ की तरह मुरझाते हुए बड़े रहते हैं। इसी प्रकार हे आयुष्मन् भ्रमण ! जो मेरा बाज्ञानुवर्ती साधु पासीबाचार्यउपाध्याय के समीप में टि होकर हास कास्याग कर अनवार धर्म में दीक्षित होकर बहुत से साधुओं चत सी साध्वियों बहुत से आवकों और बहुत भी ि के प्रतिभूतों को सम्प प्रकार से सहन करता है-यात् विशेष रूप से सहन करता है। किन्तु बहुत से पतीविकों के तथा गृहस्थों के दुर्वनको सम्पन प्रकार से सहन नहीं करता है विशेष रूप से यावत् सहन नहीं करता है, ऐसे पुरुष अर्थात् साधु साध्वी को मैंने देशबिराधक कहा है । हे आयुष्मन् श्रमण ! जब समुद्र सम्बन्धी अल्प पुरोवात, पथ्य वात, मन्दवात और महावात बहती है, तब बहुत से दात्रमन्नृक्ष जी से हो जाते है जाते है यावत्-मुरझाये हुए रहते हैं । किन्तु कोई-कोई दावद्रव वृक्ष पत्रित पुष्पित यावत् अत्यन्त शोभायमान रहते हैं। इसी प्रकार व भ्रमण जो मेरा (आज्ञानुवर्ती) साधु वा साध्वीयावत् दीक्षित होकर बहुत से अन्यतीर्थों के और बहुत से गृहस्थों के दुर्वचन सम्यक् प्रकार से प्रन करता है - यावत् विशेष रूप से सहन करता है किन्तु बहुत से साधुओं बहुत भी माध्वियों बहुत से बायकों तथा बहुत श्री श्राविकाओं के दुर्वचन सम्यक् प्रकार से सहन नहीं करता है। Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२) परमानुयोग-२ भूत और गोल से आराधक-निराधक का स्वरूप सूत्र ३०५-३०६ याणं नो सम्मं सहा-जाव-महिमासेह । एस सए -पावत्-विशेष रूप से सहन नहीं करता है उस पुरुष को पुरिसे देसाराहए पम्पसे।। मैंने देशाराधक ब्रहा है। समकाउसो! जया गं गो वीषिश्चया, णो सामुद्दगा, हे बायूष्मन् श्रमण ! जब द्वीप सम्बन्धी बोर समुद्र सम्बन्धी सि पुरेवाया, पच्छामाया, मंदावाया, महावाया अल्प पुरोवात, पथ्यवात, मन्दवात और महावात नहीं बहती, कार्यति, सया णं सच दाबद्दवा सक्ला जुग्णा बोरा तब पब दायद्रव-वृक्ष जीर्ण सरीखे हो जाते हैं यावत्-मुरझाये -जाद-मिलायमाणा मिलायमाणा चिट्ठन्ति । रहते हैं। एकामेव समगाउसो ! जो अम्हं निम्मंथो वा निगगंधी इसी प्रकार हे आयुष्मन् श्रमण ! जो मेरा (आज्ञानुवर्ती) वा-जाव-पञ्चाए समागे, बहूर्ण समणाणं, बहूर्ण सम- साधु या साध्वी-पावत्-प्रवजित होकर बहुत से साधुओं, लोण, बहूपं साबयाणं, बहूर्ण साविधागं, गहूणं अब- बहुत सी साध्वियों, बहुत से श्रावकों, बहुत सी श्राविकाओं, स्थियाणं बहूर्ग निहत्थाणं नो सम्म सहा-जाव-अहिया- बहुत से अन्यतीथिकों एवं बहुत से गृहस्थों के दुबंधन को सम्यक सेह । एस पं मए पुरिसे सम्वविराहए पग्णत्ते । प्रकार से सहन नहीं करता है-यावत्-विशेष रूप से सहन नहीं करता है । उस पुरुष को मैंने सर्वविराधक कहा है। समपाउसो! जया में बीविन्दगा दिसामुद्दगा बि हे आयुष्मन् श्रमण ! जब द्वीप सम्बन्धी और समुद्र सम्बन्धी ईसि पुरेवाया, पच्छावाया, मंबावाया, महावाया भी अल्प पुरोवात, पश्यवात, मन्दबात और महाबात बहती है, वायति तया गं सम्वे दाबद्दया रुक्ना पत्तिया-जाव- तब सभी दावद्रव-वृक्ष पवित-यावत्-सुशोभित रहते हैं। उवसोभेमाषा चिट्ठन्ति । एवामेव समणाउसो ! जो अम्हं निगांथो वा निग्गंधी इसी प्रकार हे आयुष्मन् श्रमण ! जो मेरा (आज्ञानुवर्ती) -जाब-पबाए समाणे बहूगं समणाणं, बहणं समणीणं, साधु या साठची यावत्-प्रवजित होकर बहुत से श्रमणों के, बहूर्ण सम्बयाणं, बहणं सावियाण, महणं अमडस्थि- बहुत सी श्रमणियों, बहुत से श्रावकों, बहुत सी श्राविकाओं, याणं, बहूणं गिहत्ययावं सम्म सहइ-जाव-अहियासेह। बहुत से बन्यतीथिकों और बहुत से गृहस्थों के दुर्वचन सम्यक् एस गं मए पुरिसे सब्बाराहए पपसे समजाउसो। प्रकार से सहन करता है, उस पुरुष को मैंने सर्वाराधक कहा है। एवं खलु गोयमा ! जीवा आराहगा वा विराहगा वा इस प्रकार हे गौतम ! जीव बाराधक या विराधक होते हैं। भवति । –णाया. अ. ११, सु. ३-१३ सुय-सीलावेक्खया आराहग-विराहग सहवं-- श्रुत और शील से आराधक-विराधक का स्वरूप३२६. रायगिहे नयरे जाब-एवं वयासी ३०६. राजगही नगर में—यावत-गौतम स्वामी ने इस प्रकार कहाप०–अन्नजरिययाणं भंते ! एवमाइक्वंति-जाव-एवं पति - प्र०—भन्ते ! अन्यतीथिक इस प्रकार कहते हैं—यावत् -- एवं खलु प्ररूपणा करते हैं कि१. सोल सेयं, २. सुर्य सेयं, (१) शील ही श्रेयस्कर है, (२) श्रुत ही श्रेयस्कर है। ३. सुयं सेयं सोल सेयं, से कहमेयं मंते ! एवं? । (३) शीलनिरपेक्ष श्रुत और श्रुतनिरपेक्ष शील श्रेयस्कर है । भन्ते ! क्या उनका ये कथन सत्य है ? उ. - गोयमा ! मं ते मन्नत स्थिया एवमाइक्वंसि-जाव- उ-गौतम ! अन्यतीथिक जो इस प्रकार कहते हैं-यावत् एवं पष्णवेति, "जे ते एवमासु मिष्ठा ते एवमा- इस प्रकार की प्ररूपणा करते हैं उनका यह कथन मिश्या है। हे हंषु ।" अहं पुण गोयमा! एवमाइक्वामि-जाय-एवं गौतम ! मैं इस प्रकार कहता है-यावत् - प्ररूपणा करता हूं पहवेमि, एवं अलु मए बत्तारि पुरिसजाया पण्णता, कि चार प्रकार के पुरुष होते हैं । यथासं जहा१. सीलसंपन्ने नाम एगे जो मुयसंपन्ने । (१) एक व्यक्ति शीलसम्पन्न है, श्रुतसम्पन्न नहीं है। २. सुयसंपन्ने नाम एगे जो सीनसंपन्ने । (२) एक व्यक्ति श्रुतसम्पन्न है, शीलसम्पन्न नहीं है। ३. एगे सौलसंपन्ने वि सुपसंपन्ने वि । (३) एक व्यक्ति शीलसम्पन्न भी है और श्रुतसम्पन्न भी है। Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र २०६-३०७ आराधक अनारक्षक नियंन्य आदि के मंग ४. एगे जो सीलसंपन्ने जो सुसंपन्ने। १. सरथ णं मे से पढमे पुरिसमाए से णं पुरिसे सील असुयवं उवरए अविभायधम्मे, एस णं गोयमा ! मए पुरिसे देसाराहए पण्णत्ते । २. तरणं जेसे वो पुरिसजाए से णं पुरिसे असीलवं सुयवं अणुवरए, विनायधम्मे, एस जं गोथमा । मए पुरिसे देखविराहए पन्यसे । ३. लक्ष्य गं जे से लक्ष्ये पुरिसजाए से णं पुरिसे सीलवं, सुयवं, उमरए, विज्ञायधम्मे, एस गं गोयमा ! मए पुरिसे बच्चाहर पसे । २. रातिणिए समणे जिथे अत्यकस्मे अत्यकिरिए आसावी समिए धम्मस्त आराहए भवति । ४. तस्य णं मे से चउथे पुरिसजाए से गं पुरिसे असील अनुवर्थ, अनुवरए अविष्यायाम्मे, एस गोयमा ! मए पुरिसे सच्च विराहए पष्ण से । 3 - विया स उ १०, सु. १-२ कहा है । रियाई भंगाआराहग-अणाराहग ३०७ असारि गिग्गंथा पण्णत्ता, तं जहा १. रातिणिए समणे गिरमे महाकम्मे महाकिरिए अणातावी असमिते धम्मस्स अणाराहए भवति । २. घोमरातिपिए समर्थन महाकम्मे महाकिरिए अणातावी असमिते धम्मस्स अणाराहए भवति । ४. श्रमशतिपिए समये जिग्ये अध्यकम्मे अप्यकिरिए आता समिते धम्मस्त आराहुए भवति । एवं चैव चत्तारि समणोवासगा पण्णत्ता-जात्र- मशहुए भवई । बनारस जहा१. रातिपिया समयी महान्मा महाकरिया याबी असमिता धम्मस्स अणाराहिया भवति । - २. रातिणिया समणी णिग्गंधी अध्यकम्मा अप्यकिरिया आतायी समिता धम्मस्स आराहिया भवति । आराधक विराधक NN [ १३३ (४) एक व्यक्ति न शीलसम्पन्न है और न सम्पन्न है। (१) इनमें से जो प्रथम प्रकार का पुरुष है, वह शीलवान् है, परन्तु श्रुतवान् नहीं है। वह पापादि से निवृत्त है किन्तु धर्म को विशेष रूप से नहीं जानता है। हे गौतम! इस पुरुष को मैंने देश- आराधक' कहा है। (२) इनमें से जो दूसरा पुरुष है, वह पुरुष है, परन्तु श्रुतवान है। पापादि से अनिवृत्त है, विशेष रूप से जानता है। हे गौतम! इस पुरुष विराधक' कहा है। (३) इनमें से जो तृतीय पुरुष है वह पुरुष शीलवान् भी है और श्रुतवान् भी है। वह पापादि से निवृत्त है और धर्म का भी ज्ञाता है। हे गौतम! इस पुरुष को मैंने 'सर्व माराधक कहा है। (४) इनमें से जो पुरुष है, वह न तो भीलवान् है औरना है वह पापादि से निवृत है, धर्म का भी खाता नहीं है। हे गौतम! इस पुरुष को मैंने 'सर्व विराधक शीलवान् नहीं परन्तु धर्म को को मैंने 'बेश आराधक - अनाराधक निर्ग्रन्थ आदि के मंग-३०७. निर्ग्रन्थ चार प्रकार के कहे गये हैं। जैसे (१) कोई श्रमण निर्ग्रन्थ दीक्षापर्याय में ज्येष्ठ होकर भी महामानवाला महाकिया वाला, अतपस्वी और समिति रहित होने के कारण धर्म का विराधक होता है। (२) कोई सनिक श्रमण निर्ग्रन्थ अल्पकर्म वाला, अल्पक्रिया वाला, तपस्वी और पाँच समितियों से युक्त होने के कारण धर्म का आराधक होता है । (३) कोई निर्ग्रन्थ भ्रमण दीक्षा पर्याय में छोटा होकर महाकर्मा, महाविय, अनावानी और अमित होने के कारण धर्म का विराधक होता है । (४) कोई अल्प दीक्षा पर्याय वाला श्रमण निर्ग्रन्य अल्पकर्मा, अल्पक्रिय, तपस्वी और समित होने के कारण धर्म का आराधक होता है । इसी प्रकार चार प्रकार के माल कहे गये हैं-त्आराधक होते हैं । निन्थियाँ चार प्रकार की कही गई हैं। जैसे— (१) कोई सरिक श्रमणी निधी महावर्मा, महात्रिया अतपस्विनी और अमित होने के कारण धर्म को विराधिका होती है । (२) कोई शनिक धमणी निधी अल्पकर्मा, बल्पकिया, तपस्वी और सनित होने के कारण धर्म की आधिका होती है। Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ ] चरणानुयोग - २ ३. ओमरातिथिया समयी जग्गंधी महारया महाकिरिया अणायाधी असमिता धम्मस्स अणाराहिया भवति । ४. ओमरातिणिया समणी गिग्गंयो अध्यकम्मा अप्यकिरिया आताषी समिता धम्मस्स बाराहिया भवति । पण्यताओ-शव-वारा एवं चैव पतार गणोबारिया हिया भवइ । - ठा. अ. ४, उ. ३. सु. ३२१ आहाकम्म आईणं विवरोध परूवणा२०८. "आहाकम् असि मणं पहारेला भवति से गं तस्स ठाणस्स अणालीद्वय अपविते कालं करेति नत्थि तस्स आराहणा । रामपि । आधाकर्म आदि की विपरीत प्ररूपणा से णं तस्स वाणस्स आलोयपठिक्कते कालं करेति अस्थि तस्स आरोहणा । एगमेवं वियर कंसारभ मन्तं दिवागतं सियारपि "आहाकम् अवर" भासिता यमेव परिमिता नयति-जावत्यराणा । एवेन्यंपरापितं । "आहाकम्मं णं अगर भवति - जाव अत्थि तस्स आराहणा । एगी। अमल अणुवनावेत "आहाकामं णं भवति भवति- जाव अस्थि तस्त आराहणा । तदा एतेन गमेणं नेयय्वं कीयकडं जाब- रापिडं । - वि. स. ५.६. सु. १५-१८ सूत्र २०७-३०८ RAD (३) कोई अवमरालिक श्रमणी निर्मन्थी महाकर्मा, महाक्रिया अतपस्विनी और असमित होने के कारण धर्म की विरा होती है। (४) कोई अनमालिक भ्रमण निधी कर्मा अल्पशिया तपस्विनी और समित होने के कारण धर्म की वाराधिका होती है। इससे प्रकार चार प्रकार की धमयोपासिकाएं कही गई हैं। - पावत्-आशधिका होती हैं। आधाकर्म आदि की विपरीत प्ररूपणा- ३०८. "आधाकर्म आहार आदि निर्दोष है" इस प्रकार की जी साधु मन में धारणा बना लेता है यदि वह उस आधाकर्म विषयक अपनी धारणा की आलोचना एवं प्रतिक्रमण किये बिना ही काल कर जाता है तो उसके आराधना नही होती है | यदि वह उस स्थान की आलोचना एवं प्रतिक्रमण करके काल करता है तो उसके आराधना होती है। 銀 : कर्म के आलापक के अनुसार होत स्थापित रचितक, शान्तारमभि भक्त निकाभक्त ग्लान भक्त तर राम इन सब दोषों से युक्त आहारावि के विषय में जानना चाहिये । " "आधरकर्म आहार आदि निर्दोष है" इस प्रकार से जो साधु बहुत से मनुष्यों के बीच में कह कर स्वयं ही इस कर्म आहारादि का सेवन करता है तो यावत् - उसके आराधना होती है। इसी प्रकार से हो कोत दोष यावत् राजपिंड के आलाएक समझ लेने चाहिए। "आाधाकर्म आहार आदि निर्दोष होता है" इस प्रकार कह कर जो एक दूसरे को देता है तो यावत् उसके आराधना होती है । इसी प्रकार से हो कोत दोष यावत्- राजपत्र के आलापक जान लेने चाहिए । "आधाकर्म आहार नि होता है" इस प्रकार जो साधु बहुत से लोगों के बीच में प्रकरण करता है आराधना होती है । उसके इसी प्रकार से ही कोस दोष यावत्- राजपत्र के आला पक समझ लेने चाहिए । Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ३०९-३१० आराधना के प्रकार आराधक-पिराधक [१३५ आराधना विराधना के प्रकार--२ आराहणा-पगारा आराधना के प्रकार-- ३०६. दुविहा बाराहणा पण्णत्ता, संजहा ३०६. आराधना दो प्रकार की कही गई है। यथा१. धम्मियाराहणावेव, २. केवलिबाराहणा पेव। (१) धामिकी आराधना, (२) केवली आराधना, धम्मियाराहणा विहा पण्णत्ता, तं जहा धार्मिकी आराधना दो प्रकार की कही गई है । यथा - . १. सुपधम्माराहणा घेव, २. चरितधम्माराहणावेव।। (१) श्रुतधर्म की बाराधना, (२) चारित्रधर्म की आराधना, केवलिभाराहणा विहा पण्णता, तं जहा केवलिकी आराधना दो प्रकार की कही गई है । यथा -- १. अन्तकिरिया बेध, २ कप्पविमाणोववत्तिया चेव । (१) अन्तक्रिया रूप, (२) कल्पविमान उत्पत्ति रूप, -ठाणं.स. २, उ. ४, सु. ११८ ५०-कविहा गं भंते ! आराहणा पण्णसा? प्र०-भन्ते ! आराधना कितने प्रकार की कही गई है ? उ०-गोयमा ! तिषिहा आराहणा पण्णता,तं जहा उ०-गौतम ! तीन प्रकार की कही गई है । यथा१. गाणाराहणा, २. सणाराहणा, (१) शान आराधना, (२) दर्शन आराधना, ३. चारिताराहना। (३) चारित्र आराधना । प०–णाणाराहणा णं मंते ! कहविहा पण्णसा? प्र.-मन्ते ! ज्ञान आराधना कितने प्रकार की कही गई है? उ० - योयमा ! तिदिहा पण्णत्ता, तं जहा उ. - गोतम ! तीन प्रकार की वही गई है। यथा१. उरकोसिया, २. मनिक्षमा, ३. जहण्णा । (१) उत्कृष्ट, (२) मध्यम, (३) जघन्य । प०-बसणाराणा पं मंते ! काविहा पण्णता ? प्र. भन्ते ! दर्शन आराधना कितने प्रकार की कही उ.- योयमा ! तिषिहा पण्णता, तं जहा १. उक्कोसिया, २. मजिसमा, ३. जहणा । ५० चरिताराहणा णं भंते ! काविहा पणता? उ०--गौतम ! तीन प्रकार की कही गई है। यथा(१) उत्कृष्ट, (२) मध्यम, (३) जघन्य। प्रत-भन्ते ! चारिम आराधना कितने प्रकार की कही 30--गोयमा 1 तिविहा पण्णता, तं जहा .. उ०-गौतम ! तीन प्रकार की कही गई है । यथा१ जक्कोसिया, २. मजिसमा, ३. जहण्णा। (१) उत्कृष्ट, (२) मध्यम, (३) जघन्य । -वि. स. ८, उ.१०, सु. ३-६ जहण्णुक्कोसिया आराहणा-. जघन्य-उत्कृष्ट आराधना३१०. ५०-जस्स गं भंते ! उक्कोसिया जाणाराणा तस्स उक्को- ३१.... भगवन् ! जिस जीव के उत्कृष्ट कानाराधना होती सिया बंसणाराहणा ? जस्स उपकोसिया सणाराहणा है. क्या उसके उत्कृष्ट दर्थनाराधना होती है जिस जीव के उत्कृष्ट तस्स उनकोसिया जाणाराहणा? दर्शनाराधना होती है, क्या उसके उत्कृष्ट ज्ञानाराधना होती है? 30--पोयमा ! जस्स उक्कोसिया जाणाराहणा तस्स बसणा- उ०-गौतम ! जिस जीव के उत्कृष्ट ज्ञानाराधना होती है, राहणा उक्कोसिया वा अजहण्ण उक्कोसिया था, उसके दर्शनाराधना उत्कृष्ट या मध्यम होती है। जस्स पुण उक्कोसिया सणाराहणा तस्स गाणाराहणा जिस जीव के उत्कृष्ट दर्शनाराधना होती है, उसके उत्कृष्ट, उक्कोसा वा जहष्णा वा, अजहण्णमक्कोसा वा। जघन्य या मध्यम ज्ञानाराधना होती है। १ यहाँ केवली से थनकेवली, अवधिज्ञानी, मनःपर्यवज्ञानी और केवलज्ञानी ये चारों लिये जाते है। स्थानांग वृत्तिकार ने कहा - "श्रु तावधि मनःपर्याय केवल ज्ञानीनाम् इयं केवलिकी (संज्ञा)। सा चासावाराधना चेति केवलिक्याराधनेति । Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६] चरणानुयोग - २ - जस्त गं भंते ! उक्कीसिया जाणाराहणा तस्स उनको विपरिताराया? वस्तुकोलिया परिताराहगा तरसुक्रोशिया गाणार हणा उ०- बद्दा उनकोसिया गाणाराहणा में दंसणा राहणा व भणिया तहा उनकोसिया णाणाराहणा य वरिता राणा व भाषियन्वा । उनकोसिया दंसणाराहणा तस्सुरको सिया परिसराणा ? कोसिया परिसारण तरको सभाहणा ? ५० व काr विराहया पगारा २११ ४० गोपमा र उनकोसिया इंसणाराहणा तस्थ चरिताराणा उक्कोसा वा जहण्णा वा अजहण्णमणकोसा था, जस्स पुण उक्कोसिया परिताराहणा तस्स दंसणाराहणा जिपमा उक्कोसा । - वि. स. उ. १०, सु. ७-६ राहणाओ पाओ तं जहा १. जाग विराहणाए २. २. ए विराहचाए, - सम सम ३. सु. १ • प्र० - भगवन् ! जिस जीव के उत्कृष्ट ज्ञानाराधना होती है, क्या उसके उत्कृष्ट चारणाराधना होती है, जिस जीव के उत्कृष्ट चारित्राराधना होती है, क्या उसके उत्कृष्ट ज्ञानाराधना होती है ? ए० जिस प्रकार उत्कृष्ट ज्ञानाराधना और दर्शनाराधना के विषय में कहा उसी प्रकार उत्कृष्ट शानाराधना और उत्कृष्ट चारित्राराधना के विषय में भी कहना चाहिए । आराहगा अणारंभा अणगारा २१२. मामावर सविसेस मया सततं ना - सूत्र ३२०-३१२ प्र० । जिसके दर्शनाराधना होती है, क्या - भगवन् 1 उत्कृष्ट उसके उत्कृष्ट पारिना होती है, जिसके उत्कृष्ट चाराराधना होती है क्या उसके उत्कृष्ट दर्शनाराधना होती है ? wwww आराधक विराधक की गति--3 अणारंभा, अपरिहा, धम्मिया, धम्माया धम्मिट्ठा धम्मलाई लोई, धम्मपलाजणा, धम्यापारा मेव विकिपेाणा, सुया, सुपडियानंदा साहू www उ-योम ! जिसके उत्कृष्ट दर्शनाराधना होती है, उसके उत्कृष्ट, मध्यम या जघन्य चारिवाराधना होती है । जिसके होती है, उसने नियम से उत्कृष्ट दर्शनाराधना होती है । १. सध्या पाणाडवायाओ पडिविरया । २. साओ साओ पतिविरया । . सध्याओ अविण्णादाणाओ पडिविरया । १ पडिकासामितिहि विराहणाई, तं जहा --- १. जाणवि राणाए विराधना के प्रकार ३११. विराधना तीन प्रकार की कही गई है। यथा(२) दर्शवधन (१) ज्ञानविना (३) भारि विराधना आराधक अनारम्भ- अणगार ३१२. ग्राम, आकर - यावत् सनिवेश में जो ये मनुष्य होते हैं, यथा 1 आरम्भ रहित, परिग्रह रहित, धार्मिक, धर्मानुगामी, धर्मिष्ठ, धर्म का कथन करने वाले धर्म का अवलोकन करने वाले धर्मप्ररंजन, धर्मसमुदाचार, धर्मपूर्वक जलाने वाले सुशील, सुव्रत, स्वात्मपरितुष्ट होते हैं । (१) सब प्रकार की हिंसा प्रतिविरत होते हैं। असे प्रतिविरत होते हैं। (२) (३) सर्व चोरी से प्रतित होते हैं। २. सदराहणाए २. परिवराहचाए। - आव. अ. ४ सु. २२ ( ५ ) Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ३१२ आराधक-अपारम्भ अणगार आराधक-विराधक [१३७ ४ सयाओ मेहुणाओ पजिविरया । (४) संपूर्णत; अब्रह्मचर्य से प्रतिषिरत होते हैं। ५. सम्याओ परिगहाओ पडिविरया। (५) तथा सम्पूर्णतः परिग्रह से प्रतिविरत होते हैं। ६. सच्चामो कोहाओ, ७. माणाओ, ८. मायाओ, सम्पूर्णतः (१) क्रोध से, (७) मान से, (८) माया से, ६. लोभाओ, १०. पेज्जाओ, ११. दोसाओ, १२. कलाहाओ, (६) लोभ से, (१०) राग से, (११) द्वष से, (१२) कलह से, १३, बाभक्खाणाओ, १४. पेसुग्णाओ, १५. परपरिवायाओ, (१३) अभ्याख्यान से, (१४) पशुन्य से, (१५) परपरिवाद से, १६. अरइरईओ, १७. मायामोसाओ, १८. मिच्छासण- (१६) अरति-रति से, (१७) माया मृषा से, (१८) मिध्यादर्शनसल्लाओ परिविरया। शल्य से यावजीवन प्रतिविरत होते हैं। सम्बाओ आरम्भ-समारम्माओ परिविरया। सब प्रकार के आरम्भ-समारम्भ से प्रतिविरत होते हैं, सय्याओ करण-काराबणाओ पडिविरया। करने तथा कराने से सम्पूर्णतः प्रतिविरत होते हैं, सव्याओ पयग-पयायणाओ पडिविरया । पकाने एवं पकवाने से सर्वथा प्रतिविरत होते हैं, सख्याओ कोट्टण-पिट्टण-तज्जण-तालण-बह-बंध-परिकिलेसाओ काटने, गीटने, तजित करने, ताड़ित करने, वध-बन्धन एवं परिविरया। किसी को कष्ट देने से सम्पूर्णत: प्रतिविरत होते हैं। सव्याओ पहाण महण-बष्णप-विलेवण-सह-फरिस-रस-रव- स्नान, मर्दन-वर्णक-विनेएन-शब्द-स्पर्श-रस-रूप-गन्ध-मालागंध-मल्लालंकाराओ पजिविरया। और अलंकार से सम्पूर्ण रूप से प्रतिविरत होते हैं। जे पावणे तहप्पगारा सावज्जजोगोवहिया कम्मंता परपाण- इसी प्रकार और भी जो पाप-प्रवृत्तियुक्त, छल-प्रपंचयुक्त परियावर फरा कज्जंति, तओ वि पडिविरण जाबन्जीवाए। दूसरों के प्राणों को कष्ट पहुंचाने वाले कर्म किये जाते हैं उनसे भी जीवन भर के लिए सम्पूर्णतः प्रतिविरत होते हैं । से जहाणामए अणणारा भवंति-१. हरियासमिया, २. वे अनगार भगत्रात-(१) ईर्यासमिति युक्त, (२) भाषा भासासमिया, ३. एसणासमिपा, ४, मायाण-भंड-मत्त- समिति युक्त, (३) एषणा समिति युक्त, (४) पात्र आदि के उठाने, णियखेवणासमिया, ५. उच्चार-पासवण खेल-संघाण-जल्ल इधर-उधर रखने की समिति से युक्त, (५) मल-मूत्र-खंखार परिट्ठरवगिमा ममिया, नाक आदि का मैल त्यागने की समिति से युक्त होते हैं। मणसमिया, वइसमिया, कायसमिया, मणगुत्ता, वहगुत्ता, मग समित, वरन सगित, काय समित, जो मन बचन तथा कायगुत्ता, पुसा, गुलिपिया, गुत्तबंभयारी, चाई, लज्जू, शरीर की क्रियाओं का संयम करने वाले, गुप्त---शब्द आदि विषयों धन्ना, तिखमा, जिइंदिया, सोहिया, अणियाणा, अप्पस्सुपा, में राग रहित-अन्तर्मुख. गुप्तेन्द्रिय-इन्द्रियों को उनके विषय अबहिल्लेसा सुसामग्णरया, दंता, हणमेव निगाथं पावयणं व्यापार में लगाने की उत्सुकता से रहित, गुप्त ब्रह्मचारी-नियमोपुरओकाऊं विहरति ।। पनियम पूर्वक ब्रह्मचर्य का संरक्षण करने वाले, त्यागी, लज्जा वाले, धन्य, क्षमा-धारी, जितेन्द्रिय, शोधन करने वाले, अल्प उत्सुक्र, संयत-विचार वाले, सुश्रामण्यरत, दान्त और केवल इस निग्रंथ प्रवचन में श्रद्धा रडकर विचरण करते हैं। तेसि गं भगवंताणं एएणे विहारेण विहरमाणाणं अत्यगइ- ऐसी चर्या द्वारा संयमी जीवन का निर्वाह करने वाले पूजयाणं अपते अणुत्तरे णिच्वाधाए निराबरणे कसिणे पडिपुण्णे नीय श्रमणों में से कक्ष्यों को अन्तरहित सर्वश्रेष्ठ, वाधारहित, केवलवरणाणतणे समुष्पज्जा। आवरणरहित, सर्वार्थग्राहक, परिपूर्ण, केवलज्ञान केवलदर्शन समुत्पन्न होता है। ते बहूई वासाई केबलरियागं पाउणं ति, पाणिता भत्तं वे वहत वो तक केवलीपर्याय का पालन करके, आत में पच्चक्वंति पच्चविखत्ता, बहई भत्ताई अणसणाए छेति, आहार का परित्याग करके अनशन सम्पन्न कर, छवित्ता, १ उपमा का अंश संयमी प्रकरण में देखें। Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८] चरणानुयोग-२ माराधक-अगारम्म अगगार सूत्र ३१९-३१३ जस्सट्ठाए कीरइ नग्गमावे, मुंजमावे, अन्हाणए, अवंतषगए, जिस लक्ष्य के लिए नग्नभाव, मुण्डभाव, अस्नान, अदन्तकेसलोए, संभरबासे, अच्छत्सर्ग, अणोवाहणगं, भूमिसेज्जा, धावन, केशलुंचन, ब्रह्मचर्यवास, छाते तया जूते का अग्रहण, फलहसेम्जा, कट्टसेज्जा, परघरपवेसो, लगावल, परेहि, भूमि, फलक व काष्ठ पट्टिका पर शयन, प्राप्त अप्राप्त की चिता होलगायो, निदणाओ, खिसणाओ, गरहणाओ, तम्जवाओ, किये बिना भिक्षा हेतु परगृह प्रवेश, दूसरे के द्वारा की गई अवज्ञा, तालणाओ, परिभवणाओ, पध्वहणाओ, उच्चावया, गाम- अपमान, मिन्दा, खिसना, गही, तर्जना, ताड़ना, परिभव, प्रव्यथा कंटगा, यानीसं परीसहोषसग्गा अहियासिजति । अनेक अल्पाधिक इन्द्रिय-कष्ट बाईस प्रकार के परीषह एवं उप सर्ग आदि स्वीकार किये जाते है। तमट्ठमाराहिता परिमेहि उत्सासणिस्सासहि सिमंति, उस लक्ष्य को पूर्ण कर अपने अन्तिम उच्छ्वास-नि:श्वास में बुजति, मुख्यति, परिणियाणयंति सम्बवतापमतकरति। सिद्ध होते हैं, बुद्ध होते हैं, मुक्त होते हैं, परिनिस होते हैं और सब दुःखों का अन्त करते हैं। जेसि पियपं एगइयाणं णो केवलबरनाणसणे समुपज्जा, जिन कतिपम अनगारों को केवलज्ञान, केवलदर्शन उत्पन्न से बहूई वासाई छउमस्थपरियाग पाडगंति, पाउणिसा नहीं होता ये बहुत वर्षों तक छद्मस्थ-पर्याय में संयम पालन आवाहे उप्पपणे वा अप्पम्मे वा मत्तं पञ्चवति । ते यह करते हैं। फिर किसी रोग आदि के उत्पन्न होने पर ग न होने मत्ताई अणसणाए छेवेंति, जस्सट्टाए, कौर मग्गमावे-जाव- पर भी वे भोजन का परित्याग कर देते हैं। बहुत दिनों का तमटुमाराहिता परिमेहि सासणीप्ताहि अणसं, अगुत्तर, अनशन करते हैं, अनशन सम्पन्न कर जिस लक्ष्य से कष्ट पूर्ण निवाघायं, निराबरगं, कसिणं, परिपुर्ण केवलवरनाण- संयम पथ स्वीकार किया-पावत उसे आराधित करके अन्तिम वंसगं उप्पादति, सओ पन्छा सिरितहिति-जाव-सयाक्लाग- उच्छवास निःश्वास में अनन्त, अनुत्तर, निव्याघात, निराबरण, मंतं करेहिति। कृत्स्न प्रतिपूर्ण केवलज्ञान, केवलदर्शन प्राप्त करते हैं। तत्पश्चात् सिद्ध होते हैं-यावत् - सब दुःखों का अन्त करते हैं। एगच्चा पुण एगे भयंतारो पुवकम्मावसेसेगं कालमासे कई एक ही भव करने वाले पूर्व-संचित कर्मों में से कुछ कर्म काल किच्चा उक्कोसेणं सबटुसिडे महाविमाणे वेवसाए क्षय अवशेष रहने के कारण मृत्यु काल आने पर देह-त्याग कर उपवतारो भवति । उत्कृष्ट सर्वार्थ सिद्ध महाविमान में देवरूप में उत्पन्न होते हैं । तहि तेसि गई, तहि तेसि लिई, तहि तेसि उववाए पपसे। वहां अपने स्थान के अनुरूप उनकी गति, स्थिति और उप पात होता है। प०-तेसि गं मंते ! देवाणं केवइयं कालं हि पण्णता? प्र०-हे भगवन ! उन देवों की स्थिति कितने काल की कही गई है? उ.-गोयमा ! तेत्तीसं सागरोवमाई हिणत्ता। उ.-गौतम ! उनकी स्थिति तेतीस सागरोपम-प्रमाण प०-अस्थि मंते ! तेसिनं देवाणं रीवा , गुई प्र.-भन्ते । उन देवों की ऋद्धि, ध्रुति, यश, बल, बीर्य वा, असे इवा, असे वा, वीरिए इवा, पुरि- एवं पुरुषाकार पराक्रम होता है ? सक्कारपरक्कमे रा? उ.-हंता अस्थि । उ-हो, होता है। ५० ते ६ भंते ! वा परलोगस्स माराहगा, प्र०-भन्ते ! वे देव परलोक के आराधक होते हैं ? उ.-हंता अस्थि । -उव. सु. १२६-१२६ उ.-हो, होते हैं। आराहगा अप्पारंमा समणोवासगा आराधक अल्पारम्भी श्रमणोपासक. ३१३. से जे इमे गामागर-जाव-सष्णिवेसेसु मणुया भवति, तं जहा- ३१३. ग्राम, आकर-पावत्-सन्निवेश आदि में ये जो मनुष्य अप्पारंभा, अप्पपरिमाहा, धम्मिया, घम्मानुया, धम्मिट्ठा, रहते हैं, यथा-अल्पारम्भी, अल्परिग्रही, धार्मिक, धर्मानुयायी, धम्मक्खाई, धम्मप्पलोई, धम्मपलग्जणा, धम्मसमुदायारा, धर्मिष्ठ, धर्मवादी, धर्मप्रलोको, धर्मानुरागी, धर्मरूप सदाचार धम्नेगं । प्रिति करेपाणा, सुपीत्रा, सुखरा, सुपति- वाले, धर्म से ही जीवन निर्वाह करने वाले, सुशील, सुवती, सदा याणंदा । प्रसन्नचित्त रहने वाले होते हैं। Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१३ साहू एमवाय पाणावायाओ परिविरया जावजीवाए, गयाओ अपरिया--एवाओं परिणाहाल पत्रि विरिया जावज्जीवाए, एगच्चा अपरिविरिया, एगदाओ कोहाल, मानाओ, माया, नोहाली, पेज्जाओ, दोशाओ फलहाओ अमषखाओ, पेसुण्णाओ, परपरि बाबाओ बहरो मायामोसानो मिठासलाओ, एगच्चाओ पडिविरया जावज्जीबाए, एगच्चाओ अडि विरया, " आराधक अत्यारम्भमणोपासक , एगचाओ आरंभसमारंभाओ पडिविरया जावजीवरए गाओ परिवा एगवाओ करणकारावणाओ पडिविरया जावज्जीवाए, एवच्चा पपपपवावगाओ पडि विरया जारजीबाए, एगण्याओ अपडिरिया, एगच्छाओ कोण-वि-राजा वह परिकि लामो पष्टिविरया जाए, एगन्बाओ अपतिविरथा, एगच्चाओ व्हाण महणवण्णक- विलेयण-सह-फरिस-रस-कमपंधरा परिविरया नावजीपाए, एगचाओ अष अप डिरिया, जे यावणे तपगारा सावज्नजोगोवहिया कम्ता परपाणपरियायणकरा कति तनो वि एगयाओ परिविरमा जामजोधा, एगण्या अपडिबिरया सं जहा - समगोवरसगा भवति, अभिगयनोवा जीवा उवलयपुण्गदाया आसव संवर-निज्जर-किरिया अहिर-बंध मोक्स -फुसला।" असहेज्जाओ देवासुर-नाग-जक्ल- रक्खस-किश्वर - किंपुरिसगल-गंधय्व-महोरगाइएहि देवगणेहि निग्गंथाओं पावयणाओ निर्माणे निस्संकिया, गिक्कंलिया, निव्वितिमिच्छा बट्टा, गहियट्ठा, पुच्छियट्टा, अभिगयट्ठा, विणिच्छियट्ठा, अभिपेमाणुरागरता, 'अथमाउसो ! निग्गंथे पावयणे, अट्ठ अयं परमठ्ठ े सेसे मण' असिफलिहा, अबंधकुबारा वियततेउरपरपर दाप्पसा चउदसमुद्दिट्टपुण्णमासिणीसु परिपुष्णं पोसहं सम् अनुपाता आराधक-विराधक [१३६ जो साधुओं के पास स्थूल हिंसा से यावज्जीवन विरत होते और सूक्ष्म हिंसा से अनिष्ट होते है यावज्जीवन अंशतः विरत और अंशत: अविरत होते हैं। aur क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, कलह, अभ्यानयान, वैशुन्य, परपरिवाद, रति बरति मायामृषा और मिथ्यादर्शनशल्प से सावज्जीवन अंतः विरत और अंतः भविरत होते हैं, आरम्भ समारम्भ से यावज्जीवन अंशतः विरत मंगतः अविरत करने कराने से वजीवन अंशतः भिरत अंशतः अविरत, पचन पाचन से यावज्जीवन अंशतः विरत, अंशत: अविरत, कूटने-पीटने - वर्जन- तान-बंध और परिवेश से या ज्जीवन अंशतः विरत, तः अविरत, स्नान, मर्दन, वर्णक-विसेचनमब्दस्पर्श-रस-रूप-गंधमाला एवं अलंकार से यावज्जीवन अंशतः विरत, अंशतः अरिश्त होते है। अन्य भी जो ऐसे पाप प्रवृतियुक्त तथा दूसरों के प्राणों को कष्ट पहुंचाने वाले जो कार्य किये जाते हैं उनसे भी पापजीवन अंशतः विरत अंशतः अविरत होते हैं । दे इस प्रकार के श्रमणोपासक होते हैं- जीव- अजीव के ज्ञाता, पुण्य पाप को भी भौति समझे हुए बाधव, संपर निर्जरा, क्रिया, अधिकरण, बंध और मोक्ष तत्वों में कुशल, किसी की सहायता की अपेक्षा न रखने वाले देव असुर नाग-यक्ष-राक्षस किन्नर-किम्पुरुष गरुड़-गंधर्व महोरग आदि देव गणों के द्वारा भी निर्ग्रन्थ-प्रवचन से विचलित न किये जा सकने वाले, १ धर्म शिक्षा में उपस्थित श्रावक श्राविका आज्ञा का आराधक होता है । निधन में निःशंक, निष्कांक्ष, निर्विचिकित्स, लब्धायें, गृहीतार्थं, पुष्टार्थ, अभिगतार्थं विनिश्चितार्थ होते हैं, निर्मन्थ प्रवचन के प्रति रग-रग में अनुराग से रंगे हुए होते हैं । हे आयुष्य | निर्धन्य वचन ही सार है, यही परमार्थ है और शेष अनर्थ है ऐसा भद्वान और कयन करने वाले धर्मला को त लगाने वाले, अतिथियों के लिए द्वार खुला रखने वाले, अन्तःपुर तथा परकीय भर में बेरोक टोक जाने-जाने वाले, चतु देशी, अष्टमी, अमावस्या और पूर्णिमा इन तिथियों में प्रतिपूर्ण पौष व्रत का सम्यक् प्रकार से पालन करने वाले, - वा. न. १, सु. ११ Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४०] २ समणे निग्गंधे फाय. एसपिज्जेणं असण-पाण-लाइम-साइ ओहमेस जेणं, पडि हारएण य पीड़-फलग सेज्जा संथारएणं पहिलाभमाणा विहरति विहरिलाभतं पचति न पचति ते बहू मताएं अणसणाए छेदेति, छंदिता आलोइयपडिक्कंता समाहिता कलमासे कालं किच्चा उक्कोसेणं अन् कप्पे देवत्ताए उबवत्तारो भवति । सहि देखि गई जान -बावीस समयमा जाय-परमोगरत भरागा --उव. सु. १२३-१२४ आराधक सपिंचेन्द्रिय तिर्यक्योकि आराहया सपिंजिनियतिरिक्तशोणिया३१४. से जे इमे सणिपंचिदियतिरिक्खजोणिया पज्जतया भवंति संजहा- जलबरा, चलयरा, खयरा 1 लेसिया सुभेवं परिणामेनं पतिसानेहि मेस्साहि विमुमापहि तयावरणमा कम्माणं खओवसणं, ईहाह-मग्गण - गवेसणं करेभाणाणं मणीपुथ्व आइसरणे राम्रण्यद तए णं समुप्पण्ण-जाइसरणा समाणा सयमेव पंचाश्वपाई पति वि बहू सोलग्यगुणवेरमणपच्चक्खाण पोहोचवासहि अप्पाणं मामागा बहुबालाई आउ पाति, पालिता आलोयता समाहिता कलमासे कालं fear उनकोसेणं सहस्सारे रूप्ये देवताए उनारो भवंति । विराहया एगंत बाला-३१५.० - तहि सेसि गई जाव अट्ठारस सागरोषमादं ठिई-जाद-परलोगस्सा राहदा .. ११०-११२ 7 हंतापचयति भते असंखए, अबिर अर्थाविपचच्च पाकम्मे, सकिरिए, अबुडे, एगंतबंडे, एगंत बाले, एतत्ते ओसणस पाणधाई कालमासे कालं पिचार उपवज्जति ? तथा श्रमण निर्ग्रन्थों को प्रासुक एवं एषणीय अशन, पान, खादिम और स्वादिम आहार का तथा वस्त्र, पात्र, कम्बल, पादपोंछन, औषध, भेषज तथा पडिहारी ( वापिस लेने योग्य) पीठ फलक या संस्तारण का दान करते हुए विचरते हैं. विचरकर अन्त में आहार का प्रत्याख्यान करते हैं। आहार का प्रत्यास्थान करके बहुत से भक्तों (भोजन वेलाओं का ) अनशन से छेदन करते हैं, छेदन करके आलोचना-प्रतिक्रमण करके समाधि को प्राप्त होकर काल मास में काल करके उत्कृष्ट अच्युत कल्प में देव रूप से उत्पन्न होते हैं । नहीं उनके स्थान के अनुरूप यतिधातुमास माग रोपम की स्थिति कही गई है - यावत् - वे परलोक के आराधक होते हैं। ३१३-११५ आराधक सनिपवेन्द्रिय तिर्यचयोनिक ३१४. जो ये सन्निवेन्द्रिय पर्याप्त तिर्यचयोनिक होते हैं, जैसे- (१) जलचर, (२) स्थलचर, (३) खेचर, उनमें से कइयों के उत्तम अध्यवसाय, शुभ परिणाम तथा विशुद्ध होती हुई श्याओं के कारण ज्ञानावरणीय एवं नीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम से ईहा, अपोह, भार्गणा, गवेषणा करते हुए अपनी संशित्य अवस्था से पूर्ववत भयों की स्मृति रूप जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हो जाता है । - उव. सु. ६७ जाति-स्मरण ज्ञान उत्पन्न होने पर वे स्वयं पाँच अणुव्रत स्वीकार करते है, स्वीकार करके, अनेकविध शीत गुणवत, विरति प्रत्यास्थान दोषोप वास आदि द्वारा आत्मा को भावित करते हुए बहुत वर्षों तक अपने आयुष्य कान करते हैं फिर से अपने पापस्थानों की आलोचना कर प्रतिक्रमण कर समाधि-व्यवस्था प्राप्त कर मृत्यु कालमाने पर देहवान कर स्कूष्ट सहखार-कल्प-देवलोक में देव रूप में उत्पन्न होते हैं । अपने स्थान के अनुरूप उनकी गति होती है— पावत् उनकी वहां बहार सामरोपम की स्थिति कही गई है-पात् वे परलोक के आराधक होते हैं । विराधक एकान्त बाल ३१२. प्र० भगवन्! जो जीव संयम रहित है, अविरत है, जिसने सम्यक्त्व पूर्वक पापकमों को हलका नहीं किया है, नहीं मिटाया है, जो सक्रिय है-संवररहित है-पापपूर्ण प्रवृत्तियों द्वारा अपने को तथा औरों को दण्डित करता है, एकान्त बाल है तथा मियान की गाड़ निद्रा में दोबा हुआ है, अब प्राणियों की हिंसा में लगा रहता है तो क्या वह मृत्यु आने पर मरकर मेर मिकों में उत्पन्न होता है ? उ०- हाँ, गौतम वह नरक में उत्पन्न होता है । Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विराधक अकाम निर्जरा करने वाले आराधक-विराधक १४१ विराहया अकाम निज्जरा कारगा विराधक अकाम निर्जरा करने वाले३१६. प.-जीवे मंते ! असंजए अविरए अपरिहयपच्च- ३१६. प्र०-भगवन् ! जिन्होंने संयम नहीं साधा है, जो हिंसा, सायपावकम्मे इओ खुए पेच्चा देवे सिया ? असत्य आदि से विरत नहीं है, जिन्होंने सम्यक् श्रद्धापूर्वक पापों का त्याग कर उन्हें नहीं मिटाया है, वे यहाँ से मृत्यु प्राप्त कर आगे के जन्म में क्या देव होते हैं? ३०-गोयमा ! अत्धेगड्या देवे सिया, अस्थेगहमा णो देवे --गौतम ! कई देव होते है, कई देव नहीं होते है। सिया। १०-से केषट्ठ मंते ! एवं बुच्चइ प्र.-भगवन् ! आप किस अभिप्राय से ऐसा कहते हैं कि "अत्गइया देदे सिया, अत्यगइया णो देवे सिया ?" कई देव होते हैं, कई देव नहीं होते हैं ? उ०---योयमा ! जे इमे जीषा यामागर-नगर-निगम-राय- उ०-गौतम ! जो जीव मोक्ष को अभिलाषा के बिना या हाणि - खेर कमाइ-ब-दोणमुह-पट्टणासम-संबाह- कर्मक्षय के लक्ष्य के बिना ग्राम, आकर, नगर, निगम, राजधानी सण्णिवेसेसु अकामतण्हाए, अकामछुए, अकामबन- खेट, कर्बट, मडंब, द्रोणमुख, पत्तन, आश्रम, संवाह और सनिवेष घेरखासेणं, अकामअहाणग-सीवाण्वसमसग-सेय- में तृषा, क्षुधा ब्रह्मचर्य, अस्नान, शीत, आतप, डांस, मच्छर, जल्ल-मल्ल-पंकपरितावेणं अप्पतरों वा भुज्जतरो वा पसीना, रज, मैल, पंक इन परितापों से अपने आपको थोड़ा या कासं अप्पाणं परिकिलेसंति, अप्पतरो वा भुजतरो अधिक क्लेश देते हैं, कुछ समय तक अपने आपको फ्लेखित करके वा काल अप्पाणं परिफिलेसित्ता कालमासे काल मृत्यु का समय आने पर देह का त्याग कर वे यानन्यन्तर देवकिश्वर अग्णयरेसु वाणमंतरेसु देवलोएस वेबसाए लोकों में से किसी देवलोक में देव के रूप में उत्पन्न होते है। उववत्तारो भवंति । तहि सेसि गई, तहिं सेसि ठिई, बहाँ उनकी अपनी विशेष गति, स्थिति तथा उपपात होता है। तहिं सेसि उयवाए पण्णते। प०-तेसि णं मते 1 देवाणं केवइयं काल लिई पण्णता? प्र-भगवन् ! वहाँ उन देवों की स्थिति कितने समय की बतलाई गई है? उ०-गोयमा दसवाससहस्साई टिई पष्णता । उ.--गौतम ! वहाँ उनकी स्थिति दस हजार वर्ष की बतलाई गई है। प०-अस्थि णं भंते ! तेसि देवाणं इतो हवा, जुई इ वा प्र--भगवन् ! क्या उन देवों की ऋति, युति, पण, बल, असे इ या, बले इबा, बोरिए इ घा, पुरिसपकार- दीर्य, पुरुषार्थ तथा पराक्रम होते हैं ? परक्कमेदवा? उ०–हता अस्थि। उ. हां, गौतम ऐसा होता हैं। प०-ते गं भंते ! देवा परलोगस्स आराहगा? प्र०-भगवन् ! क्या बे देव परलोक के आराधक होते है ? उ०-खो हग? सम?। -उव. सु. ६८-६९ उ.-गौतम ! ऐसा नहीं होता अर्थात् के आराधक नहीं होते हैं। विराहगा अकाम परिकिलेसगा विराधक अकाम कष्ट भोगने वाले३१७. से जे इमे यामागर-जाव-सणिवेसेस मज्या भवंति, तं ३१७. जो ये ग्राम, आकर-यावत्-सन्निवेश में मनुष्य होते है, यया१. अंबड़गा, (१) जिनके किसी अपराध के कारण काठ या लोहे के बन्धन से हाथ धर बांध दिये जाते हैं, २. गिमलबडगा, (२) जो बेड़ियों से जकड़ दिये जाते हैं, ३. हडिया , (३) जिनके पर काठ के खोड़े में डाल दिये जाते है, ४. पारगडगा, (४) जो कारागार में बन्द कर दिये जाते हैं, ५. हरपछिण्णगा, (५) जिनके हाथ काट दिये जाते है, Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४०] धरणानुयोग-२ विराधक अकाम कष्ट भोगने वाले सूत्र ३१७ .. haneeteeeeeee eeeeason ..पायरिणगा, ७. कमां-गा, ८. अक्कछिष्णगा, ९.मोटुगिंगा, १०. जिम्मछिपणगा, ११. सीसहिष्णया, १२. मुसछिपणा, १३. माठिणगा, १४. वेकाछिपणगा, १५. हिययउपाश्मिगा, १६. मयप्पाखियगा, १७. बसणुपाखियगा, १८. असगुप्मारियगा, १६.गेवग्गिा , २०. तंबुलन्छण्णगा, २१. कामणिमसखाषियगा, २२. ओलंबियगा, (६) जिनके पैर काट दिये जाते हैं, (७) जिनके कान काट दिये जाते हैं, (1) जिनके नाक काट दिये जाते हैं, (8) जिनके होंठ छेद दिये जाते हैं, (१०) जिह्वाएँ काट दी जाती हैं, (११) मस्तक छेद दिये जाते हैं, (१२) मुंह छेद दिये जाते हैं, (१३) मध्य भाग (पेट) छेद दिये जाते हैं, (१४) वायें काधे से लेकर दाहिनी काख तक में रह-भाग मस्तक सहित विदीर्ण कर दिये जाते हैं, (१५) हृदय चीर दिये जाते हैं, (१६) आँखें निकाल ली जाती हैं, (१७) दांत तोड़ दिये जाते हैं, (१८) अंडकोष उखाड़ दिये जाते हैं, (१६) गर्दन तोड़ दी जाती है, (२०) चावलों की तरह जिनके शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर दिये जाते हैं, (२१) शरीर का कोमल मांस उखाड़ कर जिन्हें खिलाया जाता है। (२२) जो रस्सी से बांधकर कुए खडे मादि में लटका दिये जाते हैं, (२३) वृक्ष की शाखा में हाथ बांध कर लटका दिये जाते हैं। (२४) चन्दन की तरह पत्थर आदि पर घिस दिये जाते हैं, (२५) पात्र स्थित दही की तरह जो मप दिये जाते हैं, (२६) काठ की तरह कुल्हाड़े से फाड़ दिये पाते हैं, (२७) जो गन्ने की तरह कोल्हू में पेल विमे भाते हैं, (२८) जो सूली में पिरो दिये जाते हैं, (२६) जिनके देह से लेकर मस्तक में से सूसी निकाल दी जाती है, (३०) जो खार के बर्तन में गल दिये जाते हैं, (३१) जो गीले चमड़े से बांध दिये जाते हैं, (३२) सिंह की पूंछ से बाँध जाते है, अथवा जिनके जन । नेन्द्रिय काट दिये जाते है, (३३) जो दावाग्नि में जल जाते हैं, (३४) जो कीपर में दून जाते है, (३५) जो कीचड़ में फंस जाते है, (१६) जो गला मोड़कर मरते हैं, (३७) जो थातध्यान से पीड़ित होकर मरते है, (15) जो निदान करके मरते हैं, (१९) जो भाले बादि से अपने भापको वेधकर मरते है, २३. संघियगा, २४. पंसियगा, २५. धोसियगा, २६. फालिया, २७. पीलिपगा २८, मूलाइयगा, २९. सुसभिणगा, ३०. सारवत्तिया, ३१. बमबत्तिया, १२. सौहपुग्छियगा' ३३. स्वग्गिबागा, १४.पंकोसमगा, ३५. पंकेसगा, ३. बलयमयगा, २७. बसमयगा, ३८. गियानमयगा, ३६. अंतोसल्लमयमा, Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्र ३१७-३१८ विरग्धक मा प्रकृति मनुष्य आराधक-विराधक [१४३ ४०. गिरिपडियगा, (४०) जो पर्वत से दृश्यमान स्थान में गिरकर मरते हैं, ४१. तापडियगा, (४१) जो वृक्ष से गिरकर मरते हैं, ४२. मक्पडियगा, (४२) जो पर्वत से अदृश्य स्थान पर गिरकर मरते हैं, ४३. पिरिपक्खोलगा, (४३) जो पर्वत से छलांग लगाकर मरते हैं, ४४. तरूपसंदोलगा; (४४) जो वृक्ष से छलांग लगाकर मरते हैं, ४५. मश्परसंबोलगा; (४५) जो पर्वत से अदृश्य स्थान पर छलांग लगाकर मरते हैं, ४६. असोसिस (४६) जो जल में प्रवेश कर मरते हैं, ४७. जलणपवेसिया, (४७) जो अग्नि में प्रवेश कर मरते हैं, ४६. विसक्लियगा, (४८) जो जहर खाकर मरते हैं, ४६. सत्योवाडियगा, (४६) जो शस्त्रों से अपने आप को विदीर्ण कर मरते है, ५७. बेहाणसिया, (५०) जो वृक्ष की डाली आदि से लटककर फांसी लगाकर मरते हैं, ५१. निषिद्धगा, (५१) जो मरे हुए मनुष्य, हाथी, ऊँट, गधे आदि को देह में प्रविष्ट होकर गीधों की चोंचों से विदारित होकर मरते हैं, ५२. तारभयगा, (५२) जो जंगल में खोकर मरते हैं, ५३. दुरिभक्खमयगा, (५३) जो दुभिक्ष में भूम प्यास आदि से मर जाते हैं, असंफिलिट्रपरिणामा से कालमासे कालं किच्चा अण्णवरेसु यदि उनके परिणाम संक्लिष्ट - अर्थात् आत रौद्र ध्यान वाणमंतरेसु देवलोएम देवताए उबवत्तारो भवति । तहि युक्त न हों तो उस प्रकार से मृत्यु प्राप्त कर वे वानव्यन्तर देवतेसि गई-जाय-वारसवास सहस्सा लिई-जाय-परलोगस्स लोकों में से किसी देवलोक में देवरूप में उत्पन्न होते है। वहाँ दिराहगा। -उव. सु. ७० उस लोक के अनुरूप उनकी गति होती है-थावत-उनकी स्थिति बारह हजार वर्ष की होती है-थावतचे परलोक के विराधक होते हैं। विराहगा भद्दपगह जणा विराधक भद्र प्रकृति मनुष्य३१५. से जे इमे गामागर-जाय-सण्णिवेसेतु मणुया भवति, तं ३१८. जो ये ग्राम, आकर-पावत्-सन्निवेश में मनुष्य होते है, यथा-- १. पगडमगा, २. पगइउवसंता, (१) प्रकृति भद्र, (२) शान्त, ३. पगायतणुकोहमाणमावालोहा, (३) स्वभावतः क्रोध, मान, माया एवं लोभ की उपता से रहित, ४. मित्रमहपसंपन्या, (४) मृदु मार्दवसम्पन्न, ५. अल्लोणा, ६. विणीया, (५) गुरुजन के आज्ञापालक, (६) विनयशील, ७. अम्मापिउसुस्सुसगा, (७) माता-पिता की सेवा करने वाले, ८ अम्मापिजणं अणइक्कमणिरजवपणा. (4) माता-पिता के वचनों का उल्लंघन नहीं करने वाले, ९. अप्पिच्छा, (8) बहुत कम इच्छाएं रखने वाले, १०. अप्पारम्मा, (१०) कम से कम हिंसा करने वाले, ११. अप्पपरिगहा, (११) परिग्रह के अल्प परिमाण से परितुष्ट, १२. अप्पेण आरम्मेणं, (१२) अल्पारम्भ, १३. अप्पेणं समारम्मेणं, (१३) अल्पसमारम्भ और १४. अप्पेनं भारम्भसमारस्मेणं वितिं कापेमाणा। (१४) अल्प आरम्भ समारम्भ से आजीविका चलाने वाले। Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४] चरणानुयोग-२ विराधक स्त्रियाँ सूत्र ३१८-३१६ बहई वासाई नारायं पागें, पाविता मालमासे का बहुत वर्षों का आयुष्य भोगते हुए, आयुष्य पूरा कर, मृत्युकिच्या अण्णयरेसु बाणमंतरेसु देखलोगेसु देवसाए उववत्तारो काल आने पर देह त्याग कर वानव्यन्तर देबलोकों में से किसी भर्वति । तहि तेसिं गई-जाव-बउद्दसवासहस्साई ठिई-जाव- देवलोक में देवरूप में उत्पन्न होते हैं। वहां अपने स्थान के अनुरूप परलोगस्स विराहगा। -उव. सु. ७१ उनकी गति होती है-यावत-इनकी स्थिति चौदह हजार वर्ष की होती है-पावत्-वे परलोक के विराधक होते हैं। विराहगाओ इत्थियाओ विराधक स्त्रियां३१६. से माओ इमाओ गामागर-जाव-सणिवेसेसु इस्थियाओ २१६. लो ये ग्राम, आकर-यावत् - सन्निवेश में स्त्रियाँ होती भवंति, तं जहा-- हैं, यथा--- १. अतो अंतेउरियाओ, (१) जो अन्तःपुर के अन्दर निवास करती हों, २. गयपइयाओ, (२) जिनके पति परदेश गये हों, ३. मयपइयाओ, (३) जिनके पति मर गये हों, ४. बालविहवाओ, (४) जो बाल्यावस्था में ही विधवा हो गई हों, ५. छडिडपल्लियाओ, (५) जो पतियों द्वारा परित्यक्त कर दी गई हों, ६. माइरक्ष्यिाओ, (६) जिनका पालन-पोषण, संरक्षण माता-पिता द्वारा होता हो, ७. पियर क्लियाओ, (७) जो पिता द्वारा रक्षित हों, ८. भायरक्खियाओ, (८) जो भाइयों द्वारा रक्षित हों, ६. परक्खियाओ, (8) जो पति द्वारा रक्षित हों, १०. कुलधररक्खियाओ, (१०) जो पीहर के अभिभायकों द्वारा रक्षित हों, ११. सरकुलरक्खियाओ, (११) जो श्वसुर कुल के अभिभावकों द्वारा रक्षित हों, १२. मित्तनाइनियगसंबंधिरक्खियाओ, (१२) जो पति या पिता आदि के मित्रों, अपने हितषियों, भामा, नाना आदि सम्बन्धियों, अपने सगोत्रीय देवर, जेठ आदि पारिवारिकजनों द्वारा रक्षित हों, १३. परुदणहकेसकक्खरोमाओ, (१३) विशेष परिष्कार के अभाव में जिनके नख, केश, कोख के बाल बर गपे हों, १४. यवगयघूयपुष्फगंधमालाकाराओ, (१४) जो धूप, पुष्प, सुगन्धित पदार्थ, मालाएँ धारण नहीं करती हों, १५. अहागसेयजल्लमल्लपंकपरितावियाओ, (१५) जो अस्नान, स्वेद, मल्ल, पंक से पीड़ित रहती हो, १६ ववगयधीर-दहि-गवधीयसप्पि-तेल्ल-भुल-लोण-मह. (१६) गो दूध, दही, मक्खन, घृत, तेल, गुड़, नमक, मधु, मज-मस-परिचत्तकयाहाराओ, मद्य और मांस रहित आहार करती हों, १७. अपिच्छाओ, (१७) जिनकी इच्छाएँ बहुत कम हों, १८. अध्यारंभाओ, (१०) जो कम हिंसा करने वाली हों, १६. अप्पपरिग्महाओ, (१६) जिनके धन, धान्य आदि परिग्रह बहुत कम हो, २०. अप्पेगं आरम्भेणं, (२०) जो अल्प आरम्भ, २१. अप्पेणं समारम्भेणं, (२१) जो अल्प समारम्भ, २२. अप्पेणं आरम्भसमारम्भेणं वितिकप्पेमाणीओ, (२२) जो अल्प जीव-परितापन द्वारा अपनी जीविका चलाती हो, २३. अकामबमचेरयासेणं, (२३) मोक्ष की अभिलाषा या लक्ष्य के बिना जो बहाचर्य का पालन करती हो, २४. सामेव परसेग्जं जाइफ्फमंति, (२४) जो पति शय्या का अतिक्रमण नहीं करती हो । Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ३१६-३२१ विराधक बाल तपस्वी आराधक-विराधक [१४५ ताओ गं इपियायो एयारवेणं विहारेण विहरमाणीमो बहई इस प्रकार के आचरण द्वारा जीवनयापन करती हुई बहुत बासाई आज पालेति, पालित्ता कासमा कालं किश्या वर्षां का आयुष्य पूरा कर, मृत्यु काल आने पर देह-त्याग कर अण्णयरेसु बाणमंतरेसु देवलोएसु देवताए-उववत्तारोओ वानव्यन्तर देवलोकों में से किसी देवलोक में देवरूप में उत्पन्न पर्वति, तहि तेसिं गई-जाव-चउसटि वास सहस्सा ठिई होती है। वहाँ अपने स्थान के अनुरूप उनकी गति होती है जाव-परलोगस्स बिराहगा । -उव. सु. ७२ .-पावत्-उनकी स्थिति पोसठ हजार वर्ष की होती है यावत् वे परलोक की विराधक होती हैं 1 विराहगा वाल तबस्सी विराधक बाल तपस्वी३२०. से जे हमे गामागर-जाव-सणिवेसेसु मगुया अवंति, ३२०. जो ये ग्राम, आकर-पावत्-सन्निवेश में मनुष्य होते संजहा-- यथा१. वगविहया, (१) उदक द्वितीय-एक खाद्य पदार्थ तथा दूसरा जल सेवन करने वाले, २. वगतदया, (२) उदक तृतीय-दो खाद्य पदार्थ तथा तीसरे जल का सेवन करने वाले, ३. बैंगससमा, (३) उदक सप्तम-छह खाद्य पदार्थ तया सातवे जल का सेवन करने वाले, ४. वेगएक्कारसमा, (४) उदकैकादश-भात भादि दस पदार्थ तथा ग्यारहवें जल का सेवन करने वाले, ५. गोयम, (५) गौतम -प्रशिक्षित बैल द्वारा मनोरंजक प्रदर्शन प्रस्तुत कर भिक्षा मांगने वाले, ६. गोव्याय, (६) गोद्रतिकः-गो-सेवा का विशेष प्रत स्वीकार करने वाले, ७. गिहिसम्म, (७) अतिथि सेवा दान आदि गृहस्थ-धर्म को ही कल्याण कारी मानने वाले, ८. धम्मचितग, (2) धर्मचिन्तक-धर्मशास्त्र के पाठक, ६. अविरुख, (8) अबिरुद्ध-वैनयिक-भक्ति मार्गी, १०. विद्ध, (१०) विरुद्ध-अक्रियावादी-क्रिया-विरोधी, (११) वृद्ध तापस, १२. सावगप्पभितयो, तेसि गं मण्याग गो कप्पंति इमाओ (१२) श्रावक-धर्मशास्त्र के श्रोता, ब्राह्मण आदि, नवरसविगहओ आहारत्तए, तं जहा-. १. सोरं २. वहि, ३. वणीयं, ४. सप्पिं, ५. तेलं जो (१) दूध, (२) दही, (३) मक्खन, (४) घृत, (५) तेल, ६. कापियं, ७. महूं. ८. मज १. मंसं, जो अपगस्थ (६) गुरु, (७) मधु, (८) मद्य तया (8) मांस को अपने लिए एक्काए सरिसवविगहए। ते गं मण्या अप्पिच्छा जाव- अकल्प्य-अग्राह्य मानते हैं, सरसों के तेल के सिवाय इनमें से घउरासीई वाससहस्साहं ठिई-जाव-परलोगस्स विराहगा। किसी का सेवन नहीं करते, जिनकी आकांक्षाएं बहुत कम होती -उव. सु. ७३ हैं, ऐसे मनुष्यों की-पावत्-८४ हजार वर्ष की स्थिति होती है-यावत्-वे परलोक के विराधक होते हैं। विराहगा वाणपत्था - विराधक वानप्रस्थ३२१. से जे इमे गंगाकुसगा वाणपत्या ताबसा अवंति, तं जहा- ३२१. जो ये गंगा के किनारे रहने वाले वानप्रस्थ तापस होते है, यथा१, होतिया, (१) अग्नि में हवन करन वाले, २. पोतिया, (२) वस्त्र धारण करने वाले, Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६] चरणानुयोग-२ विराधक वामप्रस्थ सूत्र ३२१ ३. कोसिया, ४. अण्णई, ५. साई, ६. पालई, ७. मुंबउट्ठा, ६. बंतुक्खलिया, ९. उम्मज्जगा, १०. सम्माजगा, ११. निमज्जगा, १२. संपक्वाला, १३. दक्षिणकूलगा, १४. उत्तरकूलगा, १५. संखधमगा, १६. कूलधमगा, १७. भिगलुबगा, १८. हरियतावसा, १६. उबंडगा, २०. दिसापोक्षिणो, (३) पृथ्वी पर सोने बाले, (४) यज्ञ करने वाले, (५) श्राद्ध करने वाले, (६) पात्र धारण करने वाले, (७) कुण्डी धारण करने वाले, (4) फल-भोजन करने वाले, (E) पानी में एक बार डुबकी लगाकर नहाने बासे, (१०) बार-बार डुबकी लगाकर नहाने वाले, (११) पानी में कुछ देर तक डूबे रहकर स्नान करने वाले, (१२) मिट्टी आदि के द्वारा देह को रगड़कर स्नान करने पाले, (१३) गंगा के दक्षिणी तट पर रहने वाले, (१४) गंगा के उत्तरी तट पर निवास करने वाले, (१५) तट पर शंख बजाकर भोजन करने वाले, (१६) तट पर खड़े होकर, शब्द कर भोजन करने वाले, (१७) व्याधों की तरह हिरणों का मांस खाकर जीवन चलाने वाले, (१८) हाथी का वध कर उसका मांस खाकर बहुत काल व्यतीत करने वाले, (१६) दण्ड को ऊंचा किये घूमने वाले, (२०) दिशाओं में जल छिड़ककर फलफूल इकट्ठे करने वाले, (२१) वृक्ष की छाल को वस्त्रों की तरह धारण करने वाले, (२२) गुफाओं में निवास करने वाले, (२३) समुद्र तट के समीप निवास करने वाले, (२४) पानी में निवास करने वाले, (२५) वृक्ष के नीचे निवास करने वाले, (२६) जल का आहार करने वाले, (२७) हवा का ही आहार करने वाले, (२८) काई का आहार करने वाले, (२९) मूल का आहार करने वाले, (३०) कन्द का आहार करने वाले, (२१) वृक्ष की छाल का आहार करने वाले, (३२) वृक्ष के पत्तों का आहार करने वाले, (३३) फूलों का आहार करने वाले, (३४) फलों का आहार करने वाले, (३५) बीजों का आहार करने वाले, (३६) अपने आप गिरे हुए कन्द, मूल, छाल, पत्र, पुष्प तथा फल का आहार करने वाले, २१. वाकवासिणो, २२. बिलवासिणो, २३. बेलवासिणो, २४, जलवासिणो, २५. सामूलिया, २६. अंबुभक्खिणो, २७. वाउभषिक्षणो, २८. सेवालमक्षिणो, २६. मूलाहारा, ३०. कंदाहारा, ३१. तयाहारा, ३२. पत्ताहारा, ३३ पुष्फाहारा, ३४. फलाहारा, ३५. बीयाहारा, ३६. परिसडिय-कंद मूल-तय-पस-पुष्फ-फलाहारा, Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ३२१-३२३ विराधक कार्पिक श्रमण आराधक-विराषक [१४७ ३७. अलामिसेयकडिणमायमूया, (३७) जलाभिषेक करने से जिनका शरीर कठिन हो गया ३८. आयावाहि (३८) सूर्य की आतापना से शरीर को तपाने दाले, ३६. पंचम्गितावेहि, (३६) पंचाग्नि की आतापना से, ४०. इंगालसोल्लिय, (४०) तपकर कोपने के समान शरीर को बनाने वाले, ४१. कण्डसोल्लियं, (४१) भांड में भुजे हुए के समान, ४२. कट्टसोल्लियं पिव अप्पागं करेमाला बहाई वासाई (४२) काठ के समान शरीर को बनाने वाले, बहुत वर्षों परियागं पाउणप्ति, बहुई वासाई परियाग पाउणिसा काल- तक वानप्रस्थ पर्याव का पालन करते है और पालन कर मृत्युमासे कालं किच्चा उपकोसेगं बोइसिएसु देवेसु देवताए काल आने पर देह त्यागकर वे उत्कृष्ट ज्योतिष्क देदों में देव उववत्तारो मवेति । तहि तेसिं गई-जाव-पलिओयम वास- रूप में उत्पन होते हैं । वहाँ अपने स्थान के अनुरूप उनकी गति सयसहस्समम्महियं ठिई-जाव-परलोगस्स बिराहगा। होती है-पावत् -एक लाख वर्ष अधिक एक पल्योपम-प्रमाण -उद. मु. ७४ की स्थिति होती है --यावत्-वे परलोक के बिराधक होते हैं। विराहगा कंदप्पिया समणा विराधक कांदपिक श्रमण - ३२२. से जे इमे गाभागर-जाव-सण्णिवेसे पवहया समणा ३२२. जो ये ग्राम, आकर-यावत्-सग्निवेश में प्रवजित श्रमण मवंति, तं जहा होते हैं, जैसे--- १. कंवप्पिया. (१) कान्दर्षिक हंसी-मजाक करने वाले.! २. कुमकुझ्या, (२) कोत्कुचिक-भो, आँख, मुंह. हाथ, पैर आदि से मांडों की तरह कुत्सित चेष्टाएँ कर हँसाने वाले, ३. मोहरिया, (३) मौखरिक - असम्बद्ध या ऊटपटांग बोलने वाले, ४. गोयरहप्पिया, (४) मीत रतिप्रिय-गानयुक्त क्रीड़ा में विशेष अभिरुचि वाले, ५. नरवणसीला। (५) नर्तनशील-नाचने की प्रवृत्ति वाले। ते गं एएणं बिहारेण बिहरमाणा बरई चासाई सामण्ण- जो अपने-अपने जीवनक्रम के अनुसार आचरण करते हुए परियाय पाउणति, बहूई वासाई सामण्णपरियाय पाउपिता बहुत वर्षों तक श्रमण-जीवन का पालन करते हैं, पालन कर अन्त तस्स ठाणस अणासोइय अपरिपकता कालमासे कालं समय में अपने पाप-स्थानों का आलोचन-प्रतिक्रमण नहीं करते, किमया उक्कोसेणं सोहम्मे कवपिएस देवेसु देवत्ताए उवव- गुरु के समक्ष आलोचना कर दोष-निवृत्त नहीं होते, वे मृत्युवाल सारो भवति । तहि तैसि गई-जाव-पलिओवमं वाससय- आने पर देह-त्याग कर उत्कृष्ट सौधर्म-कल्प में प्रथम देवलोक में सहस्सममाहिय लिई-जाव-परमोगस्स विरम्हगा। हास्य-क्रीड़ा-प्रधान देवों में उत्पन्न होते हैं। वहीं अपने स्थान के -उव. सु. ७५ अनुरूप उनकी गति होती है-पावत्-एक लाख वर्ष अधिक अनुरूप उनकी गात एक पस्योपम स्थिति होती है-यावत्-वे परलोक के विराधक होते हैं। विराहगा परिवायगा-- विराधक परिव्राजक३२३. से जे इमे यामागर-जाव-सग्णिसेस परिवायगा भवंति, ३२३. जो ये ग्राम, आकर-यावत्-सनिवेश में अनेक प्रकार तं जहा के परिव्राजक होते हैं, जैसे१. संत्रा, (१) साख्य-पुरुष, २. जोगी, (२) योगी-हठ योग के अनुष्ठाता, ३. काविला, (३) कापिल-महर्षि कपिल को मानने वाले निरीश्वरवादी सांख्य मतानुयायी, ४. घिउम्बा, (४) भार्गव - भृगु ऋषि की परम्परा के अनुसा, ५.हंसा, (५) हंस, Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ ] धरणानुयोग – २ ६. परमहंसा, ७. बहुजवगा, कुलिया विराधक परिव्राजक से णं परिव्वायगा बाणधम्मं च सोयधम्मं व तित्यामिसेयं माघवेाणा, पण्णवे माणा परुवेमाणा बिहरति । षं पं अहं fe for as wवह तं णं उदएन म मट्टियाए य वालियं समराणं सुई अवति । एवं खलु अम्हे चोखा वारा सुई, गुराभावारा महिला अभियजल त्याची अभिव्ये मिलायो। १. परिव्यया। होते हैं, जो इस प्रकार है उनमें आठ ब्राह्मनगर (१) कर्ण, (५) कृष्ण, (६) ८. नारए । (२) कर कष्ट, (३) बम्बड, (४) पाराशर, पायन, (७) देवगुप्त तथा (८) नारद उनमें सत्रिय परिवहोते है जो उस प्रकार है-(१)(२) (३), (४) (४) विदेह (१) राजराज, (७) राजराम तथा (८) ब तस्य खलु इमे अट्ट माहणं परिध्वायगा भवंति सं जहां१. कण्णे य २. करकंडेय, ३. अंबडे य ४ परासरे । ५. कण्हे ६. दीवाने लेब 19. देवगुत्ते य तत्व हमे अतिरिवाभतिजा १. सीलई २. ससिहारे प ३. नग्गई ४ माईति य । ५. विदेहे ६, राधाराया, ७. राया रामे ८ बजेति य ॥ ते गं परिष्वायगा रिटवेव-यनृपमेव सामवेद- अहष्वणवेद इतिहास-पंचगाणं निष्टानं संगीबंगा रस्ता उष्टं बेरा सारा पारणा धारणा, सबी सहितसविरहस्यज्ञाता, चारों वेदों के सम्प्रवर्तक, वेदों के पारानी उन्हें सारया, संजाणे, सिक्खा, कप्पे वारणे, ये निकले, स्मृति में बनाये रखने में मदाम तथा वेदों के छहों अंगों के जाता मोहसामपणे अभ्यो यम एव सा परिपत्र में विवाद, गणित, विद्या, शिक्षा, कल्प, व्याकरण, अण्णेषु सत्येसु व्याय व नए परिणिड़िया यानि होत्या वे परिवार मन्साइन नारों वेदों, पाँचवे इतिहास छठे निषस्तु के अध्येता वेदों के सांगोपा छन्द निरोषि वस्त्र तथा अन्य ब्राह्मणों के लिए हिला यहा अथवा वैदिक विज्ञानों के विचारों के नाम तेसि णं परिष्वायगाणं णो कप्पड़ १. अगहं वा २. तलायं बा. २. नई वा ४. वाजिं वा, ५. पोखरिणिं वा ६. बीपिं वा. ७ गुंजालियं वा ८. सरं वा ६. सागरं वा ओगा हिराए, जम्पत्य लागगमणं । तेसि णं परिव्वायगाणं णो कप्पह १. सगळं बा. २. रहं था, ३. जाणं वा ४. जुग्गं वा ५. विल्लिं वा ६ मिल्लिं वा, ७८ वा ६. संस्माणियं दुरुहिता छि 1 (६) परमहंस, (10) 45, (८) कुटीचर संज्ञक चार प्रकार के यति एवं (E) कृष्ण परियाजक आदि। तेसि णं परिष्वायगाणं णो कप्पड़ १. आसं वा २. हरिवं खा, ३. उट्टं वा, ४. गोणं वा ५. महिसं वा ६. खरं वा, दुहिता मिल गया। सूत्र ३२३ ग्रन्थ – इन सब में सुपरिपक्व ज्ञानयुक्त होते हैं । वे परिवाजक दानधर्म, शोष-धर्म तीर्थस्थान का जनसमु दाय में कथन करते हुए विशेष रूप से समझाते हुए युक्तिपूर्वक सिद्ध करते हुए विचरण करते हैं। उनका कथन है कि हमारे मतानुसार जो कुछ भी अशुचि अपवित्र प्रतीत हो जाता है, बढ़ मिट्टी लगाकर जल से धो लेने पर हो जाता है इस प्रकार हम निर्मल देह एवं निर्मल आचार युक्त हैं, पवित्र और पवित्राचार युक्त हैं, अभिषेक स्नान द्वारा जल से अपने आपको किरनिनिया स्वयं जायेंगे। ? उन परिवादों के लिए (१) कुए. (२) तालाब (३) नदी, (४) बावड़ी, (५) पुष्करिणी, (६) दीर्घिका (७) गुंजालिका, (८) तालाब तथा (६) जलाशय में प्रवेश करना नहीं कल्पता है । किन्तु मार्ग में आवे तो इनमें चल सकते हैं । जब परिवाजों को (१), (२) र (३) बाद, (४) युग्म-दो हाथ लम्बे चौड़े डोली जैसे यान, (५) गिल्लि दो आदमियों द्वारा उठाई जाने वाली एक प्रकार की शिविका, (६) बिल्लिदो घोड़ों की बम्धी, (७) शिविका, (८) पर्देदार पासखी तथा (६) स्यन्दमानिका पुरुष प्रमाण पालखी पर चढ़कर जाना नहीं कल्पता है । उन परिवारों को (१) पीछे (२) हाथी (३),(४) बेल (५) में तथा (६) गधे पर सवार होकर जाना किन्तु जबर्दश्ती कोई बैठा दे तो उनकी प्रतिमा नहीं कल्पता है नहीं होती है। Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्र ३२३ विराधक परिव्राजक आराधक-विराधक [१४६ तेसि गं परिष्कायगाणं गो कप्पर१. नडपेच्छा इवा, २. नट्टगप्पेच्छा इवा, ३. जल्लपेच्छावा, जन परिव्राजकों को-- (१) नाटक दिखाने वालों के नाटक, (२) नाचने वालों के नाच, (३) रस्सी आदि पर चढ़कर कलाबाजी दिखाने बालों के खेल, ४. मल्लपेच्छा । वा, ५. मुट्ठियपेच्छा इवा, ६ लंबगपेच्छा इवा, ७. पवापेच्छा इ वा, ८. कहगपेच्छा इवा, (४) पहलवानों की कुफ्तियाँ, (५) मुक्केबाजों के प्रदर्शन, १६) मसखरों की मसखरिया, (७) कथकों के कथालाप, (८) उछलने या नदी आदि के तैरने का प्रदर्शन करने वालों १. लासगपेच्छा इया, (E) रास गाने वालों के वीर गीत, १०. आइक्खगपेचछा था, (१०) शुभ अशुभ बातें बताने वालों के करिश्मे, ११, संखपेच्छा हवा, (११) वांस पर चढ़कर खेल दिलाने वालों के खेल, १२. मंखपेच्छा ६ वा, (१२) चित्रपट दिखाकर आजीविका चलाने वालों को करतूतें, १३. तूणइल्लपेच्छा इवा, (१३) तूण नामक तन्तु-वाद्य बजाकर आजीविका कमाने पा के करतब, १४. तंबयोणियपेच्छा इवा, (१४) पूंगी बजाने वालों के गीत, १५. मुरगपेच्छा इवा, (१५) ताली बजाकर मनोविनोद करने वालों के विनोदपूर्ण उपक्रम तथा १६. मागहपेच्छा हवा, पेसिछत्तए। (१६) स्तुति-गायकों के प्रशस्तिमूलक कार्य-कलाप आदि देखना, सुनना नहीं कल्पता है। तेसि र्ण परिवायगाणं णो कप्पद हरियाणं १. लेसणया वा, उन परिव्राजकों के लिए हरी वनस्पति का (१) स्पर्श करना २. घट्टणया वा, ३. यंभणया बा, ४. सूसणया वा. ५. उप्पा- (२) उन्हें परस्पर घिसना, (३) हाथ आदि द्वारा अवरुद्ध करना, जणया वा करित्तए । (४) शाखाओं, पत्तों आदि को ऊंचा करना या उन्हें मोड़ना, (५) उखाड़ना नहीं कल्पता है। तेसि णं परिवायगाणं णो कप्पइ १. इरिथकहा इवा, उन परिवाजकों के लिए (१) स्त्री-कथा, (२) भोजन-कथा, २. मत्तकहा हवा, ३. देसकहा इ था, ४. रायकहा । वा, (३) देश-कथा, (४) राज-कथा, (५) चोर-कथा, (६) जनपद५. चोरफहा । वा, ६. जणवयकहा । वा, अणत्यदेवं कथा, ये जो निरर्थक हैं, उन्हें करना नहीं वल्पता है। करित्तए। तेसि गं परिवायगाणं णो कापइ १. अयपायाणि वा, उन परिव्राजकों के लिए (१)तूंबे, (२) काठ तथा २. तउअपायाणि वा, ३. तंबपायाणि वा, १४. असदपायाणि (३) मिट्टी के पात्र के सिवाय, (१) लोहे, (२) रांगे, (३) तांबे, वा, ५. सोसगपायागि वा, ६, रूप्यपायाणि वा, ७. सुवण्ण- (४) जसद, (५) शीशे, (६) चांदी या (७) सोने के पात्र या पावाणि या अण्णपराणि या बहमुल्लाणि धारिसर, गण्णस्य दूसरे बहुमूल्य धातुओं के पात्र धारण करना नहीं कल्पता है । १. मलाउपाएण वा, २. दायपाएण वा, ३. मट्टियापाएण वा । तेसि गं परिव्यायगाणं णो कम्पइ १. अयबंधणाणि चा, उन परिवाजकों के लिए (१) लोहे. (२) रांगे, (३) तांब, २. तउमबंधणाणि वा, ३. तंबंधष्णणि मा, ४. जसद- (४) जसद Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५०] चरणानुयोग-२ विराधक परिव्राजक वंधणाणि बा, ५. सीसगवंधणाणि या, ६. रूपबंधणाणि (५) सोसे, (६) चाँदी, (७) स्वर्ण या दूसरे बहुमूल्य बन्धनों वा, ७, सुषण्णबंधणाणि वा अण्णयराणि वा बहमुल्लाणि से बंधे हुए पात्र रखना नहीं कल्पता है । धारित्तए। तेसि णं परिवायगाणं णो कप्पद गाणाविहवणरागरसाई उन परियाजकों को गेरू वस्त्रों के सिवाय तरह-तरह के वस्थाई धारित्तए, णण्णत्व एगाए धाउरत्ताए। रंगों से रंगे हुए वस्त्र धारण करना नहीं कल्पता है। तेसि गं परिवायगाणं णो कापा १. हार का, २. अडहारं उन परित्राजकों को तांबे की अंगूठी के अतिरिक्त (१) हार, वा, ३. एगावलि बा, ४. मुसातित ५.५. कपनापति (२)बहार, 18) कारली. (४) मुक्तावली, (५) कनकावली, . वा. ६. रयणाबलि वा, ७. मुरवि या, ८. कंठमुरवि वा, (६) रत्नावली, (७) मुखी-हार विशेष, (८) कण्ठ का आभरण है. पालंय बा. १०. तिसरयं वा, ११. कडिसुत्तं वा, विशेष, (8) लम्बी माला, (१०) तीन लड़ों का हार, (११) १२. दसमुदिआणतमं या, १३. कडयाणि वा, १४. तुद्धि- कटिसूत्र, (१२) द समुद्रिकाएँ, (१३) कड़े, (१३) त्रुटित, याणि वा, १५. अंगयाणि बा, १६. केकरागि वा, १७. (१५) अंगद, (१६) बाजूबन्द, (१७) कुण्डल, (१८) मुकुट तथा कंस्लाणि वा, १८. मज वा, १९. चूप्तामणि वा पिणशि- (१९) चूडामणि धारण करना नहीं कल्पता है। तए, णण्णत्व एगेणं तंजिएणं पवित्तएणं। तेसि णं परिवायगाणं णो कप्पइ १. गंथिम, २. वेहिम जन परिव्राजकों को फूलों से बने केवल एक कर्णपूर के ३. पुरिम, ४. संघाइमै चउचिन्हे मल्ले धारित्तए. गण्णस्य सिवाय (१) मूंथकर बनाई गई मालाएँ, (२) लपेट कर बनाई एगेणं कण्णपूरणं । गई मालाएँ, (३) फूलों को परस्पर संयुक्त कर बनाई गई मालाएँ या (४) मंहित कर परस्पर एक दूसरे में उलझा कर बनाई गई मालाएँ—ये चार प्रकार की मालाएं धारण करना नहीं कल्पता है 1 तेसि णं परिवावगाणं णो कप्पड १. अगलुएग था, उन परिव्राजकों को केवल गंगा की मिट्टी के अतिरिक्त २. चंवर्षण वा, ३. कंकुमेण वा गायं अणुलिपित्तए, पण्णस्य (१) अगर, (२) चन्दन, (३) ककुम या (४) केसर से शरीर एक्काए गंगामट्टियाए। ___ को लिप्त करना नहीं कल्पता है। तेसि णं परिवायगाणं कप्पड मागहए पत्थए जलस्स पडि उन परिव्राजकों के लिए मगध देश के तोल के अनुसार एक ग्याहिसए, १. से वि य वहमाणे, णो चेवणं अवहमागे प्रस्थ जल लेना कल्पता है। (१) वह भी बहता हुआ हो, किन्तु २. से वि य घिमिओबए, जो चेव पं कद्दमोदए, ३. से वि तालाब आदि का बन्द जल न हो। (२) वह भी स्वच्छ हो य बहुप्पसण्णे, पो चेष णं अबहुप्पसणे, ४. से विय परि. किन्तु कीचड़युक्त न हो, (३) वह भी साफ और निर्मल हो, पुए. जो श्रेषणं अपरिपूए, ५. से वियण विषणे, जो चैव किन्तु गंदला न हो, (४) वह भी वस्त्र से छाना हुआ हो, किन्तु णं अदिग्णे, ६. से बिय पिवित्तए, गो व गं हत्य-पाय- अनछाना न हो, (५) वह भी दिया गया हो, किन्तु बिना दिया घर-चमस-पखालणटाए सिणाइत्तए वा । हुआ न हो, (६) वह भी केवल पीने के लिए ग्राह्य है, हाथ पैर, भोजन का पात्र, चम्मच धोने के लिए या स्नान करने के लिए नहीं। ते सि गं परिचायगाणं फापड मागहए आए अलस्म परि- उन परियाजकों के लिए मागध तोल के अनुसार एक आढक माहितए, से वि य. बहमाणे, णो व गं अवहमाणे-जाव- जल लेना कल्पता है । यह भी बहता हुआ हो, एक जगह बंधा से दियणं विष्णं, गो चेय गं अविष्णे, से विय हत्य-पाय- हुआ न हो-यावत्-वह भी दिया गया हो-बिना दिया हुआ चर-चमस-पक्षालणयाए, णो वेष पिबित्तए, सिणा- न हो तो उरासे केवल हाथ, पैर, चरू, चमस या चम्मच धोना इत्तए वा। कल्पता है, किन्तु पीने के लिए या स्नान करने के लिए नहीं कल्पता है। ते पं परिवायगा एयाख्येणं विहारेण विहरमाणा बहूई वे परिव्राजक इस प्रकार की चर्या द्वारा विचरण करते हुए, बासाई परियाय पाउणंति, बहईवासाई परियाय पाउपिता बहुत वर्षों तक परियाजक-धर्म का पालन करते हैं। बहुत वर्षों Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ३२२-२२६ विराधक प्रत्यनीक श्रमण कालमासे कालं पितर उक्कोसेणं बंभलोए कप्पे वैवसाए उतारी भवति हि खिगई-जावस सागरोवमा - उव. व. सु. ७६८१ - या परमोगस्स विरागा विराहमा पत्रिणीया समणा २४. गामादराम पवमा समणा भवंति तं जहा - १. परिपनीया २ उम आयरिय-पश्चिीया, उवाय४. ५. रिय-उवज्झायाणं अपसका रगा ६. अवष्णकारगा, ७. अकिसिकारया, बहूहि असम्भावुभावणाहि मिच्छत्ताभिणिवेसेहि य अप्पानं परंबुग्गामाया बुच्याएमाणा विहरित बहू वासाई सामन्नपरिया पाउनति पाणिता तहस ठाणस्स अणालोइय-अध्यकिंता कालमासे कालं किया उनको नंतर कप्पे देवकिमिलिए देवकिष्य सिपत्ताए उववत्तारो भवंति । तेरस सागरोपमा दिई जाव-परलोगस्स - उप. सु. ११७ तं जहा - १. बुधरतरिया, २. तिधरंतरिया ३. सत्तघरतरिया ४ सय ५ रसमुराणिया ६. विम्बु तरिया, ७. उट्टिया समणा, बिहारेण विहरयाणा बहु बसाई सामण्ण परियार्थ पाउणंति पाणिता कालमासे कालं किच्या उक्सोसे मर कथ्ये देवताए उत्तारो भवति । आराधक विराधक [ १५१ हि सिजायीसं सागरोणपाई ठिई-नाय-परमो गस विराहगा ! उब. सु. १२० तक वैसा कर मृत्युकाल आने पर देह त्याग कर उत्कृष्ट ब्रह्मलोक कल्प में देव रूप में उत्पन्न होते है यहाँ अपने स्थान के अनुरूप उनको पति होती है यावत् दस सागरोषव की स्थिति होती है-पात-ये परलोक के विराधक होते है। विराधक प्रत्पनीक भ्रमण -- - विरागा । विरहगा आजीविया ३२५ मेगामावर जाय-सणिवेने आजीविया भवंति ३२५. ग्राम, आकर पावत् सन्निवेश में जो जीविक (नोशालक के अनुयायी होते है यथा (१) दो, (२) तीन या (३) सात घर बीच-बीच में छोड़कर भिक्षा ग्रहण करने वाले, (४) भिक्षा में गलदण्डल ग्रहण करने वाले, (५) प्रत्येक पर से भिक्षा लेने वाले (६) बिजली चमकने पर भिक्षा के लिए नहीं घूमने वाले और (७) मिट्टी की कोठी में प्रविष्ट होकर तपस्या करने वाले । इस प्रकार का आचरण करते हुए वे बहुल वर्षों तक बाजीविक पर्याय का पालन कर काल मास में काल करके उत्कृष्ट अच्युत कल्प में देवरूप में उत्पन्न होते हैं। नहीं अपने स्थान के अनुरूप उनकी गति होती है यावत्बाईस सागरोपम की स्थिति होती है - यावत् - वे परलोक के विराधक होते है। ३२४. ग्राम, आकर—यावत्सन्निवेश में जो मे प्रवजित श्रमण होते हैं, जैसे (१) आचार्य के विरोधी, (२) उपाध्याय के विरोधी (३) कुल के विरोधी, (४) वय के विरोधी (4) आचार्य और उपाध्याय का अपयश करने वाले, (६) अवर्णवाद बोलने वाले, (७) पति या निदा करने वाले । वे बहुत से असत्य आरोपणों से तथा मिथ्यात्व के अभिनिवेशों द्वारा अपने को औरों को तथा दोनों को दुराग्रह में डालते हुए, मजबूल करते हुए इस प्रकार विचरण करते हुए बहुत वर्षो तक श्रमण पर्याय का पालन करते हैं और पालन करके--- अपने पाप-स्थानों की आलोचना प्रतिक नहीं करते हुए मृत्यु-कारा जाने पर मरण प्राप्त करके उत्कृष्ट नामक छठे देवलोक में किल्विषिक संज्ञक देवों में देवरूप में उत्पन्न होते हैं । वहाँ अपने स्थान के अनुरूप उनकी गति होती है यावत्तेरह मानरोपम प्रमाण की स्थिति होती है-पानीक के विराधक होते है। विराधक आजीविक विरागा अतुक्कोसिया समणा विराधक आत्मोत्कर्वक श्रमण ३२६. से जे इमे गामागर- जाव सण्णवेसे पावश्या समणा भवंति ३२६. ग्राम, आकर - यावत् सन्निवेश में जो ये प्रव्रजित श्रमण तं जहा होते हैं, यथा- Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५.२ चरणानुयोग - २ १. अकोसिया, २. परपरिवारमा ३. भूमिया ४. कारमा से एक विहारेण विहरमाणा बहुदा साम परियागं पाजणंति पाउणिता तस्स ठाणस्स अणालीद अकाल का fear उसको ये आमिलोगिएम देवेषु पलाए उपसारो अए सहितैसि गईयामा म विराया जहा १. बहुरा २. जोएसिया, ३. अवलिया, ४. सामुच्छेदया, १. दोहिरिया बिरामिह ६. ७. जब दिया । -जाब-परलो मु. १२ विरागा जिल्हा १२. हामगर जागा मत २२० ग्राम करसन्निवेश में होने हैं, यथा (१) स्वयं के प्रशंसक, (२) दूसरों के निदक, (३) भूमिकर्मिक और (४) बार-बार कौतुक कर्म करने वाले, इस प्रकार की चर्या से विचरते हुए वे बहुत वर्षों तक करते है और पालन करके अपने पाप स्थानों की आलोचना प्रतिक्रमण नहीं करते हुए मृत्यु काल वा पर देह त्याग कर उत्कृष्ट अच्युत कल्प में अभियोग वर्ग के देवों में देव रूप में उत्पन्न होते हैं। १. एकान्त बाल नरव गामी, ३. वन्दी आदि ५. स्त्रियाँ, ७. वानप्रस्थ नहीं अपने स्थान के अनुरूप उनकी गति होती है-पात् बाईस सागरोपम की स्थिति होती है यावत् परलोक के विराधक होते हैं । विराधक निन्हव इज्ते सप्त पवयणिण्गा केवल रियालिंग सामण्णा, मिच्छाfिast. वहूहि असम्भावुभावनाहि मिच्छताभिणिने सेहिया परं भामाणा बुध्याएमाणा विहरिता बहूई घासाहं सामण्णपरियागं पाउगंति, पाणिता कालमासे कालं fear उक्कोसेणं उवरिमेसु देवताना जयंत 1 सत्र ३२६-३२७ गईली सागरोपमा जाव-परसु. १२२ लोग विरागा । (१) अनेक समयों से कार्य की निप्पत्ति मानने वाले, (२) अन्तिम एक प्रदेश को ही जीव मानने वाले, (३) सम्पूर्ण बाह्य व्यवहार को संदिग्ध मानने वाले, (४) प्रतिक्षण नरकादि अवस्था का विनाश मानने वाले, (५) एक समय में दो फिया का अनुभव होता है यह मानने वाले, (1) डोब, जीप और मिश्र यों दीन राशि मानने वाले (७) जीव और कर्म को बद्ध न मानकर मात्र स्पष्ट मानने वासे । प्रस्तुत राधसम्बन्धी वर्णन में तीन आराधक है एवं तेरह विराधक है १. संद्रिय २. अपारंपरि ३. अन ये सात प्रवचन निम्ह हैं ये केवलचर्या और वेष से संयमी होते हैं किन्तु मिध्यादृष्टि हैं । असत् प्ररूपणाओं और मिथ्या आग्रहों द्वारा अपने को, दूसरों को और दोनों को भ्रमित करते हैं, पथभ्रष्ट करते हैं और इस प्रकार का आचरण करते हुए बहुत वर्षों तक श्रमण पर्याय का पालन करते हैं तत्पश्चात् कालमास में काल करके उत्कृष्ट उपरितन as विमानों में देवरूप से उत्पन्न होते हैं । वहाँ अपने स्थान के अनुरूप उनको गति होती है यावत्को सरोप की स्थिति होती है-या परलोक के विराधक होते है। २. अकाम निर्जरा करने वाले, ४. प्रकृति ६. बाल तपस्वी, दि मेटअप पृष्ठ पर Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ३२८ कविषिक आधि विराधक श्रमण आराधक-विराषक [१५३ कंदप्पिया विराहगा समणा । कांदर्पिक आदि विराधक श्रमण३२८. कन्यप्पकोक्कुइयाई तह सील-सहाय-हास-विकहा: १२जो काम करा करा रहता है. दूसरों को हंसाने की विम्हावेन्तो य परं, कम्वल्पं भावनं कुणः ॥ नेष्टा करता रहता है, शील, स्वभाव, हास्य और विकथाओं के द्वारा दूसरों को विस्मित करता रहता है, वह कांदी भावना का आचरण करता है। मन्ताजोगं काउं मूईकम्मं च जे पउंजन्ति । जो सुख, रस और समृद्धि के लिए मन्त्र, योग और भूतिकर्म सम्यरसहडिकहेउं अभियोग भावणं कुणा ॥ का प्रयोग करता है, वह अभियोगी भावना का आपरण करता है। नाणस्स केवलीणं धम्मायरियस संघसाहूर्ण । जो शान, केवली-ज्ञानी धर्माचार्य, संघ तथा साधुओं की माई अबण्णवाई किम्बिसियं मावन कुणा ॥ निन्दा करता है वह मायावी पुरुष किल्बिषिकी भावना का आचरण करता है। [टिप्पण पृष्ठ १५२ से चालू) ६. परिव्राजक, १०. प्रत्यनीक श्रमण, ११. आत्मप्रशंसक श्रमणादि, १२. आजीविक, १३, निन्हब, ये तीन बारावक और तेरह विराधक इस प्रकार कुल सोलह श्रेणियों में विभाजित आत्माओं की मरने पर क्या क्या गति होती है ? इसका उल्लेख प्रस्तुत प्रकरण में उबवाई सूत्र से लिया गया है । वि. श. १, उ. २ में भी वह वर्णन है किन्तु इस विभाग निर्दिष्ट वर्णन में और व्याख्याप्रज्ञप्ति के वर्णन में कुछ अन्तर है उसकी जानकारी के लिए तालिका दी जाती है । उधवाई सूत्र में व्याख्याप्राप्ति में १. संज्ञी तिर्यच पंचेन्द्रिय ११. तियंच, २. अल्गारंभी अल्पपरिग्रही श्रमणोपासक ४. अविराधित संयमासंयमी, ३. अनारम्भी अपरिग्रही श्रमण २. अविराधित संयमी, ४. एकान्त बाल नरकगामी ५. अकाम निर्जरा करने वाले ६. बन्दी आदि ७. प्रकृति भद्र ८. कुछ स्त्रियाँ ६. बाल तपस्वी १०. वानप्रस्थ, ७. तापस ११. कान्दर्पिक श्रमण आदि, ८, कान्दपिक श्रमण, १२. सांख्य आदि परिमाजक ६. चरक परिव्राजक, १३. प्रत्यनीक श्रमण १०. किल्लिषिक, १४. आत्मप्रशंसकादि १२. आभियोगिक, १५. आजीविका १३. आजीविक १६. निन्हब १४, दर्शन भ्रष्ट वेष धारक १. असंयत भव्य द्रव्य देव ३. विराधित संयमी ५. विराधित संयमा संयमी ६. असंजी दोनों सुवों में मिलाकर बीस इच्छा होती हैं । भगवती सूत्र में छ: कम होने से चौदह हैं और "उबवाई सूत्र" में चार कम होने से सोलह हैं । दस पृच्छा दोनों सूत्र में समान हैं। प्रज्ञापना सूत्र पद २० सूत्र १४७० में भगवती सूत्र के समान ही चौदह पृच्छा हैं । xxxxxx xx xxx x xxxx xxxx Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४] ~~~~www. चरणामुयोग- २ अब रोपस एएहि कारणेहि आरिभाव यह रवी १. भासुरे, ३. संमोहे, तह नमिमि हो बिसेषी। कुण 1 विरागाणं मस्स अप सो... ३२२.पा जलप्ययेसो द जम्मणमरणाणि बंधंति ॥ उत्त. अ. ३६, गा. २६३-२६० चाहोवा आमुराए कम्पयति तं जहा - १. कोवसीलताए १. २. मगंतराएवं, २. २. २. २. कम्मे, ४. पिमितजीवियाए । चहि ठाह जीवा आमि ओगलाए कम्मं पगति, तं जज्ञा १. अक्कणं, २. परपरिवारणं, ३. भूतिकम्मे, विराधकों के संयम का विनाश २. ४. देवकिaियसे । ४. कोथकरणेणं । हि ठाणेहि जीक्षा सम्मोहक लिहा ३. कामासंसओगेणं. ४. पिज्जाणियाण करणेंगं । ठाणे जीवा देवशिविसिवाए सं जहा १. अरहंताणं श्रवणं वरमाणे, धम्म अब वरमाणे, परिचयाणा ४. बाउवणस्स संघस्स अवणं वरमाणे । पति जो शोधको निरतर बढ़ावा देता रहता है और निमित्त कहता है वह अपनी इन प्रवृत्तियों के कारण आसुरी भावना का आवरण करता है । सूत्र ३२८-३२६ जो शास्त्र के द्वारा, विष-भक्षण के द्वारा, अग्नि में प्रविष्ट होकर या पानी में कूद कर आत्म हत्या करता है और जो मर्यादा से अधिक उपकरण रखता है, वह जन्म-मरण की परम्परा को पुष्ट करता हुआ मोही भावना का आचरण करता है । विराधकों के संयम का विनाश ३२९. माधना का विनाश चार प्रकार का है (१) सुर (३) सम्मोह अपवंस. चार स्थानों से जीव आनुरय-कर्म का अर्जन करता है(१) कोपशीलता से, (२) प्राभुत दीनता अर्थात् स्वभाव से (३) मंसक तपः कर्म - आहार उपधि की प्राप्ति के लिए तप - ठाणं. अ. ४, उ. ४, सु. ३५४ (२) अभियोग अपध्वंस, (४) देवकिवि-अपध्वंस करने से, (४) निमित्त गोरखा निमित्त आदि बताकर आहार आदि प्राप्त करने से । चार स्थानों से जीव अभियोगित्व-कर्म का अर्जन करता है- (१) आत्मोत्कर्ष – आत्मगुणों का अभिमान करने से, (२) पर-परिवाद - दूसरों का अवर्णवाद बोलने से, (३) भूतिकर्म - भस्म, लेप आदि के द्वारा चिकित्सा करने से, (४) कौतुककरण — मंत्रित जल से स्नान कराने से । चार स्थानों से जीव सम्मोहत्व का अर्जन करता है- (१) उन्मार्ग देशना - मिथ्या धर्म का प्ररूपण करने से, (२) भान्तरायो मार्ग में प्रवृत्त व्यक्ति के लिए विघ्न उत्पन्न करने से, 樂遊 (३) कामाशंसाप्रयोग शब्दादि विषयों में अभिलाषा करने से, (४) मिध्यानिदानकरण- पुद्धिपूर्वक निदान करने से। चार स्थानों से जीव देव- किस्विषिकत्व कर्म का वर्जन करता है (१) बहों का बाद बोलने से (२) (३) आचार्य तथा उपाध्याय का अवर्णवाद बोलने से, (४) चतुविध संघ का अवर्णवाद बोलने से । धर्म का अवर्णवाद बोलने से, Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ३३० निग्रन्थ का मनुष्य सम्बन्धी मोगों के लिए निदान करना आराधक-विराधक [१५५ निदान-अनिवान से आराधना-विराधना-४ (१) गाथस्स माणसणा-योगहा णिवाणं करणां- (१) निर्ग्रन्थ का मनुष्य सम्बन्धी भोगों के लिए निदान करना३३०. एवं खलु समकाउसो! मए धम्मे पणते, इगमेव निग्न ३३०. हे आयुष्मान् श्रमणो ! मैंने धर्म का निरूपण किया है। पात्रयगे सच्चे, अणुतरे, परिमुष्णे, केवले, संसुद्ध, आजए, यह निर्ग्रन्थ प्रवचन ही सत्य है, श्रेषठ है, प्रतिपूर्ण है, अद्वितीय है, सल्लकसणे, सिद्धिमग्गे, मुत्तिमगे, निजाणमगे, निव्वाण- शुद्ध है, न्यायसंगत है, शल्यों का संहार करने वाला है, सिद्धि मग्गे, अवितहमविसंदिवं, सम्बनुक्षप्पहीणमग्गे । मुक्ति, निर्याण एवं निर्वाण का यही मार्ग है, यही यथार्थ है, सदा शाश्वत है और राब दुःखों से मुक्त होने का यही मार्ग है। इत्यं ठिया जीवा, सिति, बुज्नति, मुश्चंति, परिनिष्वा- इस सर्दश प्रज्ञप्त धर्म के आराधक सिद्ध बुद्ध मुक्त होकर यंति, सम्वदुक्खागमतं करेंति । निर्वाण को प्राप्त होते हैं और सब दुःखों का अन्त करते हैं। अस्स गं धम्मस्स निगये सिक्लाए उदिए विहरमाणे, इस धर्म की आगधना के लिए उपस्थित होकर आराधन पुरा विगिरुछाए, पुरा पिवासाए, पुरा सीताऽऽतहिं पुरा करते हुए निग्रंथ के भूख-प्यास सर्दी गर्मों आदि अनेक परीषह पुहिं बिरूबसवेहि परीसहोवसहि उविण्णकामनाए यावि उपसगों से पीड़ित होने पर काम वासना का प्रबल उदय हो विहरेज्जा से 4 परक्कमेज्जा, से य परक्कमाणे पासेम्जा मे जाए और साथ ही संयम साधना में पराक्रम करते हुए वह इमे उग्गपुस्ता महा-माउया भोगपुत्ता महा-माउमा । विशुद्ध मातृ-पितृ पक्ष त्राले उपवंशीय या भोमवंशीय राजकुमार को देखे। तेसि ण अग्णयरस्स अतिजायमाणस्स वा निज्जायमाणस्स उनमें से किसी के घर में प्रवेश करते या निकलते समय वा पुरमो महं दास-दासी-किकर-कम्मकर-पुरिसा, उत्त छत्र, झारी आदि ग्रहण किये हुए अनेक दास दासी किंकर और भिमारं महाय निग्गच्छति ।। कर्मकर पुरुष आगे-आगे चलते हैं। तयाणंतरं च में पुरओ महाआसा आसवरा, उमओ तेसि उसके बाद राजकुमार के आगे उत्तम अश्व, दोनों ओर नागा नागवरा पिडओ रहा रहवरा रहसंल्लि पुरिस गजराज और पीछे-पीछे श्रेष्ठ सुसज्जित रथ चलते हैं और वह पदाति परिक्षितं । अनेक पैदल चलने वाले पुरुषों से घिरे हुए रहता है। से यं उबरिय-सेय-छत्ते, अ०भुगये भिगारे, पग्गहिय तालि- जो कि श्वेत छत्र ऊँचा उठाये हुए, झारी लिय हुए, ताड़पंटे, पवीयमाण-सेय-चामर-बालवीयणीए। पत्र का पंखा लिए, श्वेत चामर डुलाते हुए बलते हैं । इस प्रकार अभिक्खणं अभिक्षणं अतिजाइ य निज्जाइ य सप्यमा 1 के वैभव से बह बारम्बार गमनागमन करता है। स पुश्यावरं च णं हाए-जाव- सव्यालंकारविमूसिए, महति बह राजकुमार यथासमय स्नान कर-यावत्-सब अलं. महालियाए कागारसालाए, महति महालयंसि सयणिज्जंसि कारों से विभूषित होकर विशाल कुटागारशाला (गजाप्रासाद) बुहओ उण्णतेमाले पतग मोरे वणओ सम्म रातिणिएग में दोनों किनारों से उन्नत और मध्य में अवनत एवं गम्भीर जोइणा झियायमाणेणं, इस्थि-गुम्म-परिवरे महयाहत-नट्ट- इत्यादि वर्णन जानना) ऐसे सर्वोच्च शयनीय में सारी रात दीप गीय-वाइय-संती-तल-ताल-तुग्यि घग मुइंग मुद्दाल-पप्प- ज्योति जगमगाते हुए वनिताबुन्द से घिरा हुआ कुशम नतंकों याइय-रवेणं उरालाई माणसगाई कामभोगाई मुंजमागे का नृत्य देखता है. गायकों का गीत सुनता है और वाद्ययंत्र, विहरति । तंत्री, तल-ताल त्रुटित, घन, मृदंग मादल आदि महान शब्द करने वाले वाधों की मधुर ध्वनियाँ सुनता है-इस प्रकार वह उत्तम मानुषिक कामभोगों को भोगता हुआ रहता है। सस्स गं एगमवि आणवेमाणस्स-जाव अत्तारि पंच अवुत्ता उसके द्वारा किसी एक को बुलाये जाने पर चार-पांच बिना घेव अमुट्ठति बुलाये ही उपस्थित हो जाते हैं और वे पूछते हैं कि १ ज्ञाता. अ. १, सु. ४७, पृ.१० (अंगसुत्ताणि) Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ ] चरणानुयोग – २ "देवाध्विया कि आहरेमो ? कि आसगस्स सदति ?" मां जं पासिता णिग्गये गिवाणं करेद्र"अइ इमस्स सुतरिय नव नियम- बंपचेरवासस्स कल्लाणे वित्त-विसेसे मयि तं अहमवि नागमिस्साए हाई एमाबाई उसलाई मागुस्साई काम भोगाई माणे विहरामि से तं साहू " एवं खलु समाणाउसो ! निग्गंथे णिदाणं fever तस्स हास्य-पालवासेका अण्णय रेसु देवलोएसु देवताए उबवत्तारो भवति महड़िए महम्मद महत्वनेगु महायमेनु महासुरुचेषु महामायेषु रईसु चिरद्वितिए । १० रेमो ? कि जयम ? कि कि मे हियं ? कि ते सेमं तस्य देवे भव महरिएन्नाय दिखाई भोगाई भुजमाणे विहरह जाय-' से णं तत्र देवलोगाओ भउक्सएवं भवस्य एवं टिनबर्ण अनंत अयं परसा से से इमे त उगता महामाया मोगा महामाया उग्गपुता भोगपुता सिरंभ नि पुतत्ता पचादाति । से बाए मव कुमाल-पाणि-पाए, अहो ि पंचिदियसरी जगदए ससिसोमा पारे कैसे पिय, दंसणे, सुरुवे । निर्प्रन्थ का मनुष्य सम्बन्धी भोगों के लिए निदान करना तएषं से दाए उबाल-भावे दिग्परिण जोवणगमणुध्यते सममेव पेयं वा परिवज्जति । - तस्स णं अतिजायमाणस्स या विज्जायमाणस्स वा, पुरनो महं दासीदास किंकर -कम्मकर पुरिसा छतं भिगारं गहाय निगच्छति जाय तस्स णं एगमवि जाणेवेमाणस्स जान बसारि पंज अता चेव अम्मति "अग बाया । कि करेमो-जाव- कि ते आसगस्स सवति ?" उ०- हंता ! आइज्जा । १ ठाणं. अ. ३ सु. १० । तहयगारस्य पुरिसजायस्स लहाने सम बा माहणे व उमओ कालं केवलिपण्णलं धम्ममा ? इसी निदान में 1 "हे देवानुप्रिय ! कहो हम क्या करें ? क्या जाने ? क्या अर्पण करें और क्या आचरण करें ? आपकी हार्दिक अभिलाषा क्या है? आपको कौन से पदार्थ स्वादिष्ट लगते है ?" उसे देखकर निर्ग्रन्थ निदान करता है कि "यदि सम्यक् प्रकार से आचरित मेरे तप, नियम एवं पर्ययालन का कल्याणकारी विशिष्ट हल हो तो मैं भी जागामी काल में इस प्रकार के उत्तम मनुष्य सम्बन्धी काम भोगों को भोगते हुए विवरण न तो यह श्रेष्ठ होगा।" सूत्र ३३० आयुष्मान् ! हे श्रमणो वह निर्दय निशन करके उस निदान सम्बन्धी संयों की आलोचना एवं प्रतिक्रमण किये बिना जीवन के अन्तिम क्षणों में देह छोड़कर महान् ऋद्धि वाले, महाद्य ति वाले महाबल वाले महायश वाले, महासुख वाले महाप्रभ वाले, दूर जाने की शक्ति वाले, लम्बी स्थिति वाले किसी देवलोक में देवरूप में उत्पन्न होता है । 1 वह वहाँ महधिक देव होता है- यावत् – देव सम्बन्धी भोगों को भोगता हुआ विवरता है - यावत्-दह आयु म और स्थिति के क्षय होने से उस देवलोक से भाव कर शुद्ध मातृ-पितृपक्षमा उ कुन या भोग कुल में से किसी एक कुल में पुत्र रूप में उत्पन्न होता है। · वहाँ वह बालक सुकुमार हाथ-पैर वाला, शरीर तथा पाँचों इन्द्रियों से प्रतिपूर्ण शुभ लक्षण-जन-गुणों से युक्त, चन्द्रमा के समान सौम्य, कांत प्रिय दर्शन वाला और सुन्दर रूप बाला होता है। बाल्यकाल बीतने पर तथा विज्ञान की वृद्धि होने पर वह बालक यौवन को प्राप्त होता है। उस समय वह स्वयं पैतृक सम्पत्ति को प्राप्त कर लेता है । उसके कहीं जाते समय या बाते समय आगे छत्र, झारी आदि लेकर अनेक दासी दास-नौकर चाकर चलते हैं- यावत्--- एक को चुलाने पर उसके सामने चार पाँच बिना बुलाये ही आकर खड़े हो जाते हैं और पूछते हैं कि "हे देवानुप्रिय ! कहो हम क्या करे यावत् मारके मुख को कौन से पदार्थ अच्छे लगते है ?" प्र० – इस प्रकार की वृद्धि से युक्त उस पुरुष को तप-संयम के मूर्त रूप श्रमण- माहण उभयकाल केवलि - प्ररूपित धर्म कहते है ? उ०- हाँ, कहते हैं । २ ठाणं. अ. ८, ४ सु. १०. इसी निदान में । Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २] [३३०-३३१ निम्बी का मनुष्य सम्बन्धी भोगों के लिए निदान करना प०-से णं पडिसुजा ? उ०- णो ण सम । अभविए णं से तस्स धम्मस्स सवणयाए । से य भयह महिया नेए कह पक्षिए आगमिस्साए होहिए याचि भवद तं एवं खलु समणाउसो ! तस्स बियाणस्स हमेपाइले पाच कलामो संचाए लिपगतं धम्मं पडिणितए । प्रसाद १०. सु. २२-२५ (२) निमांची माणुस्तव भोगट्ठा निदान करणं ra जरा धम्मस्य निधी विताए उया विहरमागी -जाब व परसेज्जा से जा हमा इत्थिया भवद्द-एगा, एगजाया गाभरणचिहाया ल-पेला इस संगोषिता, बेल-येला सुपरिगहिया राणी तीसे णं अतिजायमाणीए वा निज्जायमाणीए या पुरओ महं दासीदास किंकर -कम्मकर-पुरिसा, छत्तं भिगारं हाय निति-जाय तस्स नं एगमवि आणवेमास जाय घसारि पंच अवता शेष अवसति "मण बेबास्पियर कि फरेमो जाब-5 कि ते आसगस्स सदति ?" जं पासिता निधी निदाणं करेति · आराधक - विराधक २३१. एवं जल समाउसो भए घम्मे पण इथमेव निबंध १३१. हे आयुष्मान् श्रम! मैंने धर्म का प्रतिपादन किया है। पावणे सच्चे जाव' सम्यक्स्थाणं अंत करेंति । निकेत करते हैं । इस धर्म की आराधना के लिए उपस्थित होकर आराधना करती हुई निर्ग्रन्थी - यावत्-एक ऐसी स्त्री को देखती है जो अपने पति की केवल एकमात्र प्राणप्रिया है। वह एक सरीखे (स्वर्ण के या रस्तों के) आभरण एवं वस्त्र पहने हुई है तथा तेल को कुप्पी, वस्त्रों की पेटी एवं रत्नों के करंडिये के समान संरक्षण और संग्रहणीय है। [१५७ १. सु. २, अ. २. २०६१ (अंगलागि) २-७ प्रथम निदान में देखें । प्र० क्या वह सुनता है ? वि०- यह सम्भव नहीं है, क्योंकि वह उम धर्म श्रवण के योग्य नहीं है । वह महा इच्छाओं वाला यावत् दक्षिण दिशावर्ती नरक में कृष्णपाक्षिक तैरयिक रूप में उत्पन्न होता है तथा भविष्य में उसे सम्यक्त्व की प्राप्ति भी दुर्लभ होती है । हे आयुष्मान् श्रमणो ! उस निदान शल्य का यह पापकारी परिणाम है कि वह केवल जप्त धर्म का भी नहीं कर सकता है। (२) निर्ग्रन्थी का मनुष्य सम्बन्धी भोगों के लिए निदान करना "जह इमस्स सुधरिय-तब-नियम- बंधवासस्स करणाने फलमविसे स्थितं मवि भागमिस्साए मापा रुवाई जरालाई माणुस्लगाई कामभोगाई मुंजमाणी विह रामि से तं सानु । " "यदि सम्यक् प्रकार से आचरित मेरे तप, नियम एवं ब्रह्मचर्य पालन का कल्याणकारी विशिष्ट फल हो तो मैं भी आगामी काल में इस प्रकार के उत्तम मनुष्य सम्बन्धी काम भोगों को भोगते हुए विचरण करूँ तो यह श्रेष्ठ होगा ।" एवं खलु समणाउसो ! निधी पिहाणं किन्वा तस ठाण हे आयुष्मान् श्रमणो ! वह निर्ग्रन्थो निदान करके उस अणालय अकिंता कालमासे कालं किच्चा अण्णतरेसु निदान की आलोचना एवं प्रतिक्रमण किये बिना जीवन के देवलए देवताए उपसारा मन्द्र- याय दिलाई भोगाई अन्तिम क्षणों में देह स्थान पर किसी एक देवलोक में देवरूप में भुजमाणी विहरतिवाद वा ताबो देवलगानी बाउ- उत्पन्न होती है यावत् दिव्य भोग भोगती हुई रहती है खणं भवखणं, लिए अनंतरं जयादा भव और स्थिति का अम होने पर वह उस भतिजा महामाया-भोगगुता महामाया एतेसि देवलोक से व्ययकर विशुद्ध मातृ-पितृ पक्ष वाले उग्रवंशी पा अग्गयरंसि सनि वरियता पच्चायति । भोगवंशी कुल में किसी एक कुल में बालिका रूप में उत्पन्न होती है । प्रासाद में बाते जाते हुए उसके आगे छत्र झारी लेकर अनेक दासी दास नौकर चाकर चलते हैं- यावत् - एक को इसने पर उसके सामने चारयन बिना बुलाये ही आकर लड़े हो जाते हैं और पूछते हैं कि "हे देवानुप्रिय ! कहो हम क्या करें ? - यावत्- आपके मुख को कौन से पदार्थ अच्छे लगते हैं ?" उसे देखकर निर्मन्यी निदान करती है कि Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८] चरणानुयोग-२ निर्भय का स्त्रीत्व के लिए निदान करना सूत्र ३३१-३३२ सा गं तत्थ दारिया मवह सुकुमाला-जाव. सुरुवा। वहाँ बह बालिका सुकुमार—यावत् - सुरूप होती है । तए णं तं वारियं अम्मा-पियरो उम्मुक्क-बालभावं, विष्णाग- उसके बाल्य भाव मुक्त होने पर तथा विज्ञान परिणत एवं परिणयमित, जोवणगमणुप्पत्तं, पडिलवेणं सुक्केण पबि- यौवन वयं प्राप्त होने पर उसे उसके माता-पिता उस जैसे सुन्दर स्वस्स भत्तारस भारियसाए बलयंति । एवं योग्य पति को अनुरूप दहेज के साथ पत्नी रूप में देते हैं। सा गं तस्स मारिया प्रवाह एमा, एगजाया, इटा, कता, वह उस पति की इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ, अतीव मनोहर, पिया, मषुण्णा, मणामा, शेजा, वेसासिया सम्मया बहुमया, धैर्य का स्थान, विश्वासपात्र, सम्मत, बहुमत, अनुमत (अतीव अणुमया, रयण-करेंडग-समाणा। मान्य) रत्न करण्ड के समान केवल एक भार्या होती है। तीसे णं अतिजायमाणोए वा निज्जायमाणोए वा पुरतो महं आते-जाते उसके आगे छत्र झारी लेकर अनेक दासीदास, यासी-सास-किफर-कम्मफर पूरिसा छत्त, मिगारं गहाय नौकर चाकर चलते हैं यावत्-एक को बुलाने पर उसके निग्गच्छत्ति-जाय-3 तस्स एगमवि आणवेमाणस्स जाप सामने चार-पांच बिना बुलाये हो आकर खड़े हो जाते है और चत्तारि पंच अवुत्ता चेव अग्मुळंति---''पण देवाणुप्पिया ! पूछते हैं कि -"हे देगनुप्रिय ! कहो हम क्या करें ? - यावत् किं करेमो-जाव कि ते आसमस्स सक्षप्ति ।" आपके मुख को कौन से पदार्थ अच्छे लगते हैं ?" । ५० - तोसे ण तापणाराए इथियाए तहाल्वे समणे वा प्र--जस ऋषि सम्पन्न स्त्री को तप संयम के मूर्त रूप माहणे वा उमयकाल केवलिपपणत्तं धम्म आइक्सेना? श्रमण-माहन उभयकाल केवलि प्रज्ञप्त धर्म कहते हैं ? उ० हंता ! आइक्वेज्जा। उ.-हाँ कहते हैं। पल-सा गं परिसुणेज्जा? प्र - क्या वह (श्रद्धा पूर्वक) सुनती है ? 30-- जो इण सम₹ । अभविया सा तस्स धम्मस्स उ..-यह सम्भव नहीं है, क्योंकि वह उस धर्म श्रवण के सवणयाए। लिए अयोग्य है। सा च भवति महिन्छा-जाब वाहिणगामिए गेरइए वह उत्कृष्ट अभिलाषाओं बाली—यावत -दक्षिण दिशाकण्हपषिखए आगमिस्साए बुल्लभबोहिया यावि भवइ। अती नाक में कृष्णपाक्षिक नैरयिक रूप में उत्पन्न होती है तथा भविष्य में उसे सभ्यक्त्व को प्राप्ति भी दुर्लभ होती है। एवं खलु समणाउसो ! तस्स नियाणस्स इमेयारूवे हे आयुष्मान् श्रमणो ! उस निदान मल्य का यह पापकारी पावए फल-विचागे-जणो संचाएति केसिपण्णस धम्म परिणाम है कि--वह कलि प्रज्ञप्त धर्म का श्रवण भी नहीं कर परिसुणित्तए। दसा. द. ११, सु. २६-२६ सकती है। ३. णिगंथरस स्थित्तट्ठा णिदाणं करणं (३) निम्रन्थ का स्त्रीत्व के लिए निदान करना३३२. एवं खलु समणाउसो ! मए धम्मे पण्णते, हणमेव निग्गंधे ३३२. हे आयुष्मान् श्रमणो ! मैंने धर्म का निरूपण किया है। पावयणे समो-जाब सम्बस्थाण अंत करेंति । यही निग्रंग्य प्रवचन सत्य है-यावत्-सब दुःखों का अन्त करते हैं। जस्स गं धम्मस्स सिक्साए निगये सबदिए बिहरमाणे-जावई कोई निर्घान्य केवलि प्रज्ञप्त धर्म की आराधना के लिए पासेज्जा से जा इमा इस्पिया मति-एगा, एगजाया उपस्थित हो विचरते हुए-पावत् -एक स्त्री को देखता हैजाव' ज पासित्ता निग्गंथे निवाण करेति-- जो अपने पति की केवल एकमात्र प्राणप्रिया है--यावत्-- निर्ग्रन्थ उस स्त्री को देखकर निदान करता है। "युक्खं खलु पुमत्तणए, "पुरुष का जीवन दुःखमय है, जे इसे उगापुत्ता महा-पाउया, भोगपुत्ता महा-माटया, क्योंकि जो ये मिशुद्ध मातृ-पितृ पक्ष वाले उप्रवंशी या भोगएतेसि णं अण्णतरेसु उपचायएसु महासमर-संगामेसु उम्चा- वंशी पुरुष हैं वे किसी छोटे-बड़े युद्ध में जाते हैं और छोटे-बड़े वयाई सस्थाई उरसि वेव परिसंवेति । है कुक्स खलु शस्त्रों का प्रहार वक्षस्थल में लगने पर वेदना से व्यथित होते पुमत्तथए, इस्थितण साह।" हैं। अतः पुरुष का जीवन दुःखमय है और स्त्री का जीवन सुखमय है।" १-७ प्रथम निदान में देखें। Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्र ३३२-३३३ निर्ग्रन्थी का पुरुषत्व के लिए निदान करना आराधक-विराधक [१५६ "जर इमस्स सुनरिय तय-नियम-यंभरवासस्स फलवित्ति- "यदि सम्यक् प्रकार से आचरित मेरे इस तष-नियम एवं विसेसे अस्थि तं अहमवि आगमेस्साए माई एयाहवाह उरा- ब्रह्मचर्य पालन का विशिष्ट फल हो तो मैं भी भविष्य में स्त्री लाई इस्थिमोगाई मुंजमाणे विहरामि-से तं साहू।" सम्बन्धी इन उत्तम भोगों को भोगता दुआ विचरण करू, तो यह श्रेष्ठ होगा।" एवं खलु समणाजसो ! णिगंथे णियाणं किच्चा तस्स ठाणस्स हे आयुष्मान् श्रमणो ! बह निर्गन्ध निदान करके उसकी अणालोइय अपरिक्कते-जाव-'बागमेस्साए दुल्लहबोहिए आलोचना प्रतिक्रमण किये बिना... यावत्- उसे आगामी काल यावि भवद। में सम्यत्व की प्राप्ति भी दुर्लभ होती है। एवं खलु समणाउसो तस्स पियाणस्स इमेयारवे पावए हे आयुष्मान् श्रमणो ! उस निदान का यह पापकारी परिफलविवागे जं नो संचाएह केवसिपण्णत धम्म परिसु- णाम है कि वह केवनि प्ररूपित धर्म को नहीं सुन सकता है। गिसए। -दसा द, १०. सु. ३०-३२ णिग्गंथोए पुमत्तट्टा णियाण करणं निर्गन्धी का पुरुषरब के लिए निदान करना३३३. एवं खलु समणाउसो ! मए धम्मे पण्णत्ते इणमेव णिग्गथे ३३३. हे आयुष्मान श्रमणो ! मैंने धर्म का प्रतिपादन किया है। पावयणे सच्चे-जाव-सव्वयुक्खाणं अंतं करति । यही निर्ग्रन्थ प्रवचन मत्य है यावत् --सब दुःखों का अन्त करते हैं। जस्स णं धम्मस्स निग्गंधी सिक्खाए उवट्टिया विहरमाणी उस केवलि प्रजप्त धर्म की आराधना के लिए कोई निग्रन्थी जाबः पासेज्जा- हमे उम्मपुत्ता महामाउया भोगपुत्ता उपस्थित होकर विचरती हुई-यावत्-एक पुरुष को देखत्ती महामाउया-जाव-"ज पासिसा निबंधी विदाणं करेति । है जो कि विशुद्ध मातृ-पितृ पक्ष बाले उग्रवंशी या भोगवंशी है यावत्-उसे देखकर निग्रंन्थी निदान करती है कि"युक्खं खलु स्थितणए, "स्त्री का जीवन दुःखमय है" गुस्संचराई गाभतराई-जाव-सिभिवसंतराई। पयोंकि किसी अन्य गाँव को-यावत्-अन्य सन्निवेश को अकेली स्त्री नहीं जा सकती है। से जहानामए अंव-पेसियाइ या, मालिपपेसियाद वा, जिस प्रकार आम, बिजौरा या आम्रतक की फाँके, इक्षु अंबाडग-पेसियाइबा, उच्छुखंडिया वा, संबलि-लि- खण्ड और शाल्मली की फलियां अनेक मनुष्यों के आस्वादनीय, याइवा, बहुजणस्स आसायणिज्जा, पत्थणिज्जा, पौणिज्जा, प्राप्तकरणीय, इच्छनीय और अभिलषनीय होती है। अभिलसपिज्जा। एवामेव हस्थिया बि महजणस्स असायणिज्जा-जाव- इसी प्रकार स्त्री का शरीर भी अनेक मनुष्यों के आस्वादअभिलसणिज्जा तं दुपखं खलु इस्थितगए, पुमत्तणए मं नीय-यावत्-अभिषलनीय होता है। इसलिए स्त्री का जीवन दुःखमय है और पुरुष का जीवन सुखमय है।" "जा इमस्स सुचरित-तव-नियम-बमचेरवासस्स फलवित्ति "यदि सम्यक प्रकार से आचरित मेरे तप, नियम एवं विसेसे अस्थि, तं अहमबि आगमेस्साए इमाई एमास्वाई ब्रह्मचर्य पालन का कल्याणकारी विशिष्ट फल हो तो मैं भी उरालाई पुरिस-भोगाई मुंजमागी विरामि से त साहू।" आगामी काल में इस प्रकार के उत्तम पुरुष सम्बन्धी काम भोगों को भोगते हुए विचरण करूं तो यह श्रेष्ठ होगा।" एवं मातु समणासो | गिगंभी गिदाणं किसचा तस्स इस प्रकार हे आयुष्मान श्रमणो | वह निर्गन्थी निदान ठाणस्स आणालोहय अप्परिकता-जाव'-आगमेस्साए करके उसकी आलोचना प्रतिक्रमण किये बिना--पावत्-उसे बुल्लहबोहिया यावि भवा । सम्यक्त्व की प्राप्ति भी दुर्लभ होती है। २ द्वितीय निदान में देखें २ प्रथम निदान में देखें ३ प्रथम निदान में देखें ४ आ. श्रु.२, ब, १, उ.२, सु. ३३८ ५ इसी निदान में देखें ६ प्रथम निदान में देखें। '. प्रथम निदान में देखें । Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६०J चरणानुयोग-२ निग्रंथ-निर्ग्रन्थी के द्वारा परदेषी परिचारणा का निवान करना एवं खलु समणाउसो ! तस्स णियाणस्स इमेयारूये पावए हे आयुष्मान् धमणो ! उस निदान का यह पापकारी परिफल-विधागे-जं नो संचाएइ केलिपम्पत्तं धम्म पडिसु- णाम है कि वह केवल प्रजप्त धर्म का श्रवण भी नहीं कर गिसए। -दसा. द, १०, सु. १३-३४ सकता है ।। (५) णिग्गय णिग्गंयोए परदेवी परिचारणा निदान करणं- (१) निर्ग्रन्थ निग्रन्थी के द्वारा परदेवी परिचारणा का निदान करता३३४. एवं तु समकाउसो ! मए धम्मे पणते इणमेव णिग्गंधे ३३४. हे आयुष्मान् श्रमणो ! मैंने धर्म का प्रतिपादन किया है। पावणे सच्चे-जाब'-सव्वदुक्खाणमंत करति । यही निग्रंथ प्रवचन सत्य है-यावत्-सब दुःखों का अन्त करते हैं। जस्स णं धम्मस्स निग्गयो बा निग्गंधी वा सिखाए उपढ़िए कोई निग्रन्थ या निम्रन्त्री केवलि प्रज्ञप्त धर्म की आराधना विहरमाणे-जाव'-से य परक्कममाणे माणुस्सेहि काममोगेहिं के लिए उपस्थित हो विचरण करते हुए -मावत-संगम में निव्वेयं गच्छेज्जा - पराक्रम करते हुए मानुषी कामभोगों से विरक्त हो जाये और वह यह सोचे कि - "माणुस्समा खलु काममोमा अधूया, अणितिया, असासया, "भानव सम्बन्धी कामभोग अधब हैं. अनित्य हैं, अशाश्वत सण-पण विद्धसणधम्मा । हैं, सड़ने गलने वाले एवं नश्वर हैं। "उदार-पासवण-खेल-जल्ल-सिंघाणग-वत-पिगमए गोपिय- मामूर ग्लेग पेन्द्र, रजि-नफ, शुक्र एवं शोणित से समुम्भवा । उद्भून हैं। दुरुव-उस्सास-मिस्सासा, दुरंत-मुस-पुरिस-पुण्णा, वंतासवा दुर्गन्ध युक्त श्वासोच्छ्वास तथा मल-मूत्र से परिपूर्ण हैं। पिसासवा, खेलासवा, पच्छा. पुरं. अवर्स बिप्पजह- वात-पित्त और कफ के द्वार हैं। पहल या पीछे से अवश्य णिज्जा ।" त्याज्य हैं। संति उठं देवा देखलोयसि, जो ऊपर देवलोक में देव रहते हैं - ते गं तत्थ अण्णेसि देवाण देवोओ अभिजिय अभिजंजिय वे वहाँ अन्य देवों की देवियों को अपने अधीन करके उनके परियारति अप्पणो व अस्पाणं विविय-बिउब्विय परिया- साथ विषय सेवन करते हैं, स्वयं ही अपनी विकुक्ति देवियों के रेति, अप्पणिज्जियाओ देवीओ अमिज़ुजिय-अपिजंजिय साय विषय सेवन करते हैं और अपनी देवियों के साथ भी विषय परियारेति । सेवन करते हैं। "जइ इमस्स सुचरिय-तव-नियम-बमरवासस्स कल्लाणे "यदि सम्यक् प्रकार से आचरित मेरे इस तप-नियम एव फल-वित्ति विसेसे अस्थि तं अहमति आगमेस्साए इमाई ब्रह्मचर्य पालन का विशिष्ट फल हो तो मैं भी भविष्य में इन एयारुवाई विश्वाई भोगाई मुंजमाणे विहरामि- सेत उपरोक्त दिव्य भोगों को भोगते हुए विचरण करूं तो यह श्रेष्ठ साहू।" होगा।" एवं खलु समणाउसो । णिगंथो वा जिग्गंयो वा णियाण हे आयुष्मान् श्रमण ! इस प्रकार निग्रन्थ या निम्रन्थी किच्चा जाव' वे भवह महिडितए जाव विवाह भोगाई (कोई भी) निदान करके-यावत्-देव रूप में उत्पन्न होता है। मुंजमाणे विहह। वह यहाँ महाऋद्धि वाला देव होता है--यावत-दिव्य भोगों को भोगता हुआ विचरता है। से गं तस्य अण्णेसि देवाणं देवीओ अभिजिय अभिजुजिप यह देब वहाँ अन्य देवों की देवियों के साथ विषय सेवन परियारेइ, अप्पगो चेव अप्पाणं विउविय-विउरिचय परिया- करता है। स्वयं ही अपनी विकुक्ति देवियों के साथ विषय रेड, अप्पणिज्जियाओ देवीसी अभिजुजिय-अभिजंजिप सेवन करता है। और अपनी देवियों के साथ भी विषय सेवन परियारे। करता है। १-४ प्रथम निदान में देखें। Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ३३४-३३५ निन्य-निग्यो द्वारा स्वरेखी परिचारणा का निदान आराधक-बिराधक [१६१ से गं ताओ देवलोगाओ बाउक्खएणं जाव पुमसाए पश्चा- वह देव उस देवलोक से आयु के क्षय होने पर—-यावत्याति जाव तस्स णं एगमवि आण वेमाणस्स जाव चत्तारि पुरुष रूप में उत्पन्न होता है यावत्--उसके द्वारा एक को पंच अवुत्ता चेव अबमुळेति "मण देवागुप्पिया ! कि बुलाने पर चार-पांच बिना बुलाये ही उठकर खड़े हो जाते हैं करेमो जाव कि से आसगस्स सबह ।" और पूछते हैं कि-हे देवानुप्रिय ! कहो हम क्या करें?-पावत् आपके मुख को कौन से पदार्थ अच्छे लगते हैं? १०-तस्स णं तहप्पगारस्त पुरिसजायस्स तहारुदे समणे प्र०-इस प्रकार की ऋद्धि से युक्त उस पुरुष को तप-संयम या माहणे वा उमओ कालं केवलिपष्णतं धम्ममा- के मूर्त रूप श्रमण-माहन उभय काल केबलि प्रजप्त धर्म इलमा कहते हैं ? उ.---हता ! आइक्लेम्ना । उ०-हो कहते हैं । प०-से पं पडिसुणिज्जा ? प्र०—क्या वह सुनता है ? उ०-हता पडिमुणिकजा । उ० - हाँ सुनता है। १०-से णं सद्दहेज्जा, पत्तिएम्जा, रोएज्जा ? प्र० क्या वह केवलि प्ररूपित धर्म पर श्रद्धा, प्रतीति या रुचि करता है? जागो तिणठे समठे । अधिए ण से तस्स धम्मस्स उ०—यह सम्भव नहीं है, क्योंकि वह सर्वज्ञ प्ररूपित धर्म सद्दहणयाए। पर श्रद्धा करने के अयोग्य है। से य भवति महिन्छे-जान दाहिणगामिए घसए किन्तु वह उत्लाट अभिलाषायें रखता हुआ यावत्काहपक्लिए भागमेस्साए बुल्समबोहिए यापि भवति । दक्षिण दिशावती नरक में कृष्णपाक्षिक नैरयिक रूम में उत्पन्न होता है तथा भविष्य में उसे सम्यक्ल की प्राप्ति भी दुर्लभ होती है। एवं खलु समणाउसो! तस्स णियाणास इमेयास्वं हे आयुग्मान श्रमणो ! उस निदान पाल्य का यह पापकारी पाबए फलविवागे--जं णो संचाएति केवलि -- परिणाम है कि-- वह केवलि प्रजप्त धर्म पर श्रद्धा, प्रतीति और पणतं धम्मं सहितए दा, पत्तियलिए वा, रुचि नहीं रखता है। रोइत्तए वा। -दसा. द. १०. सु. ३५-३७ (६) णिग्गंथ-णिग्गंथोए लगदेयो परिवारणानिवान करणं- निग्रन्थ नियन्थी द्वारा स्व-देवी परिचारणा का निदान करना३३५, एवं खस समणाजसो ! मए धम्मे पण्णसे-जान से य ३३५. हे आयुष्मान् श्रमणो! मैंने धर्म का निरूपण किया है परकममाणे माणुस्सएमु काम भोगेमु निण्यं गमछेज्जा, -यावत्-संयम की साधना में पराक्रम करते हुए निर्ग्रन्थ; मानब सम्बन्धी काम-भोगों से विरक्त हो जाए और वह यह सोचे कि"माणुस्सगा खलु काममोगा अधुवा-जाव-विपजणिना। "मानव सम्बन्धी कामभोग मध व है-यावत-त्याज्य हैं। संति उडवं देवा देवलोमंसि ते पं तत्य णो अण्णेसि देवाण जो ऊपर देवलोक में देव हैं- यहां अन्य देवों की देवियों देवीओ अमिजंजिय-अभिजिय परियारति, अपणो चेव के साथ विषय सेवन नहीं करते हैं, किन्तु स्वयं की विकुवित अप्पाणं विउवित्ता परियारेति, अप्पणिज्जियाओ बेबोओ देवियों के साथ विषय सेवन करते हैं। तथा अपनी देवियों के अमिज जिय अभिजिय परियारेति ।" साथ भी विषय-सेवन करते हैं।" "जह हमस्स सुचरिय-तव-नियम-भरवासरस कल्ला "यदि सम्यक प्रकार से आचरित मेरे इस तप-नियम एव फल विसि विसेसे अस्थि, अहमवि आगमेस्साए इमाई एया- ब्रह्मचर्य-पालन का कल्याणकारी विशिष्ट फल हो तो मैं भी हवाई विश्वाई भोगाइ मुंजमाणे विहरामि, से तं साहू।" आगामी काल में इम प्रकार के दिव्य भोग भोगते हुए विचरण करूं तो यह श्रेष्ठ होगा।" १.६ प्रथम निदान में देखें। Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२] धरणानुयोग-२ निग्रन्य-निग्रन्थी द्वारा स्वबंधी परिवारणा का निदान सूत्र ३३५ एवं खलु समणाउसो! भिगंथो वा णिगंथी या णियाणं हे आयुष्मान् श्रमणो ! इस प्रकार निर्ग्रन्थ या निम्रन्थी किच्चा-जाव'-देवे मवह महिरिए-जाव-विवाई, भोगाई (कोई भी) निदान करके-यावत-देव रूप में उत्पन्न होता मुंजमाणे विहरद। है। वह वहाँ महाऋद्धि वाला देव होता है-यावत्-दिव्य भोगों को भोगता हुबा विषरता है। से णं तत्य णो अण्णेसि देवाण वेवीओ अभिभुजिय-अभिमुंजिय वह देव वहाँ अन्य देवों की देवियों के साथ विषय सेवन परियारेड, अप्पगो चेव अप्पाणं विउम्विय विविय परिया- नहीं करता है, स्वयं ही अपनी विकुक्ति देवियों के साथ विषय रेड, अप्पणिजयाओ देवीओ अमिजंजिय-अभिजुजिय परि- सेवन करता है और अपनी देवियों के साथ भी विषय सेवन यारोह। करता है। से गं ताबो देवलोगायो आउखएणं-जाव' पुमत्ताए पस्चा- यह देव उस देवलोक से वायु के क्षय होने पर-यावत्-- याति-जाव -तस्स गं एगमवि आणवेमाणस्स-जाव-सत्तारि पुरुष रूप में उत्पन्न होता है यावत्-उसके द्वारा एक को पंच अबुसा व आमदति "भण घेवाणुप्पिया ! कि बुलाने पर चार-पांच बिना बुलाये ही उठकर खड़े हो जाते हैं करेमो 7-जाद-किं ते भासगस्स सया।" और पूछते हैं कि -"हे देवानुधिय ! कहो हम क्या करें ? -- यावत्-आपके मुख को कौन से पदार्थ अच्छे लगते हैं ?" प०-तस्स गं तहप्पगारस्स पुग्सिजायस्स तहासवे समये प्र०-इस प्रकार की ऋद्धि युक्त उस पुरुष को तप-संयम के वा माहणे वा उमओ कालं केवली पण्णसं धम्म- मूतं रूप श्रगण माहन उभयकाल केवलि प्राप्त धर्म कहते हैं ? माइक्खेज्जा? उ०-हंता ! आइखेम्जा । उ०-हाँ कहते हैं। प-से ण पडिसुणेज्जा ? प्र०-क्या वह सुनता है ? उ.-हता पडिसुणेजा। उ०-हाँ सुनता है। प०- से गं सद्दहेज्जा पतिएज्जा रोएग्जा? प्र०—क्या वह श्रद्धा, प्रतीति एवं रुचि करता है? उ.-णो तिण? समट्ट, अण्णस्य रुई यावि भवति । उ०-यह सम्भव नहीं है, किन्तु वह अन्य दर्शन में रुपि रखता है। अपणहमायाए से भवति... ___ अन्य दर्शन को स्वीकार कर बह इस प्रकार के आचरण वाला होता हैजे इमे भारणिया, आयसहिया, गाभतिया, कण्हुइ जैसे कि ये पर्ण कुटियों में रहने वाले अरण्यवासी तापस रहस्सिया । णो बहु-संजया, जो बह-परिविश्या और ग्राम के समीप की वाटिकाओं में रहने वाले तापस तथा सम्व-पाण-मय-जीब-सत्तेसु, अपणो समचामोसाई अदृष्ट होकर रहने वाले जो तांत्रिक हैं, असंयत हैं। प्राण, मून, एवं विपरिवति जीव और सत्व की हिंसा से विरत नहीं है । वे सत्य-मृषा (मिन भाषा) का इस प्रकार प्रयोग करते हैं कि"अहं गं तब्दो, अणे हतब्वा । "मुझे मत मारी, दूसरों को मारो, महंण अम्जावेयष्यो, अम्पे अक्जायम्वा, मुग्ने आदेश मत करो, दूसरों को आदेश करो, अहं परियावयम्बो, अव्यये परियायम्वा, मुझ को पीड़ित मत करो, दूसरों को पीड़ित करो, अहं पं परिघेतथ्वी, अण्णे परिघेतम्बा, मुझ को मत पकड़ो, दूसरों को पकड़ो, अहं गं उपयष्यो, अण्णे उबहवेयम्वा," मुझे भयभीत मत करो, दूसरों को भयभीत करो, एषामेव इस्थिकामेहि मुच्छिया गठिया गिडा असो- इसी प्रकार वह स्त्री सम्बन्धी कामभोगों में भी मूच्छितबवण्या-जाव कालमासे कालं किया गयेरसु अथित, गृद्ध एवं आसक्त होकर-यावत्--जीवन के मम्तिम आमुरिएसु किब्यिसिएमु ठाणेमु उपसारो भवति । क्षणों में देह त्याग कर किसी असुर लोक में किल्विषिक देवस्थान में उत्पन्न होते है। 1-५ प्रथम निदान में देखें। ६ सूर्य. अ. २, अ. २, सु. ५६ (अंग सुत्ताणि) Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ३३५.३३६ निर्ग्रन्य-निग्रन्थी के द्वारा सहज दियभोग का निदान करना आराधक-विधिक [१६३ ततो विमुच्चमागो मुज्जो एल-मूयत्ताए पश्चायति'। वहाँ से वे देह छोड़कर पुन: भेड़-बकरे के समान मनुष्यों में मूक रूप में उत्पन्न होते है। एवं खतु समणाउसो ! तस्स णिवापस इमेयास्वे हे आयुष्मान् श्रमणो ! उस निदान का यह पापकारी परिपावए फल-विवागे-जं जो संचाएति केवलि-पण्णतं णाम है कि वह केवलि प्रश्नप्त धर्म पर श्रद्धा, प्रतीति एवं धम्म सहहितए वा, पसिइतए वा, रोइतए वा। रुचि नहीं रखता है। -रसा. द. १०, सु. ३८ (७) णिग्गंथ जिग्गंथोए सहज दिमाग-णिशग करगे- (७) निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्यो के द्वारा सहज दिव्यभोग का निदान करना ३३६. एवं खलु समणाउमो ! मए धम्मे पण्णते-जाव'-से य ३३६. हे आयुष्मान् श्रमणो ! मैंने धर्म का प्ररूपण किया है परक्कममाणे माणुस्सएमु काम-भोगेसु निश्चेवं गल्छेज्जा । यावत्-संयम की साधना में पराकम करते हुए निर्ग्रन्थ मानव सम्बन्धी काम-भोगों से विरक्त हो जाय और वह यह मोचे वि''माणुहसागा स्त्रलु काममोगा अधुषा-जाव'-विष्यजहियब्धा । "मानव सम्बन्धी काम-भोग अभ्र व है-पावत-स्याज्य है। संति उड्ड देवा देवलोगति । से णं तस्य पो असि देवाणं जो ऊपर देवलोक में देव हैं--यहाँ वे अन्य देवों की देवियों देवीओ अभिजुजिय-अभिनं जिय परियारेइ, णो अपणो चेव के साथ विषय सेवन नहीं करते हैं तथा स्वयं को विकुक्ति अप्पाणं वेविय-वे उन्विय परियारे, अप्पणिज्जियाओ देवियों के साथ भी विषय सेवन नहीं करते हैं, किन्तु अपनी देवीओ अभिजु जिय-अभिजंजिय परियारे ।" देवियों के साथ कामक्रीड़ा करते हैं।" "जए इमस सुपरिय-तव-नियम-भचेरवासस्स कस्लाणे "यदि सम्यक् प्रकार से आचरित मेरे इस तप-नियम एवं फलवित्ति विसेसे अस्थि, अहमवि आगमेस्साए इमाई एया. ब्रह्मचर्य-पालन का कल्याणकारी विशिष्ट फल हो तो मैं भी सवाई विश्वाई भोगाई मुंजमाणे विहरामि, से तं साहू।" आगामी काल में इस प्रकार के दिव्य भोग भोगता हुआ विवरण करू तो यह श्रेष्ठ होगा।" एवं खलु समणाउसो । णिगंथो वा णिग्यंथी वा गियाणं हे आयुष्मान् घमणो ! इस प्रकार निर्ग्रन्थ या निग्रन्थी किच्चा-जाव-देवे भवद महिडिवए-जाव-दिवाई मोगाई (कोई भी) निदान करके-पावत् --देव रूप में उत्पन्न होता है । मुंजमाणे विहरह। वह बहाँ महाऋद्धि वाला देव होता है -यावत् --दिव्य भोगों को भोगता हुआ बिचरता है। से ण तत्थ णो अपणेसि वेवाणं देवीओ अभिजुजिय-अभि- वह देव वहाँ अन्य देवों की देवियों के साथ विषय सेवन जंजिय परियारेज, णो अपणो पेव अप्पाणं विश्विय- नहीं करता है, स्वयं ही अपनी विकुपित देवियों के साथ भी विश्विय परिपारेड, अप्पणिज्जियाओ बेबीओ अभिमुंजिय- विषय सेवन नहीं करता है, किन्तु अपनी देत्रियों के साथ विषय अभिजुजिय परियारे । सेवन करता है। से गं तामओ देवलोगाओ पाउपखएण-जाव- पुमत्ताए पस्चा- वह देव उस देवलोक से आयु के क्षय होने पर--यावत्पाति-जाव- तस्स णं एगमवि आणवेमाणस्स-जाव-मत्तारि- पुरुष रूप में उत्पन्न होता है-यावत्-उसके द्वारा किसी एक पंच अबुसा चंव अम्मुटुति "पण देवाणुपिया [ कि कोमो को बुलाने पर चार-पांच बिना बुलाये ही उठकर खड़े हो जाते -जावक ते आसगस्स सयह।" हैं और पूछते है कि "हे देवानुप्रिय ! कहो हम क्या करें-पावत् आपके मुख को कौन से पदार्थ अच्छे लगते हैं ?" '--.- . . .. : वहाँ निदान कृत एक पुरुष सम्बन्धी पृच्छा के बीच में बहुवचन का पाठ शुरू होकर अन्त तक बहुवचन में पूर्ण होता है। ऐसा ज्ञात होता है कि लिपि प्रमाद से कोई सम्बन्ध जोड़ने वाला पाठ छूट गया है। २-८प्रथम निदान में देखें। Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४] परणानुपाग-२ श्रमणोपासक होने के लिए निशान करना सूत्र १३६-३३७ प०.-तस्स पं तहप्पगारस्त पुरिसजायस्स तहारवे समणे प्र०-इस प्रकार की ऋद्धि युक्त उस पुभाष को लप मंयम या माधणे वा उमओ काल केवलीपणतं धम्ममा- के मूर्त रूप श्रमण माहन उभयकाल केवलि प्रज्ञप्त धर्म कहते हैं? इक्खेज्जा? उ०-हंता आइक्सेमा । म. रहते हैं। ५०-से गं ! पडिसज्जा ? प्र०-क्या वह मुनता है ? उ०-हंता! पडिस गेज्जा। उ०-हाँ सुनता है। १०–से पंसदहेजा, पत्तिएज्जा, रोएज्जा ? प्र० - क्या वह केवलि प्राप्त धर्म पर श्रद्धा, प्रतीति एवं मचि रखता है? उ.-हता ! सहहज्जा, पत्तिएज्जा, रोएज्जा । ___ उ०-हाँ वह केवलि प्रज्ञप्त धर्म पर श्रद्धा, प्रतीति एवं रुचि रखता है। ५०-से गं सीलब्खय-गुणवय-वेरमण-पस्चक्खाण-पोसहोय- प्र-क्या वह शीलवत, गुणवत, विरमणव्रत, प्रत्याख्यान, वासाई पश्विज्जेज्जा? पौषधोपत्रास करता है ? उ०—णो तिण? सम? । से गं बसणसावए भवति । उ.--यह संभव नहीं है । वह केवल दर्शन-श्रावक होता है। अभिगय जीवाजीवे-जाव-अदिमिज्जापेमागुरागरसे वह जीव अजीद के यथार्थ स्वरूप का ज्ञाता होता है --यावत्-उसके अस्थि एवं मज्जा में धर्म के प्रति अनुराग होता है कि-.. "अयमाउसो ! निम्नथे पावयषे अ१. एस परम?, सेसे "हे आयुष्मान् ! यह निम्रन्थ प्रवचन ही जीवन में इष्ट है । अगष्ट ।" यही परमार्थ है । अन्य सब निरर्थक है।" से गं एयारवेणं विहारेणं विहरमाणे बह बासा समणो- वह इस प्रकार अनेक वर्षों तक आगार धर्म की आराधना वासग-परियाय पाउणइ, पाउणित्ता कालमासे कालं किच्चा करता है और आराधना करके जीवन के अन्तिम क्षणों में किसी अण्णतरेसु देवलोगेसु देवत्साए उववत्तारो भवति । एक देवलोक में देव रूप में उत्पत्र होता है। एवं बलु समणाउसो ! तस णियाणस्स इमेयार पाबए इस प्रकार हे आयुष्मान् श्रमणो ! उस निदान का यह पाप फल विवागे- ज णो संचाएति सीलवयगुणववय-वेरमण- रूप परिणाम है कि वह शीलवत, गुणवत, विरमणव्रत, प्रत्यास्थान पच्चखाण-पोतहोववासाइं परिवज्जित्सए। और पोषधोपवास नहीं कर सकता है। -दसा. द. १०, सु. ३६-४१ (८) समणोवासगमवण णिदाण करणं (८) श्रमणोपासक होने के लिए निदान करना३२७. एवं खलु समगाउलो ! मए धम्मे पण्णते-जाब-' से य ३३७ हे आयुष्मान् श्रमणो ! मैंने धर्म का प्रतिपादन किया है परक्कममाणे दिञ्चमाणुस्सएहि काममोगेहि गिवे -पावत्-संयम साधना में पराकम करते हुए निर्गन्य दिव्य गच्छज्जा और मानुषिक कामभोगों से विरक्त हो जाने पर यों सोचे कि"माणुस्सगा काममोगा अधुवा-जाव-'विप्पमहणिज्जा, "मानुषिक कामभोग अध्रव है-यावत- त्याज्य है। विम्वा वि खलु कामभोगा अधुवा, अणितिया, असासमा, देव सम्बन्धी कामभोग भी अध्र व है, अनित्य हैं, अशाश्वत चलाचलम-धम्मा, पुनरागमणिग्जा पच्छा पुई घणं अवस्स है, चलाचल स्वभाव वाले हैं, जन्म-मरण बढ़ाने वाले हैं। आगेविष्पजहणिज्जा।" पीछे अवश्य त्याज्य हैं।" जइ इमस्स सुचरिब-तव-नियम-बंमधेरवासस्स कल्लाणे "यदि सम्यक प्रकार से आचरित मेरे इस तप-नियम एवं फल-वित्तिविसेसे अस्थि, अहमदि आगमेस्साए, जे इमे ब्रह्मचर्य-पालन का कल्याणकारी विशिष्ट फल हो तो मैं भी मवंति उम्मपुत्ता महामाउया भोगपुस्ता महामाया तेसि णं भविष्य में जो ये विशुद्ध मातृ-पितृ पक्ष वाले उग्र वंशी या भोग- १ वि. स. २, अ. ५, सु. ११ २ सातवे निदान में देखें। ३ सातवें निदान में देखें। Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमणोपासक होने के लिए निदान करना आराधक-विराधक [१६५ अन्नयरसि कुलसि पुमत्ताए पश्चायामि, तत्य णं समगो. वंशी कुल है वहाँ पुरुष रूप में उत्पन्न होऊँ और श्रम गोपामक बासए भविस्सामि बनूं।" अभिगय-"जीवाजीवे-जाव-1 अहापरिग्गहिएणं तत्रोफम्मेणं "जीवा-जीब के स्वरूप को जानूं -- यावत्-ग्रहण किये हुए अप्पाणं माबेमाणे विहरिस्सामि. से तं साह ।" ___ तप में आत्मा को भाबित करते हुए विचरण करू तो यह श्रेष्ठ होगा।" एवं खलु समणाउसो! निगंयो वा निमाथी वा णिदागं हे आयुष्मान् धमणो ! इस प्रकार निर्गन्ध या निर्ग्रन्थी किच्चा-जाव-2 वेवे भवन महिडिए-जान- विश्वाई भोगाई (कोई भी) निदान करके-यावत्-देवरूप में उत्पन्न होता है। मुंजमाणे बिहरह-जाव- से गं ताओ देवलोगाओ आउक्त- वह वहाँ महाऋद्धि बाला देव होता है --यावत्-दिव्य भोगों एणं-जाव-५ पुमत्ताए पच्चायाति-जावतस्स नं एगमवि को भोगता हुआ विधरता है यावत् । वह देव उस देवलोक से आणवे-माणस्स-जाव-घसारि-पंच-अवुत्ता चेव अम्भुट्ठति भण आयु क्षय होने पर-यावत् --पुरुष रूप में उत्पन्न होता है देवासुप्पिया ! किक मो-जाव- कि ते आसगस्स सयइ ।' -यावत्- उपके द्वारा किसी एक को बुलाने पर चार-पांच बिना बुलाये ही उठकर खड़े हो जाते है और पूछते हैं कि 'हे देवानु प्रिय ! कहो हम क्या करें - यावत् आपके मुख को कोन से पदार्थ अच्छे लगते हैं ?" प०–तस्स गं सहप्पगारस पुरिसजायस्स तहारूये समणे प्र०--इस प्रकार की ऋद्धि युक्त उस पुरुष को तप-संयम बा माहणे वा उमओ कासं केवलि-पणतं म्ममा- के मूर्त रूप श्रमण माहन उभय-काल केवलि-प्रज्ञप्त धर्म कहते हैं ? हपखेजा? 3–हता ! आइपोग्णा। उ... हाँ रहते हैं। पल-से गं परिसुणेज्मा? प्र. क्या वह सुनता हैं? उ.-हता! पडिसणेजा। उ. -हाँ सुनता है। प०-से गं सहहेज्जा, पत्तिएज्जा, रोएना? प्र०" . क्या वह श्रद्धा, प्रतीति एवं रुचि करता है ? उ.-हंता ! सद्दोज्जा, पत्तिएजा. रोएज्जा । उ० . हा वह श्रद्धा, प्रतीति एवं रुचि करता है । पल-से गं सील-बय-जाव- पोसहोवयासाइ पविजेज्जा? प्र०-क्या वह शीलवत-यावल-पोषधोपवास स्वीकार करता है ? ३०-हंता ! पविजेम्जा। उ०-नां वह स्वीकार करता है । १०-से में मरे वित्ता आगाराओ अगगारियं पावएम्जा? प्रा-क्या वह गृहवाम को छोड़कर मुण्डित होता है एवं अनगार प्रवज्या स्वीकार करता है ? ज... गो तिण? सम? । उ०--यह सम्भव नहीं है । से गं समणोवासए भवति अभिगय-जीवाजीवे-जाव- पडि- वह प्रमणोपासक होता है, जीवाजीव का ज्ञाता-यावत्लामेमाणे विहराइ । प्रतिलाभित करता हुमा विचरता है। से पं एयारवेणं विहारेण विहरमाणे बहणि वासाणि इस प्रकार के आचरण से वह अनेक वर्षों तक श्रमणोपासक समणोवासग परियागं पाउणा पाणित्ता आधाहसि उप- पर्याय का पालन करता है, पालन करके रोग उत्पन्न होने या न शसि वा अणुप्पन्न सि वा मत्तं पञ्चपखाएइ, मत्त पसा - होने पर भक्त-प्रत्याख्यान करता है, भक्त-प्रत्याख्यान करके अनेक इत्ता यहूई मसाई अणसणाई छेदेड, बहू भत्ताइ अणसणाई भक्तों का अनशन से छेदन करता है, बहुत से भक्तों का अनशन १ विया. श. २, उ. ५. सु. ११ २. सातवें निदान में देखें। १ विद. श. २. उ. ५, मु. ११ Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६] चरणानुयोग - २ प्रमण होने के लिए निदान करना सूत्र ३३७-३३८ छवित्ता आलोहय परिपकते समाहिपत्ते कालमासे काल से छेदन करके आलोचना एवं प्रतिक्रमण द्वारा समाधि को प्राप्त किच्या अग्णयरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववत्तारो भवति। होता है । जीवन के अन्तिम क्षणों में देह छोडकर किसी देवलोक में देव होता है। एवं खलु समणाउसो! तस्स नियाणस्स इमेयारवे पाव- हे आयुष्मान् श्रमणो ! उस निदान शल्य का यह पापरूप फलविवागे-जं नो संधाएति सध्याओ सत्यत्ताए मुंडे भविप्ता परिणाम है कि वह गृहवास को छोड़कर एवं सर्वथा मुण्डित आगाराओ अणगारियं पध्वइत्तए। होकर अनगार प्रव्रज्या स्वीकार नहीं कर सकता है। -दसा. द.१०. सु. ४२-४६ (E) समणभरण णिवाण करणं () श्रमण होने के लिए निदान करना३३८. एवं खलु सभणाउसो! भए धम्मे पाणते-जाव-1 से य ३६८. हे आयुष्मान श्रमणो ! मैंने धर्म का निरूपण किया है परक्कममाणे दिव्वमाणुससएहि काम-भोहिं निववेयं यावत् -संयम की साधना में प्रयत्न करता हुआ निग्रन्थ गच्छेग्जा दिव्य मानुषिक काम भोगों से विरक्त हो जाए और वह यह सोचे कि"माणुस्सगा खल काम-भोगा अधुवा जाव-'विप्पजहणिक्जा। "मानुषिक काम-भोग अधब-यायत्-त्याज्य है । दिव्या वि खल कामभोगा अघुबा-जाब-पुणरागागजा, दिव्य' कामभोग भी अध व-- यावत । भव परम्परा बढ़ाने पच्छा-पुत्वं च णं अवस्स विष्पजाणिग्ज।। वाले हैं नया पहले या पीछे अवश्य त्याज्य हैं।" "जह इमस्स सुचरिय-तव-नियम बमच्छरवासस्स कल्लाणे "यदि सम्यक् प्रकार से आचरित मेरे इस तप नियम एवं फलवित्ति बिसेसे अस्थि अहमवि आगमेस्साए जाई इमाई बह्मन-पालन का कल्याणकारी विशिष्ट फल हो तो मैं भी भवंति अंतकुलाणि वा, पंतकुलाणि बा, तुच्छकुलाणि वा, भविष्य में जो ये अंतकुल, प्रान्तकुल, तुच्छकुल, दरिद्वकुल, कुपण दरिद्द-कुलाणि वा, किवण-कुलाणि वा, भिक्खाग-कुलागि कुल या भिक्षु कुल है इनमें से किसी एक कुल में पुरुष बनूं जिससे चा एएस णं अण्णतरसि कुलं सि-पुमताए पञ्चायामि एस मे मैं जित होने के लिए सुविधापूर्वक गृहस्थ छोड़ सकू तो यह माया परियाए सुणीहारे भविस्सति, से तं साह।" श्रेष्ठ होगा।" एव खमु समणा उसो ! णिग्गथा वा णिग्गंयो वा णियाणं हे आयुष्मान् श्रमणो ! इस प्रकार निग्रन्थ या निम्रन्थी किच्चा जाव- देवे भवा, महिडिटए-जाव- विचाई भोगाई (कोई भी) निदान करके यावत् - देव रूप में उत्पन्न होता है। Sजमाणे विहरइ-जाव-" से ताओ देवलोगामओ आउख- वह वहाँ महाऋद्धि वाला देव होता है-यावत्-दिव्य भोग एणं-जाव-' पुमत्ताए पच्चायाति-जाब- तस्स गं एगमवि भोगता हुआ विचरता है - यावत्-वह देव उस देवलोक से आणवेमागस जाव चत्तारि-पंच अकुत्ता चेव अम्मति आयु क्षय होने पर-यावत--पुरुष रूप में उत्पन्न होता है 'मण देवाणुपिया ! कि करेमो-जाव- कि ते बासगास -यावत्-उसके द्वारा किसी एक को बुलाने पर चार-पांच सय?" बिना बुलाये ही उठकर खड़े हो जाते हैं और पूछते हैं कि "हे देवानुप्रिय ! कहो हम क्या करें-पावत्-आपके मुख को कौन से पदार्थ अच्छे लगते हैं ?" । ५०.- तस्स गं सहप्पगारस पुरिसजायरस तहासवे समणे प्र.-इस प्रकार की ऋद्धि युक्त उम पुरुष को तप-संयम के वा माहणे वा उमओ काल केवलि-पणतं धम्ममा- मूर्तरूप श्रमण माहण उभय काल केवलि प्रशप्त धर्म कहते हैं ? इक्खेज्जा? उ०-हंता! जाइलेजा। उ.- हाँ कहते हैं। पर-से गं पडिसुजा ? प्र०-क्या यह सुनता है? उ.-हंसा ! पउिसुफेज्जा । उ०-हाँ सुनता है। - -- - १-६ पहले या सातवें णियाणे में देखें। Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ३३८-३३६ निदान रहित की मुक्ति भाराधक-विराधक [१६७ प०-से गं सद्दहेज्जा, पत्तिएज्जा. रोएज्जा ? प्रस- क्या वह श्रा, प्रतीति एवं रुचि रखता है ? उ०- -हंता ! सद्दहेज्जा, पत्तिएज्जा, रोएज्जा । उल-हां वह श्रद्धा, प्रतीति, रुचि करता है। प०–से गं सीलध्धय-गुणच य-वेरमण-पध्यक्षाण-पोसहोष- प्रत-क्या वह शीलवत, गुणव्रत, विरमणव्रत, प्रल्गल्यान, वासाई पडियन्जेज्जा? पौषधोपवास स्वीकार करता है? । उ.-हता ! पडिवज्जेज्जा। उ० हो स्वीकार करता है। प०-से ण मुंडे भविता आगाराओ अणगारियं पवइराजा ? प्र.-क्या वह गृहबास को छोड़कर मुण्डित होता है एवं अणगार प्रव्रज्या स्वीकार करता है ? उ-हंता! पव्वल्मा । उ०-हां वह अणगार प्रवज्या स्वीकार करता है। पत--से गं तेणेव भवाहणेणं सिज्झेम्जा-आर-1 सध्व- प्र.- क्या वह उसी भव में सिद्ध हो सकता है--यावत्दुक्खाणं अंत करेज्जा ? सब दुःखों का अन्त कर सकता है? उ०-णो इण? समहूँ। उ.--यह सम्भव नहीं है। से गं भवइ-से जे अणगारा भगवंतो इरियाममिया-आन-2 वह अणगार भगवंत इंर्या-समिति का पालन करने वाला बंभयारी। -पावत्-अह्मचर्य का पालन करने वाला होता है। से ग एपारवेणं विहारेणं विहरमाणे बहूई वालाई सामण्ण इस प्रकार के आचरण से वह अनेक वर्षों तक मंयम पर्याय परियागं पाउणइ, बरई वासाई मामण्ण परियागं पाउणिता वा पालन करता है, अनेक वर्षों तक संयम पर्याय का पालन आवाहंसि अप्पम सि या अणुप्पा सि या भत्तं पश्चखाएक, करके रोग उत्पन्न होने या न होने पर भी मक्त प्रत्याख्यान करता मत्तं पस्त्रक्खाइत्ता, बहूई भसाई अणसणाई छेवेइ, बहुई है, भक्त-प्रत्याभ्यान करके अनेक भक्तों का अनशन से छेदन भत्ताई अणसणाई देता आलोइय परिपकते समाहिपत्ते करता है, अनेक भक्तों का अनशन से छेदन करके आलोचना एवं काल मासे कालं किच्चा अग्णयरेस देवलोएभु देवताए उव- प्रतिक्रमण द्वारा समाधि को प्राप्त होता है और जीवन के अंतिम यत्तारो भवति । क्षणों में देह छोड़ कर किसी देवलोक में देव रूप में उत्पन्न होता है। एवं खलु समणाउसो! तस्स णिवाणरस हमेपारवे पावए है आयुष्मानू श्रमणो ! उस निदान पाल्य का यह पापरूप फल-विवागे जं नो संचाएइ तेणेव भवागहणेणं सिनिमत्तए परिणाम है कि वह उस भव से मिव नहीं होता है-यावत्-जाव- सव्व दुक्याण अंत करेलए। सब दुःखों का अन्त नहीं कर पाता है। –दमा. द.१०, सु. ४७-YE णियाण रहियस्स विमुत्ति निदान रहित की मुक्ति३३६. एवं खलु समकाउसो 1 मए धम्मे पण्णत्ते-हणमेव निग्गधे ६३९. हे आयुष्मान् श्रमणो ! मैंने धर्म का प्रतिपादन किया है। पावपणे सच्चे-जा- सवदुक्खाणमंत करेंति। यह निर्ग्रन्थ प्रवचन सत्य है-यावत्-सब दुःखों का अन्त जस्स ग धम्मस सिक्खाए निगाथे उवट्टिए विहरमाणे से इस धर्म की आराधना के लिए उपस्थित होकर विचरता परक्कमेक्जा से व परक्कममाणे सम्वकाम-बिरते, सवराग- हुआ वह नियंग्य तप संयम में पराक्रम करता हुआ तप संयम विरसे, सव्यसंगातीते, सव्वहा सव्य- सिहातिरकसे सम्ब- को उग्र माधना करते समय काम-राग से सर्वथा विरक्त हो जाता परित परिवहे। है। संग, स्नेह से सर्वया रहित हो जाता है और सम्पूर्ण चारित्र की आराधना करता है। सस्स गं भगवंतस्स अणुत्तरेणं गाणं, अणुसरेणं सण उत्कृष्ट ज्ञान दर्शन और चारित्र-यावत् - मोक्ष मार्ग से -जाय- मणत्तरेणं परिनियाणमग्गेणं अप्पाणं मावेमागरम अपनी आत्मा को भावित करते हए उस अणगार भगवन्त को १-२ पहले या सातवें णियाणे में देखें। ४ प्रथम निदान में देखें। ३. दशा. द. १, सु. ६ ५ देसा. द. १०, सु. ३३, नवसुत्ताणि Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६j चरणानुयोग-२ तप को फसाकांक्षा का निषेध सूत्र ३३६-३४० अणते. अणुत्तरे, निवाघाए, निरावरणे, कसिणं, पांरपुषणे, अनन्त, सर्व प्रधान, बाधा एवं आचरण रहित, सम्पूर्ण, प्रतिपूर्ण केवल-बर-नाण-दसणे समुपज्जेज्जा। केवलज्ञान, केवल दर्शन उत्पन्न होता है। तए से भगवं अरह। भवति, जिणे, केवली, सम्यण्णू, उस समय वह अरहन्त भगवन्त, जिन, केबलि, सर्वज्ञ-सर्वसवमाव-दरिसी, सवमणुयासुरस्स लोगस्स पज्जाए जाणड दी हो जाता है, वह देव मनुष्य असुर आदि लोक के पर्यायों तं जहा को जानता है यथाआगई, गई. ठिई, चवणं, उपवाय, मुत्त, पोय, फर, जीवों की आगति, गति, स्थिति, च्यवन, उत्पत्ति तथा उनके पडिसेवियं, आवीकम्म, रोकम्म, लविर्य, कहिय, मणो- द्वारा खाये-पीय गये पदार्थों एवं उनके द्वारा सेवित प्रगट एवं माणसि। गुरत सभी क्रियाओं को तथा दार्तालाप, गुप्तवार्ता और मानसिक चितन को प्रत्यक्ष रूप से जानते देखते हैं । सव्वलोए सव्यजीवाणं सब्वभाषाई जाणमाणे पासमाणे वह सम्पूर्ण लोव में स्थित सर्व जीवों के सर्व भावों को विहर। जानते देखते हुए विचरण करता है। से पं एपासवेणं विहारेण विहरमाणे बहई वासाइ केवलि- बह इस प्रकार केबलि रूप में विचरण करता हुआ अनेक परियागं पाउणइ पाउणित्ता अपणो आउसेस आमोएड, वर्षों की केवलिपर्याय को प्राप्त होता है और अपनी आयु का आमोएत्ता भत्तं पञ्चक्खाएइ, परसक्खाइत्ता प्रहार भत्ताह अन्तिम भाग जानकर वह भक्त प्रत्याख्यान करता है, भक्तअणसणाई छेदेइ, तो पच्छा परमेहिं ऊसास-नीसाहि प्रत्याख्यान करके अनेक भक्तों को अनशन से छेदन करता है। सिज्झाइ-जाव- सव्वदुक्खाणमंत करे । उसके बाद वह अन्तिम श्वासोच्छ्वास के द्वारा सिद्ध होता है .-यावत्--सब दुःखों का अन्त करता है। एवं खलु समकाउसो! तस्स अणिवाणस्स इमेयारवे हे आयुष्मान् श्रमणो ! उस निदान रहित साधनामय जीवन कल्लाणे करन-विवागे जं तेगेव मवरगहणे सिम्मति-जाद- का यह कल्याण कारक परिणाम है कि वह उसी भव से सिर सम्वदुक्खाणं अंत करे। होता है यावत्--सब दुःखों का अन्त करता है। तेए 4 ते यहवे निग्गया व निग्गथीओ य समणस्स भगवओ उस समय उस अनेक नित्य-निर्ग्रन्थियों ने श्रमण भगवान महावीरस्स अंतिए एषमटु सोच्चा णिसम्म समणं भगवं महावीर से इन निदानों का वर्णन सुनकर श्रमण भगवान महावीर महावोरं बंधति नमसंति, वक्त्तिा नमंसित्ता तस्स ठाणस्स को वंदना, नमस्कार किया और उस पूर्वकृत निदान मल्यों की आलोयंति पडिक्कमति-जाब-अहारिहं पायच्छित्तं तवोकम्म आलोचना प्रतिक्रमण करके-यावत् -- यथायोग्य प्रायश्चित्त परिवरजति । -दया. द. १०, सु. ५२-५४ स्वरूप तप स्वीकार किया। तबस्स फलकखा णिसेहो-- तप को फलाकांक्षा का निषेध३४०. से भिक्खू अकिरिए, अलूसए, अकोहे, अमाणे, अमाए, ३४०. बह भिक्षु सावध क्रियाओं से रहित, अहिंसक क्रोध मान अलोमे, उपसंते, परिनिन्, गो आसंसं पुरओ करेक्जा- माया और लोभ रहित, उपशान्त एवं समाधियुक्त होकर रहे "इमेण मे विटुप वा. सुएग या, भएग वा, किमगाएण और भविष्य के लिए आकांक्षा न करे कि "मेरे इस दर्शन, श्रुत, वा, हमेण वर सुचरिय-तनियम-बंभचेर-वासेणं, इमेण वा मनन, विज्ञान, उत्तम आचरण, तप नियम, ब्रह्मचर्य संयम यात्रा जण्यामायाबुसिएणं धम्मेग इसो चुते पेच्चा देवे सिया, और आहार की मात्रा के पालन रूप धर्म के फलस्वरूप यहाँ से कामभोगा बसवत्ती, सिवा अनुमखमसुहे, एस्य घिसिया, सरीर छोड़ने के पश्चात् मैं देव हो जाऊँ, समस्त काम-भोग मेरे एत्य वि जो सिया। -सूय. सु. २, अ. १. सु. ६५२ अधीन हो जाएं अथवा मैं सब सुख-दुःख से रहित सिद्ध हो जाऊँ । क्योंकि (इस प्रकार आशंसा करने पर भी) फल की प्राप्ति कभी होती है और कभी नहीं होती है। अतः ऐसी आकाक्षाएँ नहीं करना चाहिए । १ प्रथम निदान में देखें। Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४१-१४२ अगविहा मरणा २४१. सत्तरसविहे मरणे पण तं जहा १. आवीदमरणे, ३. आयंतियमरणे, ५. बसट्टसर ७. भरणे, ९. पंडितमरणे, ११. छउमत्यमरणे, १२. समर १५. मलपचाजगरमे, १७. वावगमणमरणं । बालमरणप्पगारा ३४२. ५० - से कि तं बालमरणे ? ६. तप ७. जलप्पवेसे, ८. जलसे ६. दिसणे, १० पाह ११. बेहा १२. विपु " बाल पण्डित मरण से आराधना विराधना—५ दो मरा समझे जो णिच्च बलिया पुरमा भवंति तं जहा १. परमेव २. मरणे व एवं - १. णियाणमरणे चेब, २. हिमरणे ४. वलयभरणे, ६. लोसल्लमरणे, म. बालमरणे, ९ बि. स. २.. १. सु. २६ १०. बालमंडितमरणे, १२. केवलिमरणे, उ०- बालमराव जहा १. बलवर २. यस मरणे, ३. अंतोसल्लमरणे, ४. मरणं, ५. विडि १४. १६. पुरणे, अनेक प्रकार के मरण गिरणे, -सम. सम. १७, सु. १ - वि. स. १३, उ. ७, सु. ४१ भगवया महावीरेण समाचा णो णिच्च किसिपाई यो विश्वं पस्पाइ गोयिं अम्माई आराधक - विराधक अनेक प्रकार के मरण ३४१. मरण सत्तरह प्रकार का कहा गया है, यथा (१) आमरण (२) अवधि-मरण, (४) वलय मरण, (६) अन्तः शल्य-मरण, (६) बाल-मरण, (१०) बाल-पंडित-मरण, (१२) केवल-मरण, (१४) इस्पृष्ट-मरण, (१६) इंग्रिनों-मरण, (३) आत्यन्तिक-मरण, (५) बशर्त-मरण, (७) तद्भव-मरण, (2) पंडित-मरण, (११) मस्य-नरम, (१३) हार, (१५) भक्तप्रत्वाम्मान-मरण, (१७) पादोपगमन - मरण | बालमरण के प्रकार३४२. १० बाल गरण क्या है उ०- बालमरग बारह प्रकार का (१) गला दबाकर मरना । [ १६६ उसके कितने भेद हैं ? कहा गया है, यथा (२) विरह व्यथा से पीड़ित होकर मरना । (३) शरीर में तीर भाला आदि शस्त्र घुसा कर मरना । (४) उमी भव में पुनः उत्पन्न होने के संकल्प से मरना । (५) पर्वत पर से गिरकर भरना । (६) शाड़ पर से गिरकर मरता । (७) पानी में डूबकर मरना । (८) अग्नि में जलकर मरना । (e) विष खाकर मरना | (१०) तलवार आदि शस्त्र से कटकर भरना । (११) गले में फांसी लगाकर मरना । (१२) गीध आदि पक्षियों के द्वारा शरीर का भक्षण करवा कर मरना । श्रमण भगवान महावीर द्वारा श्रमण निन्यों के लिए सदा वो-दो मरण वर्णित, कीर्तित, कवित, प्रशंसित एवं अनुमत नहीं है यथा (१) वलय मरण – गला दबा कर मरना । (२) बशार्त मरण- विरह व्यथा से पीड़ित होकर मरना । इसी प्रकार - ( १ ) निवास मरण- तप-संयम के फल की कामना करके मरना | Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७०] चरणानुयोग -२ मरण के प्रकार सूत्र ३४२-३४३ २. तम्भवमरणे चैव, (२) तभव मरण-वर्तमान भव को पुनः प्राप्त करने के संकल्प से मरना। १. गिरिपरणे चेब, (१) गिरिपतन भरण--- पहाड़ से गिरकर मरना । २. तपणे चेय, (२) तरुपतन मरण-वृक्ष से गिरकर मरना । १. जसप्पवेसे चैव, (१)जल प्रवेश मरण-जल में प्रवेश करके भरना । २. जलगप्पवेसे चेब, (२) ज्वलन प्रवेश भरण-अग्नि में प्रवेश करके मरना । १. विसभर (१) विषमक्षण मर---जहर खाकर मरना । २. सत्योपाडणे वेव, (२) शस्त्रोत्पाटन मरण-शस्त्र से कट कर मरना । वो मरणाइ-जावणो गित्वं अम्मणुनाया भवति, कारणेण दो भरण-यावत्- सदा अनुमत नहीं हैं किन्तु कारण से वे पुर्ण अप्पडिकुटाई, तं जहा निषिद्ध भी नहीं हैं यथा-- १. बेहाणसे चेय, (१) वेहानस मरण-ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए फाँसी लगा कर मरना। २. गिडपुढे वेव। अणं. अ. २, उ.४, सु. ११३ (२) गृद्ध स्पृष्ट मरण:-हाथी आदि के बड़े बालेवर में प्रवेश करके गिद्धों से अपना मांस नुचबाकर मरता । मरणस्सप्पगारा-- मरण के प्रकार३४३. तिविहे मरणे पण्णते, तं जहा ३४३. मरण के तीन प्रकार हैं । यथा१. बालमरणे, २. पंडिपमरणे, ३, बालरियमरगे। (१) बालमरण, (२) पण्डितमरण, (३) बालपंडितमरण । बालमरणे लिविहे पण्णते; त अहा बालमरण तीन प्रकार का कहा गया है, यथा१. ठितलेस्से, (१) स्थिर संक्लिष्ट लेश्यावाला, २. संकिलिसेस्से, (२) संक्लेश वृद्धि से युक्त लेश्यावाला, ३. पज्जबजातलेस्से। (३) प्रवर्धमान लेश्यावाला। पंडियमरणे तिविहे पग्णसे, तं जहा पण्डितमरण तीन प्रकार का कहा गया है१. ठितसेस्से, (१) विशुद्ध स्थिर लेश्यावाला, २. असंफिलिटुलेस्से, (२) संक्लेश रहित लेश्यावाला, ३. पज्जवजातलेस्से। (३) प्रवर्धमान विशुद्ध लेण्यावाला। बालपंडियमरणे तिविहे पाणसे, तं जहा.. बाल-एण्डित मरण के तीन प्रकार हैं, जैसे१. ठितलेस्से, (१) स्थितलेश्य-स्थिर विशुद्ध लेश्यावाला, २. असंफिलिटुलेस्से, (२) असंक्लिष्टलेश्म-संवलेश से रहित लेश्यावाला, ३. अपज्जवजातसेस्से। -ठाणं. ३, उ. ४, सु. २२२ (३) अपर्यवजातलेश्य --अप्रवर्धमान विशुद्ध लेश्यावाला । अपणवसि महोहंसि, एगे तिग्गे दुरुत्तरे। इस महा-प्रवाह वासे दुस्तर संसार समुद्र से कई महापुरुष तत्व एगे महापन्ने, म पन्हमुवाहरे।। तिर गए है उनमें से एक महाप्रज्ञ श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने यह उपदेश दिया है किसन्तिमे य दुवे ठाणा, अक्खाया मारणम्तिया । मृत्यु के समय होने वाले दो स्थान कहे गये हैं, यथाअकाम-मरणं चेव, सकाम-मरणं तहा॥ (१) अकाम-मरण, (२) सकाम-मरण । बालाणं अकार्म , मरणं असा' भवे । बाल जीवों के अकाम-मरण बार-बार होते हैं किन्तु पंडितों पण्डियाणं सकामं तु, उक्कोसेगं सई भने। का सकाम-मरण उत्कृष्ट एक बार ही होता है। -उत्त.अ. ५, गा. १-३ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ३४४-३४५ अशानियों के बालमरण आराधक-विराधक १७१ अण्णाणीणं बालमरणाई३४४. बालमरणाणि जसो अकाममरणाणि चंब य बहूणि । मरिहिति से बराया, जिणवयणं से न जाणन्ति ।। - उत्त. अ. ३६, गा. २६१ बालमरण सरूवं३४५. तस्थिमं पढम ठाणं, महावीरेण देसियं । काम-गि जहा बाले, मिसं राई कुवइ ।। जे गिझे काम-भोगेसु, एगे कूडाय गच्छई। न मे विट्ठ परे लोए, चपखु-विट्ठा इमा रई॥ हत्यागया इमे कामा, कालिया जे अणागया । को जाणइ परे लोए, अस्थि वा नत्यि वा पुणो ।। "जणेण सवि होक्षामि", हवाले पगमई । काम-मोगाणुराएण, केस संपतिवज्जई ।। लओ से वर्ष समारंभई, तसेसु पावरेसु य । अट्ठाए य अगट्ठाए, भूयगामं विहिंसई । अज्ञानियों के बालमरण३४४. जो पाणी जिन वचनों से परिरित नहीं है, वे बेचारे अनेक बार बालमरण तथा बहुत बार अकाम-मरण से मृत्यू को प्राप्त होंगे। बालमरण का स्वरूप३४५. भगवान महावीर स्वामी ने उन दो स्थानों में पहला स्थान इस प्रकार का बताया है कि कामासक्त बाल-जीव अनेक प्रकार के क्रूर-कर्म करते हैं। __ जो काम-भोगों में आसक्त होते हैं, उनमें से कई नरक में जाते हैं । वे अज्ञानी इस प्रकार कथन करते हैं कि -"परलोक तो हमने देखा ही नहीं है किन्तु यह इहलौकिक आनन्द तो आँखों के सामने ही है।" ये काम-भोग हाथ में आये हुए हैं किन्तु भविष्य में होने वाले सुख तो संदिग्ध हैं, कौन जानता है-"परलोक है या नहीं ?" कोई बाल जीव धृष्टतापूर्वक इस प्रकार कथन करता है कि 'जो गति अन्य की होगी वही मेरी होगी ऐसा सोच कर वह काम-भोग में अनुरक्त होकर क्लेश को प्राप्त होता है। फिर वह अस तथा स्थावर जीवों के प्रति दण्ड का प्रयोग करता है और प्रयोजनक्श या बिना प्रयोजन ही प्राणी समूह की हिंसा करता है। हिसा करने वाला, मूठ बोलने वाला, छल-कपट करने वाला, घुगली खाने वाला और धूर्त वह अज्ञानी मनुष्य मद्य और मांस का भोग करता है और "यह कल्याणकारी है" ऐसा मानता है। वह शरीर और वाणी से मत्त होता है, धन और स्त्रियों में गृद्ध होता है तथा राग और द्वेष दोनों से उसी प्रकार कर्म-मल का संचय करता है जैसे केंचुआ मुख और शरीर दोनों से मिट्टी का संचय करता है। फिर कभी रोग आतंक से ग्लान बना हुआ वह परिताप करता है । और अपने कर्मों का विचार कर परलोक के दुःख से भयभीत होता है। वह सोचता है कि शील रहित पुरुषों की जो गति होती है उस नरक गति के विषय में मैंने सुना है कि वहाँ कूरकर्मी अज्ञानी जीवों को अत्यन्त वेदना होती है। उन नरकों में उत्पन्न होने का जो स्थान है वह भी मैंने सुना है। आयुष्य क्षीण होने पर बह बाल जीय अपने कृत को के अनुसार वहाँ जाकर पीछे परिताप करता है। हिंसे वाले मुसावाई, माइल्ले पिसुणे सके। मुंजमाणे सुरं मंसं, सेयमेयं ति मन्नई। कायसा वयसा मत्ते, विते गिडे य इस्विसु । बुहो मलं संचिणई, सिसुणागोम्ब मट्टिये ।। तो पुढो आयकेणं, गिलाणो परितप्पई। एमीओ परलोगस्म, कम्मानुष्णेहि अप्पणो ॥ सूया मे नरए ठाणा, असीलाणं बजा गई। बालाणं कूर-कम्माण, पगाढा जत्य वेयणा ।। तस्थोववारयं ठाणं, अहा मेयमणुस्सुर्य । माहाकम्मेहि गच्छन्तो, सो पच्छा परितप्पई ॥ Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२] चरणानुयोग-२ पण्डितमरण का स्थल सत्र ३४५-३४७ जहा सागडिओ जागं, समं हिचा महापहं । जैसे कोई गाड़ीवान समतल राजमार्ग को जानता हुमा भी बिसम मगमोइण्णो, अक्खे मरगंमि सोयई। उसे छोड़कर विषम मार्ग से चल पड़ता है और गाड़ी की धुरी टूट जाने पर खेद करता है। एवं धम्मं विजयकम्म अडम्म परिवजिया । उभी प्रकार धर्म का उल्लंघन कर अधर्म यो स्वीकार कर, बाले मच्च-मुह पत्ते, अक्से भगो व सोयई ।। मृत्यु के मुख में पड़ा हुआ अज्ञानी जीव धुरी टूटे हुए गाड़ीवान की तरह खेद करता है। तओ से मरणतमि बाले सन्तस्सई भया । फिर मरण के समय वह अज्ञानी परलोक के भय से संत्रस्त सकाम-मरणं मरई, धुत्ते घ कलिणा जिए । होता है और एक ही दाव में हारे हुए जुआरी की तरह शोक -उत्त. अ. ५, मा. ४-१६ करता हुआ अकाम मरण से मरता है। मे इह आरम्मणिस्सिया, आयवंड एगतलूसगा। जो साधक इस लोक में आरम्भ में आसक्त अपनी आत्मा गंता ते पावलोगय, चिररायं अमुरियं विसं ॥ को दण्डित करते हैं तथा एकान्त रूप से जीव-हिंसक हैं वे घिर काल तक के लिए नरकादि पापलोकों में जाते हैं तथा बे असुर योनि में जाते हैं। गय संखयमा जोविन, तह वि य बालजणो पगम्मई। (टूटे हुए) जीवन को सांधा नहीं जा सकता है। फिर भी पश्चुप्पण्णेण कारियं, के बिछु, परलोगगामए ॥ अज्ञानी मनुष्य धृष्टता करता है, हिंसा आदि में प्रवृत्त होता है। -सूय. सु. १, अ. २, उ. ३, गा. ६-१० मुझे वर्तमान से प्रयोजन है, परलोक को देखकर कोन लौटा है। पंडिय-मरण सरूवं पण्डितमरण का स्वरूप-- ३४६. एयं अकाम-मरणं, बालाणं तु पवेइयं । ३४६. यह अज्ञानियों के अकाम-मरण का प्रतिपादन किया है । एतो सकाम-मरणं, पबियाणं सुह मे ।। अब पण्डितों के सकाम-मरण को मुझ से सुनो। मरणं पि समुग्णागं, अहा मे तमगुस्सुयं । जैसा मैंने सुना है कि पुण्यशाली संयमी और जितेन्द्रिय विपसण्णमणाघार्य, संजयाण सोमओ ॥ पुरुषों का पण्डितमरण होता है जो प्रसन्नता युक्त आघात रहित होता है। न इम सम्वेसु भिक्खू सु, न इम सम्बेसु गारिसु । यह सकाम-मरण म सब भिक्षुओं को और न सभी गृहस्थों माणा-सोला य गारत्या, विसम-सीला य भिक्खुणो ॥ को प्राप्त होता है। क्योंकि गृहस्थ विविध प्रकार के आचार वाले होते हैं और भिक्षु भी विषम जाचार वाले होते हैं। सम्सि एहि भिक्खूहि, गारत्या संजमुत्तरा । ___ कुछ भिक्षुओं से गृहस्थों का संयम श्रेष्ठ होता है, और सब गारयेहि य सवहि, साहको संजमुत्तरा। गृहस्थों से साधुओं का संयम श्रेष्ठ होता है। -उत्त. अ. ५, गा. १७-२० तेसि सोच्चा सपुज्जाणं, संजयाणं सोमओ । उन परम पूजनीय, संयमी और जितेन्द्रिय भिक्षुओं के स्वरूप न संतसन्ति मरणन्ते, सीलवन्ता बहस्सया ॥ को सुनकर पीलवान और बहुश्रुत भिक्षु मरण काल में भी संत्रस्त नहीं होते। तुलिया विसेसमावाय, बपा-धम्मस्स सस्तिए । ___ मेधाबी पुरुष दोनों मरणों का तुलनात्मक चिन्तन करके विष्यसीएल मेहावी, सहा-भूएणं अप्पणा ।। दयाधर्म एवं क्षमा से उपशान्त आत्मा द्वारा श्रेष्ठतम पण्डित -उत्त. अ.५, गा. २६-३० मरण स्वीकार कर प्रसन्न रहे। मालमरण-पेडियमरण फल बालमरण और पण्डितमरण का फल - ३४७. करवप्पमाभिओग किदिवसिय मोहमामुत। ३४७. कांदपी, आभियोगी, किल्विषिक, मोही तथा आसुरी ये एपाओ गईमो, मरणम्मि बिराहिया होम्ति ।। पाँच भावनाएँ दुर्गति की हेतुभूत हैं। मृत्यु के समय ये सम्यक् दर्शन भादि की विराधना करती है। Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुत्र ३४७-३४६ वीतराग सम्मत बेहानस वालमरण आराधक-विराधक {१७३ मिच्छादसणरसा, सप्रियाणा । हिंसगा। मिथ्या-दर्शन में अनुरक्त, निदान सहित और हिंसक दशा में पय जे मरन्ति जीवा, सेसि पुण बुल्लता बोही ।। जो मरते हैं उनके लिए फिर बोधि बहुत दुर्लभ होती है। सम्मत्वंसणरता अभियाणा सुस्कलेसमोगाटा । सम्यग् दर्शन में अनुरक्त निदान रहित और शुक्ल-लेश्या में इय जे मरन्ति जीवा, सुलहा तेसि भवे दोही ।। प्रवर्तमान होते हुए जो जीव मरते हैं, उनके लिए बोधि सुलभ है। मिच्छावसणरत्ता सनियाणा काहलेसभोमारा। मिथ्या दर्णन में रक्त, सनिदान और कृष्ण-लेण्या में इय जे मरन्ति जीया, तेसिं पुण दुल्लहा बोही ! प्रवर्तमान होते हए जो जीव मरते हैं उनके लिए फिर दोधि बढ़त दुर्लभ होती हैं। जिगवयणे अणुरसा, जिणबयणं जे करेन्ति भावेण । जो जिन-प्रचन में अनुरक्त हैं तथा जिन वचनों का भाव अमला असं किलिट्ठा, ते होन्ति परित्तसंसारी ॥ पूर्वक आचरण करते है, वे निर्मल और असंक्लिष्ट होकर अल्प -उत्त.अ. ३६. गा. २५६-२६० जन्म मरण वाले हो जाते हैं। जिणाणुमयं वेहाणस बालमरणं वीतराग सम्मत वेहानस बालमरण३४८, जस्स गंभिक्खुस्स एवं भवा पुट्ठो खलु अहमंसि, नालह- ३४८, जिस भिक्षु को यह प्रतीत हो कि मैं अनुकूल परीषहों से मंसि सीतफा अहियासेत्तए से वसुमं सम्बसमण्णायतपण्णा- आक्रान्त हो गया हूँ और मैं इसे सहन करने में समर्थ नहीं है। णणं अप्पाणं फेड अकरणयाए आउट्ट तवस्सिणोतं प्रज्ञावान् संयमी मुनि यदि अब्रह्मचर्य रूप अकृत्य के लिए तत्पर सेयं जमेगे विह्मादिए। हो रहा हो तो उस तपस्वी भिक्षु को यही उचित है कि वह फांसी लगाना स्वीकार कर ले (किन्तु कुशील सेवन न करे।) तस्थावि तस्स कालपरियाए. से वि तस्य बियंतिकारए। ऐसा करने में उसका मरण हो सकता है और वह मृत्यु भी मोहकर्म का अन्त करने वाली होती है । इच्चोतं बिमोहायतणं हियं सुहं बम गिस्सेयस आणुगामियं। इस प्रकार यह मोह से मुक्त कराने वाला मरण भिक्ष के -आ. मु. १, अ. ६, उ. ४, सु. २१५ लिए हितकर, सुखकर, कर्मक्षय में समर्थ, कल्याणकर तथा पर लोक में साथ चलने वाला होता है । बालमरण-पसंसा-पायच्छित्त सुतं बालमरण की प्रशंसा के प्रायश्चित्त सूच३४१. जे मिक्खू-- ३४६. जो भिक्षु१. गिरि-पवणाणि वा. (१) पर्वत से दृश्य स्थान पर गिरकर मरना, २. मह-परिणाणि बा. (२) पर्वत से अदृश्य स्थान पर गिरकर मरना । ३. मिगु-पङगाणिवा, (३) खाई कुए आदि में गिरकर मरना । ४. तरु-पडपाणि वा, (४) बुक्ष से गिरकर मरना। ५. गिरि पक्खंदणाणि वा, (५) पर्वत से दृश्य स्थान पर कुद कर मरना, ६. मरु-पक्ष णाणि या, (६) पर्वत से अदृश्य स्थान पर कूद कर मरना । ७. मिगु-पक्खवणाणि वा, (७) साई कुए आदि में कूद कर मरना । तर-परखंदणाणिवा, (८) वृक्ष से कूद कर मरना । ६.बल-पवेसाणि वा, (E) जल में प्रवेश करके मरना। १०. जसण-पवेसागि था, (१०) अग्नि में प्रवेश कर के मरना । ११. जल-पमखंदगाणि वा, (११) जल में कूब कर मरना, १२. जलण-पक्वणाणि वा, (१२) अग्नि में कूद कर मरना, १३. विस-मखणागि बा, (१३) विष भक्षण करके मरना, १४. सत्योपावणाणिवा, (१४) तलवार आदि शस्त्र से कटकर मरना, १५. बसण्मरणाणि वा, (१५) गला मोड़कर भरना, Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४] चरणानुयोग-२ अनासार का निषेध सूत्र ३५०-३५१ १६. वसट्ट-मरणागि वा, १७. तम्भव-मरगाणि था, १८, अंतोसल्ल-मरणाणि वा, १९. बेहाणस भरणाणि वा, २०. गिव पुट्ठमरणाणि वा। (१६) विरह व्यथा से पीड़ित होकर मरना, (१७) वर्तमान 'भव को प्राप्त करने के संकल्प से मरना, (१८) तीर भाला आदि से दींधकर मरना, (१६) फांसी लगाकर मरना ! (२०) गीध आदि पक्षियों द्वारा शरीर का भक्षण करवाकर गरना। इन आत्मघात रूप वालमरणों की तथा अन्य भी इस प्रकार है दालमों के प्रशंसा करता है, करवाता है या करने वाले का अनुमोदन करता है। उसे अनुयातिक चातुर्मासिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) आता है। अज्णयराणि वा तहप्पगाराणि बाल-मरणाणि पसंसह पसं संत बा साइज्जह। तं सेवमाणे आवाज चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं अघुग्घाइय। --मि. उ. ११. सु. ६२ अनाचार अनाचार-निषेध-१ अणायार णिसेहो अनाचार का निषेध३५०. आवाय बंभरं च, आसुपये इमं वई। ३५०, संयम धारण कर कुशाग्र बुद्धि साधक इस अध्ययन में अस्सि धम्मे अणायार, नायरेज्ज कयाइ वि || कथित धर्मों में कभी भी अनाचार का आचरण न करे । - मूव. सु. २. अ. ५, गा.१ से जागमजाणं वा, कटू आहम्मियं पर्य। जान या अनजान में कोई अधर्म कार्य कर बैठे तो अपनी संबरे लिप्पमप्पागं, बीयं तं न समायरे ।। आत्मा को उनसे तुरन्त हटा ले, फिर दूसरी बार वह कार्य न करे। अणायार परक्कम, नेव गृहे न निण्हये। अनाचार का सेवन कर उसे न' छिपाए और न अस्वीकार सई सया वियाभावे, असंससे जिईबिए ।। करे किन्तु सदा पवित्र, स्पष्ट, अलिप्त और जितेन्द्रिय रहे । -दस. अ. ८, गा. ३१.३२ मुख्छा, अविरति य णिसेहो मूर्छा और अविरति का निषेध--- ३५१. से मिक्खू सहि अभुच्छिए, स्वेहि अमुन्छिए, गंहिं ३५१. जो भिक्षु मनोज्ञ शब्दों, कों, गन्धों, रसों एवं कोमल अमुच्छिए, रसेहि अमुछिए, कासेहि अमुन्छिए, विरए स्पर्शों में अनासक्त रहता है तथा क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, कोहाओ, माणाओ, मायाओ, लोभाओ, पेज्जाओ, दोसाओ, द्वेष, कलह, दोषारोपण, चुगली, परनिन्दा, संयम में अरति, कसहाओ, अभक्खाणाओ, पेसुण्णाभो, परपरिषायातो, असंयम में रति, मायामृषा एवं मिघ्यादर्शन रूप शल्य से विरत भरतिरतीओ, मायामोसाओ, मिच्छादसणसल्लाओ इति से रहता है, इस कारण से वह भिक्षु महान् कर्मों के बन्ध से रहित महता अवाणासो उपसंत जट्टिते पडिविरते । हो जाता है, वह सुसंयम में उद्यत हो जाता है तथा पापों से -सूय. सु. २, अ. १, सु. ६८३ निवृत्त हो जाता है। Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ३५२ ७ गंध मल्ल - सिणाणं च ११-१२ परिभाहित्यिकम्मं च भिक्षु के विविध अनावरणीय स्थान भिक्स विवि अनावरणीय ठाणा ३५२. १ श्रीयणं २ रमणं व ३ बत्थीकम्म ४ विरेयणं । तं विज्जं परिजाणिया || ५ भ्रमणं ६ जणं पतिमंथं अनाचार परिहार उपवेश - २ १३ १४ १७१० १० दंतपक्वलर्ण तहा तं विषमं परिजानिया ॥ (७) शरीर में सुगन्धित पदार्थ लगाना ( स ) पुष्पमाला धारण करना, (e) स्नान करना, (१०) दांतों को धोना, (११) परिग्रह रखना, (१२) स्त्री के साथ मैथुन सेवन करना, इत्यादि को पाप का कारण जानकर विद्वान मुनि इनका परित्याग करे । (१३), (१४) (१५) (१६) मात को संसार का (१७) पूर्तिकर्म तथा (१८) अनंषणीय आहार कारण जानकर विद्वान् मुनि इनका त्याग करे । १९-२० आणिविराम च २१ विजय २२ (१६) शक्तिवर्धक रमायन आदि का सेवन करना, ( २० ) २३ उच्छोलणं च २४ कक्कं च तं विजयं परिजाणिया । आंखों में रंग लगाना, (२१) विषयों में आसक्त होना, (२२) प्राणियों का पाना (२३) हायर आदि धोना (२४) शरीर पर कल्क आदि से उबटन करना इस सबको कर्मबन्ध के कारण जानकर विद्वान् मुनि इनका परित्याग करें। १५ १६ च तं विश्वं परिमाणया । २५ संसारी २६ किरिए २७ परिणाक्तणाणि य । २५ सामारियपि च, तं विज्जं परिजाणिया || | २६ अट्टापदं ण सिक्वेज्जा ३ हाईयं णो वये २१२२ विवाद विजं परिजानिया | ३३ पाणहाओ य ३४ छतं च ३५ णालियं ३६ वालवीयणं । ३७ परि२८ पराणिया ३६ उच्चार पासवणं हरितेसु ण करे मुणी । ४० वियडेण वा वि साह, नायमेज्ज कयाह वि ॥ ४१ अपणं पापादवि ४२ परिशाि ॥ अचर [१७५ भिक्षु के विविध अनावरणीय स्थान ३५२. (१) हाथ पैर और वस्त्र आदि धोना, तथा (२) उन्हें रंगना, (३) वस्तिकर्म करना, (४) जुलाब लेना, (५) अमन करना, (६) आँखों में अंजन लगाना इत्यादि संयम को नष्ट करने वाले कार्यों को जानकर विद्वान साधक इनका त्याग करे 1 (२५) गृहस्थांसारिक कार्य करना, (२६) असंयम से किये जाने वाले कामों की प्रशंसा करना, (२७) ज्योतिष सम्बन्धी प्रश्नों का उत्तर देना और (२८) सामारिक का आहार ग्रहण करना इन सदको संसार का कारण जानकर विद्वान मुनि इनका त्याग करे। (२१) वा आदि बेलना सीखे (३०) धर्म के विरुद्ध वचन न बोले (३१) हस्तकर्म करे (३२) व्यर्थ का विवाद न करे। इन सबको संसार भ्रमण का कारण जानकर विद्वान् मुनि इनका त्याग करे । (३३) जूता पहनना, खेलना, (२६) पंखे से हवा दबचाना, (३८) साधुओं का सबको विद्वान साधक कर्मबन्ध के त्याग करे | (२४) छात्रा जनाना (३५) जुआ करना, (३०) गृहस्थ आदि से पैर परस्पर शरीर परिकर्म करना इन कारण जानकर इनका परि (३१) मूर्ति हरी वनस्पति वा स्वानों में मल-मूत्र विसर्जन न करे और वहाँ (४०) अति जल से भी कदापि आचमन न करे । (४१) गृहस्थ के बर्तन में आहार पानी न करे । (४२) न हो वो भी गृहस्थ का वस्त्र काम में न ले इन सबको कबन्ध का कारण जानकर विद्वान् मुनि इनका परित्याग करे | Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६] चरणानुयोग-२ छ: उन्माद स्थान सूत्र ३५२-३५६ ४३ आसंदी ४३ पलियंके य, ४५ णिसिज्जं च गिहतरे । (४३) बैत आदि की कुर्सी पर बैठना, (४४) पलंग पर बैठना, ४६ संपुच्छणं च, ४७ सरणं च तं चिज परिजाणिया ॥ (४५) गृहस्थ के घर में बैठना, (४६) गृहस्थ का कुशल क्षेम पूछना, (४७) कामक्रीड़ा का स्मरण करना, विद्वान् साधु इन्हें अनर्यकारक समझकर इनका परित्याग करे। ४८ जसं ४६ कित्ति, ५० सिलोगं च जाय ५१ वण- (४८) समयलोक में यश, (४६) कीति, (५०) प्रशंसा, ५२ पूषणा। (५१) वंदना और (५२) पूजा-प्रतिष्ठा आदि की जो कामनाएँ सवलोप्ति जे कामा, तं विज्जा परिजाणिया ।। होती है, विद्वान मुनि उन्हें संयम के अपकारी ममझकर इनका त्याग करे । ५३ जेणेहं णियवहे भिक्खू, अन्न-पाणं तहाविह। (५३) इस जगत् में जिन पदार्थों से साधु के संयम का ५४ अणुप्पदाणमन्नेसि, तं बिज्ज परिजाणिया । निर्वाह हो सके वैसे ही आहार पानी ग्रहण करे। (५४) वह -सूय. सु. १, अ. ६, मा. १२.२३ आहार-पानी असंयमी को देना अनर्थकर जानकर तत्वज्ञ मुनि नहीं देवे । उसे संयम विघातक जानकर साधु उसका त्याग करे । ५५ णपणत्य अंतराएणं, परगेहे ण णिसीयए ) की कार के शिला साध गङ्गस्थ के घर में न ५६ गामकुमारियं कि, ५७ नातिबेलं हसे मुणी ॥ बैठे, (५६) ग्राम के लड़के-लड़कियों का खेल न खेले एवं (५७) - गूय. सु. १, अ. ६, गा. २६ मर्यादा का उल्लंघन करने म हंसे । छ उम्मायट्ठाणाई छ: उन्माद स्थान--- ५३. छह ठाणेहि आया जम्माय पाउणेज्जा, तं जहा ३५३. छह स्थानों से आत्मा उन्माद को प्राप्त होता है१. अरहंताणं अवाणं वदमागे । (१) अर्हन्तों के अवर्णवाद करता हुआ । २. अरहंतपण्णत्तस्स धम्मस्स अवष्णं ववमाणे । (२) अहंत-प्रज्ञप्त धर्म का अवर्णवाद करता हुआ। ३. आयरिय-उवग्लायाणं अवणं बदमाणे । (३) आचार्य तथा उपाध्याय का अवर्णवाद करता हुआ । ४. चाउचण्णस्स संघस्स अवणं बदमाणे । (४) चतुर्वर्ण संघ का अवर्णवाद करता हुआ। ५. जक्खावेसेण चेत्र । (५) यक्षावेश से । ६ मोहणिज्जस्स चैव कम्मरस उदएणं । (६) मोहनीय कर्म के उदय से। --ठाणं. अ. ६, सु. ५०१ सामुदाणिय-गवेसणा अकारओ पावसमणो सामुदानिक गवेषणा नहीं करने वाला पाप श्रमण३५४. साइपिणं जेमेइ, नेच्छई सामुदागिय । ३५४. जो ज्ञातिजनों के घरों में ही आहार ग्रहण करता है, गिहिनिसेज च वाहेइ, पावसमणे ति बुच्चई । मामुदानिकी (सभी कुलों से) गोचरी नहीं लेता है और गृहस्थ -उत्त. अ. १७, गा. १६ को शय्या पर बैठता है वह पाप श्रमण कहलाता है । सछंद विहारी पावसमणो स्वच्छन्द विहारी पाप श्रमण३५५. जे केइ उ पवाए गियंदु, धम्म सुणित्ता विणओवयन्ते । ३५५. जो कोई निर्ग्रन्थ धर्म को सुनकर दुर्लभतम बोधि-लाभ सुदुल्लहं लाहि बोहिसाभे, पिहरेज्ज पच्छा य जहासुहं सु॥ को प्राप्त कर विनय से युक्त हो प्रवजित होता है किन्तु प्रव्रजित -उत्त. अ. १७, मा. १ होने के पश्चात् स्वच्छन्द विहारी हो जाता है, वह पाप श्रमण कहलाता है। गुरूपरिभावए निच्च पावसमणे ति बुच्चइ । मुरुका तिरस्कार करने वाला पाप श्रमण है। -उत्त. अ.१७, गा, १० सुयणाणोक्खा श्रुतज्ञान की उपेक्षा३५६. मेश्जा बहा पाउरणम्म अस्थि, ३५.. गुरु के द्वारा अध्ययन की प्रेरणा प्राप्त होने पर वह कहता ___ उप्पालाई भोत्तुं तहेव पाउँ । है-"मुझे रहने को अच्छा उपाश्रय मिल रहा है, कपड़ा भी मेरे Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ३५६-३६० असंविभागो पापक्षमण अनाचार [१७७ जाणामि जं वट्टद आउसु ! ति, पास हैं, खाने-पीने को भी मिल जाता है। आयुग्मन् ! ओ हो कि नाम काहामि सुएण भन्ते ॥ रहा है, उसे भी मैं जानता हूँ। भन्ते ! फिर मैं श्रुत का अध्ययन -उत्त. अ. १७, गा. २ करके क्या करूँगा ?" असंविभागो पावसमणो असंविभागी पापश्चमण३५७. बहमाई पमुहरे, पदे सुबे अणिग्गहे । ३५७. जो बहुत कपटी, वात्राल, अभिमानी, लालची, इन्द्रिय असंविभागी अधियसे, पावसमणि सि वुमचई ।। और मन पर नियन्त्रण न रखने वाला, भक्त-पान आदि का --उत्त. अ. १७. मा. ११ संविभाग न करने वाला और गुरु आदि से प्रेम न रखने वाला होता है, वह पाप-श्रमण कहलाता है। आरंभजीथिस्स पावासत्ति आरम्भ-जीबी को पापासक्ति३५८. आवंती केयावती लोयंसि आरमजीवी, एतेसु चेव आरंभ- ३५८. इस लोक में जितने भी मनुष्य आरम्भजीबी है वे विषयों जीवी। की अभिलाषा से हिंसा का आचरण करते हैं । एस्थ वि बाले परिपच्चमाणे रमति पाहि कम्मेह, असरणे अज्ञानी साधक इस अमयमी जीवन में भी विषय पिपासा से सरणं ति मग्णमाणे -आ. मु.१,अ.५,उ.१, सु. १५० छटपटाता हुआ अधारण को ही शरण मानकर पापकों में रमण अट्टा पया माणव ! कम्मकोविया, करता है। हे मानव ! संमार में अनेक प्राणी विषय-कषायों से जे अणुवरता अधिज्जाए पलिमोखमा आवट्टमेव अणुपरि- पीड़ित हैं, कर्म-बन्धन करने में चतुर हैं, पापों से विरत नहीं है यरित। -आ. सु. १, अ. ५, उ. १, सु. १५१ (ख) तथा अविद्या से मोक्ष प्राप्त होना बतलाते हैं, वे संसार के चक्र में बारम्बार परिभ्रमण करते हैं। अभिक्खणं आहारकारगो पावसमणी बार-बार बाहार करने वाला पापश्रमण३५६. अस्य तम्मि य सूरम्मि, आहारेद अभिक्खणं । ३५६. जो सूर्य के उदय से लेकर अस्त होने तक बार-बार खाता चोइओ पडिनोएइ, पावसमणे ति वच्चाई।" रहता है, तथा “ऐसा नहीं करना चाहिए" इस प्रकार कहते ' -उत्त. अ. १७, गा. १६ वाले का अनादर करते हुए प्रत्युत्तर देता है; बह पापश्रमण कहलाता है। I प्रमाव-निषेध-३ पमाय-णिसेहो प्रसाद निषेध२६०. बुमपत्तए पण्डपए जहा, निवरह राहगणाण अच्चए। ३६०. रात्रियों बीतने पर वृक्ष का पका हुआ पान जिस प्रकार एवं मणुयाण जीवियं, समय गोयम ! मा पमायए ॥ गिर जाता है. उसी प्रकार मनुष्य का जीवन एक दिन समाप्त हो जाता है, इसलिए हे गौतम ! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर, कुसग्गे जह ओस बिन्नुए, भोवं चिदुइ लामाणए । कुश की नोक पर लटकते हुए ओसबिन्दु की अवधि जैसे एवं मणुयाणजीवियं, समय गोयम ! मा पमायए। अल्प होती है वैसे ही मनुष्य-जीवन की गति है, इसलिए हे गौतम ! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर। इह इत्तरियाम्म आजए, जीवियए बहुपत्रवायए। यह आयुष्य क्षण-भंगुर है, यह जीवन विघ्नों से भरा हुआ बिडणाहि रसं पुरे का, समय गोयम पापमायए ॥ है, इसलिए हे गौतम ! तू पूर्व-संचित कर्म-रज को दूर कर और --उत्त. अ.१०, गा.१-३ क्षण पर भी प्रमाद मत कर । Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८] चरणानुयोग--२ प्रभाव निबंध सूत्र ३६० परिजरह से सरीरम, केसा पपरया हवन्ति ते । तेरा शरीर जीर्ण हो रहा है, केश सफेद हो रहे हैं और से सोयमले य हायई, समय गोयम | मा यमायए॥ श्रोत्रीन्द्रिय का बल क्षीण हो रहा है, इसलिए हे गौतम ! तु क्षण भर भी प्रमाद मत कर। परिजरई ते सरीरयं, केसा पाणुरया हवन्ति ते तेरा शरीर जीर्ण हो रहा है, केश सफेद हो रहे हैं और से चपखवले य हायई, समय गोयम | मा पमायए । चक्षुओं का बल क्षीण हो रहा है, इसलिए हे गौतम ! तु क्षण भर भी प्रमाद मत कर। परिजूरह ते सरोरयं, केसा फ्र या हवन्ति ते। तेरा शरीर जीर्ण हो रहा है, केश सफेद हो रहे है और से घाणवले य हायई, समय गोयम ! मा पमायए॥ नाणेन्द्रिय का बल क्षीण हो रहा है, इसलिए हे गोतम ! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर। परिजूरई से सरीरयं, कैसा पण्डरया हन्ति ते। तेरा शारीर जीण हो रहा है, केश सफेद हो रहे है और से जिम्भवले य हायई, समर्थ गोयम ! मा पमायए॥ जिह्वा का बल क्षीण हो रहा है, इसलिए हे गौतम ! क्षण भर भी प्रमाद मत कर। परिजूरह ते सरीरयं, केसा पण्डरया हवन्ति । सेरा शरीर जीर्ण हो रहा है, केश मफेद हो रहे हैं और से फासबले य हायई, ममयं गोयम | मा पमायए। स्पर्शन्द्रिय का बल श्रीण हो रहा है, इसलिए हे गौतम ! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर।। परिरइ ते सरीरयं, केसा पण्डरया हवन्ति ते। तेरा गरीर जीर्ण हो रहा है, केश सफेद हो रहे हैं और सारे से सत्वबले य हायई, समयं गोयम ! मा पमायए ॥ शारीर का बल क्षीण हो रहा है, इसलिए हे गौतम ! तू क्षण भर -उत्त. अ. १०, मा. २१-२६ भी प्रमाद मत कर। अकलेवरसेणिमुस्सिया, सिटि गोषम ! लोयं गच्छसि । हे गौतम ! तू शैलेषी अवस्था प्राप्त करके निरुपद्रव खेमं च सिवं अणुसर, समय गोयम ! मा पभायए । कल्याणकारी सर्वोत्तम सिद्ध गति को प्राप्त करेगा अतः हे गौतम ! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर। बुद्ध परिनिटे चरे, गामगए नगरे व संजए। तू गांव में या नगर में संयत, वृद्ध और उपशान्त होकर सन्तिमगं च दहए, समयं गोयम ! मा पमायए।। विचरण कर, शान्ति मार्ग पर बढ़, हे गौतम ! तू क्षण भर भी प्रमाद भत कर । बुद्धस्स निसम्म भासिय, सुकहियमपओचसोहियं । अर्थ और पद से सुशोभित एवं सुकथित भगवाण की वाणी राग दोसं च छिन्दिया, सिद्धिगई गए गोयमे । को सुन कर राग और द्वेष का छेदन कर गोतम स्वामी सिद्ध --उत्त. अ. १०, गा. ३५-३७ गति को प्राप्त हुए। सध्यओ पमप्तस्स भय, सम्वो अप्पमत्तस्स गस्थि भयं । प्रमत्त को मब ओर से भव होता है, अप्रमत को कहीं से -आ. सु. १, अ. ३, ७. ४, सु. १२९(ख) भी भय नहीं होता है। इच्चंव समुट्टिते अहोविहाराए । अंतरं च चलु इम संपेहाए। इस प्रकार चिन्तन करता हुआ मनुष्य संयम-साधना के धीरो मुहत्तमवि जो पमायए । वओ अच्चेति जोवर्ण च। लिए उच्चत हो जाए। इस जीवन को स्वर्णिम अवसर समझकर धीर पुरुष मुहतं मात्र भी प्रमाद न करे। क्योंकि उम्र बीत रही है, बौवन चला जा रहा है। जीविते इह जे पमता से हता छेत्ता भेत्ता लुपित्ता विलुपित्ता किन्तु जो इस जीवन के प्रति आसक्त है, वह हनन, छेदन, उद्दवेत्ता उत्तासविता, अकर करिस्सामि सि मण्णमाणे। भेदन, चोरी, लुटपाट, उपद्रव और पीड़ित करना आदि प्रवृत्तियों - आ. सु. १, अ. २, स. १, मृ. ६५-६६ में लगा रहता है। "जो आज तक किसी ने नहीं किया वह काम मैं करूंगा" इस प्रकार का मनोरथ करता रहता है । असंवयं जीवियं मा पमायए, मरोवीयस्स हुनरिय ताणं । जीवन सांधा नहीं जा सकता, इसलिए प्रमाद मत करो। एव वियागाहि जयं पमसे, किरविहिंसा अजया गहिन्ति ।। बुढ़ापा आने पर कोई रक्षा नहीं करता है। प्रमादी, हिंसक और -उत्त. अ.४, गा.१ अविरत मनुष्य किसकी शरण लेंगे-यह विचार करो। अखिले उत्तवत्ता से हा पोसा Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्रमत्त होकर आचरण करने का उपवेश अनाचार |१७९ उहरा वुड्डा य पासहा, गन्मत्था वि यंति माणया। बालक, बूढ़े और गर्भस्थ मनुष्य भी मृत्यु को प्राप्त हो जाते तेणे जह बट्टयं हरे, एवं आउखयम्मि तुती ।। है । जिस प्रकार बाज बटेर का हरण करता है. उसी प्रकार --सूथ, सु. १, अ. २, उ. १, गा, २ आयु के क्षीण होने पर मृत्यु जीवन का हरण करती है, जिससे जीवन सूत्र टूट जाता है। देवा गंधग्व-रक्खसा, असुरा मूमिचरा सिरोसिवा । देव, गन्धर्व, राक्षस, असुर, पातालवासी नागकुमार, राजा, राया नर-सेवि-माहणा, ठाणा से वि चयंति दुक्खिया ॥ जनसाधारण, श्रेष्ठी और ब्राह्मण--ये सभी दुःखपूर्वक अपने अपने स्थान से व्युत हो जाते हैं। कामेहि य संथवेहि य, गिद्धा कम्मसहा कालेण जंतवो। विषय-मोगों की तृष्णा में तथा माता-पिता, स्त्री, पूत्र, ताले जह बंधणच्चुते, एवं आउलयम्मि तुती॥ आदि परिचितजनों में आसक्त रहने वाले प्राणी कर्मफल के उदय --मूव. सु. १, अ. २, २. १, गा. ५-६ के समय अपने कर्मों का फल भोगते हुए आयु के टूटने पर ऐसे गिरते हैं, जैसे बन्धन से टूटा हुजा तालफल नीचे गिर जाता है। अरई गणं विसूइया, आयंका विविहा फुसन्ति से। पित्त-रोग, फोड़ा-फुन्सी, हैजा और विविध प्रकार के भीत्रविहार विशंसह ते सरीरयं, समय गोयम ! मा पमायए । घाली रोग शरीर का स्पर्श करते हैं, जिससे यह शरीर शक्तिहीन –उत्त, अ.१०, गा. २७ होकर नष्ट होता है, इसलिए है गौतम ! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर। अपमत्तचरण उवएसो अप्रमत्त होकर आचरण करने का उपदेश३६१. मुत्तेसु यावि पडिबुस जीवी, ३६१. आशुप्रज्ञ पंडित सोए हुए व्यक्तियों के बीच भी जागत न पीससे पण्डिए आसु-पन्ने । रहे । प्रमाद में विश्वास न करे । मुहूर्व क्रूर है, पारीर निर्बल घोरा मुहता अवलं सरीरं, है। यह विचार करता हुआ भारण्ड पक्षी की भांति अप्रमत्त मारण्ड-पक्ली व चऽपमत्तो ।। होकर विचरण करे । परे पयाई परिमंकमाणो, पग-पग पर संयम के दोषों से भय स्वाता हमा, थोड़े से दोष जं किचिपासं इंह मणमाणो । को भी दन्धन रूप मानता हुआ चले । जब तक ज्ञान आदि का लामन्तरे जीविय बहइत्ता, लाभ हो तब तक आहार आदि के द्वारा इस शरीर का रक्षण पच्छा परिणाय मलावधंसी ॥ करता रहे। इसके बाद शरीर का अन्त जानकर अनशन के द्वारा कर्म मल को दूर करे। छन्दं निरोहेण उबेद मोक्वं, कवच युक्त सुशिक्षित घोड़े की तरह स्वच्छन्दता का निरोध आसे जहा सिक्खिय-बम्मधारी। करने वाला मुनि पूर्वो या वर्षों तक अप्रमत्त होकर विचरण पुठवाई यासाई चरेऽपमतो, करता है, वह भीन्न ही मोक्ष को प्राप्त होता है। तम्हा मूणो खिम्पमुवेद मोक्वं ॥ स पुरवमेयं न लमेज पच्छा, जो पूर्व जीवन में अप्रमत्त नहीं होता, वह पिछले जीवन में एसोवमा सासय - बाइयागं । भी अप्रमत्त नहीं हो सकता। "पिष्ठले जीवन में अप्रमत्त हो बिसीयई सिढिले आउमि, जायेंगे" ऐसा निश्चय-वचन शाश्वतवादियों के लिए ही उचित कालोवणीए सरीरस्स मेए । हो सकता है। पूर्व जीवन में प्रमत्त रहने वाला आयु के शिथिल होने पर, मृत्यु के द्वारा गरीर-भेद के क्षण उपस्थित होने पर विवाद को प्राप्त होता है। सिप्पं न सके। विषेगमेऊ, कोई भी मनुष्य विवेक को तत्काल प्राप्त नहीं कर सकता। तम्हा समुदाय पहाय कामे। इसलिए काम-भोगादि विषयों का परित्याग करके संयम में उद्यत समिच्च लोयं समया महेसी, होकर लोक के प्राणियों को आत्मा के ममान समझकर उनकी अप्पाण-रक्सी घरेपमतो।। तथा आत्मा की रक्षा करता हुआ महर्षि अप्रमत्त होकर विचरण -उत्त. अ. ४, गा, ६-१० करे। Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०] चरणानुयोग-२ छः कल्प के बिन करने वाले स्थान प्रमाद के प्रकार-४ छप्पस्स विग्घकरा ठाणा३६२. कप्पस्स , पलिमंथू पग्णता, त जहा १. कोक्कुइए संजमस्स पलिमपू । २. मोहरिए सध्यवयणस्स पलिम) । ३. चक्खुलोलुए ईरियावहियाए पलिमंयू । ४. तितिगिए एसणागोयरस्स पलिमंथू । ५. इक्छालोलुए मुत्तिमगस्स पलिमथ । ६. मिज्जानियाणकरणे मोक्खमम्गस्स पलिमघू । छः कल्प के विघ्न करने वाले स्थान३६२. कल्प साध्वाचार के घातक छ: प्रकार के कहे गये हैं। वथा (१) देखे बिना या प्रमार्जन किये बिना कायिक प्रवृत्ति करना संयम का घातक है। (२) वाचालता-सत्य वचन का घातक है। (३) इधर उधर देखते हुए गमन करना-ईर्यासमिति का घातक है। (४) आहारादि के अलाभ से खिन्न होकर चिढना-एपणासमिति का घातक है। (५) उपकरण आदि का अति लोभ, अपरिग्रह का धातक है। (६) लोभवश निदान (तप के फल की कामना) करना, मोक्ष मार्ग का वातक है। क्योंकि भगवान से सर्वत्र अनिदानता= निस्पृहता प्रशस्त कही है। छः प्रकार के प्रमाद३६३. प्रमाद के छह प्रकार हैं, यथा-- (१) मद्यप्रमाद, (२) निद्राप्रमाद, (B) विषयप्रमाद, (४) कषायप्रमाद, (५) द्यूतप्रमाद, (६) प्रतिलेखना प्रमाट। सव्वस्थ भगवया अनियाणया पसत्या। -कप्प. उ. ६, सु. १६ छबिहे पमाए३६३. छविए पनाए पण्णते, तं जहा१. मस्जपमाए. २. गिद्दपमाए, ३. विसयपमाए, ४. कसायपमाए, ५. जूतपमाए, ६. पडिलेणापमाए। -- ठाणं. अ. ६, सु. ५०२ दस धम्मघायगा२६४. बसविधे उबघाते पण्णते, हं जहा १. उगमोवधाते, २. उप्पायगोवधाते, दस धर्म के घातक३६४. उपचात दस प्रकार का कहा गया है। जैसे (१) भिक्षा सम्बन्धी उद्गम दोषों से होने वाला धारिष का उपघात। (२) भिक्षा सम्बन्धी उत्पादन से होने वाला चारित्र का उपधात । (३) भिक्षा सम्बन्धी एषणा के दोष से होने वाला चारित्र का उपपात । (४) वस्त्र-पात्र आदि के परिकर्म से होने वाला चारित्र का उपधात। (५) अकल्प्य उपकरणों के उपभोग से होने वाला चारित्र का उपधात। ३. एसणोक्याते, ४. परिसम्मोवघाते, ५ परिहारगोवघाते. १ २ ठाणं अ. ६, सु. ५२९ ठाणं. अ. ३, उ. ४, सु. १७८ ३ ठाणं. अ.५, उ.२. सु. ४२५ Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सून ३६४-३६७ वश धमविशोधि अनाचार [१८१ wwwwwwwww ६. णामोवधाते, (६) प्रमाद' आदि से होने वाला ज्ञान का उपघात । ७.सणोवधाते, (७) शंका आदि से होने वाला दर्शन का उपघात । ८. परिसीवघरते, (5) नमितियों के यथाविधि पालन न करने से होने वाला चारित्र का उपधात। ६. अचियतोवधाते, (E) अप्रीति या अविनय से होने वाला विनय गुण का उपघात। १०. सारखणोवधाते। - ठाण. अ. १०, सु. ७३८(१) (१०) शरीर, उपधि आदि में मूर्छा रखने से होने वाला परिग्रह महाव्रत का उपधात । दस धम्मविसोहि दश धर्मविशोधि३६५. समिता सिोही पाता. लहा-.. ३६५. विशोधि दस प्रकार का कहा गया है, यथा१. जग्गमषिसोही, २. उपायविसोही, (१) उदयम की विशोधि, (२) उत्पादन की विशोधि । ३. एसपाविसोही ४. परिकम्मविसोही, (३) एषणा की विशोधि, (४) परिकम की विगोधि । ५. परिहरणविसोही ६. गाणविसोही, (५) परिहरण की विशोधि, (६) शान की विशोधि, ७. सविसोही, . रित्तषिसोही, (७) दर्शन की विशोधि, (८) चारित्र की विशोधि, ६. अघियत्तविसोही, (8) अप्रीति की विशोधि, १०. सारक्खणविसोही। -ठाणं. अ. १०, सु. ७३०(२) (१०) संरक्षण-विशोधि-संयम के साधनभुत उपकरण रखने से होने वाली विशोधि । अट्ठारस पावट्ठाणा अठारह प्रकार के पाप स्थान३६६. अट्ठारस पावठाणा पण्णता, तं जहा ३६६. अठारह पापस्थान कहे गये हैं । यथा१. पाणाइवाए, २. मुसाबाए, ३. अदिग्णादाणे, (१) प्राणातिपात, (२) मृषावाद, (३) भदत्तादान, ४. मेहणे, ५. परिग्गहे, ६. कोहे, (४) मैथुन, (५) परिग्रह, (६) क्रोध, ७.माणे, ८. माया, ह.सोमे, (७) मान, () माया, (६) लोभ, १.. पेक्जे, ११. दोसे, १२. कलहे, (१०) राग, (११) वृष, (१२) कलह, १३. अम्मक्खाणे, १४. पेसुण्णे, १५. परपरिवाए, (१३) अभ्याख्यान (कलंक), (१४) पंशुन्य (चुगली), १६. अरतिरति, १७, मायामोसे १८. मिच्छावसणसल्ले। (१५) परपरिवाद (निन्दा), (१६) अरतिरति, (हर्ष शोक] --वि. म. १. उ. ६, सु. ११ (१७) मायामृषा, (१०) मिथ्यादर्शनशल्य । औद्देशिकादि अनाचार-५ ओसियाई अणायाराई३६७. संजभे सुट्ठिअप्पाणं, विप्पमुक्काण ताइणं । .. तेप्तिमेयमणाहण, निगथाण महेसिणं ॥ औ शिकादि अनाचार३६७. संयम में सुस्थित वाह्याभ्यंतर परिग्रह से मुक्त, छ: काय के रक्षक निर्ग्रन्थ महर्षियों के ये आचरण के भयोग्य स्थान है - १ ठाणं. अ. ३, उ. ४, सु. १७८ ३ (क) वि. स. २, उ. १, सु.५० (ग) वि. स. १७, उ. २, मु, १७ २ ठाणं. अ. ५,उ.२, सु. ४२५ (ख) वि. स. ७, उ. १०, मु. १६ (घ) वि. स. १८, उ. ४, सु.२ Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२] घरणानुयोग-२ बश धर्मविशोधि सूत्र २६७ १ उद्देसियं २ कोयगई, ३ नियाग ४ म भिड़ाणि । ५ राइमते ६ सिणाणे य, ७ गंध : मल्ले यह वीयणे ।। १० सन्निही ११ पिहिमत्ते य, १२ रापिड १३ किमिन्छए। १४ संवाहणा १५ दंतपहोयमा य, १६ संपुच्छणा १७ बेहपलोयणा य॥ १८ अट्ठावए य १६ नालीए, २० छत्तस्स य धारणट्टाए। २१ तेगिमई २२ पाणहा पाए. २३ समारंमं च जोहणो ॥ २४ सेज्जायपि च, २५. आसंदीपलियंकए । २६ गिहतरनिग्जा य, २७ गायस्सुव्यदृणाणि य ।। (१) निग्रन्थ के निमित्त बनाया गया, (२) निर्ग्रन्थ के निमित्त खरीदा गया, (३) निमन्वित कर प्रतिदिन दिया जाने वाला और (४) निर्ग्रन्थ के निमित्त दूर से सम्मुख लाया गया आहारादि लेना, (५) रात्रि भोजन करना, (६) स्नान करना, (७) सुगन्धित पदार्थ संघना, (८) पुष्पादि की माला पहनना, (E) पंखा आदि से हवा करना। (१०) खाद्य वस्तुओं का संग्रह करना, (११) गृहस्थ के पात्र में भोजन करना, (१२) मूर्धाभिषिक्त राजा के घर से भिक्षा लेना, (१३) "तुम्हें क्या चाहिये", यो पूछकर दिया जाने वाला आहारादि लेना, (१४) हाथ पैर आदि दबाना, (१५) दांतों का प्रक्षालन करना, (१६) गृहस्थ का कुशल क्षेम पूछना, (१५) दर्पण आदि में मुख देखता। (१८) शतरंज खेलना, (१६) नलिका से पासा टाल कर जुआ खेलना, (२०) छत्र धारण करना, (२१) गृहस्थ की चिकित्सा करना, (२२) परों में जूते पहनना, (२३) अग्नि जलाना। (२४) शय्यातरपिण्ड ग्रहण करना, (२५) बेंत आदि की कुर्सी पर बैठना, पलंग पर बैठना, (२६) ग्रहस्थ के घर में बैठना, (२७) पारीर पर उबटन करना। (२८) गृहस्थ की सेवा करना, (२६) जाति कुल आदि बता कर भिक्षा प्राप्त करना, (३०) अद्ध-पव-मिश्र पदार्थों का उपभोग करना, (३१) शुधा आदि से पीड़ित होकर भुक्त भोगों का स्मरण करना। (३२) मचिस मूला, (३३) अदरख, (३४) इक्षुखंड, (३५) कंद, (३६) मूल, (३७) फल, (३८) वीज आदि ग्रहण करना । (३६) सचित्त सौवर्चल नमक, (४०) संन्धव' नमक, (४१) रोम नमक, (४२) समुद्र-नमक, (४३) पुची खार, (४४) काला लवण आदि ग्रहण करना। (४५) वस्त्रादि को धूप आदि से सुगन्धित करना, (४६) अकारण औषध द्वारा अमन करना, (४७) वस्तिकर्म करना, (४८) औषध द्वारा विरेचन करना । (४६) आँखों में अंजन आंजना, (५०) दांतों को दतौन से घिसना व मस्सी लगाना, (५१) शरीर की तेल आदि से मालिश करना, (५२) शरीर को विभूषित करना। २- गिहिणो वेपावलियं, जाय २६ आजीवत्तिया । ३० तत्तानिध्यडभोरस, ३१ भाउरस्सरणाणि य ।। ३२ मूलए ३३ सिगबेरे य. ३४ उच्छृखंड अनिव्वुड़े। ३५ करे ३६ मूले य ३७ सनित्ते, फले २५ बीए प आमए ।। ३६ सोयच्चले ४० सिधये लोणे ४१ रोमालोणे य आमए । ४२ सामुद्दे ४३ पंसुखारे य ४४ कासालोणे य आमए॥ ४५ घूषणेत्ति ४६ बमणे य ४७ वस्थीकम्म ४८ विरेयणे । ४६ अंजणे ५० वंतवणे ५५१ गायम्भंगविमसणे १ सूय. सु. २, अ. १, सु. ६८१ २ आगमों में श्रमण वर्ग के आचारों एवं अनानारों का अनेक जगह प्ररूपण है। कहीं संख्या का निर्देश है और कहीं नहीं है। स्थानांग में दम यति धर्म, आचारांग वनस्कन्ध २ अ. १५ में और अपनव्याकरण के पांचवें संवर द्वार में पांच महावतों की पच्चीस भावनाएं, दशवकालिक अ, ६ में और समवायांग में अठारह स्थान इस प्रकार संख्या निर्देश पूर्वक आचारों का आगमों में अनेक जगह प्ररूपण है। (शेष अ ले पृष्ठ पर) Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इकवीस सबल दोष अनाचार १५३ सव्वमेयमण्णाहणं निम्याण महेसिणं । संजमम्मि य जुसाणं लाभूयविहारिणे ॥ --दस. अ. ३, गा.१-१० जो संयम में लीन और वायु की तरह मुक्त विहारी महर्षि निर्गन्ध हैं उनके ये सब अनाचीण हैं। शबल दोष-६ एगवीसं सबला इकवीस शबल दोष३६८. एगवीसं सबला पणता, तं जहा-- ३६८. इक्कीस शबल दोष इस प्रकार कहे गये हैं। यथा१. हत्थकम्मं करेमाणे सबले । (१) हस्तकर्म करने वाला शबल दोष-युक्त है। २. मेणं एडिसेवमाणे सबले। (२) मंयुन सेवन करने वाला शबल दोष-युक्त है । ३. राइ-भोयणं मुंजमाणे सबले । (३) राषि भोजन करने वाला शबल दोष-युक्त है। ४. आहाकम्म जमाणे सबले । (४) आधार्मिक आहार खाने वाला शबल दोप-युक्त है। ५. रायपिंड मुंजमाणे सबले । (५) राजपिड़ को खाने वाला शबल दोष-युक्त है। ६. उद्देसियं वा कोषं वा, पामिच्नं वा, जास्छिज्जं वा, (६) साधु के उद्देश्य से निर्मित, साधु के लिए मूल्य से अणिसिट्ठवा, अमिहरं आहट्ट विक्जमाणं वा मुंजमाणे खरीदा हुआ, उधार लाया हुआ, निर्वल से छीनकर लाया हुआ, सबले। विना आशा के लाया हुआ या साधु के स्थान पर लाकर दिये हुए आहार को खाने वाला शबल दोषयुक्त है। ७. अभिक्खणं-अभिक्षणं पजियाइक्खिताणं भंजमाणे सबसे। (७) पुनः पुनः प्रत्याख्यान करके आहारादि भोगने वाला शबल दोष युक्त है। ८. अंतो छह मासाणं गणाओगणं संक्रममाणे सजले । (क) छह मास के भीतर ही एक गण से दूसरे गण में जारे वाला शबल दोष युक्त है। ६. अंतो मासस्स तो दगले फरेमाणे सबले । (8) एक मास में तीन बार उदवा लेप (जल-संस्पर्ण) करने वाला शबल दोषयुक्त है। २०. अंतो मासस्स तओ माइट्ठागे करेमाणे सयले । (१०) एक मास के भीतर तीन बार माया करने वाला शवल दोष युक्त है। ११. मागारियपि भुजमाणे सबले। (११) शय्यातर का आहारादि खाने वाला शबल दोष - (शेष टिप्पण पिछले पृष्ठ का) बीस असमाधिस्थानों का, तीस महा मोहनीय कर्म बन्ध का, इक्कीस मबल दोषों का दशाश्रुतस्कन्ध और समवायांग में कयन है। इस प्रकार संख्या निर्देश पूर्वक अनाचारों का आगमों में अनेक जगह प्ररूप है। किन्तु दशवकालिक अ. ३ में उक्त अनाचारों के साथ संख्या का निर्देश नहीं है फिर भी इनके साथ ५२ की संख्या जोड़ दी गई है, यह उचित नहीं है । क्यों कि जहाँ पाट में संख्या का कथन न हो वहाँ अल्प या अधिक संख्या का प्ररूपण भ्रामक होता है । यदि अनाचारों की संख्या निश्चित होती तो दशवकालिक के टीकाकार या चूर्णीकार आदि व्याख्याकार संख्या का उल्लेख अवश्य करते । अथवा अन्य समवायांग आदि आगमों में भी कहीं न कहीं ५२ की संख्या का उल्लेख मिलता। किन्तु अनाचारों की निश्चित संख्या का कथन किसी भी आगम या उसके व्याख्या-ग्रन्थों में नहीं मिलता है। अतः साधु के अनाचार ५२ ही नहीं समझ लेना चाहिये किन्तु आगमों में जहाँ भी जितने भी निषिस कार्य हैं वे सभी साधु के लिए अनाचरणोय है जिनकी संख्या निर्धारित नहीं की जा सकती। Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ चरणानया। -२ इवांस सबल दोष पूत्र ३६८ १२. आउट्टियाए पाणाइवायं करेमाणे सबले । (१२) जान-बूझ कर जीवों की हिमा करने वाला शबल दोष युक्त है। १३ बाउट्टिायए मुसावायं बदमाणे सञ्चले। (१३) जान-बूझ कर असत्य बोलने वाला शबल दोषयुक्त है। १४. आउट्टियाए अदिग्णादाण गिण्हमाणे सबले । {१४) जान-बुझ कर अदत्त वस्तु को ग्रहण करने वाला शबल दोष युक्त है। १५. आउट्टियाए अगंतरहियाए पुढवीए ठाणं वा, सेज्जं वा, (१५) जान-बूझ कर सचित्त पृथ्वी के निकट की भूमि पर निसीहियं वा, एमाणे सबले। कार्यात्मर्ग शयन एवं स्वाध्याय आदि करने वाला शबल दोष युक्त हैं। १६. आउट्टियाए सांणिमाए पुरवाए, ससरक्खाए पुरवीए (१६) जान-बूझ कर सस्निग्ध पुथ्वी पर और सचित्त रज ठाण वा, सेज्जंबा, निसीहियं या, एमाणे सबले। से युक्त पृथ्वी पर कायोत्सर्ग, शयन एवं स्वाध्याय आदि करने याला शबल दोष बुक्त है। १७. आट्टियाए चित्तमताए सिलाए, चित्तमसाए लेलुए. (१७) जान-बूझ कर सचित्त शिला पर. सचित्त पत्थर के कोलावासंसि वा दारुए जीवपट्टिए, सअंडे-जाव-मश्कटा- ढेले पर, घुन लगे हुए या दीमक लगे हुए जीव-युक्त काष्ठ तथा संताणए, हामं वा, सेग्जं वा, निसीहिम वा चेएमाणे सबले। अन्डे-युवत-यावत्-मकड़ी के जालों से युक्त स्थान पर कायोत्सर्ग शयन एवं स्वाध्याय आदि करने वाला शबल दोष युक्त है। १५. आउट्टियाए मूलभोयण वा, कंव-मोयणं था, संघ- (१८) जान-बूझ कर के मूल, कन्द, स्कन्ध, छाल, कोंपल, भोयणं या, तया भोयणं वा, पवाल-भोयण बा, पत्तभोयणं वा, पत्र, पुष्प, फल, बीज और हरी वनस्पति का भोजन करने वाला पुष्फ-भोयर्ण वा, फल-भोयणं वा, बीय-भोयणेवा, हरिय-भोपणं शवल दोष युक्त है। वा अजमाणे सबले। १६. अंतो संबच्छरस्स बस दगलेवे करेमाणे सबले । (१६) एक वर्ष के भीतर दश बार उदक-लेप लगाने वाला शबल दोष युक्त है। २०. अंतो संबच्छरस्स बस माइद्वापाई करेमाणे सबले। (२०) एक वर्ष के भीतर दश बार मायास्थान सेवन करने बाला शदल दोष युक्त है। २१. भाष्टिपाए सीतोषय-वग्धारिय-हत्येग वा, मत्तेण वा, (२१) जान-बूझ कर शीतल सचिन जल से गीले हाथ, दबीए वा, मायणेष वा, असणं वा, पाणं वा, खाइमं वा, पात्र, चम्मच या भाजन से, अशन, पान, खादिम और स्वादिम साइमं वा परिगाहिता भंजमाणे सबले को लेकर खाने वाला शनल दोष युक्त है । -दसा. द. २, सु.२ १ (क) सम. सम. २१, सु. १ (ख) समवायांग में राजपिड पाचवा है और सागारिय पिंड ११वां है। दशाश्रुतस्कन्ध में सामारिय पिंड पचिवाँ है और राजपिंड ११ वा है । समवायांग में १७वें सबल दोष में "चित्तमंताए पुढविए" पाठ अधिक है। Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीस असमाधि स्थान अनाचार [१५५ असमाधि-स्थान-७ वीसं असमाहिठाणा३६६. श्रीसं असमाहिद्वाणा पष्णसा, तं जहा १. दवदवच्चारौ यावि भवाइ, २. अप्पमज्जियचारी यावि भषह । ३. दुप्पमज्जियबारी यावि मवइ । ४. अतिरिक्त सेग्मासणिए याचि भवह। ५. रातिणिज-परिमासी यावि मवह । ६. रोवधाइए यावि भवद । ७. भूओषपाइए मावि मबइ । ८. जलणे यायि प्रबह । ६.कोहणे यावि मवह । १०. पिट्टिमंसिए मावि भव । ११. अभिक्खणं-अमित्खणं ओहासत्ता भवः । १२. णवाणं अहिगरणाणं अणुप्पण्णाणं उप्पाइत्ता भवइ । १३. पोराणाणं अहिगरणाणं खामित्र-विउवियः उदीरत्ता भव । १४. अकाले सजायकारए यादि भवई । १५. ससररत-पागि-पाए मावि भवद । बीस असमाधि स्थान३६८. बीस असमाधि स्थान इस प्रकार कहे हैं । जैसे (१) अतिशीन पलना। (२) प्रमार्जन करे बिना (अन्धकार में) चलना। (३) उपेक्षा भाव से प्रमार्जन करना। (४) अतिरिक्त शय्या-आसन रखना। (५) रलाधिक के सामने परिभाषण करना। (६) स्थविरों का उपघात करना। (७) पृथ्वी आदि का पात करना। (८) क्रोध भाव में जलना ।। (९) क्रोध करना। (१०) पीठ पीछे निन्दा करना । (११) बार-बार निश्चयात्मक भाषा बोलना। (१२) नवीन अनुत्पन्न कलहों को उत्पन्न करना । (1:क्षमापना हार, सतत पुरले क्लेश को फिर से उभारना। (१४) अकाल में स्वाध्याय करना । (१५) सचित्तरज से युक्त हाय पांब आदि का प्रमार्जन न करना। (१६) अनावश्यक बोलना या वाक युद्ध करना (जोर-शोर से बोलना) (१७) संघ में भेद उत्पन्न करने वाला वचन बोलना । (१८) कलह करना झगड़ा करना । (१९) सूर्योदय से लेकर सूर्यास्त तक कुछ न कुछ खाते रहना। (२०) एषणा समिति से असमित होना अर्थात (अनेषणीय भक्त-पानादि ग्रहण करना ।) १६. सहकरे यावि भवइ । १७. शंभकरे (मेवकरे) यावि मषद । १८. कलहकरे यावि मवइ । १६. परपमाण-मोई यावि भबइ । २०. एसगाए असमाहिए यावि भवा । --दसा. द.१, सु. ३-४ मोहनीय स्थान-८ तीस महा-मोहणिज्ज-ठाणाई. तीस महामोहनीय स्थान३७०, "अज्जो !'' ति सम भगवं महावीरे यहवे निम्गंथा य ३७०. घमण भगवान महावीर ने सभी निग्रंथ-नियंन्थियों को निग्गंधीओ य आमतेत्ता एवं यासी आमन्त्रित कर इस प्रकार कहा-- १ सम. सम, २०, सु.. Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ धरणामुयोग-२ तीस महामोहमीय स्थान "एवं खलु अम्जो! तीसं मोहणिज्ज-सापाई जाई इमाई "हे मार्यो ! जो स्त्री या पुरुष इन तीस मोहनीय स्थानों इस्थी वा पुरिसो वा अभिक्खणं अभिनसर्ग आपारेमाणे या, का सामान्य या विशेष रूप से पुनः पुनः आचरण करते हैं वे समायारेमाणे वा मोहणिज्जताए कम्मं पकरेइ" तं जहा- मोहनीय कर्म का बन्ध करते हैं ।" वे इस प्रकार हैं--- १. जे केइ तसे पाणे, धारिममा विगाहिला । (१) जो कोई त्रस प्राणियों को जल में डुबोकर या प्रचण्ड उवएणाकम्म मारेड, महामोहं पकुष्वद ।। वेग वाली तीन जलधारा डालकर उन्हें मारता है वह महा मोहनीय कर्म का अन्ध करता है। २. पाणिणा संपिहिसाणे, सोयभावारिय पाणिणं । (२) जो प्राणियों के मुंह, नाक आदि श्वास लेने के द्वारों अंतो नबंतं मारेड, महामोहं पकुव्वद ।। को हाथ आदि से अवरुख कर अव्यक्त शब्द करते हुए प्राणियों को मारता है वह महामोहनीय कर्म बांधता है। ३. जायतेयं समारब्म, बहु ओलम्पिया जणं। (३) जो अनेक प्राणियों को एक घर में घेर कर अग्नि के अंतो धूमेणं मारेड, महामोह पकुवह ॥ धुएं से उन्हें मारता है वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है। ४. सीसम्मि जो पहणड, उत्तमगम्मि चेयसा । (४) जो किसी प्राणो के उत्तमांग-शिर पर शस्त्र से प्रहार विभवन भत्थर्य फाले, महामोहं पकुम्बा ।। कर उसका भेदन करता है वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है। ५. सीसं बेढणले केह, आवेढेइ अभिक्खणं । (५) जो तीव अशुभ परिणामों से किसी प्राणी के सिर को तिवासुम • समावारे, महामोहं पकुबह ॥ गीले चर्म के अनेक देस्टनों से वेष्टित करता है वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है। ६. पुणो-पुणो पणिहिए, हगिता उवहसे जणं । (६) जो किसी प्राणी को धोखा देकर के भाले से या हंडे फलेण अदुव वशेण, महामोह पकुम्बइ ।। से मारकर हँसता है वह महामोहनीय कर्म का नन्ध करता है। ७. गृहागरी निमूहिाजा, मायं मायाए छामए । (७) जो गूढ आचरणों से अपने मायाचार को छिपाता है, असच्चवाई गिव्हाइ, महामोहं पकुम्बइ ।। असत्य बोलता है और सूत्रों के यथार्य अर्थों को छिपाता है वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है। ५. धंसेर जो अमूएण, अफम्म असकम्मुणा । (E) जो निर्दोष व्यक्ति पर मिथ्या आक्षेप करता है, अपने अदुवा सुमकासित्ति, महामोहं पकुवाइ ।। दुष्कर्मों का उस पर आरोपण करता है अथवा तूने ही ऐसा कार्य किया है इस प्रकार दोषारोपण करता है वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है। ९.जाणमाको परिसाए, सच्चामोसाणि भासए । (E) जो कलहशील है और भरी सभा में जान-बूझकर अक्खीण सं-पुरिसे, महामोह पकुवा ।। मिश्र भाषा बोलता है वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है। १०. अणायगस्स नयवं, बारे तस्सेब धंसिया । (१०) जो कूटनीतिज्ञ मंत्री राजा के हितचिन्तकों को विजसं विक्लोमइत्ता, किरचा णं परिवाहिर ।। भरमाकर या अन्य किसी बहाने से राजा को राज्य से बाहर उवगसंतंपि, मंपित्ता, परितोभाहिं वाहि । भेजकर राज्य लक्ष्मी का उपभोग करता है, रानियों का शील मोग-भोगे विचारे, महामोह पकुम्बई ॥ खण्डित करता है और विरोध करने वाले सामन्तों का तिरस्कार करके उनके भोग्य पदार्थों का विनाश करता है वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है। ११. अकुमारभूए जे फे, "कुमार-मूए तिह"वए । (११) जी बालब्रह्मचारी नहीं होते हुए भी अपने आपको इस्थी - विसप - सेवी य, महामोहं पला ।। बालब्रह्मचारी कहता है और स्त्री विषयक भोगों में एक होता है, वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है। १२. अभयारी ने केई, "भयारी तिह" वए। (१२) जो ब्रह्मचारी नहीं होते हुए भी "मैं ब्रह्मचारी हूँ" गहहेब गवां मन्न, विस्सरं नया नवं ।। इस प्रकार कहता है वह मानों गायों के बीच गधे के समान Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूष ३७० तीस महामोहनीय स्थान अनाचार [१५७ अपणो अहिए बाले, मायामोस बहुं मसे । इत्थी-विसयोही य, महामोहं पकुष्पा ।" १३. निस्सिए उम्बहा, जस्साहिगमेण वा। तस्स सुरमा वित्तम्मि, महामोहं पकुम्बइ ।। १४. ईसरेण अनुवा गामेणं, अणीसरे ईसरीकए। तस्स संपय-होणम्स, सिरी अतुलमागया ।। ईसा-बोसेण मावि, कलुसाविल - अपसे । जे अंतरायं चेएइ, महामोह पकुष्याइ ।। १५. सप्पी नहा अंग्स, मत्तार.जो विहिंसह 1 सेनाबई पसरयार, महामोह पकुव्वद ।। १६. जे नायगं च रस्त नेयार निगमस्स वा । सेष्टि बहुरवं हता, महामोहं पकुम्वइ ।। १७. बनुजणस्स गेयारं, दोवत्ताणं च पाणिणं । एयारिसं नरं हता, महामोहं पकुरुवइ ।। बेसुरा बकता है और अपनी आत्मा का अहित करने वाला वह मूर्ख माया युक्त झूठ बोलकर स्त्रियों में आसक्त र ता है वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है। (१३) जो जिसका शाश्रय पाकर आजीविका कर रहा है और जिसकी सेवा करके समृश हुआ है उसी के धन का अपहरण करता है वह महामोहनम्य कर्म का बन्ध करता है। (१४) जो किसी स्वामी का या ग्रामवासियों का आश्रय पाकर उच्च स्थान को प्राप्त करता है और जिनकी सहायता से सर्व साधन सम्पन्न बना है यदि ईयो युक्त एवं कलुषित चित्त होकर उन आश्रयदाताओं के लाभ में वह अन्तराय उत्पन्न करता है तो महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है। (११) सपिणी जिस प्रकार अपने ही अण्डों को खा जाती है उसी प्रकार जो पालन कर्ता, सेनापति तथा कलाचार्य या धर्माचार्य को मार देता है वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है। (१६) जो राष्ट्रनायक को, निगम के नेता को तथा लोकप्रिय श्रेष्ठी को मार देता है वह महामोहनीय कर्म का बन्ध ता । (१०) जो अनेक जनों के नेता को तथा समुद्र में द्वीप के समान अनाथ जनों के रक्षक को मार देता है वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है। (१८) जो पापों से विरत दीक्षार्थी को और तपस्वी साधु को धर्म से भ्रष्ट करता है वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है। (१९) जो अज्ञानी अनन्त ज्ञान-दर्शन सम्पन्न जिनेन्द्र देव का अवर्णवाद निन्दा करता है वह महामोहनीय कर्म का बन्च करता है। (२०) जो दुष्टात्मा अनेक भव्य जीवों को न्याय मार्ग से भ्रष्ट करता है और न्यायमार्ग की द्वेषपूर्वक निन्दा करता है यह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है। (२१) जिन आचार्य या उपाध्यायों से श्रुत और आचार ग्रहण किया है उनकी ही जो अवहेलना करता है वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है। (२२) जो व्यक्ति आचार्य उपाध्याय की सम्पक प्रकार से सेवा नहीं करता है तथा उनका आदर सत्कार नहीं करता है और अभिमान करता है वह महामोहनीय कर्म का बंध करता है। (२३) जो बहुश्रुत नहीं होते हुए भी अपने आपको बहुश्रुत, स्वाध्यायी और गास्त्रों के रहस्य का ज्ञाता कहता है वह महाभोहनीय कर्म का बन्ध करता है। १८. उष्ट्रिय पशिविरय, संजय सुत्तस्सियं । विक्कम्म धम्माओ अंसेइ, महामोह पकुम्बइ ।। १६. तहेवाणत - गाणोणं, जिणानं घरवंसिणं । तेसि अवण्ण बाले, महामोहं पकुव्वा ।। २०. नेयाइअस्स मग्गस्स, बुट्ट अवयरह बहुं। तं तिप्पयन्सो भावेह, महामोहं पकुष्वद ॥ २१. आवरिय-उपमाएहि, सुपं विणयं च गाहिए। से चंब खिसा बास, महामोहं पफुव्वइ ॥ २२. आयरिय-उबजमायाणं, सम्म नो पडितप्पह । अप्पजिपूयए यद्ध, महामोहं पहुवह ॥ २३. अबष्नुस्सुए य जे केई, सुएणं पत्रिकस्याह । समाय - वायं वयइ, महामोहं पकुवा ।। Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८] चरणानुयोग – २ २४. अतवस्सीए के केह तवेण पविकल्प । सयपरे तेथे महामोहं ॥ २४. साहारणट्टा जे केद्र, गिलामम्मि उवट्टिए । प न कुण किक्वं मयपि से न कुब्बइ ॥ स नियत्री पण्णा, लुसाउन चेयसे । अपणो य अ मोहीए, महामोहं पकुब्वड | २६. जे कहागिरणाई, संपउने पुणो पुगो । ess तित्याण- भेयाए, महामोहं पकुब्बई] ॥ २७. जोए संपले पुणो-गो सहा- हे सही-हेजं, महामोहं पकुब्बइ || २. परसोइए । सेऽतप्ययं तो आसयह, महामोहं पकुब्बइ ॥ २. बोबो देवानं बलवरियं । सेसि अवश्भव भाले, महामोहं पकुष्वह ॥ ३०. पासमान पस्थामि देवे जनचे व ज्ये अण्णानी जिन-पूड़ी, महामोहं पकुव्व ॥ एते मोहगुणा बुत्ता, कम्ता बिस-बढ़ना । भिन्नमा परिसमवे ॥ जे जावं, कि गई। हालागि सेविका, जेहि जायाचं सिया || आयार ती सुद्धप्पा, धम्मे ठिया अणुतरे । ततो मे सए दोसे, विसमासीविलो जहा ॥ तीस महामोहनीय स्थान । सुचत्त-दोसे सुप्पा, धम्मट्टी विदितायरे लगते किलि, पेचया सुरात बरे । सूत्र ३७० (२४) जो उपरवी नहीं होते हुए भी अपने आपको तपस्थी कहता है वह इस विश्व में सबसे बड़ा चोर है, मोहनीय कर्म का बन्ध करता है । अतः वह महा (२५) जो समर्थ होते हुए भी रोगी की सेवा का महान् कार्य नहीं करता है अपितु "मेरी इस सेवा नहीं की है अतः मैं भी इसकी सेवा क्यों इस प्रकार कहता है वह महामूर्त मायावी एवं मिध्यात्वी कति पित होकर अपनी आत्मा का बहित करता है ऐसा व्यक्ति महामोहनीय कर्म का अन्ध करता है । (२६) चतुविध संघ में मतभेद पैदा करने के लिए जो काह के अनेक प्रसंग उपस्थित करता है वह महामोहनीय कर्म का बंध करता है। (२७) जो श्लाबा या के लिए अवानिक योग करके सीकरणादि का बारदार प्रयोग करता है वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है । (२०) जो मानुषिक और देवी भोगों की दृष्टि से उनकी बार-बार अभिलाषा करता है वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है । (२९) जो व्यक्ति देवों को ऋद्धि चति न वर्ग और बल-वीर्य का अवर्णवाद बोलता है वह महामोहनीय कर्म का बंध करता है। (२०) जो शादी जिनदेन की पूजा के समान अपनी पूरा का इच्छुक होकर देव, यक्ष और असुरों को नहीं देखता हुआ भी कहता है कि "मैं इन सबकी देखता हूँ" वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है । ये मोह से उत्पन्न होने वाले अशुभ कर्म का फल देने वाले, जितकी मलीनता को बढ़ाने वाले दोष कहे गये है अतः भिक्षु इनका आचरण न करे किन्तु वागावेषी होकर विरे पूर्व में किये हुए अपने स्मारयों को आनकर उनका पूर्ण रूप से परित्याग करे और उन संयम स्थानों का सेवन करे जिनसे कि वह भाचारवान् बने । जो भिक्षु पंचाचार के पालन से सुरक्षित है, शुद्धात्मा है और अनुत्तर धर्म में स्थित है, वह अपने दोषों को त्याग दे जिस प्रकार माशीविष सर्प विष का वमन कर देता है । इस प्रकार दोषों को त्याग कर शुद्धात्मा धर्मार्थी भिक्षु मोक्ष के स्वरूप को जानकर इस लोक में कीति प्राप्त करता है और परलोक में वह मुगति को प्राप्त होता है। Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र २७०-२७१ एवं अभिसमागम्म सव-मोह-विनिमुक्का, तेरस किरिया ठाणा ३७१. तेरस किरिया ठाणा पण्णत्ता, तं जहा - १. लट्टावंडे, २. गावंडे, २. हिसा ४. ५. विविधपरिआ सिआवंडे, ६. ७. अविण्यावागलिए. ८. थिए सूरा वढ पश्चकमा । जाइ-मरणमसिया || सा.द. ६, गा. १-३६ ६. मातिए १०. मिलिए, १ (क) सम. स. ३०, सु. १ (ख) तेरह चियास्थान ११. मामात्तिए, १२. सोलिए १३. ईरियावहिए नाम तरसने सम राम. १३, यु. १ क्रियास्थान - ६ (१) श्वास रोक कर मारना (२) धुंए आदि से मारना, ( ३ ) मस्तक का भेदन करके मारना (४) मस्तक पर गीला चमड़ा बांधकर मारमा शेष सभी का क्रम समान है । २ सू. सु. २. २.गु.१ जो परामी, सुरवीर भिक्षु सभी स्थानों को जानकर उन मोहबन्ध के कारणों का त्याग करता है वह जन्म-मरण का अतिक्रमण कर देता है, अर्थात् संसार से मुक्त हो जाता है । तेरह क्रियास्थान ३७१. तेरह क्रियास्थान कहे गये हैं। जैसे— 運 (१) सप्रयोजन हिंसा (२) नियोजन दिया। (२) संकल्प युक्त हिसा । (४) अचानक होने वाली हिंसा । (५) मतिभ्रम से होने वाली हिंसा । (६) माबाद के निमित्त से होने वाली क्रिया । (७) अदत्तादान के निमित्त से होने वाली क्रिया । (८) बाह्य निमित्त के बिना स्वतः मन से उत्पन्न होने वाली क्रिया | अनाचार [१८६ (१) अभिमान के निमित्त से होने वाली किया। (१०) मित्र के प्रति अप्रिय भाव के निर्मिस से होने वाली क्रिया। स्कन्ध और समवायांग सूत्र में समान वर्णन है किन्तु दूसरे स्थान से पांचवें स्थान तक चार स्थानों के म अन्तर है, जो लिपि दोषजन्य सम्भव है । यह अन्तर इस प्रकार है- (११) माया के निमित्त से होने वाली क्रिया । (१२) लोभ के निमित्त मे होने वाली किया। (१३) काय रहित योगों के निमित्त से होने वाली किया। समवायोग में तीसरा है चोया है पाँचवा है दूसरा है दशाभूतस्कन्ध दूसरा है। तीसरा है। है। पाँव है। में Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९०] परमानुयोग-२ आठ प्रकार के महानिमित्त सत्र ३७२-३७५ - - - - - - - - निमित्त कथन--10 अट्टविहा महाणिमिता आठ प्रकार के महानिमित्त - ३७२. अविहे महाणिभित्ते पपणते, तं जहा ३७२. महानिमित्त आठ प्रकार के होते हैं । यथा१. भोमे, २. उप्पाते, (१) भौम, (२) उत्पात (उपद्रव,) (३) स्वप्न, ४. अंतलिपखे, ५. अंगे, ६. सरे (४) अन्तरिक्ष, (५) आंग. (६) स्वर, ७. लक्षणे, ८. वंजणे ।। -ठाणे. अ.८, सु. ६०८ (७) लक्षण, () व्यंजन (तिल, मसा आदि) पिमित्त वागरण णिसेहो-- निमित्त कथन निषेध३७३. जे लक्षणं सुविणं पउंजमाणे, निमित्ते कोऊहल संपगावे। ३७३, जो लक्षणशास्त्र और स्वप्नशास्त्र का प्रयोग करता है, कुठेड विजा-सवदारजीवी, न गई सरणं सम्मि काले। जो निमित्तशास्त्र और कौतुक-कार्य में लगा रहता है, मिथ्या -उत्त. अ. २१, गा. ४५ आश्चर्य उत्पन्न करने वाली आश्रव युक्त विद्याओं से आजीविका करता है, वह मरण के समय किसी की शरण नहीं पा सकता । जे लक्खणं च सुविणं च, अंगविक व जे पनि। लो सापक लक्षणशास्त्र, स्वप्नशास्त्र एवं अंगविद्या का नते समणा बुच्चंति, एवं आयरिएहि अस्खायं ॥ प्रयोग करते हैं उन्हें सच्चे अर्थों में श्रमण नहीं कहा जाता, ऐसा -उत्त. अ.८, गा.१३ आचार्यों ने कहा है। छिन्नं सरं भोमं अंतलिक्खं, सुविणं लक्षण-वर-वरविम्ब। जो छेदन, स्वर (उच्चारण), भौम, अंतरिक्ष, स्वप्न, लक्षण, अंगरियार सरस्स विजयं, ने विजाहि नजीवई स मिक्खू ॥ दंड, बास्तु विद्या, अंगस्फुरण और स्वर विज्ञान आदि विद्याओं के -उस.. १५, गा.७ द्वारा आजीविका नहीं करता है वह भिक्षु है। नक्सशं सुमिणं जोग, निमित्त मंत मेसज । नक्षत्र, स्वप्न, वशीकरण योग, निमित्त, मन्त्र और भेषजपिहिणोन आइरखे, भूयाहिगरणं पयं ॥ ये जीवों की हिंसा के स्थान हैं, इसलिए मुनि गृहस्थों को इनके -वस. अ. ८, गा. ५१ फलाफल न बताए। निमित्त प्पओगी पावसमणो निमित्त का प्रयोक्ता पाप-बमण३७४. सयं गेहं परिवरज, परगेहंति नायडे। ३७४. जो अपना घर छोड़कर दूसरों के घर में जाकर उनका निमिसेप य यकहरई, पावसमणे ति बुच्चाई। कार्य करता है और निमित्त शास्त्र से शुभाशुभ बताकर जीवन -उत्त. स. १७, गा. १८ व्यवहार चलाता है वह पाप-थमण कहलाता है। कवाय-निषेध-११ कवाय-णिसेहो कषाय निषेध३७५. पलिऊचणं च भयणं च, पंडिलनुस्सयणाणि य । ३७५. माया और लोभ तथा क्रोध और मान को नष्ट कर डालो धुणादाणाई लोगंसि, तं विज्ज परिजाणिया ।। क्योंकि ये सव (कषाय) लोक में कर्मबन्ध के कारण हैं, अतः - सूय. सु. १, म.६, गा. ११ विद्वान् साधक परिशा से जानकर प्रत्याख्यान परिज्ञा से इनका त्याग करे। १ समवाय. २६, सु. १ Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूध ३७५-३७७ कषायों को अग्नि की उपमा अनाचार १०१ wwmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm कोहं माणं च मायं च, लोमं च पावबढणं । क्रोध, मान, माया और लोभ ये पाप को बढ़ाने वाले हैं। पमे सत्तारि बोसे उ, इच्छतो हियमप्पण्णो॥ आत्मा का हित चाहने वाले को इन चारों दोषों दोषों को छोड़ देना चाहिये। कोहो पीदं पणासेइ, माणो विगयनासणो। क्रोध प्रीति का नाश करता है, मान विनय का नाश करने माया मित्तागि नासेद, लोहो सम्बविणासणो । वाला है, माया मैत्री का विनाश करता है और लोभ सभी सद गुणों का नाश करने वाला है। उपसमेण हणे कोई, माणं महवया जिणे। उपशम से क्रोध का हनन करे, मृदुता से मान को जीते, मायं चज्जवभाग, लोभं संतोसओ जिगे। सरलता से माया को और सन्तोष से लोभ को जीते। कोहो य माणो य अणिगहोया, माया य लोमा य पवढमाणा। वश में नहीं किये हुए क्रोध और मान, बढ़े हुए माया और पत्तारि एए कसिणा कसाया, सिचंति मूलाई पुगम्भवहम ॥ लोभ ये सम्पूर्ण चारों कषाय पुनर्जन्म रूपी वृक्ष की जड़ों का -दस..८, गा. ३६-३६ सिंचन करती है। जे यावि बास्सुए सिया, धम्मिए माहणे भिक्खुए सिया । मायामय अनुष्ठानों में आसक्त पुरुष चाहे वहुश्रुत हों चाहे वे अभिगूमकडेहिं मुछिए, तिचं से फम्मेहि किश्चती ।। धर्माचरणशील हों, ब्राह्मण हों या माण हों अथवा भिक्षु हों वे कों द्वारा अत्यन्त पीड़ित किये जाते हैं। अह पास विवेगमुहिए, अवितिग्णे इह मासई घुतं । हे शिष्य ! यह देखो कि-काई साधकः संयम स्वीकार गाहिसि आरं को परं? बेहासे कम्मेहिं किन्चई ॥ करके कषाय विजय में सफल नहीं होते हुए भी संयय का कथन करते हैं उनका यह लोक भी नहीं सुधरता है तो परलोक कैसे सुधरेगा ? अर्थात नहीं सुधरता है और बीच में ही वे कर्मों से पीडित होते रहते हैं। जाविय णिगिणे किसे चरे, जइ बिय भुजिय मासमंतसो। यदि कोई भिक्षु नग्न रहता है, देह को कृश करता है और जे इहमायाइ मिपणती, आगंता गल्मायणंतसो॥ मास-मास के अन्त में एक बार खाता है. फिर भी माया आदि -सूय. सु. १, म. २, उ.१, गा. ७-६ से परिपूर्ण होने के कारण वह अनन्त बार जन्म-मरण करता है। कसायाणं अग्गो उवमा-- कषायों को अग्नि को उपमा-- ३७६. ५०-संपजलिया घोरा, अग्गो चिट्ठा गोपमा। २७६. प्रत-(केशीकुमार पूछते हैं) हे गौतम ! प्राणिमात्र के में सहन्ति सरोरत्या, कहं विउमाविया तुम ? | शरीर में बोर अम्नियाँ प्रज्वलित हो रही है और आत्मा के गुणों को भस्म कर रही हैं उन अग्नियों को बापने कैसे बुझाया ? -महामहापसूयाओ, गिजा वारि जनुत्तमं । उ.-महामेघ से उत्पन्न स्रोत में से पवित्र-जल को लेकर सिंधामि सययं तेउ, सिता नो बहन्ति में। मैं उन अग्नियों का निरन्तर सिंचन करता हूँ। अत: सिंचन की गई वे अग्नियां मुझे नहीं जलाती हैं। प.-अग्गीय इद के वृत्ता? फेसी गोयममम्यवी । प-वे कौन-सी अग्नियाँ हैं ?" केशी ने गौतम को केसिमेवं युवत सु, गोयमो इणमायनी ।। कहा । केशी के पूछने पर गौतम ने इस प्रकार कहाज-कसाया अग्गिगो बुसा, मुस-सील-सवो जलं । उ-"कषायों को अग्नि कहा गया है। श्रुत, शील और मुयधारामिहया सप्ता, मिलान म्हन्ति मे ॥ तप यह जल है। श्रुत-शील-तप-रूप-जल-धारा से बुझी हुई और -उत्त, अ. २३, गा. ५०-५३ नष्ट हुई अग्निया मुझे नहीं जलाती हैं।" अट्ठमयप्पगारा आठ प्रकार के मद-~३७७. अट्ट मयटाणा पण्णता, तं जहा ३७७. मद आठ प्रकार के कहे गये हैं। यथा१. जातिमए, २. कुलमए, ३. बलमए, (१) जातिमद, (२) कुलमद, (३) बलमद, ४. रूबमए, १. तवमए, ६.सुत्तमए, (४) रूपमद, (५) तपमद, (६) श्रुतमद, .. लाममए, ८.इसरियमए। (७) लाभमद, (८) ऐश्वयंमद । -ठाणं. अ. सु. ६.६ Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२] चरणानुयोग २ मणिसेहो - ३७८. पण्णामयं श्रेव तवोभयं च विष्णाभए पोयमयं च भिक्लू । materia माह से पंडिले उत्तमपोगले से ॥ एतर महराई विधि छोरा तानि सेति सुधीरधम्मा ते सब्बगोलावताहेती, उद अगोत्तं च गति कति सू. सु. १, अ. १३ . १५-१६ नामसे न कयमसे न साममते न एमम मपाणि सव्वाणि विवज्जसा, धम्मज्जयामरए जे स भिक्लू ।। - दस. अ. १०, रा. १६ न बाहिरं सुदामे न परिश्रमे मज्जा, अत्तागं न सफले । जच्चा सवसिद्धिए ।। - इस. अ. ८ गा. ३० तयसं व जहा से रयं इति संखाय गोयण्णतरेण माहणे. अह सेमकरी स्वमद- णिसेहो - ३७६. मे कई सरीरे सत्ता, सुणी य मज्जई । अन्नेसि इंक्षिणी ।। जो परिभवई परं जगं संसारे अरु इंजिनिया पाविया इति संकाय उ पण # सुप. सु. १. अ. २, परिवत्तई महं । णी ण मज्जई ॥ उ. २, गा. १-२ वण्णे हवे य सम्बो ""सच्चे तेा । मावना दीहमाणं संसारम्मि अनंतए । तन्हा सब्बदिसं पल्स, अप्पमतो परिष्ए । -उत्त, अ. ६, गा. ११-१२ लज्जा-जिसेहो २०. जे माथि अणायगे सिया, जे वियपेसए सिया जे मोमपदं उबडिए, वो सज्जे समय - सू. सु. १, कसाय गारव गिरोहो ३८१. अतिमाणं च मायं च तं परिण्णाय 1 या परे ।। २, ७.२, मा. ३ पंडिते । मुनि ॥ मारवाणि य सम्पाणि, निव्यानं संघ --सूत्र सु. १, अ. ९गा. ३६ P मच निषेध सूत्र ३७८-३८१ मद निषेध ३७८. भिक्षु प्रज्ञा का मद, तप का मद, गोत्र का मद और चौथा आजीजा का मद मन से सम्पूर्ण रूप से निकाल दे। जो ऐसा करता है, वही पण्डित और उत्तम आत्मा है। धीर पुरुष इन मदों को आत्मा से पृथक् कर दे। क्योंकि धर्यवान साधक उन जति आदि मदों का सेवन नहीं करते वे सय प्रकार के वोबादि मदों से रहित नदिन नामादि महर्षिगण नाम-गोत्रादि से रहित सर्वोच्य मोक्ष गति को प्राप्त होते हैं। जो जाति का मद नहीं करता, जो रूप का मद नहीं करता, जो लाभ का मद नहीं करता, जो भूत का मद नहीं करता, जो सब मदों का वर्जन करता हुआ धर्म ध्यान में रत रहता है - वह भिक्षु है। भिक्षु दूसरे का तिरस्कार न करे। अपना बयन न दिखाए। श्रुत, लाभ, जाति सम्पन्नता, तप और बुद्धि का मदन करे । को जैसे सर्प अपनी केंचुली का इच्छुक मुनि कर्म रज afe after a छोड़ देता है वैसे ही कल्याण को दूर कर देता है ऐसा जानकर यद न करे तथा कल्याण का नाम करने वाली दूसरों की निन्दा भी न करे । जो साधक दूसरों का तिरस्कार करता है, वह चिर काल तक संसार में परिभ्रमण करता है तथा परनिन्दा पापों की जननी ही है, यह जानकर मुनि किसी प्रकार का अहंकार न करे । रूपमद निषेध ३७६. जो कोई मन, वचन और काया से भारीर के वर्ण रूप जादि में सर्वशः आसक्त होते हैं, वे सभी अपने लिए दुःख उत्पन करते हैं। वे इस अनन्त संसार में जन्म-मरण के लम्बे मार्ग को प्राप्त किए हुए हैं। इसलिए सब दिशाओं का भली भाँति विचार कर मुनि अप्रमत्त होकर विचरे । लग्ना निषेध ३८०. जो पूर्व में चक्रवर्ती राजा आदि हो अथवा जो दासों का भी दास हो किन्तु अत्र यदि वह संयम मार्ग में उपस्थित हो गया तो उसे लज्जा या अभिमान न करते हुए सदैव सम्यक् प्रकार से संयम का आचरण करना चाहिए। कषाय और गर्व का निषेध ३८१. पण्डित मुनि अति मान और माया तथा सभी गर्यो को जानकर उनका परित्याग करे और स्वयं निर्वाण की साधना में लगे । Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र३८२-३५६ साम्परायिक कर्मों का त्रिकरण निवेध अनाचार [१९३ णिकपणे भिक्खू सुलू हजीवी, जो साधु अपरिग्रही है, स्था-सुना आहार करता है वह भाषी जे गारवं होई सिलोयगामी । यदि गर्व और प्रशंसा की थाकाक्षा करता है तो उसकी भिक्षावमेयं तु अबुज्नमाणे, वृत्ति आदि केवल आजीविका के साधन हैं। परमार्थ को न पुगो- पुणे विपरियासुवेद ॥ जानने वाला वह अज्ञानी पुनः पुनः संसार में परिभ्रमण करता है। मे मासर्व भिक्खू सुसाधुवाई, जो भिक्षु भाषाविज्ञ है, जो हितमित-प्रिय भाषण करता है पव्हिाणवं होड विसारए य । जो बुद्धि सम्पन्न है, जो शास्त्र में निपुण है, जो सूक्ष्म तत्वों को बागाउपपणे सुविमाधिनाया, सम वाला है, संयम में अपनी आरमा को भावित करता है। अण्पं जणं पणया परिभवेज्जा ॥ (परन्तु इन गुणों से युक्त होने पर भी जो) दूसरे लोगों को अपनी बुद्धि से तिरस्कृत करता है वह समाधि को प्राप्त नहीं करता। एवं प से हो समाहिपत्त, जो भिक्षु प्रज्ञावान् होकर अपनी जाति, बुद्धि आदि का गर्व जे पण्णव मिक्ख विउकज्जा । करता है, अथवा जो लाभ के मद से मत्त होकर दूसरों की निंदा अश्वा वि जे सरमममावलित, करता है वह बालबुद्धि (मूखं) समाधि को प्राप्त नहीं होता है। अखणं अगं खिसति बालपणे ॥ -सूय. सु. १, अ. १३, गा. १२-१४ सापराइय-कम्भाणं-तिकरण-णिसेहो-- साम्परायिक कमों का त्रिकरण निषेध-- ३८२. से भिक्त जपि य इमं संपराहयं कम्मं कम्जह, गो तं सय ३८२. जो यह साम्परायिक (कवाययुक्त) कर्मबन्ध किया जाता करेति, नेवग्गणं कारवेति, अग्नं पि करतं णाणुजाणति, है, उसे वह भिक्षु स्वयं नहीं करता है, न दूसरों से कराता है इति से महता मावाणातो उपसंते उपट्टिते परिविरते। और न ही करते हुए का अनुमोदन करता है। इस कारण वह --सूप. सु. २, अ. १ सु. ६८६ शिक्षु महान कर्मबन्धन से मुक्त हो जाता है तथा शुक्ष संयम में रत और पापों से विरत रहता है। कोहविजय-फलं-- क्रोध-विजय का फल-- ३८३. प०---कोहविजएग भन्ते 1 जीवे कि जणयह ? ३८३. प्र.-भन्ते ! क्रोध-विजय से जीव क्या प्राप्त करता है ? उ०-कोहविषएवं खन्ति जणयह, कोहवेयगिज्वं कम्मन ३०-क्रोध-विजय से वह क्षमा को प्राप्त करता है। वह बग्वाइ, पुम्वब व निजरेइ । क्रोध-वेदनीय कर्म का बन्ध नहीं करता और पूर्वबद्ध कर्म को -उत्त. अ. २६, सु ६९ क्षीण करता है । माणविजय-फलं मान-विजय का फल३८४. ५०- माणविजएणं भन्ते ! जीवे कि जणयइ ? ३८४.प्र.-- भन्ते । मान-विजय से जीव क्या प्राप्त करता है? उ० . माणविजएणं महवं जगयई, मागवेवणिज कम्मं न उ०-मान-विजय से वह मृदुता को प्राप्त करता। वह बन्धइ, पुस्वयं च निज्जरेइ । -उत्त. अ. २६, सु.७१ मान-वेदनीय कर्म का बन्ध नहीं करता और पूर्व-बद्ध कर्म को क्षीण करता है। मायाविजय-फल माया-विजय का फल३८५. ५०-मायाविजएणं भन्ते ! जीवे कि जणयह ? ३८५. प्र--भन्ते ! माया-विजय स जीव क्या प्राप्त करता है? उ मायाविमएणं उज्जुभाष जगयह, मायावेयणिज्ज -माया-विजय से बह सरलता को प्राप्त करता है। कम्मं न सन्धह, पुवायाच निजरेछ । वह माया-वेदनीय कर्म का बन्ध नहीं करता और पूर्व-बद्ध कर्म -उत्त. अ. २६, सु. ७० को क्षीण करता है। लोविजय-फल लोभ-विजय का फल-- ३८६. ५०-- लोमविजएणं भन्ते ! जोवे कि जणयह ? ३८६, प्र०-मन्ते ! लोम-विजय से जीव क्या प्राप्त करता है? Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ ] भाग-२ NITI उ०- लोमविज एवं संतोसीभावं जणपत्र, लोभवेय णिज्जं कम्मं न बन्धइ, पुव्ववद्धं च निम्नरे । अट्टहास पायच्छित तुलं ३७. कि हंसने का प्रायश्चित सूत्र ---उत्तम. २६, सु. ७२ क्षीण करता है। 渐渐 अनाचार प्रायश्चित १२ मुहं विष्फालिम विष्फालिय हस हस या 1 साइज्जइ । देवमाणे आवज मासिवं परिहारद्वान उदाह - नि. उ. ४, सु. २७ सिप्पाई सिक्खावणं पायच्छित सुत्तं-३८८. जे भिक्खू अण्णजत्थियं वा गारथियं वा१. सिप्पं वा, २.सिलो वा ३. ४. फक्कडगं था, ५. हं वा ६. सलाहं वा सिक्खाबेड, सिक्खायें या साइज्जइ । तं सेवमाने आज चाउम्माशिमं परिहारद्वाणं उत्पाद नि. उ. १३, सु. १२ आगाढ - फरसययण पायच्छित सुसाई ३८९. जे भिक्खू अण्णउत्थियं वा गारत्वियं वा जागा ववइ, वसं वा साइज्जइ । भिक्खू अण्णस्थियं वा गारस्थियं वा फचर्स वयद्द, या साइज्जइ । जे भिक्खू अन्गउत्चियं वा तारस्चियं वा आमा फरर्स मह वयंसं या साइज्जइ । वर्यतं तं सेवमाणे आवज चाउमा सियं परिहारद्वत्वं उपधादयं । - नि. उ. १३, सु. १३-१५ अवासायण पायचिछत्त सुतं - ३६०. जे भिक्खु अण्णउत्थियं वा गारस्थियं वा अण्णवीए अच्चासामगार अच्या अन्यासाएं या साइन। उ०- लोभ विजय से वह सन्तोष को प्राप्त करता है। वह लोभ- वेदनीय कर्म का बन्ध नहीं करता और पूर्वबद्ध कर्म को सं रोवमाणे आवज बातम्यालियं परिहारद्वाणं पाइयं । - नि. उ. १३, सु. १६ सूत्र ३८६-३१० अधिक हंसने का प्रायश्चित सूत्र३०. जो शिशु मुँह फाड़ कर (गोर-जोर से हंसता है, हंसाता है या हंसने वाले का अनुमोदन करता है । उसे मासिक परिहासथान (प्रायश्चित) आता है। शिल्पकलादि सिखाने का प्रायश्चित्त सूत्र-३८८. जो भिक्षु अन्यतीर्थिक या गृहस्थ को— (१) शिल्प, (२) गुण कीर्तन, (४) कांकरी बेलना, खेलना, (३) जुला (५) युद्ध करना, ( ६ ) पद्य रचना करना सिखाता है, सिखवाता है या सिखाने वाले का अनुमोदन करता है। उसे चातुर्मासिक उपातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित) ता है। अपशब्द और कठोर वचन के प्रायश्वित सूत्र— ३८. जो भिक्षु अन्यतीयिक वा महस्य को आवेश युक्त वचन कहता है, कहलाता है या कहने वाले का अनुमोदन करता है। जो भिक्षु अन्यतीर्थिक या गृहस्थ को कठोर वचन कहता है, कहलवाता है या कहने वाले का अनुमोदन करता है। जो भिक्षु अम्यतीयिक या गुहत्य को आदेश युक्त कठोर शब्द कहता है, लाता है या कहने वाले का अनुमोदन करता है । उसे चातुर्मासिक उद्घाटिक परिहारस्थान ( प्रायश्चित्त) आता है । आमातना का प्रायश्चित्त सूत्र ३०. जो भिक्षु अन्यतीर्थिक या गृहस्य की किसी भी प्रकार की आयातना करता है, करवाता है या करने वाले का अनुमोदन करता है । उसे चातुर्माक्षिक उपातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) आता है । Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ३६१-३६५ सचित गंध जिण पायच्छित मुतं३१. सचित गंध सूचने का प्रायश्चित सूत्र पद्वियं हि नियंता साइ २२. मनासिवं परिहारद्वानं अनुत्पादयं -Pr.. t. g. to तं सेवमाणे आवजह चाजम्मा सियं परिहारट्ठाणं उग्धादयं । - नि. उ. १३, सु. १७ भूकम्मकरणल्स पायच्छित सुतं कोकम्मरस पायसुतं कौतुक कर्म का प्रायश्वित्त सूत्र ३६२. जे मिक्सू अण्णउस्वियाण या गारस्थियाण वा कोउग्रकम्। ३६२. जो भिक्षु अन्यतीर्थिक या गृहस्थों का कौतुक कर्म करता करेड करें या साइज है, करवाता है या करने वाले का अनुमोदन करता है। करेद्द, करें या साइजइ । से सेवमाने भवन चारसय परिहाराणं उपाह - नि. उ. १३, सु. १८ भूतिकर्म करने का प्रायश्चित्त सूत्र त्याच या मारवियान वा कम्म ३९३ को अन्यतीर्थ या गुहस्यों भूतिकर्म करता है करवाता है या करने वाले का अनुमोदन करता है । भयाण वा नारयियाण वा वंज कर्हतं वा साइज्जइ । - अनाचार सचित गंध सूंघने का प्रायश्चित सूत्र- २२. जो शुचि पदार्थ में स्थित सुगन्ध को सूपता है या सूंघने वाले का अनुमोदन करता है । उसे मासिक अनुमासिक परिहारस्थान (प्रायश्वित्त) आता है। जे भिक्खू अण्णउत्थियाण या गारत्वियाण वा सुमिणं कहेद, कहें या साइज | [१६५ उसे चातुर्मासिक उद्घातिक परिहारस्थान ( प्रायश्चित्त) आता है । पसिना कणस्स पार्याण्डिस सुताई प्रश्नादि कहने के प्रायश्चित सूत्र १४. जे भिक्लू अण्णउत्थिवाण वा गारत्यिमाण वा पसिण कहे, ३९४. जी भिक्षु अन्यतीर्थिकों या गृहस्थों से कोतुक प्रश्न करता * वा साहज्जइ । है, करवाता है या करने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिषण अपरिमाण वा गारस्थियाण या परिणापसिणं * कहे कहें या साइनइ । सेवा पाउम्यासि परिहारद्वाणं उधा - नि. उ. १३, सु. १६-२० लक्खण- वंजण सुमिणफल- कहणमाणस्स पायच्छित सुसाइं ३६५.उन वा वारयियाण वास हे कर्हेत या साइज्जइ । उसे चातुर्मासिकपातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित आता है । at fभक्षु अन्यतfर्थकों या गृहस्थों के कौतुक प्रश्नों के उत्तर देता है, दिलवाता है मा देने वाले का अनुमोदन करता है। उसे चातुर्मासिक उद्घातिक परिहारस्थान ( प्रायश्चित ) आता है। लक्षण व्यंजन-स्वप्नफल कहने के प्रायश्चित्त सूत्र जो भिक्षु अन्यतीथकों या आदि व्यंजनों का फल कहता है, का अनुमोदन करता है । २१४. जो भिक्षु अन्यतीधिकों या गृहस्यों को उनके शरीर के रेखा आदि लक्षणों का फल कहता है, कहलाता है या महने दाने का अनुमोदन करता है। प्रश्न=प्रश्नव्याकरण में उक्त तीन सौ चौबीस प्रश्नों में से पूछे गये प्रश्नों का उत्तर देना । प्रश्नाप्रश्न – स्वप्नशास्त्र से स्वप्नों का फल कहना | मुहस्यों को (उनके) दिनस कहलवाता है या कहने वाले जो भिक्षु अन्यतीथकों या गृहस्यों को स्वप्न का फल कहत है, कहलाता है या कहने वाले का अनुमोदन करता है। १ कौतुककर्मसुखवरमा की चिकित्सा के लिए कराया जाने वाला एक तांत्रिक प्रयोग = २ मूतिकर्मदृष्टिदोष आदि की निवृत्ति के लिए तंत्रीत पदार्थों के सम्मिश्रण से एक रक्षा पोटली तैयार करना, भूतिकर्म है। ३ ४ Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६] घरणानुयोग-२ विद्यादि का प्रयोग करने के प्रायश्चित्त सूत्र सत्र ३९५-३६६ साधर चाउम्मासि परिहारदाण उपधारय। उसे चातुर्मासिक उदधातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित -नि. उ. १३, सु. २२-२४ आता है। विज्जाइ पउंजणस्स पार्याछत्त सुत्ताई विद्यादि का प्रयोग करने के प्रायश्चित्त सूत्र३६६.जे मिक्ख अण्णस्थियाण या गारत्थियाण धा बिज्ज' ३९६. जो भिक्षु अभ्यतीथिकों या गहस्थों के लिए विद्या" का परजइ, पउजत वा साइज्जई। प्रयोग करता है, करवाता है या करने वाले का अनुमोदन करता है। ने मिक्स्य साहित्रणाण वा गारस्यियाग वा मंत' पबंजई, जो भिक्षु अन्यतीयिकों या गृहस्थों के लिए "मम्म" का पउजत वा साइम्जा । प्रयोग करता है, करवाता है या करने वाले का अनुमोदन करता है। ने भिक्ख अग्णउस्यियाण वा गारस्थियाण वा जोग पजइ जो भिक्षु अभ्यतीधिकों या गृहस्थों के लिए "योगका पउंजलंबा साइजई। प्रयोग करता है, करवाता है या करने वाले का अनुमोदन करता है। सं सेवमाणे आवाज चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं उरघाइयं । उसे चातुर्मासिक उपातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि.उ. १३, सु. २५-२७ आता है। मग्गाइ पवेयणस्स पायच्छित सुतं मार्गादि बताने का प्रायश्चित्त सूत्र- . ३६७. जे भिक्खू अण्णउत्थियाण या गारस्थियाण या नट्ठागं, मूढाणं ३६७. जो भिक्षु मार्ग भूले हुए, दिशामूढ़ हुए या विपरीत दिशा विप्परियासियाणं मग दा पवेदेइ, संधि वा पवेदेश, मागायो में गये हुए अन्यतीथिकों या गृहस्थों को मार्ग बताता है, मार्ग वा संधि पवेदेइ, संघीओ वा मम्ग पवेदेइ पवेवंतवा की संधि बताता है, मार्ग से संधी बताता है अथवा संधी से साइजद । मार्ग बताता है या बताने वाले का अनुमोदन करता है। तं सेवमाणे आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारदाण उग्घाइय। उसे चातुर्मालिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि. उ. १३, सु. २८ आता है । धाउ-णिहि पवेयणस्स पायच्छित्त सुत्ताई. . धातु और निधि बताने के प्रायश्चित्त सूत्र३६८. जे मिक्खू अण्णउत्यियाण या गारस्थियाण वा धाउं पवेवेष ३६८. जो भिक्षु अन्यतीथिकों या गृहस्थों को धातु बताता है या पयेवत वा साइज्जइ । बताने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू अण्णउत्यियाण वा गारत्थियाण वा णिहि पदे जो भिक्षु अन्यत्तीथिकों को या गृहस्थों को निधि (खजाना) पवेवत बा साहज्जइ । बताता है या बताने वाले का अनुमोदन करता है। त सेवमाणे आवन्जद चाउम्मासि परिहारदाण उग्याइयं। उसे चातुर्मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि. उ.१३, सु. २६-३० आता है। अप्पणो आयरिय-लक्षण-वागरणस्स पायच्छित्त सुत्त- अपने आपको आचार्य के लक्षण युक्त कहने का प्रायश्चित्त सूत्र३६६. भिक्खू अप्पणो आयरियताए लक्खणाई वागरेइ वागरतं ३६६. जो भिक्षु स्वयं अपने को आचार्य के लक्षणों से सम्पन्न वा साइजा। कहता है, नहलवाता है या कहने वाले का अनुमोदन करता है। तं सेवमाणे आवम्झइ चाउम्मासिवं परिहाराणं उग्याइयं । उसे चातुर्मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि. उ १७, सु. १३३ आता है। १ विज्ज=विशेष प्रकार की साधना से जो सिद्ध की जाती है वह "विद्या' कही जाती है। २ मत-जाप करने से सिद्ध होने वाला 'मन्त्र' कहा जाता है। ३ जोग-वशीकरणादि के प्रयोग 'योग' कहे जाते हैं। Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ४०० -४०४ निमित्त कथन के प्रायश्वित सूत्र निमित्त वागरणस्स पायच्छित्त सुताई ४००. जे भिक्खू तीयं णिमितं वागरेह वागतं वा साइज्जइ । मागे वावज चाउमावि परिहारार्थ । . . . १३ . २१ जे भिक्यं निमित्तं वागरेड वागतं या साइज जे अणायं निमित्तं वागरेद्र वागतं वा साइज्जइ । तं सेवमा अणुभ्धाप्रयं । बोमावणरस पायति-सुताई ४०१. जे भिक्खू अप्पाणं योभावे खोभावतं वा साइज । जे भिक्खू परं यीभावे बीभाषेत पर साइनइ । परिहाराणं - नि. उ. १०, सु. ७-८ आषज्ज चाउम्मासिय चाउम्मासि सेवमाने आज चाउमावि परिहारार्ण अणुग्धा । - नि. उ. ११, सु. ६४-६५ विहायणस्स पायच्छित गुसाई४०२. मागं विग्हावेद विहाय वा साइ दहावे यासा तं सेवमाणे आवश्जद चान्मासि परिहार अणुग्याह । -नि. उ. ११, सु. ६६-६७ विपपरिया सणास पायसुताई१०३. जे भिक्खू अप्पानं विप्यरियासह विपपरिया संत वा साइजइ । जे भिक्खू परं विपरियासे विप्परिपातं वा साह | सं सेवमाणे आज अनु तं देवमागे वह नाउम्माथि परिहाराणं अणुस्वाइयं । -नि. ज. ११. सु. ६८-६६ अगतित्थिय पसंरकरणस्स पायच्छित सुत्तं४०४. जे भिक्खू मुवर्ण करेद्र करें या साइज् । चाम्पासिय परिहाराचं - नि. उ. ११, सु. ७० अनाचार [88'9 निमित्त कथन के प्रायश्चित्त सूत्र ४००. जो भिक्षू अन्यतोर्थिकों या गृहस्थों को भूत काल सम्बन्धी निमित्त बताता है या बताने वाले का अनुमोदन करता है । उसे उद्घातिक चातुर्मासिक परिहारस्थान ( प्रायश्चित्त) जाता है। जो भिक्षु वर्तमान का सम्बन्धी निमित्त कहता है, कहल जाता है या कहने वाले का अनुमोदन करता है। जो भिक्षु भविष्य काल सम्बन्धी निमित्त कहता है, कहल वाता है या कहने वाले का अनुमोदन करता है । उसे अनुद्घातिक चातुर्मासिक परिहारस्थान ( प्रायश्चित्त ) आता है। भयभीत करने के प्रायश्वित्त सूत्र ४०१. जो भिक्षु स्वयं को डराता है, डरवाता है या डराने वाले का अनुमोदन करता है । जो भिक्षु दूसरे को डराता है, इरवाता है या डराने वाले का अनुमोदन करता है । उसे अनुद्घातिक चातुर्मासिक परिहारस्थान ( प्रायश्चित्त) आता है । विस्मित करने के प्रायश्वित्त सूत्र ४०२. जो भिक्षु स्वयं को विस्मित करता है, विस्मित करवाता हैं या विस्मित करने वाले का अनुमोदन करता है । ओ भिक्षु दूसरे को विस्मित करता है, विस्मित करवाता है या विस्मित करने वाले का अनुमोदन करता है । उसे अनुद्घातिक चातुर्मासिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) जाता है । विपर्यासकरण प्रायश्चित ४०३. जो भिक्षु स्त्रयं को विपरीत बनाता है, विपरीत बनवाता या विपरीत बनाने वाले का अनुमोदन करता है। जो भदूसरे को विपरीत बनाता है, परीस बनवाता है यापरीत बनाने वाले का अनुमोदन करता है । उसे अनुद्घातिक चातुर्मासिक परिहारस्थान ( प्रायश्चित्त ) आता है । अन्यतीधिकों की प्रशंसा करने का प्रायश्चित्त सूत्र४०४. जो भिक्षु अन्य धर्म प्रवर्तकों को प्रशंसा करता है, करवाता है या करने वाले का अनुमोदन करता है। उसे अनुद्घातिक चातुर्मासिक परिहारस्थान ( प्रायश्चित्त ) बाता है। Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८] चरणानुपोग-२ स्वच्छवाधारी को प्रशंसा एवं वन्दना करने के प्रायश्चित्त सूत्र सूत्र ४०५-४०७ अहाछंद पसंसण पायपिछत्त-सत्ताई ४०५. ने मिक्खू अहार्छवं पसंसद पसंसंत वा साइन । स्वच्छन्दाचारी की प्रशंसा एवं वन्दना करने के प्रायश्चित्त सूत्र४०५. जो भिक्षु "यथा छन्द" (स्वच्छंदाचारी) की प्रशंसा करता है, करवाता है या करने वाले का अनुमोदन करता है। जो भिक्षु "पचा छन्द" को बन्दना करता है, करवाता है या करने वाले का अनुमोदन करता है। उसे अनुपातिक चातुर्मासिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) आता है। जे भिमबू महार्छवं बंद क्वंतं वा साइजद । तं सेबमागे आवस्जद चाउम्मासिय परिहारहाणं -नि. उ. ११, सू. ८२-८३ -नि. अणुग्धाइयं । माहारहाण संघ व्यवस्था संघ व्यवस्था-१ तित्थ सरूवं तीर्थ का स्वरूप४०६. ५०-तिस्थं भंते ! तित्यं, सित्वगरे तित्यं ? ४०६. प्र०-हे भगवन् ! "तीर्थ" को तीर्थ कहते हैं या तीर्थकर को तीर्थ कहते हैं। उ.-गोयमा ! अरहा ताव णियमं तित्यारे, २०-गौतम ! अरिहन्त तो अवश्य तीर्थकर हैं और चार तित्व पुण पासवण्णाले समणं संधे, संजहा- वर्णों से ज्याप्त श्रमण संघ तीर्थ है । यथा१. समणा, २. समगीओ, (१) श्रमण, (२) श्रमणी, ३. सावया, ४. सावियाओ। (३) श्रावक, (४) थाविका। --वि. स. २०,उ.८, सु. १४ तिस्थपवत्तण कालं तीर्थ प्रवर्तन का काल४०७. प.-जम्बुद्दीवे पं भंते ! बीवे मारहे वासे इमीसे ओसप्पि- ४०७.प्र.-भगवन् ! जम्बुद्वीप नामक द्वीप के भरत क्षेत्र में गीए देवाणुप्पियाण केवतियं कालं तिथे अणुसज्जि- इस अवसर्पिणी काल में आप देवानुप्रिय का तीर्थ कितने काल स्सति ? तक रहेगा? उ०--गोयमा ! जंबुद्दीवे वीवे मारहे वासे इमोसे बोसप्पि- उल-गौतम ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप के भरत क्षेत्र में इस णीए ममं एक्कवीस वाससहस्साई तित्थे अणुसज्जि- अवसर्पिणी काल में मेरा तीर्थ इक्कीस हजार वर्ष तक रहेगा । स्सति । -जहा णं मंते जंबुद्दीवे दीवे मारहे वासे इमीसे प्र०-भगवन् ! जिस प्रकार जम्बूद्वीप नामक द्वीप के भरत ओसप्पिणीए देवाणुपियाणं एक्कवीस बाससहस्साई क्षेत्र में इस अवसपिणी काल में आप देवानुप्रिय का तीर्थ इक्कीस तित्थे अणुसज्जिस्सति, तहा भते ! जंबुद्दीवे दीवे हजार वर्ष तक रहेगा। उसी प्रकार जम्बूद्वीप नामक द्वीप के भारहे वासे आगमेस्साणं चरिमतिस्थगरस्स केवतियं भरत क्षेत्र में भावी तीर्थंकरों में से अन्तिम तीर्थकर का तीर्थ काले तित्थे अगुसज्जिस्सति ? कितने काल तक अविच्छिन्न रहेगा? १ (क) वि. स. १६, उ. ६, सु. २१ (ख) पविहे संवे पण्णले, तं जहा(१) समणा, (२) समणीओ, (३) सावगा, (४) सावियाओ । -ठा. अ. ४, उ. ४, सु. ३६३ Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन के प्रकार संघ व्यवस्था [१९६ उ०-गोयमा ! जावतिए णं उसमस्स अरहमो कोसलियस उ.---गौतम ! कौशलदेशोत्पन्न ऋषभदेव बरहात का जिगपरियाए तावतियाई संखेन्नाई वासाई आग- जितना जिनपर्याय है उत्तने (एक हजार वर्ष कम एक लाख पूर्व) मेस्साणं चरिमतित्थररस्स तित्थे अणुसज्जिस्तति। वर्ष तक भावी तीर्थकरों में से अन्तिम तीर्थकर का तीर्थ रहेगा । -वि. स. २०, उ, ८, सु. १२-१३ जिणप्पगारा जिन के प्रकार४०८. तओं जिणा पण्णसा, तं जहा ४०८. जिन तीन प्रकार के कहे गये हैं-पथा-- १. ओहिणागजिणे, २. प्रणपज्जवणाणजिणे, (१) अवधिज्ञानी जिन, (२) मनःपर्यवज्ञामी जिन, ३. केवलणाण जिणे। -ठा. अ. ३, उ. ४, मु. २२० (३) केवलज्ञानी जिन ।। केवली-पगारा केवली के प्रकार४०६.समो केवली पणसा, तं जहा ४०६. केवली तीन प्रकार के कहे गये हैं, यथा१. ओहिणाण केवली, २. मणपज्जवणाण फेवली. (१) अवधिज्ञान केवली, (२) मनःपर्यवज्ञान केवली. ३.केवलणागपशी। -डा.ब . २२० ) केवलज्ञान केवली। अरिहन्तपगारा अरिहन्त के प्रकार४१.. सओ अरहा पण्णसा, तं जहा ४१०. अहंन्त तीन प्रकार के कहे गये हैं, यथा१. ओहिणाण अरहा, २. मणपजवणाण अरहा, (१) अवधिज्ञानी अर्हन्त, (२) मनःपर्यवज्ञानी महन्त ३. केवलणाण अरहा। -ठाणं. ब. ३, उ. ४. सु. २२० (३) केवलज्ञानी अहंन्त ।। रायणिय पुरिसप्पगारा रानिक पुरुषों के प्रकार४११. तो पुरिसज्जाया पग्णता, तं जहा ४११. पुरुष तीन प्रकार के कहे गये हैं; यथा-- १. गाणपुरिसे, २. सणपुरिसे, (१) शान पुरुष, (२) दर्शन पुरुष, ३. चरितपुरिसे। -ठाणं. अ. ३, उ. १, सु. १३७ (३) चारित्र पुरुष । रायणियिदप्पगारा रालिक इन्द्रों के प्रकार४१२. तओ हा पण्णता, तं जहा ४१२. इन्द्र तीन प्रकार के कहे गये हैं, यथा१.गाणिवे, (१) ज्ञानेन्द्र (विशिष्ट श्रुतज्ञानी या केवली), २. सणिवे, (२) दर्शनेन्द्र (क्षायिक सम्यग्दृष्टि), ३, बरितिवे। -ठाणं. अ. ३. उ. १, सु. १२७ (३) चारित्रन्द्र (यथाख्यात चारित्रवान् ।) थविरपगारा स्थविर के प्रकार४१३. तमो थेरमिओ पण्णताओ, तं जहा ४१३. स्थविर तीन प्रकार के कहे गये हैं, यथा१. जाइयेरे, २. सुथ-वेरे, (१) बय-स्थविर, (२) श्रुत-स्थविर, ३. परियाय-थेरे। (३) पर्याय-स्थविर। १. सट्टिबासजाए समणे निग्गये जाइ-थेरे। (१) साठ वर्ष की आयु वाले श्रमण-निर्ग्रन्थ षय स्थविर है । २. ठाण समवायांगधरे समणे निग्यपे सुप-बेरे। (२) स्थानांग ममवायांग के धारक श्रमण निन्य श्रुत स्थविर हैं। ३ बीसवासपरियाए समणे निगाथे परिवाय-घरे । (३) बीस वर्ष की दीक्षा पर्याय के धारक श्रमण निर्ग्रन्थ --बव. उ. १०, सु. १८ पर्याय स्थविर हैं । बस घेरा पापत्ता, तं जहा स्थविर दस प्रकार के होते हैं१. गाममेरा, २. नगरबेरा, (१) ग्रामस्थविर, (२) नगरस्थविर, उप Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २००] मरगानुयोग-२ महाबत धर्म के प्रकपक पुत्र ४१३-४१६ ३. रट्टरा, ४. पसस्पधेरा, (३) राष्ट्रस्थविर, (४) प्रशासक स्थविर, ५. कुलथेरा, ६, गणवेरा, (५) कुलस्थविर, (६) गणस्थविर, ७. संघर्यरा, ८. जातिषेरा, (७) संघस्थविर, (८) जातिस्थविर, ६. सुअपरा, १०. परियाययेरा। (९) श्रुतस्थविर, (१०) पर्यायस्थविर । –ठाणं. अ. १०, सु. ७६१ महश्चय-धम्म-परूयगा महावत धर्म के प्ररूपक४१४. ५.--एएसु ण मते ! पंचसु महाविवेहेसु अरहंसा मगवतो ४१४. प्र०-हे भगवन् ! पाँच महाविदेह क्षेत्र में अरिहन्त पंचमहत्वइयं सपडिक्कम धम्म पष्णवयंति ? भगवन्न पाँच महायत और सप्रतिक्रमण धर्म का उपदेश करते हैं ? उ०—णो इगट्टे समठे। उ०-हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। एएसु णं पंचसु मरहेसु, पंचा परसु, पुरस- पारदरत और पाच वह क्षेत्रों में प्रथम और अन्तिम ये पछिछमगा दुवे अरहंता भगवंतो पंचमहभ्याइयं सप- दो अरिहन्त भगवन्त पांच महावत और सप्रतिक्रमण धर्म का दिक्कमणं धम्म परुणवयंति । उपदेश करते हैं। अक्सेसा गं अरहंता भगवंतो चाउज्जामं धम्म पण- शेष अरिहन्त भगवन्त चार याम रूप धर्म का उपदेश करते वति । एएसु में पंचसु महाविदेहेसु बरहंता भगवंतो हैं और पांच महाविदेह क्षेत्र में भी अरिहन्त भगवान् चार याम चाउजाम धम्म पग्णवयंति । रूप धर्म का उपदेश करते हैं। -वि. स. २०, उ.८, सु. ६ दुग्गम-सुगमठाणाई दुर्गम-सुगम स्थान४१५. पंच ठाणाई पुरिम-पच्छिमगागं जिणाणं सुग्गम भवति, ४१५. प्रथम और अन्तिम तीर्थकर के शासन में पांच स्थान तं बहा दुर्गम होते हैं । वथा१. दुआइक्वं, (१) धर्मतत्व का कथन करना दुर्गम होता है। २.बुश्विमय, (२) तत्व का नय-विभाग से समझाना दुर्गम होता है। ३. दुपस्सं, (३) तत्व का युक्तिपूर्वक निर्देश करना दुर्गम होता है। ४. बुतितिक्वं. (४) उपसर्ग-परीषहादि का सहन करना दुर्गम होता है। ५. दुरगचरं । (५) धर्म का आचरण करना दुर्गम होता है। पंच ठाणाई मजिसमगाणं जिणाण सुगम भवति, त जहा .. मध्मवती (बाईस) तीर्थंकरों के शासन में पांच स्थान सुगम होते हैं, यथा१. सुआइक्वं, (१) धर्मतत्व का व्याख्यान करना सुगम होता है। २. सुविषजं, (२) तत्व का नय-विभाग से समझाना सुगम होता है। ३. सुपस्स, (३) तत्व का युक्ति पूर्वक निर्देश करना सुगम होता है । ४. सुतितिक्वं, (४) उपसर्ग-परीषहादि का सहन करना मुगम होता है। ५. सुरणुचरं । -ठाणं. अ, ५, उ.१, सु. ३६६ (५) धर्म का आचरण करना सुगम होता है। पंचविहा ववहारा पाँच प्रकार के व्यवहार४१६.प.-कविहे गं मंते ! ववहारे पपणते ? ४१६. T-भन्ते ! व्यवहार (दोषानुसार प्रापश्चित्त का निर्णय) कितने प्रकार का कहा गया है? .-गोयमा ! पंचविहे ववहारे पणते, तं जहा उ.-- गौतम ! व्यवहार पांच प्रकार का कहा गया है। यथा--- १. आगम, २. सुत, ३. आगा, (१) आगम, (२) श्रुत. (३) आज्ञा, ४. धारणा, ' जोए । (४) धारणा, (५) जीत। Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुशा के प्रकार संध पवस्था [२०१ १. जहा से सस्थ आगमे सिया, आगमेण वबहार (१) जहाँ आगम (केवलज्ञान धारक-यावत्-नपूर्व पटुबेजा। धारक) ज्ञानी हो यहाँ उनके निर्देशानुसार व्यवहार करें। २. णो से तत्य आगमे सिया, जहा से तस्य सुते (२) जहाँ आगम ज्ञानी न हों तो वहां श्रुत (जघन्य आचार सिया, मुएणं ववहार पट्टवेग्मा । प्रकल्प उत्कृष्ट नवपूर्व से कम के माता) ज्ञानी के निर्देशानुसार व्यवहार करें। ३. णो से तत्य सुए सिया, जहा से तस्य बाणा (३) जहाँ श्रुतशानी न हों तो वहां गीतार्थों की आज्ञानुसार सिया, आगाए ववहारं पटुवेना । व्यवहार करें। ४. णो से तत्य आगा सिया, जहा से तत्थ धारणा (४) जहां गीतार्यों की आज्ञा न हो तो वहाँ स्थबिरों की सिया, धारणाए ववहार पट्टवेज्जा। धारणानुसार व्यवहार करें। ५. णो से तत्व धारणा लिया, जहा से तस्थ जीए (५) जहाँ स्थविरों को धारणा ज्ञात न हो तो वहाँ सानु सिया, जीएग वबहारं पटुवेज्जा । मत परम्परानुसार व्यवहार करें। इच्छेहि पंचहि ववहारेहि ववहारं पट्टवेज्जा, तं जहा- इन पांच व्यवहारों के अनुसार व्यवहार करें ! १. आगमेनं, २. सुएणं, ३. आणाए, यथा--(१) आगम. (२) श्रुत, (३) आशा, ४. धारगाए. ५. जीएणं। (४) धारणा, (५) जीत। अहा जहा से आगमै, सुए, आणा, धारणा, जीए, आगमज्ञानी, श्रुतशानी, गीतार्य आशा, स्थविरों की धारणा लहा तहा यवहार पटुवेज्जा।। और परम्परा इन में से जिस समय जो उपलब्ध हो सस समय उसी से क्रमशः व्यवहार करें। प०-से किमाह भते? प्र०-भन्ते ! ऐसा क्यों कहा? उ.-आगमबलिया समणा निमांथा। उ०-धमण निर्गन्ध आममानुसार व्यवहार करने वाले इच्चेयं पंचविहं ववहार जया-जया, जहि-जहि, तपा- इन पांच प्रकार के व्यवहारों में से जब-जब जिस-जिस तया, तहि-तहिं अणिस्सिओवहिसय सम्म वबहरमाणे विषय में जो प्रमुख व्यबहार सपलब्ध हों तब-तब उस-उस विषय समणे निग्गये आगाए आराहए भवइ। में मध्यस्थ भाव से व्यवहार करने वाला श्रमण नियन्य जिनाशा -वि. स.८.२.८, सु. ८-६ का आराधक होता है। अणुण्णापगारा-- अनुशा के प्रकार४१७. तिविधा अण्णा पण्णसा. तं नहा ४१७. अनुज्ञा (आशा) तीन प्रकार की कही गई है, यत्रा१. आयरियताए, २. उवासस्यताए, (१) आचार्य की, (२) उपाध्याय की, ३. गणिसाए। -ठाणं. अ.३, उ. ३, सु.१५० (३) गणी की। समणुण्णा पयारा समनुज्ञा के प्रकार४१८. तिबिधा समषुण्णा पण्णसा, तं गहा-- ४१८. समनुज्ञा (विशेष आज्ञा) तीन प्रकार की कही गई है, यथा१. आयरिबत्तए. २. उवज्ञायत्ताए (१) भाचार्य की, (२) उपाध्याय की, ३. गगिताए। -ठाणं. अ. ३, उ. ३, सु. १५० (३) गणी की। उवसंपया पगारा उपसम्पदा के प्रकार४१६. सिविता उक्संपया पणत्ता, तं महा ४१६. उपसम्पदा (समीप रहना) तीन प्रकार की कही गई है, पथा १ (क) ठाणं. अ. ५. उ. २,सु. ४२१ (ख) वव. उ. १०, सु.५ Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२] चरणानुयोग-२ पदत्याग के प्रकार सूत्र ४१६-४२३ १. आयरियताए, २. उवायत्ताए, (१) आचार्य की, (२) उपाध्याय की, ३. गणित्ताए। ठाणं, अ, ३, उ. ३, सु. १८० (३) गणी की। विजणा पगारा पदत्याग के प्रकार४२०.तिविधा विजहणा पण्णता, तं जहा ४२०. पद का परित्याग तीन प्रकार का कहा गया है, यया१, आयरियताए, २. उवमायत्ताए, (१) आचार्य का, (२) उपाध्याय का, ३. गणिताए । -ठाणं.अ. ३... ३, सु. १८० (३) गणी का। सिविहा आयरक्खा तीन प्रकार से आत्म-रक्षा--. ४२१. तओ आपरक्षा परमत्ता, सं जहा ४२१. तीन प्रकार से आत्म-रक्षा हेती है, यथा-- १. धम्मियाए परिचोयणाए पडिचोएसा भवति, (१) अकरणीय कार्य में प्रवृत व्यक्ति को धार्मिक बुद्धि से प्रेरित करने से। २.तुसिनीए वा सिया। (२) प्रेरणा न देने की स्थिति में मौन धारण करने से। ३. उद्वित्ता वा आताए एगंतमवरक मेज्जा । (३) मौन और उपेक्षा न करने की स्थिति में वहाँ से उठठाणं. ब. ३, उ. ३, सु. १८० कर स्वयं एकान्त स्थान में चला जाने से । हरदसमो आयरियो जलाशय जैसे आचार्य -- ४२२. से बेमि, तं जहा ४२२. भगवान् ने आचार्य के गुणों का जैसा वर्णन किया वैसा मैं कहता हूँ। जैसेअखि हरए पविपुणे चिट्ठति समंसि भोमे उपसंतरए एक जलाशय जो जल से परिपूर्ण है, समभूभाग में स्थित सारक्खमाणे । से चिटुति सोतमन्मए । है, कीचड़ रहित है अनेक जलचर जीवों का संरक्षण करता हुआ स्रोत के मध्य में स्थित हैं। से पास सध्यतो गुत्ते । पास लोए महेमिणो । जे य पण्णाण- हे शिष्य तु देख कि ऐसे ही आचार्य भी अनेक सद्गुणों से मंता । पमुखा आरंभोवरता सम्ममेतं ति पासहा । कालस्स परिपूर्ण होते हैं तथा सर्व प्रकार से गुप्त होते हैं। हे शिष्य तू कंखाए परिवति । लोक में उन महर्षियों को देख ! जो उत्कृष्ट ज्ञानवान हैं, प्रबुद्ध -आ. सु १, अ. ५, 3. ५, सु. १६६ हैं और आरम्भ से विरत हैं । वे ही सम्यक आराधना करने वाले हैं और पण्डित मरण की आकांक्षा करते हुए संयन्त्र में विचरण करते हैं। जारियप्पगारा-- आचार्य के प्रकार ४२३. चत्तारि जायरिया पणत्ता, तं जहा ४२३. चार प्रकार के आचार्य कहे गए हैं, यथा१. पवाबणायरिए नामेगे, नोउवट्ठावगारिए, (१) कोई आचार्य (किसी एक शिष्य की अपेक्षा) प्रवज्य' देने वाले होते हैं किन्तु महाव्रतों का आरोपण करने वाले नहीं होते हैं। २. उवद्वावणायरिए नामेगे, नो पषावणापरिए, (२) कोई आचार्य महावतों का आरोपण करने वाले होते है किन्तु प्रवज्या देने वाले नहीं होते हैं। ३. एगे पम्पावणायरिए ति, उबट्टावणायरिए वि, (३) कोई आचार्य प्रवज्या देने वाले भी होते हैं और महा. व्रतों का आरोपण करने वाले भी होते हैं। ४. एगे नो पदबावमारिए, नोउपटावणायरिए-धम्मायरिए । (४) कोई आचार्य न प्रवज्या देने वाले होते हैं और न महा व्रतों का बारोपण करने वाले होते हैं। किन्तु केवल धर्मोपदेश देने वाले होते हैं। चत्सारि आयरिया पण्णता, सं महा चार प्रकार के प्राचार्य कहे गए है, यथा Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ४२३-४२१ १. उसावर नामगे, नो वाणारिए अंतेवासिस्स पगारा ४२४. सारि अंतेयासी पण्णत्ता, तं जहा- १ २. नामे नोउ सारिए ३. एये उचारिए थिए, ४. एगे नो उद्दसणायरिए तो वायगारिए-धम्मारिए । -- जय. उ. १०. सु. १४-१५ १.नामी, २. जवद्वावणंतेवासी नामेगे, नो पव्यावणंतेवासी, ५. एगे पाववासी विवि. ४. नवासी नरे उबवणंतेवासी, पम्मतेवासी। चारि अंतेवासी पष्णता, तं जहा १. उ सतवासी नामेने, नो वायतेवासी, २. वासामेगे, मी उई समवासी, ३. एगे उद्देसणंतवासी व वायवासी वि , शिष्य के प्रकार विविहा गणवेयावरच करा ४२५. बारि पुरिसजाया पसा जहा १. अटुकरे नाम एगे, नो भागकरे, २. मानकरे नाम एगे, नो अटुकरे. ३. एगे अनुकरे वि. माणक वि ४. एगे नो अद्रुकरे, नो माणकरे। ४. एगेनो उद्दे सणतेवासी, नो वायणंतेवासी, धम्मंतेवासी । - वव. अ. १०, सु. १६-१७ ठा. अ. ४, उ. सु. ३२० (2) कोई आचार्य देने की आज्ञा देने वाले होते हैं। (२) कोई आचार्य संघ व्यवस्था नहीं है । [२०३ (किसी एक शिष्य की अपेक्षा वाचना होते हैं, किन्तु वाचना देने वाले नहीं वाचता येते हासे होते हैं किन्तु वाचना देने की आज्ञा देने वाले नहीं होते हैं । (३) कोई आचार्य नाचना देने वाले भी होते हैं और वाचना देने की आज्ञा देने वाले भी होते हैं । (४) कोई आचार्य वाचना देने वाले भी नहीं होते हैं और वाचना देने की आज्ञा देने वाले भी नहीं होते हैं वे केवल धर्माचार्य होते हैं। शिष्य के प्रकार ४२४. अन्तेवासी (शिष्य) चार प्रकार के कहे गये हैं। जैसे( १ ) कोई प्रव्रज्या शिष्य है, परन्तु उपस्थापना शिव्य नहीं है। (२) कोई उपस्थापना शिष्य है, परन्तु प्रव्रज्या शिष्य नहीं है। (३) कोई प्रव्रज्या शिष्य भी है और उपस्थापना शिष्य भी है। (४) कोई न प्रव्रज्या शिष्य है और न उपस्थापना शिष्य है । किन्तु धर्मोपदेश से प्रतिबोधित शिष्य है । पुनः अन्तेवासी चार प्रकार के कहे गये हैं, जैसे(१) कोई उन अवासी है, परन्तु राना (२) कोई वाचना अन्तेवासी है परन्तु उद्देशन अन्तेवासी नहीं है। (३) कोई उमन अन्तेवासी भी है और वाचना-बन्तेवासी भी है। (४) कोई न उद्देशन अन्तेवासी है और न मानना अन्तेवामी है। बिन् धर्मोपदेश से प्रतिबोधितमिष्य है। विविध प्रकार के गण की वैयावृत्य करने वाले - ४२५. चार प्रकार के साधु पुरुष कहे गये हैं । जैसे— ( १ ) कोई साधु कार्य करता है किन्तु मान नहीं करता है । (२) कोई मान करता है किन्तु कार्य नहीं करता है। (३) कोई कार्य भी करता है और मान भी करता है । (४) कोई कार्य भी नहीं करता है और मान भी नहीं करता है । २ ठाणं. अ. ४, उ. ३, सु. ३२० Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ वरणामुयोग-२ विविध प्रकार के गण की वैयावृत्य करने वाले सूत्र ४२५ अत्तारि पुरिसजाया पणता, तं जहा (पुनः) चार प्रकार के (साधु) पुरुष कहे गये हैं । जैसे१. गणटुकरे नाम एगे, नो माणकरे, (१) कोई गण का काम करता है, परन्तु मान नहीं करता है। २. माणको नाम एगे, नो गणनुकरे, (२) कोई मान करता है, परन्तु गण का काम नहीं करता है। ३. एगे गगटुकरे वि, मागकरे वि, (३) कोई गण का काम भी करता है मौर मान भी करता है। ४. एगेनो गणटुकरे, नो मागकरे। (४) कोई न गण का काम करता है और न मान ही करता है। चत्तारि पुरिसजाया पणता, तं जहा (पुनः) चार प्रकार के (साधु) पुरुष कहे गये हैं। जैसे१. गणसंगहकरे नाम एगे, नो माणकरे, (१) कोई गण के लिए संग्रह करता है, परन्तु मान नहीं करता है। २. माणकरे नाम एगे, नो गगसंगहकरे, (२) कोई मान करता है, परन्तु गण के लिए संग्रह नहीं करता है। 1. ए गणसंगहकरे वि, माणकरे वि, (३) कोई गण के लिए संग्रह भी करता है और मान भी करता है। ४. एगे नो गणसंगहकरे, नो माणकरे । (४) कोई न गण के लिए संग्रह करता है और न मान ही करता है। पत्तारि पुरिसमाया पण्णता, तं जहा (पुनः) चार प्रकार के (साधु) पुरुष कहे गये हैं । जैसे१. गणसोहकरे नाम एगे, नो मागकरे, (१) कोई मण की शोभा करता है, किन्तु मान नहीं करता है। २. माणकरे नाम एगे, नो गगसोहकरे, (२) कोई मान करता है, किन्तु गण की शोभा नहीं करता है। ३. एगे गणसोहकरे वि, माणकरे कि, (३) कोई गण की शोभा भी करता है और मान भी करता है। ४. एगे नो गणतोहकरे, नो माणकरे । (४) कोई न गण की शोभा करता है और न मान ही करता है। बत्तारि पुरिसजाया पण्णता, तं जहा (पुनः) चार प्रकार के (साधु) पुरुष कहे गये हैं। जैसे१. गणसोहिकरे नाम एगे, नो माणकरे, (१) कोई गण की शुद्धि करता है, परन्तु मान नहीं करता है: २. माणकरे नाम एगे, नो गणसोहिकरे, (२) कोई मान करता है, परन्तु गण की शुद्धि नहीं करता है। ३. एगे गणसोहिकरे वि, माणकरे वि. (३) कोई गण की शुशि भी करता है और मान भी करता है। ४. एगे नो गगसोहिकरे, नो माणकरे । (४) कोई न गण फी शुद्धि करता है और न मान ही –यव. उ. १०, सु. ६-१० करता है। Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ४२६०४२७ आर्य आदि के अतिशय संघ-व्यवस्था [२०५ आचार्य के अतिशव-२ आयरियाइ अइसया आचार्य आदि के अतिशय४२६. आयरिय-बनायस गाँत सत्त आसेसा पग्णता, ४२६. गण में आचार्य और उपाध्याय के सात अतिशय कहे गये तंजहा - हैं, यथा१. आयरिय-उक्जमाए तो उपस्सयस्स पाए निगिन्निय- १) आचार्य और उपाध्याय उपाश्रय के अन्दर धूल से भरे निगिग्मिय पप्कोरेमाणे वा पमज्जेमाणे वा नाकमह। अपने पैरों को पकड़-पकड़ कर कपड़े से पोंछे या प्रमार्जन करे तो मर्यादा का उल्लंघन नहीं होता है। २. बरबरिय-उवमाए अंतो उबस्सयस उच्चार-पासवर्ग २) आचार्य ओर उपाध्याय उपाश्य के अन्दर मल-मूत्रादि विगिंघमाणे वा विसोहेमाणे वा नाइस्कमः । को त्यागे तथा शुदि करे तो मर्यादा का उल्लंघन नहीं होता है । ३. आयरिय-उवमाए पन इन्छा यावधियं करेजा, इन्छा (३) सशक्त आचार्य या उपाध्याय इच्छा हो तो किसी की जो करेजा। सेवा करे, इच्छा न हो तो न करे-फिर भी मर्यादा का उल्लंघन नहीं होता है। ४. आयरिय-उवाए अंतो वस्सयस एगरायं वा दुरायं (४) आचार्य और उपाध्याय उपाश्रम के अन्दर (किसी वा एगो बसमाणे नाहकमद । विशेष कारण से) यदि एक दो रात अकेले रहें तो भी मर्यादा का उल्लंघन नहीं होता है। ५. आयरिय-उवमाए माहि वयस्सयस्स एगरायं वा दुरायं (५) आचार्य और उपाध्याय उपाश्रय के बाहर (किसी पा एगो वसमाणे नाहकमाइ।' विशेष कारण से) यदि एक दो रात अकेले रहें तो भी मर्यादा का उल्लंघन नहीं होता है। ६, उपकरणातिसेसे। (६) बाचार्य और उपाध्याय अन्य साधुबों की अपेआ उज्ज्वल वस्त्र पात्रादि रखें तो मर्यादा का उल्लंघन नहीं होता है। ७. मत्तपाणालिसेसे। (७) आचार्य और उपाध्याय संविभाग किये बिना विशिष्ट - ठाणं. ७, सु. ५७० आहार करे तो मर्यादा का उल्लंघन नहीं होता है । गणावच्छे यस्स गं गणसि दो अइसेसा पण्णता, तं जहा- गण में गणावच्छेदक के दो अतिणय कहे गए हैं, यधा१. गणावकछोइए अंतो उबस्सयसस एगरायं वा दुरायं वा (१) गणाबछेदक उपाधय के अन्दर (किसी विशेष कारण एगो वसमागे नाहकमद । मे) यदि एक दो रात अकेले रहे तो मर्यादा का उल्लंघन नहीं होता है। २. गणावच्छेदए बाहि उवस्सयस्स एगरायं वा दुरायं वा (२) गणावच्छेदक उपाश्रय के बाहर (किसी विशेष कारण एगो बसमाणे नाइफमह । से) यदि एक दो रात अकेले रहे तो मर्यादा का उल्लंघन नहीं –वव. उ. ६, सु. ११ होता है। इढो पगारा ऋद्धि के प्रकार४२७. गणिही तिविहा पणत्ता, तं जहा ४२७. गणि-ऋद्धि तीन प्रकार की कही गई है, यथा--- १. गाणिबढी, (१) ज्ञान ऋद्धि-विशिष्ट श्रुत-सम्पदा । . २. यसगिटी, (२) दर्शन ऋद्धि-प्रभावशाली प्रवचनशक्ति आदि । ३. परिसिजदी। (३) चारित्र ऋषि- निरतियार चारित्र प्रतिपालना । १ (क) ठाणं. ब.५, उ. २, सु. ४३८ (त) ब.उ. ६, सु. १. Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६] वरणानुयोग-२ पणि सम्पदा सूत्र ४२७-४३१ अहवा--गणिवी तिविहा पण्णता, तं महा अथवा गणि-ऋद्धि तीन प्रकार की कही गई है, यथा१. सनित्ता, (१) सचित्त-ऋद्धि-शिष्य-परिवार आदि । २. अचित्ता, (२) अश्चित्त-ऋति-वस्त्र, पात्र, शास्त्र-संग्रहादि । ३. मीसिता। -ठाण. अ. ३, उ.४, सु. २१४ (३) मिभ-ऋठि--वस्त्र पात्रादि से युक्त शिष्य-परिवारादि । गणि संपया गणि सम्पदा४२८. अविहा गणि-संपया पण्णता, तं जहा ४२८. आठ प्रकार की गणि सम्पदा कही गई है। जैसे१. आयार-संपया, २. सुख-संपया, (१) आचारसम्पदा, (२) श्रुतसम्पदा ३. सरोर-संपया, ४. वयण-संपया, (३) शरीरसम्पदा, (४) वचनसम्पदा. ५. वापणा-संपया. ६. मह-संपया, (५) वाचनासम्पदा, (६) मतिसम्पदा, ७. पओग-संपया, ८.संगह-परिणा णाम अट्ठमा संपया।। (3) प्रयोगसम्पदा, (८) संग्रहपरिज्ञासम्पदा -~-काण. अ.८, सु. ६०१ आयार संपया आचार-सम्पदा४२६. ५०–से कि तं आयार-संपया ? ४२६. प्र. भगवन् ! वह आचारसम्पदा कितने प्रकार की है ? ज०-आयार-संपया चम्विहा पण्णसा, तं जहा - ३०---आचारसम्पदा चार प्रकार की कही गई है। जैसे - १. संजम-धुव-जोग-पुत्ते यावि भवा, (१) संयम क्रियाओं में ध्रुव योग युक्त होना। २. असंपग्गाहिय-अप्या, (२) अहंकार रहित होना। ३. अणियत वित्ती, (३) अप्रतिबद्ध विहार करना । ४. बड्ड-सोले यात्रि भवइ । (४) वृद्धों के समान गम्भीर स्वभाव वाला होना। से तं आयार संपया। -दसा. य. ४, सु.३ यह आचार सम्पदा है। सुयसंपया श्रुत-सम्पदा - ४३०. ५०-से कि तं सुय-संपया ? ४३०.३०-भगवन् ! श्रुतसम्पदा कितने प्रकार की है? उ०-सुय-संपया चरविवहा पण्णता, तं जहा उ.-श्रुनसम्पदा चार प्रकार की कही गई है। जैसे१. बहुस्सुए यावि भवइ, (१) अनेक शास्त्रों का ज्ञाता होना . २. परिचिय-सुए यावि भवई, (२) सूत्रार्थ मे भली-भांति परिचित होना। ३. विविस-सुए यावि भवइ, (३) स्व-समय और पर-समय का ज्ञाता होना । ४. घोस-विसुद्धिकारए पादि भवह । (४) शुद्ध उच्चारण करने वाला होना । से तं सुय-संपया। -सा. द. ४. सु. ४ यह श्रुत सम्पदा है। सरोर संपया शरीर-सम्पदा४६१. ५०...से कि तं सरीर संपया ? ४३१. प्र०-भगवन् ! शरीर सम्पदा कितने प्रकार की है ? उ.-सरीर-संपया चउम्बिहा पण्णत्ता, तं जहा-- उ. शरीर सम्पदा चार प्रकार की कही गई है। जैसे१. आरोह-परिणाह-संपन्ने पावि भवइ, (१) शरीर की लम्बाई-चौड़ाई का उचित प्रमाण होता। २. अणोतप्प-सरीरे यावि मवइ, (२) लज्जास्पद शरीर वाला न होना। ३. थिरसंघपणे यावि भवा (३) शरीर का संहनन सुदृढ़ होना। ४. बहुपतिपुषिदिए पावि भवइ । (४) सर्य इन्द्रियों का परिपूर्ण होता । से तं सरीर-संपया । -दसा... ४. सु.५ यह शरीर सम्पदा है। १ दसा द,, सु. १.२ Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्र ४.३२-४३४ वचन सम्पबर संघ-व्यवत्वा [२०७ वयण संपया४३२.५० सेकं तं बयण-संपया ? उ०-वयग-संपया चविहा पणता, तं जहा १. आवेय-बयणे यावि मत्रह, २. महर-ययगे यावि भनाइ ३. अणिस्लिय-वपणे यावि मवह, ४. अविश पावि भवद। से तं वयण-संपया। -दना. द. ४, सु. ६ बायणा संपया ४३३. १०-से कि तं वायणा-संपया ? जा-बायगा-पमा मसिहा पण मा.तं जहा १. विजयं उद्दिसा, २. विजयं वाएक ३. परिनिवाधियं वाएड, ४, अत्यनिज्जावए यावि भवा, वचन-सम्पदा४३२. ६०--भगवन् ! बचन सम्पदा कितने प्रकार की है? उ०-वचन सम्पदा चार प्रकार की कही गई है। जैसे(१) सर्वजन-आदरणीय वचन वाला होना । (२) मधुर वचन वाला होना । (३) राग-दोष रहित वचन वाला होना । (४) मन्देह-रहित वचन वाला होना । यह वचन-सम्पदा है। याचना सम्पदा४६३. प्र. भगवन् ! वाचना-सम्पदा कितने प्रकार की है। 30-वाचना सम्पदा चार प्रकार की कही गई है। जैसे---- (१) शिष्य की योग्यता का निश्चय करने वाला होना । (२) विचार पूर्वक अध्यापन कराने वाला होना । (३) योग्यतानुसार उपयुक्त पढ़ाने वाला होना। (४) अर्थ संगति पूर्वक नय-प्रमाण से अध्यापन कराने वाला होना। से तं वायणा संपया। -दसा. द. ४, सु.७ मइ संपया४३४. ५०-से कितं मइ-संपया? 7-मह-संपया चउभिषहा पणता, तं जहा १. जग्गह-मइ-संपया, २. ईहा-मह-संपया, ३. अवाय-मा-संपया, ४. धारणा-मह-संपया। प०-से कि तं उम्गह-मह-संपया ? उ.--.उम्मह-मह-संपया छविहा पाणसा, तं जहा यह वाचना सम्पदा है। मति-सम्पदा४३४. प्र०-भगवन् ! मति-सम्पदा कितने प्रकार की है ? उ०-मतिसम्पदा चार प्रकार की कही गई है। जैसे{१) अवग्रह-सामान्य रूप से अर्थ को जानना। (२) ईहा मतिसम्पदा-सामान्य रूप से जाने हुए अर्थ को विशेष रूप से जानने की इच्छा होना। (३) ईहित वस्तु का विशेष रूप से निश्चय करना । (४) शांत वस्तु का कालान्तर में स्मरण रखना। प्र०-भगवन् ! अबमह-मतिसम्पदा कितने प्रकार की है? उ०-अवग्रह-मत्तिसम्पदा छह प्रकार की कही गई है। जैसे (१) प्रश्न आदि को शीघ्र ग्रहण करना । (२) बहुत प्रपनों को ग्रहण करना । (३) अनेक प्रकार के प्रश्नों को ग्रहण करना । (४) निश्चित रूप से ग्रहण करना। (५) किसी के आधीन न. रहकर अपनी प्रतिभा से ग्रहण करना । (६) सन्देह रहित होकर ग्रहण करना। इसी प्रकार ईहा- मतिसम्पदा भी छह प्रकार की होती है। इसी प्रकार अवाय-मतिसम्परा भी छह प्रकार की होती है। प्र.-भगवन् ! धारण'-मतिसम्पदा कितने प्रकार की है? १. सिप्पं उगिहेड, २. बहुं उगिरहेछ, ३ बहुविहं उगिम्हेइ, ४. धुवं उगिण्हेइ, ५. अणिस्सिय उगिम्हे, ६, असंदिवं उगिरहेह। एवं ईहा-मई वि। एवं अवाय-मई वि। १०--से कि संघारणा-महसंपया। Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८] परमाणुयोग--२ प्रयोग-सम्पदा सूत्र ४३४-४३७ उ~धारणा-महसंपया छविहा पण्णता, तं जहा १. गहुं घरेह, २. विहं घरेड, ३. पोराणं धरेड, ४. दुसरं घर, ५. अणिस्सिय घरेड ६. असंविदं धरे। से सं मह-संपया। -दसा.द. ४ सु.-१२ पओग संपया४३५. ५० --से कितं पओग-संपया ? 30-पओग-संपया बउबिहा पण्णता, तं जहा १. आय विदाय वायं पउंजिअसा भवा २. परिसं विवाय वायं पउंजित्ता भवर, ३.खेत विवाय वायं पज्जित्ता भवइ, ४. पत्यु विवायं वायं पउंज्जित्ता भव, १०-धारणामतिसम्पदा छह प्रकार की कही गई है। जैस (१) बहुत अर्थों को धारण करना । (२) अनेक प्रकार के अर्थों को धारण करना। (३) पुरानी बात को धारण करना। (४) कठिन से कठिन बात को धारण करना । (५) अनुक्त अर्थ को अपनी प्रतिभा द्वारा धारण करना। (६) शाल अर्थ को सन्देह-रहित धारण करना । यह मतिसम्पदा है। प्रयोग-सम्पदा-... ४३५. प्र.-भगवन् ! प्रयोग-सम्पदा कितने प्रकार की है ? उ०—प्रयोग सम्पदा चार प्रकार की कही गई है। जैसे-- (१) अपनी शक्ति को जानकर वाद-विवाद करना । (२) परिषद् के भावों को जानकर वाद-विवाद करना । (३) क्षेत्र को जानकर वाद-विवाद करना। (४) वस्तु के (प्रतिपाय) विषय को जानकर वाद-विवाद करना। यह प्रयोग सम्पदा है। संग्रह-परिज्ञा-सम्पदा--- ४३६. प्रत - भगवन ! संग्रहपरिज्ञा नामक सम्पदा कितने प्रकार से त पयोग-संपया । -दसा. द. ४, सु १३ मंगह परिण्णा संपया-- ४३६. ५०-से कि तं संगह-परिष्णा जाम संपया? उ.. - संग्रह-परिणा णामं संपया चउम्विहा पण्णता, -संग्रहपरिशा नामक सम्पदा चार प्रकार की कही गई तं जहा--- है। जैसे१. बहुजण · पाउग्गयाए वासावासेसु खेत्तं पडिले- (१) वर्षावास में अनेक मुनिजनों के रहने योग्य क्षेत्र का हिता भवड, प्रतिलेखन करना। २. बहुमण-पाउग्गयाए पाहिहारिय-पीत-फलग- (२) अनेक मुनिजनों के लिए प्राप्तिहारिक-पीठ-पलक-शय्या सेज्जा संचारयं उग्गिरिहत्ता भवद । और संस्तारक ग्रहण करना। ३. कालेग कासं समायरित्ता भवड, (३) समयानुसार कार्य करना । ४. अहागुरु संपूएता भव । (४) गुरुजनों का यथायोग्य पूजा-सस्कार करना। से तं संगह-परिषणा णाम संपया । यह संग्रह परिज्ञा नामक सम्पदा है । -दसा. द. ४, सु.१४ सत्त संगह-असंगहाणा . सात संग्रह-असग्रह स्थान४३७. आयरिय-उवमायस्स जंगणसि सस संगहठाणा पण्णता, ४३. आचार्य तथा उपाध्याय के लिए गाण में सात संग्रह स्थान तं जहा कहे हैं । यथा१. आयरिय-उवाए गं गणसि आण या धारणं वा सम्म (१) आचार्य तथा उपाध्याय गण में आशा व धारण का जिता भवति, सम्यक् प्रयोग करते हैं। २. आयरिय-उवमाए पं गणं सि आधारातिणियाए किति (२) आचार्य तथा उपाध्याय गण में बड़े छोटे के क्रम से कम्म सम्म पउँजित्ता भवति, वन्दना का सम्यक् प्रयोग करते हैं। Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ४३७-४३८ आचार्य उपाध्याय पद योग्य निर्ग्रन्थ संघ-व्यवस्था [२०९ ३. आरिय-उचक्माए गणंसि जे सुत्तपज्जबजाते धारेति (३) आचार्य तथा उपाध्याय जिन-जिन सूत्र पर्यबजातों को ते काले काले सम्ममणुप्पयाइत्ता भवति । धारण करते हैं, उनकी उचित समय पर गण को सम्पन् बाचना देते है। ४. आयरिय-उबमाए णं गर्णसि गिलाणसेहवेयावाचं सम्भ- (४) आपायं तथा उपाध्याय गण के ग्लान तथा नवदीक्षित मम्मुट्टित्ता भवति । माधओं की मथोचित सेवा के लिए सतत जागरूक रहते हैं। ५. आयरिय-उबनाए गं गणंसि आपुच्छियचारी यावि (५) आचार्य तथा उपाध्याय गण को पूछकर अन्य प्रदेश में भवति, पो अणाणपुच्छियचारी। बिहार करते हैं, उन्हें पूछे बिना बिहार नहीं करते हैं। ६. आयरिय-उवमाए णं गणसि अणुप्पणाई उवगरणाई (६) आचार्य तथा उपाध्याय गण के लिए अनुपलब्ध उपसम्म उत्पाइसा भवति । करणों को यथाविधि उपलब्ध करते हैं। ७. आयरिय-उबज्माए गं गणसि पुम्बुप्पणाई अवकरणाई (s) आचार्य तथा उपाध्याय गण में प्राप्त उपकरणों का सम्म सारक्सेत्ता संगोविसा भवति, णो असम्म सारक्खेता सम्यक प्रकार से संरक्षण तथा संगोपन करते हैं, असम्यक प्रकार संगोवित्ता प्रयति । से संरक्षण और संगोपन नहीं करते हैं । आयरिय-उक्जमायस्स गं गणसि सत्त असंगठाणा पण्णता, आचार्य तथा उपाध्याय के लिए गण में सात असंग्रह स्थान तं जहा-- है, यथा१. आयरिय-उबज्माए गं गणसि आणं वा धारणं वा थो (१) आचार्य तथा उपाध्याम गण में आज्ञा व धारणा को सम्म पउंज्जित्ता भवति । सम्यक प्रयोग नहीं करते हैं । २. आयरिय-उज्शाए गं गर्णसि आधारातिणियाए किति- (२) आचार्य तथा उपाध्याय गण में यथारानिक कुतिकर्म कम्मं णो सम्म पउज्जित्ता मवति । का सम्यक् प्रयोग नहीं करते हैं। ३. आपरिय-उपमाए णं गणसि जे सुत्तएज्जवजाते धाति (३) आचार्य तथा उपाध्याय जिन-जिन सूत्र-पर्यवजातों को ते काले काले गो सम्ममणप्पवाहत्ता भवति । धारण करते हैं, उनकी उचित समय पर गण को सम्यक् वाचना नहीं देते हैं। ४. आरिय-उवमाए गं गणसि गिलाणसेहयावच्च णो (४) आचार्य तथा उपाध्याय ग्लान तथा नवदीक्षित साधुओं सम्मगमट्टिता भवति । की यथोचित सेवा के लिए सतत जागरूक नहीं रहते हैं। ५. आयरिय-उवाए गं गणसि अणापुच्छियचारी यावि (५) आचार्य तथा उपाध्याय गण को पूछे बिना अन्य प्रदेशों भवइ, गो अणाणपुच्छियचारी । में बिहार करते हैं, उसे पूछकर विहार नहीं करते हैं। ६. आयरिय-उवझाए गं गणसि अणुप्पणाई उवगरणाई (६) आचार्य तथा उपाध्याय गण के लिए अनुपलब्ध उपणो सम्म उप्पाइत्ता भवति । करणों को यथाविधि उपलब्ध नहीं करते हैं। ७. आपरिय-उवमाए गं गणसि पच्चुप्पण्णाण उवगरणागं (७) आचार्य तथा उपाध्याय गण में प्राप्त उपकरणों का णो सम्म सारक्खेता संगोवेत्ता, भवति । सम्यक् प्रकार से संरक्षण और संगोपन नहीं करते हैं । --ठाण. अ.७,मु. ५४४ RIN निर्ग्रन्थ पद-व्यवस्था-४ आयरिय उवमाय पदारिहा णिग्गंथा४३८, पंचवास परियाए समणे जिथे -- आयार-कुसले. सजम कुसले, पवयण-फुसले, एण्णत्ति कुसले, संगह-कुसले, उवग्गह-कुसले, आचार्य उपाध्याय पद योग्य निर्ग्रन्थ - ४३८. पाँच वर्ष की दीक्षा पर्याय वाला श्रमण निम्रन्थ . यदि आचारकुशल, संगमकुशल, प्रवचनकुशल, प्रज्ञप्तिकुशल, मंग्रहकुशल और उपग्रहकुशल हो । Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१०] वरणामुयोग-२ आचार्य उपाध्याय पद के अयोग्य निर्गन्य सूत्र ४३८-४३६ अवख्यायारे, अमिनायारे, असबलायारे, असं किलिट्ठायारे, अक्षत चारित्र वाला, अभित्र चारित्र बाला, अपाबल बहुस्सुए, बम्मागमे । चारित्र वाला और असंक्लिष्ट आचार वाला हो, बहुश्रुत एवं बहु आगमज्ञ हो, जहणणं वसा-काप-ववहारघरे, कप्पड आयरिय-उवनसाय एवं जघन्य दशा, कल्प एवं व्यवहार का धारक हो तो उसे साए उहिसित्तए। आचार्य या उपाध्याय पद देना कल्पता है। अटुवास-परियाए समणे निम्गथे-- आठ वर्ष की दीक्षा पर्याय वाला श्रमण निर्ग्रन्थआयारसमे, संजमकुसले, पवयणकुसले, पणत्तिकुमले, यदि आचारकुशल, संयमकुशल, प्रवचनकुशल, प्रज्ञप्तिकुशल, संगहकुसले, जवाहकुसले, अक्खयायारे, अभिन्नायारे, संग्रहकुशल और उपग्रहकुशल हो। अक्षप्त चारित्र बाला, अभिन्न असमलायारे, असंकिलिङ्कायारे, बहुस्सुए, वळमागमे, चारित्र दाला, अणबल चारित्र वाला और अफ्लिष्ट आचार वाला हो, बहुश्रुत एवं वहुआयमज्ञ हो, जहणणं ठाणं-समवाय-धरे, कप्पड आयरियलाए उज्झाय. एवं जघन्य स्थानांग-समवायांग का धारक हो तो उसे अचार्य साए गणावच्छेइयत्ताए उद्दिसित्तए। उपाध्याय और गणावच्छेदक पद दंना कल्पता है। निवपरियाए समणे निम्नथे कप्पद तहियसं वायरिय- निरुद्ध पर्याय बाला श्रमण नियन्थ जिस दिन दीक्षित हो उपक्षायत्ताए उद्दिसित्तए । उसी दिन उसे आचार्य या उपाध्याय पद देना कल्पता है। ५०--से किमान मंते !? प्र०-हे भगवन् ! ऐसा कहने का क्या कारण है? उ०-अस्थि गं राणं तहारूवाणि कुलाणि कहाणि, पति- ०-स्थविरों के द्वारा तथारूप से भावित प्रीति युक्त, पाणि, थेज्जाणि वेसासियाणि, सम्मयागि, सम्मुइ- स्थिर, विश्वस्त सम्मत, प्रमुदित, अनुमत और बहुमत अनेक कराणि, अणुमयाणि बहुमयाणि भवति । कुल होते हैं। तेहि कोहि, तेहि पत्तिरहि, तेहि बेज्जेहि, उन भावित प्रीतियुक्त स्थिर विश्वस्त मम्मत प्रमुदित, तेहिं वेसासिएहि, तेहि सम्मएहि, तेहि सम्मुइकरेहि, अनुमत और बहुमत कुल मे दीक्षित जो निरुद्ध पर्याय वाला तेहि अणमएहि, तेहि बमएहिं । श्रमण निर्गन्थ है उसे उसी दिन आचार्य या उपाध्याय पद देना जं से निवपरियाए समणे किग्गंधे, करूपता है। कप्पा आयरिय-उवमाथताए उहिसित्तए तहिवतं । -वव.उ. ३, सु.५,७,६ आयरिय उवमायपदाऽणरिहा णिग्गंथा आचार्य उपाध्याय पद के अयोग्य निग्रन्थ-- ४३९. सच्चेव से पंधवासपरियाए समर्ग निर्माथे-- ४३६. बह पांच बर्य की दीक्षा पर्याय वाला श्रमण निर्ग्रन्थ - मो आयार कुसले, नो संजम-कुसले, नो पवयग-कुसले, यदि आचार, संयम, प्रवचन, प्रजाप्ति, संग्रह और उपग्रह में नो एण्णत्ति-कुसले, नो संगह-कुसले, नो उपग्गह-कुसले, कुशल न हो तथा क्षत, भित्र, शवल और संक्लिष्ट आचार वाला बयायारे भिन्नाबारे, सबलायारे, हो, अल्पश्रुत और अल्प आगमज्ञ हो तो उसे आचार्य या उपासंकिसिद्वायारे, अप्पमुए, अप्पागमे, ध्याय पद देना नहीं कल्पता है। नो कप्पा आयरिय-उवमायत्ताए उहिसिलए। सच्चेष णं से अटुवासपरियाए समणे जिग्गंथे वह आठ वर्ष की दीक्षा पर्याय वाला श्रमण निन्थनो आयारकुसले, नो संजमफुसले, नो पक्षयणकुसले, यदि आचार, संयम, प्रवचन, प्रज्ञप्ति, संग्रह और उपग्रह में मो पतिकुसले, नो संगहकुसले, नो सवगहकुसले, कुशल न हो तथा क्षत, भिन्न, शबल और संक्लिष्ट आवार सवायारे, मिनायारे, सखलायारे, वाला हो, अल्पश्रुत और अल्प आगमज्ञ हो तो उसे प्राचार्य, संफिलिवामारचित्त, अप्पसुए, अप्पागमे, उपाध्याय और गणावच्छेदक पद देना नहीं कल्पता है । नो कप्पा आयरियताए, उवजमायताए, गणावच्छेइयत्ताए दिसित्तए। Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ४३६-४४१ एकपक्षीध भिक्षु को पत्र देने का विधाम संघ-व्यवस्था (२११ निस्वास परियाए समणे णिगंथे आचार्य के दिवंगत होने पर निरुव वर्ष पर्याय वाले श्रमण कप्पा आयरिय-उवग्मायलाए उद्दिसित्तए, समुच्छेयकप्यसि । को आचार्य या उपाध्याय पद देना कल्पता है। तस्स गं आयार-पकप्पस्ल देसे अट्टिए, उसके आचार प्रकल्प का कुछ अंश अध्ययन करना शेष हो से २ "वहिन्जिस्सामि" ति अहिज्जेज्जा, और वह अध्ययन पूर्ण करने का संकल्प रखकर पूर्ण कर ले तो एवं से करपड आयरिय-उवायत्ताए उद्दिसिसए । उसे प्राचार्य या उपाध्याय पद देना कल्पता है। से य "अहिन्जिस्सामि" ति नो अहिज्जेम्जा, किन्तु यदि वह शेष अध्ययन पूर्ण करने का संकल्प रखकर एवं से नो कप्पद आयरिय-उपजायत्साए उद्दिसित्तए । भी उसे पूर्ण न करे तो उसे आचार्य या उपाध्याय पद देना नहीं -वव. उ. ३, सु. ६, ८, १० कल्पता है । एगपक्खियस्स भिक्खुस्स पदद-रण विहाणं एकपक्षीय भिक्षु को पद देने का विधानwaसपक्खियरस मिक्खस्स कथ्या आयरिय-उबझापा ४४०. आचार्य या उपाध्याय के स्थान पर एक पक्षीय अर्थात सिरिय विसं वा, अणविस वा, उद्दिसितए वा, धारेतए एक ही आचार्य के पास दीक्षा और श्रुत ग्रहण करने वाले भिक्ष वा, जहा वा तस्स गणस्स पत्तियं सिया। को ही अल्पकाल के लिए अथवा यावज्जीवन के लिए भाचार्य -बब. उ. २, सु. २६ या उपाध्याय के पद पर स्थापित करना या उसे धारण करना कल्पता है । अथवा परिस्थितिवश गण का हित हो वैसे भी किया जा सकता है। गिलाण आयरियाइणा पद-दाण निद्देसो ग्लान आचार्यादि के द्वारा पद देने का निर्देश११. आयरिय-उपमाए गिलायमाणे अन्नयरं वएक्जा-"अम्जो! ४४१. रोगग्रस्त भाचार्य या उपाध्याय किसी प्रमुख साध से ममंसि णं कासगपसि समाणंसी अयं समुश्कसियो ।" कहे कि "हे आय ! मेरे कालगत होने पर अमुक साधु को मेरे पद पर स्थापित करना।" से य समुक्कसमारिहे समुक्कसियदे, यदि आचार्य निर्दिष्ट वह उस पद पर स्थापन करने योग्य हो तो उसे स्थापित करना चाहिए । से य नो समुश्कसणारिहे नो समुफ्फसियचे, यदि वह उस पद पर स्थापन करने योग्य न हो तो उसे स्थापित नहीं करना चाहिए। अस्यि य इत्य अन्ने केइ समुक्कसणारिहे से समुक्कसियो, यदि संघ में अन्य कोई साधु पद के योग्य हो तो उसे स्थापित करना चाहिए। नत्यि य इत्य अन्ने फेइ समुक्कसणारिहे से वेध यदि संघ में अन्य कोई भी साधु उस पद के योग्य न हो समुक्कसियवे, तो आचार्य निर्दिष्ट साधु को ही उस पद पर स्थापित करना चाहिए। तंसि च णं समुक्किठ्ठसि परो बएग्जा उस को उस पद पर स्थापित करने के बाद कोई गीतार्थ साधु कहे कि"वुस्समृक्किट्ठ ते अज्जो ! निक्सिवाहि !" "हे आर्य ! तुम इस पद के अयोग्य हो 1 अतः इस पद को तरतणं निविषवमाणस नरिथ के छेए वा परिहारे या। छोड़ दो"- (ऐमा कहने पर) यदि वह उस पद को छोड़ दे तो वह दीक्षा-छेद या परिहार प्रायश्चित्त का पात्र नहीं होता है। जे साहम्मिया अहाकप्येण नो उडाए विहरति सम्बेसि सि जो सामिक साधु कल्प के अनुसार उसे प्राचार्यादि पद तपत्तियं छए वा परिहारे बा , -बब. उ. ४, गु. १३ छोड़ने के लिए न कहे तो वे सभी साधर्मिक साधु उक्त कारण से दीक्षा-छेद या परिहार प्रायश्चित्त पात्र होते हैं। Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२] चरणानुयोग-२ संयम त्याग कर आने वाले आचार्यावि के द्वारा पद देने का निर्देश सूत्र ४४२-४४३ ओहायमाण-आयरियाइणा पद-दाण निद्देसो संयम त्याग कर जाने वाले आचार्यादि के द्वारा पद देने का निर्देश४४२. आयरिय-उचजमाए ओहायमाणे अन्नयर बएज्जा "बो! ४४२. संयम का परित्याग कर जाने वाले आचार्य या उपाध्याय ममंसि गं ओहावियंसि समासि अय सम्मकसियव्ये।" किसी प्रमुम्न साधु से कहे कि - "हे आर्य ! मेरे चले जाने पर अमुक साधु को मेरे पद पर स्थापित करना।" से य समुक्कसणारिहे समुफसियध्वे, यदि बाचार्य निर्दिष्ट वह साधु उस पद पर स्थापन करने योग्य हो तो उसे स्थापित करना चाहिए। से य नो बसपारिहे तो सपा समरहे। यदि वह उस पद पर स्थापन करने योग्य न हो तो उसे स्थापित नहीं करना चाहिए। अस्थि व इत्य अग्ने केइ समक्कसिणारिहे से सम्मकसिमब्वे । यदि संघ में अन्य कोई साधु उस पद के योग्य हो तो उसे स्थापित करना चाहिए। नस्थि य इत्य अन्ने केइ समुस्कसणारिहे से जेब समुक्क- पदि संघ में अन्य कोई भी साध उस पद के योग्य न हो तो लियब्वे। आचार्य निर्दिष्ट साधु को ही उस पद पर स्थापित करना चाहिए। तं सि च गं समुक्किट्ठसि परो वएज्जा--- उस को उस पद पर स्थापित करने के बाद यदि गीतार्थ साधु कहे कि"तुस्समुश्किळं ते अजो निविखवाहि।" "हे आर्य ! तुम इस पद के अयोग्य हो, अतः इस पद को तस्स णं निरिणवमाणस्स नस्थि के छए बा परिहारे वा। छोड़ दो" (ऐसा कहने पर) यदि वह उस पद को छोड़ दे तो वह दीक्षा-छेद मा परिहार प्रायश्चित का पात्र नहीं होता है। जे साहम्मिया बहाकप्पेषं मी उद्वार विहरति । जो साधर्मिक साघु कल्प के अनुसार उसे आचार्यादि पद सम्बेसि तेसिं तप्पसिय छए वा परिहारे वा। छोड़ने के लिए न कहें तो वे सभी सार्मिक साधु उक्त कारण से -यव. उ. ४, सु. १४ दीक्षा-छेद या परिहार प्रायश्चित्त के पात्र होते हैं। पावजीवी बहस्सुयाणं पब-निसेहो पाप जीवी बहुश्रुतों को पद देने का निषेध४४३. भिक्खू य बहुस्सुए बम्मागमे बटुसो बहु-आगाढा-गाडेसु ४४३. बहुश्रुत, बहुआगमश भिक्षु अनेक प्रगाढ़ कारणों में होने कारणेसु माई, मुसाबाई, असुई, पावजीवी, जावग्जीवाए पर यदि अनेक बार मावा पूर्वक मृषा बोले या पाप भनों से तस्स तप्यत्तिय नो कप्पा आपरियसं वा-जावाणावच्छेइ- अपवित्र आजीविका करे तो उसे उक्त कारणों से यावज्जीवन यत्तं वा उद्दिसिसए वा धारेत्तए था। आचार्य-यावत् - गणावच्छेदक पद देना या धारण करना नहीं कल्पता है । गणावच्छेदए बहुस्सुए भागमे बहुसो बहु-आगाठा-गाठेसु बहुश्रुत, बहुआगमज्ञ गणावच्छेदक अनेक प्रगाढ़ कारणों के कारणेमु माई, मुसाबाई, असुई, पावजीवो, जावजीबाए होने पर यदि अनेक बार माया पूर्वक मृषा बोले या पार श्रतों से तस तपत्तियं नो कप्पर आयरियत्तं वा-जाद-गणाबन्छ- अपवित्र आजीविका करे तो उस उक्त कारणों से यावज्जीवन पत्तं वा उद्दिसित्तए या धारेत्तए वा। आचार्य यावत् गणावच्छेदक पद देना या धारण करना नहीं कल्पता है। आयरिय-उबजमाए बटुस्सुए बम्मागमे बहुसो-यहु-आगाढा- बहुश्रुत, बहुआगमज्ञ आचार्य वा उपाध्याय अनेक प्रगाढ़ गाम कारणेसु माई, मुसाबाई, असुई, पायजीवो, जायज्जी- कारणों के होने पर यदि अनेक बार मायापूर्वक मृषा बोले या बाए तरस तप्पत्तिय नो कप्पद आयरियतं वा-जाव-गणाव. पापभुतों से आजीविका करे तो उसे उक्त कारगों से याबजजीवन च्छेदयत्तं वा उहिसित्तए वा धारेत्तए था। आचार्य - पावत् गणाबच्छेदक पद देना या धारण करना नहीं कल्पता है। बहवे भिक्षुणो बहुस्मुथा यम्भागमा बसो बहु-आगाढा- बहुश्रुत, बहुमागमज्ञ अनेकः भिक्ष अनेक प्रगाढ़ कारणों के Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ४३.४४४ आचार प्रकल्प विस्मृत को पद देने का विधि-निषेध संघ-व्यवस्था २१३ गाढेभु कारणेसु माई, सुसावाई, असुई, पावजीवी, जाव- होने पर पदि अनेक बार मायापूर्वक मृषा बोले या पापश्रतों से ज्जीवाए तेसि तप्पत्तियं नो कम्पइ आयरियत्तं वा-जाव. बाजीविका करे तो उन्हें उक्त कारणो से यावज्जीवन आचार्य गणावच्छेइयत्तं वा उद्दिसिसए वा धारेत्तए था। .-यावत्-पाणावच्छेदक पद देना या धारण करना नहीं कल्पता है। बहवे गणावच्छे इया बहुस्सुया, बम्मागमा, बहसो बहु- बहुश्रुत, बहुभागमज्ञ अनेक गणावच्छेदक अनेक प्रगाह आगाढा गाढेसु कारणेसु माई. मुसाबाई, असुई, पापजोषी, कारणों के होने पर पदि अनेक बार मायापूर्वक मृषा बोले या जावज्जीवाए सेसि तप्पत्तियं नो कप्पड आयरियतं या-जाव- पापश्रुतों से आजीविका करे तो उन्हें उक्त कारणों से यावज्जीवन गणापयत वा उदिसिसए चा धारेत्तए था। आचार्य-यावत्-गणावच्छेदक पद देना या धारण करना नही कल्पता है। बहवे आयरिय-उवमाया बहुस्सुया सम्भागमा बटुसो बहु- बहुश्रुत, बहुआगमन अनेक आचार्य या अनेक उपाध्याय आगाढा गाउँसु कारमेसु माई, मुसाबाई असुई, पापजीबी, अनेक प्रगाढ़ कारणों के होने पर यदि अनेक बार मायापूर्वक जावज्जीवाए तेसिं तप्पत्तिर्य मो कप्पर आयरियतं या-जाव- मृषा वोने या पापच तों से आजीविका करे तो उन्हें उक्त कारणों गणावइयत्त या उद्दिसिप्सए चा धारेतए था । से यावज्जीवन आचार्य-यावत् -गणावच्छेदक पद देना या धारण करना नहीं कल्पता है । बहवे भिक्खुणो, बहवे गणाबछेइया बहवे आयरिय-उव. बहुश्रुत, बहुआगमज अनेक भिक्षा अनेक गणावच्छेवक या माया बहुस्सुथा बम्भागमा अgसो बढ़-आगाढा गाढेतु अनेक आचार्य उपाध्याय अनेक प्रगाढ़ कारणों के होने पर यदि कारणेतु, माई, मुसाबाई, असुई, पापजोको, आवाजीपाए अनेक बार मायापूर्वक मृषा बोले या पापश्रुतों से आजीविका तेसि-तम्पत्तिय नो कप्पइ आयरियतं या-जाव गणावच्छेइयत्तं करे तो उन्हें उक्त कारणों से यावज्जीवन आचार्य-पावत् -- वा उद्दिसिसए वा धारेत्तए का। गणावच्छेदक पद देना या धारण करना नहीं कल्पता है। :-वब. उ. ३, सु. २३-२६ आयारकप्पपरिभट्रस्स पद वाण विहि-णिसेहो आचार प्रकल्प विस्मृत को पद देने का विधि-निषेध४४४. निर्गयस्स गं नव-हर-तरुणस्स आयारकप्पे नाम अमायणे ४४४. नव दीक्षित बास एवं तरुण निर्ग्रन्थ यदि आचारप्रकल्प परिभट्ट सिया, सेम पुच्छियो (निशीम आदि) का अध्ययन विस्मृत हो जाए तो उसे पूछना चाहिए कि--- केणं ते कारणेण अज्जो ! आयारपकम्पे नाम-अमायणे "हे आर्य ! तुम किस कारण से आधार प्रकल्प अध्ययन को परिम्भ?? कि आबाहेण उदाह पमाए ?" भूल गए हो क्या व्याधि से भले हो या प्रमाद से?" से य वएज्जा नो आबाहेणं, पमाएणं, जायजीव तस्स यदि वह कहे कि --"व्याधि से नहीं अपिनु प्रमाद से विस्मृत तप्पत्तियं नो कप्पई आयरियतं वा-जाब-गणावच्छेनयतं हमा" तो उसे उक्त कारण से जीवन पर्यन्त आचार्य-यावत्वा उद्दिसित्तए था धारेत्तए वा। गणावच्छेदक पद देना या धारण करना नहीं कल्पता है। से य वएज्जा-"आबाहेणं, नो यमाएणं, से य "संठवेस्सा- यदि वह कहे कि- "व्याधि से विस्मृत हुआ हूँ प्रमाद से मित्ति" संख्येन्जा एवं से कप्पर आयरितं वा-जाव- नहीं । अब मैं आचार प्रकल्प पुनः कण्ठस्थ कर लूंगा"--ऐसा गणावच्छेश्यसं या उद्दिसित्तए वा धारेत्तए वा । कहकर कण्ठस्थ कर ले तो उसे आचार्य-यावत-गणावच्छेदक पद देना या धारण करना कल्पता है। से पसंठवेसामि" तिनो संठवेज्जा, एवं से नो कम्पह यदि वह आचार प्रकल्प को पुनः कण्ठस्थ कर लेने का कह आयरियसं वा-जाब-गणावच्छेदयत्तं वा उद्दिसित्तए वा कर भी कण्ठस्थ न करे तो उसे आचार्य-यावत्-- गणावच्छेदक धारेत्तए वा। -वय, उ.५, मु. १५ पद देना या धारण करना नही कल्पता है। पेरा धेरभूमिपत्तागं आयार-पकप्पे नामं नाजायणे परि- स्थविरत्व प्राप्त स्थविर यदि आचार प्रकल्प अध्ययन विस्मृत भट्ठ सिया, कप्पड तेसिं संठवेसाणं वा, असंठवेसाणं था हो जाये और पुनः कण्ठस्थ करे या न करे तो भी उन्हें आचार्य आयरियस बा-जाय-गणावच्छेइयत्तं वा उहिसित्तए वा -पावत-गणावच्छेदकः पद देना या धारण करना कल्पता है। धारेत्तए वा। Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४] वरणानुयोग-२ अब्रासेवी को पद देने के विधि-निषेध सूत्र ४४४-४४५ थेराण थेरभूमिपत्ताणं आयार-पकरपे नाम अग्न्तयणे परि स्थविरत्व प्राप्त स्थविर यदि याचार प्रकल्प अध्ययन उमटू मिया कप्पह सेसि सनिसणाणं बा, संतुपट्टाणं वा, विस्मृत हो जाये तो उन्हें बैठे हुए, शयन किये हुए, अर्धशयन उत्तणयाण वा, पासिल्लयाण वा आयारपफप्पं नाम किये हुए या पार्श्वमा म गयन किये हुए को भी पुनः आचार अश्मयण दोच्चपि तच्चपि परिपुच्छित्तए वा, पडिसारे. प्रकल्प अध्ययन का दो-तीन बार पूछकर श्रवण करना और याद तए था। -वन.उ.५, सु. १७-15 करना कल्पता है । अबभसेवोणं पय-दाण विहि-णिसेहो अब्रह्मसेवी को पद देने के विधि-निषेध -. ४४५. भिक्यू य गणाओ अवक्कम मेहुण धम्म पडिसेबेज्जा, तिणि ४८५. यदि कोई भिक्षु गण को छोडकर मैचन--धर्म का प्रति संबछराणि लस्स तप्पत्तियं नो कप्पह आयरियत वा जाव- सेवन करे तो उसे उक्त कारण से तीन वर्ष पर्यन्त आचार्य गणावच्छेदयत्तं वा उदिसित्तए वा धारेसए वा । -यावत्-- गणावच्छेदक पद देना या धारण करना नहीं कल्पता है। लिहि संवरफरेहि वीइक्कतर घउत्यगंसि संबछारसि पांढ- तीन वा व्यतीत होने पर और चौथे वर्ष में प्रवेश करने पर सिठियस्स उवसंतस्स, उबरयस्स, पडिविरयम्स, निगिट- यदि वह बेदोदय से उपशान्त, मैथुन से निवृत्त, मैथुन सेवन से फारम्स एवं से कास्पद आयरियत्तं वा-जाव-गगावच्छोइयत्तं म्नानि प्राप्त और विषय-वासना रहित हो जाए तो उसे आचार्य या उद्दिसित्तए वा धारेत्तए वा। -यावत् - गणावच्छेदक पद देना या धारण करना कल्पता है। गणावच्छेदए गणापच्छेहयत्तं अनिक्खिविसा मेहुणधम्म पडि- यदि कोई गणावच्छेदक अपना पद छोड़े दिना मैथुन धर्म का सेवेम्जा, जायजीवाए तस्स तत्पत्तिय नो कप्पइ आपरिवत्तं प्रतिसबन करे तो उसे उक्त कारण से सावज्जीवन आचार्य-पावत्वा-जाव-गावच्छेदयत्तंबा, उहिसित्तए वा धारेतए वा। गणादिक पद देना या धारण करना नहीं कल्पता है। गणावच्छेदए गणावच्छेदयत्तं निक्लिविता मेहणधम्म पडि- यदि कोई गणावच्छेदक अपना पद छोड़कर मथुन धर्म का सेवेजा, तिषित संबच्छराणि तस्स तप्पत्तियं नो कप्प६ प्रतिसेवन करे तो उसे उक्त कारण से तीन वर्ष पर्यन्त आचार्य आयरियसं वा-जाव-गणावच्छोयतं वा उदिसित्तए वा धारे. -यावत् --गणावच्छेदक पद देना या धारण करना नही सए वा। कल्पता है। तिषि संबस्छरेहि बीइक्कतेहि चउत्यगंसि संवाछरंसि पटि- तीन वर्ष व्यतीत होने पर और चौथे वर्ष में प्रवेश करने पंसि ठियस्स उपसंतस्स, उवरयस्स पडिविरयस्स, लिब्धि. पर यदि वह उपशान्त, उपरत, प्रतिबिरत और निर्विकार हो गारस्स एवं से कप्पड आयरियतं बा-जाब-गणावच्छेदमत्तंबा जाए तो उसे आचार्य-यावत् -गणावच्छेदक पद देना या उहिसित्तए वा धारेतए वा। धारण करना कल्पता है। आयरिय-उबजाए आयरिय-उवसायसं अनिक्सिविता यदि कोई आचार्य या उपाध्याय अपने पद को छोड़े बिना मेहुणधम्म पडिसेवेज्जा, जावज्जीवाए तस्स अप्पत्तियं नो मधुन धर्म का प्रतिसेवन करे तो उसे उक्त कारण से यावज्जीवन कप्पद आयरियतं या-जावणावच्छेदयत्तं वा हिसित्तए आचार्य - पावन - गणावच्छेदक पद देना या धारण करना नहीं वा धारेत्तए वा। कल्पता है। आयरिय-उघडझाए आयरिय-उवमायत्त निक्विवित्ता मेहुण- यदि कोई आचार्य या उपाध्याय अपने पद को छोड़कर धम्म पजिसेवजा, तिमि संवच्छराणि तस्स तप्पत्तिय नो मैन धर्म का प्रतिसेवन करे तो उसे उक्त कारण से तीन वर्ष कप्पा आयरिश्तं वा-जाव-गगावच्छेइयतं वा उद्दिसित्तए पर्यन्त आचार्य--यावत्-गणावच्छेदक पद देना या धारण वा धारेत्तए वा। करना नहीं कल्पता है। तिहि संबच्छरेहि बोहरकतेहि चउत्थगंसि संवच्छरंलि पट्टि- तीन वर्ष व्यतीत होने पर और चौथे वर्ष में प्रवेश करने यंसि ठियस्म, उपसंतस्स, उबरयस्स, पतिविरयस्स, निवि. पर यदि वह उपशान्त, उपरत, प्रतिविरत और निर्विकार हो पारस्स, एवं से कप्पइ आयरियतं वा-जाव-गणावच्छेइयत्तं जाए तो उसे आचार्य -यावत्-गणाबच्छेदक पद देना या या उद्दिसित्तए वा धारेसए वा । -- वब, उ. ३, सु. १३-१७ धारण करना कल्पता है। अल्पकाल का दीक्षित साधु स्थविर को चार प्रकल्म अध्ययन का स्मरण कराए-इसकी "परिसारण" संज्ञा है और स्थविर द्वारा स्मरण करने की "प्रतिच्छन" संज्ञा है। Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ४४६-४४७ संयम त्याग कर जाने बालों को पत्र देने का विधि-निषेध संघ-व्यवस्था [२१५ ओहावियाणं पद-दाण विहि-णिसेहो संयम त्याग कर जाने वालों को पद देने का विधि-निषेध४४६. भिक्खु य गणाओ अबक्कम्म ओहाएज्जा, तिष्णि संघच्छ- ४४६. यदि कोई भिक्षु गण व संयम का परित्याग कर वेप को राणि तस्स तप्पत्तियं नो कप्पड़ जायरियत वा-जाव- गणा- छोड़कर चला जावे और बाद में पुनः दीक्षित हो जाए तो उसे वच्छेइयत्तं वा उद्दिसित्तए वा धाराए वा । उक्त कारण से तीन बर्ष पर्यन्त आचार्य -- यावत-गणावच्छेदक पद दे । या धारण करता नहीं कल्पता है । तिहिं संवच्छरेहि वीएक्कतेहिं चउत्थगंसि संवच्छरंसि पहि- तीन वर्ष व्यतीत होने पर और चौथे वर्ष में प्रवेश करने पर यंसि ठियस्स उक्स तस्स, उबरयस्स, पडिविरयम्स, निवि- यदि वह उपशान्त, उपरत, प्रतिविरत और निविकार हो जाए गारस्स एवं से कप्पड आयरियस्तं वा-जाबाणावच्छेइयत्तं तो उसे आचा-यावत् · गणावच्छेदक पद देना या धारणा था उद्दिसित्तए वा धारेशए वा।। करना कल्पता है। गणावच्छेदए गणावच्छोइयत्तं अनिक्लियित्ता मोहाएज्जा, यदि कोई गणावच्छेदक अपना पद छोड़े बिना संयम का जाबम्जीवाए तस्स तप्पत्तियं नो कप्पर आयरियत्तं वा-जाव- परित्याग कर चला जावे और बाद में पुन: दीक्षित हो जाये तो गणावग्छेदयत्तं वा उदिसित्तए वा धारेशए वा। उसे उक्त कारण से यावहीवन वाचार्य-यावत्-गणावच्छेदक पद देना या धारण करना नहीं कल्पता है। गणावच्छंइए गणावशेषहत्तं निक्खिविशा ओहागउजा, यदि कोई गणावचोदन अगना पद छोड़कर नया संवम का तिविण संवच्छराणि तरूस तप्पत्तियं नो कप्पद आयरियरी परित्याग कर चला जादे और बाद में पुनः दीक्षित हो जाए तो बा-जावनाणावच्छे इयत्तं या उद्दिसित्तए वा धारेत्तए था। उसे उक्त कारण से तीन वर्ष पर्यन्त आचार्य यावत् --गणाव मोदक पद देना या धारण करना नहीं कल्पता है। तिहिं संवचछरेहि वीहवकतेहि, चउस्थगंसि संबन्छ रंसि पट्रि- तीन वर्ष व्यतीत होने पर और चौथ नपं में प्रवेश करने पर पंसि व्यिस्स, वसंतस्स, उबरयस्स. पडिविरयस्म, निस्वि. यदि वह उपशान्त, उपरत, प्रतिविरत और निर्विकार हो जाए गारस्स एवं से कप्पा आयरिया बाजाब-गणापन्छेइया तो उसे आमर्य-यावत्-गणावच्छेदक पद देना या धारण बा उद्दिसितए वा धारेत्ता वा।। करना कल्पता है। अयरिय-विज्याए आयरिय-उवउहायतं अनिखिविता यदि कोई आचार्य या उपाध्याय अपना पद छोड़े बिना ओहाएजा, जाधज्जीवाए तस्स तप्पत्तियं नो कप्पड आय- संचन का परित्याग कर चला जावे और बाद में पुनः दीक्षित हो रियां वा-जात-गणावच्छेदयनरी बा उद्दिसित्तए वा धारेत्ताए जाए तो उसे उक्त कारण से यावज्जीवन आचार्य ---यावत . वा। गणावच्छेदक पद देना या धारण करना नहीं कल्पता है । आयरिय उवज्झाए मायरिय-उवमायतं निक्यिविशा ओहा- यदि कोई आचार्य या उपाध्याय अपना पद छोड़कर तथा एज्जा, तिरिण संवच्छराणि तस्स तपशिय नो कप्पा आय- संयम का परित्याग कर चला जावे और बाद में पुप. दीक्षित हो रियत वा-जाव-गणावच्छेदयता वा उद्दिसित्तए वा धारेत्तए जाए तो उसे उक्त कारण से तीन वर्ष पर्यन्त आचार्ग-यावत्-- गणावच्छेदका पद देना या धारण करना नहीं कल्पता है। तिहि संबच्छरेहिं वीइक्कतेहि उत्यगसि संबछरंसि पट्टि- नीन वर्ष व्यतीत होने पर और चौथे वर्ष में प्रवेश करने पर यंसि ठियस्स, उथसंतस्स, उवरयस्स. पटिबिरयस्स, निखि• यदि वह उपशान्त, उपरत, प्रतिविरत और निर्विकार हो जाई मारस्स एवं से कप्पर आयरियर्स वा-जाव-गणावमइयां तो उसे आचार्य - यावत्-गणापच्छेदक पद देना या धारण वा उद्दिसित्तए या धारेत्तए था। बब. न. ३, गु. १८-२२ करना पाल्पता है। उवज्झाय पद-दाण विहि-णिसेहो-. उपाध्याय पद देने के विधि-निषेध४४४. तिवासपरियाए समणे निगथे - ४४७. तीन वर्ष की दीक्षा पर्याय वाला श्रमण निग्रन्थआयारकुसले, संजमफुसले, पवयणकुसले, पणसिकुसले. यदि आचार, संयम, प्रवचन, प्राप्ति, संग्रह और उपग्रह संगनकुसले. उवग्नहकुसले. अक्त्रयायारे, अभिन्नामारे, करने में कुपाल हो तथा अक्षत. अभित्र, अजवल और अमक्लिष्ट असबलायारे, अमकिलिदायारे, बहुस्सुए बसमागमे, जहणं आचार वाला हो, बहुश्रुत एवं बहु भागमज हो और नघभ्य आयारपकम्प-धरे, कप्पइ उपजलायत्ताए अदिलिताए । आचार प्रकल्पधर हो तो उसे उपाध्याय पद देना कल्पना है। बा। Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६] चरणानुयोग-२ अनवस्थाप्य और पारांषिक मिनु की उपस्थापना सूत्र ४४७-४५० सच्चेव गं से तिवास परियाए समणे निगये-नो बायार- यह (तीन वर्ष की दीक्षा पर्याय वाला श्रमण निग्रन्थ) यदि कुसले, नो संजमकुसले, नो पवयणकुसले, नो पत्तिकुसले, आचार, संयम, प्रवचन, प्रज्ञप्ति, संग्रह और उपग्रह में कुशल न नो संगहकुसले, नो उवगह कुसले, खयापार, भिनायारे, हो तथा क्षत, भिन्न, शबल और संक्लिष्ट माचार वाला हो, सबलायारे, संफिसिाट्ठयारे, अप्पमुए, अप्पागले नो कम्पड़ अल्पश्रत एवं अल्प आगमज्ञ हो तो उसे उपाध्याय पद देना उमझायत्ताए उद्दिसित्तए। वब. ज ३, सु. ३-४ नहीं कल्पता है। अणषटप्प-पारंचिय-भिक्खस्स उपट्टावणा अनवस्थाप्य और पारांचिक भिक्ष की उपस्थापना४४८. अणवट्टप्पं मिल अगिहिभूयं नो कप्पइ तस्स गणावच्छेइयरस ४४८. अनवस्थाप्य नामफ नौवें प्रायश्चित्त के पात्र भिक्ष को उबट्टावित्तए। गृहस्थ वेष धारण कराए बिना पुनः संयम में उपस्थापन करना गणावच्छेदक को नहीं कल्पता है। अणवटुप्पं भिखं गिहिभूयं कप्पर तस्स गणावच्छंद्रयम्स अवस्थाप्य भिक्षु को गृहस्थ वेष धारण कराके पुनः संयम उबट्टावित्तए। में उपस्थापन करना गणात्रच्छेदक को कल्पता है। पारवियं भिक्खु अगिहिभूयं नो कप्पद तस्ल गणावच्छेइयस्स पारंचित नामक दगावे प्रायश्चित्त के पात्र भिक्षु को गृहस्थ उवट्ठा वित्तए। वेष धारण कराए बिना पुनः संयम में उपस्थापना करना गणा. बच्छेदक को नहीं कल्पता है । पारचिय भिम मिहिमूयं मार रस गमानित भिक्ष को नहस्थ वेष धारण कराके पुनः संयम में उबदाविश्तए। उपस्थापन करता गणावच्छेदक को कापता है। अगावटुप्पं मिण पारंघियं वा ,मिमखं अगिहिभूयं वा गिहि- अनवस्थाप्य भिक्षु को और पारंचित भिक्षु को (परिस्थितिभूयं वा, कप्पह तस्स गणावच्छे यस्स उबट्टावितए, जहा तस्स वश) गृहस्य का वेष धारण कराके या गृहस्थ का वेष धारण गणस्स पत्तियं सिया। -व. उ. २, मु. १५-२२ कराए बिना ही पुन. संयम में उपस्थापित करना गणावच्छेदक को कल्पता है जिससे कि गण का हित संभव हो । आयरिय अणिस्साए विहरण णिसेहो आचार्य के नेतृत्व के बिना विचरने का निषेध४४६. निग्गंधस्स गं नव-हर-तरुणस्स आयरिय-उवझाए वीस- ४४६. नवदीक्षित, बालक या तरुण निर्ग्रन्थ के आचार्य और भेजा । नो से कप्पद अणायरिय-उपजमाइए होत्तए। उपाध्याय की मृत्यु हो जाये तो उसे आचार्य और उपाध्याय के बिना रहना नहीं कल्पता है। कम्पद से पुन्य आयरियं उहिसावेत्ता तओ पच्छा उबज्माय । उसे पहले आचार्य की और बाद में उपाध्याय की निश्रा अधीनता स्वीकार करके ही रहना चाहिये । प० • से किमाहू मते ? प्र-है भगवन् ! ऐसा कहने का क्या कारण है ? ३०-दु-संगहिए समगे निग्गंथे, तं महा... उल-श्रमण निग्रंन्य दो के नेतृत्व में ही रहते हैं - १. आयरिएण, २. उपमाएण य । यथा-(१) आचार्य (२) उपाध्याय । --दव'. उ. ३. सु. ११ गणधारण अरिहा अणगारा गणधारण करने योग्य अणगार४५०. छहि ठाणेहि संपण्णे अणगारे अरिहति गणं धारिस्तए, ४५०. छह स्थानों से सम्पन्न अनगार गण को धारण करने में तं जहा-- समर्थ होता है, यथा१. सहती पुरिस जाते, २. सच्चे पुरिसमाते, (१) श्रद्धाशील पुरुष, (२) गत्यवादी पुरुष, ३. मेहाची पुरिसजाते, ४. बहुस्सुते पुरिसजाते, (३) मेधावी पुरुष, (४) बहुश्रुत पुरुष, ५. सत्तिम ६. अप्पाधिकरणे, (५) शक्तिशाली पुरुष, (६) कलहरहित पुरुष । - ठाणं. अ. ६, सु. ४७५ गणधारण विहि-णिसेहो मणधारण करने का विधि-निषेध४५१. भिखू य इम्छेज्जा गणं धारेत्तए, भगवंच से अपसिष्ठम्ने ४५१. यदि कोई भिक्षु गण को धारण करना (अग्रणी होना) एवं से नो काप गणं धारित्तए । पाहे ओर वह मूत्र शान आदि योग्यता से रहित हो तो उसे गणधारणा करना नहीं कल्पता है । . Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ४५१-४५२ अग्रणी के काल करने पर भिक्ष का कर्तव्य संघ-व्यवस्था [२१७ मगच से पलिछन्ने, यदि वह भिक्षु सूत्र ज्ञान आदि योग्यता से युक्त हो तो उसे एवं से कम्पह गणं धारेतए, गणधारण करना कल्पता है। भिक्खू य इच्छेज्जा गर्ष धारेत्तए, नो से कप्पा थेरे अणापु- यदि योग्य भिक्षु गणधारण करना चाहे तो उसे स्थविरों को मिछसा गणं धारेत्तए। पूछे बिना गणधारण करना करना नहीं कल्पता है । कप्पा से मेरे आगुन्छिसा गणं धारेत्तए । स्थविरों को पूछ करके ही गणधारण करना कल्पता है। थेरा य से वियरेज्जा, एवं से कम्पा गण धारेसए । यदि स्थविर अनुज्ञा प्रदान करें तो गणधारण करना कल्पता है। राम नो वियरेक्जा, एवं से नो कप्पड़ गणं धारेत्तए। यदि स्थविर अनुज्ञा प्रदान न करें तो गणधारण करना नहीं कल्पता है। जंग थेरेहिं अविइण्णं गणं धारेज्जा से सन्तरा छेए वा यदि स्थविरों की अनुज्ञा प्राप्त किये बिना ही गणधारण परिहारे वा। करता है तो वह उक्त कारण से दीक्षा छेद या परिहार प्रायश्चित्त जे साहम्मिया उडाए विहरति, नरिय ण तेसि के छेए या का पात्र होता है, किन्तु उसके साथ जो सामिक साधु विचरते परिहारे वा। -बब. उ. ३, सु १-२ हैं वे दीक्षा वेद या परिहार प्रायश्चित्त के पात्र नहीं होते हैं। गणं पमुहस्स कालगए समाणे भिक्खुस्स किसचाई- अग्रणी के काल करने पर भिक्षु का कर्तव्य - ४५२. गामागुगामं दूग्नमाणे भिक्खु जे पुरओ कटु विहरइ, से ४५.२. ग्रामानुग्राम विहार करता हुआ भिक्षु जिन को अपणी य आहच्च वीसं भेज्जा, अस्थि य हत्य अग्ने केह उपसंपज्ज- मानकर बिहार कर रहा हो उनके कालधमं प्राप्त होने पर शेष णारिहे से उपसंपज्जियवे । भिक्षुओं में जो भिक्षु योग्य हो उसे अग्रणी बनाना चाहिए। मथि य इस्थ अन्ने के उपसंपाजणारिहे तस्स अप्पणो यदि अन्य कोई भिक्षु अग्रणी होने योग्य न हो और स्वयं ने कप्याए असमते कापड से एगराइयाए पडिमाए जगणं अण्णं भी आचार प्रकल्प का अध्ययन पूर्ण न किया हो तो उसे मार्ग में विसं अन्ने साहमिया विहरति तं गं तं गं दिसं उवलितए। विश्राम के लिए एक एक रात्रि ठहरते हुए जिस दिशा में अन्य स्वधर्मी विचरते हों उस दिशा में जाना कल्पता है। नो से कप्पड़ तत्य विहारवत्तियं बस्थए। मार्ग में उसे विधरने के लक्ष्य से ठहरना नहीं कल्पता है। कप्पड़ से तस्य कारणलियं वत्थए । यदि रोगादि का कारण हो तो अधिक ठहरना कल्पता है । तसि च णं कारणसि निद्विमि परो वएपमा -- रोगादि के समाप्त होने पर यदि कोई कहे कि"बसाहि अज्जो! एगरायं वा दुराय या" एवं से कप्पह हे आये ! एक या दो रात और ठहरों" तो उसे एक या एगरायं वा तुरायं वा बत्यए । नो से कप्पइ परं एगरायाओ दो रात ठहरना कल्पता है किन्तु एक या दो रात से अधिक वा दुरायामो वा बस्थए । जे तत्ष एपराबाओ या बुरायाओ ठहरना नहीं कल्पता है। जो भिक्षु वहाँ (कारण समाप्त होने के वा परं बसद से संतरा छेए वा परिहारे वा । बाद) एक या दो रात से अधिक ठहरता है वह मर्यादा उल्लंघन के फारण दीक्षा छद या परिहार प्रायश्चित्त का पात्र होता है। वासावासं पज्जोसविओ भिक्खू यजं पुरओ कटु विहा वर्षावास में रहा हुआ मिन जिन को अग्रणी मानकर रह से य आहाच वीस भेजा अस्थि य इत्य आने केइ उपसंप रहा हो उनके कालधर्म प्राप्त होने पर शेष भिक्षुओं में जो जगारिहे से उबसंपज्जियन्ये । भिक्षु योग्य हो उसे बमणी बनाना चाहिए। नरिथ य इत्य अन्ने के उपसंपज्जणारिहे तस्स अप्पणो यदि अन्य कोई भिक्षु अग्रणी होने योग्य न हो और स्वयं ने कप्पाए असमत्ते कप्पाद से एगराइयाए पडिमाए जणं जगण भी निशीथ आदि का अध्ययन पूर्ण न किया हो तो उसे मार्ग में विसं अन्ने साहम्मिमा विहरति तं गं विसं उलितए। विश्राम के लिये एक एक रात्रि ठहरते हुए जिस दिशा में अन्य स्वधर्मी विचरते हों उस दिशा में जाना कल्पता है । नो से कप्पाइ तत्थ विहारवत्तियं वस्थए । मार्ग में उसे विचरने के लक्ष्य से ठहरना नहीं कल्पता है। कप्पड़ से तत्थ कारणवत्तिय वस्थए। यदि रोगादि का कारण हो नो अधिक ठहरना कल्पता है । तसिचणं कारणसि निदिसि परो वएज्जा रोगादि के ममाप्त होने पर यदि कोई कहे कि Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८] चरगामुयोग--२ गलान प्रतिनी के द्वारा पद देने का निर्देश सूत्र ४५२-४५४ "वसाहि यजो । एगरावं वा दुरायं वा" एवं से कप्पइ "आर्य ! एक या दो रात और ठहरो" तो उसे एक या एगरायं वा दरायं वा वस्वए। नो से कप्पा पर एगरायाओ दो रात और ठहरना कल्पता है। किन्तु एक या दो रात से वा दुरायाओ वा वत्पए। अधिक ठहरना नहीं कल्पता है। जो भिक्षु एक या दो रात से जे सत्य एगरायासी दा दुरायामो वा परं बसइ, से संतरा अधिक ठहरता है वह मर्यादा उल्लंघन के कारण दीक्षा छेद या छए वा परिहारे ना। -वव. उ. ४, सु. ११-१२ परिहार प्रायश्चित्त का पात्र होता है। निन्थी पद व्यवस्था-४ गिलाण पत्तिणिणा पद-वाण णिद्देसो ग्लान प्रतिनी के द्वारा पद देने का निर्देश--- ४५३. पवत्तिणी य रिलायमागी अन्नयरं वएपमा-"मए गं ४५३. रुग्णा प्रतिनी किसी प्रमुख साध्वी से कहे कि-"हे अउजे ! कालगयाए समाणीए इयं समुफ्फसियव्वा ।" आफै ! मेरे कालगत होने पर अमुक साध्वो को मेरे पद पर स्थापित करना ।" साय समुफसिणारिहा समुक्कलियम्वा । यदि प्रतिनी-निर्दिष्ट वह सात्री उस पद पर स्थापन करने योग्य हो तो उसे उस पद पर स्थापित करना चाहिए। सा य नो समुनकसिगारिहा नो समुस्ससिपम्चा । यदि वह उस पद पर स्थापन करने योग्य न हो तो उसे स्थापित नहीं करना चाहिए । अस्थि य हत्य भाषा काइ समुक्कसिणारिहा वा समुक्क- यदि समुदाय में अन्य कोई साध्वी उस पद के योग्य हो तो सियध्वा । उसे स्थापित करना चाहिए । नस्थि या इत्य अन्ना का समुक्कसिणारिहा सा चेव यदि समुदाय में अन्य कोई भी साध्वी उस पद के योग्य न समुक्फसियया । हो तो प्रवतिनी-निर्दिष्ट साध्त्री को ही उस पद पर स्थापित करना चाहिए। ताए चणं समुक्किट्ठाए परा वएग्जा-"दुस्समुक्किड़े ते उस को उस पद पर स्थापित करने के बाद कोई गीतार्थ अग्ने ! निविखवाहि" ताए में निक्विपमाणाए नास्थ केय साध्वी कहे कि-"हे मायें ! तुम इस पद के अयोग्य हो अनः छए का परिहारे वा। इस पद को छोड़ दो।" (ऐसा कहने पर) यदि वह उस पद को छोड़ दे तो यह दीक्षा छेद या परिहार प्रायश्चित्त की पाप नहीं होती है। जामो साहम्मिणीओ अहाकरपं नो उट्ठाए विहरति सम्बासि जो स्वमिणी साध्वियां कल्प के अनुसार उसे प्रवतिनी तासि तापत्तियं छेए वा परिहार वा। आदि पद छोड़ने के लिए न कहें तो वे सभी स्वधर्मिणी साध्वियाँ --वब. उ. ५, सु. १३ उक्त कारण से दीक्षा छेद या परिहार प्रायश्चित्त की पात्र होती हैं। ओहायमाणो पत्तिणिणा पद-दाण निद्देसो संयम परित्याग करने वाली प्रवर्तिनी द्वारा पद देने का निदेश४५४. पत्तिगीय ओहायमाणी अप्रयरंबएन्जा-"मएफ अग्जे! ४५४. संयम परित्याग कर जाने वाली प्रतिनी किसी प्रमुख मोहावियाए समाणीए इयं समुक्कसियम्वा ।" साध्वी से कहे कि "हे आयें ! मेरे चले जाने पर अमुक माध्वी को मेरे पद पर स्थापित करना।" Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४५४.४५६ निप्रन्यो के लिए आचार्य उपाध्याय पर योग्य निग्रन्थ संघ-पवस्था [२१६ सा य समुषकसिणारिहा समुपसियरवा, यदि वह साध्वी उस पद पर स्थापन करने योग्य हो तो उसे उस पद पर स्थापित करना चाहिए। सा प नो समुक्कसिगारिहा सो समुफ्फसियया । यदि वह उस पद पर स्थापित करने योग्य न हो तो उसे स्थापित नहीं करना चाहिए। अरिय य इत्य अन्ना काइ समुक्कसिणारिहा सा समुक्क- यदि समुदाय में अन्य कोई साध्वी उस पद के योग्य हो तो सियव्वा । उसे स्थापित करना चाहिए। नस्थि य इत्य अन्ना काइ समुषकसिणारिहा सा चेव यदि समुदाय में अन्य कोई भी साध्वी उस पद के योग्य न समुपकसियया । हो तो प्रवलिनी-निर्दिष्ट साध्वी को ही उस पद पर स्थापित करना चाहिए । ताए । समुक्किट्ठाए परा बएग्जा-"पुस्तमुक्किट्ठ ते उस को उस पद पर स्थापित करने के बाद कोई गीतार्थ अो । निविखवाहि ।" ताए णं निमिखवमागाए नस्थि केइ साध्वी कहे कि-"ह आर्य! तुम इस पद के अयोग्य हो अतः छेए वा परिहारे वा। इस पद को छोड़ दो" (ऐसा कहने पर) यदि वह उम पद को छाड़ दे तो बह दीक्षा-छेद का परिहार प्रायश्चित्त की पात्र नहीं होती है। आओ साहम्मिणीयो महाकप्पं नो उद्वार विहरति सम्वासि जो स्वधर्मिणी साध्वियां कल्प के अनुसार उसे प्रतिनी तासि तप्पत्तियं छेए वा परिहारे वा। आदि पद छोड़ने के लिए न कहें तो वे सभी स्वामणी साध्वियाँ -व. उ. ५, सु. १४ उक्त कारण से दीक्षा-छद या परिहार प्रायश्चित की पाष होती है। णिगंयोए आयरिय-उवज्झाय पवारिह लिग्गंथ निग्रन्थी के लिए आचार्य उपाध्याय पद योग्य निर्ग्रन्थ४५५. तिवासपरियाए समणे निगाथे तोसं यासपरियाए समणीए ४५५. तीस वर्ष की श्रमण पर्याय वाली गिग्रन्थियों को उपाध्याय निग्गंधीए कप्पड उवमायत्ताए उहिसित्तए। के रूप में तीन वर्ष के श्रमण पर्याय वाले निर्गन्ध को स्वीकार करना कल्पता है। पंचवासपरियाए समणे निग्गंथे सटिवासपरियाए समणीए साठ वर्ष की श्रमण पर्याय बाली निर्गन्धिनी को आचार्य या निगपीए कप्पाइ मायरिय-उबवायत्साए हिसित्तए। उपाध्याय के रूप में पांच वर्ष के श्रमण पर्याय वाले निग्रंथ को -वच. उ. ७, सु. १६-२० स्वीकार करना कल्पता है । आयार-पकप्प-पन्भटाए जिग्गंथोए पद-वाणं विहि-णिसेहो- आचार प्रकल्प विस्मृत निम्रन्थी को पद देने का विधि निबंध४५६. निग्गयीए-नव-इहर-तरणाए आयार-पकप्पे नार्म अन्सवणे ४५६. नवदीक्षित, बाल एवं तरुण निन्धी यदि आचार प्रकल्प परिस्मठे सिया, साय पुख्छियव्या अध्ययन विस्मृत हो जाये तो उसे पूछना चाहिए कि"कण भे कारणेणं अज्जे । आयार-पकप्पे नाम अज्मयणे "हे आर्य ! तुम किस कारण से आधारप्रकल्प अध्ययन भूल परिम्म? ? कि आबाहेणं उबाइपमाएणं ?" गई हो? क्या व्याधि से भूली हो या प्रमाद से ?" सा य वएन्जा "नो आबाहेणं, पमाएक" जावज्जीव तीसे यदि वह कहे कि मैं व्याधि से नहीं अपितु प्रमाद से विस्मृत तप्पत्तियं नो कप्पा पवत्तिणितं वा गगावच्छेहणितं वा हुई हूं- तो उसे उक्त कारण से जीवन पर्यन्त प्रतिनी या गणाउद्दिसित्तए वा, धारेत्तए बा। वच्छ दिनी पद देना या धारण करना नहीं कल्पता है। सा य पएग्जा-"आबाहेणं, नो पाएण"-सा य यदि वह कहे कि-"व्याधि से विस्मृत हुई है, प्रमाद से "संवेस्सामि" ति संठवेम्जा एवं से कप्पद पत्तिणितं वा नहीं अब मैं पुनः आवारमकल्प को कण्ठस्थ कर लूंगी"-ऐसा गणावच्छेइणितं वा उद्दिसिहए था, धारेतए वा । कहकर कण्ठस्थ करले तो उसे प्रवर्तिनी या गणावच्छे दिनी पद देना या धारण करना कल्पता है। Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२०] परगानुयोग-२ आचार्यादि के नेतृत्व के बिना निन्थी के रहने का निषेध सूत्र ४५६-४५० सा य "संठवेस्सामिति नो संठवेज्जा, एवं से नो कप्पड यदि वह आचारप्रकल्प को पुनः कण्ठस्थ कर लेने का कह पवत्तिणितं वा गणावच्छेइणित वा-उद्दिसित्तए या कर भी कपटस्थ न करे तो उसे प्रतिनी या गणाच्छादिनी पद धारेसए वा। -बब. उ. ५, सु. १६ देना या धारण करना नहीं कल्पता है। आयरियाइ अणिस्साए जिग्गंधीए विहार णिसेहो- आचार्यादि के नेतृत्व के बिना निर्ग्रन्थी के रहने का निषेध-- ४५७. निगंथीए णं नव-उहर-तरुणीए आयरिय-उषज्शाए, पव- ४५७. नवदीक्षिता, बालिका या तरुणी निम्रन्थी के आचार्य, त्तिणीय वीसं भेज्जा नो से कप्पह अणायरिय-उवज्झाइयाए उपाध्याय और प्रवर्तिनी की यदि मृत्यु हो जाये तो उसे आचार्य अपत्तिणियाए होसए। उपाध्याय और प्रवनिनी के बिना रहना नहीं कल्पता है। कप्पड़ से पुवं आयरियं उहिसावता तो उवायं तो उसे पहले आचार्य की, बाद में उपाध्याय की और बाद में पच्छा पत्तिण। प्रतिनी की निथा आधीनता स्वीकार करके ही रहना चाहिये। ५०-से किमाह मंसे ? प्र. - - हे भगवन् ! ऐसा कहने का क्या कारण है? उ०—ति-संगहिया समणी निगंथी, तं जहा उ.- श्रमणी निर्ग्रन्थी तीन के नेतृत्व में ही रहती है। १. आयरिएणं, २. उवजनाएणं, ३. पत्तिणीए । यथा---(१) आचार्य, (२) उपाध्याय, (३) प्रवतिनी। - बन. उ. ३, सु. १२ गण पमुहाए कालगयाए समाणीए णिग्गंथोए किसचाई- अग्रणी साध्वी के काल करने पर साध्वी का कर्तव्य४५८, गामाणुगाम दूइग्जमागी णिगंथी में जं पुरओ का ४५८. ग्रामानुग्राम बिहार करती हुई साध्वियां जिस को अग्रणी विहरई, सा य आहाथ वीसभेज्जा अत्यि य इत्य काइ अन्ना मानकर बिहार कर रही हों उनके कालधर्म प्राप्त होने पर शेष उपसंपाजणारिहा सा उपसंपम्मिपन्ना। साध्वियों में जो साध्वी योग्य हो उसे अग्रणी बनाना चाहिए। नरिथ य इस्य काह अन्ना उपसंपणारिहा लोप्ते य अपाणो यदि अन्य कोई साध्वी अग्रणी होने योग्य न हो और स्वयं कप्पाए असम एवं से कप्पड एगराइयाए पडिमाए अण्णं ने भी निशीय आदि का अध्ययन पूर्ण न किया हो तो उसे मार्ग जण्णं विसं अन्नाओ साहम्मिणीओ विहरति तणं तप में एक-एक रात्रि ठहरते हुए जिस दिशा में अन्य सामिणी विसं उवलित्तए। साध्यिा विचरती हों उस दिशा में जाना कल्पता है। नो से कप्पइ तत्य विहारवत्तिय बत्थए । मार्ग में उसे विचरने के लक्ष्य से ठहरना नहीं कल्पता है। कम्पइ से तस्य कारणवसिय वत्थए । यदि रोगादि का कारण हो सो ठहरना कल्पता है। तसि च गं कारणसि निट्टियंसि परो वएग्जा रोगादि के समाप्त होने पर यदि कोई कहे कि"वसाहि अजे! एगरायं वा दुरावं या" एवं से कप्पड हे आयें ! एक या दो रात और ठहरो" तो उन्हें एक या एगरायं वा दुरायं वा वस्थए । नो से कप्पट परं एगरायाओ दो रात और ठहरना कल्पता है। किन्तु एक या दो रात से बाबुरायामओ या बस्थए । जा तस्य एगरायाओ वा दुरा- अधिक रहरना नहीं कल्पता है जो साध्वी एक या दो रात से यामो वा परं वसइ सा सन्तरा छए वा परिहारे वा। अधिक ठहरती है वह मर्यादा उल्लंघन के कारण दीक्षा-छेद या परिहार प्रायश्चित्त की पात्र होती है। वासावासं पम्जोसविया निगथी यजं पुरमओ का विहर वर्षावास में रही हुई साध्वियां जिसको अग्रणी मानकर रह सा आहाच वीस भेज्जा, अस्थि य इत्थ काइ अधा उपसंप- रही हों उनके कालधर्म प्राप्त होने पर शेष साध्वियों में जो ज्जणारिहा सा उपसंपरिजयया । साध्वी योग्य हो उसे अग्रणी बनाना चाहिए। नस्थि य इत्य काह अन्ना उपसंपाजणारिहा तीसे य अप्पणो यदि अन्य कोई साध्वी अग्रणी होने योग्य न हो और स्वयं पाए असमते एवं से कप्पड एगराध्याए पडिमाए जष्णं ने भी आचार प्रकल्प का अध्ययन पूर्ण न किया हो तो उसे मार्ग जष्णं दिसं मनाओ साहम्मिणीओ विहरति तण्णं तण्णं विसं में एक-एक रात्रि ठहरते हुए जिस दिशा में अन्य सामिणी उपलितए। साध्वियां विचरती हों उस दिशा में जाना काल्पता है। नो से कप्पद तत्व विहारवत्तिय वस्थए । मार्ग में उसे विचरने के लक्ष्य से ठहरना नहीं कल्पता है। कप्पई से तत्य कारणवत्तिय वस्थए। यदि रोगादि का कारण हो तो ठहरना कल्पता है। Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ४५८-४६१ प्रवज्या पर्याय के अनुक्रम से बम्हना का विधान संघ-व्यवस्था (२२१ तसि च णं कारगंसि निष्टुिति परो बएग्जा--"वसाहि रोगादि के समाप्त होने पर यदि कोई कहे किअज्जे ! एगरायं वा दुरायं वा", एवं से कप्पड़ एगरायं वा हे आर्य ! एक या दो रात और ठहगे तो उसे एमा या दो दुरायं वा बत्थए । नो से कप्पड़ परं एगरायाओ वा दुरा- रात और ठहरना कल्पता है। किन्तु एक या दो रात से अधिक याओ वा बल्थए । जा तत्थ एगरायाओ वा दुरायाओ वा ठहरना नहीं कल्पता है । जो साध्वी एक या दो रात से अधिक पर वस सासंतरा छए मा परिहारे या।। ठहरती है वह मर्यादा उल्लंघन के कारण दीक्षा-फेद या परिहार --बर. अ ५, सु. ११.१२ प्रायश्चित की पात्र होती है। विनय-व्यवहार-५ पञ्चज्जा परियायाणुक्कमेण बंदणा विहाणो प्रवज्या पर्याय के अनुक्रम से बन्दना का विधान४५६. कापड निम्याण वा निग्गंधीग वा-महारायणियाए ४५६. निग्रन्थों और निग्रन्थियों को पारित्र पर्याय के क्रम से किडकम्मं करेलए। -कल्प, उ. ३, सु. २० वन्दन करना कल्पता है । सेहस्स राइणियस्स य बबहारा शैक्ष और रत्नाधिक का व्यवहार४६०. दो साहम्मिया एगयो विहरति, सं जहा-हे य, राइ- ४६७. दो सार्मिक भिक्षु एक साथ विचरते हों यथा- अल्प पिए य। दीक्षा पर्याय वाला और अधिक दीक्षा पर्याय वाला । तस्थ सेहतराए पलिच्छन्ने, राइणिए अपलि छन्ने । उनमें यदि अल्प दीक्षा पर्याय वाला श्रुत सम्पन्न तथा शिष्य सम्पन्न हो और अधिक दीक्षा पर्याय वाला श्रुत सम्पन्न तथा शिष्य सम्पन्न न हो। सेहसराएणं राइणिए उक्संपजियम्वे, मिसोबवायं च फिर भी अल्प दीक्षा पर्याय वाले को अधिक दीक्षा पर्याय इलय कप्पागं। बाले की विनय वैयावृत्य करना, आहार लाकर देना, समीप में रहना और अलग विचरने के लिए शिष्य देना आदि कर्तव्य पालन करना चाहिये। दो साहम्मिया एण्यओ विहरंति, तं जहा--सेहे ५, दो साधर्मिक भिक्षु एक साथ विचरते हों, यथा-अल्प राइणिए । दीक्षा पर्याय वाला और अधिक दीक्षा पर्याय बाला । तत्य राइणिए पलिच्छन्ने, मेहतराए थपलिस्छन्ने । उनमें यदि अधिक दीक्षा पर्याय बाला श्रुत सम्पन्न तथा शिष्य सम्पन्न हो और अल्प दीक्षा पर्याय वाला श्रुत सम्पन्न तथा शिप्य सम्पन्न न हो। इच्छा राणिए सेहतरागं उबसंपपनेजा, इपछा नो उपसंप- तो अधिक दीक्षा पर्याय वाला इच्छा हो तो अल्प वीक्षा म्जेम्जा, हम्छा भिक्सोवा बलेज्जा कापागं, इन्छा नो पर्याय वाले की वैयावृत्य करे इच्छा न हो तो न करे । इच्छा हो वलेज्जा कप्पा । -वव. उ. ४, सु. २४-२५ तो आहार लाकर दे इच्छा न हो तो न दे। इच्छा हो सो समीप में रखे इच्छा न हो तो न रखे। इच्छा हो तो अलग विचरने के लिये पिष्व दे इच्छा न हो तो न दे। राइणियं उबसंपज्जिता विहार विहाणं रलाधिक को अग्रणी मानकर विचरने का विधान४६१. दो भिक्खुणो एगपओ विहरति, नो णं कप्पइ अनमन्नं उष- ४६१. दो भिक्षु एक साथ विचरते हों तो उन्हें परस्पर एक दूसरे संपज्जिताणं विहरितए; को समान स्वीकार कर साथ में विचरना नहीं कल्पता है, कप्पडणं अहाराइणियाए अनमन्नं उपसंपग्जित्ताणं विह- किन्तु रत्नाधिक को अग्रणी स्वीकार कर साथ विधरना रिसए । कल्पता है। Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२] चरणानुयोग-... रत्नाधिक को अग्रणी मानकर विचरने का विधान सत्र ४६१ दो गगावच्छेहया एगयओ बिहरसि, नो में कप्पा अनमन्न दो गणावच्छेदक एक साथ विचरते हों तो उन्हें परस्पर उपसंपज्जित्ताणं विहरिसए. एक दूसरे को समान स्वीकार कर साथ में विचरना नहीं कल्पता है, काप आहाराइणियाए अनमन्न उपसंपग्जिसाणं विष्ट किन्सु रत्नाधिक को अग्रणी स्वीकार कर माथ विचरना रिसए। कल्पता है। यो आयरिय-उबजताया एगयओ विहरंति, नो कप्पड़ दो आचार्य या दो उपाध्याय एक साथ विचरते हों तो उन्हें अग्नमन्नं उपसंपतिमत्तागं विहरित्तए। परस्पर एक दूसरे को समान स्वीकार कर साथ विचरना नहीं कल्पता है। कर अनाराभिगाए अलमन्नं सक्षमपजिजसाणं विह- किन्तु रत्नाधिन को अग्रणी स्वीकार कर साथ विपरना रित्तए। कल्पता है। महवे मिक्खूणो एगयओ विहरंति, नोगं कप्पा अनमन्नं बहुत से भिक्षु एक साथ विचरते हों तो उन्हें परम्पर एक उपसंपजिजसाणं विश्रितए । दुसरे को ममान स्वीकार कर साथ विचरना नहीं कल्पता है, दुसर का ममान कप्पदणं अहाराइणियाए अन्नमरनं उथसंपजिसाणं विह- किन्तु रत्नाधिक को अग्रणी स्वीकार कर माय विचरना रिसए। कल्पता है। बहवे गणावपछेहया एगयो विहरति, नोपं कापा अनमन्न बहुत से गणावच्छेदक एक साथ विचरते हों तो उन्हें परजवसंपग्जिसा विहरिप्सए। स्पर एक दूसरे को समान स्वीकार कर साथ विचरना नहीं कल्पता है, कम्पच गं महाराणियाए अनमन्नं उपसंपज्जित्ताणं विह. किन्तु पलाधिक को अग्रणी स्वीकार कर साथ विचरना रित्तए। कल्पता है। बहावे आयरिय-उवमाया एगपओ विहरति, मोकप्पड़ बहुत से आचार्य या उपाध्याय एक साथ विचरते हों तो अनमग्नं उपसंपग्जितागं विहरित्तए। उन्हें परस्पर एक दूसरे को समान स्वीकार कर साथ विचरना नहीं कल्पता है, कम्पद पं अहाराइणियाए अनमन्न उवर्सपग्जित्ताणं बिह- किन्तु रत्नाधिक को अग्रणी स्वीकार कर विचरना रिसए। कल्पता है। बहवे मिगलूणो, यहवे गणापच्छे इ या, वहीं आयरिय-उर- बहुत से भिक्षु, बहुत से गणाबच्छेदक और बहुत से आचार्य माया एगयो विहरन्ति, नो गं कप्पा अन्नमग्न अवसंप- पा उपाध्याय एक माय विचरते हों तो उन्हें परस्पर एक दूसरे ज्जिसाणं विहरित्तए। को समान स्वीकार कर साय विचरना नहीं कल्पता है, कप्पा णं अहाराइणियाए अनमन्न उपसंपमित्ताणं बिह- किन्तु रत्नाधिक को अरणी स्वीकार कर रिमा रित्तए। -दव. उ. ४, सु. २६-३२ कल्पता है। Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रां४६२ प्रमण का अध्ययन कम संघ-व्यवस्था [२२३ AAAAAAAA अध्यापन-व्यवस्था-६ समणस्स अज्झयणकमो श्रमण का मध्यवन क्रम४६२. तिवास परियायस्स' समणस्स निम्गंधस्स कप्पह आयार- ४६२. तीन वर्ष की दीक्षापर्याय वाले (योग्य) श्रमण-निर्ग्रन्थ को पकप्पे नाम अन्सयले उहिसित्तए । आचार-प्रकल्प नामक अध्ययन पढ़ाना कल्पता है। पउवास-परियायरस सभणस्स गिग्गंथस्स कप्पड सूपगडे नाम पार वर्ष की दीक्षापर्याय वाले श्रमण-निर्ग्रन्थ को सुबकृतांग अंगे उद्दिसित्तए। नामक दूसरा अंग पढ़ाना कल्पता है। पंचवास-परियायस्स समणस्स मिथस्स कप्पह-इसाकप्प- पाँच वर्ष की दीक्षापर्याय वाले श्रमण-निर्ग्रन्थ को (१) दशा, ववहारे उद्दि सिराए। (२) कल्प, (३) व्यवहार सूत्र पढ़ाना कल्पता है। अट्ठवास-परियायस्त समणस्स णिगंथस्स कम्पइ ठाग- आठ वर्ष की दीक्षा पर्याय वाले श्रमण-निर्ग्रन्थ को स्थानांग समवाए उद्दिसित्तए। और ममवायांग सूत्र पढ़ाना कल्पता है। दसवास-परियायस्स समणस णिगंधस्स कप्पद वियाहे नामं दश वर्ष को दीक्षापर्याय वाले श्रमण-निर्ग्रन्थ को व्याख्या बंगे उहि सिसए। प्रज्ञप्ति नामक अंग पढ़ाना कल्पता है। एक्कारसवास परियायस्स समणस्स णिगंथस्स कम्पड खडिया ग्यारह वर्ष की दीक्षापर्याय वाले श्रमण-निर्ग्रन्थ को क्षलिका विमाण-पविनती, महल्लिया-विमाण-पविभत्तो, अंगलिया. विमान प्रविभक्ति, महल्लिका विमानप्रविभक्तिः, अंगलिका, वर्गवग्गलिया, वियाहलिया नाम अम्झयगे उद्दिसित्तए। चूलिया और व्याख्याचूलिका नाम का अध्ययन पत्राना कल्पता है। बारसवास परियायस्स समणस्स णिग्गंधस्स कप्पइ अरुणो बारह वर्ष की दीक्षापर्याय वाले श्रमण निर्ग्रन्थ को अरुणो. वबाए, गरुलोववाए. धरणोववाए, वरुणोववाए, वेसमणोव- पपात, गरुडोपपात, धरुणोपपात, वरणोपपात, वैश्रमणोपपात, वाए, वेलंधरोववाए नाम अम्मयणे चहिसिलए। वेलन्धरोपपात नामक अध्ययन पढ़ाना कल्पता है। सेरसवास-परियायत समगल्स णिमांथस्स कप्पइ उट्टाणसुए, तेरह वर्ष की दीक्षापर्याय वाले श्रमण-निर्ग्रन्थ को उत्थानसमुठ्ठाणसुए. देविवपरियावणिए, नागपरियायगिए नाम श्रुत, समुत्थान श्रुत, देवेन्द्रपरियापनिका और नागपरियापनिका अज्झयणे उदि सित्तए। नामक अध्ययन पढ़ाना पाल्पता है। चोद्दसवास-परियायस्स समणस्स णिग्गंथस्स कप्पा सुमिण- चौदह वर्ष की दीक्षापर्याय वाले श्रमण-निग्रंन्य को स्वनभावणा नाम अज्रयगे उद्दिसित्तए। भावना नामक अध्ययन पढ़ाना कल्पता है। पनरसवास-परियाघस्स समणस्स णिग्गंथस्स कप्पा चारण- पन्द्रह वर्ष की दीक्षापर्याय वाले श्रमण-निर्ग्रन्थ को चारणभावणा नाम अजायगे उहि सित्तए ! भावना नामक अध्ययन पड़ाना कल्पता है। सोलसवास-परियायल्स समगस्स णिगंयस्स कप्पह तेष- सोलह वर्ष की दीक्षापर्याय वाले श्रमण-निर्ग्रन्थ को तेजोपिसग्गे नाम अजायणे उहिसिलए। निसर्ग नामक अध्ययन पढ़ाना कल्पता है। सत्तरसवास-परियायस्स समणस गिग्गयस्स कप्पद मासी- सत्तरह वर्ष की दीक्षापर्याय वाले श्रमण-निर्ग्रन्थ को आसीविसमावणा पामं अभयगे उदिसित्तए। विष भावना नामक अध्ययन पढ़ाना कल्पता है । अठारसवास-परियायरस समणस्स निग्यस्स कप्पद विहि- बठारह वर्ष की दीक्षापर्याय वाले श्रमण-निग्रन्थ को दष्टिविसमावगा णार्म अज्झयणे उहि सित्तए । विष भावना नामक अध्ययन पढ़ाना कल्पता है। एगणवीसवास-परियायस्स समणस्स निबंथरस कप्पड़ दिदिठ- उन्नीस वर्ष की दीक्षापर्याय वाले धमण-निर्ग्रन्थ को दृष्टिवाए नाम अंगे उद्दिसित्तए। __ वाद नामक बारहवां अंग पढ़ाना कल्पता है। बीसवास परियाए समणे णिगंथे सम्बसुपागुवाई भवह। बीस वर्ष की दीक्षापर्याय वाला श्रमण-निर्मन्थ सर्वश्रुतानु - दन. उ. १०, सु. २४-३८ वादी हो जाता है। १ टाव. उ. ३, में तीन वर्ष की संयम पर्याय वाले उपाध्याय योग्य भिक्षु को बहुश्रुत बहु आगमज कहा तथा कम से कम आचार प्रकल्प धारण करने वाला कहा । अतः इस सूत्र का भावार्थ यह समझना योग्य है कि तीन वर्ष की दीक्षा पर्याय वाले माग्य शिष्य को कम से कम इसका बाचन करा देना चाहिए । Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४] वरणानुयोग-श आधार प्रकल्प के अध्ययन योग्य बय का विधि-निषेध सूत्र ४६३-४६४ आयारपकप्पस्स अज्झयण जोग्गो वओ आचार प्रकल्प के अध्ययन योग्य वय का विधि निषेध४६३ नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंधीण वा खुपस्स वा स्वृद्धि- ४६३. अध्यंजनजात (अप्राप्त यौवन) बाल भिक्षु या भिक्षुणी को याए वा अवंजगजायस्स आयारपकप्पे णामं अजमय रहि- आचारप्रकल्प नामक अध्ययन पढ़ाना निर्ग्रन्थ और निग्रंथियों को सित्तए। नहीं कल्पता है। प्पद निगंयाण वा निगाण था खास था खुड्डियाए विन्तु यौवन प्राप्त भिन्न-भिक्षुणी को चार-प्रकल्प नामक वा बंजणजायस आधारपकप्पे णाम अजमणे उदिमित्तए। अध्ययन पढ़ाना निग्रन्थ और निन्थियों को कल्पता है । -बब. उ. १०, सु. २२-२३ विवरण-व्यवस्था-७ आयरियाई सह णिग्गंयाण संस्था आचार्यादि के साथ रहने वाले निर्ग्रन्थों की संख्या४६ ४. मो कप्पड आयरिय-उवमायल्स एमाणियस्स हेमन्त-गिम्हासु ४६४. हेमन्त और श्रीष्म ऋतु में आचार्य या उपाध्याय को चारए। अकेला विहार करना नहीं कल्पता है ।। कप्पर आयरिय-उवनायस्स अपविद्धयस्स हेमन्त-गिम्हासु किन्तु हेमन्त और ग्रीष्म ऋतु में आचार्य या उपाध्याय को पारए। एक साधु साथ लेकर विहार करता कल्पता है । मो कप्पड़ गणावच्छेहयस्स अप्पविइयस्स हेमन्त-गिम्हासु हेमन्त और ग्रीष्म ऋतु में गणावच्छेदक को एक ही साधु धारए। के साथ विहार करना नहीं कल्पता है। कप्पइ गणावच्छोइ यस्स अप्पतइयरस हेमन्त-गिम्हासु चारए। किन्तु हेमन्त और नीष्म ऋतु में गणावच्छेदक को दो अन्य साधु को साथ लेकर विहार करना कल्पता है। नो कप्पा आयरिय उवमायस्स अप्पश्चिइयरस थासावासं वर्षाकाल में आचार्य या उपाध्याय को एक साव के साथ यस्थए। रहना नहीं कल्पता है। कापड आयरिय-उवमायस्स अप्पतह यस्स वासावास बस्थए। किन्तु वर्षा काल में आचार्य या उपाध्याय को अन्य दो साधुओं के साथ रहना कल्पता है ।। नो कप्पद गणावच इयस्स अप्पतयस्स वासावासं पत्थए। वर्षाकाल में गणावच्छेदक को दो साधुवों के साथ रहना नहीं कल्पता है। कप्पद गणावच्छ इयत्स अपचउत्थस्स वासावास जत्थए। किन्तु वर्षाकाल में गणावच्छेदक को अन्य तीन साधुओं के माथ रहना कल्पता है। से गामसि वा-जाद-रायहाणिसि वा-बहूर्ण आयरिय-उज्मा- हेमन्त और ग्रीष्म ऋतु में अनेक आचार्य या उपाध्यायों को याणं अपबियाणं, वहण गणायचछइयाण अप्पतइयाणं ग्राम-पावत्-- राजधानी में अपनी-अपनी मेश्राय में एक-एक कप्पद हेमंत-गिम्हासु चारए अनमन्नं निस्साए । साधु के साथ और अनेक गणावच्छेदकों को दो-दो साधुओं के साथ रहकर विहार करना कल्पता है । से गामंसि या-जाद-रायणिसि घा, महूर्ण आयरिय-उव- वर्षा ऋतु में अनेक आवार्य या उपाध्यायों को ग्राम-यावत्मायाणं अस्पसहयाणं बरणं गणावसायाणं आपचउस्थाणं राजधानी में अपनी-अपनी नेत्राय में तीन-तीन साधुओं के साथ कण वासावास वस्पए अन्नमम्न निस्साए। और अनेक गणावच्छेदकों को चार-चार साधुओं के साथ रहना --वन. उ. ३, सु. १-१. कल्पता है। Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूष ४६५-४६७. प्रतिम आदि के साथ विचरने वाली निधियों की संख्या www पवतिथि आईनं सहविहरमाणी थियो संखा सेनापतियोगं अध्यचस्मा, वह गगावच्छ होणं अध्य-पंचमार्ग कप वासावास दर अ संघ व्यवस्था प्रवर्तिनी आदि के साथ विचरने वाली निर्ग्रन्थियों की संख्या ४६५. नो कप्पइ पवत्तिणीए अप्प बिइयाए हेमंत हा भारए । ४६५. हेमन्त और ग्रीष्म ऋतु में प्रवर्तिनी साध्वी को एक अन्य गाव को साथ लेकर विहार करना नहीं कल्पता है । कम्प पतिगए अप्प तयार हेमंत हा चारए । तो कम्प गणाची अध्य-तरवाए हेमंतनिहा किन्तु हेमन्त और ग्रीष्म ऋतु में प्रति को अन्य दो रावी साथ लेकर विहार करना कल्पता है । हेमन्त और ग्रीष्म ऋतु में गणावच्छे दिनी को अन्य दो साध्वी साथ लेकर विहार करना नहीं कल्पता है । चार eers गणावच्छे इणीए अव्यवस्थाए हेमंत गिम्हासु चारए । किन्तु हेमस्त और ग्रीष्म ऋतु में गणावच्छे दिनी को अन्य तीन साध्वी साथ लेकर विहार करना कल्पता है । नो कप पवत्तिणीए अप्प-तइयाए वासावासं जत्थए । are में प्रवर्तिनी को अन्य दो साध्वियों के साथ रहना नहीं कार है। कपइ पर्यात्तिणीए अप्प च उत्याए वासावासं वत्थए । feng वर्षावाम में पतनी को अन्य तीन साध्वियों के साथ रहना कल्पना है। तो कप्पड़ गणावच्छ इणीए अप्प चउत्थाए वासावासं वत्थए । Safare में गणाच्छेदिनी को अन्य तीन साध्वियों के साथ रहना नहीं कल्पता है। कप्पर गणाच्छो हणीए अन्य पंचमाए वासावासं वत्थए । सेनामा हावा पतीगंधतयाणं, बहूणं गणायच्छेपोर्ण अध्ययउत्थानं कप्पर हेमंत महालु चारए अन्नं नाए। किन्तु वर्षावास में गणावच्छ दिनी को अन्य चार साध्वियों के साथ रहना कलाता है । हेम और में अनेक दिन को ग्राम यावत्राजधानी में अपनी-अपनी निश्रा में दो-दो अन्य साध्वियों के साय और अनेक गणावच्छे दिनी को तीन-तीन अन्य साध्वियों के साथ रहकर विहार करता कलाता है । वर्षावास में अनेक प्रवर्तन साध्वियों को ग्राम पावत् राजधानी में अपनी अपनी नेवा में तीन सीन बन्य बाध्वियों के साथ और अनेक गणावच्छे दिनी साध्वियों को चार-चार अन्य - उ. ५, सु. १-१० साध्वियों के साथ रहना कल्पता है । अकेलो नियन्थी को जाने का निषेध — नो sure निम्गंधीए एगाजियाए बहिया वियारभूमि वा बिहारभूमिका वा परिवा नो रुप निम्चीए एगणियाए-वामानामं वि वासावास वा वत्थए । - कप्प. . ६, सु. १६-१८ णिग्गंध विग्गंधीण बिहार बेस मेरा४१७. कप्पद निरगंधाण या निमगंीण वा पुरत्थमेणं जाव- अंगमगहाओ एसए. कोलम्बो एसए पत्थिमे जाय-पूणाविसयाओ एसए [२२५ गाथियाए निधीए नमण थिसेहो ४६६. निबंधोए एवाशियाए ग्राहाकुलं पिण्डवा ४६६. अकेली निधी को आहार के लिए गृहस्थ के घर में पहियाएवापत वा आना-जाना नहीं कल्पता है । अकेली निग्रंथी को शौच के लिए तथा स्वाध्याय के लिए उपाश्रय से बाहर जाना आना नहीं कल्पता है । अकेली निर्ग्रन्थी को एक गाँव से दूसरे गाँव जाना तथा वर्षाचाम करना नहीं कल्पता है । नियंम्पनि थिय के विचरण क्षेत्र को मर्यादा ४६७. निर्ग्रन्थों को और निर्ग्रन्थियों को, पूर्व दिशा में गतक दक्षिण दिशा में कोशास्त्री तक, विदिशा में देश क Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६] घरणानुयोग-२ निन्थि-निग्रंथियों के विहार करने का विधि-निषेध सूत्र ४६७-७१ उत्तरेणं-जाव-कुणालाविसयाओ एतए उत्तर दिशा में कुणाल देश तक विधरना कल्पता है। एतावताय कप्वाद, इतना ही विचरना कल्पता है। एतावताव आरिए खेत्ते, इतना ही आर्य क्षेत्र है। नो से कप्पड़ एतो बाहि, इससे बाहर विचरना नहीं कल्पता है । तेणं परं जरथ नाण-वंसक-चरिताई उस्सप्पन्ति इस के उपरान्त भी जहाँ ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र अर्थात -कप्प. उ. १, सु. ३१ संयम की उन्नति हो वहां विचरना कल्पता है। णिगंथ-णिग्गंथोणं बिहार करण विहि-णिसेहो निग्रन्थ-निम्रन्थियों के विहार करने का विधि-निषेध४६८. नो कप्पा निग्गंधाण वा, निगयीण वा, वासावासासु ४६८. निर्ग्रन्थ और निम्रन्थियों को वर्षावास में विहार करना चारए। नहीं कल्पता है। कप्पइ निग्गंयाण वा, निग्गयीण वा हेमन्म-गिम्हासु चारए। निर्घन्य और निर्गन्थियों को हेमन्न और ग्रीष्म ऋतु में -कण. उ. १, सु. ३७-३८ विहार करना कल्पला है। विकिद्रिय खेत्ते गमण विहि-णिसंही विराट मेल में जाने का विधि-निषेध ४६६. नो कप्पद निग्गंधोणं विइकिट्टियं विसंवा अणुदिसं वा उद्दि- ४६६. निग्रन्थियों को दूरस्प या अति दुरस्थ बिकट क्षेत्र की सित्तए वा धारेसए था। और स्वयं जाना या अन्य को अनुज्ञा देना नहीं फल्पना है। फप्पड निम्नथागं विइकिट्ठियं दिसं वा अणुविसं वा उद्दिसित्तए किन्नु निम्रन्थ को दूरस्थ या अति दूरस्थ विकट क्षेत्र की दा धारेत्तए वा। -बब. उ.७, सु.१०-११ ओर स्वयं जाना या अन्य को जाने के लिए अनुज्ञा देना कल्पता है। राइए बाहि गमणस्स विहि-णिसेहो रात्रि में उपाश्रय से बाहर जाने का विधि-निषेध - ४७०. नो कप्पइ निगंथस्स एमाणियस्स राओ वा वियाले वा ४७७. अकेले निर्ग्रन्थ को रात्रि में या विकाल में शौच के लिए अहिया वियारभूमि या विहारभूमि वा निक्वमित्तए वा पवि. या स्वाध्याय के लिए उपाश्रय से बाहर जाना-आना नहीं सिसए था। __कल्पता है। कप्पर से अप्पखिइयरस वा, अप्पसइयस्स वा, र.ओ वा किन्तु उसे एक या दो निग्रंथों को साथ लेकर रात्रि में या वियाले वा, बहिया बियारभूमि वा बिहारभूमि का निक्ख- विकाल में शौच के लिए या स्वाध्याय के लिए उपाश्रय से बाहर मित्तए वा पश्विसित्तए वा। जाना-आना कल्पता है। नो कप्पद निग्गयोए एगाणियाए रामो वा वियाले वा, अकेली निर्ग्रन्थी को रात्रि में या विकाल में शौच के लिए बहिया बियारभूमि वा विहारभूमि षा निक्खमित्तए वा या स्वाध्याय के लिए उपाश्रय से बाहर जाना-आना नहीं पविसित्तए वा। कल्पता है। कप्पई से अप्पविदयाए वा, अप्पतइयाए वा, अप्पचउत्पीए एक दो या तीन निर्ग्रन्थियों को साथ लेकर रात्रि में या वा राओ वा चियाले, वा बहिया विधारभूमि षा, विहार- विकाल में शौच के लिए पा स्वाध्याय के लिए उपाश्रय से बाहर भूमि वा निक्षमित्तए वा पविसित्तए वा। जाना-आना कल्पता है । -कप्प. उ. १.सु. ४-५१ णिग्गंथ-णिग्गंथोणं सहविहार पायच्छित्त सुतं- निन्थ-निन्थी के साथ विहार करने का प्रायश्चित्त ४७१. जे भित्र समणिचियाए वा, परगणिचियाए वा, जिग- ४७१. जो भिक्षु स्वगण की या अन्य गण की साध्वी के साथ थीए सदि गामाशुगाम इन्जमागे पुरसओ मच्छमागे, पिठुलो आगे या पीछे प्रामानुग्राम बिहार करते हुए संकल्प विकल्प करता रोयमाणे, ओहयमणसंकप्ये चिता-सोयसागरसंपविट्ठ, कर- है, चिंतातुर रहता है, शोक सागर में डूबा हुआ रहता है, हथेली पलपल्हत्यमुहे, अट्ठमाणोवगए, विहारं था करेइ-जाव- पर मह रखकर आर्त ध्यान करता रहता है यावत्-साधु असमणपाउग्गं फहं कहेइ, कहेंतं वा साइज्जइ । के न कहने योग्य काम कथा कहता है या कहने वाले का मनुमोदन करता है। Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ४७१-४७४ अन्तःपुर में प्रवेश के कारण संघ-व्यवस्था [२२७ तं सेवमाण आवजइ घाउम्मासि परिहारट्ठाणं अणुग्याइयं । उसे चातुर्मासिक उपातिक परिवारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि. उ. ८, सु. ११ आता है। अंतेजर पवेसे कारणाई अन्तःपुर में प्रवेश के कारण४७२. पंहिं ठाणे हि समणे णिग्गंथे रायतेउरमणुपविसमाणे गाइ- ४७२. पाँच कारणों से श्रमण निर्ग्रन्थ राजा के अन्तःपुर में प्रवेश क्कमति, तं जहा करता हुआ जिनाज्ञा का अतिक्रमण नहीं करता है। जैसे१. गगरे सिया सम्वतो समता गुत्ते, गुत्तदुवारे, बहवे समण (१) यदि नगर सब ओर से घिरा हो, उसके द्वार बन्द हो. भारणा को संचाएंति भत्ताए वा पाणाए पा जिक्खमित्तए बहुत से श्रमण माहण भक्त-पान के लिए नगर से बाहर न निकल वा पविसित्तए वा तेसि विष्णवणटुयाए रायंतेउरमणुपवि- सकें या न प्रवेश कर सके, तब उनका प्रयोजन बतलाने के लिए सेज्जा । राजा के अन्तःपुर में प्रवेश कर सकता है। २. पाम्हिारियं वा पीत-फलग-सेम्जा-संधारग पञ्चप्पिणमाग (२) प्रातिहारिक पीठ, फलक, शय्या संस्तारक को वापिस रायंसेजरमणपलिज्त्रा । देने के लिए राजा के अन्तःपुर में प्रवेश कर सकता है। ३. यस्स श गयस्स वा दुट्ठस्स आगच्छमाणस्स भीते (३) दुष्ट बोड़ें या हाथी के सामने आने पर भयभीत साधु रायंतेउरमपविसेजजा। रक्षा के लिए राजा के अन्तःपुर में प्रवेश कर सकता है। ४. परो वा गं सहसा वा, बलसा वा, बाहाए गहाप-रायते- (४) कोई अन्य व्यक्ति सहसा या बलपूर्वक पकड़कर ले जाए उरमणुपविसेमा। तो राजा के अन्तःपुर में प्रवेश कर सकता है। ५. बहिया वा गं आरामययं वा, उज्जाणगय वा रायतेउर- (५) कोई साधु बाहर पुष्पोद्यान या वृक्षोद्यान में ठहरा हो जणो सम्वतो समंता संपरिक्तित्ता नं संणिवेसिज्जा। कौर यहाँ राजा का अन्तःपुर (राजा की रानियाँ) ना जावे तथा सर्व ओर से घेर कर बैठ जाये तो वहाँ बैठ सकता है। चेतेहि पाहि ठाणेहि समणे जिग्गंथे रायतेउरमगुपविस- इन पाँच कारणों से श्रमण-नियन्य राजा के अन्तःपुर में माणे नाइक्कमति। -ठाणं. अ. ५, उ. २, सु. ४१५ प्रवेश करता हुआ जिनाशा का अतिक्रमण नहीं करता है। निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थी के सामूहिक व्यवहार--- णिगंथ-णिग्गंथोणं आलाव-संलाव कारणाई-- साधु-साध्वी के वार्तालाप करने के कारण४७३. चहि ठाणेहि णिगंथे णिग्गंधि आलयमाणे वा संलवमाणे ४७३. निग्रन्थ चार कारणों से निर्यन्थी के साथ अलाप-संलाप वा गाइसकमइ. तं जहा करता हुआ जिनाज्ञा का उल्लंघन नहीं करता है । जैसे१. पंर्थ पुच्छमाणे वा, २. पंथ देसमाण वा, (१) मार्ग पूछता हुआ, (२) मार्ग बताता हुआ, ३. असणं वा-जाव-साइमं या बलयमाणे वा, (३) अशन · यावत् - स्वाद्य देता हुआ। ४. असणं वा-जाव-साइम वा बलावेमाणे या । (४) गृहस्थों के घर से अशन-यावत्-स्वाद्य दिलाता -ठाणं. अ. ४,उ. २, सु. २६० हुआ। जिग्गंथ-णिग्गंधीणं एगत्थ आवास कारणाई- साधु-साध्वी के एक स्थान पर ठहरने के कारण४७४. पंचहि ठाणेहि णिगया जिग्गंथीओ य एगयओ ठाणे वा, ४७४. पाँच कारणों से नियन्य और नियंन्थियां एक स्थान पर सेज्ज वा, मिसीहियं वा चैतेमाणा णातिककर्मति, तंजहा- अवस्थान (ठहरना), शयन और स्वाध्याय करते हुए जिनामा का अतिक्रमण नही करते हैं। जैसे Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ चरणानुयोग--2 अलग के समिका के साथ रहने के कारण सूत्र ४०४-४७५ १. अत्येगया जिग्गंथा गणिग्गंर्थःो य एग महं अगामियं (१) यदि कदाचित् कुछ निन्ध और रिश्रन्थियां किसी छिम्मावार्य दोहमद्धमविमणुपविट्ठा तरथ एगयो ठाणं वा, बड़ी भारी, ग्रामशून्य, आवागमन रहित लम्बे मार्ग बाली अटबी सेज्ज वा, जिसीहियं वा चेतेमाणा जातिषकमति । भे' अनुप्रविष्ट हो जावें तो वहां एक स्थान पर अवस्थान, शयन ओर स्वाध्याय करते हुए जिनाज्ञा का अतिक्रमण नहीं करते हैं । २. अरगइया णिम्गंधा य णिग्गयोभो य गामंसि वा-जाव- (२) यदि कुष्ठ निग्रंप या निग्रन्थियाँ किसी ग्राम-यावत्रायहाणिसि वा वासं उवागता एगइया लस्थ उबस्सयं लभति, राजधानी में पहुँचे, बहां दोनों में से किसी एक वर्ग को उपाश्रय एगहया णो लमंति, तत्थ एगपओ ठाणं वा, सेज्ज बा, मिला और एक को नहीं मिला तो वहाँ वे एक स्थान पर अबमिसीहियं वा चेतेमाणा णातिक्कमति । स्थान, शयन और स्वाध्याय करते हुए जिनाज्ञा का अतिक्रमण नहीं करते हैं। ३. अत्गइया णिग्गया य णिग्गंधीमो य णागकुमारावासंसि (२) कदाचित् कुछ निर्गन्ध-निर्ग्रन्थियाँ नागकुमार या सुवर्णसा, सुवष्णकुमारावासंसि वा वासं उवागता तत्य एमयओ कुमार आदि देवालय में निवाग के लिए एक साथ पहुंचे तो ठाणं वा सेज्ज वा, णिसोष्ट्रिय वा, चेतेमाणा णातिषक मंति। वहां एक स्थान पर अबस्थान, शयन और स्वाध्याय करते हुए जिनाजा का अतिक्रमण नहीं करते हैं। ४ आमोसगा दोसति, ते इच्छति णिग्गंधीओ चीवरपडियाए (४) जहाँ चोरों का उपद्रव दिखाई देवे और वे निग्रन्थियों पजिगाहिसए तस्य एगयो ठाणं वा सेज्ज वा, मिसीहियं वा के वस्त्रों को चुराना चाहते हों तो वहीं साधु-साध्वी एक स्थान चैतेमाणा णातिक्कमति । पर अवस्थान, शयन और स्वाध्याय करते हुए जिनाज्ञा का अति क्रमण नहीं करते हैं। ५ जुवाणा दीसंति, ते इच्छति । णिग्गंथोत्रो मेहुणपडियाए (५) जहाँ गुंडे युवक दिखाई देखें और वे निन्थियों के पडिमाहितए, तत्व एगयो ठाणं वा सेज वा पिसोहियं वा साथ मैथुन सेवन की इच्छा से उन्हें पकड़ना चाहते हो तो वहाँ तेमाणा णातिक्कमंति। निम्रन्थ और निर्गन्थियां एक स्थान पर अवस्थान, शयन और स्वाध्याय क्रिया करें तो जिनाज्ञा का अतिक्रमण नहीं करते हैं । हचतेहि पंचहि ठाणेहि णिगंधा णिगंभीओ य एगयओ इन पांच कारों से निग्रंन्थ एवं निर्गन्धियाँ एक स्थान पर ठाणं या सेज वा णिसोहियं वा चेतेमाणा णातिककर्मति । अवस्थान, गायन एवं स्वाध्याय करते हुए जिनाजा का अतिक्रमण -याणं. अ. ५, उ. २, सु. ४१७ नहीं करते हैं । सचेलिया सह अचेलस्स संवसणं कारणाई- अचेलक के सचेलिका के साथ रहने के कारण४७५. पंचहि ठाहिं सभणे-णिगषे अचेलए, सचेलियाहिं निम्गंथोहिं ४७५. पाँच कारणों से वस्परहित थमण निन्य सचेलक निर्गन्थियों सडि संवसमाणे णातिक्कमति, सं जहा के साथ रहता हुआ जिनाज्ञा का अतिक्रमण नहीं करता है। जैसे१. खित्तचित्ते समणे-णिग्गंधे णिग्यहि अविजमाणेहि (१) शोक आदि से विक्षिप्त चित्त वाला अचेलक श्रमण"अचेलए सचेलियाहि" णिगंथीहि सखि संवसमाणे पातिषक- निग्रंन्य' अन्य निर्ग्रन्थों के अभाव में सचेलक निर्ग्रन्थियों के साथ मति। रहता हुआ जिनामा का अतिक्रमण नहीं करता है। २. वित्तचित्ते समणे-णिग्गथे णिग्गंधेहि अबिजमाणेहि "अचे- (२) हर्षातिरेक से उन्मत्तचित्त बाला अचेलक यमण-निर्ग्रन्थ सएसचे लियाह"णिधोहि सद्धि सवसमाणे णातिक्कमति । अन्य निग्रन्थों के अभाव में सचेलक निग्रन्थियों के साथ रहता हुवा जिनाशा का अतिक्रमण नहीं करता है। ३. जक्खाइ8 समणे-मिग थे, णिगहि अविजमाणे "अचे. (३) यशाविष्ट कोई अचेलक श्रमण-निर्ग्रन्थ अन्य निग्रन्थों लए सचेलियाहि णिगंधीहि सादि संबसमाणे गातिक्कमति। के अभाव में सचेलक निग्रंन्धियों के साथ रहता हुआ जिनाजा का अतिक्रमण नहीं करता है। ४. उम्मायपसे समणे-णिग्गंधे, जिग्गंथेहि अविजमाणेहि (४) वायु के प्रकोपादि से उन्माद को प्राप्त कोई अचेलक "अचेलए सचेलियाहि" णिग्गंधीहि सति संवसमाणे णाति- श्रमण-निर्घन्य अन्य निर्ग्रन्थों के अभाव में सचेलक निग्रंथियों के एकमति । साय रहता हुआ जिनाज्ञा का अतिक्रमण नहीं करता है। Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ४७५-४७८ निम्रन्थी को अवलम्बन देने के कारण संघ-व्यवस्था [२२६ ५. णिग्गंधीपावाइए सपणे, पिगंथेहिं अविज्जमाह "मचे (५) निर्ग्रन्थी के द्वारा दीक्षित (पुत्र आदि) अचेलक श्रमण लए सचेलियाहि" जिग्गंभीहि सचि संवसमाणे णातिक्कमति। अन्य निर्ग्रन्थों के अभाव में सचेलक निग्रंथियों के साथ रहता -ठाणे. अ. ५.३.२, सु. ४१७ हुआ जिनाज्ञा वा अतिक्रमण नहीं करता है। णिग्गाथ अवलंबणे कारणा -- निर्गन्यीको अवलम्बन देने के कारण । ४१६. पंचहि ठाणेहि समणे-णिगथे जिग्गा गिण्हमाणे वा अब- ४७६. पांच कारणों से श्रमश-निन्थ नियंधी को अवलम्बन दे लबमाणे वा णातिक्कमति, तं जहा तो जिनाजा वा अतिक्रमण नहीं करता है, जैरो१.णि चणं अण्णयरे पसुजातिए वा, पक्षिजातिए था, (१) कोई पशु या पक्षी निर्गन्धी पर आक्रमण करे तो वहां ओहावेज्जा, तस्य णिग्गथे जिग्गथि गिण्हमाणे वा अवलंब- निनन्य उसे बचाता हुआ या सहारा देता हुआ जिनामा का माणे वा गातिक्कमति । अतिक्रमण नहीं करता है। २.णिगये जिग्गंथि दुगंसि वा, विसमंसि वा, पक्खलमाणि (२) दुर्गम या विषम स्थान में फिसलती या गिरती हई वा, पक्षमाणि वा, गिण्हमाणे वा, अवलंबमाणे वा जाति- निन्धी को ग्रहण करता हुआ या अवलम्बन देता हुआ निग्रन्थ पति। जिनाजा का अतिक्रमण नहीं करता है। ३. णिगंथे णिग्गाय सेयसि बा, पणगंसि वा, पंकसि वा, (३) दल-दल में, कीचड़ में, काई में फंसी हुई या जल में उदगंति वा, उपकसमाणि वा, उबुज्ममागि वा, गिव्हमाणे गिरती हुई या दूबती हुई निम्रन्थी को पकड़ता हुआ या अबलम्बन वा, प्र.क्लबमाणे वा णातिक्कमति । देता हुआ निग्रंन्य जिनाज्ञा का अतिक्रमण नहीं करता है । ४.णिगये णिथि णावं आव्हमाणिवा, ओरोहमाणि या (४) नौका पर चढ़ती हुई या नौका से उतरती हुई निर्ग्रन्थी गिण्हमाणे या अवलंबमाणे या णातिक्कमति । को निर्ग्रन्थ ग्रहण करता हुआ या अवलम्बन देता हुआ जिनाशा का अतिक्रमण नहीं करता है। ५. खिसचित्तं, वित्तचितअपवाद', उम्मायत्त, जवसाग (५) विक्षिप्त चित्त वाली, उन्मत्त चित्त वाली, भूत-प्रेतादि पत्तं, साहिगरणं, सपायरिछत, असपाणपडियाइक्खियं, से पीड़ित, उन्माद प्राप्त, उपसर्ग से भयभीत, कलह में संलग्न, अष्ट्रनाय या नियथि जिग्गय गेहमाणे यश अवलंबमाणे कठोर प्रायश्चित्त से चलचित्त, संथारा युक्त तथा दुर्लभ द्रव्यों की मा णातिक्कमति। -ठा. अ. ५, उ. २, सु. ४३७ प्राप्ति मा अप्राप्ति से अशान्त चित्त निर्ग्रन्थी को निर्मन्थ पकड़ता हुआ या सहारा देता हुआ जिनाशा का अतिक्रमण नहीं करता है। णिग्गथ-णिग्गथोणं साहम्मिय अंत किच्चाई निन्थ-निम्रन्थी के सामूहिक सार्मिक अन्त्यकर्म-- ४७७. छह ठाणेहि णिगंथा णिग्गयीओ प साहम्मियं कालगतं ४७७. छह प्रकार से निर्धन्य और निर्ग्रन्थी गाथ-साथ अपने समायरमाणा माइक्कमति, बहा .. काल प्राप्त साभिक के अन्तिम कार्य करते हुए जिनाज्ञा का अतिक्रमण नहीं करते हैं । जैसे१. अंतोहितो वा वाहि णोणेमागा। (१) उसे अन्दर से बाहर लाते हुए। २. बाहीहितो वा णिवाहिं जीणेमागा। (२) उपाश्रय से बाहर लाते हुए। ३. उवेहमाणा वा। (३) देखभाल करते हुए। ४ उपासमाणा वा। (४) शव के समीप रहकर रात्रि भर जागरण करते हुए। ५. अणुग्णवेमाणा था। (५) उसके स्वजन या गृहस्थों को संभालते हुए । ६. तुसिगीए वा संपन्वयमाणा । –ठाणं. अ. ६, सु. ४७७ (६) मौन भाव से परठने के लिए ले जाते हुए। णिगंथ-णिग्गंथीणं अण्णमण्ण-वेयावच्छ करण बिहाणा- निर्गन्थ- निन्थो के परस्पर सेवा करने के विधान४७८. निगमस्स य अहे पायंसि-खाणू वा, कंटए वा, होरए या, ४७८. निर्गन्य के पैर में तीक्ष्ण, शुष्क, छ, कंटक, तीक्ष्ण काष्ठ सक्करे वा परियावजेज्जा तं च निग्गंथे नो संघाएइ या तीक्ष्ण पाषाण खण्ड लग जावे उसे निकालने में या शोधन १ (क) ठाणं. अ. ६, सु. ४७६ (ख) कप्प. उ. ६, सु. ७.१८ Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० ] चरणानुयोग - २ परस्पर सेवा करने का विधि-निषेध मोहरिए वा विसोहेलए या तं च निम्बंधी मोहरमापी करने में निवसमर्थ न हो उस समय यदिनिधी विकासे या शोधन करे तो जिनाज्ञा का अतिक्रमण नहीं करती है । निग्रन्थ की आंख में मच्छर आदि प्राणी, बीज या रज गिर जाये उसे निकालने में या शोधन करने में निर्ब्रम्य समर्थन हो उस समय यदि निर्ग्रन्थी निकाले या शोधन करे तो जिनाज्ञा का नही करती है। निधी के पैर में शुष्क, टूट, कंटक, सीमा या पाषाण खण्ड लग जाये उसे निकालने में या शोधन करने में निर्ग्रन्थी समर्थ न हो उस समय यदि निर्बंन्ध निकाले या शोधन करे तो जनता का अतिक्रमण नहीं करता है। विसोमाणी वा नाइक्कम निग्गंथरस य च्छसि पागे या बीये वा, रए वा परियाया तं निनो संचाए नोहरिए बा, विसो हे या तं चनियांधी नोहरमाणी या विसोमाणी वा नाइक्कमइ । " - सूष You-yat लिची आहे पास लायू या कंडवा होराए बा सक्करे वा परियावज्जेज्जा तं च निग्गंधी नो संचाएइ, हरितए वा विसोहेतए था, तं च निम्ये नोहरमाणे वा विलोमा वा नाह निबीए य अति पाणे वा, बोये वा, रए वा परियाजेजा तं निग्गंधी मो संचाए मोहरिए था, जिसो एबाचे नोहरमाणे वा विसोमाने वा -कप्प. उ. ६, सु. ३-६ अण्णा वैयावच्च करण विहिणिसेही-४७६. जे निरगंधाय निरगंधीओ य संभोश्या सिया, नो णं कप्पइ अन्नमन्नेणं यावच्चं कारसए । नाइक्कमइ । अस्थि य इत्थ णं केइ वेयाचचचकरे कप्प णं तेगं बेयावर कारबेशए. नरिथ य हस्थ णं केइ वेधावन्त्रकरे एवं णं कप्पड़ अनमने या कार -बब. उ. ५, सु. २० अणमण्ण आलोयणा करण विहि-जिसेहो ४८०. जे निग्गंया य निग्गंथोमो य संभोइया सिया, नी णं कप्पह ४८०, जो साधु और साध्वियों सरंभोगिक हैं उन्हें परस्पर एक दूसरे के समीप आपना करना नहीं करता है। यदि स्थापक्ष में कोई आलोचना सुनने योग्य हो तो उनके समीप आलोचना करना कल्पता है । निर्ग्रन्थी की आँख में मच्छर आदि ग्राणी, बोज या रज गिर जाये उसे निकालने में या शोधन करने में निर्धन्धी समर्थन हो उस समय यदि निर्ग्रन्थ निकाले या शोधन करे तो जिनाशा का अतिक्रमण नहीं करता है । परस्पर सेवा करने का विधि-निषेध ४७६. साधु और साध्वियां सांभोगिक हैं उन्हें परस्पर एक दूसरे की वैयावृत्य कराना नहीं कल्पता है । यदि स्वपक्ष में कोई वैयावृत्य करने वाला हो तो उससे वैयावृत्य करना कल्पता है । यदि स्वपक्ष में वैयावृत्य करने वाला कोई न हो तो साधुसाध्वी को परस्पर वैयावृत्य करना कल्पता है । परस्पर आलोचना करने के विधि-निषेध - अमर अंतिए आए। अस्थिय इत्यणं केद्र आलोयणारिह कप्पद गं तस्स अंतिए आलोइसर, यदि स्वपक्ष में आलोचना सुनने योग्य कोई न हो तो साधु - नय य इत्यणं केंद्र बावणारि एवं कप्प मनस्स अंतिए आलोएत्तए । - वव. उ. ५, सु. १६ साध्वी को परस्पर आलोचना करना कल्पता है । अण्णमणस्स मीय गहण विहि-होपरस्पर प्रावण ग्रहण करने का विधि-निषेध४८१. नो कप नियाण वा निग्गंयोग वा अन्नमशस्स मोयं बिराए वा आयमितए वा नहत्थ गावापासु रोगासु । कप्प. उ. ५, हु. ४६ ४५१. निर्मन्थों और निन्थियों को एक दूसरे का मूत्र पीना या शरीर के लगाना नहीं कल्पता है केवल उम्र रोग एवं आतंकों में कल्पता है । ** Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ४८२-४८३ धमणों के पारस्परिक व्यवहार संघ-व्यवस्था [२३१ सांभोगिक संबंध व्यवस्था समणाणं अण्णमण ववहारा-- श्रमणों के पारस्परिक व्यवहार४८२. बुबालसाविहे संमोगे पण्णत, त जहा ४८२. व्यवहार बारह प्रकार के कहे गए हैं । यथाउबहि सुय प्रसपाणे, अंजलीपरगहे ति य। (१) उपधि आदान प्रदान व्यवहार । दायणे य निकाए य, अन्मुट्ठाये ति आवरे ॥ (२) श्रुत के अध्ययन अध्यापन का व्यवहार, (३) भक्त-पान आदान-प्रदान व्यवहार, (४) एक दुसरे को हाथ जोड़ने का व्यवहार, () शिष्य आदि के आदान-प्रदान का व्यवहार, (६) परस्पर निमन्त्रण देने का व्यवहार, (७) खड़े होकर आदर देने का व्यवहार, कितिकम्माप्त य करणे, पावश्चकरणे ति य । (क) परस्पर वन्दन व्यवहार, समोसरण सनिसेकजा य, कहाए य पधणे ॥ (E) परस्पर सेवा करने वार व्यवहार, --सम. सम.१२, मु.१ (१०) एक दूमरे से मिलने का व्यवहार, (११) आसन देने का व्यवहार, (१२) एक पाट पर बैठकर धर्म कथा करने का व्यवहार। विसंभोगकरणे कारणा सम्बन्ध विच्छेद करने के कारण४८३. लिहिं ठाणेहि समणे णिग्गये साहम्मियं संमोगिय विसंभो- ४५३. तीन कारणों से थगण निर्गन्य अपने सार्मिक, सांभोगिक पियं करेमाणे णातिक्कमति, साधु को विसम्भोगिक करता हुआ भगवान् की आज्ञा का अति तं जहा क्रमण नहीं करता है । यथा१. सयं वा बट्ट, (१) स्वयं किसी को प्रतिकूल आचरण करता देखकर । २. सविस्स या निसम्म, (२) विश्वस्त श्रावक या साधु से सुनकर । ३. तमचं मोसं आउदृति, उत्य नो आउट्टति । (३) तीन बार असत्य भाषण क्षम्य होता है चौथी बार –ठाणं. अ. ३, उ. ३, गु. १८० असत्य भाषण क्षम्य नहीं होता है अत: विसंभोग करे। पंचहि ठाणेहि समणे जिग्गंथे साहम्मियं संमोइयं विसंमोहन पांच स्थानों से श्रमण निग्रन्थ अपने साम्भोगिक सार्मिक करेमाणे णातिकमसि, को विसं भोगिक करे तो जिनाशा का अतिक्रमण नहीं करता है। तं जहा यथा१. सकिरियट्ठाणं परिसेवित्ता भवति । (१) जो अकृत्य कार्य का प्रतिसेवन करता है। २. पजिसेवित्ता को आलोएड । (२) जो अकृत्य कार्य का प्रतिसेवन कर आलोचना नहीं करता है। ३. आलोपत्ता को पवेति । (३) जो आलोचना कर प्रायश्चित्त स्वीकार नहीं करता है। ४. पवेत्ता गो णिग्विसंति । (४) जो प्रायश्चित्त का पूर्ण सेवन नहीं करता है। ५. जाई इमाई घेरा ठितिपकप्पाई भवंति ताई अप्तियंचिय (५) जो स्थविरों के आवश्यक आचार के विपरीत धृष्टताअतिषिय पडिसेवेति, 'से हंबह पडिसेवामि, कि मे थेरा पूर्वक आचरण कर कहे कि "मैं इन दोषों का सेवन करता हूँ, करिस्सति ? -ठाणं. अ. ५, उ. १, सु. ३६८ स्थविर भेरा क्या कर लेंगे।" णवहिं ठाणेहि सम णिमा ये साहम्मियं संभोइयं विसंभोइयं नौ कारणों से श्रमण निर्मन्ध अपने सामिका को सांभोगिक करेमाणे पातिकमप्ति, सं जहा से विसंभोगिक करता हुआ अतिक्रमण नहीं करता है। १. पायरियपडिगीयं । (१) आचार्य के प्रतिकूल आचरण करने वाले को । Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२] चरणानुयोग-२ सम्बन्ध विच्छेद करने का विधि-निषेध प्रत्र ४६३.४८४ २. उबझायपडिणीणं, (२) उपाध्याय के प्रतिकूल आचरण करने वाले को। ३. थेरपरिणीयं, 2) शिर के प्रतिदत माण करने वाले को। ४. फुलपरिणीयं, (४) कुल के प्रतिकूल आचरण करने वाले को। ५. गणपडिणीयं, (५) गण के प्रतिकूल आचरण करने वाले को। ६. संघपरिणीयं, (६) संघ के प्रतिकूल आचरण करने वाले को। ७. पाणपडिणीयं, (७) सम्यज्ञान के प्रतिकूल आचरण करने वाले को। ८. सणपक्षिणीयं (6) सम्पदर्शन के प्रतिकूल आचरण करने वाले को । १. चरितपडिणीयं । -ठाणं, १.६. सु. ६६१ (१) सम्यकमारित्र के प्रतिकूल आचरण करने वाले को। विसंमोग करण विहि-णिसेहो सम्बन्ध विच्छेद करने का विधि-निषेध - ४६४. जे निग्गया य निगथीयो य संभोइया सिया, नो गं कम्पद ४८४. जो निर्ग्रन्य-निर्यधिनियां सांभोगिक हैं, उनमें से किसी निगथं पारोक्खं पाडिएक्कं संमोइयं विसंभोग करतए। एक निन्ध को परोक्ष में सांभोगिक व्यवहार बन्द करके विसं भोगी करना नहीं कल्पता है। कप्पद पं पच्छक्खं पाडिएक्कं संभोइयं विस भोगं करेत्तर। किन्तु प्रत्यक्ष में सांभोगिक व्यवहार बन्द करके उसे विर्म भोगी करना कल्पना है। अत्थेव अन्नमन्नं पासेज्जा तस्थेव एवं एज्जा-- जब एक दूसरे से मिले नब ही इस प्रकार कहे वि:"अहं गं अज्जो ! तुमए सद्धि इममि कारणम्मि पश्चरवं "हे आय ! मैं अमुक कारण से तुम्हारे साथ सांभोगिक पाहिएक्कं संमोइयं विसंभोग करेमि।" व्यवहार बन्द करके तुम्हें विसम्भोगी करता हूं।" से य पडितप्पज्जा, एवं से नो कप्पइ पच्चपर्ख पारिएक्कं इस प्रकार कहने पर वह यदि पश्चात्ताप करे तो प्रत्यक्ष में संभोइयं विसंभोगं करेत्तए । भी उसके साथ सांभोगिक व्यवहार बन्द करके उसे बिराम्भोगी करना नहीं कल्पता है। से यनो पडितप्पेज्जा, एवं से कप्पइ परचक्ख पाडिएक्क यदि वह पश्चात्ताग न करे तो प्रत्यक्ष में जगके साथ सांभोसंमोइयं विसंभोग करेत्तए। गिक व्यवहार बन्द करके उसे विसम्भोषी करना कल्पता है। जे णिग्गंथा य जिग्गयीयो य संभोइया सिया, नो गं कप्पद जो निन्य निग्रन्थियाँ सांभोगिक हैं उनमें निन्थिनी को णिग्गयीणं पच्चवं पारिएक्कं संसोइयं विसंभोग करेत्तए। प्रत्यक्ष में सांभोगिक व्यवहार बन्द करके विसम्भोगी करना नही फल्पता है। कप्पदणं पारोक्ख पाडिएक्कं संभोइयं बिसंभोग करेत्तए। किन्तु परोक्ष में सांभोगिक व्यवहार बन्द करके उसे विस भोगी करना कल्पता है । जत्थेव ताओ अप्पणो आयरिय-उबझाए पासेज्जा सस्थेष जब वे अपने आचार्य या उपाध्याय की सेवा में पहुंचे तब एवं वएज्जा उन्हें इस प्रकार कहें"अहं गं मंते ! अमुगीए अज्जाए सडि इमम्मि कारणम्मि "हे भन्ते ! मैं अमुक आर्या के साथ अमुक कारण से परोक्ष पारोक्ख पाडिएक्कं संबोधयं विसंभोग करेमि।" रूप में सांभोगिक व्यवहार बन्द करके उसे विसम्भोगी करमा नाहती हूँ।" सा य परितप्पेज्जा, एवं से नो कप्पइ पारोषखं पा-िएक्क तब वह निग्रन्थी यदि (आचार्य-उपाध्याय के समीप अपने संमोइयं विसंभोग करेत्तए । सेवित दोष का पश्चात्ताप करे तो उसके साथ परोक्ष रूप में भी सांभोगिक व्यबहार बन्द भरना व उसे विसम्भोगी करना नहीं कल्पना है। सा य नो पतिप्पेज्जा, एवं से कप्पड़ पारोक्तं पाहिएक्क यदि यह पश्चात्ताप न करे तो परोक्ष रूप में उस के साथ सांभो. संभोइयं विसंमोगं करेस्तए। -वय. उ. ७, सु. ४-५ गिक व्यवहार बन्द करके उगे विसम्भोगी करना कल्पता है । Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ४८५-४८७ ममनोह-असमतोकों के मार संघ व्यवस्था [२३३ समणुण्णं-असमणुण्णाणं बवहारा समनोज-असमनोज्ञों के व्यबहार४८५. से समणुष्णस्स या असमणुग्णस्स वा असणं वा-जाब-साइम ४८५. भिक्षु समनोज्ञ (असोभोगिक) तथा अमनोज (शाक्यादि) खा, वत्थं वा-जाव-पायपुंछणं वा यो पाएग्जा, गोजिम को अशन - यावत् -स्वाय, वस्त्र - यावत्-पादपोंछन आदरतेजा, णो कुज्जा वेया वडिय-पर आदायमाणे । पूर्वक न दे, न निमन्त्रित करे और न उनकी अन्य वैयावृत्य भी करे। धुवं येतं जाणेज्जा--असणं या-जाब-साइम वा, वत्यं वा यदि शाक्यादि भिक्षु मुनि से कह कि – 'हे मुभिवर ! जाव-पायपुछणं वा लभिय, भुजिय, पंयं वियत्सा विओ- आपको अशन-पावत् -स्वाच, वस्त्र -यावत् - पादपोंछन प्राप्त हो या न हो, उनका उपयोग कर लिया हो या न कर लिया हो, मार्ग सीधा हो या टेढ़ा हो, तो भी हमारे यहाँ अवश्य माना। विभस्त धम्म झोसेमाणे समेमाणे चलेमाणे पाएज्जा बा, भिम धर्म का आचरण करने वाले वे कभी उपाश्रय में आकर णिमंतेज्जा वा, कुज्जा बेयावडिय परं अणाढायमाणे । कहे, कभी मार्ग में चलते हुए कहे, अथवा अशनादि दे या निम-आ. सु. १, ब.८, उ. १, सु. १६६ त्रित करे या वैयावरण करे तो मुनि उसके निमन्पण का आदर में करे। से समणुष्णे असमणुष्णस्स असणं वा-जाय-साहम वा, वत्थं वह समनोज्ञ (सुशील) भिक्षु असमनोज (कुशील) साधु को या-जाव-पायपुंछणं वा णो पाएक्जा, गो णिमंतेक्या, णो अशन-यावत् –स्वाद्य, वस्त्र-यायत्-पादपोंछन आदरपूर्वक कुज्जा वेयावडियं परं आवायमाणे। न दे, न निमन्त्रित करे और न उनकी वैयावृत्य करे। धम्ममायाणह पवेदितं माणेण महसया समणुषणं समणुग्णस्स दान धर्म के स्वरूप को जानकर केवलज्ञानी भगवान ने असणं या-जाव-साइमं था, वत्थ या-जाव-पाथपुछणं वा, प्रतिपादित किया है कि समनोज्ञ साधु समनोज्ञ (समान आचार पाएज्जा, निमसेज्जा, कुज्जा बेयावजिय परं आवायमागे। वाले सांभोगिक) साधु को आदरपूर्वक अशन-यावत्-स्वाद्य, -आ. सु. १, ८, उ. २, सु २०७-२०० वस्त्र यावत् -पादनोंछन आदि दे, उन्हें देने के लिये निमंत्रित करें तथा उनकी वैयावृत्य भी करे। सरिसगस्स संवास अदाण पायच्छित सुत्साई सदृश आचारवान को स्थान न देने के प्रायश्चित्त सूत्र--- ४८६. जे गिगये णिगंयस सरिसगस्स "अंते ओवासे सते" ४५६ जो निग्रन्थ सदृश आचार वाले मिर्गन्ध को अपने उपाश्रय ओवास न देइ, न त वा साइजद । में अवकाश होते हुए भी ठहरने के लिये स्थान नहीं देता है या नहीं देने वाले का अनुमोदन करता है । जा जिग्गंधी णिगंथीए सरिसियाए “अंते बरेवासे सते" जो निम्रन्थी सदृश आबार वाली निग्रन्थी को अपने उपाश्रय ओवासं न ह. न देतं वा साइज्जइ। में अवकाश होते हुए भी ठहरने के लिए स्थान नहीं देती है या -नि उ. १७. सु. १२१-१२२ नहीं देने वाले का अनुमोदन करतो है। (उसे लघु चौमासी प्रायश्चित्त आता है।) संभोगे पच्चक्खाण फलं] सम्भोग प्रत्याख्यान का फल४८७.१० -संभोगपच्चक्खाणेणं माते ! जीवे कि जणया? ४८७.प्र. -भन्ते । सम्भोग-प्रत्याख्यान (एक मांडलिक आहार का त्याग) करने वाला जी क्या प्राप्त करता है ? उ० . संभोगपश्चक्खाणेणं आलम्बणाई खबेह। निरालंब- उ-सम्भोग-प्रत्याख्यान से जीव का परालम्बीपन छूट णस्स य आयडिया जोगा भवन्ति । जाता है। उस परालम्बन के छूट जाने से मुक्ति के सारे कार्य स्वावलम्बन युक्त हो जाते हैं। सएणं लाभेणं संतुस्सा, पग्लामं नो आसाएइ, नो तकर, वह स्वयं जो कुछ मिलता है उसी में सन्तुष्ट हो जाता है। नो पोहेह, नो पत्थेद, नो अभिलसइ। परलामं अणास्साए- दुसरे मुनियों के लाभ का आस्वादन उपयोग नहीं करता, कल्पना Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४] चरणानुयोग – २ सर्पदंश चिकित्सा के विधि-निषेध माझे लक्पा, अमाये अपत्येमाणे, जगमनसमये नहीं करता, चाहना नहीं करता, प्रार्थना नहीं करता और अभि लाषा नहीं करता है । इस प्रकार दूसरे के लाभ का आस्वादन दुपार - उत्त. अ. २६, सु. ३५ कल्पना, स्पा, प्रार्थना और अभिलाषा न करता हुआ दूसरी -स्था (संयम और स्वावलम्बीपन) को प्राप्त कर विचरण करता है । गृहस्थ के साथ व्यवहार - १० सप्पयंस तिमिन्छाए विहि-जिसेहो ४८८. निग्गं चणं राओ वा विद्याले वा बीहपट्टो लूसेना, मी या पुरस्र मावेला पुरिसो वा इवीए घोषा देना एवं से पद एवं से चिपरिहार से मेरे पाउद, एस कम्पे बेरका एवं से नो कम्पद, एवं से नो चिट्ठ, परिहारं च से पाउण एस कप्पे जिण कवियाणं । वव. उ. ५, सु. २१ गारत्थियाहि सद्धि भिक्खट्टा गमण जिसे हो४८. सेवामा चिडवा पडियार पविसितु कामे णो अण्णउत्पिण या गारस्थिएण वा परिहारिओ अपरिहारिएणं सद्धिं गाहाथतिकुलं पिढवाय पविसेज या क्लिमेज्ज वा । - -आ. सु. २, अ. १, १, सु. ३२७ यारत्याह स स्विट्टा गमण पायस्थित गुप्तं ४१०. एका वारथिथा परिहारियो अपरिहारिएणं सद्धि गाहाबडकुलं विडवाय पडियार, क्खिमह वा पविसह या क्लितं वा पवितं वा साइज्जइ । तं सेवमाने आज नाहियं परिहारद्वाणं उ -नि. उ. २, सु. ४० - ४००-४११ सर्पदंश चिकित्सा के विधि-निषेध-४६६. यदि किसी निग्रन्थ या निर्ग्रन्थी को रात्रि या विकाल तीन की और पुरुष निर्ध (सनया) में भी सर्पदंश करें तो इस प्रकार से उपचार कराना उनको कल्पता है । इस प्रकार उपचार कराने पर भी उनकी साता रहती है तथा वे प्रायश्वित के पास नहीं होते हैं। यह स्थविरवस्वी साधुओं का आचार है। जिनकल्प वालों को इस प्रकार उपचार कराना नहीं कल्पता है । इस प्रकार उपचार कराने पर उनका जिनकल्प नहीं रहता है, और वे प्रायश्चित्त के पात्र होते हैं । जिनकल्पी साधुओं का यही आचार है । गृहस्थ आदि के साथ मिटाये जाने का निषेध-४०९ गृहस्य के घर में भिक्षा के निमित्त प्रवेश करने का इच्छुक भिक्षु वा भिक्षुणी अन्यतीर्थिक या गृहस्थ के साथ तथा पारि हारिक (उत्तम) साघ्र अपारिहारिक (पार्श्वस्थ ) साधू के साथ भिक्षा के लिए जावे आये नहीं । गृहस्थ आदि के साथ भिक्षार्थ जाने का प्रायश्चित सूत्र ४६०. जो भिक्षु अन्यतीर्थिक या गृहस्थ के साथ तथा पारिहारिक साधु अपारिहारिक साधु के साथ गृहस्थ के घरों में भिक्षा के लिये जावे या जाने आने वाले का अनुमोदन करे। उसे उद्घातिक मासिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) आता है। गारस्थियाईणं असणाइ वाण जिसेहो ४६१. से मिक् या मिलूणी वा गाहाबडकुलं मिडवाय पहियाए अपविट्ठे समाणे जो अण्णउत्थियस्स या गारस्यियस्स वा परिहारियो अपरिहारिया या असणं वान-सामिधु को अपना प्रेक्णा या अणुपदेजा था। किसी से दिलाए । - आ. सु. २, अ. १, उ. १, सु. ३३० — गृहस्व आदि को अशनादि देने का निषेध४९१. गृहस्थ के घर में भिक्षा के लिए प्रविष्ट भिक्षु वा भिक्षुणी अन्यतीर्थिक या गृहस्थ को तथा पारिहारिक भिक्षु अपारिहारिक स्थान तो और स्वयं दे न Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ४६३ मांग-मांग कर याचना करने के प्रायश्चित्त सूत्र संघ-व्यवस्था [२३५ ओभासिय जयणाए पायच्छित्त सुत्ताई- मांग-मांग कर याचना करने के प्रायश्चित्त सूत्र-- ४९२. जे भिक्ख आगंतारेसु वा बारामागारेसुवा, माहापद-फुलेसु ४६२. जो भिक्षु धर्मशालाओं में, उद्यानगृहों में, गृहस्थों के घरों वा, परियावसहेसु वा अण्णउत्थिय या पारस्थियं वा असणं में अथवा आश्रमों में अन्यतीर्थिक या गृहस्थ से अशन-शवत्-- वा-जाव-साइम वा सोभासिय-ओभासिय जाय जायतं या रवाय मांग-मांग कर याचना करता है, करवाता है, करने वाले साइज्जा । का अनुमोदन करता है। जे मिक्यू आगंतारसु या-जाव-परियावसहेसु वा अण्णस्थिया जो भिक्षु धर्मशालाओं में यावत्-आश्रमों में, अन्यवा गारत्थिया वा असणं या-जात्र-साइमं वा ओभासिय- तीथिकों या गृहस्थों से अशन-यावत्-स्वाद्य मांग-मांग कर ओभासिय जायह जायंत वा साइज्जइ। याचना करता है, करवाता है या करने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू आगंतारेसु वा-जाव-परियावसहेसु व अण्णउस्थिणी जो भिक्षु धर्मशालाबों में यावत् -- आश्रमों में, अन्यवा गारस्थिणी वा असणं वा-जाव-साइम वा ओभासिय तीथिक या गृहस्थ स्त्री से अगनयावत्-स्वाद्य मांग-मांग कर ओभरसिय जाया जायंतं वा साइजइ । याचना करता है, करवाता है या करने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू आगंतारे था-जाव-परियावसहेसु वा अण्णउत्यि- जो भिक्षु धर्मशालाओं में यावत्-आश्रमों में, अन्यजीओ वा गारस्थिणीओ वा असणं वा-जाव-साइमं वा तीथिक या गृहस्य स्त्रियों से अशन-पावत्-स्वाय मांग-मांग ओभासिय-लोभासिय जायद जायंत या साइजह । कर याचना करता है, करवाता है या करने वाले का अनुमोदन करता है। जे मिक्लू आगंतारेखु वा-जाव-परियावसहेसु वा "को उहल्ल जो भिक्षु धर्मशालाओं में--पावत्-आश्रमों में कोतुहलवश वडियाए पडियागयं समाणं" अण्णस्थिय वा गारस्यिय वा अन्यतीथिक से या गृहस्थ से अशन-यावत् --स्वाध मांग-माग असणं या-जाव-साइमषा मोभासिय-ओभासिय जायद कर याचना करता है, करवाता है या करने वाले का अनुमोदन जायंतं वा साइज्जद। __ करता है। जे मिक्खू आगंतारेसु वा-जाव-परियावसहेसु वा "कोठहल्ल जो भिक्षु धर्मशालाओं में यावत्-आश्रमों में कौतूहलवश वडियाए पडियागयं समा" अण्णउत्थिया या मारस्थिया अन्यतीथिकों से या गृहस्थों से अपशन-यावत् -स्वाध मांग-माग वा असणं वा-जाव-साइमं वा ओभासिय-ओमासिम जापई कर याचना करता है. करवाला है या करने वाले का अनुमोदन जातं वा साइज्जद। करता है। जे मिक्बू आगंतारेसु वा-जाव-परियायसहेसु वा "कोहल्ल- जो भिक्षु धर्मशालाओं में यावत्-आश्रमों में कौतुहलवश बखियाए पडियागय समाणं" अण्णउस्थिणी वा गारतियणी अन्यतीथिक या गृहस्थ स्त्री से अशन-यावत्-स्वाद्य मांग-मांग वा असणं वा-गाव-साइम वा अोभासिय-ओमासिय जायद कर याचना करता है, करवाता है या करने वाले का अनुमोदन जायत का साइजह। करता है। जे भिक्खू आगंतारेनु वा-जाय-परियावसहेसु वा कोउहत- जो भिक्ष धर्मशालाओं में-यावत्-आश्रमों में, कोतुहलवश अग्यिाए पजियागयं समाण" अण्णस्थिणीओ चा गारथि अन्यतीथिक या गृहस्थ स्त्रियों से अपान-यावत्-स्वाध मांगणीओ वा असणं वा-जाव-साइम वा ओभासिय-ओभासिय मांग कर याचना करता है, करवाता है या करने वाले का अनुजायद जायंतं वा राइस्जद । मोदन करता है। जे भिक्खू आगंतारेसु वा-जाब-परियाषसहेसु वा अण्णत्थि- जो भिक्षु धर्मशालाओं में पावत्-आश्रमों में, अन्यतीथिक एण वा गारस्थिएण वा असणं या-जाव-साइमं या अभिहडं या गृहस्थ के द्वारा बशन-यावत् - स्वाद्य सामने लाकर देते आहट्टु दिज्जमाणं पडिसेहेता तमेष अणुवतिय अगवत्तिय, हुए का निषेध करके पुनः उसी के पीछे-पीछे जाकर या परिवेडिय-परिवेद्विय, परिजविय-परिज विय, शोभासिय- उसी के आसपास व सामने जाकर या मिष्ट वचन बोलकर मांगओभासिय जायई, जयंत वा साइज्जद । मांग कर याचना करता है, करवाता है या करने वाले का अनुमोदन करता है। Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६] घरगानुयोग-२ गहस्थ से उपधि वहन कराने के प्रायश्चित्त मूत्र सूत्र ४६२-४६५ जे भिक्खू आगंतारेसु वा-जाव-परियावसहेसु वा अण्णउत्यि- जो भिक्षु धर्मशालाओं में यावत्-आथमों में, अन्यतीर्थिक एहि वा गारत्यिएहि बा असणं वा-जाक-साइमं वा अभिहर या गृहस्थों के द्वारा अशन -. यावत्- स्वाद्य सागने कर देते आहट्ट विज्जमाणं पडिसेहेत्ता तमेव अणुवत्तिय अगुवत्तिय हुए का निषेध करके पुन: उसी के पीछे-पीछे जाकर-यावत्-जाव-ओभासिय ओमासिय जायइ, जायंतं वा सायुज्जह।। मांग-मांग कर याचना करना है, करवाता है या करने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्यू आतारेसु वा-जाब-परियावसहेसु वा अण्णस्थि- जो भिक्षु धर्मशालाओं में-- यावत् - आश्रमों में अन्यतीथिक जीए वा गारस्थिणीए वा असणं वा-जाव-साइमं वा अभिहर या गृहस्थ स्थी के द्वारा अशन -- यावत्-स्वाद्य सामने लाकर आहट्ट दिज्जमागं घडिसेहेत्ता तमेव अणुवत्तिय अणुवतिय देते हुए का निषेध करके पुनः उसी के पीछे-पीछे जाकर -जाद-ओभासिय ओमासिय जायइ जायत वा साहजड। -याव! - मांग-मांग कर याचना करता है; करवाता है या करने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू आगंतारेसु वा-जाव परियावसहेसु वा अग्णस्थि- जो भिक्षु धर्मशालाओं में-यावत् - आश्रमों में अन्यतीथिक मीहि वा गारत्षिणीहि वा असणं वा-जाव-साइम वा अभिया गृहस्थ स्त्री के द्वारा अशन यावत्-स्वाद्य सामने लाकर हवं आह? विज्जमागं पडिसेहेता तमेष अणुवत्तिय-अणु- देते हुए का निषेध करके पुन: उसी के पीछे-पीछे जाकर बत्तिय-जाब-ओमासिय-ओभासिय जाया जायतं वा साइजह। ---यावत्-मांग-मांग कर याचना करता है, करवाता है या करने वाले का अनुमोदन करता है। तं सेवमाणे आधज्जा मासियं परिहारवाणं उग्धाहयं । उसे उद्घातिक मासिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) आता है। -नि. उ. ३, सु. १-१२ भारथिएहि उहि बहावण पायच्छित्त सुत्ताई- गृहस्थ से उपधि वहन कराने के प्रायश्चित्त सूत्र४६३.जे भिक्षू अन्नउत्थिएण वा गारस्थिएण वा उहि वहावे, ४६३. जो भिक्षु अन्यतीथिक या गृहस्थ से उपधि बहन करवाता वहावेत वा साहस है, या करवाने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू तग्णीसाए असणं वा-जाथ-साइमं वा वेड देतं वा जो भिक्षु अन्यतोथिक या गृहस्थ को उपधि वहन कराने के साइज्जा। बदले में अशन पावत्-स्त्राद्य देता है, दिलवाता है या देने वाले का अनुमोदन करता है। त सेवमागे मावज्जइ चाजम्मासियं परिहारट्ठागं उग्धाइयं । उसे उद्घातिक चातुर्मासिक परिहारस्थान (प्रायश्चित) -नि. उ. १२, सु. ४०-४१ आता है। गारस्थिया आहार दाण पायच्छित्त सुत्तं गृहस्थ को आहार देने का प्रायश्चित्त सूत्र४६४. जे मिक्खू अण्णउस्थियस्स वा, मारस्थियस्स या असणं वा ४६४. जो भिक्षु अन्यतीथिक या गृहस्थ को अशन - यावत् - -जाव-साइमं वा बेहतं का साइज्जइ। स्वाद्य देता है, दिलवाता है या देने वाले का अनुमोदन करता है। त सेवमाणे आवजह चाउम्भासियं परिहारट्टाणं उग्याइयं। उसे सद्घातिक रातुर्मासिक परिहारस्यान (प्रायश्चित्त) -नि.उ.१५, सु.७५ आता है। गारस्यिय सद्धि आहार करण पायच्छित्त सुत्ताई- गृहस्थों के साथ आहार करने के प्रायश्चित्त सुत्र४६५. भिक्खू अण्णस्थिहि वा भारत्तिएहि वा सदि मुंजइ ४६५. जो भिक्षु अन्यतीथिकों या गृहस्थों के साथ (समीप में मुंजंतं वा साइज्जड़। बैठकर) आहार करता है, करवाता है या करने वाले का भनु मोदन करता है। जे भिक्खू अण्णउथिएहि वा गारथिएहि वा आवेदिय-परि- जो भिक्षु अन्यतीथिकों या गृहस्थों से घिरखर (कुछ दूर वेलिय मुंजइ भुंजत वा साइज्जा । बैठे या खड़े हों तो) आहार करता है, करवाता है या करने वाले का अनुमोदन करता है। तं सेवमाणे आवाज चाउम्मासियं परिहारद्वाणं घायं। उसे उद्घातिक चातुर्मासिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि.उ. १६, सु. ३७-३८ आता है। Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ४६६ भिक्वणा गणपरिचाओ ४२६. गणावश्रुमणे दम तं जहा १. सव्यधम्मा रोमि । २. एगइया रोएम, एगइया णो रोमि । ३. धम्मा वितिच्छिामि । ४. एक्या वितिगिच्छामि, एगइया नो वितिमिच्छामि । ५. सध्वधम्मा कुहुगामि । ६. एम एपमा यो मानि ७. इच्छामि णं मंते ! एगल्लविहारपडिमं उपसंपत्ति विहरिए । - ठा. अ. ७ . २४१ आयरिय वज्रएहि गणपरिचाओ४६७. पंचहानेह अपरिय-उवमायस्स गप्पावक्कमये पण्णसे, तं जहा १. परियार गत आणं वा धारणं वा सम्भ परंजिला भवति । २. रिसाए व अधाराभिवाद कितिक बेजयं णो सम्मं परंजिला भवति । - गणापक्रमण - ११ - ३. आयरिया गसिके जाते धारेति ते काले गो सम्ममणवादेता भवति । ४. आयरियाए पति सगनियाए वा परनियाए माग्मिी महिलेले प्रयति । द्वारा गण-परिस्थाग ५. मिले नामिका से गणाओं अवकमेवाि या गणावकमणे पणते । संघ व्यवस्था भिक्षु द्वारा गणपरित्याग ४६६, सात प्रकार का गणपरित्याग कहा गया है, यथा [ २३७ हूँ) इस गण में ऐसा योग्य पात्र परित्याग करना चाहता हूँ ।) www (१) सर्व श्रुत चारित्र धर्मों के पालन की रुचि रखना है (इल गण में सम्भव नहीं है अतः इन का परित्याग करता हूँ ।) (२) इस गण के कुछ श्रुत चारित्र धर्मो के पालन में रुचि रखता हूँ और कुछ के पालन में रुचि नहीं रखता हूँ ( अत: इस गण का परित्याग करता हूँ) (३) इस गण के सभी श्रुत चारित्र धर्मों के पालन में संशय रखता हूँ ( अतः इस गण का परित्याग करता हूँ) (४) इस गण के कुछ श्रुत वारित्र धर्मो के पालन में संशय रखता हूं और कुछ के पालन में संशय नहीं रखता हूँ ( अतः इस गण का परित्याग करता हूँ) (५) सभी श्रुत चारित्र धर्म (योग्य पात्र को देना चाहता कोई नहीं है अतः इस गण का (६) कुछ श्रुत चारित्र धर्म योग्य पात्र को देना चाहता हूँ और कुछ नहीं देना चाहता हूँ (इस गण में ऐसा कोई योग्य पात्र नहीं है अतः इस गण का परित्याग करना चाहता हूँ) (७) भन्ते ! मैं एकल विहार पडिमा स्वीकार करना चाहता है अतः इस बग का परित्याग करता हूँ) आचार्य उपाध्याय द्वारा गणपरित्याग-४६७. पाँच कारणों से आचार्य - उपाध्याय का गण परित्याग कहा गया है (१) गण में आचार्य या उपाध्याय की आज्ञा या धारणा का पूर्ण पाजन न होता हो तो वे गण का परित्याग करते हैं । (२) मण में दीक्षा पर्याय के क्रम से विनय तथा वन्दन व्यवहार न होता हो तो आचार्य या उपाध्याय गण का परित्याग कर देते हैं । (३) गण में जितने श्रुतधर हैं वे समय-समय पर ( शिष्य समुदाय को ) आगम वाचना न देते हों तो आचार्य या उपाध्याय गण का परित्याग कर देते हैं । (४) गण में स्वगण या परगण को निर्ग्रन्थी में आसक्ति रखने वाला कोई हो तो आचार्य या उपाध्याय गण का परिश्याग कर देते हैं । (५) आचार्य वा उपाध्याय के मित्र या स्वजन गण का परित्याग कर दें तो वे उन्हें गण में लाने के लिए या उन पर - ठाणं. म. ५, उ. २, सु. ४३९ उपकार करने के लिए गण का परित्याग करते हैं । Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८) चरणानुयोग-२ भूत पहण करने के लिये अन्य गग में जाने का विधि-निषेध सूत्र ४६८ करना न सुय गहणट्ठा अण्ण-गण गमण विहि-णिसेहो श्रत ग्रहण के लिये अन्य गण में जाने का विधि-निषेध-- ४६८, मिक्ल व गणाओ अवश्काम इच्छेज्जा अन्नं गण उवसंप. ४६८, यदि कोई भिक्षु स्वगण को छोड़कर अन्यगण को श्रुत ज्जित्ता गं विहरिसए, नो से कप्पह अणापुच्छिता-- ग्रहण के लिए स्वीकार करना चाहे तो उसे -- १. आयरियं वा. २. उवज्शाय वा, ३. पक्षप्तय वा, (१) आचार्य, (२) उपाध्याय, (३) प्रवर्तक, ४. पेरं वा. ५. गणि वा, ६. गणहर वा, (४) स्थविर, (२) गणी, (६) गणधर या ७. गणाधकछेइयं वा अन्नं गणं उनसंपन्जिता ग विहरितए। (७) गणावच्छेदक को पूछे बिना अन्य गण को स्वीकार करना नहीं कल्पता है। कप्पद से आपुग्छिता आयरियं वा-जाव-गणावच्छेदयं वा किन्तु आचार्ययावत्-गणावच्छेदक को पूछकर अन्य अन्नं गगं उपसंपज्जित्ता गं बिहरिसए । गण स्वीकार करना कल्पता है। ते य से विपरेग्जा, एवं से कम्पद अन्नं गणं उपसंपजित्ता यदि वे आज्ञा दें तो अन्य गण को स्वीकार करना ण बिहरितए। कल्पता है। ते य से नो वियरेज्जा, एवं से नो कप्पड अन्नं गण उपसंय- यदि वे आज्ञा न दें तो अन्य गण को स्वीकार करना नहीं जिसा विहरितए। कल्पता है। गणावच्छेया वगणाओ का लग्नं गण यदि गणावच्छेदक स्वगण को छोड़कर श्रुत ग्रहण के लिये उपसंपरिजना विहरिसए अन्य गण को स्वीकार करना चाहे तोनो से कप्पद गणावच्छेायत्त अनिक्खिवित्ता अन्नं गणं - उसे अपने पद का त्याग किए बिना अन्य गण को स्वीकार संपज्जिता गं विहरितए। करना नहीं कल्पता है। कप्पा से गगावच्छेइयत्त निषितवित्ता अन्न उपसंपग्जिताउरो अपने पद का त्याग करके अन्य गण को स्वीकार करना णं विहरिसए । कल्पता है। नो से कप्पा अगापुरिछसा आयरियं वा-जाव-गणावपछइयं आचार्य यावत्-गणावच्छेदक को पूछे बिना उसे अन्य वा अन्नं गगं उपसंपञ्जित्ता विहरित्तए । गण को स्वीकार करना नहीं कस्पता है। कप्पद से आपुच्छित्ता आयरियं वा-जाव-पणावच्छेहयं वा किन्तु आचार्य-यावत् -गणावच्छेदक को पूछकर अन्य अन्नं गगं उवसंपरिजसा विहरिप्तए । गण को स्वीकार करना कल्पता है। ते य से वियरेजा, एवं से कप्पाइ अन्न गणं उपसंपज्जिता यदि वे धाज्ञा दें तो उसे अन्य गण को स्वीकार करना विहरिसए। कल्पता है। ते य से नो वियरेक्जा एवं से नो कापड अन्नं गणं उपसंप- यदि वे आज्ञा न दें तो उसे अन्य गण को स्वीकार करना ग्जिसा विहरित्तए। नहीं वल्पता है। आयरिय-उवज्झाए म गणाओ अवक्कम्म इन्छेज्जा मन्नं गणं आचार्य या उपाध्याय यदि स्व गण को छोड़कर अन्य गण उपसंपग्जिता मं विहरितए को श्रुत ग्रहण के लिये स्वीकार करना चाहे तोनो से कप्पा आधरिय-उवमायत्तं अनिक्लिवित्ता अन्नं गणं उन्हें अपने पद का त्याग किये बिना अन्य गण को स्वीकार उपसंपज्जित्ता विहरितए। करना नहीं कल्पता है। कप्पड से आयरिय-उवमायतं निक्खिवित्ता अन्नं गणं उय- अपने पद का त्याग करके अन्य गण को स्वीकार करना संपश्जिता गं विहरितए । कल्पता है। मो से कम्पद अणापुच्छिता आयरियं वा-जाव-गणावच्छेदयं आचार्य-यावत्-गणादच्छेदक को पूछे बिना उन्हें अन्य वा अन्नं गण उपसंपज्जित्ता णं विहरितए । मण को स्वीकार करना मही कल्पता है। कप्पह से आपुच्छित्ता आयरियं वा-जाक्-गणावच्छेइयं वा किन्तु आचार्य-यावत्-गणावच्छेदक को पूछकर अन्य अन्म गण उपसंपज्जित्ता ण विहरित्तए। गण को स्वीकार करना कल्पता है। ते प से वियरेज्ना, एवं से कप्पड अन्नं गणं उपसंपजिसा यदि वे आज्ञा दे तो उन्हें अन्य गण को स्वीकार करना पं विहरित्तए। करपता है। Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ४६८-४६६ सांभोगिक व्यवहार के लिए अन्य गण में जाने का विधि-निषेध ते य से नो वियरेज्जा, एवं से नो कप्पड़ अन्नं गणं जनसंप ज्जिता णं विहतिए' । - कष्प उ. ४, सु. २०-२२ fera य गणाओ अareम्म अन्नं गणं जसं पज्जित्ताणं बिह रेज्जा, तं केद्र साहम्मिए पासिता वज्जा - प० " बक्जो ] उपसंपज्जिता विहरनि ? उ०- जे सत्य सवराइणिए तं वज्जा । १०- "अह पन्ते ! कस्स करवाए ?" उ०- जे सरथ सम्व बहुस्सुए सं वएज्जा, जं वा से भगवं सरस आणा उबवाय वयण से वरसड़ चिट्ठिस्लामि - उ. ४, सु. १० कलावरिया-जाय गणदयं वा जाव-गणाच्छे वा अन्नं गणं संभोगवडियाए उमंग बिहरिए । प ते से दिया एवं से कम्पद अम्मं गणं संभोगवडियाए उपजिला बिहरिए। संघयवस्था [२३६ सेय से नो वियज्जा एवं से नरे कप्पह अनं गणं संभोगबडिमाए उपसंपति बिहरिए । जत्तरियं धम्मविषयं सा एवं से संभोग लिए । जसरि धम्मविजयं नो एवं से नो अ गणं संभोगडियाए उनसंपज्जिता णं विहरित्तए । गणावच्छेइए य गणाओ अश्वपम्म इच्छेज्जा अन्नं गणं संभोगडिया उपवर यदि वे आज्ञा न दें तो उन्हें अन्य गण को स्वीकार करना नहीं कल्पता है । विशिष्ट ज्ञान प्राप्ति के लिए यदि कोई भिक्षु अपना छोड़कर अन्य गण को स्वीकार कर विचर रहा हो उम्र समयउसे उस गण में देखकर कोई स्वधर्मी भिक्षु पूछे किप्र० -- 'हे आर्य ! तुम किस को निश्रा में विचर रहे हो ?" उ०- तब वह उस गण में जो दीक्षा में सबसे बड़ा हो उसका नाम कहे । प्र० - पुनः पूछ कि हे भदन्त ! किस में हो ?" बहुभूत की 5. मुक्ता संभोग वडियाए अण्ण-गण-गमण विहि-जिसेहो ४६६. भिक्खू य गणाओ अवक्कम्म इच्छेज्जा अन्नं गणं संभोग- ४६६. भिक्षु यदि स्वगण से निकलकर अन्य गण को सांयोगिक करना चाहे तो एउवसंज्जित्ता णं विहार- — नो मे कप्पर अापुच्छिता आयरि वा जाव-गणावह या अन्नं गणं संभोगडिया उपसंपविताणं बिहलिए । उसे आचार्य - यावत् - गणावच्छेदक को पूछे बिना अन्य गण को सांयोगिक व्यवहार के लिए स्वीकार करना नहीं कल्पता है । उ०- तब उस गण में जो सबसे अधिक बहुश्रुत हो उसका नाम कहे तथा वे जिनकी आज्ञा में रहने के लिए कहें उनकी ही आजा एवं उनके समीप में रहकर उनके ही वचनों के निर्देशानुसार में रहेगा "ऐसा कहे सोभोगिक व्यवहार के लिए अन्य गण में जाने का विधिनिषेध किन्तु आचार्य यावत् गणावच्छेदक को पूछकर अन्य गण को भोगिक व्यवहार के लिए स्वीकार करना वरूपता है । यदि वे आशा दें तो अन्य गण को सांयोगिक व्यवहार के लिए स्वीकार करना कल्पता है। यदि वे आज्ञा न दें तो अन्य गण को सांभोगिक व्यवहार के लिए स्वीकार करना नहीं कल्पता है । यदि संयम धर्म की उन्नति होती हो तो अन्य गण को भोगिक व्यवहार के लिए स्वीकार करना कल्पता है। किन्तु यदि संयम धर्म की उन्नति न होती हो तो अन्य गण कोसोभोगिक व्यवहार के लिए स्वीकार करना नहीं कल्पता है । गणावच्छेदक यदि स्थगण से निकलकर अन्यगण को सांभोगिक व्यवहार के लिए स्वीकार करना चाहे तो ― १ एक गण में अनेक आचार्य हों तो गण छोड़ने में वह अन्य बड़े आचार्य को पूछता है या अन्य प्रमुख गणावच्छेदक आदि कोई पदवीधर हों तो उन्हें पूछता है। near a कोई पदवीधर गण में न हो तो अन्य को आचार्य बनाकर फिर उसे पूछकर उसकी आशा लेकर अन्य गण में जा सकता है । Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० घरणानुयोग-२ भोगिक व्यवहार के लिए अन्य गण में जाने का विधि-निषेध सूत्र ४६१ नो से कप्पड़ गणाबच्छेइयतं अनिक्खिविता अन्नं गणं उसे गणावच्छेदक का पद छोड़े बिना अन्य गण को सांभोसंभोगपडियाए उपसंपज्जित्ता गं विहरित्तए। गिक यमबहार के लिए स्वीकार करना नहीं कल्पता है। कप्पह से गणावच्छेदयत्तं निविषवित्ता अन्नं गणं संभोग- किन्तु गणाव दक का पद छोड़कर अन्य गण को साभोपडियाए उसंपज्जिता र्ष विहरित्तए । गिक व्यवहार के लिए स्वीकार करना कल्पता है। नो से कप्पर अणापुच्छिता आयरियं वा-जाव-गणावच्छे इयं आचार्य-यावत्-गणावाछेदक को पूछे बिना अन्य गण वा अन्नं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जिता गं विहरित्तए। को सांभोगिक व्यवहार के लिए स्वीकार करना नही कल्पता है। कप्पह से आपुच्छित्ता आपरियं वा-जाब-गणावच्छेदयं था किन्तु आचार्य-यावत्-गणावच्छेदक को पूछकर अन्य अन्नं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ताणं बिहरित्तए। गण की सामागिक व्यवहार के लिए करना कल्पता है। ते य से वियरेज्ला, एवं से कप्पर अन्नं गणं संभोगपडियाए वे यदि आज्ञा दें तो अन्य गण को सामोगिक व्यवहार के उपसंपज्जित्ता णं विहरिसए। के लिए स्वीकार करना कल्पता है। ते प से नो वियरेक्जा, एवं से नो कप्पइ अन्नं गणं संभोग- वे यदि आज्ञा न दें ली अन्य गण को सांभोगिक व्यवहार पडियाए उपसंपज्जित्ता गं विरितए । के लिए स्वीकार करना नहीं कल्पता है। जत्यत्तरिय धम्मविणयं लभेजा, एवं से कप्पइ अझ गणं यदि गंयम धर्म की उन्नति होती हो तो अन्य गण को संभोगपडियाए उघसंपज्जित्ता गं बिहरितए । गांभोगिक व्यवहार के लिए स्वीकार करना कल्पता है। जत्युत्तरिय धम्मविणयं नो लभेम्जा, एवं से नो कप्पइ अन्नं किन्तु यदि संयम धर्म की उन्नति न होती हो तो अन्य गण गणं संभोगपडियाए उपसंपन्जिता विहरित्तए । को मांभोगिक व्यवहार के लिए स्वीकार करना नहीं कल्पता है। आयरिय-उवमाए य गणामो अवपकम्म इच्छज्जा अन्न आचार्य या उपाध्याय यदि स्वगण से निकलकर अन्य जा गणं संभोगपडियाए उपसंपज्जित्ता गं विहरिसए। को सांभोगिक व्यवहार के लिए स्वीकार करना चाहे तोनो से कम्पद आयरिय-उवज्ञायत्तं अनिक्लिवित्ता अन्नगणं उन्हें अपने पद का त्याग दिए बिना अन्य गण को सांभो.. संमोगपक्षियाए उवसंपज्जित्ता गं विहरित्तए। ध्यवहार के लिए स्वीक र करना नहीं कल्पता है। कप्पड़ से आयरिय-उवज्झायत्तं निक्सियित्ताणं अन्न गणं किन्तु अपने पद का त्याग करके अन्य गण को मांभोगिक संभोगपडियाए उदसंपत्तिाणं विहरित्तए । व्यवहार के लिए स्वीकार करना कल्पता है। नो से कप्पद अथापुस्छिता आयरियं वा-जाव-गणावच्छेइयं आचार्य-यावत्:-गणावच्छेदक को पूछे बिना उन्हें अन्य षा अन्नं गर्ण संभोगपरियाए उवस पज्जित्ता णं विहरित्तए। गण को सांभोगिक व्यवहार के लिये स्वीकार करना नहीं कल्पता है। कम्पद से आपुच्छिता आयरियं घा-जाब-गणावच्छेइयं वा किन्तु आचार्य-यावत् -- गायच्दक को पूछकर अन्य अन्नं गणं संभोगपडियाए उवसंपजित्ता णं विहरितए। गण बने सांभोगिक व्यवहार के लिये स्वीकार करना कल्यता है । हे म से वियरेज्जा, एवं से कप्पड अन्नं गणं संभोगपडियाए थे पदि आज्ञा दें तो अन्य मण को सांभोगिक व्यवहार के उपसंपज्जित्ता गं विहरित्तए। लिये स्वीकार करना कल्पता है । ते य से नो वियरेन्जा, एवं से नो कप्पह अन्नगणं संभोग- वे यदि आज्ञा न दें तो अन्य गण को साभोगिक व्यवहार के पडियाए उथसंपज्जित्ता णं विहरिसए। लिये स्वीकार करना नहीं कल्पता है। जत्युत्तरियं धम्मविणयं सभेज्जा, एवं से कप्पइ अन्न गणं यदि उत्कृष्ट श्रुत एवं चारित्र धर्म की प्राप्ति होती हो तो संभोगपडियाए उबसंपज्जिता गं विहरिसए । अन्य गण को सांभोगिक व्यवहार के लिये स्वीकार करना कल्पता है। जत्वत्तरिय धम्मविणयं नो लभेज्जा, एवं से नो कप्पड़, किन्तु यदि संयम धर्म की उन्नति न होती हो तो अन्य गण अब गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ता गं विहरितएको सांभोगिक व्यवहार के लिए स्वीकार करना नहीं कल्पता है । -कप्प. उ. ४, सु. २३-२५ Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १००-५०१ सांभोगिक व्यवहार के लिये गणसंक्रमण का प्रायश्चित सूत्र संध-व्यवस्था [२४१ संभोग वडियाए गण संकमण पायच्छित सुत्त सांभोगिक व्यवहार के लिये गणसंक्रमण का प्रायश्चित्त पूत्र ५०..जे भिक्खू बुसिराहयाओ गणाओ अवृसिराइयं गणं संकमइ, ५००. जो भिक्षु विशेष चारित्र गुण सम्पन्न गण से अल्प पारिष संकमतं वा साइज्जद। गुण वाले गण में संक्रमण करता है, करवाता है या करने वाले का अनुमोदन करता है। तं सेबमाणे आवजह चाउम्मासियं परिहारट्टाणं उराघाइय। उसे चातुर्मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि. उ.१६, सु. १६ आता है। आयरियाईणं वायणदाए अण्ण-गण-गसण विहि-णिसेहो- आचार्य आदि को वाचना देने के लिये अन्य गण में जाने ___ का विधि-निषेध५०१. भिक्खू य इच्छेन्जा, अन्न आयरिय उवसायं उदिसावेत्तए, ५०१. भिक्षु यदि अन्य गण के आचार्य या उपाध्याय को याचना देने के लिए (या उनका नेतृत्व करने के लिये) जाना चाहे तोनो से कप्पद अगापुग्छित्ता आयरिय वा-जाद-गणावच्छेइयं अपने आचार्य-यावत -गणावच्छेदक को पूछे बिना अन्य वा अन्न आयरिय-उवमायं उदिसावेत्तए। आचार्य या उपाध्याय को वाचना देने के लिए जाना नहीं कल्पता है। कप्पड़ से आपुच्छिता आयरियं वा-जाव-गणावच्छेइयं वा किन्तु अपने आचार्य-यावत् - गणावच्छेदक को पूछ कर अन्न आयरिय-उवमार्य उद्दिसावेत्तए । अन्य आचार्य या उपाध्याय को नाचना देने के लिए जाना कल्पता है । ते य से वियरेज्जा एवं से कप्पइ अन्न आयरिय-उपस्मायं वे यदि आशा दें तो अन्य आचार्य या उपाध्याय को वाचना उद्दिसावेत्तए। देने के लिये जाना कल्पता है। ते य से नो वियरेज्जा, एवं से नो कप्पइ अन्न आयरिय- वे यदि आशा न दें तो अन्य आचार्य या उपाध्याय को उवसायं उद्दिसावेत्तए। वाचना देने के लिए जाना नहीं कल्पता है। नो से कप्पद तेसि कारणं अवीवित्ता अन्न आयरिय-उवमार्य उन्हें कारण बताये बिना अन्य आचार्य या उपाध्याय को उदिसावेत्तए । वाचना देने के लिए जाना नहीं कल्पता है। कप्पड़ से तेसि कारण बीविता अन्न आयरिय-उवमायं किन्तु उन्हें कारण बताकर ही अन्य आचार्य या उपाध्याय उहिसावेत्तए। को बाचना देने के लिये जाना कल्पता है। गणावच्छेहए य इच्छेज्मा अन्न आयरिय-उवमायं उद्दिसा- गणावच्छेदक यदि अन्य गण के आचार्य या उपाध्याय को वेत्तए, वाचना देने के लिये (या उनका नेतृत्व करने के लिये) जाना चाहे तोनो से कप्पइ गणावच्छेइयत्त अनिक्खिबित्ता अन्न आयरिय- उसे अपना पद छोड़े बिना अन्य आचार्य या उपाध्याय को उवमायं उद्दिसावेत्सए । वाचना देने के लिये जाना नहीं कल्पटा है। कप्पद से गणावच्छेइयत्तं निपिखवित्ता अन आयरिय- किन्तु अपना पद छोड़कर अन्य आचार्य या उपाध्याय को उबरसायं उहिसावेत्तए। वाचना देने के लिए जाना कल्पता है ।। नी से कप्पद अणापुच्छिता आयरियं वा-जाद-गणावच्छेइयं अपने आचार्य-यावत्-गणावच्छेदक को पूछे बिना अन्य वा अन्न बायरिय-उनमायं उदिसावेत्तए। .. आचार्य या उपाध्याय को वाचना देने के लिये जाना नहीं कल्पता है। कप्पह से आपुग्छिता आयरियं वा-जाब-गणावपछइयं वा किन्तु अपने आचार्य यावत्-गणावच्छेदक को पूछ कर अन्न अायरिय-उपासायं उहिसावेत्तए। अन्य आरायं या उपाध्याय को वाचना देने के लिये जाना काल्पता है। Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२] परणानुयोग-२ अन्य गण से आये हुओं को गग में सम्मिलित करने के विधि-निषेध पूत्र ५०१-५०२ तेय से वियरेज्जा, एवं से कप्पद अग्नं आयरिय-अवज्झायं वे यदि आज्ञा दें तो अन्य आचार्य या उपाध्याय को वाचना उदिसावेत्तए । देने के लिए है। ते य से नो वियरेज्जा, एवं से नो कप्पड अन्न आयरिय- वे यदि आज्ञा न दें तो अन्य आचार्य या उपाध्याय को उबजमायं उहिसावेतए । वाचना देने के लिये जाना नहीं कल्पता है। नो से कप्पद तेसि कारणं अवीवेत्ता अन्नं आयरिय-उवसायं उन्हें कारण बताए बिना अन्य आचार्य या उपाध्याय को उदिसावेत्तए। वाचना देने के लिए जाना नहीं करूपता । कप्पड़ से तेसि कारणं वीवेत्ता अन्नं आयरियं वा उवमायं किन्तु उन्हें कारण बताकर ही अन्य आचार्य या उपाध्याय वा उद्दिसावेत्तए। को वाचना देने के लिये जाना कल्पता है। आयरिय-उवमाए य इच्छेज्जा अन्नं बायरिय-उबझाब- आचार्य या उपाध्याय अन्य आचार्य या उपाध्याय को उहिसावेत्तए, वाचना देने के लिये या उनका नेतृत्व करने के लिये जाना चाहे तोनो से कप्पइ आयरिय-उवमायसं अमिक्खिवित्ता अन्न उन्हें अपना पद छोरे बिना अन्य आचार्य या उपाध्याय को आपरिय-उबमायं उहिसावेत्तए।। वाचना देने के लिये जाना नहीं करूपता है। कम्प से आयरिय-उवजमायत्तं निविखवित्ता अन्न आयरिया किन्तु अपना पद छोड़कर अन्य आचार्य या उपाध्याय को उबज्माय उदिसावेत्तए। वाचना देने के लिये जाना कल्पता है। नो से कप्पड अणापुच्छित्ता मायरियं या-जाव-गणावच्छेदयं उन्हें अपने आचार्य-यावत्-गणावच्छेदक को पूछे बिना वा अन्न आयरियं-उबजमायं उद्दिसावेत्तए । अन्य आचार्य या उपाध्याय को वाचना देने के लिये जाना नहीं कल्पता है। कप्पई से आपुस्छिता आयरियं वा-जाद-गणावच्छेदयं वा किन्तु उन्हें पूछकर अन्य आचार्य या उपाध्याय को याचना अझ आयरिय उबझायं उद्दिसावेसए। देने के लिये जाना कल्पता है। ते य से वियरेज्जा, एवं से कप्पा अन्न आयरिय-उपग्मायं वे यदि आज्ञा दें तो अन्य आचार्य या उपाध्याय को वाचना हिसावेतए। देने के लिये जाना कल्पता है। ते य से नो वियरेज्जा, एवं से नो कप्पा अन्नं आयरिय- वे यदि आज्ञा न दें तो अन्य आचार्य या उपाध्याय को जबनमाय उद्दिसावेत्तए। वाचना देने के लिये जाना नहीं कल्पता है। नो से कप्पा तेसि कारणं अदीबेत्ता अन्न आयरिय-उबम्साय सपने आचार्य या उपाध्याय को कारण बताए बिना अन्य उहिसाबेसए। आचार्य या उपाध्याय को वाचना देने के लिये जाना नहीं कल्पता है। कम्प से तेसि कारणं बोवेत्ता अन्न आयरिय-उवलायं किन्तु उन्हें कारण बताकर अन्य आयाय या उपाध्याय को उदिसावेतए। -कप्प. उ. ४, सु. २६-२८ वाचना देने के लिए जाना कल्पता है। अण्णगणाओ आगयाणं गणपवेसस्स विहि-णिसेहो-- अन्य गण से आये हओं को गण में सम्मिलित करने के विधिनिषेध५०२. मो कम्पा निर्णयाण वा निग्गयोण वा निधि अपनगणामो ५०२. खण्डित शबल, भिन्न और संक्लिष्ट आहार वाली अन्य आगयं खुयायारं, सबलायार, भिन्नायारं, मंफिलिटायारं गण से आई हुई निम्रन्थी को सेवित दोष की आलोचना, प्रतितस्स ठाणस अणालोयावेता अपहिक्कमावेसा, अनिदावेता, क्रमण, निन्दा, गर्हा, म्युत्सर्ग एवं आत्म-शुद्धि न करा लें और अगरहावेत्ता, अविउट्टावेत्ता, अक्सिोहावेत्ता, अकरणाए, भविष्य में पुन: पापस्थान सेवन न करने की प्रतिज्ञा कराके दोषाअणमुट्ठावेत्ता, अहारिहं पायच्छित अपडियज्जावेत्ता उबटुइ- नुरूप प्रायश्चित्त स्वीकार न कराले तब तक निर्ग्रन्थ निग्रंन्थियों वेत्तए वा, संभुजित्तए वा, संवसित्तए वा, तीसे इत्तरिय को उसे पुनः चारित्र में उपस्थापित करता, उसके साथ सांभोविसं वा, अणुविसं वा, उद्दिसित्तए वा धारेत्तए वा। गिक व्यवहार करना और साथ में रखना नहीं कल्पसा है, तथा उसे अल्पकाल के लिए दिशा या अनुदिशा का निर्देश करना या धारण करना नहीं कल्पता है । Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०२ अन्य गण से आये हुओं को गम में सम्मिलित करने के विधि-निषेध संघ-व्यवस्था कम्प निरगंभाग वर निरगंथीण वा निग्र्गय अन्तगणाओ आगयं सुपाया समारं वा भिग्नावारं संलिप्पारं ara aiere आलोयावेता परिसमावेशा, निवेता, रहावेत्ताविरावेता, विसोहावेता, अकरणास वेत्तर, अहारिहं पापच्छिलं परिवज्जादेता उबद्वावेतए मा संजिव संलिए वा ततरियं वा दिवा अदि वा उद्दिसिलए वा धारेल या नो कप्पड़ निषाण वा निभ्यंीण वा निग्गवं अन्तगणाओ आग बुधावारंजा-संकिनिद्वावार तस्स डागस्स बणामी माता जाव अहारिहं पायछि अपडिवज्जावेत्ता उबट्टावेत्तए वा, संभुजिलए वा संवत्तिए वा तस्स इत्तरियं दिसं वा अणुदिसं वा उद्दितिए वर धारेतए वा । कम्पs निग्गंथाण वा निग्गंधीण वा निष्गंध अन्नगगाओ आग खुयापारं वा जाब- संकि लिट्ठायारं सस्स ठाणस्स आलोयावेता जाव अहारिहं पायच्छितं पडिवावेत्ता उबवेलए वा संभुजिताए वा संवसितए या तस्स इत्तरियं दिसं या अणुविसं या उद्दितिए वा धारेलए वा । - वब. उ. ६, सु. १८-२१ जे निग्या वा निग्गंथोओ य संभोइया सियर, नो करपक निगांधीगं निग्गंथे अगापुच्छिता निशाय अन्तगणाओ मजुवावार-संकिलट्ठायारं तस्य ठाणवस अणाली माता अहार पायवेला पृच्छित वा, वातए था, उबट्टा वेसए वा संभुत्तिए वा संवत्तिए या तीसे इत्तरियं दिसं वां अविसं वा उद्दिसिए वा धारेत कर जे निम्गंधा व निग्गंयोओ य संभोइया सिया कप्पह निगांधी निरगंधे आपुच्छिता निधि अन्नगणाओ आगयं छुपाया था किविद्वापारं तर टायरस आलोयावेसा जाव-जाब पाय पडावेता पुलिस बाबा उट्ठाए या संभूलिए वा संवति वा सोसेसर दिवा अविवाहित वा धारेलए वा । 1 जे निषा व निम्गंधीओ य संभोइया सियर, कप्पड़ निम्गंया निग्र्गणीओ बापुच्छि वा निर्णय [२४३ खण्डित, शबल, भिन्न और संक्लिष्ट आचार वाली अन्य गण से आई हुई निर्बन्धी को रोक्ति दोष की आलोचना, प्रतिक्रमण निन्दा, हम एवं भद्धि कराने तथा भविष्य में पुनःस्थान सेवन न करने की प्रतिज्ञा के साथ दोषानुरूप प्रायश्वित स्वीकार करा लें तो निर्ग्रन्य-निर्ग्रन्थियों को उसे पुनः चारित्र में उपस्थापित करना, उसके साथ सम्भोगिक व्यवहार करना और साथ में रखना कल्पता है, तथा उसे अल्पकाल के लिए दिशा या अणुदिक्षा का निर्देश करना या धारण करना कल्पता है । खण्डित - यावत्-संक्लिष्ट बाचार वाले अन्य गण से आये हुए निर्मम्य को सेति दोष की आलोचना-पावत्दोषानुरूप प्रायश्चित्त स्वीकार न कराले तब तक निर्ग्रन्थ-निग्रॅन्थियों को उसे पुनः चारित्र में उपस्थापित करना, उसके साथ साम्भोगिक व्यवहार करना और साथ में रखना नहीं कल्पता है। तथा उसे अल्पकाल के लिए दिशा या अनुदिशा का निर्देश करना या धारण करना नहीं कल्पता है 1 पण्डित - यावत्-संक्लिष्ट आचार वाले अन्य गण से आये हुए निर्ग्रन्थ को यावत्-- दोषानुरूप प्रायश्चित्त स्वीकार करा लें तो निर्ग्रन्थ निन्थियों को उसे पुनः चारित्र में उपस्थापित करना, उसके साथ साम्भोगिक व्यवहार करना और साथ में रखना कल्पता है, तथा उसे अल्पकाल के लिए दिया या अणुदिशा का निर्देश करना या धारण करना कल्पता है । जो निर्मन्य-निन्थियां सांभोगिक है और निर्ग्रन्थी के समीप यदि कोई अन्य गण से सति यावत् संक्लिष्ट आचार वाली निर्धन्विनी आए तो निध को पूछे बिना और उसके पूर्व सेवित दोष को बोनापात् दोषानुरूप प्रायवित्त स्वीकार कराये बिना उसकी सुख-शाता पूछना, उसे वाचना देना, चारित्र में पुनः उपस्थापित करना, उसके साथ बैठकर भोजन करना और साथ रखना नहीं कल्पता है। तथा उसे अल्पकाल के लिए दिशा या अनुदिशा का निर्देश करना या धारण करना नहीं कल्पता है। जो नियोगिक है और नित्य के समीप यदि कोई अन्य गण से खण्डित - पावत् - संक्लिष्ट आचार वाली निन्दिनी आए दो निर्धन्य को पूछकर वदा नित दोर की आलोचना यावत् दोषानुरूप प्रायश्नित स्वीकार करके उसे - खाता पूछना, वाचना देना चारिण में पुनः उपस्थापित करना, सुख-शाता उसके साथ बैठकर भोजन करना और साथ रखना कल्पता है । उसे अल्पकाल के लिए दिशा या अनुदिशा का निर्देश करता या धारण करना कल्पता है । जो निनिय सभोगिक है और नियम यदि कोई अन्य से सहित आचार वानी Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४] चरणानुयोग-२ एकलविहारी के आठ गुण सूत्र ५०२-५०५ अन्नगणाओ आगयं खुमायार-जाव-संकिलिहायारं तस्स निग्रन्थिनी आए तो निग्रन्थिनियों को पूछकर या बिना पूछे भी ठाणस्स आलोयावेता-जा-पायपिछतं परिवजावेसा पुच्छि- सेवित दोष की आलोचना-यावत्-दोषानुरूप प्रायश्चित्त स्वीतए वा, वाएसए था, उबटुरवतए या, संजित्तए वा, संव- कार कराके उसकी सुख माता पूछना, उसे वाचना देना, चारित्र सित्तए वा, तोसे इत्तरिय विस वा, अगुदिसं वा, उहिसिसए में पुनः उपस्थापित करना, उसके साथ बैठकर भोजन करने की वा, धारेसए था, संबनिगंभीओ नो इच्छेजा, सयमेव और साथ रखने की आज्ञा देना कल्पता है। उसे अल्पकाल के नियंठाग। लिए दिशा या अनुदिशा का निर्देश करना या धारण करना कल्पता -प. उ.७, सु. १.३ है। किन्तु यदि निर्ग्रन्थिनियां उसे न रखना चाहें तो उसे वाहिए कि वह पुनः अपने गण में चली जाए। ** एकल मिहार पर्या--१५ एगल्ल विहारिस्स अट्ट गुणा--- एकलविहारी के आठ गुण५०३. अहि पाहि संपणे मणगारे एगल्ल विहारपडिम उव- ५०३, आठ गुणों से सम्पन्न अणगार एकल विहार प्रतिज्ञा को संपमित्ताणं विहरित्तए, तं जहा स्वीकार कर विहार करने के योग्य होता है, यथा१. सब्दी पुरिसजाते, २. सरचे पुरिसजाते, १. श्रद्धावान् पुरुष, २. सत्यशील पुरुष, ३. मेहाबी पुरिसजाते, ४. बहुस्सुते पुरिसजाते, ३. मेधावी पुरुष, ४. बहुश्रुत पुरुष, ५. सत्तिम, ५. शक्तिमान् पुरुष, ६. अप्पधिगरणे, ६. अल्प कषाय या अल्प उपधि वाला पुरुष, ७. घितिमं, ८. बीरिय संपण्णे। ७. ध्रुतिमान् पुरुष, ८. वीर्य (उत्साह) सम्पन्न पुरुष, -ठाणं. अ. E, सु. ५९४ एगागी समणस्स आवास विहि-णिसेहो अकेले भिक्षु के रहने का विधि-निषेध५०४. से गार्मसि बा-जाव-सन्निवेससि वा अभिनिखगराए, अभि- ५०४. भिन्न-भिन्न बाड़, भिन्न-भिन्न प्राकार वाले, भिन्न-भिन्न द्वार निवदुवाराए अभिनिवखमण-पवेसगाए, वाले और भिन्न-भिन्न निष्क्रमण-प्रवेश वाले ग्राम-यावत्-- सन्निवेश में, नो कप्पइ बहुस्सुपरस बम्भागमस्स एपगियस्स भिक्लुस्स अकेले बहुश्रुत और बहुआगमज्ञ भिर को भी बसना नहीं वरपए किमंगपुण अप्पसुयस्स अप्पागमस्स? कल्पता है तो अल्पश्रुत और अल्पआगमज्ञ भिक्ष को बसना कैसे कल्प सकता है ? अर्थात् नहीं कल्पता है। से गामसि वा-जाव-सन्निनेससि वा एगवगवाए, एगवाराए, एक बाड़ या एक प्राकार वाले, एक द्वार वाले और एक एगनिवखमण पवेसाए, निष्क्रमण-प्रवेश वाले ग्राम-यावत् - सन्निवेश में, कप्पड बहुस्सुयस्स मम्मागमस्स एगाणियरस मिक्खुस्स बस्थए अकेले बहुश्रुत और बहुआगमज्ञ भिक्षु को दोनों समय संयम दुहओ कालं भिक्नुभावं पडिजागरमाणस । भान की जागृति रखते हुए रहना कल्पता है । -अव. अ. ६, मु.१४-१५ अवियत्त एगागी भिक्खुस्स दोसाई अपरिपक्व एकाकी भिक्षु के दोष५०५. गामाणुगाम इन्जमाणस्स बुज्जातं पुप्परक्कतं भवति अवि-५०५. जो भिक्षु अपरिपक्व अवस्था में है उसका अकेले प्रामानुयत्तस्स भिक्खुणो। माम विहार करना दुःखप्रद और पतन का कारण होता है । Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ५०५-५०७ अपवाद में एकाकी बिहार का विधान संघ-व्यवस्था [२४५ mmmwammmm.mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm वयसा वि एने बुझ्या कुप्पति माणवा। क्योंकि कुछ साधक प्रतिकूल वचन सुनकर भी कुपित हो उष्णतमाणे प गरे महता मोहेण मुग्मति । जाते हैं । स्वयं को उन्नत मानते हुए कोई अभिमानी सापक प्रबल मोह से मूढ हो जाता है। सबाहा बहवे भुज्जो भुमो दुरतिक्कमा अजाणतो अपासतो। उस अज्ञानी अतत्वदों के लिए बार बार आने वाली अनेक परीषह रूप राधाओं को पार करना अत्यन्त कठिन होता है। एवं ते मा हो। तीर्थकर भगवान् का यह उपदेश है कि ऐसी अवस्था तुम्हारी एवं कुसलस्म सग । -आ. सु १, अ.५, उ. ४, मु. १६२ न हो अतः अव्यक्त. साधक को गुरु के सान्निध्य में ही रहना चाहिए। अववाए एगागी विहार विहाणं अपवाद में एकाकी विहार का विधान५.६. न वा लभेषजा निजणं सहायं, ५०६. यदि अपने से अधिक गुणवान् या अपने समान गुणी कोई गुणाहियं वा गुमओ समं वा। निपुण सहायक न मिले तो भिक्षु पापों का वर्जन करता हुआ, एपको वि परावाई विवरणपन्तो, विषयों में अनासक्त रहकर अकेला ही विहार करे। विहरेज कामेगु अमजमाणो ।' --उत्त. अ.३२, गा.५ एगागी भिक्षुस्स पसस्था बिहार चरिया ... एकाकी भिक्षु की प्रशस्त विहार चर्या५०७. हमेाँस एगरिया होति । ५०७. इस जिनशासन में कुछ साधुओं द्वारा एकाकी चर्या स्वीकृत की जाती है। तस्थितराइत्तरेहि कुसेहिं सुडेसणाए सव्वेसणाए से मेधारी उनमें मेधावी साधु विभिन्न कुलों से शुद्ध एषणा और परिश्वए, सुरिंभ अवुवा दुर्मिक अनुवा तस्य भेरवा पाणा पाणे सर्वेषणा से संयम का पालन करता हुआ विचरे । अनुकूल या किलेसति । ते फासे पुट्ठो धोरो अहियासेक्जासि । प्रतिकूल परिस्थिति में समभाव रखे । अथवा यदि इस चर्या में -आ. सु. १, अ. ६, न. २, सु. १८६ हिंसक प्राणी प्राणों को क्लेश पहुंचाए, तो उन दुःखों का स्पर्श होने पर भी धीर मुनि उन्हें सम्यक् प्रकार से सहन करे। एगे घरे ठाणमासणे, सयणे एगे समाहिए सिया। मिक्षु वचन से गुप्त, मन से गुप्त तथा तपोबली होकर भिश्यू उपहागवोरिए, वइगुप्से अप्पसंपुढे । विचरण करे तथा कायोत्सर्ग, आसन और शयन भी अकेला ही करता हुआ समाधियुक्त होकर रहे। जो पीहे गावावंगुणे, दार सुन्नघरस्स संजते । ___वह भिक्षु यदि शून्य गृह में ठहरा हो तो वहाँ द्वार न खोले पुट्ठो ण उवाहरे व्यं, न समुच्छे नो य संथरे तणं ।। और न ही बन्द करे, किसी से पूछने पर भी न बोले, उस मकान का कचरा न निकाले, और घास भी न बिछाए । (किन्तु अपने आवश्यक स्थान को पूज कर बैठे या सोवे)। जत्थत्यभिए अणाउले, सम-विसमाणि मुणोऽहियासए । जहाँ सूर्य अस्त हो जाए वहीं क्षोभ रहित होकर रह जाए। चरमा अदुवा विभेरवा, अदुवा तस्य सिरीसिवा सिया ।। सम-विषम स्थान हो तो उसे सहन करे। वहाँ यदि डांस-मच्छर आदि हो, अथवा भयंकर प्राणी या साप आदि हों तो भी मुनि इन परीषहों को सम्यक् रूप से सहन करे। तिरिया मणुयाय रिश्वगा, उवसम्मा तिविहाहियासिया। शून्य गृह में स्थित महामुनि तिर्यन मनुष्य एवं देवजनित लोमावीर्य पि ण हरिसे, सुन्नागारगते महामुणी ॥ विविध उपसर्गों को सहन करे । किन्तु भय से रोमांचित न होवे । को अभिकंखेज्जा जीवियं, जो विय पूयणपत्थर सिया । साधु न तो असंपम जीवन की आकांक्षा करे और न ही अबभत्यमुर्वेति मेरवा, सुन्नागारगमस्स भिक्खुणो। सत्कार-प्रशंसा का अभिलाषी बने । शूभ्य गृह स्थित भिक्षु को धीरे-धीरे भयानक प्राणी भी सह्म हो जाते हैं । १ दस. चू.२.गा.१०। Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ ] चरणानुयोग- २ www जवणीततरस्स ताइनो, भयमाणस्स विविसमासणं । सामाइयमाह तस्स नं, जो अप्पार्ण भए प्प बंसए । एकाकी बिहारी का गम में पुनरागमन उदितत्तभोगो, धम्मगुणस्स होमतो संगराव, असमाही उ तहानवस्त्र वि ॥ - सूम. सु. १, अ. २, उ. २, गा. १२२-१२५ अपसस्यादिर चरण 1 गायी ५०० इमे एरिया भवति से बहुको बहुमाने बहुमाए बहुलोमे, बहरते, बहुगडे, बहुसते बहुसंफप्पे, आसवसक्की, पलिओछये उट्टितबारं पवरमाणे मा मे केइ अवक्खु, अण्णाज-पथायोगं तं मुठे धम्मं नाभिजागति -आ. सु. १, न. ५, उ. १, सु. १५१ J एकल विहारिस गणे पुणरायमण ५०. भिनव गायक एपसविहारपनि उपजि साबिरेज्जा से इसमे गणंजय संपाविरतए । पुणो आलोएक्जा, पुणो पडिमकभेज्जा । पुगी परिहार उबट्टाएमा । गगावच्छेदए य गणाओ अववकम्म एगल्लविहारपडिगं ढव संपविता बिरेजा से वह शेवं पितमेवगर्ण उपहरिए पुगो आलोएवा पुगोपा गोपपरिहारस्स उट्ठाएमा । आयरिय-उवज्झाए थ गणाओ अवककम्म एगल्लविहारपडिमं उपसंपविता विहरिए । पुणो आलोएज्जा, पुणो एडिक्कमेज्जा, पुणो परिहारस्साए । ---वच. उ. १, सु. २३-२५ एगाविस समाहि ५१०. एतमेव अधिपत्यएर एवं पमोक्यो मुति पास एसप्पमोक्सो अमुसे परे बी अकोहने सच्चरए तपस्सी । सूप. सु. १. अ. १०, १२ गा. सूत्र ५०७०५१० जो संयम सम्पन्न छह काय रक्षक भिक्षु विविक्त- एकान्त स्थान का सेवन करता है तथा जो भयभीत नहीं होता है उस साधु को तीर्थंकरों ने सामायिक परिधान कहा है। गर्म जल पीने वाले तथा अग्निपत्र अचित्त आहार करने वाले धर्म में स्थित संयमवान् मुनि को राजा आदि से संसर्ग करना अच्छा नहीं है । क्योंकि उससे शास्त्रोक्त आचार- पालक मुनि की समाधि भी भंग हो सकती है। एकाकी भिक्षु की अप्रशस्त बिहार चर्या - ५००. इस संसार में कुछ साधक विषय कषाय के कारण अकेले विचरण करते हैं वे अत्यन्त क्रोध, अतीव मान, अत्यन्त माया, अति लोभ करने वाले अनि आसक्त नट के समान रूप बदलने राजे मधूर्त और बहुत संकल्प करने वाले होते हैं। वे हिमादि आम्रवों में आसक्त, कमों में लिप्त होते हैं, वे अपने को धर्म के लिए उद्यत बताते हुए भी "मुझे कोई न देख ले इस आशंका से छिप छिपकर अनाचार सेवन करते हैं अज्ञान और प्रमाद के दोष से सतत मूढ बने वे धर्म को नहीं जानते हैं । एकाकी बिहारी का गण में पुनरागमन ५०९. यदि कोई भिक्षु राम से निकलकर एकल बिहार चर्या धारण करके विचरण करे और बाद में वह पुनः उसी गण में सम्मिलित होकर रहना चाहे तो उस विचरण काल सम्बन्धी पूर्ण आलोचना प्रतिक्रमण करे । तथा बाचार्य उसकी बालोचना सुनकर जो छेद या तप रूप प्रायश्चित्त दे उसे स्वीकार करे । यदि कोई गणावच्छेदक गण से निकलकर एकल बिहार चर्या को धारण करके विचरण करे और बाद में वह पुन: उसी में सम्मिलित होकर रहना चाहे तो उस विचरण काल सम्बन्धी पूर्ण मालोचना प्रतिक्रमण करे । तथा आचार्य उसकी आलोचना सुनकर जो छेद या त रूप प्रायश्चित्त दे उसे स्वीकार करे । यदि कोई आचार्य या उपाध्याय गण से निकलकर एकल बिहार प्रतिशा को धारण करके विचरण करे और बाद में वे पुनः उसी मग में सम्मिलित होकर रहना चाहे तो उस विचरण काल सम्बन्धी पूर्ण आलोचना प्रतिक्रमण करे । तथा आचार्य उसकी आलोचना सुनकर जो छेद या तप रूप प्रायश्चित दे उसे स्वीकार करे । एकाकी बिहारी को समाधि १०. साधु एक की इच्छा करे। ऐसा करने से भी मोक्ष होता है इसे मिथ्या नहीं समझना चाहिये। यह एकत्व से मुक्ति मिथ्या नहीं, सत्य और पेष्ट भी है जो संयम में साधु रत एवं तपस्वी है । ( वहीं समाधि भाव को प्राप्त करता है ।) Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ५११-५१३ पारिहारिक के साथ मिक्षापं जाने का प्रायश्चित्त सूत्र संघ-व्यवस्था [२४७ पार्श्वस्थ आदि के साथ व्यवहार व्यवस्था-१३ पारिहारिएण सह भिक्खट्टा गमण पायच्छित सुत्तं- पारिहारिक के साथ भिक्षार्थ जाने का प्रायश्चित्त सूत्र५११. जे भिक्खू अपरिहारिएणं' परिहारियं व्या ५११. जो अपरिहारिक भिक्षु पारिहारिक भिक्षु को कहे किएहि अम्जो! तुम च अहं च एगो असणं वा-जाव-साइमं "हे बायें चलो ! तुम और मैं एक साय अशन-यावत् - वा पहिगाहेसा तो पच्छ। पत्तेयं-पत्तेयं मोक्खामो वा स्वाद्य लेकर आयें, उसके बाद अलग-अलग खायेंगे पीयेंगे", जो पाहामो वा बेतं एवं बंटर नवतं वा साइजह । ऐसा कहता है, कहलवाता है या कहने वाले का अनुमोदन करता है। तं सेवमाणे बावज्जद मासिय परिहारद्वाणं उधाइये। उसे उघातिक मासिक परिहारस्थान (प्रायधिवत्स) आता है। -नि.उ ४, सु. ११२ पासत्थस्स आयाण-पयाण करण पायच्छित्त सुत्ताई - पाश्वस्थ के साथ देव-लेन करने के प्रायश्चित्त सूत्र५१२. जे भिक्खू पासत्थस्स संघाडयं देव देत वा साइज्जा । ५१२. जो भिक्षु पार्श्वस्य को संवाहा (साधु) देता है, दिलवाता है या देने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू पासस्थस्स संघाडयं पडिपछड पडिच्छतं वा जो भिक्षु पापवस्थ से संवाडा लेता है, लिवाता है या लेने साहजह। वाले का अनुमोदन करता है। तं सेवमाणे आवस्जद मासियं परिहारट्ठाणं उग्धाइयं । उसे उद्घातिक मासिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) --नि. उ. ४, सु. २८-२९ भाता है। जे भिक्खू पासस्थस्स असणं वा-जाब-साइमं वा वेह देंतं वा जो भिक्षु पार्यस्थ को अगन-पावत्-स्वाद्य देता है, साइम्जड़। दिलवाता है या देने वाले का अनुमोदन करता है। जे मिक्खू पासत्थस्स असणं वा-जाब-साइमं वा पडिच्छा जो भिक्षु पार्श्वस्थ से अशन-यावत्-स्वाध लेता है, परिच्छतं वा साइज्जन । लिवाता है या लेने वाले का अनुमोदन करता है। सेवमाणे आवज घाउम्मासियं परिहारट्टाणं उग्घाइयं । उसे उद्घातिक चातुर्मासिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त -नि. उ. १५. सु. ७७-७८ आता है। जे भिक्खू पासवास वत्थं वा, पडिग्गहं वा, कंवल वा पाय- जो भिक्षु पार्श्वस्थ को वस्त्र, पात्र, कंबल या पादपोंछन पंछग वा, वेइ देतं वा साइजह । देता है, दिलवाता है या देने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू पासत्वस्स वरयं वा, पढिगहं वा, कंबलं बा, जो भिक्षु पार्श्वस्थ का वस्त्र, पात्र, कंबल या पादोंछन पायछण वा पडिमछाड पच्छित वा साहज्जद। लेता है, लिवाता है या लेने वाले का अनुमोदन करता है। तं सेवमाणे आवज्जइ चाउम्मासियं एरिहारटुाणं उग्धाइय। उसे उघातिक चातुर्मासिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि. उ. १५, सु. ६६-६ आता है। ओसण्णरस आयाग-पयाण करण पायच्छित्त सुत्ताई- अबसन्न के साथ देन-लेन करने के प्रायश्चित्त सूत्र५१३. जे भिक्खू ओसणस्स संघाजयं देह, उत वा साइजह । ५१३. जो भिक्षु अबसन्न को संघाडा देता है, दिलवाता है या देने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू ओसम्णस्स संघाज्यं परिपछइ, परिच्छंत था जो भिक्ष अबसन्न से संघाठा लेता है, लिवाता है या लेने साइज्जत। वाले का अनुमोदन करता है। १. पारिहारिक-महाव्रतों के या समिति-गुप्ति आदि के अतिचारों का पूर्ण नरिहार करने वाला पारिहारिक कहलाता है। अथवा परिहार तप रूप प्रायश्चित वहन करने वाला भी पारिहारिक कहलाता है। अपारिहारिक-महायतों के या समिति गुप्ति आदि के अतिचारों का पूर्ण परिहार नहीं करने वाला अपारिहारिक कहलाता है अथवा परिहार तप रूप प्रायश्चिस को वहन न करने वाला अपारिहारिक कहलाता है। Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८] घरगानुयोग-२ कुशील के साथ देन-सेन करने के प्रायश्चित सूत्र सूत्र ५१३-५१५ तं सेवमाणे आवज्जइ मासिवं परिहारहाणं उग्धाइयं । उसे उद्घातिक मासिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि. उ. ४, सु. ३०-३१ आता है। जे भिक्खू ओसण्णस्स असणं वा-जाव-साइम बा बैद, वेंतं वा जो भिक्ष अवसन को अशन-यावत्---स्थाद्य देता है। साइज्ज। दिलवाता है या देने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू ओसण्णस्स असगं वा-जाव-साइम वा पडिन्छाइ जो भिक्षु अवसन से अशन-यावत् -स्वाद्य लेता है, पडिच्छत वा साइजइ । लिवाता है या लेने वाले का अनुमोदन करता है। त सेवमाणे भावज्जइ पालम्मासि परिहारहाण उघाइयं । उसे उद्घातिक चातुर्मासिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि. उ. १५, सु. ७६.८० आता है। जे भिक्खू ओसण्णस्स वत्थं था, एडिग्गहं वा, कंबलं वा, जो भिक्षु अवसन्न साधु को वस्त्र, पात्र, कम्बल या पादपायपुंछग वा, वेद, वेतं का साइजर। पोछन देता है, दिलवाता है या देने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू ओसग्णस्स वत्यं वा, पडिगर या, कंबलं वा, जो भिक्षु अवमन्न साधु के वस्त्र, पान, कम्बल या पादनोंछन पायपुंछणं वा पहिच्छा, पडिळतं वा साइज्जद। लेता है, लिवाता है या लेने वाले का अनुमोदन करता है। तं सेवमाणे आषजइ चाउम्मासियं परिहारहाणं उग्घायं। उसे चातुर्मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि. उ.१५, सु. ६१-६२ आता है। कुसोलस्स आयाण-पयाण करण पायच्छित्त सुत्ताई-.- कूशील के साथ देन-लेन करने के प्रायश्चित्त सूत्र५१४. जे भिक्खू कुसीलस्स संघाऽयं वेद देतं का साइज्जइ । ५.१४, जो भिक्षु कुशीन को संघाड़ा देता है, दिलवाता है या देने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू कुसीलस्स संघाजयं परिच्छद्र परिच्छतं वा जो भिक्ष कुशील से संघाडा लेता है, लिवाता है या लेने वाले साइज्जई। का अनुमोदन करता है। तं सेवमाणे आवज्जद मासियं परिहारदाणं जग्घाइयं। उसे उद्घातिक मासिकः परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि.उ.४, सु.३२-३३ आता है। जे भिक्खू कुसीलस्स असणं वा-जाव-साइमं का देह, उत वा जो भिक्षु कुशील को अशन-यावत्-स्वाद्य देता है, साइब्जा। दिलवाता है या देने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू कुसीलस्स असणं वा-जाव-साइम वा पडिच्छइ, जो भिक्षु कुशील से अशन-यावत् - स्वाध लेता है, पहिचछतं वा साइजह । लिवाता है या लेने वाले का अनुमोदन करता है। त सेवमाणं आवज्जद चाउम्मासियं परिहारट्टाणं घाइयं । उसे उद्वातिक चातुर्मासिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि. उ. १५, सु. ८१.८२ आता है। जे भिक्खू कुसीलस्स बत्वं वा, पडिग्गह वा, कंबल वा पाय- जो भिक्षु कुशील साधु को वस्त्र, पात्र, कम्बल या पादपोंछन पुंछणं देइ , वेतं वा साइज्जइ । देता है, दिलवाता है या देने वाले का अनुमोदन करता है। जे मिक्लू कुसौलस्स वत्थं वा, पडिगहं वा, कंबस वा पाय- जो भिक्षु कुशील साधु का वस्त्र, पाव, कम्बल या पादपोंछन पुंछणं वा परिच्छा, परिच्छत वा साइडइ । लेता है, लिवाता है या लेने बाजे का अनुमोदन करता है। त सेवमाणे आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारट्ठाग उग्याइये। उसे उद्घातिक चातुर्मासिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि. उ. १५, सु. ६३-६४ आता है। संसत्तस्स आयाण-पयाण करण पायच्छिस मुत्ताई- संसक्त के साथ देन-लेन करने के प्रायश्चित्त सूत्र५१५: जे मिक्खू संसप्तास संघाग्य ३६, बेत वा माइन। ५१५. ने भिक्षु संसक्त को संघाडा देता है, दिलवाता है या देने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू संसप्तस्स संघाडय पछि , परिच्छतं वा जो भिक्षु संसक्त से संघाडा लेता है, लिवाता है या लेने वाले साइज्जह। का अनुमोदन करता है। Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ५१४-५१६ नित्यक को देने लेने के प्रायश्चित्त सूत्र संघ-व्यवस्था [२४९ तं सेवमाणे आवज्जइ मासिय परिहारहाणं उग्धाइयं । उसे उद्वातिक मासिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि.उ. ४, सु. ३६-३७ बाता है । जे मिक्ल संसप्तस्क असणं चा-जाव-साइमं या बेह, उतं वा जो भिक्षु संसक्त को अशन-पावसु-स्वाद्य देता है, साइज्जई। दिलवाता है या देने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू संसात्तस्स असणं वा-जाब-साइमं वा परिचछा, जो भिक्षु संसक्त से अशन-यावत्-स्वाद्य लेता है, लिवाता परिच्छत वा साइज्जई। है या लेने वाले का अनुमोदन करता है। तं सेवमाणे मावज्जइ चाउम्मासियं परिहारहाणं उघाइय। उसे उद्घातिक चातुर्मासिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि. उ, १५, सु. ८३-८४ आता है। जे भिक्खू संमत्तस्स वरथं वा, पडिागहंसा, कंवल था, जो भिक्षु संसक्त को बस्त्र, पात्र, कम्बल या पादोंछन पायछणं वा बेद, बेंतं वा साइजाइ । देता है, दिलवाता है या देने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्बू संससस्स वत्यं वा, पडिग्गहं वा, कंबल का, पाय जो भिक्ष संसक्त का वस्त्र, पात्र, कम्बल या पादपोंछन लेता छणं वा, पढिन्छ, पडिच्छतं वा साइज्जइ । है, लिवाता है या लेने वाले का अनुमोदन करता है। तं सेवमाणे आवज्जद चाउम्मासियं परिहारदाण उग्घाइयं। उसे उद्घातिक चातुर्मासिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि. उ. १५, सु. ६७-६८ आता है। णितियस्स आयाण-पयाण करण पायसिछत्त सुत्ताई- नित्यक को देने-लेने के प्रायश्चित्त सूत्र५१६. जे भिक्खू नितियस्स संघाक्यं देह, देसवा साइजद। ५१६. जो मिक्ष नित्यक को संघाडा देता है, दिलवाता है या ने शले का अनुमोदन करता है। जे मिक्खू नितियस्स संघाडयं परिच्छइ, परिपछतं वा जो भिक्ष नित्यक से संघाडा लेता है, लिवाता है या लेने साइजइ। वाले का अनुमोदन करता है। सं सेवमाणे आवजह मासिवं परिहारट्राणं उग्धाइयं । उसे उद्घातिक मासिक परिहारस्थान (प्रायश्चिस) बाता है। -नि. उ. ४, सु. ३४.३५ जै भिक्ख णितियस्स असणं वा-जाब-साइमं वा देड, बेंतं वा जो भिक्ष नित्यक को अशन-यावत-स्वाध देता है. साइजजा। दिलवाता है या देने वाले का अनुमोदन करता है। जे मिक्स णितियस्स असणं वा-जाय साइमं या पडिच्छा, जो भिक्ष, नित्यक से अशन-यावत्-स्वाद्य लेता है, पडिन्छत वा साइज्जह। लिवाता है या लेने वाले का अनुमोदन करता है। त सेवमाणे आवाइ चाउम्मासिय परिहारद्वाणं उग्घाइयं । उसे उद्घातिक चातुर्मासिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि. उ. १५, सु. ८५-८६ आता है। जे मिक्खू णितियस्स वत्थं वा, पजिग्गहं वा, कंबलं वा, जो भिक्ष नित्यक को वस्त्र, पात्र, कम्बल या पादप्रोष्ठन पायपुंछणं वा बेइ, देत वा साइज्जइ । देता है, दिलवाता है या देने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू मिलियस वत्यं वा, पडिग्गहं वा, कंबल वा, पाय- जो भिक्ष, नित्यक का वस्त्र, पात्र, कम्बल या पादपोंछन पुंछणं वा पडिन्छइ, पडिच्छतं वा साइज्जद ।' लेता है, लिवाता है या लेने वाले का अनुमोदन करता है। १ निशीथ उद्देशक १३ में पाश्र्वस्थ आदि ६ प्रकार के शिथिलाचारियों को वंदनादि करने के १८ प्रायश्चित्त सूत्र दर्शनाचार में लिये हैं। प्रस्तुत इस संब व्यवस्था प्रकरण में भी वे सूत्र प्रसंग संगत हैं अतः उन सूत्रों को यहाँ भी समझ लेना चाहिए। (शेष टिप्पण अगले पृष्ठ पर) Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५०] परमानुयोग-२ नित्यक को वेने-सेने के प्रायश्चित्त सूत्र तं सेवमाणे आवमा चाउम्मासियं परिहारहाणं उग्धाइयं। उसे उद्घातिक चातुर्मासिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि. इ. १५, सु. ९५-९६ आता है। (शेष टिप्पण पिछले पृष्ठ का) पार्श्वस्थावि को वंदनादि करने, संघारा देने, आहार, वस्त्र, पात्रादि देने के प्रायश्चित्त सूत्रों की तालिकावंचन प्रशंसा का व्यवहार सिंघाडा देने का व्यवहार नि.उ. नि.उ. १०. अहाछंदा गुरु चौ. ४. पाश्वस्थ लघु मासिक १३. पार्श्वस्थ लघ. चौ. ४. अवसन्त " " १३. अबसन्न ४. कुशाल " . १३. कुशील ४. संसक्त " १३. संसक्त ४. नित्यक १३. नित्यक १३. काथिक १३. प्राश्निका १३. मामक , , १३. सांप्रसारिक , , आहार वस्त्रावि देने का व्यवहार गच्छ से अलग विचरकर पुनः गच्छ में आने वाले को १५. पार्श्वस्थ लघु चौमासी १. एकल विहार चर्या व्यव.उ.१ १५ अयसन्न , " २. पावस्थ बिहार चर्या १५. कुशील ॥ ॥ ३. यथाछंद विहार चर्या १५. संसक्त ॥ ॥ ४. कुशील विहार चर्या १५. नित्यक , , ५. अवसन्न बिहार चर्या ६. संसक्त विहार चर्या ७. परपासंड लिंग धारण । यथाछंद को वंदन व्यबहार के प्रायश्चित्त सूत्र नि. उ. १० में हैं किन्तु आहारादि लेन-देन सम्बन्धी प्रायश्चित्त सूत्र कहीं उपलब्ध नहीं है सम्भव है किसी युग में ये सूत्र विछिन्न हो गये होंगे। उन्हें दसचे उद्देशक में समझ लेना चाहिए। अतः वंदन व्यवहार के अनुसार उनके साथ माहारादि लेन-देन का भी गुरु चौमासी प्रायश्चित्त समझ लेना चाहिए। पाश्वस्थ अवसन्न, कुशील, संसक्त और यथार्छद ये अपनी आगम विपरीत प्रवृत्तियों के कारण गच्छ से अलग कर दिये जाते हैं या वे स्वयं अलग हो जाते हैं। यदि वे गण में आना चाहें और यत्किरित् संयमी जीवन व्यतीत कर रहे हों तो उन्हें प्रायश्चित्त से शुद्ध होने के बाद गण में वापिस लिए जा सकते हैं । पावस्थादि की परिभाषा - १. पारस्य-ज्ञान, दर्शन, चारित्र की आराधना में जो पुरुषार्थ नहीं करता है तया अनेक अतिचारों या अनाचारों में प्रवृत्ति करता है वह "पावस्थ" कहा जाता है। २. अवसन्न -- जो संयम समाचारी से विपरीत या अल्पाधिक आचरण करता है वह "अवसन्न" कहा जाता है। ३. कुशील-संयम जीवन में जो मन्त्र, विद्या, निमित्त कपन या चिकित्सा आदि निषिद्ध कार्य है उन्हें करता है वह "कुशील" कहा जाता है। ४. संसक्त-जैसों के साथ रहता है वैसा ही हो जाता है-अर्थात् उन्नत आचार वालों के साथ रहता है तो उन्नत आधार का पालन करने लगता है और जो शिथिलाचार वालों के साथ रहता है तो शिथिलाचारी हो जाता है। वह "संसक्त" कहा जाता है। ५. नित्यक-- जो अकारण, कल्प मर्यादा का भंग करके सदा एक स्यान पर रहता है वह "नित्यक" नाहा जाता है । (शेष टिप्पण अगले पृष्ठ पर Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ५१७-५२१ पार्श्वस्थ बिहारी का गण में पुनरागमन संघ-व्यवस्था [२५१ पासत्थ विहारिस्त गणे पुणरागमण - पार्श्वस्थ विहारी का गण में पुनरागमन५१७ भिक्खू य गणाओ अवश्यम्म पासत्यविहारपटिम उपसंप- ५१७. यदि कोई भिक्ष गण से निकलकर पार्श्वस्थ चर्या को जित्ताणं विहरेजजा से य इच्छेज्जा दोच्च पि तमेव गणं अंगीकार करके विचरे और बाद में वह पाश्वस्थ बिहार छोड़कर उपसंपज्जित्ताणं विहरिसए अस्थि य इस्थ सेसे । पुणो असो- उसी गण में सम्मिलित होकर रहना चाहे तो- यदि उसका एज्जा, पुणो परिक्कमेम्जा, पुणो छयपरिहारस्स उबटुाएग्जा। पारित्र कुछ शेष हो तो पूर्व अवस्था की पूर्ण आलोचना एवं -वव. उ. १, सु. २६ प्रतिक्रमण करे । तथा भाचार्थ उसकी आलोचना सुनकर दीक्षा छेव तप रूप प्रायश्चित्त दे उसे स्वीकार करे । अहाछंद विहारिस्स गणे पुणरागमण ययाच्छन्दविहारी का गण में पुनरागमन५१८. भिक्खू य गणाओ अवाम्म महाछंद विहार परिमं उव- ५१८. यदि कोई भिक्षु गण से निकलकर ययाछन्द चर्या को संपज्जित्ताण बिहरेज्जा, से य इच्छज्जा बोच्च पितमेव गणं अंगीकार करते विचरे और बाद में वह मथाछन्द विहार छोड़कर उपसंपजिजसा विहरिलए, अस्थि य इत्य सेसे पुणो आलो- उसी गण में सम्मिलित होकर रहना चाहे तो-यदि उसका एक्जा, पुणो पहिस्कायेज्जा, पुणो छेयपरिहारम्स उबढाएज्जा। चारित्र कुछ शेष हो तो वह उस पूर्व अवस्था की पूर्ण आलोचना -वव. उ. १, सु. २७ एवं प्रतिक्रमण करे। तथा आचार्य उसकी आलोचना सुनकर दीक्षा छेद या तप रूप जो प्रायश्चित्त दे उसे स्वीकार करे। कुसील बिहारिस्स गणे पुणरागमण कुशील विहारी का गण में पुनरागमन५१९. भिक्खू य रणाओ अवकम्म कुसीलविहारपडिम उपसंपज्जि- ५१६. यदि कोई भिक्ष गण से निकलकर कुशील चर्या को अंगी साणं विहरेज्जा से य इच्छेज्जा दोच्च पि तमेव गणं उप- कार करके विचरे और बाद में वह कुशील विहार छोड़कर उसी संपम्जित्तागं विहरित्तए अत्यि व इत्य सेसे, पुणो आलो- गण में सम्मिलित होकर रहना चाहे तो-यदि उसका पारित्र एज्जा, पुणो परिक्कमेज्जा, पुणो छयपरिहारस्स उबढाएजा। कुछ शेष हो तो वह उस पूर्व अवस्था की पूर्ण आलोचना एवं -बव. उ.१, मु.२८ प्रतिक्रमण करे। तथा आचार्य उसकी आलोचना सुनकर दीक्षा छेद या तप का जो प्रायश्चित्त दे उसे स्वीकार करे। ओसन्न विहारिस्स गणे पुणरागमण ___ अवसन्नचिहारी का गण में पुनरागमन५२०. भिक्खू य गणाओ अबक्कम्म ओसन विहारपडिमं उपसंपज्जि- ५२०, यदि कोई भिक्ष गण से निकलकर अबसन्न चर्या को साणं विहरेज्जा, से य इस्छज्जा दोच्चं पि तमेव गगं उब- अंगीकार करके विघरे और बाद में वह अवसान विहार छोड़कर संपज्जित्ताण चिहरिलए, अस्थि व इत्य सेसे, पुणो आलो- उसी गण में सम्मिलित होकर रहना चाहे तो-यदि उसका एज्जा, पुणो परिमकमेजा, पुषो छेय परिहारस्स उबढाएज्जा। चारित्र कुछ शेष हो तो वह उस पूर्व अवस्था की पूर्ण आलोचना ---यव. उ. १, सु. २९ एवं प्रतिक्रमण करे तथा आचार्य उसकी बालोचना सुनकर जो दीक्षा छेद या तप रूप जो प्रायश्चित्त दें उसे स्वीकार करे। संसत्त विहारिस्स गणे पुणरागमण संसत्तविहारी का गण में पुनरागमन - ५२१. मिक्खू य गणाओ अवस्कम्म संसत्तविहारपडिमं उबसंपज्जि- ५२१. यदि कोई भिक्ष गण से निकलकर संसक्त चर्या को अंगीसाणं विहरेज्जा, से य इच्छज्जा दोच्चं पि समेव गणं उब- कार करके विचरे और बाद में वह संसक्त विहार को छोड़कर - (शेष टिप्पण पिष्ठले पृष्ट का) ६. काथिक-जो स्वाध्याय आदि आवश्यक कार्यों की उपेक्षा करके देश कथा आदि विकथाओं में समय लगाता है वह "कायिक" कहा जाता है। ७. प्राश्निक प्रेक्षणिक-जो नाटक, नुत्य आदि दृश्य देखने की अभिलाषा रखता है व प्रवृत्ति करता है वह "प्रेक्षणिक" कहा जाता है । अथवा जो लौकिक प्रश्नों का समस्याओं का समाधान करता रहता है वह "प्राश्निक" कहा जाता है। . ८. मामक-जो थिष्य, क्षेत्र, उपाधि आदि में "ममत्व" रखता है वह "मामक" कहा जाता है। ६. साम्प्रसारिक-जो लेन-देन, गमनागमन आदि लौकिक कायों के मुहूतों का कथन करता है या उनमें विशेष पचि रखता है वह “साम्प्रसारिक" कहा जाता है। १०. यथाछंद--जो भागम विपरीत मनमाना प्ररूपण या आचरण करता है वह "यथाछंद" कहा जाता है। Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२] धरणानुयोग -२ अणलिंग ग्रहणाणंतरे गणे पुनरागमण५२२. माओवम्म परमापतिं संपत्तिथं विरित्तए, अस्थिय इर सेसे, पुणो आलो- उसी गण में सम्मिलित होकर रहना चाहे तो यदि उसका एन्ना, पुमो पस्किसेज्जा, पुणो परिहारस्सा चारित्र कुछ शेष हो तो वह उस पूर्व अवस्था की पूर्ण मालोचना -वच उ १, सु. ३० एवं प्रतिक्रमण करे तथा आचार्य उसकी आलोचना दीक्षा 'सुनकर छेद या तप रूप जो प्रायश्चित्त दें उसे स्वीकार करे । अम्यलिग ग्रहण के बाद गण में पुनरागमन ५२२. यदि कोई पेग से निकलकर किसी परिस्थिति से अन्यलिंग को धारण कर विहार करे और कारण समाप्त होने पर पुनः स्वलिंग को धारण कर गण में सम्मिलित होकर रहना चाहे तो उसे आलोचना के अतिरिक्त लिंग परिवर्तन का दीक्षा - जब उ. १, सु. ३१ छेद या तप रूप कोई प्रायश्चित्त नहीं आता है। 图图 बिया से इच्छेला बोच्च पि तमेव गणं उपज साणं विहरिए, नत्थ में तरस तप्यत्तयं केंद्र या परि हारे वा नगाए आसोबचाए । संफिलेसपगारा--- ५२. पण, तं जहर २. उपस्सय संकिले से, २. कसाय संकिले से, ४. मत्तपण-संकिले से, ५. मण-संकिलेसे, ६. - ७. संकि e. सण-संकिलेसे, १०. परिस-संकिये। असंकिले सपगारा ५२४. असे जहा अन्यलिंग ग्रहण १. २. कसे, ३. कसायनसंकिले से, ४. पाणअसं किले से, ५. मणअसंकिलेसे, ६. असं किले से १ ठाणं. अ. ३, उ. ४, सु. १६८ । के बाद गण में पुनरागमन .-- ठाणं. अ. १०, सु. ७३६ कलह और उसकी उपशान्ति - १४ सूत्र ५२१ ५२४ — क्लेश के प्रकार ५२३. दस प्रकार की कलह कहा गया है। यथा(१) उपधि के निमित्त से होने वाला क्लेश । (२) उपाधय के निमित्त से होने वाला वेश । (३) कोधादि के दत्त से होने वाला (४) आहारादि के निमित्त से होने वाला क्लेश । | (५) मन के निमित्त से होने वाला क्लेश्थ । (६) वचन के निमित्त से होने वाला क्लेश । (७) शरीर के निमित्त से होने वाला क्लेश । (८) ज्ञान के निमित्त से होने वाला कलेजा । (१) दर्शन के निमित्त से होने वाला क्लेश । (१०) चरित्र के निमित्त से होने वाला क्लेश । अक्लेश के प्रकार- ५२४. असंक्लेश ( कलह का अभाव ) दस प्रकार का कहा गया है। जैसे (१) उपधि के निमित्त से बलेश न होना। (२) निवासस्थान के निमित से कलेश न होता । (३) पान के निमित्त से लेन होना। (४) आहारादि के निमिन सेलेशन होना । (५) मन के निमित्त से क्लेश न होना । (६) वचन के निमित्त से क्लेश न होना । Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ५२४-५२८ भक्तिरसामान संघ-व्यवस्था [२५३ ७. कायसंकिलेसे, (७) शरीर के निमित्त से क्लेशन होना । ८. जाणअसंकिलेसे, (5) ज्ञान के निमित्त से क्लेशन होना। ९.दसणअसंकिलेसे, (8) दर्शन के निमित्त से पलेशन होना : १०. चरितअसंकिलेसे। -याणं. अ. १०, सु. ७३६ (१०) चारित्र के निमित्त से क्लेश न होना । अहितकारगा ठाणा अहित करने वाले स्थान५२३. तओ ठाणा णिगंथाण वा णिमा योण वा अहियाए, असुभाए. ५२५, तीन स्थान निर्ग्रन्थ और निग्रंन्धियों के लिए अहितकर, अपवमाए. अगिस्लेयसाए, अणाणुगामियत्ताए भवंति, अशुभ, अक्षम (अयुक्त) अकल्याणकर, अमुक्तिकारी होते हैं, यथा-- १. अणता, (१) आर्तस्वर से करुण क्रन्दन करना । २. कक्करणता, (२) शय्या उपधि आदि के दोष प्रकट करने के लिए बड़ वडाट करना। ३. अवज्ञागता। -ठाणं. भ. ३, उ. ३, सु. १५८ (३) आतं और रोद्रध्यान करना। हितकारगा ठाणा हित करने वाले स्थान५२६. तओ ठाणा णिग्गंयाण वा जिग्गयोण वा हिसाए, सुहाए, ५२६. तीन स्थान निग्रन्थ और निर्गन्धियों के लिए हितकर, खमाए, णिस्सेयताए, आगुगामियत्ताए भवति, तं जहा-- शुभ, क्षम, कल्याण एवं मुक्ति-प्राप्ति के लिए होते हैं१. अफूअणता, (१) आतंस्वर में करुण कन्दन नहीं करना। २. अकरकरणता, (२) शम्या आदि के दोषों को प्रकट करने के लिए बह बडाट नहीं करना। ३. अणवज्माणता। -ठाण. अ. ३, उ. ३, सु. १८८ (३) आत्तं रौद्ररूप दुर्ध्यान नहीं करना। गण वुग्गह कारणा गण विग्रह के कारण५२७. आयरिय-उषज्झायस्स गं गणंसि पंच बुग्गहढाणा पण्णता, ५२७. आचार्य या उपाध्याय के गण मैं पांच विग्रह (कलह) तं जहा स्थान कहे गए हैं। यथा१. आयरिय-उवमाए णं गगंसि आणं वा धारणं वा णो (१) आचार्य या उपाध्याय गण में आज्ञा तथा धारणा का सम्म पउंजित्ता भवति । सम्यक् प्रयोग नहीं करे। २. आयरिय-उवमाए गं गणंसि अहारा णियाए किति- (२) आचार्य या उपाध्याय गण में दीक्षा पर्याय के क्रम से कम्भ वेणतितं णो सम्म पउंजित्ता भवति । बन्दन तथा बिनय का सम्यक् प्रयोग नहीं करे। ३. आयरिय-उवमाए णं गर्णसि ले सुतपज्जवजाते धारेति (३) आचार्य या उपाध्याय जितने सूत्रार्थ के धारक हैं उतने काले-काले को सम्ममणुप्पवाहत्ता भवति । का गण में समय-समय पर सम्यक् प्रकार से अध्यापन नहीं करावे। ४. आयरिय-उवमाए गं गणंति गिलाणसेहव्यावच्चं जो (४) आचार्य या उपाध्याय गण में ग्नान और शैक्ष की सम्ममम्मट्टिता भवति । समुचित सेवा नहीं करे (नहीं करावे)। ५. आयरिय- उमायाए गं गगंसि अणापुच्छियचारी यावि (५) आचार्य या उपाध्याय गण को बिना पूछे ही प्रवृत्ति हषा, णो आपुन्छियच्चारी। करे, पूष्ठकर नहीं करें। -ठाणं. अ.५, उ.१, सु. ३६६ गण अबुग्गह कारणा गण में विग्रह न होने के कारण५२८. आयरिय-उखमाव.स णं गगंसि पंच अवुग्गहट्ठाणा पण्णत्ता, ५२८, आचार्य और उपाध्याय के लिए गण में कलह न होने के तं जहा पाँच कारण कहे गये हैं। जैसे१ ठाणं. अ. ३, उ.४, सु. १६८ । Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४] धरणानुयोग-२ कलह उपशमन के विधि-निषेध सूत्र ५२८-५३० १. आयरिय-उवमाए णं गर्णसि आणं वा धारणं वा सम्म (१) माचार्य और उपाध्याय गण में आशा तथा धारणा का पउंजित्ता भवति । सम्यक् प्रयोग करते हों। २. आयरिय-उवमाए णं गर्णसि अहारावणियाए सम्म (२) आचार्य और उपाध्याय गण में यथारानिक वन्दन व भ्म वेणश्च पॉजता अति बिनय व्यवहार का सम्यक् प्रयोग करते हों। ३. आपरिय-जयज्माए णं गपंसि जे सुत्तपज्जवजाते धारेति (३) आवार्य और उपाध्याय जिन सूत्र के अर्थ प्रकारों को ते काले काले सम्म अणुप्पयाइसा भवति । धारण करते हैं, उनकी यथासमय गण को सम्यक वाचना देते हों। ४. आयरिय-उयजमाए गं गणसि गिलाण सेह वेयात्रच्चं (४) आचार्य और उपाध्याय गण में रोगी तथा नवदीक्षित सम्म अम्भुद्वित्ता भवति । साधुओं की बयावृत्य कराने के लिए समुचित व्यवस्था करते हों। ५ आयरिय-उवमाए गं गणसि आपुच्छियचारी यावि (५) आचार्य और उपाध्याय गण में अन्य को पूछकर कार्य भवति, णो अणापुनिछयचारी। करते हों, बिना पूछे नहीं करते हों। -ठाणं. अ. ५, उ. १, सु. ३६६ कलह उवसमणस्स विहि-णिसेहो कलह उपशमन के विधि-निषेध५२६. नो कप्पा निग्गंधाणं विकिटाई पाहुडाई विमोसवेसए। ५२६. निर्ग्रन्थों में यदि कलह हो जावे तो उन्हें दूरवर्ती क्षेत्र में रहे हुए उपशमन करना और ज्वमाना नहीं कल्पता है। कप्पह निगंथोणं विहकिटाई पाहयाई विओसषेत्तए। किन्तु निग्रंथियों में यदि कलह हो जावे तो उन्हें दूरवर्ती -वव. उ.७, सु. १२-१३ क्षेत्र में रहे हुए उपशमन करना और समाना कल्पता है। अण्णस्स अणवसंते वि अप्पणी उनसमण णिसो- अन्य के अनुपशांत रहने पर भी स्वयं को उपशांत होने का निर्देश५३०. भिक्यू य अहिंगरगं कट्ट, तं अहिगरगं विओसयित्ता ५३०. भिक्षु किसी से कलह होने पर उस कलह को उपशान्त करके विओसवियपाह। स्वयं सर्वथा कलह रहित हो जाबे, उसके बाद जिसके साथ क्लेश हुआ हो१. इच्छाए परी त्याढाएज्जा, इच्छाए परोणो आढाएजा। (१) वह इच्छा हो तो आदर करे, इच्छा न हो तो आदर न करे। २. इच्छाए परो अम्मुट्ठज्जा, इच्छाए पगे णो अग्भट्टज्जा । (२) वह इच्छा हो तो उसके सन्मान में उठे, इच्छा न हो तो न उठे। ३. इच्छाए परो बन्देजा, इछाए परो नो वन्वेज्जा। (३) बह इच्छा हो तो वन्दना करे, इच्छा न हो तो बन्दना न करे। ४. इच्छाए परोस भुजेजा, इच्छाए परो नो संभुजा । (४) वह इच्छा हो तो उसके साथ भोजन करे, इच्छा न हो तो भोजन न करे। ५. इच्छाए परो संवसेज्जा, इच्छाए परो नो संबसे ज्जा। (५) वह इच्छा हो तो उसके साथ रहे, इच्छा न हो तो न रहे। ६. इच्छाए परो जवसमेजा, छाए परो नो उवसमेजा। (६) बह इच्छा हो तो उपशान्त होवे, इच्छा न हो तो उप शांत न होने । ७. जो उपसमइ सस्स अस्थि बाराहणा । जो उपप्रान्त होता है उसके संयम की आराधना होती है। जो न उषसमह तस्स नस्थि आराहणा, किन्तु जो उपशान्त नहीं होता है उसके संयम की आराधना नहीं होती है। तम्हा अप्पणा व उपसमियध्वं । इसलिए अपने आपको ही उपशान्त कर लेना चाहिए । १०-से किमाइ मन्ते! प्र.हे भन्ते ! ऐसा कहने का क्या तात्पर्य है? उ.-"सवसमसार छु सामण्णं ।"....कप्प. उ. १, सु. ३६ १०-उपशान्त रहना ही श्रमण जीवन का सार है। Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुत्र १३१-५३५ अनुपशान्त भिक्षु को पुनः स्वगण में भेजना संघ व्यवस्था [२५५ अणुवसमस्स भिक्खुस्स पुणरवि सगणे पढवण- अनुपशान्त भिक्षु को पुनः स्वगण में भेजना५३१. भिक्खू य अहिगरणं कटु त अहिगरणं अविओसवेत्ता ५३१. भिक्षु कलह करके उसे उपशान्त किये बिना बन्य गण में अन्नं गणं जवसंपग्जित्तागं विहरसिए, सम्मिलित होकर रहना चाहे तो उस गण के स्थविर को चाहिए कप्पड तस्स पंचराईदियं यं कटु परिणिश्वाधिय परि- कि वह उसे पांच दिन-रात की दीक्षा का छेद देकर और उसे णिध्वाविय बोच्च पि तमेव गणं पडिनिज्जाएयय्ये सिया, सर्वथा शान्त प्रशान्त करके पुनः उसी गण में लौटा दे। अयवा बहा वा तस्स गणस्स पत्तिय सिया। - झप्प. उ. ५, सु, ५ जिस गण से बह आया है उस गण को जिस प्रकार की प्रतीति हो उसे उसी तरह करना चाहिए । खमावणाफल क्षमापना का फल(१२. ५०.-- याए भने जब अपय? ५३२.५० --मन्ते ! क्षमा करने से जीव क्या प्राप्त करता है? 30- स्खमावणयाए णं पल्हायणभावं जणयह। परहायण- उ० - क्षमा करने से वह मानसिक प्रसन्नता को प्राप्त होता भावभुवगए य सव-पाण भूय-जीव सत्तंसु, मित्तीभावमुप्पा- है। चित्त प्रसन्नता को प्राप्त हुआ व्यक्ति सब प्राण, भूत, जीव एइ। मित्तीभावमुवगए यायि जीवे भाविसोहि काउण और सत्वों के प्रति मंत्री-भाव उत्पन्न करता है। मंत्री-भाव को निभए भवाइ। -उत्त. अ. २६, सु. १६ प्राप्त हुआ जीव भावों को विशुद्ध बनाकर निर्भय हो जाता है। अहिगरण करण पायच्छित्त सुत्ताई कलह करने के प्रायश्चित्त सूत्र५३३. जे मिक्खू गवाई अणुप्पण्णाई अहिगरणाई उप्पाएइ, उप्पा- ५३३. जो भिक्षु नवीन अनुत्पन्न कलह को उत्पन्न करता है, उत्पन्न एस या साइज्जद । करवाता है या उत्पन्न करने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू पोराणाई अहिगरणाई खामिय-विभोसबियाई पुणो जो भिक्षु क्षमापना द्वारा उपशान्त पुरामे झगड़ों को पुनः उदीरेइ, उदीरेंत वा साइज्जर। उत्तेजित करता है, उत्तेजित करवाता है या उत्तेजित करने वाले का अनुमोदन करता है। तं सेवमाणे आषज्जद मासियं परिहारट्ठाणं जग्घाय। उसे मासिक उधानिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) आता है। -नि. उ. ४, सु. २५-२६ एगागी आगय समणस्स संवसावणं पायच्छित्त सुतं- एकाकी आगन्तुक भिक्षु को बिना निर्णय रखने का प्राय श्चित्त सूत्र५३४ जे मिक्खू बहियावासियं आएस पर तिरायाओ अविफालेता ५३४. जो भिक्षु बाहर से आये हुए आगन्तुझ अक्रेले भिक्षु को संवसायेह, संवसावेत वा साइज्जइ। पूछताछ कर निर्णय किये बिना तीन दिन से अधिक रखता है, रखवाता है या रखने वाले का अनुमोदन करता है। तं सेवमाणे आवाजइ चाउम्मासियं परिहारद्वाणं अगुग्याइयं । उसे अनुपातिक चातुर्मासिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि. उ. १०, सु. १३ आता है। कलह कारहिं सद्धि आहार करण पायच्छित्त सुतं-- कलह करने वालों के साथ बाहार करने का प्रायश्चित्त ५३५. जे मिक्सू साहिगरण अविओसविण पाठ अकरपायच्छित्तं ५३५. कोई भिक्षु कलह करके उसका स्वयं उपशमन न करे और पर तिरायाओ विष्फालिय अविष्कालिय संभंजद्द संभुजतं न प्रायश्चित्त से तो उसे उस सम्बन्ध में पूछताछ कर या बिना वा साइज्जइ। पूछताछ किये तीन दिन से अधिक उसके साथ एक मण्डल में बैठकर जो भिक्षु आहार करता है, करवाता हैं या करने वाले का अनुमोदन करता है। त सेवमाणे आवाजइ चाउमासिय परिहारहाणं अग्धाइयं। उसे अनुयातिक चातुर्मासिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि.उ.१०, सु. १४ आता है। Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६] चरणानुयोग-२ कदापही के साथ सेन-देन करने के प्रायश्चित्त सूत्र सूत्र ५३६-५३७ बगह ययकताणं आयाण-पयाण करण पायच्छिस सुत्ताई- कदाग्रही के साथ लेन-देन करने के प्रायश्चित सूत्र५३६. जे भिषलू वगह बताणं असणं वा-जाव-साइमं वा देड, ५३६. जो भिक्ष बदामही भिक्षुओं को अशन-यावत्-स्वाद्य वेंतं वा साइजद। देता है, दि वाता है या देने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू बुग्गह अक्कंतरणं असणं ना-जात-साइमं ा को शिम् स्वामी शिशुओं का अशन यावत्-स्वाद्य पडिच्छा, पडिच्छंतं वा साइजई । लेता है, लिवाता है या लेने वाले का अनुमोदन करता है। अ भिक्खू बुग्गह वक्कतागं वस्थं वा-जाव-पाथपुंछणं वा देइ, जो भिक्षु कदाग्रह से अलग विचरने वाले (निन्दव आदि) देवा साइजह । को वस्त्र-यावत्-- पादपोंछन देता है, दिलवाता है या देने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू बुग्गह वक्ताणं वाचं वा-जाव-पायपुंछगं वा जो भिक्षु कदाग्रही से वस्त्र-यावत्- पादपोंछन लेता है, परिच्छाइ परिच्छतं वा साइज्जइ । लिवाता है या लेने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्यू बुममह वक्ताणं वसहिं देह, देंतं वा साइज्जइ। जो भिक्षु कदाग्रह से अलग विधरने वाले (निन्हव आदि) को उपाश्रय देता है, दिलवाता है या देने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्य युगगह यक्कताणं वहि पडिकछाड, पडिच्छत वा जो भिक्षु कदाग्रही से उपाश्रय लेता है, लिवाता है या लेने साइजड़। वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्षू वगह वक्ताणं यसहि अणुपविसइ, अणुपविसंतं जो भिक्षु कदाग्रही के उपाश्रय में प्रवेश करता है, करवाला या साइज्जइ। है या करने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू बुग्गह बक्ताणं समायं देह, देते वा साइज्जइ। जो भिक्षु कदाग्रही को वाचना देता है, दिलवाता है या देने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू बुग्गह बक्कसाणं सजना परिच्छ, पडिकछत वा जो भिक्षु कदाग्रही से वाचना लेता है, लिवाता है या लेने साइज्जइ । __ वाले का अनुमोदन करता है। तं सेवमाणे आवज्जा चाजम्मासियं परिहारट्ठाण उग्घाइयं। उसे उद्घातिक चातुर्मासिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि. र. १६, सु. १७-२५ आता है। आगमाणुसारी पायच्छित दाण गहण बिहाणो आगम के अनुसार प्रायश्चित्त देने व ग्रहण करने का विधान५३७. भिक्खू य अहिगरण कट्ट, तं अहिगरणं अविओसवेत्ता, ५३७. यदि कोई भिक्षु फलह करके उसे उपशान्त न करे तो--- मो से कप्पड़ गाहाबहकुल भत्ताए वा पाणाए वा निक्ख- उसे गृहस्थों के घरों में भक्त-पान वा लिए निष्क्रमण-प्रवेश मिसए वा पविसित्तए श, वरना नहीं कल्पता है। नो से कप्पड़ बहिया वियारभूमि वा विहारभूमि वा निक्य- उसे उपाश्रय से बाहर स्वाध्याय भूमि में या उच्चार-प्रस्रवण मित्तए वा पविसित्तए या, भूमि में जाना आना नहीं काल्पता है। नो से कपड़ गाभाणुगामं वा दुइजित्तए, उसे ग्रामानुग्राम बिहार करना नहीं कल्पता है। उसे एक गण गणामो वा गणं संकमित्तए, वासावासं यश वत्थए। से गण न्तर में संक्रमण करना और वर्षावास रहना नहीं कल्पता है । जस्येव अपणो आयरिय-उवज्झायं पासेज्जा बहुस्सुयं, बन्मा- किन्तु जहाँ अपने बहुश्रुत और बहुआगमज्ञ आचार्य और गम, कप्पड़ से तस्संतिए आलोएसए. पडिक्कमित्तए, निन्दि- उपाध्याय हों उनके समीप आलोचना करे, प्रतिक्रमण करे, तए, गरिहित्तए, विउट्टित्तए, विसोहितए, अकरणाए, निन्दा करे, गर्दा करे, पाप से निवृत्त होवे, पाप फल से शुद्ध असद्वितए, अहारिहं तवोकामं पायच्छित पडिव जित्तए। होवे, पुनः पाप कर्म न करने के लिए प्रतिज्ञाबद्ध होवे और यथा योग्य तप रूप प्रायश्चित्त स्वीकार करे। से ब सुएणं पट्टविए आइयवे सिया, से य सुएण नो पठ्ठ- वह प्रायश्चित्त यदि श्रुतानुसार दिया जावे तो ग्रहण करना विए नो आइयब्ये सिया। चाहिए । श्रुतानुसार न दिया जावे तो ग्रहण नहीं करना वाहिए। से य सुएणं पढविज्जमाणे नो आइयह से निज्जूहियध्वे यदि श्रुतानुसार प्रायश्चित्त दिये जाने पर भी जो स्वीकार सिया। -कप्प. उ. ४, सु. ३० न करे तो उसे गण से निकाल देना चाहिए। Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TITRALI HARMA सवाया HAMITRA Male A बार लावत तये, सनिवार साहिरे जलविद ।। अनि अाजकी। LEAmrapalो पायारो । । AN 1 -नियोमा च र णा नु यो ग S.pharti/-AGRA- 2 HEIRH Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ५३८ तप का स्वरूप तपाचार [२५७ तपाचार (बाह्य) तप का स्वरूप एवं प्रकार-१ [ बाह्य ] तवसरूवं तप का स्वरूप---- ५३५. जहा उ पावर्ग कम्म, रागवोस समज्जि। ५३८. जिस तपानुष्ठान द्वारा भिक्षु राग-द्वेष से अजित पाप सवेह तवसा भिक्खू, तमेगग्यमणो सुण ।। कर्मों का क्षय करता है, उस तप के स्वरूप को एकाग्र मन होकर सुनो। पाणवह भुसावाया, अवत्त-मेहुण-परिग्गहा विरओ । प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह एवं राईभोयण - विरओ, जोवो भवन अणासशे ॥ रात्रि भोजन से विरत जीव अमानवी होता है। पंचसमिओ तिगुत्तो, अफसाओ जिइन्दिमो । पाँच समिति एवं तीन गुप्ति से युक्त, कषाय रहित, जितेअगारवो य निस्सल्लो, जीवो होइ अणासवो ।। न्द्रिय, गर्व एवं शल्य से रहित जीव अनानवी होता है। एएसि तु विवन्यासे, रागहोस-समज्जियं । उपरोक्त गुणों से विपरीत आचरण करने पर राग-द्वेष से जहा खवरह भिक्खू, तं मे एगमणो सुण ।। जो कर्मोपार्जन होता है, उन कर्मों को मुनि किस प्रकार क्षय करता है, उसको मुझ से एकाग्र मन होकर सुनो। जहा महातालास्स सनिवे- जलागमे । किसी बड़े तालाब में जल आने के मागों को रोक देने पर उस्सिचणाए तवणाए, कमेण सोसणा भवे ॥ उसमें रहे हुए पानी को बाहर निकाल देने पर तथा सूर्य के ताप द्वारा सूखने पर जिरा प्रकार उसका जल क्रमशः क्षीण हो जाता है। एवं तु संजयस्तावि पावकम्म निरासथे। इसी प्रकार नवीन पाप कमों को रोक देने पर संयमी भवकोडी संचियं कम्म, तवसा पिज्जरिज्जई ॥ साधुओं के भी करोड़ों भवों के संचित कर्म ता के द्वारा क्षय हो - उस.अ. ३०, गा. १-६ जाते हैं। तेसि पि तवो सुद्धो, णिवर्खता जे महाफुला । जो बड़े कुलों से अभिनिष्क्रमण कर मुनि बनते हैं और अवमाणिते परेणं तु, ण सिलोग वयंति ते । दूसरों के द्वारा अपमानित होने पर भी अपनी श्लाघा नहीं करते -सूय, सु. १, अ., गा. २४ अर्थात् अपने बड़प्पन का परिचय नहीं देते उनका तप शुद्ध होता है। धुणे उरान अणुवेहमाणे, चेच्चाण सोय अणपेक्त्रमाणे | आत्रों को छोड़कर किसी प्रकार की अपेक्षा न रखता -सूय. सु. १, ब. १०, गा. ११ (ख) हुआ साधु विवेकपूर्वक औदारिक शरीर को कृश करे।। युणिया कुलियं व लेक्वं, किसए देहमणसणाविहिं। जैसे गोबर आदि से लीपी हुई दीवार के लेप को उतार अविहिंसामेव पठबए, अणुधम्मो मुणिणा पवेदितो ।। बार पतली कर दी जाती है, वैसे ही मुनि अनशन आदि के द्वारा देह को कूश करे तथा अहिंसा आदि धर्मों का पालन करे। यह मोक्षानुकूल धर्म है, जिसका प्ररूपण सर्वज्ञ प्रभु ने किया है। सउणी जह पंसु गुडिया, विधुणिय धंसयती सियं रखें। जैसे धूल से भरी हुई पक्षिणी अपने पंखों को फड़फड़ाकर एवं अविओवहाणवं, कम्मं खबति तवस्सी माहगे ।। लगी हुई रज को झाड़ देती है, इसी प्रकार संयमवान् तपस्वी -सूय. सु १, अ. २, उ. १, मा. १४-१५ मुनि तपस्या के द्वारा कर्मों को क्षय कर देता है। पाठान्तर१ तेसि पि तबो ग सुदी णिखता जे महाकुला । ] नेवन्ने वियाणन्ति, गं सिलोग पवेयए । Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८] धरणानुयोग-२ सप के प्रकार सूत्र ५३६-५४२ तवष्यगारा तप के प्रकार५३६. दुविहे तवे पणते, तं जहा ५३६ तप दो प्रकार का कहा गया है, यथा--- १. बाहिरए य, २. आस्मितरे य।। (१) बाह्य, (२) आभ्यन्तर । -वि. स. २५, उ.७, मु. १६६ प०-से कि बाहिरए। प्र--बाह्य तप क्या है ? कितने प्रकार का है ? उ.-छविहे बाहिरए तवे पण्णत्ते, सं जहा उ०-बाह्य तप छ: प्रकार का कहा गया है, १. अणसणं, २. मोभोयरिया, ३. भिक्खायरिया । यथा--(१) अनशन, (२) अवमोदरिका, (३) भिक्षाचर्या, ४, रसपरिचाए, ५. कायकिलेसो, ६. पडिसलीणता (४) रसपरित्याग, (२) कायक्लेश, (६) प्रतिसलीनता । - वि. स २५, उ. ७, सु १६७ आजोवियत बप्पगारा आजीविक तप के प्रकार५४०. आजीबियाणं घउबिहे तवे पण्णत्ते, तं जहा ५४०. आजीविकों के तप चार प्रकार के हैं, यथा१. उगतये, २. घोरतये, (१) उपतप, (२) पोरतप, ३. रसगिम्हणता, ४. जिमिवियपडिसंलोणता । (३) रस परित्याग, (४) जिव्हेन्द्रिय प्रतिसंलीनता । - ठाणं. अ. ४, उ. २, सु. ३०६ अनशन-तप-२ अणसणप्पगारा अनशन के प्रकार-- ५४१. ५० - से कितं अणसणे ? ५४१, प.- अनशन क्या है वह कितने प्रकार का है ? उ.-अणसणे विहे पणते, तं जहा-- उ०-अनशन दो प्रकार का है, यथा१.इत्तरिए (१) इत्वरिक (मर्यादित समय के लिए आहार का त्याग) २. भाषकहिए या (२) पावत्कषिक-(जीवन भर के लिए आहार का स्याग) -- वि. स. २५, उ.७, सु. १६८ इत्तरिया मरणकाला य, बुदिहा अणसणा मवे। हत्वरिक और मरण पर्यन्त इस प्रकार अनशन दो प्रकार का इत्तरिया सावकंचा, निरवकंखा य विइजिया ॥ होता है। इत्वरिक अनशन आहार की आकांक्षा सहित होता है -उत्त. अ.३०, मा. और मरण' काल का अनशन आहार की आकांक्षा रहित होता है। इत्तरिय सवभेया - इत्वरिक तप के भेद५४२.५०-से कितं इत्तरिए? ५४२. प्र०-इस्वरिक तप क्या है ? वह कितने प्रकार का है? १ (क) सो तवो दुरिहो बुत्तो, बाहिरऊभतरो तहा । बाहिरो छविही वृत्तो, एवमब्भतरो तदो॥ ---उत्त. अ. ३०, मा. ७ (ख) उत्त. अ.२८, गा. ३४ (ग) तेसिं गं भगवन्साणं एएणं विहारेणं रिहरमाणाणं इमे एयावे अश्मंतरवाहिरए तवोवहाणे होत्या । तंजा-अभितरए छबिहे, बाहिरए वि छबिहे । -उव. सु. ३० २ (क) ठाणं. अ. ६, सु. ५११ (ख) सम. सम. ६, सु. १५ भिक्वायरिया के स्थान पर 'वित्ति संखेवो' (ग) उत्त. अ. ३०, गा. ८ (प) उप. सु. ३० ३ उव. सु. ३० Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ५४२-५४३ तपस्वी भिक्षु के कल्पनीय पानी समाचार [२५६ उ०-इत्तरिए अणेगविहे एण्णसे, तं जहा उ.-इत्वरिक तप अनेक प्रकार का कहा गया है, यथा१. चउत्थभत्ते, (१) चतुर्थ भक्त-उपवास, २. छटुभत्ते, (२) वष्ठभक्त-दो उपवास-बेला, ३. अद्रुमभत्ते (३) अष्टमक्त-तीन उपवास-तेला, ४. वसमते, (४) दशमभक्त-चार दिन के उपवास, ५. बुधाल , (५) द्वादशभक्त ---- पांच दिन के उपवास, ६. चउद्दसमते, (६) चतुर्दशभक्त-छह दिन के उपवास, ७. सोससमत्ते (७) षोडशमक्त-सात दिन के उपवास, ८. अबमासिएमत्ते, (5) मई मासिकमक्त-पन्द्रह दिन के उपवास, ६. मासिएभत्ते, (8) मासिक भक्त-एक महीने के उपवास, १०. दोमासिएभत्ते, (१०) मासिक भक्त -दो महीने के उपवास, ११. तेमासिएमसे, (११) त्रैमासिक भक्त-तीन महीने के उपवास, १२. चउमासिमले, (१२) चातुर्मासिक भक्त -चार महीने के उपवास, १३. पंचमासिएभत्ते, (१३) पंचमासिक मक्त---पांच महीने के उपवास, १४. छम्ममासिएमले, (१४) षण्मासिक भक्त-छह महीने के उपवास । से सं हत्तरिए। -उव. सु. ३० यह इत्वरिक तप है। ओ सो इत्तरिय तवो, सो समासेण छविहो । जो इत्वरिक तप है वह संक्षेप में छह प्रकार का हैसेठितवो पयरतयो, घणो य तह होर वग्यो य ।। (१) श्रेणि-तप, (२) प्रतर-तप, तत्तो य वावग्गो उ, पंचमो छ?ओ पदण्णतयो । (३) धन-तप, (४) वर्ग-तप मणहच्छिय वित्तत्यो, नायाब होइ इत्तरिओ ॥ (३) वर्ग-वर्ग-तप, (६) प्रकीर्ण-तप । -उस, अ. ३०, गा. १०-११ इस प्रकार अपनी इच्छानुसार किया जाने वाला अनेक प्रकार का यह इत्वरिक तप जानना चाहिये । सवस्सो भिक्खुस्स कप्पणिज्ज पाणगाई तपस्वी भिक्षु के कल्पनीय पानी५४३. घउत्पत्तियस्स गं भिक्खुस्स कप्पंति तो पाणगाई पशि- ५४३. चतुर्थ भक्त (एक उपवास) करने वाले भिक्षु को तीन गाहित्तए, तं जहा प्रकार के पानी ग्रहण करना कल्पता है, यथा१. उस्सेइमे, (१) उत्स्वेदिम- आटे का घोवन ।। २. संसेइमे, (२) संस्वेदिम–सिनामे हुए कर आदि का धोया हुआ पानी। ३. पालघोषणे। (३) तम्बुलोबक-चावलों का धोवन । छट्टपतियहस गं भिक्स्स कम्पति सओ पाणगाई पडिगा- षष्ठ भक्त (दो उपयास) करने वाले भिक्षु को तीन प्रकार हितए, तं जहा के पानी ग्रहण करना कल्पता है१.तिलोदए, (१) तिलोरक-तिलों का धोया हुआ जल । २. तुसोदए, (२) तुषोदक-तुष-भूसे का घोया हुआ जल । ३. जवोदए। (३) यवोवक-जी का धोया हुआ जल । १ वि. स. २५, ३.७, सु. १६६ २ भगवती सूत्र तथा उदवाई सूत्र में "इत्तरिम" तप के अनेक भेद है ऐना कहा गया है पर किसी विशेष संख्या का उल्लेख नहीं है । यहाँ उसराध्ययन' सूत्र में 'इत्तरिय" तप के भेदों की संख्या ६ बताकर आगे इस संकलन में अनेक प्रकार के होते हैं यह भी कहा गया है । अतः रत्नावली आदि तपों का उल्लेख इत्वरिक तप में ही समझना चाहिए। इन रत्नावली, कनकावली आदि महातपों के लिए धर्मकथानुयोग-स्कन्ध ३, सूत्र २६८ से २७६ तक पृ. ११७-१२० देखें । Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६०] चरणानुयोग-२ आजीवन अनशन सूत्र,५४३-५४६ अट्टमभलियस्स णं मिक्खुस्स कप्पंति तओ पाणगाई पडिगा- आष्टम भक्त (तीन उपवास) करने वाले भिक्ष को तीन हित्तए. तं जहा प्रकार के पानी लेना कल्पता है - १. आयामए, (१) आयामक--उबाले हुए चावलों का मांड आदि । २. सोबीरए, (२) सौवीरक-कांजी छाछ के ऊपर का पानी । ३. सुदवियो। -ठाणं. अ. ३. सु. १८८ (३) शुद्ध विकट-शुद्ध अचित्त शीतल जल । आवकहिय अणसण आजीवन अनशन५४४. का सा अणसणा मरणे, दुषिहा सा वियाहिया । ५४४. जो मरणकालिक अनशन है वह शारीरिक चेष्टा की सधियारा अवियारा, कायचे? पई भवे ॥ अपेक्षा से दो प्रकार का कहा गया है। यथा-(१) सविचारशरीर की हलन-चलन आदि क्रिया युक्त, (२) अविचार-शरीर को हलन-चलन आदि क्रिया रहित । महवा सपरिकम्मा, अपरिकम्मा य आहिया। अथवा अन्य प्रकार से भी दो-दो भेद कहे गये हैं, यथानिहारीमनीहारी, आहारच्छेओ य वोम वि ॥ (१) सपरिकर्म-धारीर की परिजर्या युक्त, -उत्त. अ. ३०, गा. १२-१३ (२) अपरिकर्म-कार की परिचर्या रहित । अथवा-(१) निहारिम, (२) अनिहारिम । इन सभी दो-दो भेदों में आहार का स्याग निश्चित है। संलेहणा करणकालं संलेखना का काल क्रम५४५. तो बहुणि वासागि, सामण्णमणुपालिया। ५४५. मुनि अनेक वर्षों तक संयम का पालन कर इस ऋमिक इमेण कमजोगेण, अप्पागं संलिहे मुणी ।। तप से अपनी आत्मा की सलेखना करे । बारसेव उ वासाई, संसहक्कोसिया भये। संलेखना उत्कृष्ट बारह वर्ष, मध्यम एक वर्ष तथा जघन्य संबछर भनिमिया, छम्मासा य जहनिया ॥ छह मास की होती है। पढ़मे वासवउपकम्मि, विगईनिग्जूहणं करे। बारह वर्ष की संलेखना करने वाला मुनि पहले चार वर्ष में बिहए वासचउक्कम्मि, विचितं तु तवं चरे ॥ विगयों का परित्याग करे। दूसरे चार वर्षों में फुटकर विचित्र तप का आचरण करे। एगन्तरमायाम, कट संवच्छरे दुवे। फिर दो वर्षों तक एकान्तर तप करे व पारणे के दिन तो संवच्छरऽवंतु, नाइबिगिटु तवं चरे॥ आयंबिल करे । म्यारहवें वर्ष के पहले छः महीनों में कठिन तप न करे। तको संवारनं तु. विगिट्टतु तथं चरे। म्यारहवें वर्ष के पिछले छः महीनों में कठिन तप करे। इस परिमियं घेख आयामं, तंमि संवच्छरे करे। पूरे वर्ष में पारणे के दिन आयं विल करे। कोसी सहियमायाम, कटु संवच्छरे मुषी। बारहवें वर्ष में मुनि कोटि सहित आयंबिल करे फिर पक्ष भासदमासिएणं तु, आहारेण तवं चरे ॥ या मास का अनशन तप करे। -उत्त. व. ३६, गा. २५०-२५५ पंडिय मरण सरूवं पंडित मरण का स्वरूप५४६. अणुपुरुषेण विमोहाई, बाई धीरा समासज्ज । ५४६. मैं अनुक्रम से पण्डित मरण का स्वरूप कहूँगा। धैर्यवान्, वसुमतो मतिमतो, सन्वं गच्या अणेलिस ।। बुद्धिमान संयमी भिक्षु उसे पूर्ण रूप से जानकर तया स्वीकार -आ. सु. १, अ. ८, 3.८, गा. १(१६) कर अनुपग समाधि को प्राप्त करे। सओ काले अभिपेए सबढो तालिसमन्तिए । जब मरण समय प्राप्त हो, उस समय जिस श्रद्धा से मुनिविगएज्ज-लोभ-हरिसं, मेयं बेहस्स कंपए। धर्म को स्वीकार किया है, वैसी ही श्रद्धा से भिक्षु रोमांचकारी मृत्यु भयं को दूर करके गुरु के समीप अनशन के द्वारा शरीर के त्याग की इच्छा करे। Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ५४६-५४७ पण्डिस मरण के प्रकार तपाचार [२६१ अह कालमि संपत्ते, आघायाय समुस्सयं । सकाम-मरणं मरइ, तिहमध्नयरं पुणी॥ --उत्त. अ.५, गा. ३१-३२ पंडिय मरणप्पगारा--- ५४७. प०-से कि तं वडियमरणे? उ.-पंडियमरणे दुधिहे पण्णते. तं जहा १. पाओवगमणे य, २. मत्तपञ्चवलागे य।' प०-से कि तं पाओवगमणे ? उ०-पाओवगमणे दुबिहे पणते, तं जहा १. नीहारिमे य, २. अनीहारिमे य, नियमा अप्पकिम्मे से तं पानोवगमणे । मुनि मरण-काल प्राप्त होने पर संलेखना के द्वारा शरीर का त्याग करता है, भक्त प्रत्याख्यान, इंगित मरण या पादोपगमन इन तीनों में से किसी एक को स्वीकार कर सकाम-मरण से मरता है। पण्डित मरण के प्रकार५४७.३०-पण्डित मरण क्या है? उ०—पण्डित मरण दो प्रकार का कहा गया है, यथा (१) पादोपगमन-वृक्ष की कटी हुई शाखा की तरह निश्चल रहना। (२) भक्त-प्रत्याख्यान ----यावज्जीवन तीन या चारों आहारों का स्वाग करना । प्र०-पादोपगमन (मरण) क्या है ? 3०-पादोपगमन दो प्रकार का कहा गया है, यथा(१) निहरिम-प्रामादि में किया जाने वाला, (२) अनिहारिम-जंगल गुफा आदि में किया जाने वाला। ये दोनों नियम से अप्रतिकर्म होते हैं। यह पादोपगमन का स्वरूप है। प्र०-भक्तप्रत्याख्यान (मरण) क्या है? उ.-भक्तप्रत्याख्यान मरण दो प्रकार का कहा गया है. यथा (१) निहारिम, (२) अनिरिम । ये दोनों नियम से सप्रतिकर्म होते हैं। यह भक्तप्रत्याख्यान का स्वरूप है। प्र.-पादोपगमन क्या है उसके कितने भेद हैं ? उ०-पादोषयमन दो प्रकार का कहा गया है, यथा(१) व्याघातिम-(उपद्रव के कारण किया जाने वाला) (२) मिाघातिम---(बिना उपद्रव के किया जाने वाला) ये दोनों नियम से अप्रतिकर्म होते हैं। यह पादोपगमन है। प्र...- भक्त प्रत्याख्यान क्या है ? उसके कितने भेद हैं ? ३०-भक्त प्रत्याख्यान दो प्रकार का कहा गया है, यथा-- १०---से कि तं भत्तपच्चक्खाणे? ज०-भत्तपच्चक्खाणे विहे पण्णते, त महा १. नीहारिमे य, २. अनीहारिमे य, नियमा सपनिकम्मे । सेभसपच्चक्खाणे।' -विया. स. २, उ. १, सु. २७-२६ १०-से कि तपाओगमणे ? उ० --पाओवगमणे दुविहे पण, त जहा १. वाघाइमे य, २. निध्याचाइमे य । नियमा अप्पडिकम्मे । सेतं पाओवगमणे । प०-से कि त भत्तपच्चक्खाले? उ०-भत्तपच्चफ्लाणे दुविहे पण्णसे, त जहा १ पण्डित मरण के ये दो प्रकार यावत्कथिक तप के ही दो भेद हैं। जिनका कथन भगवती सूत्र स. २५, उ. ७ तथा उबवाई सूत्र में इस प्रकार है(क) प.-से किं तं आवकहिए? उ.--आवकहिए दुविहे पण्णते, तं जहा (१) पागोवगमणे य, (२) मसपच्चक्त्राणे य । --बिया. स. २५, उ.७, सु.२०० (ख) उव. सु. ३० २ (क) विया. स. १३. उ. ७, सु. ४२-४४ (ख) विया. स. २५, उ. ७. सु. २०१-२०२ (म) ठाणं. अ. २, उ. ४, सु. ११३ Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२] चरणानुयोग-२ मक्त-प्रत्यास्यान अनशन सूत्र ५४७-५४६ १. वाघाइमे य, २.निवाघाइमेय । (१) व्याधातिम (२) निर्याधातिम । नियमा सकिम्मे । से तं भत्तपच्चपलाणे । ये दोनों नियम से समतिकर्म होते हैं। यह भक्त प्रत्या -उब. सु. ३० स्थान है। भत्त-पचक्रवाण-अणसणे भक्त-प्रत्याख्यान अनशन५४८ विह पि विदित्ता णं, बुद्धा धम्मस्स पारगा। ५४८. वे धर्म के पारगामी तत्वज्ञ मुनि आभ्यंतर और बाह्य अणुपुरतीए संखाए, कम्मुणा य तिउष्मृति ।। दोनों प्रकार की संलेखना जानकर अनुक्रम से विचार कर आराधन करके कर्मों से मुक्त हो जाते हैं। कसाए पयषुए किच्चा, अप्पाहारो तितिक्खए । संलेखना का इच्छुक भिक्षु कषायों को कृश करके, अल्पाअह मिक्लू गिलाएज्जा, अहारस्सेव अंतियं ॥ हारी बनकर समय व्यतीत करे । ऐसा करते हुए यदि म्लानि को प्राप्त हो तो आहार का त्याग कर तप स्वीकार करे। जीवियं णाभिकोन्जा, मरगं भो बि पत्थए । भिक्षु न तो जीने की अकांक्षा करे और न मरने की अभिबुहतो वि ण सज्जेज्जा, जीविते मरणे तहा ।। लाषा करे । जीवन और मरण दोनों में से किसी में भी आसक्त न हो। मनस्यो णिज्जरापेही, समाहिमणुपालए। निर्जरा का इच्छुक मुनि-जीवन और मरण में माध्यस्थ अंतो बहिं बियासेन्ज, अजमत्थं सुझमेसए ।। भाव रखकर समाधि भाव में रहे। कषाय और आहारादि का त्यास काम शुद्ध आत्मचितन में लीन रहे। जं किचुदक्कम जाणे, आउखेमस्स अप्पणो । यदि अपनी आयु के क्षेम में जरा सा भी उपक्रम जान पड़े तस्सेव अंतरसाए खिप्यं, सिपखेज पंहिते ॥ तो पण्डित मुनि जरा संलेखना काल के मध्य में ही शीघ्र पंडित मरण को स्वीकार कर ले । गामे अदुवा रणे, पंडिलं पडिलहिया । ग्राम में अथवा बन में अनशन योग्य भूमि का प्रतिलेखन अप्पपाणं तु विणाय, तणा' संथरे भुणी ।। करे, जीव जन्तु रहित स्थान जानकर मुनि वहाँ घास बिछा ले । अणाहारो तुबट्टनमा, पुट्ठो तस्थऽहियासए । फिर आहार का त्याग कर संस्तारक पर प्रायन करे । पातिषेस उवचरे, माणुस्सेहि वि पुटुवं ।। परीषहों और उपसर्गों से आक्रान्त होने पर सहन करे । मनुष्य आदि के उपसर्गों से भी अपनी मर्यादा का उल्लंघन न करे। संसध्यगा य जे पाणा, जे य उड्ढमहेचरा । जो रेंगने वाले प्राणी हैं, जो ऊपर आकाश में उड़ने वाले हैं मुंजते मंससोणियं, ण छणे ण पमज्जए । या जो नीचे बिलों में रहते हैं, वे कदाचित अनशनधारी मुनि के शरीर का मांस नोंचे और रक्त पीएँ तो मुनि न तो उन्हें मारे और न ही रजोहरणादि से प्रमार्जन करे। पाणा देहं विहिसंति, ठाणातो ण वि उन्ममे । ये प्राणी मेरे शरीर का ही नाश कर रहे हैं, ज्ञानादि आसहि विविरोहि, तिप्पमाणोऽलियासए॥ आत्मगुणों का नहीं', ऐसा विचार कर उन्हें न हटाए और न ही स्थान से उठकर अन्यत्र जाए। आस्त्रवों से रहित अध्यवसायों के द्वारा बेदना को अमृत के समान समझकर सहन करे । गंथेहिं विवित्तेहि, आयुकालस्स पारए। विद्वान मुनि विभिन्न कष्टों को मृत्यु पर्यन्त सहन करें और परगाहयतरषं चेत, पवियस्स बियाणतो॥ इस पण्डित मरण को मोक्ष का उत्तम साधन समझकर बाराधन -आ.सु. १, अ.८, उ.८, गा. २-११ (१७-२७) करे। भत्त पच्चस्खायगस्स अणगारस्स परभवे आहारो- भक्त प्रत्याख्यात अणगार का परभव में आहार५४६. प.-अत्तपश्चक्खायए गंमते ! अणगारे मुछिए गिडे ५४६.प्र.-मन्ते ! भक्त प्रत्याख्यान अनशन करने वाला अणगार गलिए अज्मोववषणे आहारमाहारेइ अहे णं वोससाए यदि उस अवस्था में काल कर जाये तो वह पहले मूच्छित, गृद्ध, काल करेइ, तओ पच्छा अपुन्छिए-जाव-अणज्सोव- अथित और अत्यन्त आसक्त होकर आहार करता है और इसके यणे आहारमाहारेह? बाद अमुचित-यावत्-अनासक्त होकर आहार करता है ? Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ५४६-५५० इगिनीमरण अनशन ग्रहण विधि तपाचार [२६३ उ.--हंसा गोयमा ! भत्तपस्वक्वायए गं अणगारे-जाव- उ-हाँ गोलम ! भक्त प्रत्याख्यान अनशन करने वाला अणमोबवण्ते आहारमाहारेइ । ___ अणगार—यावत्-अनासक्त होकर आहार करता है। ५०-से फेग?णं भंते ! एवं बुच्चइ "भत्तपनक्वायए पं प्र०-भन्ते ! ऐसा क्यों कहा गया है कि-भक्तप्रत्याख्यान अणगारे-जाव-अणमोचवणे माहारमा ?" *न मारः --याब अनासक्त होकर आहार करता है ?" उ०-गोयमा । भत्तपञ्चवायए गं अणगारस्स मुच्छिएउ०—गौतम ! भक्तप्रत्याख्यान अनशन करने वाला अणगार -जाव-अग्लोवयणे आहारे भवइ, अहे वोससाए यदि उस अवस्था में काल करे तो उसके स्वाभाविक ही प्रथम कालं करे, तओ पच्छा अमुन्छिए-जाव-अगसोबषपणे मूच्छित-यावत्-अत्यन्त आसक्त भाव से आहार होता है और आहारे भवइ । बाद में अमूचित-यावत् । अनासक्त भाव से आहार होता है । से तेणी गोयमा ! एवं स्वाइ-मत्तपच्चक्वायए णं इसलिए हे गौतम ! ऐसा कहा गया है कि - भक्तपत्याख्यान अणगारे-जाव-अणशोषवणे आहारमाहारे।। अनशन करने वाला अणगार -यावत्-अनासक्त होकर आहार -वि. स. १४, उ.७, सु. ११ करता है। इंगिणीमरण अणसणस्स गहण विहि इंगिनिमरण अनशन ग्रहण विधि५५० अयं से अवरे प्रस्मे, णायपुत्तेण साहिते। ५५०. ज्ञातपुत्र भगवान महावीर ने यह दूसरा इगितमरण नायब पण्यिार, विजहेज्जा तिधा तिधा ।। अनशन रूप धर्म का प्रतिपादन किया है। इस अनशन में भिक्षु मन, वचन और काया से दूसरे का सहारा न ले, न लिवावे, न लेने वाले का अनुमोदन करे । हरिएसु ण णियज्जेज्जा, पंडिल मुणिमा सए । मुनि हरियाली पर शयन न करे, निर्दोष स्थण्डिल को देख विउसज्ज अणाहारो, पुट्ठो तस्थ अहियासए । कर वहां सोए । आहार और शरीर आदि के ममत्व का त्याग कर परीषहों तथा उपसर्गों से स्पष्ट होने पर उन्हें सहन करे। इन्दिएहि गिलायंती, समियं साहरे मुणी । मुनि इन्द्रियों से ग्लान होने पर ममित होकर हाथ-पैर तहावि से अगरिहे, अचले थे समाहिए ॥ आदि सिकोड़े। यदि समाधि अचल रहती हो तो शरीर से चेष्टा करता हुआ वह घमं का अतिक्रमण नहीं करता है । अभिक्कमे परिपकमे, संकुचए पसारए । भिक्ष शारीरिक समाधि के लिए तथा प्रारीर संधारणार्थ कायासाहारणट्टाए, एल्यं दा वि अचेयणे ॥ गमन और आगमन करे, हाथ-पैर आदि को सिकोड़े और पसारे । यदि शरीर में शक्ति हो तो अचेतन की तरह निश्चेष्ट परिक्कमे परिकिलते, अदुवा चिठे अहायते । ठाणेम परिफिलसे, णिसोएज्ज ८ अंतसो॥ आसीणेऽणेलिसं मरणं, इन्दियाणि समीरते । कोलावासं समासज्ज, वितहं पातुरेसए । जतो वजं समुपज्जे, ण तत्थ अवलंबए। ततो उमफसे अपाणं, सब्वे फासे अहियासए ।। आ. सु. १, अ. ६, न. ६, गा. २७-३३ जस्स पंभिक्खुस्स एवं भवति"से गिलामि च खलु अहं इममि समए इमं सरीरगं अण- पुष्वेण परिवहिसए" से अणुपुत्रेणं आहारं संबोजा, ___ यदि चूमते हुए थक जाय तो कभी सीधा खड़ा रहे । यदि खड़ा रहने में कष्ट होता हो तो अंत में बैठ जाए। इस अद्वितीय मरण की साधना में लीन मुनि अपनी इन्द्रियों को सम्यक् रूप से प्रवृत्त करे । दीमक वाले काण्ठ पट्टे के प्राप्त होने पर उससे भिन्न जीव रहित पाट का अन्वेषण करे। किन्तु जिससे पाप कर्म उत्पन्न हो, ऐसे दीमक आदि से युक्त पाट आदि का सहारा न ले। उमसे अपने आपको दूर हटा ले और उपस्थित सभी दुःखदायी स्पर्शो को सहन करे । जिस भिक्ष के मन में ऐसा संकल्प होता है कि "मैं इस समय इस शरीर को वहन करने में श्रमणः असमर्थ होता जा रहा हूँ", तो वह श्रमशः आहार का संक्षेप करे । Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ चरणानुयोग २ अणुपुश्येण आहार संहिता कसाए पर किया समाहिबच्चे फलाबी उठाव भिक्खू अभिनिष्युये। अणातीते, पादोपगमन अनशन प्रहण विधि चेन्ना भित्र कार्य बियि विल्वस्ये पो अस्सिविभगवाए भैरवमचिन्ने, तत्यादि तस्स कालपरियाए से वि सत्य वियंतिकारए, असताना बाजार-हावा अनशन का इच्छुक भिक्षु प्रवेश करके घास की वाचना करे, तपाइ जाइत्ता सेत्तमायाए एवंतमवक्कमिज्जा एवंतभवक्क मिला अपना सडा-संतरण पडिले ग्राम- यावत्- राजधानी में घास की याचना करके उसे एकान्त में बसा जाए, एकान्त स्थान में जाकर वण्डे पनि मजिय तथा संघरेजा, तथा संपला एवं बाड़ी के जाले रहित स्थान का भली भाँति प्रतिवि समए 'इतरियं' कुज्जा । लेखन तथा प्रमार्जन करके पास को विधाने पास बिठाकर वहाँ उचित अवसर देखकर इत्वरिक अनशन स्वीकार करे । वादी ओए कि आतीत इच्चे विमोहाय तणं-हियं, सुहं, खमं, जिस्सेयसं आगुगामियं । आ. दु. १, अ, ६, सु. २२४ पाओवगमण अणसय गहण विही २५१ जना विस्व एवं भवति " से गिनामि च खलु अहं हमम्मि समए इनं सरीरगं अणुपुत्वेष परिवहित" से अनुपुख्ये आहार स अणुपुय्येव आहार संघट्ट्टेसर बसाए पयए विमा यचे, फलगावयट्ठी, उट्ठाय भिक्खू अभिषिच्चें, 1 1 अपविता जाव रायहानि वा लगाई जाएवा -जात्र तणाई संयरेता एत्थ वि समए कार्य च जोगं च इरियं व पच्चक्ला एज्जा । सादिमोहाय हवं सुहं वर्म जिसे 1 , यसं आणुगामियं क्रमशः बाहार को संक्षेप करते आत्मा को समाधि में स्थापित करे। पण्डभर के लिये उद्यत होकर - आ. सु. १, अ. ६, उ.७, सु. २२८ सूत्र ५५०-५५२ हुए कषायों को कुश कर फलकचत् सहनशील बनकर शरीर के संताप से रहित बने । वह अनशन सत्य है । वह अनशन स्वीकार करने वाला सत्यवादी है । राग द्वेष रहित है, संसार-सागर को पार करने वाला है संशयों से मुक्त है। सर्वा कृतार्थ है, परिस्थितियों से अप्रभावित रहता है । वह शरीर को क्षणभंगुर जानकर विविध परीयों और उपसर्गों को सहन कर जिनवचन में श्रद्धा रखता हुआ अति कठिन रंगितमरण अनशन का अनुपालन करता है। इस अनशन की आराधना से वह मृत्यु को प्राप्त करता है और उस मृत्यु से वह अन्तक्रिया करने वाला होता है । यह मोह से मुक्त कराने वाला अनशन भिक्षु को हिकर, सुखकर कर्मक्षय करने में समर्थ, कल्याणकारी और भवान्तर में (द) साथ चलने वाला होता है। पादपोपगमन अनसन ग्रहण विधि २५१. जिस भिक्षु के मन में यह संकल्प होता है कि ''मैं इस समय इस शरीर को श्रमशः वहन करने में असमर्थ हो रहा हूं", तो वह भिक्षु क्रमश: आहार का संक्षेप करे । · महार को क्रमशः घटता हुआ कषायों को स्वल्प कर आत्मा को समाधि में स्थापित करे, फलकवत् सहनशील बनकर पण्डित मरण के लिए उद्यत होकर शरीर के सन्ताप से रहित बने । -- अनशन का इच्छुक भिक्षु ग्राम- यावत्- राजधानी में प्रवेश करके घास को याचना करे यावत्- घास का बिछौना बिछाकर उसी समय शरीर शरीर की प्रवृति और गमनागमन आदि का प्रत्याख्यान करे । यह अनशन सत्य है— यावत् - यह मोह से मुक्त कराने जाता है । यह भिक्षु को हितकर, सुखकर, कर्मक्षय करने में समर्थ कल्याणकारी और भवान्तर में ( फलदायी ) साथ चलने वाला होता है। Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ५५२-५५४ पायोपगमन अनशन तपाचार [२६५ पाओवगमण अणसणे पादोषगमन अनशन५५२. अयं धाततरे सिया, जे एवं अणुपालए। ५५२. यह पादपोपगमन अनशन भक्त प्रत्याख्यान से और इंगितसब्य-गाय-णिरोधे बि, ठाणातो ण वि उम्भमे ॥ मरण से भी विशिष्टतर है। जिसका इस प्रकार पालन किया जाता है, वह सारा शरीर कुचल दिये जाने पर भी अपने स्थान से चलित नहीं होता है। अयं से उत्तमे धम्मे, पुष्वट्ठाणस्स पागहे। यह पादोपगमन अनशन उत्तम धर्म है । यह पूर्व अनशनों से अचिरं परिलहिता, विहरे चिट्ठ माहणे ॥ प्रकृष्टतर है। भिक्षु जीव जन्तु रहित स्थाण्डिल (स्थान) का सम्यक् निरीक्षण करके वहाँ अप्रेसनयत् स्थिर होकर रहे। अचित्तं तु समासज, सावए तत्प अपगं । अचित्त स्थान को प्राप्त करके वहाँ अपने आपको स्थापित योसिरे सम्बसो कार्य, प मे देहे परीसहा ॥ कर दे। शरीर का सब प्रकार से व्युत्सर्ग कर दे। परीषह उपस्थित होने पर ऐसी भावना करे यह शरीर ही मेरा नहीं है, तब घरीषह जनित दुःख मुझे कसे होंगे?' जावज्जीवं परीसहा, उबस्सम्मा य संखाय । जब तक जीवन है तब तक ये परीषह और उपसर्ग होते हैं, संधुएं कह दाए, इस प्रयासए । यह विचार कर शरीर को विसजित करने वाला तथा शरीरभेद के लिए समुद्यत प्राज्ञ भिक्षु उन्हें समभाव से सहन करे। भेउरेसु पं रज्जेज्जा, कामेसु बहुतरेसु वि। भिक्षु क्षणभंगुर विविध प्रकार के काम-मोगों में आशक्त न इच्छालोमं ण सेवेम्जा, धुवणं सपेहिया ।। होवे तथा संयम के स्वरूप का सम्यक् विचार करके इच्छा रूप लोभ का भी सेवन न करे। सासएहिं णिमंतेज्जा, विश्वमायं ण सद्दहे । कोई दिव्यभोगों के लिए निमन्वित करे तब भिक्षु उस देव तं परिदुरल माहणे, सवं नूमं विधूणिया । माया पर श्रद्धा न करे, उस माया को सर्व प्रकार से कर्म बन्ध' का कारण जानकर उससे दूर रहे। सम्बठेहिं अमुच्छिए, आयुकालस्स पारए । सभी प्रकार के विषयों में अनासक्त और मृत्युकाल के पार तितिक्वं परमं णच्चा, बिमोहण्णतरं हित ।। तक पहुंचाने वाला मुनि तितिक्षा को सर्वश्रेष्ठ जानकर हितकर -आ. सु. १, अ.८. उ. ८, गा. ३४-४० अनशनों में से किसी एक का आराधन करे । अणसण गहणस्स दिसाओ अनशन ग्रहण करने की दिशाएँ५५३, हो दिसाओ अभिगिन कप्पति णिग्गंधाण वा णिग्गंथीण वा ५५३. जो निन्य और निर्गन्धियाँ अपश्चिम मारणान्तिवा अपच्छिममारणंतियसंहणा झूसणा झूसियाणं, भत्तपागरि- संलेखना की आराधना से युक्त हैं, जो भक्त-पान का प्रत्याख्यान याइक्खित्ताणं पाओगताणं काल अणवखमाणाणं बिह- कर चुके हैं जो पादोपगमन अनशन से युक्त है, जो मरणकाल रितए, त जहा... की आकांक्षा नहीं करते हुए विचर रहे हैं, उन्हें दो दिशाबों की १. पाईणं चंव, २. उबीणं शेव । ओर मुंह कर रहना चाहिये । यथा---(१) पूर्व और (२) उत्तर। -ठाणं. अ. २, ३.१, सु. ६६(ख) अणसण फलं.. अनशन का फल५५४. निजहिऊण आहार, कालधम्मे उदिए । ५५४. समर्थ मुनि कालधर्म के उपस्थित होने पर आहार का जहिऊण माणुसं बौदि, पहू दुषले विमुच्चई ॥ परित्याग करके मनुष्य शरीर को छोटकर दुःखों से विमुक्त हो उत्त, अ. ३५, गर. २० जाता है। Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६] घरगानुयोग-२ भवमोवरिका के भेद सूत्र ५५५-५५७ अवमोदरिका-३ ओमोथरियाए भेया अवमोदरिका के भेद५५५. ५०-से कि ओमोयरिया ? ५५५. प्र.-अवमोदरिका क्या है-उसके कितने भेद हैं? 30-ओमोरिया दुविहा पणता, तं जहा मुल-अवमोदरिका के दो भेद बतलाये गये हैं, यथा१. वयोमोयरिया य, हा-अवमोदरिका-भूख से कम खाना। २. मावोमोपरिया या-वि. स.२५, उ.७, सु. २०३ (२) भाव अबमोदरिका-कषाय कलह थादि कम करना । मोमोयरियं पंचहा, समालेण वियाहियं । द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और पर्याय के भेद से उनीदरी तप बस्वओ घेत्त-कालेणं भावेणं पज्जवेहि य संक्षेप में पांच प्रकार का है। -उत. अ. ३०, मा. १४ दवोमोयरिया सरूवं द्रव्य अवमोदरिका का स्वरूप---- ५५६. जो जस्स उ आहारो, तत्तो ओम तु जी करे। १५६. जिसका जितना थाहार है, उससे कम खाता है अर्थात् जहन्नेणेग - सित्याई, एवं धन्वेण उ भवे ।। जघन्य एक कवत भी कम खाता है, वह द्रव्य से अवमोदयं तप -उत्त. अ. ३०, गा.१५ होता है। दव्योमोयरियाए भेयप्पभेया द्रव्य अवमोदरिका के भेद-प्रभेद५५७. १०-से कितं वयोमोयरिया ? ५५७. प्र-द्रव्य-अवमोदरिका क्या है-उसके कितने भेद हैं ? उ०-दव्योमोयरिया वुविहा पण्णत्ता, तं जहा सु०---द्रव्य-अवमोदरिका के दो भेद बतलाये गये हैं, यश१. उवगरण-वयोमोयरिया य, (१) उपकरण-द्रव्य अवमोदरिका-वस्त्र आदि उपयोगी सामग्री का कम उपयोग करना । २. भत्तपाण-पथ्योमोरिया या (२) भक्त-पान अवमोदरिका---साद्य, पेय पदार्थों का कम मात्रा में उपयोग करना। प०-से कितं उबगरण-वयोमोयरिया ? प्र०-उपकरण-द्रव्य अवमोदरिका क्या है-उसके कितने भेद हैं? उ०-उवगरण-दव्योमोयरिया तिथिहा पण्णत्ता, तं जहा- उ० -उपकरण-द्रव्य अवमोदरिका के तीन भेद बतलाये गये हैं, यथा१. एगे बस्थे, २. एगे पाए, (१) एक वस्त्र रखना, (२) एक पात्र रखना, ३. वियतोवकरण-साइजणया, (३) त्यक्त (परिभुक्त) उपकरण ग्रहण करना । से तं उवगरण-खोमोयरिया। यह उपकरण द्रव्य अवमोदरिका है 1 प०-से कि मत्तपाण-वयोमोयरिया? प्र०-भक्तपान-द्रव्य अवमोदरिका क्या है उसके कितने उ.-प्रसपाण-इस्रोमोयरिया अगविहा पणत्ता,तं जहा- उ०-भक्तपान-द्रव्य अवमोदरिका के अनेक भेद बतलाये गये हैं, जो इस प्रकार हैं १ उव. सु. ३० २ भगवती सुत्र और औषपातिक सूत्र में ये भेद समान है किन्तु याणांग सूत्र के तीसरे ठाणे में ऊणोदरी तप के तीन भेद इस प्रकार किये हैं... तिविधा ओमोयरिया पण्णता, तं जहा (१) उवमरणोमोयरिय (२) भत्तपाणोमोयरिया, (३) भावोमोयरिया । ---ठाणं. अ. ३. उ. ३, सु. १८८ (क) ३ ठाणं. अ. ३,उ. ३, सु. १८८ (ख) Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ५५७-५५६ १.मागमेसे करते बाहारं आहारेमाने अपारे । २.कृपाणये कमले आहार आहारेमाणे अवढ मोयरिया २. कुक्कुममेकवले बाहार आहारेमाणे मागपत्तोमोयरिया । ४. वो कुकुडिअडगप्यमाणमेत्ते कयले बाहारं आहारेमा भागपत्ते, असिया ओमोपरिया । ५. एक्कतीसं कुक्कुडिमंड गप्पमाणमेते कवले आहार आहारेमाणे किचूणोमोयरिया । प्यमाणमेते कसे आहार ६. आहारमार्ग पमाणपत्ते । ७. एतो एगेण वि घासेणं कणयं बहारमाहारेमा समणे णिग्गंधे णो पकामभोइति यत्तथ्यं सिया । सेतं मत्तपाण- दध्योमोयरिया से तं दध्योमोयरिया । वि. स. २५, उ. ७, सु. २०४ २०६ खेत्त ओमोरिया । ५५८. गामे नगरे तह रायहाणि, निगमे व आगरे पल्ली । डेढे कब्बड दोषमुह, पट्टण - मडम्ब संवाहे ॥ माम विहारे, सत्रिये समायो पलि सेवा खंधारे, वाडे व रच्छासु व कम्पs उ एवमाई P पेडा य अपेडा, वागंतु काल ओमोपरिया- ५५. सत्ये संबद्ध-कोट्ट थ ॥ घरेलु वा एवमित्तियं तेषं । एवं खेतेण ऊ भवे ॥ गोमुत्ति-पयंगवीहिया चेत्र । छडा ॥* पकवागया परिसी एवं चरमाणो ख क्षेत्र भवमोरिका - उत्स. अ. ३०, गा. १६-१३ जितियो भने कालो कालोमाणं मुणेयब्वो || १ (क) वि. स. ७, उ, १, सु. १९ २ (क) अ. अ. ६.४१४ तपाचार (१) अपने मुख प्रमाण आठ कवल आहार करने से अल्पाहार कहा जाता है । ( २ ) अपने मुख प्रमाण बारह कवल आहार करने से कुछ कम अर्ध अनोदरिका कही जाती है। [२६७ (३) अपने प्रमाण सोलह नमन आहार करने के द्विभाग प्राप्त अर्थ कणोदरी कही जाती है। ( ४ ) अपने मुख प्रमाण चौबीस कवल आहार करने से विभाग प्राप्त आहार और एक भाग अलीदरिका कही जाती है। (५) अपने मुख प्रमाण एकतीस कवल आहार करने से किचित् मोरिका कही जाती है। (६) अपने मुख प्रमाण वसीस कवल आहार करने से प्रमाण प्राप्त आहार कहा जाता है । (७) इससे एक ग्रास भी कम आहार करने वाला श्रमणनिकामभोगी नहीं कहा जा सकता है। यह भक्तपान द्रव्य अवमोदरिका है। यह द्रव्य अनमो दरिका है। क्षेत्र अवमोदरिका ५५८. ग्राम, नगर, राजधानी, निगम, आकर, पल्ली, खेड़ा, कर्बट, द्रोणमुख, पत्तन, मण्डप, संबाध, आश्रम पद, विहार, सन्निवेश, समाज, घोष, स्थली, सेना का शिविर, सार्थ, संवर्त, कोट, पाड़ा, गदियां अथवा घर आदि में "मुझे अमुक निर्धारित क्षेत्र में शिक्षा के लिए जाना कल्पता है।" ऐसी प्रतिज्ञा करने पर क्षेत्र से अमोद तप होता है। ( प्रकारान्तर से ) - ( १ ) पेटा, (४) (३) गोमूत्रिका, (४) पतंग बीथिका, और (६) जाते या पुनः आते । (क) उ.सु. २० (ग) वद. उ. ८ सु. १७ (ख) दसा. द. ७, सु. ६ इन छह प्रकार की प्रतिज्ञा से आहार ग्रहण करना भी क्षेत्र से अवसौदर्य उप है। काल प्रथमोदरिका (२) अर्ज पेटा, (५) शम्बूकावर्ता ५५९. दिवस के चार प्रहरों में जितना अभिग्रह - काल किया है, उसमें ही भिक्षा के लिए विवरण करने वाले मुनि के काल से अवमोदयं तप होता है । Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८] धरणानुयोग-२ भाष-अवमोवरिका सूत्र ५५६-५६२ अहवा तइयाए पोरिसीए, ना भासमेसत्रो । अथवा तीसरे पहर में ही चतुर्थ भाग आदि न्यून करके चउमाणाए वा, एवं कालेण ऊ भवे ।। शेष काल में जो भिक्षा की एषणा करता है, ऐसा करने पर भी -उस. अ. ३०, गा. २०-२१ काल से अवमौदर्य तप होता है। भाव ओभोयरिया भाव-अवमोदरिका५६०. इत्यो वा पुरिसो वा, अतंकिओवाऽणसकिओ वा वि। ५६०. स्त्री या पुरुष, अलंकृत या अनलंकृत, अमुक वय वाले या अन्नयरवयस्थो वा, अन्नवरेणं व वत्येणं ।। अमुक वस्थ वाले, अमुक वर्ण वाले या अमुक भाव वाले, इत्यादि बन्नेण बिसेसेणं, बाणेणं माबमणुमुयन्ते उ । किसी भी विशेषता से युक्त हो ऐसे दाता से भिक्षा ग्रहण करूँगा एवं घरमाणो खतु, भावोमाणं मुणेयथ्यो । अन्यथा नहीं इस प्रकार की प्रतिज्ञा से चर्या करने वाले मुनि -उत्त. अ. ३०, गा, २२-२३ के भाव से अवमोदयं तप होता है। ५०-से कि त भावोमोयरिया ? प्र.-भाव-अवमोदरिका क्या है? उ.-भावीयोयरिया अणेगविहा पणत्ता, तं जहा : 30--भाव-बबमोदरिका अनेक प्रकार की बतलाई गई है, यथा--- अप्पकोहे, अप्पमाणे, अप्पमाए, अप्पलोहे, अप्पस, क्रोध, मान, माया और लोभ की प्रवृत्ति कम करना, क्रोध अप्पझने, अप्पनुमंतुमे। से तं भावोमोयरिया। आदि के आवेश से होने वाली शब्द प्रवृत्ति को, कलहोत्पादक से तं ओमोयरिया ।-वि. स. २५, उ.७, सु. २०७ वचन को लथा तुमन्तुम की प्रवृत्ति को कम करना । मह भाव अवमोदरिका का स्वरूप है, यह अवमोदरिका है। पज्जव ओमोयरिया पर्यव अवमोदरिका५६१. बब्वे खेत्ते काले भावम्मि य, आहिया उजे मावा। ५६१. द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव ऊणोदरी में जो भाव कहे एएहि ओमचरो, पज्जषचरो भवे मिक्स् ॥ गए हैं, जो भिक्ष एक साथ इन पारों प्रकार की ऊणोदरी से -उत्त. अ. ३०, गा. २४ चर्या करता है उसके पर्यव अवमौवर्य तप होता है। YATRE भिक्षाचर्या-४ मिक्खायरियासहवं भिक्षाचर्या का स्वरूप५६२. अविहगोयरगं तु, तहा सत्तेव एसगा । ५६२. आठ प्रकार की भिक्षाचरी, सात प्रकार की पिढेषणा तथा अभिग्गहा य जे अन्ने, मिक्खायरियमाहिया ।। और भी जो अन्य अभिग्नह हैं, उन्हें भिक्षाचर्या तप कहा -उत्त. अ. ३०, गा. २५ जाता है । १ (क) उव. सू. ३० (ख) विवाहपाणती एवं उपवाई सूत्र में "गोदरी" तप के दो भेद हैं और उत्तराध्ययन में "ऊणोदरी" तप के संक्षेप में ५ भेद हैं, यद्यपि ५ की अपेक्षा दो संख्या अल्प है फिर भी विवाहपण्णत्ती एवं उबवाई सूत्र के दो भेदों में आहार, उपकरण और कपाय आदि से सभी प्रकार की ऊणोदरी का कथन है और उत्तराध्ययन में केवल आहार की अपेक्षा ही पांचों भेदों का विवेचन किया गया है । उपकरण और कषाय ऊणोदरी का कथन नहीं किया है। २ उत्त. अ. ३० गा. १९ में क्षेत्र अवमोदरिका में गोचरी के ६ प्रकार कहे हैं। दशा. द. ७, सु. ६ में प्रतिमाघारी भिक्ष के ६ प्रकार की गोचरी कही है । उसे ही यहाँ एक अपेक्षा से आठ प्रकार की भिक्षाचरी कहा है। संखावत के आभ्यंतर व बाह्य दो भेद करने से तथा गंतप्रत्यागता के 'जाते समय' और 'आते समय' यों दो भेद करने से ये गोचरी के आठ प्रकार होते हैं। Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ५६३ भिक्षाचर्या के प्रकार तपाचार [२६६ भिक्खायरिया पगारा--- भिक्षाचर्या के प्रकार१६३.५०-सेकस लायरिया। ५६३. प्र०—भिक्षाचर्या कितने प्रकार की है ? उ०—भिक्खायरिया अणेगविहा पष्णसा, तनहा . उ०-भिक्षाचर्या अनेक प्रकार की कही गई है, यथा१. वन्वामिग्महचरए। (१) द्रव्यों की भर्यादा का अभिग्रह करके आहार लेना। २. खेत्ताभिमहावरए । (२) ग्रामादि क्षेत्रों में से किसी एक क्षेत्र का अभिग्रह करके आहार लेना। ३. कालाभिगहमरए। (३) दिन के अमुक भाग में आहार लेने का अभियह करना । ४. भावाभिमहघरए। (४) अमुक भय या वणं चाले से आहार लेने का अभिग्रह करना। ५. उक्वित्तवरए। (५) किसी बर्तन में भोजन निकालने वाले से बाहार लेने का अभिग्रह करना। ६. निक्षितचरए। (६) किसी बर्तन में भोजन डालने वाले से आहार लेने का अभिग्रह करना। ७. उविधत्त-निक्खित्तपरए । (७) किसी एक वर्तन में भोजन लेकर दूसरे बर्तन में डालने दाले से आहार लेने का अभिग्रह करना । ८. निश्वित्त-उक्तित्तघरए। (८) किसी एक बर्तन में निकाले हुए भोजन को दूसरे बर्तन में लेने वाले से आहार लेने का अभिग्रह करना । ६. वट्टिज्जमाणचरए। () किसी के लिए थाली में परोसा हुआ' आहार लेने का अभिग्रह करना। १०. सम्हरिज्जमाणचरए। (१०) थाली में ठारे हुए भोजन को अन्य बर्तन में लेने वाले से आहार लेने का अभिग्रह करना । ११. जवणीयचरए। (११) आहार की प्रशंसा करके देने वाले से बाहार लेने का अभिग्रह करना। १२. अवणीयचरए। (१२) आहार की निन्दा करके देने वाले से बाहार लेने का अभिग्रह करना । १३. उवणीय-अवगीयघरए। (१३) जो बाहार की पहले प्रशंसा करके बाद में निन्दा करे उससे आहार लेने का अभिग्रह करना । १४. अबणीय-उवणीपचरए । (१४) जो बाहार की पहले निन्दा करके बाद में प्रशंसा करे उससे आहार लेने का अभिग्रह करना। १५. संसट्टचरए। (१५) लिप्त हाथ, पात्र या चम्मच से आहार लेने का अभिग्रह करना। १६. असंसटुचरए । (१६) अलिप्त हाथ, पात्र या चम्मच से आहार लेने का अभिग्रह करना। १ "भिक्षाचर्या" यद्यपि छः प्रकार के बाह्यतपों में से एक प्रकार का तप है और वह निर्जरा का हेतु है तथापि अभिग्रह युक्त भिक्षाचर्या ही तप रूप है अतः उसका वर्णन लपाचार में लिया गया है और सामान्य भिक्षाचर्या एषणा समिति का विषय है इसलिए उसका सम्पूर्ण वर्णन "एषणा समिति" में दिया है। . २ असंसृष्ट चरक अलिप्त हाय, पात्र या चम्मच से बाहार लेने का निषेध आ. श्रु. २, अ.१, उ.६, सु. ३६० में तथा दथर्वकालिक अ. ५, उ. १, गा. ३२ में है क्योंकि लिप्त हाथ आदि को धोने से पश्चात् कर्म दोष लगता है। (शेष टिप्पण अगले पृष्ठ पर) Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० ] चरणानुयोग – २ १७. जारए १८. अण्णायचरए । १२. भोगचरए २०. लिए। २१. ए २२. पुलाभिए, २१. लालिए २४. क्लाभिए,' २५. अभिलामिए २६. अण्णमिलाप, ४ २७. ए www. भिक्षाचर्या के प्रकार २६३ (१७) देय पदार्थ से लिप्त हाथ, पात्र या चम्मच द्वारा दिये जाने वाले आहार को लेने का अभिग्रह करना 1 (१८) अशा स्थान (हो) से आहार लेने का अभिग्रह करना । (१६) मौन रखकर आहार लेने का का अभिग्रह करना । (२०) दिखता हुआ आहार देने का अभि करना । (२१) नहीं दिखता हुआ आहार लेने का अभि करता। (२२) "तुम्हें क्या चाहिए" इस प्रकार पूछकर देने से आहार लेने का अभिग्रह करना । (१३) बिना पूछे देने वाले से आहार लेने का अभि करना । (२४) "मुझे शिक्षा दो" ऐसा कहने पर देने वाले से आहार लेने का अभिग्रह करना । (२५) “भिक्षा दो" आदि कुछ भी कहे बिना ही स्वतः देने वाले से आहार लेने का अभिग्रह करना । (२६) नहीं लेने का अभिग्रह करना। (२७) दाता के समीप में पड़ा हुआ आहार लेने का अभि ग्रह करना । (२८) परिमित द्रव्यों के लेने का अभिग्रह करना । २०. परिमिय पाए पिछले पृष्ठ का यदि कहीं पश्चात कर्म दोष न लगने जैसा ज्ञात हो तो ही इस अभिग्रह वाले बाहार ले सकते हैं। सभी व्याख्याकारों ने यही स्पष्टीकरण किया है। आपा . २ . १ . १ में भी पहली पहिना (प्रतिज्ञा है-"ष्ठ हाथ, या चम्मच से ही बहार लेना ।" भुने हुए चने, चावल, जौ, ज्वार, मक्की आदि खाद्य पदार्थ अलिप्त आहार है। ऐसे अलेप आहार लेने पर पश्चात कर्म दो जने की सम्भावना नहीं रहती है। भिक्षादाता यदि विवेक से लेग वाले पदार्थ दे तो सेवाले पदार्थ लेने में भी पश्चात कर्म दोष नहीं लगता । इस 'संसृष्टचरफ' अभिह में ऐसे ही विवेकपूर्वक आहार लिया जाता है। १ सय के घर में जिसने साथ पदार्थ सामने दीख रहे हों उनमें से ही अपनी आवश्यकतानुसार आहार लेना "दिला भए" अभिग्रह है। २ अदिलाभिए गृहस्थ के घर में जो खाद्य पदार्थ सामने न दीखें ऐसे पड़े हों उनमें से ही बहार लेना "बदिट्ठलाभिए” अभि है। ३ भिक्खलाभिए - दाता अपनी ओर से भिक्षा न दे ऐसी स्थिति में भ्रमण स्वयं गृहस्थ से कहे प्रासुक एषणीय शुद्ध आहार हो तो मुझे दो ऐसा कहने पर जो आहार दाता से मिले वही ले, यह “भिक्खलाभिए" अभिग्रह है । ४ अभिलाभिए - भिक्षु के कुछ भी कहे बिना दाता स्वयं जो कुछ प्रसुक एवं एषणीय आहार दे वही लेना "अभिक्खलाभिए” भ है। यद्यपि सभी श्रमण भिक्षावृत्ति से ही आहारादि लेते हैं फिर भी भिक्खलाभिए और अभिक्खलाभिए ये दोनों अभिग्रह हैं । अतः यहाँ इनकी यह विशेष व्याख्या की गई है । ५ अष्णगिलायए – जो खाद्य पदार्थ रुचिकर न हो ऐसे खाद्य पदार्थों को या अनेक दिन पहले बने हुए खाद्य पदार्थों को लेना " अण्ण गिलायए" अभिग्रह है । Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ५६३ २९. सुसजिए ३०. संत्रास, से तं भिक्लारिया । - वि. स. २५, उ.७. सु. २०० पंच ठाणाई समषेण भगवया महावीरेणं समणाणं निर्मायाणं जावाति व जहा १. २. विसर ३. अंतर ४. पंचरए, ५. सूहचरए । पंच ठाणाई समणेण भगवया महाबीरेणं समणाणं निषाणं जाना जहा १. अण्णायचरए, २. भिक्षाचर्या के प्रकार २. भोणच ४. संसकप्पिए, ५. तनासपिए । पंच ठाणा समचं भगवया महाबीरेणं समणार्थ निचार्य जान-समझाया भवंति तं जहा १. ए २. सुसणिए, ३. संखादतिए, ४. ए (२९) एषणा में कोई भी अपवाद सेवन न करने का अभि ग्रह करना । (२०) परिमाण निश्चित करके आहार लेने का करना। अभि यह विद्याचर्या तप है। श्रमण भगवान् महावीर ने श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए पाँच अभिग्रह स्थान की --- यावत् आज्ञा दी है, यथा तपाचार (१) उत्क्षिप्तचरक - शंधने के पात्र से निकाला हुआ आहार ग्रहण करना । (२) निक्षिप्तचरक - रांधने के पात्र में से बहार ग्रहण करना । (३) अन्तचरक परिवार वालों के भोजन कर लेने के बाद बचा हुआ आहार ग्रहण करना । (४) प्रान्तचरक - तुच्छ आहार लेने का अभिग्रह करना । (५) रूक्षचरक-सर्व प्रकार के रसों से रहित रूक्षा आहार ग्रहण करना | श्रमण भगवान् महावीर ने श्रमण निर्मन्थों के लिए पाँच अभिग्रह स्थान की — यावत् - आज्ञा दी है, यया बताये बिना (१) अज्ञातचरक - अपनी जाति कुलादि अथवा अज्ञात गृहस्थ से भिक्षा लेना । भिक्षा लेना । - (२) अन्नग्लाय चरक - आज का बना हुआ न हो ऐसा आहार लेना । (३) मौनचरक मौन रहकर भिक्षा जाना। (४) संकल्प (१) औनिधिक (२) शुद्ध वणिक (३) संपादक करके आहार लेना । (४) [२७१ - लेना । (५) तज्जात संसुष्टकल्पिक — देय द्रव्य से लिप्त हाथ नादि से ही भिक्षा लेना । श्रमण भगवान् महावीर ने श्रमण निर्मन्थों के लिए पांच अभिग्रह स्थान की आशा दी है, यथा समीप में रखे हुए बाहार को ही लेना। निर्दोष आहार की ही गवेषणा करना । सीमित संख्या में दसियों का निय लिया हाथ या कड़ी आदि से ही - लामिक सामने रखा इव महारपानी ही १ सुद्धेस थिए- आहार, उपाथय, वस्त्र, पात्र, पीढ़, फलक मादि आवश्यक सामग्री की सर्वदा अपवाद रहित शुद्ध एषणा ही करना "सुद्धेणि" अभिग्रह है। २ (क) सू. २. अ. २. ०१४ (स). सु. ३० Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२] चरणामृयोग-२ रस परित्याग का स्वरूप सूत्र ५६३-५६५ ५. पुठ्ठलाभिए। (५) पृष्टलामिक–स्या लोगे? यह पूछे जाने पर ही भिक्षा लेना। पंच ठाणाई समणेणं भगवया महाबीरेणं समणागं निग्गंधाणं श्रमण भगवान महावीर ने श्रमण निग्रंन्यों के लिए पनि -जाव-अक्षणुलायाई प्रर्वति, जहा--- अभिग्रह स्थान की-यावत् -आज्ञा दी है. यथा१. आयंबिलिए, (१) भाचासिक-आयंबिल करने वाला। २. णिखिइए, (२) निविकृतिक-वी आदि विकृतियों का त्याग करने बाला। ३. पुरिमहिए, (३) पूर्वाधिक-दिन के पूर्वार्ध में आहार नहीं करने के नियम वाला। ४. परिमियपिंडवाइए, (४) परिमितपिष्टपातिक-परिमित द्रव्यों की भिक्षा लेने वाला। ५. भिष्ण पिशवाइए। (५) भिन्नपिण्डपातिक-खंड-खंड किये हुए पदार्थों की -ठाणं. अ. ५, उ. १, सु. ३६६ भिक्षा लेने वाला । रस-परित्याग-५ रस परित्याग का स्वरूप५६४. दूध, दही, घृत आदि स्निग्ध पान-भोजन और रसों के वर्जन को रसविवर्जन तप कहा जाता है। रस-परिच्चाय सरूवं५६४. खीर-वहि-सप्पिमाई, पणीयं पाणमोयणं । परिवरजणं रसागंतु, मणिधं रसविवरजणं ॥ -उत्त. अ.३०, मा. २६ रस-परिच्चाय-पचारा५६५. ५०–से कि त रसपरिच्चाए ? उ.-रसपरिच्चाए अणेगविहे पणते, तनहा - १. निधोइए, २. पणीय-रस-परिच्चाए, ३. आयंबिलिए, रस-परित्याग के प्रकार५६५, प्र०-रस-परित्याय क्या है ? वह कितने प्रकार का है ? 30-रस-परित्याग अनेक प्रकार का कहा गया है, यथा-- (१) मिविकृतिक ---विगय रहित आहार करना । (२) प्रणीत रसपरित्याग—अतिस्निग्ध और सरस आहार का त्याग करना। (३) आयंबित-नमक आदि षट्स तथा विगय रहित एक द्रव्य को अचित्त पानी में भिगोकर दिन में एक ही बार पाना । (४) आयाम सिक्यमोजी-ओसामन आदि के पानी में रहे हुए अन्न कणों को खाना । अथवा अत्यल्प पदार्थ लेकर आयंबिल करना। (५) अरसाहार-बिना मिर्च मसाले का आहार करना । (६) विरसाहार- बहुत पुराने अन्न से बना हुआ आहार करना । (७) अन्ताहार-भोजन के बाद बचा हुआ आहार करना। ४. आयामसित्यमोई, ५. अरसाहारे, ६. विरसाहारे, ७. अंताहारे, Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ५६५-१६७ काय-क्लेश का स्वरूप तपाचार (२७३ ८. पंताहारे, (6) प्रान्ताहार-मलिचा आदि तुच्छ धान्यों से बना हुआ आहार करना। ६. सूहाहारे, (६) स्याहार-रूखा-सूखा आहार करना । १०. से तं रसपरिच्चाए। ये रस परित्याग है। -वि. स.२५, उ.७.सु. २०६ पंच ठाणाई समग भगवया महावीरेणं तमणाणं निग्गंधाणं श्रमण भगवान महावीर ने श्रमण निम्रज्यों के लिए पांच -जाव-अम्मणुमायाई भवति, तं जहा-- अभिग्रह स्थान की-यावत्-आज्ञा दी है, यथा१. अरसजीवी, (१) अरमजीवी-जीवन पर्यन्त (या लम्बे समय तक) रस रहित आहार लेना। २. विरसत्रीयो, (२) बिरसजीवी--जीवन पर्यन्त (या लम्बे समय तक) विरस आहार लेना। ३. सजीवी, (३) बस्यजीवी-जीवन पर्यन्त (या लम्बे समय तक) बचा हुना आहार लेना। ४. पंतजीयो, (४) प्रान्तजीवी-जीवन पर्यन्त (या लम्बे समय तक) तुम्छ थाहार लेना। ५. लहजीवी, (५) सक्षजीवी-जीवन पर्यन्त (या लम्बे समय तक) रूखे-ठाणं. म.५, उ.१,सु.३६६ सूखे आहार लेना। काय-क्लेश-६ कायकिलेस सरूवं काय-क्लेश का स्वरूप५६६. ठाणा बोरासणाईया, जीवस्स हावहा । ५६६, आत्मा के लिए सुखकर वीरासन आदि कठिन आसनों का जग्गा जहा परिज्जति, कायकिले तमाहियं ॥ जो सेवन किया जाता है, उसे कायक्लेश तप कहा जाता है। --उत्त.. ३०, मा. २७ अणेगविहे कायकिलेसे काय-क्लेश के प्रकार-- ५६७, ५०-से कि तं फायकिलेसे? ५६७. प्र०-कायक्लेश क्या है-वह कितने प्रकार का है? ज०-कायकिलेसे अगविहे पण्णते, तं जहा ३०-काय-क्लेश अनेक प्रकार का कहा गया है, जैसे१. वाटिदए, (१) स्थानस्थितिक-एक आसन से स्थिर रहना। २. उपकुड्यासपिए, (२) उस्कुटुकासनिक-पृष्ठों को भूमि पर न टिकाते हुए केवल पांवों के बल पर बैठकर मस्तक पर अंजली करना। ३. पडिमाई, (३) प्रतिमास्थायी-एक रात्रि आदि का समय निश्चित कर कायोत्सर्ग करना। ४. बोरासहिए, (४) वीरासनिक-कुर्सी पर बैठे व्यक्ति के नीचे से कसी निकालने पर जो स्थिति होती है उस आसन से स्थिर रहना । १ याणं. अ.५.उ.१. सु. ३९६ में अरसाहारे आदि पांच प्रकार हैं। २ उव. सु. ३० Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४] वरणानुयोग - २ निग्रंथियों के लिए मातापना का विधि-निषेध सूत्र ५६७-५६८ ५. नेसज्जिए, (५) नैवधिक -पुटु टिकाकर पालथी लगाकर बैठना । ६. आयावए, (६) आतापक--धूप आदि की आतापना लेना । ७. अवाजडए, (6) अप्रावृतक--देह को कपड़े आदि से नहीं ढकना । ८. अफरपए, (८) अकण्डूयक-खुजली चलने पर भी देह को नहीं खुजलाना। ६. अणि हए. (e) अनिष्ठोवक-धूक कफ आदि आने पर भी नहीं थूकना । १०. सम्वगाय-परिकम्म-विभूसा य विषमुरके, (१०) सर्व-मात्र परिकर्म एवं विभूषा विप्रमुक्त-देह के सभी संस्कार तथा विभूषा आदि करने से मुक्त रहना । से तं कायकिलेस -वि.स.१५, उ.५, पद काय-क्लेश का विस्तार है। पंच ठाणाई समणेणं भगवया महाबीरेणं समणामं निम्गंथाणं श्रमण भगवन्त महावीर ने आपण निर्यन्थों के लिए पाप -जाव-अम्भणुमाया भवंतितं जहा-. स्थान सदा आचरण योग्य कहे हैं-यावत्-स्वीकृत किये हैं। यथा१. वंडायतिए, (१) दण्डायतिक-टने के समान सीधे लम्बे पर करके सोना। २. लगंडसाई, (२) लगण्डशायी-शिर और एड़ी को जमीन पर टिकाकर शेष शरीर को ऊपर उठाकर सोना। ३. आतावए, (३) आतापक-सरदी तथा गर्मों सहना । ४. अपाउडए, (४) अप्रावृतक बस्टा न रखना। ५. अकंड्यए, -ठाणं..५, उ. १,सु. ३६६ (५) अकण्डयक-लाज न बुजलाना। पंच णिसिजाओ पण्णताओ, त जहा पाँच बैठने के प्रकार कहे हैं, यथा१. उक्कुडया (१) उत्कटका-नितम्ब टिकाये बिना पैरों को टिकाकर बैठना। २. गोबोहिया, (२) गोदोहिका-गाय दुहने की तरह बैठना । ३. समपायपुत्ता, (३) समपादपुता-दोनों पैरों को और नितम्बों को भूमि पर टिकाकर बैठना। ४. पलियंका, (४) पर्यफा--पालथी लगाकर बैठना । ५. अद्धपलियंका। - ठाणं. अ५, उ.१, सु. ४०० (५) अर्घ पर्यका-आधी पालथी सगाकर बैठना अर्थात् एक पर से पालथी लगाकर और एक पर लम्बा करके बैठना । णिग्गयोणं णिसिद्धा विहियाय आयावणा निन्थियों के लिए आतापना का विधि-निषेध५६८. नो कम्पद निग्गयोए बहियागामस्त वा-जाव-रायहाणिस्त वा ५६८. निन्धी को गांव के बाहर-यावत् -राजधानी के बाहर उनु बाहामओ पगिजिमय-पगिनिमय सुराभिमुहीए एगपार- भजाओं को ऊपर की ओर करके, सूर्य की ओर मुंह करके तया याए ठिम्चा आयावणाए आयावेत्तए। एक पर से खड़े होकर आतापना लेना नहीं कल्पता है। १ (क) उव. सु. ३० (ख) पंच ठाणाई समणेणं भगवया महाटीरेणं समणार्ण निग्गंथाण-जावन्मभणुनायाई भवंति तं जहा - (१) ठाणातिए, (२) उक्कुर आसणाए, (३) पडिभट्ठाई, (४) वीरामणिए, (५) णेसज्जिए । -ठाण.. ५स. १, सु. ३६६ (ग) सतविधे कायकिलेसे पण्णत्ते, त जहा (१) ठाणातिए, (२) उपकुड्यामणिए, (३) परिमट्ठाई, (४) वीरासणिए, १५) सजिए, १६) दंडायलिए, (७) सगंडसाई। --ठा. अ.. सु. १५४ Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ५६८-५७० निन्थियों के लिए निविध कायक्लश तपाचार २७५ कप्पाद से उबस्सयस्स अंतोवगडाए संघाडिया परिवाए किन्तु उपाश्रय के अन्दर पर्दा लगाकर के भुजाएं नीची पसंवियवाहयाए समतलपाइयाए ठिच्चा आयावणाए माया- लटकाकर दोनों पैरों को समतल कर तथा खड़े होकर आतापना बेसए। -कप्प. उ. ५, सु. २२ लेना कल्पता है।। णिग्गयोणं णिसिद्ध कायकिलेसे निर्गन्थियों के लिए निषिद्ध कायक्लेश५६६. नो कम्पा निग्गंथोए ठाणाझ्याए होतए। ५६६. नियंन्थी सात्री को बड़े रहकर कायोत्सर्ग करने का अभिग्रह करना नहीं कल्पता है। नो कप्पद निर्गपीए पडिमट्ठाइयाए होतए । निम्रन्थी साध्वी को एक रात्रि आदि का समय निश्चित करके कायोत्सर्ग करने का अभिग्रह करना नहीं कल्पता है। नो कमा निग्गथीए उपकुड्यासणियाए होत्तए । निर्गन्थी साध्वी को उस्कुटुकासन से स्थित रहने का अभि ग्रह करना नहीं करूपता है। नो कप्पा निग्गंधीए निसज्जियाए होत्तए । निम्रन्थी साध्वी को निषद्याओं से स्थित रखने का अभिग्रह करना नहीं कल्पसा है। नो कप्पह निग्गंभीए पौराणियाए होलए । निर्मन्धी साध्वी को बीरासन से रहने का अभिग्रह करना नहीं कल्पता है। नो कप्पड़ निगथीए बण्डासणियाए होत्तए । निन्थी साध्वी को दण्डासन से स्थित रहने का अभिग्रह करना नहीं कल्पता है। नो कप्पइ निग्गंथीए लगण्डसाइयाए होसए। निर्ग्रन्यी साध्वी को लकुटासन से स्थित रहने का अभिग्रह करना नहीं कल्पता है। नो कप्पह निगयोए ओमंथियाए होत्तए। निर्ग्रन्थी साध्वी को अधोमुखी सोकर स्थित रहने का अभि ग्रह करना नहीं कल्पता है । नो कम्पा निग्गंगोए उत्तासणियाए होशए। निग्रंथी साध्वी को उत्तानासन से स्थित रहने का अभिग्रह करना नहीं करूपता है। नो कप्पइ निग्गंधीए अम्बज्जियाए होत्तए। निग्रंथी साध्वी को आम्र-कृब्जिकासन से स्थित रहने का अभिग्रह करना नहीं कल्पता है। नो कप्पद निग्गंधीए एगपासियाए होत्तए। निग्रंथी साध्वी को एक पाश्र्व से प्रायन का अभिग्रह करना -कप्प. उ. ५, सु, २३-३३ नहीं कल्पता है। नो कम्पा निग्गयीए अचेलियाए होत्तए । निर्ग्रन्थी साध्वी को वस्त्र रहित होना नहीं कल्पता है । नो कप्पइ निम्मेवीए अपाइयाए होत्तए । निर्ग्रन्थी साध्वी को पात्र रहित होना नहीं काल्पता है । नो कम्पह निग्गीए बोसट्टकाइयाए होसए । निम्रन्थी साध्वी को निश्चित समय के लिए शरीर को -~-कप्प. उ.५, सु. १९-२१ वोसिरा कर रहना नहीं कल्पता है। प्रतिसंलीनता-७ पडिसलोणयाए भेया-- ५७०. प.-से कि त पडिसलीणया? उ.-पडिसंतीणया चरविहा पणता, तं जहा - १. इंदियपरिसंसोणया, २. कसायपडिसलीणया, प्रतिसंलोनता के भेद५७०. प्र०-~-प्रतिसलीनता क्या है ----वह कितने प्रकार की है ? उ-प्रतिसंलीनता चार प्रकार की कही गई है, यथा(३) इन्दिय प्रतिसलीनता, (२) कषाय प्रतिसलीनता, Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६] वरणानुयोग-२ निय प्रतिसंलोनता के मेव सूत्र ५७०-५५२ (३) योग प्रतिसलीनता, (४) विविक्त शयनासन-सेवन प्रतिसंलीनता। ३. जोगपरिसंलोमया, ४. विविस्तसयगासणसेवणया । -वि. स. २५, उ.७, सु. २११ इंदिय पडिसलीणयाए भेया५७१.५०-से कितं दियपदिसंलोणया? इन्द्रिय प्रतिसंलीनता के भेद-- ५७१. १०-इन्द्रिय प्रतिसलीनता क्या है-वह कितने प्रकार उल-बियपडिसलीणया पंचविहा पण्णसर, तं जहा 30-इन्द्रिय प्रतिसलीनता पांच प्रकार की कही गई है, यया१. सोइन्दियविसयप्पयारनिरोहो बा, सोइन्दिमविसय- (१) श्रोत्रंन्द्रिय के विषय में प्रवृत्त रहने का निरोध करना पत्तेसु अत्थेसु रागदोसनिग्गहो वा । अथवा श्रोत्र न्द्रिय के विषय प्राप्त होने पर उनमें राग-द्वेष का निग्रह करना । २. चक्विवियविसयप्पपारनिरोही था, चॉक्वदिय- (२) चक्षुरिन्द्रिय के विषय में प्रवृत्त रहने का निरोध करना विसयपत्तेसु अत्येसु रागदोसनिग्गहो पा । अथवा चक्षुरिन्द्रिय के विषय प्राप्त होने पर उनमें राग-द्वेष का निग्रह करना। ३. पाणिदियविसयम्पयारनिरोहोवा, घाणिदियविसय- (३) घ्राणेन्द्रिय के विषय में प्रवृत्त रहने का निरोध करना पत्तेसु अत्थेसु रागदोसनिग्गहो वा । अथवा घ्राणेन्द्रिय के विषय प्राप्त होने पर उनमें राग-द्वेष का निग्रह करना। ४, जिग्मिवियविसमप्पयारनिरोहो बा, जिग्मिविय- (४) जिव्हेन्द्रिय के विषय में प्रवृत्त रहने का निरोध करना पत्तेसु अस्पेतु रागवोसनिगहो या । अथवा जिन्हेन्द्रिय के विषय प्राप्त होने पर उनमें राग-द्वेष का निग्रह करना। ५. फासिदियविसयप्पयारनिरोहो या, फासिरिय- (५) स्पर्श न्द्रिय के विषय में प्रवृत्त रहने का निरोध करना विसयपत्तेसु अत्येसु रागदोसनिग्गहो वा। अथवा स्पर्श न्द्रिय के विषय प्राप्त होने पर उनमें राग-द्वेष का निग्रह करना । से तं इन्षियपडिसलीणया ।। यह इन्द्रिय प्रतिसलीनता तप है। -वि. स. २५, उ.७, सु. २१२ कसाय पडिसलीणयाए भैया कषाय प्रतिसंलीनता के भेद५७२ १०--से कितं कसायपदिसलीणया ? ५७२. प्र.-कषाय प्रतिसंलीनता क्या है वह कितने प्रकार उ०—कसायपरिसलीगया चाउरिवहा पणत्ता, तं जहा- उ-कवाय प्रतिसंलीनता चार प्रकार की है, यथा १. कोहम्मुश्यनिरोहो वा उदयपसस्स था कोहस्स (१) क्रोध के उदय का निरोध करना अथवा उदय प्राप्त विफलीकरणं। क्रोध को निष्फल करना । २. माणस्सुनिरोहो वा उदयपत्तस्स या माणस्स (२) मान के उदय का निरोध करना अथवा उदय प्राप्त विफलीकरणं। मान को निष्फल करना। ३. मायाउदयणिरोहो या, उदयपत्तस्स वा मायाए (३) माया के उदय का निरोध करना अथवा उदय प्राप्त विफलीकरण । माया को निष्फल करना । १ (क) पंच पडिसलीणा पश्नत्ता, तं जहा - (१) सोतिदयपदिसलीणे, (२) पक्वि दियपरिसलीणे, (३) पाणिदियपरिसलीणे, (४) जिभिदियपहिसलीणे, (५: फासिदियपडिलीणे । --ठाणं. अ. ५, उ. २, सु. ४२७ (ख) उव. सु. ३० Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ५७२-५७३ योग प्रतिसलीनता के भेद सपाचार [२७७ (४) लोभ के उदय का निरोध करना अथवा उदय प्राप्त लोभ को निष्फल करना। यह कषायप्रतिसंलीनता तप है। ४. लोहस्सुवणिरोहो वा, उवयपतस्स मा लोहस्स विफलीकरगं । से तं कसायपरिसलीगया।' –वि. स. २५, उ. ७, सु. २१३ जोगपडिसंलोणयाए भेया-- ५७३. प०से कि जोगपडिसलीगया? योग प्रतिसलीनता के भेद५७३. प्र०--योग-प्रतिसलीनता क्या है-वह कितने प्रकार उ-जोगपडिसलीणया तिविहा पण्णता, लं जहा--- उ.-योग-प्रतिसंलीनता तीन प्रकार की बतलाई गई है, यथा१. मणजोगपडिसंलोणया, (१) मनोयोग-प्रतिसंलीनता, २. वयजोगपजिस लीगया, (२) बचन योग-प्रतिसंलीनता । ३. कायजोगपडिसलीणया। (३) काययोग-प्रतिसंलीनता। प०-से कि तं मगजोगडिसंलोणया ? प्र.-मनोयोग-प्रतिसंलीनता क्या है—वह कितने प्रकार की है? उ०-मगजोगपडिसलीगया तिविहा पण्णता, तं जहा- 3०--मनोयोग प्रतिसलीनता तीन प्रकार की है, यथा१. अकुसलमणणिरोहो वा, (१) अशुभ मन का निरोध करना । २. कुसलमणउदीरणं बा, (२) शुभ मन का उदीरण करना। ३. मणम्स वा एगत्तीमाव करणं । (३) मन को एकान करना। से तं मणजोगपरिसंलोणया। यह मनोयोग प्रतिसलीनता है। प.-से कितं वयनोगपडिसलीण्या? प्र०-वचन योग-प्रतिसंलीनता क्या है-वह कितने प्रकार की है? ज०-वयनोगपडिसलीणया तिविहा पम्पत्ता, तं जहा- उ०-वचन योग-प्रतिसंलीनता तीन प्रकार की है, यथा१. अकुसलवणिरोहो वा, (१) अशुभ वचन का निरोध अर्थात् दुर्वचन नहीं बोलना । २.कुसलवण्उदोरणं वा, (२) सदवचन बोलने का अभ्यास करना। ३. वाए वा एगती भाषकरणं । (३) मौन रहना। सेत बयबोगपरिसंलोणया। यह वचनयोग प्रतिसलीनता है। प०-से किसं कायशोगपडिससीणया ? प्रा-काययोद-प्रतिसंलीनता क्या है ? उ.-कायजोगपरिसंलीणया गं सुसमाहिय पसंत साह- उ० -हाथ, पैर आदि सुसमाहित शांत और संकुचित कर, रिय माणियाए कुम्मो इव गुसिदिए मल्लीणे पल्लोणे कछुए के सदृश अपनी इन्द्रियों को गुप्त कर, सारे शरीर को संवृत कर सुस्थिर होना काययोग प्रतिसलीनता है। सेतं कायजोगपदिसंलोणया। य' काययोग प्रतिसलीनता है। से तं जोग पडिसलीणया । यह योग-प्रतिसलीनता है । –वि. स. २५. ३. ७, सु. २१४.२१५ १ (क) उव. सु. ३० (ख) चत्तारि पडिसलीणा पन्नत्ता, तं जहा(१) कोहपडिसलीणे, (२) माणपहिसलीणे, (३) मायापरिसलीगे, (४) लोहपडिसंलोणे। -ठाणं. म. ४, उ. २, मु. २७८ २ चत्तारि पडिसलीणा पण्णता, तं जहा(१) मणपडिसंतीणे, (२) वइपडिसलीणे, ३) कायपडिसलीणे, (४) इंदियपडिसंजीणे । -ठा. अ. ४ उ.२, सु. २७५ Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७] चरणानुयोग-२ एकान्त शयनासन के सेवन का स्वरूप सूत्र ५७४-५७६ विवित्त-सयणासण-सेवणया सहवं... एकान्त शयनासन के सेवन का स्वरूप५७४. एगन्तमणापाए, इत्थी-पसुविधज्जिए। ५७४. जहाँ कोई आता-जाता न हो ऐसे एकान्त स्थान का तथा सयणासणसेवणया, विवित्तसयणासणं ॥ स्त्री पशु आदि से रहित शयन और आसन का सेवन करना -उत्त. अ. ३०, गा. २८ विविक्त शयनासन तप है। प.-से कि तं बिवित्तस्यणासण सेषणया? प्र-विविक्त शयनासन सेवनता क्या है ? उ.-विविस-सयणासण-सेवषया जंगं आरामेमु वा, उज्जा- 3-आराम-पुष्पप्रधान बगीचा, उद्यान, पुष्प फल युक्त सुवा, देवकुलेसु वा, सहासु वा, पचासुवा, पणिय- बगीचा, देवकुल, सभा स्थान, प्याऊ, क्रय विक्रयोचित वस्तुएँ गिहेसु बा, पणियसालासु वा, इत्थी-पम-पंगसंसप्त- रखने के घर, कय-विक्रय योग्य वस्तुएँ रखने की शालाएं। इन विरहियासु बसहरसु फासुएसगिज्ज पोह-फलग-सेग्जा- स्थानों में जो स्त्री पशु तथा नपुंसक से रहित हो, प्रामुक एषणीय संथारगं उपसंपज्जितागं विहरई। पौठ, फलक, शम्या संस्तारक प्राप्त कर विचरण करना विविक्त शय्यासन सेवनता है। से तं पडिसंलोणया । यह प्रतिसलीनता है। से तं बाहिरए तवे । -वि. रा. २५ ८.७, सु. २१६ यह बाथतप का वर्णन सम्पन्न हुआ। विवित्तसयणासण सेवणया फलं विविक्त शयनासन के सेवन का फल५७५. प.-विवित्त सयणासणयाए शंभते ! जीवे कि जणयह? ५७५. प्र.-भन्ते ! विविक्त शयनासन के सेवन से जीथ क्या प्राप्त करता है? उ०-विवित्त सयणासणयाए णं चरित्तस्ति जणयइ, चरित्त द.--विविक्त शयनासन के सेवन से वह चारित्र की रक्षा गुत्ते प णं जीवे विविसाहारे, बद्धचरित एगंतरए को प्राप्त होता है, चारित्र की सुरक्षा करने वाला जीव पौष्टिक मोक्खमाव पलिवन्ने भट्टविह कम्मगलिं निज्जरोह। आहार का वर्जन करने वाला, सुन चारित्र बाला, एकान्त में रत, -उत्त. अ. २६, सु.३३ अन्तःकरण से मोक्ष साधना में लगा हुआ आठ प्रकार के कर्मों की गांठ को तोड़ देता है। अणेगविहा अपडिसंलोणा अनेक प्रकार के अप्रतिसलीन-- ५७६. पसारि अपडिसंसोणा एणसा, सं जहा ५७६, अप्रतिमलीन चार प्रकार के कहे गये हैं, यथा१. कोहलपडिसंलोणे, २. माणअपहिसंलोणे, (१) क्रोध अप्रतिसलीन, (२) मान अप्रतिसलीन, ३. मायामपडिसलीणे, ४. लोभअडिसप्लीणे। (३) माया-अप्रतिसंलीन, (४) लोभ-अप्रतिसलीन । पसारि अपरिसलीणा पण्णता, त जहा अप्रतिसलीन चार प्रकार के कहे गये हैं, जैसे१. मणअडिसंतीणे, २. बसपडिसंलोणे, (१) मन-अप्रतिसंलीन, (२) बचन-अप्रतिसंलीन, ३. कम्य अपडिसलाणे, ४. इन्दियसपउिसलीण। (३) काय-अप्रतिमलीन, (४) इन्द्रिय-अप्रतिसलीन । -ठाणं. अ. ४, उ, २, गु. २७८ पंच अपडिसलीणा पण्णसा, तं जहा--- अप्रतिसलीन पाँच प्रकार का कहा गया है१. सोतिदिय अपदिसली, (१) श्रोत्रन्द्रिय-अप्रतिसलीन–शुभ-अणुभ शब्दों में राग तुष करने वाला। २ चपिदिय अपडिसलीणे, (२) चक्षुरिन्द्रिय-अप्रतिसलीन -भ-अशुभ रूपों में राग-द्वेष करने वाला। ३. घाणिदिय अपउिसलीणे. (३) ब्राणन्द्रिय अप्रतिसलोन- शुभ-अशुभ गन्ध में राग-द्रंप 'करने वाला। १ उन. रा. ३० Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 सूत्र ५७६-५७८ ४. जिम्मिदिय अप ५. फासिदिय अपडिली । अपिहिमाओ ५७७ पंच परमाओ पन्नताओ, तं जहा १. मद्दा, २. सुमा ४. ३. महामद्दा, ५. मदुत्तरपशिमा । चारि पडिमाओ पण्णत्ताओ, तं जहा काल (४) जिन्हेन्द्रिय प्रतिसंलीन— शुभ-अशुभ रसों में राग-द्वेष करने वाला । (५) स्पर्श -ठाणं. अ. ५, उ. २, सु. ४२७ करने वाला। तोभद्दा " - ठा. म. ५, उ. १, सु. ३६२ २. विमा सारि पडिमाओ पण्णत्ताओ, तं १. मोडमा अनेक प्रकार की प्रतिमा २. ४. विउस पडिमा | जहा २. महलिया मोडमा, ४. - ठाणं. अ. ४, उ. १, सु. २५१ भिक्खू पतिमाओ ५७. बारस १. माया २. वो मासिया भिक्खु-पशिमा, ३. ४. प्रतिभायें --- ६ - (१) माया मन-पडिया मला भित्र-पडिमा ५. पंख मासिया भिक्लु पडिभर ६. मासिया - पशिमा, पडिमा पत्ता जहाविमा, भिक्षु स्पर्शेन्द्रिय प्रतिसंलीन प्रतिमाएँ - ८ ( २ ) अनेक प्रकार की प्रतिमायें ५७७ प्रतिमाएँ पाँच प्रकार कही गई है, जैसे- (१) भद्रा विमा, (३) महाभा प्रतिया, (५) भद्रोत्तर प्रतिमा । तपाचार तिलीन शुभ-अशुभ स्थनों में रा - १ (क) म. ४.१.२५१ २ ठाणं. अ. २, उ. ३, सु. ७७ ૪ उपासक परिमाओं के वर्णन के लिये चारित्राचार गृहस्थ धर्म प्रकरण देखें । प्रतिमा चार प्रकार की कही गई हैं, जैसे (१) समाधि प्रतिमा, (३) विवेक प्रतिमा, पुनः प्रतिमा चार प्रकार की कही गई है, यथा(१) छोटी मोरूप्रतिमा, (२) बढ़ी बोतिमा। (४) वज्र मध्या । (३) यवमध्या, (३) भातिको मितिमा (४) चातुर्मासिकी भिक्षु-प्रतिमा । (५) पंचमासिको भिक्षु प्रतिमा । (६) बण्मासिकी भिक्षु प्रतिमा । (ख) ठाणं. अ. २. उ. ३, सु. ७७ (३) ठाणं. अ. २, ३, सु. ७७ [२७६ wwwww.. (२) विवा (४) सर्वतोभद्रा प्रतिमा, भिक्षु प्रतिमायें - २७. भार भिक्षु-प्रतिमाएँ कही गई है, यथा (१) माती प्रतिमा (२) द्विमासिको भिक्षु सतिभा । (२) उपधान प्रतिमा (४) व्यस्त प्रतिमा | - Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० ] चरणानुयोग – २ ७. सस मासिया भिक्यु-एडिमा, ५. पत्रमा माया दिया २. दया परिमा १०. सादिया ११. हराया-पडिमा १२. एम-राइया मिक्लु-पडिमा सम सम. १२, सु. १ पडिमा आरहणकाले बसणा१७१. मासि णं भिक्खु-पडि बोकाए चित्त देने से केला १ (क) दसा. द. ७, सु. १-२ (दी प्रतिमा आराधन काल में उपसर्ग पडिवप्रस्स अणगारस्स निश्वं जा · (०) मा (८) प्रथम सप्त (१) द्वितीया (१०) तृतीया सूत्र ५७८-५७६ प्रतिमा रात्रिदिवा भिक्षु प्रतिमा । राशिविया प्रतिमा। -रात्रिदिया भिक्षु प्रतिमा। २ दिया. स. १०, उ. २, सु. ६ (११) अहोरात्रकी भिक्ष, प्रतिमा । (१२) एक प्रतिमा प्रतिमा आराधन काल में उपसर्ग - ५७६. नित्य शरीर को परिचर्या एवं ममत्व भांव से रहित एक मासिक-धरीना को जो कोई उपसई यावे, जैसे कि - है, इनमें पहली दूसरी तीसरी और में प्रतिमाओं का चौथी प्रतिमा के आराधना काल का स्पष्ट कथन नहीं है, किन्तु पांचवीं प्रतिमा से इम्यारहवीं प्रतिमा तक का जघन्य और उत्कृष्ट आराधना काल स्पष्ट कहा है । वह उत्कृष्ट काल इस प्रकार हैपाँचवी प्रतिमा का उत्कृष्ट आराधना काल पाँच मास और छठी प्रतिमा से इम्यारहवीं प्रतिमा तक एक-एक मास क्रमशः बढ़ाने पर इग्यारहवीं प्रतिमा का उत्कृष्ट आराधना काल इग्यारह मास होता है । उपासक दशा के टीकाकार ने आनन्द श्रमणोपासक का संपूर्ण पहली प्रतिमा का आराधना काल एक मास और इसी क्रम से कहा है। प्रतिमा आराधना काल साड़े पाँच वर्ष का कहा है, वहाँ इग्यारहवीं प्रतिमा का आराधना काल इग्यारह मास तस्कन्ध की सातवीं दशा में भिक्षु की बारह प्रतिमाओं का वर्णन है, वहीं उनका जघन्य उत्कृष्ट आराधना काल स्पष्ट नहीं कहा है । किन्तु पहली भिक्षु प्रतिमा का नाम मासिक भिक्षु प्रतिमा, दूसरी का दो मासिक भिक्षु प्रतिमा और क्रमशः सातवीं भिक्षु प्रतिमा का नाम सप्तमासिको भिक्षु प्रतिमा कहा गया है। तथा आठवी-नीयों और दसवीं का नाम प्रथम सप्तअहोरात्रकी, द्वितीय सप्तमहोरावि दीयत महोरागिनी प्रतिमा, इग्यारहवीं का एक अहोरात्र की और बारहवीं का एक रात्रि की भिक्षु प्रतिया कहा है। किन्तु पहली प्रतिमा की भाराधना के विधानों में प्रतिमा आराधक को परिचित क्षेत्र में एक रात से अधिक और अपरिचित क्षेत्र में एक या दो रात से अधिक रहने पर दीक्षा भेद का या परिहार उप का प्रायश्चित विधान है। तुम में इन प्रतिभा का माराधन नहीं किया जा सकता है। टीकाकार आदि ने इन प्रतिमाओं का सम्पूर्ण आराधन काल नहीं बताया है अतः उसका तीन प्रकार से अनुमान किया जा सकता है। १. पहली प्रतिमा से सातवीं प्रतिमा तक प्रत्येक प्रतिमा का नाम प्रथम मासिकी भिक्षु प्रतिमा यावत्-सप्तम मासिकी भिक्षु प्रतिमा मान कर उनका एक-एक मास आराधन काल मानें तो आठ महिने में ही बारह प्रतिमाओं का आराधन हो सकता है । २. उपलब्ध नाम के अनुसार काल मानकर तथा चातुर्मास में प्रतिमा आराधन न करने पर सम्पूर्ण आराधन काल ५ म होता है। ३. चातुर्मास में भी प्रतिमाराधन करना माना जाये तो सम्पूर्ण आराधन काल २ वर्ष ५ मास होता है । इनमें प्रथम अनुमान-सूच विधान से निर्विरोध है। दूसरा अनुमान कम दीक्षा वालों के आराधन वर्णन से विरोध प्राप्त है। तीसरा अनुमान भी चातुर्मास में बिहार करने रूप होने से निर्विरोध नहीं रहता है। Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ R DA .. - सूत्र ५७६-५८२ मासिको भिक्ष प्रतिमा तपाचार [२८१ - - विन्या या, माणसा वा, तिरिक्खजोणिया वा. ते उप्पणे देव सम्बन्धी, मनुष्य सम्बन्धी या तिथंच सम्बन्धी उन्हें वह सम्म सहेज्जा, खमेम्जा, तितिक्खेज्जा, अहियासेज्जा। सम्यक् प्रकार से सहन करे, झा करे, दैन्य भाव नहीं रखे, -दसा. द. ७, मु. ३ वीरता पूर्वक सहन करे। मासिया भिक्खु पहिमा-. मासिको भिक्षु प्रतिमा५८०. मासिय पं भिक्षु-पडिम पडिवनस्स अणगारस्स कापति ५८०. मासिकी भिक्षु-प्रतिमा धारी अनगार को एक दत्ति भोजन एगा दत्तो भोयणस्स पबिगाहित्तए, एगा पाणमस्स । की और एक दति पानी की लेना कल्पता हैअण्णाय उकळ, सुखोवहां वह भी अज्ञात स्थान से, अल्पमात्रा में और दूसरों के लिए बना हुआ हो तथा-- निजहिता बहवे दुप्पय-घउप्पय-समण-माहण-अतिहि- अनेक द्विपद, चतुष्पद, श्रमण, ब्राह्मण, अतिथि, कृपण किविण-वणीमगे, और भिखारी आदि भोजन लेकर चले गये हों उसके बाद ग्रहण करना कल्पता है। कप्पड़ से एगस्स मुंजमाणस्स पडिगाहित्तए । ___ जहाँ एक व्यक्ति भोजन कर रहा हो वहाँ से आहार पानी की दत्ति लेना कल्पता है। णो दुण्हं, णो तिह, णो चउहं, जो पंचव्ह. जो गुन्विणोए, किन्तु दो, तीन, चार या पांच एक साथ बैठकर भोजन गो बालवश्छाए, जो दारम पेज्जमाणीए । करते हों वहाँ से लेना नहीं बाल्पता है। गर्भिणी, बालवत्सा और बच्चे को दूध पिलाती हुई स्त्री से लेना नहीं कल्पता है। णो से कपई अंतो एलुयस्स दो वि पाए साहटु दलमाणीए जिसके दोनों पैर देहली के अन्दर या दोनों पर देहली के पो बाहिं एलुयाम दो यि पाए साहट्ट दलमाणाए। बाहर हों ऐसी स्त्री से लेना नहीं कल्पना है। अह पुण एवं जाणेज्जा एग पाय तो किच्चा, एगं पायं किन्तु यह ज्ञात हो जाये कि एक पर देहली के अन्दर है बाहि किच्चा, एलुय विक्खंभइत्ता, एवं से दलयति, कप्पति और एक पैर बाहर है इस प्रकार देहली को पराधों के मध्य में से पढिगाहित्सए, किये हुए हो और वह देना चाहे तो उससे लेना कल्पता है। एवं से नो दलयति. नो से कप्पति पडिगाहित्सए। इस प्रकार न दे तो लेना नहीं कल्पता है। --दसा .द. सू.४ पडिमापडिवण्णस्स गोयरकाला . प्रति माधारी के भिक्षा काल५८१. मासियं गं भिक्खु-पडिम पडियनस्स अणगारस्स तमो गोयर- ५८१. एक मास की भिक्ष-प्रतिमाघारी अनगार के भिक्षाचर्या काला पणत्ता, तं जहा करने के तीन बाल कहे गये हैं, यथा -- १. आइमे, २. मज्झे. (१) दिन का प्रथम भाग, (२) दिन का मध्य भाग, ३. चारमे। (३) दिन का अन्तिम भाग । १. आइमे चरेज्जा, नो मज्ने चरेज्जा, जो चरिमे चरेग्जा। (१) यदि दिन के प्रथम भाग में भिक्षाचर्या के लिए नवे तो मध्य और अन्तिम भाग में न जावे । २. मज्झे चरिज्जा, नो आइमे चरिज्जा, नो चरिमे च रेज्जा। (२) यदि दिन के मध्य भाग में भिक्षाचर्या के लिए जावे तो प्रथम और अन्तिम भाग में न जावे । ३. चरिमे च रेज्जा, नो आइमे चरेज्जा, नो मजिसमे (३) यदि दिन के अन्तिम भाग में भिक्षाचर्या के लिए जावे घरेज्जा । '- दमा. द. ७, सु. ५ तो प्रथम और मध्य भाग में न जावे । पडिमापष्टिवण्णस्स गोयर चरिया प्रतिमाधारी की गोचर चर्या५८२. मासियं गं भिक्षु-पडिम पडिवनस्म अणयारस्त छब्विहा ५८२. एव. मास की भिक्षु प्रतिमाधारी अनगार के छ: प्रकार गोयरचरिया पण्णसा, तं जहा की गोचरी कही गई है। पथा१. पेडा, (१) चोकोर पेटी के आकार से भिक्षाचर्या करना। २. अद्धपेडा, (२) अर्ध पेटी के आकार से भिक्षावर्या करना। Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 चरणानुयोग - २ २. गोलिया ४. पतंगवोहिया, ५. संयुक् ६. पडिमा विष्णस्स बसइ वसण कालो ८६. मासियं णं मिक्-पडिमं पडिवग्रस्त अणगारस्स जत्थ णं केद्र ५८३. एक मास की भिक्षु प्रतिमाघारी अनगार को जहाँ कोई जानता हो तो वहाँ उसे एक रात रहना कल्पता है। जहाँ कोई नहीं जानता हो तो वहाँ उसे एक या दो रात रहना कल्पता है । किन्तु एक या दो रात से अधिक रहना नहीं कल्पता है । यदि एक या दो रात से अधिक रहता है तो वह इस कारण से दीक्षा छेद वा परिहार तप का पात्र होता है। प्रतिमाधारी की कल्पनीय भाषायें जाणइ कम्पड़ से तत्थ एगराइयं वसिसए । जत्य केड न जाणव, कम्पइ से तत्थ एग-रायं वा, बुरायं १. जायणी, २. पुच्छी, २. नो सेवाओ वा दुरावा वा परं । जे तत्थ एग रायाओ वा दु-रायाओ वा परं वसति से संतरा ए वा परिहारे वा । - दसा. द. ७, सु. ७ पडिमा पडिवण्णस्स कप्पणिज्जाओ भासाओ - ५८४. मासि णं भिक्खु-पडिमं परिवन्नस्स अणगारस्स कप्पति चार भागाओ मासिए तं जहा " प्रतिमाधारी का वसतिवास काल ४. पुसा वागरणी पुट्ठस्स । पडिमा विरणस्स कप्पणीया उवरसवा १. २. अविवा - दसा. द. ७, सु. ६ - १ ठाणं. अ. ६, सु. ५१४ ३ -दसा. द. ७, सु. ८ . अ. ३, उ. ४ सु. १६६ ५८५ मामियं णं भिक्खू पष्टिमं पडियशस्स अणगारस्त कप्पड़ तओ ५८५. एक मास की भिक्षु प्रतिमाधारी अनगार को तीन प्रकार के उपायों का प्रतिलेखन करना कल्पता है, यथा उस्सया पडिलेहितए तं जहा आराम-सिया (३) बल के मूत्रोत्सर्ग के आकार से भिक्षाचर्या करना । (४) पतंगिये के गमन के आकार से भिक्षाचर्या करता । (५) शंखावर्त के आकार से भिक्षाचर्या करना । (९) जाते या पुनः आते भिक्षाचर्या करना । प्रतिमांधारी का वसतिवास काल- १०२-२०१ ५०४. एक मास की भिक्षु प्रतिमाधारी अनगार को चार भाषाएँ बोलना कल्पता है । यथा (१) याचती - आहारादि की याचना करने के लिए । (२) पृच्छती - भार्ग आदि पूछने के लिए । (२) अनुमान आशा लेने के लिए। (४) पृष्ठ व्याकरणी – प्रश्न का उत्तर देने के लिए । प्रतिमाधारी के कल्पनीय उपाश्रय ३. अहे रुक्खमूल - गिर्हसि वा, एवं तमो उपस्या वयवेत्त, उमाणि - दसा. द. ७, सु. ९-११ परिमापणस कप्पणीया संधारणा प्रतिमाधारी के कल्पनीय संस्तारक ५६६. भासयं णं भिक्खु-पडिमं पडिवलस्स अणगाररस कप्पति तओ ५८६. एक मास की भिक्षु प्रतिमाधारी बनगार को तीन प्रकार के संस्तारकों का प्रतिलेखन करना करता है, यथा संचारमा पहिलए तं जहा१. लिंबा २. कटु सिलवा २. असं वा संधार एवं तब संथारा देत (१) उद्यान में बने हुए गृह में, (२) चारों ओर से चुने हुए गृह में, (३) वृक्ष के नीचे या नहीं बने हुए गृह में, इसी प्रकार तीन उपाश्रय की आज्ञा लेना और ठहरना कल्पता है । वामित्र प - दसा. द. ७ सु. १२-१४ करना कल्पता है । २ ४ (१) पत्थर की शिला, (२) लकड़ी का पाठ, (३) पहले से बिछा हुआ संस्तारक इसी प्रकार तीन संस्तारक की आज्ञा लेना और ग्रहण ठाणं. अ. ४, उ. १, सु. २३७ . अ. ३, उ, ४, सु. १९६ Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ५८७-२६२ प्रतिभावारीको स्त्री-पुरुष का उपसर्ग तपाचार [२८३ पउिमा परिवण्णस्म इत्थी पुरिस उबसग्गो- प्रतिमाधारी को स्त्री-पुरुष का उपसर्ग५८७. मासियं णं मिक्युपडिम परिवनस्स अणगारस्स इत्थी वा, ५७. एक मास की भिक्षु प्रतिमाधारी अनगार के उपाथय में पुरिसे वा उयस्सर्थ उवागन्छेज्जा, णो से कप्पति तं पडुच्च यदि कोई स्त्री या पुरुष आ जावे तो उन्हें देखकर उपाश्रय से निक्खमित्तए चा, पविसित्तए वा । – दसा. द. ७, सु. १५ बाहर जाना या बाहर हो तो अन्दर आना नहीं कल्पता है। पडिमा पडिवण्णस्स अगणी उबसग्गो प्रतिमाधारी को अग्नि का उपसर्ग५८८. मासिय पं भिक्खु-पडिम पडियनस्म अणगारस्स केइ उव- ५८८. एक मास की भिक्षु-प्रतिमाधारी अनगार के उपाश्रय में स्सयं अगणिकाएणं सामेजा, णो से कम्पति तं पडच निक्स- कोई अग्नि लगा दे तो उसे उपास्थय से बाहर जाना या बाहर मिसए वा, पविसित्तए वा। हो तो अन्दर आना नहीं कल्पता है। तस्य के बाहाए गहाय आगसेज्जा, नो से कापतितं यदि कोई उसे भुजा पकड़कर बलपूर्वक बाहर निकालना अवलंबित्तए वा पतं वित्तए वा, कास्पति महारियं रिइसए। चाहे तो उसका अवलम्बन प्रलम्बन करना नहीं कल्पता है किन्तु - दसा. द. ७, सु. १६ ईर्या समिति पूर्वक बाहर निकलना कल्पता है । पडिमा पडिवण्णास खाणूआइ-णिहरण-णिसेहो -- प्रतिमाधारी को ढूंठा आदि निकालने का निषेध५.८९. मासियं में भिक्ल-पडिम पडिषमस्स अपमारस्स पायसि ५६. एक मास की भिक्षु-प्रतिमाधारी अनगार के पैर में यदि लागू वा कंटए वा, होरए बा, सक्करए वा अणुपवेसेज्जा, तीक्ष्ण ढूंठ लकड़ी तिनका आदि काटा, कान, फंकर लग जावे तो नो से कप्पड़ नीहरित्तए वा, विसोहितए वा, कप्पति से उसे निकालना या उसकी विशुद्धि करना नहीं कल्पता है, किन्तु अहारियं रियलए। -दसा. द.७, सु. १७ उसे सावधानी से ईर्यासमिति पूर्वक चलते रहना कल्पता है। पडिमापडिवण्णस्स पाणीआइ-णिहरण णिसेहो- प्रतिमाधारी को प्राणी आदि निकालने का निषेध५६०. मासियं गं भिक्खु-पडिम पडियनस्स अणयारस्स अच्छिसि ५६०. एक मास की भिक्षु-प्रतिमाधारी अनगार के आँख में पाणाणि वा, बोयाणि वा, रए वा परियावम्जेज्जा, नो से सूक्ष्म प्राणी, वीज, रज आदि गिर जावे तो उसे निकालना या कप्पति नीहरित्तए वा विसोहित्तए वा कप्पति से अहारियं विशुद्ध करना नहीं कल्पता है, किन्तु उसे सावधानी से ईर्यारियत्तए । -दसा. द. ७, सु. १८ समिति पूर्वक चलते रहना करूपता है। सूरिए अत्यमिए विहार णिसेहो सूर्यास्त होने पर विहार का निषेध - ५६१. मासियं णं भिक्खु-परिवारस अणगारस्स जत्थेव सरिए ५६१. एक मास की भिक्षु-प्रतिमावारी बनगार को बिहार करते अस्यमेज्जा, हुए जहाँ सूर्यास्त हो जायेजलसि वा, थलसि बा, वहाँ चाहे जल हो या स्थल हो, दुग्गंसि वा, निष्ण सिवा, दुर्गम स्थान हो या निम्नस्यान हो, परवयंसि वा, विसमंसि वा, पर्वत हो या विषम स्थान हो, गडाए वा, वरिए वा, गर्त हो या गुफा हो, कम्पति से तं रयणी तस्येव उवाइणाविसए नो से कप्पति ती भी उसे पूरी रात वहीं रहना कल्पता है किन्तु एक पयमवि गमिसए। कदम भी आगे बढ़ना नहीं कल्पता है। कप्पति से कल्लं पाउप्पभाए रपणीए जाव-जलते पाहणाभि- रात्रि समाप्त होने पर प्रातःकाल में -यावत-जाज्वल्पमुहस्स वा, वाहिणाभिमुहल्स वा, पडोणाभिमुहरूस वा, मान सूर्योदय होने पर पूर्व, दक्षिण, पश्चिम या उत्तर दिशा की उत्तरामिमुहस्स वा महारियं रिवत्तए। और अभिमुख होकर उसे ईर्यासमिति पूर्वक गमन करना -दसा. द. ७, मु. १६ कल्पता है। सचित्त पुढवी समीधे णिद्दाइ णिसेहो सचित्त पृथ्वी के निकट निद्रा लेने का निषेध५९२. मासिब णं विवस्तु-पडिमं पश्विनम्स अणमारस्स णो से कप्पा ५९२. एक म्पस की भिक्षु-प्रतिमाघारी अनगार सूर्यास्त हो जाने अर्णतरहियाए पुढवीए निहादसए वा पयलाइसए वा। के कारण यदि सचित्त पृथ्वी के निकट ठहरा हो तो उसे वहाँ निद्रा लेना या ऊँघना नहीं कल्पता है । Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४] चरणानुयोग -२ मलावरोध का निषेध सूत्र ५६२-५६६ केवली बूपा--''आयाणमेयं ।" केवली भगवान ने कहा है-'गह कर्मबन्ध का कारण है।' से सत्य निदायमाणे वा, पयलायमाणे वा हत्येहि भूमि क्योंकि वहाँ पर नींद लेता हुआ या ऊँचता हुआ वह अपने परामुसेजा। हाथ आदि से सचित्त पृथ्वी का स्पर्श करेगा, जिससे पृथ्वीकाय के जीवों की हिंसा होगी। अहाविहिमेव ठाणं ठाइत्तए । ___ अतः उसे सावधानी पूर्वक वहाँ स्थिर रहना या कायोत्सर्ग -दसा. द. ७, सु. २० करना कल्पता है।। मलावरोहण णिसेहो मलावरोध का निषेध५६३, उच्चार पासवणेणं उबाहिज्जा, मो से कप्पति उगिहित्तए ५६३. मदि बहाँ उसे मल-मूत्र की बाधा हो जाए तो धारण वा णिगिण्हित्तए वा। करना या रोकना नहीं कल्पता है। किन्तु पूर्व प्रतिलेखित भूमि कम्पत्ति से पुरुषपरिलहिए थडिले उकनार पासवणं बरिट्ठा- पर मल-मूत्र का त्याग करना कल्पता है और पुन: उसी स्थान वित्तए तमेव उषस्सयं आगम्म अहाविमेव ठाणे ठवित्तए। पर आकर सावधानी पूर्वक स्थिर रहना या कायोत्सर्ग करना -दसा. द ७, सु. २० कल्पता है । ससरक्खेण कायेण भिक्खायरियागमण णिसेहो- सचित्त रजयुक्त शरीर से गोचरी जाने का निषेध-- ५६४. मासियं णं भिक्खपडिम पडिवनस्स अणगारस्स नो ५६४. एव मास की भिक्ष-प्रतिमाधारी अनगार वो सचित्त रज कप्पति सस रक्खेणं काएणं गाहावइ-कुलं प्रसाए वा पाणाए युक्त वाया से गृहस्थों के घरों में आहार पानी के लिए जाना या निक्लमित्तए वा पविसित्तए वा। और आना नहीं कल्पता है। अह पुग एवं जाणेज्जा-ससरक्खे सेयत्ताए वा, जल्लत्ताए यदि यह ज्ञात हो जाये कि शरीर पर लगा हुआ सचित्त वा, भल्लताए वा, पंफतार का बरगले, प्यं राक-पति रज--पसीना, सूजा पसीना, मल या पंक के रूप में परिणत हो गाहावड-फुलं मत्ताए वा परणाए वा निक्वमित्तए वा पवि- गया हो तो उसे गृहस्थों के घरों में आहार पानी के लिए जानासित्तए वा। - दसा. द. ७, सु. २१ आना कल्पता है। हस्थाइ पधोवण णिसेहो हस्तादि धोने का निषेध५६५. मासियं ण मिक्खु-पउिमं यडिवनस्स अणगारस्स नो कप्पति ५६५. एक मास की भिक्षु-प्रतिमाधारी अनगार को अचित्त सोओरग-वियांण बा, उसिगोवग-वियडेण वा, हत्याणि या, गोतल या उष्ण जल से हाथ, पैर, दांत, नेत्र मा मुख एक बार पायाणि वा, वंताणि वा, अकछोणि पा, मुहं वा, उच्छो- धोना अथवा बार-बार धोना नहीं कल्पता है। लित्तए पा, पधोइत्तए वा। ननथ सेवालेवेण वा भत्तामासेण वा। किन्तु किसी प्रकार के लेप युक्त अवयव को और आहार से -दसा. द. ७, सू. २२ लिप्त हाय आदि को धोकर शुद्ध कर सकता है। खुद्र आसाइ ओवयमाणे भय णिसेहो दुष्ट अश्वादि का उपद्रव होने पर भयभीत होने का निषेध-- ५६६. मासिय पंभिक्षु-पडिम पडिवघ्नस्स अणमारस्स नो कम्पति ५६६. एक मास की निक्षु-प्रतिमाधारी अनगार के सामने अश्त्र, आसस्स वा, हत्यिस वा, गोणस्स वा, महिसस्स दा, हस्ती, वृषभ, महिष, सिंह, व्याध, भजिया, चीता, रीछ, तेंदुआ, सीहरूस बा, वग्धस्स वा, विगस्स वा, वीवियस बा, अच्छस्स अष्टापद, शृंगाल, बिल्ला, लोमड़ा, खरगोश, चिल्लड़क, श्वान, वा, तरच्छरस वा, परासरस्स बा, सीयालरूस वा, विरालस्स जंगली शूकर आदि दुष्ट प्राणी आ जाये तो उनसे भयभीत होकर वा, कोलियरस बा, ससगस्स बा, चित्ताचिल्लयस्स वा, एक पैर भी पीछे हटना नहीं वल्पता है । सुणमस्स या, कोलसुणगस्स या, बुट्ठस्स माययमाणस्स पयमवि पच्चीस कित्तए। अदुगुस्स आवयमाणस्स कप्पा जुगमित्तं पच्चीसकित्तए। यदि कोई दुष्टता रहित पशु स्वाभाविक ही मार्ग में सामने --दसा. द. ७, सु. २३ आ जाय तो उसे मार्ग देने के लिए युगमात्र अर्थात् कुछ अलग हटना कल्पता है। Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६७-६०३ सरदी और गरमी सहन करने का विधान तपाचार २८५ सीतातप सहण विहाणो-- सरदो और गरमी सहन करने का विधान५६७. मासिय पं भिक्खु-पडिम पडिवनस्स अणगारस्स कप्पति ५१७. एक माम की भिक्षु-प्रतिमाधारी अनगार को-"यहाँ छायाओ 'सीयं ति" नो उहं एसए, उपहाओ "उहं ति" शीत अधिक है" ऐसा सोचकर छाया से धूप में तथा "यहाँ गर्मी नो छायं एरए। अधिक है" ऐसा मांचकर धूप से छाया में जाना नहीं कल्पता है । जं सत्य जया सिया तं तत्थ अहियासए । किन्तु जव जहाँ जैसा हो वहाँ वैसे ही सहन करना चाहिए । ---दमा. द. ७, मु. २४ पडिमाणं सम्मआराहणं भिक्षु प्रतिमाओं का सम्यग् आराधन५६८. एवं खलु एसा मासिया भिषन-पडिमा अहासुत्तं, अहाकप्पं, ५६८. इस प्रकार यह एक मास की भिक्षु प्रतिमा-सूत्र कल्प अहामार्ग, महातच, सम्म कारण, फासिसा, पालित्ता, और मार्ग के अनुसार यथालथ्य सम्यक् प्रकार काया से स्पर्श सोहिता, तोरित्ता, किट्टरता, आरालित्ता, आणाए अणुपा- कर, पालन कर, शोधन कर. पूर्ण कर, कीर्तन कर और आराधन लिता भवद । -दमा. दे. ७. सु. २५ बर जिनाजा के अनुसार पालन बी जाती है। दो मासिया भिक्खुपडिमा - द्वि मासिकी भिक्षु प्रतिमा५६६. दो-मासिय मिक्स-पडिम पत्रिवनस्स अणगारस्रा-जाव-आणाए ५६६. दो गसिकी भिक्ष प्रतिमा प्रतिपन अणगार के-यावतअणुपालिसा भवई। यह प्रतिमा जिनाज्ञानुसार पालन की जाती है । नवरं दो वत्तियो भोयणस्स पडिगाहितए दो पाणगस । विशेष यह है कि उसे प्रतिदिन दो दत्तियो आहार की और -सा. द. ७, मु. २६ दो दत्तियाँ पानी की ग्रहण करना वल्पता है। तिमासिया भिक्खु पडिमा--- मासिकी भिक्ष-प्रतिमा६००.ति-मासिय मिक्खु-पडिम परिवनस्स अणमारस्स--जाव- ६००. तीन माम की भिक्षु प्रतिमा प्रतिपन्न अपनार के-यावतआगाए अणुपालिता भवद। वह प्रतिमा जिनाज्ञानुसार पालन की जाती है । नवरं तओ दत्तिओ भोयणस्स परिगाहेतए तओ पाणगस्स । विशेष वह है कि उसे प्रतिदिन तीन दत्तियाँ भोजन की और -दसा. द. ७, सु २७ तीन दनियाँ पानी की ग्रहण करना कल्पता है । चउमासिया भिक्खु पडिमा चातुर्मासिको भिक्षु-प्रतिमा६.१. चउ मासियं भिक्षुपडिम पडिबन्नस्स अणगारस्स-जाव- ६०१. चार मास की भिक्षु-अनिमा प्रतिपन्न अणगार के-पावतआणाए अशुपालित्ता मवह । वह प्रतिमा जिनाजानुसार पालन की जाती है। वरं चत्तारि बत्तिओ भोयणस्स पडियाहेत्तए चप्तारि विशेष यह है कि उरो प्रतिदिन चार दत्तियां आहार की पाणगस्स । -दसा. द. ७, सु. २६ और चार दत्तियां पानी की ग्रहण करमा कल्पता है। पंचमासिया भिक्खुपडिमा पंचमासिकी भिक्षु-प्रतिमा६०२. पंच मासिय मिक्खु-पडिम पडिवनरस अणगारस्स जाध- ६०२. पाँच मास की भिक्षु प्रतिमा प्रतिपन्न अणगार के-यावतआणाए अणपालिसा भवइ । वह प्रतिमा जिनाज्ञानुसार पालन की जाती है। णवरं पंच दत्तिओ भोयणस्स पडिगाहेत्तए पंच पाणगस्स। विशेष यह है कि उसे प्रतिदिन भोजन की पांच दत्तियां -दसा. ६. ७, सु. २६ और पानी को पांच दत्तियां ग्रहण करना कल्पता है। छः मासिया भिक्खुपडिमा षण्मासिकी भिक्षु प्रतिमा६०३, छ, मासिय भिक्खु-पडिम परिवनस्स अणगारस्स-जाव- ६०३. छ: मास की भिक्षु प्रतिमा प्रतिपन्न अणमार के--पावत्आणाए अणुपालिसा भवइ । वह प्रतिमा जिनाशानुसार पालन की जाती है। १ २ ठाण. अ. ३, उ. ३, सु. १८८ ठाणं. अ. ५, उ. २, सु. ४२४ Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६] परगानुयोग-२ सप्तमासिको भिक्षु प्रतिमा जबरं छ बत्तीओ भोयणस्स पडियाहेत्तए छ पाणगस्स । विशेष यह है कि उसे प्रतिदिन भोजन की छः दत्तियां और -दसा. द. ७, सु. ३. पानी की छः दत्तियां ग्रहण करना कल्पता है । सत्तमासिया भिक्खुपडिमा - सप्तमासिकी भिक्षु प्रतिमा .. ६०४. सत मासिर्य भिक्खु पडिम पडिवस अणगारस्स-जाव- ६०४. सात मास की भिक्षु प्रतिमा प्रतिपन्न अणगार के-यावत्आणाए अणुपालिप्ता भवइ । वह प्रतिमा जिनाजानुसार पालन की जाती है ।। णवरं सत्त वत्तीओ भोयणस्स पडिगाहेत्तए सत्त पाणगरस । विशेष यह है कि उसे प्रतिदिन भोजन की सात दत्तियां -दसा, द. ७. सु. ३१ और पानी की सात दप्तियां ग्रहण करना कल्पता है। पढमा सत्तराईदिया भिक्खु पडिमा प्रथम सप्त अहोरात्रिकी भिक्षु प्रतिमा-- ६.५. पडमं सत्त-राइंदियं भिक्ख परिमं पडिवालस्स अणमारस्त ६०५. प्रथम सात दिन रात की भिक्षु प्रतिमाधारी अनगार -जाव-अहियासेज्जा । -यावत् -शारीरिक सामथ्यं से गहन करे। कप्पड़ से चउस्मेणं भत्तणं अपाणएणं बहिया गामस्स व उसे निजल उपवास करके ग्राम-पावत--राजधानी के -जाब-रायहाणिए धा उत्ताणस्स या, पासिल्लगस्स वा, बाहर उत्तानासन, पासिन या निषद्यासन से कायोत्सर्ग करके नेसिज्जयस्स वा, ठाणे टाइलए। स्थित रहना चाहिए। तत्थ से दिव्य-माणुस्स-तिरिक्खजोणिया उबसग्या समुष्प- वहाँ यदि देव, मनुष्य या तिथंच सम्बन्धी उपसर्ग हों और ज्जेज्जा, ते गं सबसग्गा पयलेज्ज वा, पथडेज्ज वा, णो से दे उपसर्ग उस अनगार को ध्यान से विचलित करें या पतित कप्पा पालित्तए वा पडित्तए था। करें तो उसे विचलित होना या पतित होना नहीं कल्पता है। तस्थ णं उच्चार-पासवणेणं उत्पाहिज्जा, णो से कम्पन यदि मल-मूत्र की बाधा हो जाय तो उसे धारण करना या उच्चार-पासवर्ष उगिव्हित्तए या, णिगिणिहत्तए वा, कष्पह से रोकना नहीं कल्पता है, किन्तु पूर्व प्रतिलेखित भूमि पर मलपुष्व-पडिलेहियंसि अंडिलसि उच्चार-पासवणं परिझुवित्तए, मूत्र त्यागना कल्पता है । पुनः यथाविधि अपने स्थान पर आकर अहाविहिमेव ठाणं ठाइत्तए । उसे कायोत्सर्ग करना कल्पता है। एवं खलु एसा पठमा सत्त-राइंबिया भिषषु-पडिमा अहासुयं इस प्रकार यह प्रथम सात दिन-रात की भिक्ष-प्रतिमा या -जाव-अणुपालित्ता भवइ । -दसा. द. ७, सु. ३२ सूत्र-यावत् -जिनाज्ञा के अनुसार पालन की जाती है। वोच्चा सत्तराईदिया भिक्खुपडिमा द्वितीय सप्त अहोरात्रिकी भिक्ष प्रतिमा६०६, एवं दोच्चा सत्त-राईदिया वि। ६०६, इसी प्रकार दूसरी सात दिन-रात की भिक्षु प्रतिमा का भी वर्णन है। नवरं साइयस्स या, लगसाइरस वा, उपकुलपस्स वा, विशेष यह है कि इस प्रतिमा के आराधन-काल में दण्डाठाणं ठाइसए, सेसं तं चैव-जाव-अणुपालिता पवाद । सन, लकुटासन और उत्कुटुकासन से स्थित रहना चाहिए । -दसा. द. ७. सु. ३३ शेष वर्णन पूर्ववत्-यावत्-जिनाशा के अनुसार यह प्रतिमा की जाती है। तच्चा सत्तराइंदिया भिक्खुपलिमा तृतीय सप्त अहोराधिको भिक्षु प्रतिमा६०७. एवं तच्चा सत्त-राइंदिया नि । ६०७. इसी प्रकार तीसरी सात दिन-रात की मिन-प्रतिमा का भी वर्णन है। नवरं-गोदोहियाए वा, बीरासणीयस श, अंबखुज्जस्स वा, विशेष यह है कि इस प्रतिमा के आराधन-काल में गोदोहठाणं ठाइत्तए । सेसं सं चेव-जाच-अणुपालिता भवइ । निकासन, वीरासन और आम्रकुब्जासन से स्थित रहना चाहिए। -दसा. द. ७, मु. ३४ शेष पूर्ववत्-यावत्-यह प्रतिमा जिनाज्ञा के अनुसार पालन की जाती है। Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्र ६०८-६०१ अहोरात्रिको भिक्षु प्रतिमा तपाचार [२८७ अहोराइया भिवस्य पडिमा-- अहोरात्रिको भिक्षु प्रतिमा६०८. एवं आहेराइयावि । ६०८. इसी प्रकार अहोरात्रिको प्रतिमा का भी वर्णन है। नवर-छ?णंभत्तेणं अपाणएणं बहिया गामस्म वा-जाव-राय- विशेष यह है कि निर्जल षष्ठ भक्त करके ग्राम---यावत्हाणिस्स या ईसि पम्भार गएणं काएणं दो वि पाए साहट्ट राजधानी के बाहर शरीर को थोड़ा सा झुकाकर दोनों पैरों को बग्घारिय-पाणिस्स ठाणं ठाइसए। सेसं सं चेय-जाव-अणु- संकुचित कर और दोनों भुजाओं को जानु पर्यन्त लम्बी करके पालित्ता भवद। -दसा. द. ७, सु. ३५ कायोत्सर्ग करना चाहिए। शेष पूर्ववत् यावत्-यह प्रतिमा जिनाज्ञा के अनुसार पालन की जाती है। एगराइया भिक्खु पडिमा - एक रात्रिको भिक्षु प्रतिमा६०६. एप-राइयं भिक्स्बु-पतिम परिबलाल अणगारमा जान-अहि- १०६ एर रात्रिकी भिक्षु प्रतिमाघारी अनगार-यावत्यासेज्जा। ___ शारीरिक क्षमता से उन्हें सहन करे । करपद से अट्टमेणं भत्तणं अपाणएणंबहिया गामस्स वा-जाब- उसे निर्जल अष्टम भक्त करके ग्राम यावत्-राजधानी रायहाणिस वा ईसि पामारगएणं काएणं एग पोग्गलट्टिप्ताए के वाहर शरीर को थोड़ा सा आगे की बोर झुकाकर, एक विटाए अणिमिसनयहिं महापणिहि तेहिं गुहि सविविएहि पदार्थ पर दृष्टि स्थिर रखते हुए अनिमेष नेत्रों से और निश्चल गुत्तेहि दो बि पाए साह वाघारियपाणिस्स ठाणं ठाइसए। अंगों से सर्व इन्द्रियों को गुप्त रखते हुए दोनों पैरों को संकुचित कर एवं दोनों भुजाओं को जानुपर्यन्त लम्बी करके कायोत्सर्ग से स्थित रहना चाहिये। तस्थ से विश्व-माण रस-तिरिक्खजोणिया उपसम्मा समुप्प- वहाँ यदि देव, मनुष्प या तिथंच गम्बन्धी उपसर्ग हों और ज्जेज्जा ते णं उबसग्गा पयलेज्ज वा पवकेज्ज वा नो से वे उपसर्ग उस अनगार को ध्यान से विचलित करें या पतित कपद पपलित्तए वा परिसए का। करें तो उसे विचलित होना या पलित होना नहीं कल्पना है। तत्य गं उरचार-पासवणेणं उव्वाहिज्जा, नो से कप्पइ यदि मल मूत्र की बाधा हो जाय तो उसे रोकना नहीं उच्चार-पासवणं उगिम्हित्तए वा णिगिम्हित्तए वा । कप्पइ फल्पता है, किन्तु पूर्व पतिलेखित भूमि पर मल मूत्र त्यागना से पुखपडिलेहियंसि थंडिलं सि-उवचारपासवणं परिदुवित्तए। कल्पता है । पुनः यथाविधि अपने स्थान पर आकर उसे वायोअहाविहिमेव ठाणं ठाइत्तए। सर्य करना कल्पता है। एगराइयं भिक्खु-पडिम सम्म अणणपालेमाणस अणपारस्स एक रात्रिकी भिक्षु प्रतिमा का सम्यक् प्रकार से पालन न इमे तो ठागा अहियाए, असुभाए, अक्समाए, अणिसेस्साए, करने पर अनगार के लिए ये तीन स्थान अहितकर, अशुभ, अणणुगामिपत्ताए भवंति तं जहा असामध्यंकर, अकल्याणकर एवं दुःखद भविष्य वाले होते है। १. उम्मा वा लभेज्जा, यथा-(१) उन्माद की प्राप्ति, २. बोहकालियं वा रोगायक पाणिज्जा, (२) चिरकालिक रोग एवं आतंक की प्राप्ति, ३. केलि-पणताओ वा धम्माओ मंसिष्जा । (३) कोवली प्रज्ञप्त धर्म से भ्रष्ट होगा। एग-राहय भिक्खु-पतिम सम्म अगुपालेमाणस्स अणगारस्स एक रात्रिकी भिवा-प्रतिमा का सम्यक् प्रकार से पालन इमे ती ठाणा हियाए, सुहाए, एमाए, निस्सेसाए, अणुगा- करने वाले अनगार के लिए ये तीन स्थान हितकर, शुभ, सामथ्र्यमियत्ताए भवंति, तं जहा--- कर, कल्याणकर एवं सुखद भविष्य वाले होते हैं। १. मोहिनाणे वा से समुपज्जेज्जा. यथा-(१) अवधिज्ञान की उत्पत्ति, २. मण-पज्जवनाणे वा से समुपज्जा , (२) मनःपर्यवज्ञान की उत्पत्ति, ३. केवल नाग वा से असमुप्पन्नपुटवे समुपज्जेज्जा । (३) अनुत्पन्न केवलज्ञान की उत्पत्ति । एवं खलु एगराइयं भिक्खु-पडिम, अहासुतं, अहाकप्पं, इस प्रकार यह एक रात्रिकी भिक्षु-प्रतिमा यथासूत्र. यथाअहामार्ग, अहातचं, सम्म काएणं फासित्ता, पालिसा, कल्प, यथामागं और यथातथ्य रूप से गम्या प्रकार काया से Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८] परणानुयोग-२ प्रतिमा ग्रहण करने से मुक्ति सूत्र ६०६-६११ सोहिता, तीरिता, किट्टित्ता, आराहिता, आणाए अणुपा- स्पर्श कर, पालन कर, शोधन कर, पूर्ण कर, कीर्तन कर और लिसा या वि भवति। -दसा, द. ७, सु. ३६-३६ आराधन कर जिनाज्ञा के अनुसार पालन की जाती है। पडिमागहणेणं विमुत्ति प्रतिमा ग्रहण करने से मुक्ति६१०. पिण्डोम्पहपडिमासु, भयाणेसु सत्तसु। ६१०. जो भिक्षु आहार-हण की सात प्रतिमाओं में और सात जे मिक्खू जयई निश्चं, से न अच्छा मण्डले ।। भयस्थानों में सदा यत्न करता है वह संसार में नहीं रहता है। --उत्त.अ.३१, गा.६ उवासगाणं पडिमासु, भिक्खूणं पटिमासु य । जो भिक्ष उपासकों की म्यारह प्रतिमाओं तथा भिक्षुओं मे भिक्खू जयई निन्, से न अच्छा मष्यले । की बारह प्रतिमाओं में सदा यत्न करता है, वह संसार में नहीं -उत्त. भ. ३१, गा.११ रहता । एषणा प्रतिमाएँ--८(३) सस आहारेसण पडिमाओ आहार लेने की सात प्रतिमाएं६११. इसचेयाई आयतणाई उवासिफम्म अह भिक्खु जाणेज्जा- ६११. पूर्वोक्त (पिंडेपणा अणित) दोषों को छोड़ता हुआ भिक्ष सप्त पिसणाओ' ये सात पिडेपणाएँ (आहार की प्रतिमाएँ) जानें। १. तत्थ खलु इमा पढमा पिडेसणा-असंसट्टे हत्थे असंसष्टू (१) उन में से पहली पिढेषता यह है कि 'असंसृष्ट हाथ मसे। और असंसृष्ट पान, तहप्पगारेण असंस?ण हत्येण वा, मत्तएण वा, असणं था, यदि दाता का हाय और बर्तन किनी भी वस्तु रो अनित खाइम वा, साइम बा, सयं वा गं जाएग्जा, परो वा से हो तो अशन, खाद्य, स्वाय, आहार की स्वयं याचना करें अथवा देज्जा, फासु-जाब-पडिगाहेज्जा। पढमा पिसण।। गृहस्थ दे तो उसे प्रासुक जानकर-- यावत् ग्रहण कर ले। यह पहली पिरेषगा है। २. अहावरा रोच्चा पिटेसणा: संस? हत्थे, संस? मत्ते। (२) इसके बाद दूसरी पिंडेषणा यह है कि 'संसृष्ट हाथ और संसृष्ट पात्र। तहप्पगारेण संसटुग हत्येग वा, मत्तएण या, असणं था, यदि दाता का हाय और बर्तन किसी वस्तु से लिप्त है तो खाइम था, साइमं वा सयं वा गं जाएज्जा, परो वा से उससे वह अणन, खाद्य, स्वाद्य आहार की स्वयं याचना करे बेज्जा, फासुयं-जाव-पडिगाहेज्जा । दोच्चा पिसणा। अथवा गृहन्ध दे तो उसे प्रासुक जानकर -यावत् ग्रहण कर ले। यह दूसरी पिडेषणा है । ३. अहावरा तच्चा पिडेसणा-इह खलु पाईणं वा-जात्र-उदीगं (३) इसके बाद तीसरी पिंडेपणा यह है कि इस क्षेत्र में वा, संगतिया सक्षा भवंति-गानावती घा-जाव कम्मकरी पूर्व-पावत्-उत्तर दिशा में कई श्रद्धालु व्यक्ति रहते हैं, जैसे वा। कि गृहपति---यावत्-नौकरानियाँ। तेसिं च णं अण्णतरेसु विधवेसु भायणजायेसु उपणिरिखत- उनके यहाँ अनेक प्रकार के बर्तनो में पहले से भोजन रम्ना पुटवे सिया । तं जहा हुआ है। जैसे कि १ ठाणं. अ. ३, उ. ३, सु. १५८ । २ ठाणं. अ.७, सु. ५४५ । Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ६११ आहार लेने का सात प्रातमाएं तपाचार ।२४ पालसि वा, पिटरगसि बा, सरगसि वा, परगसि वा, थाली मैं, तपेली में, सूप में, छबड़ी में तथा बहुमुल्य पात्र बरगंसि वा। अह पुणेवं जाणेज्जा-असंसर्ट्स हत्थे संस? मत्ते, संस? उस समय साधु यह जाने कि--गृहस्थ का हाथ अलिप्त है वा हत्थे, असंस? मते । से य पडिग्गहधारी सिया, पाणि- किन्तु बर्तन लिप्त है अथवा हाथ लिप्त है, बतन अलिप्त है, तव पडिग्गहए वा, से पुथ्यामेव आलोएज्जा. वह पात्रधारी या कर-पात्री साधु पहले ही उसे कहे"उसो । ति वा भगिणि ! ति बा, एतेण तुमं असंस?ण "हे आयुष्मन् गृहस्थ ! या आयुष्मती बह्न ! तुम इस हत्येण, संस?ण मत्तेण, संस?ण वा हत्येण, असंसद्वैग असंसृष्ट हाथ और संसृष्ट वर्तन से अश्वा संसृष्ट हाथ और मत्तेण अस्सि खलु पजिग्गहंसि बा, पाणिसि वा णिहटु असंसष्ट वर्तन से लेकर इस पात्र में या हाथ में झुकाकर दो।" ओवित्तु बलयाहि । तहप्पगारं भोयगजात सयं वा णं जाएज्जा, परो वा से उस प्रकार के भोजन की स्वयं याचना करे अथवा गहस्थ दे ज्जा । कासुपं-जाव-पडिगाहेजा । तस्या पिउँसणा । तो उसे प्रासुक जानकर-यावत्-ग्रहण कर ले। यह तीसरी पिडेषणा है। ४. अहावरा घउत्था पिडेसणा-से भिक्खू वा-जाव-समाणे (४) इसके बाद चौथी पिंडेषणा इस प्रकार है-वह भिक्ष सज्ज पुर्ण जाणेज्जा-पिहयं षा, बहरयं वा, भुज्जियं बा, –यावत् - प्रवेश करने पर यह जाने कि गृहस्थ के यहाँ अग्नि मथु बा, नाउलं वा, घाउलपलं वा, से सिके हुए या पूर्ण किये हुए अवित्त गेहूं आदि के सिट्टे, ज्वार, जी आदि के सिट्टे तथा चावल या उसके टुकड़े हैं। अस्सि खलु पडिगनियंसि अप्पे पच्छकम्मे अप्पे पज्जवजाते। जिनके ग्रहण करने पर पात्र के लेप नहीं लगता है और न ही तुष आदि परठने पड़ते है। तहप्पगार पिहुयं वा-जाय चाउलपलं वा सयं वा णं इस प्रकार के धान्य के सिट्टे-यावत्-भग्न शालि आदि जाएग्जा परो या से वेज्जा फासुयं-जाब-पडिगाहेज्जा। अचित्त पदार्थ की साधु स्वयं याचना कर ले अथवा गृहस्थ दे तो प्रासुक जानकर- यावत् । ग्रहण कर ले । चउत्था पिडेसणा। यह चौथी पिढेषणा है। ५. अहावरा पंचमा पिडेसणा-से भिक्खू वा-जाव-समाणे (५) इसके बाद पांचवी पिंडेषणा इस प्रकार है-वह भिक्ष, जगहियमेव भोयणजातं जाणेज्जा । तं महा -पावत्-प्रवेश करने पर यह जाने कि गृहस्य के यहां अपने खाने के लिए किसी बर्तन में भोजन ले रखा है। जैसे किसरावसि बा, डिडिमंसि वा, कोसगंसि वा। सकोरे में, कांसे के बर्तन में या मिट्टी के किसी बर्तन में। अह पुणेवं जाणेज्जा-बहपरिवावणे पाणीसु वयलेवे। फिर यह भी जान जाये कि उसके हाथ कच्चे पानी से लिप्त नहीं है पूर्ण सूख गये हैं। सहप्पगारं असणं वा, खाइम बा, साइम वा, सर्व वा उस प्रकार के अशन, खाद्य, स्वाट आहार की साधु स्वयं जाएज्जा परो वा से वेजा, फाप्तुर्य-जाव-पडिगाहेज्जा। यायना कर ले या गृहस्थ दे तो उसे प्रासुक जानकर -यावत्पंचमा पिंडेसणा। ग्रहण कर ले । यह पांचवी पिंडषणा है। ६. अहाबरा छटा पिंडेसणा-से भिक्खर वा-जाव-समाणे (६) इसके बाद छठी पिढेषणा इस प्रकार है-वह भिक्षु पग्गहियमेव भोयगजातं जाणेज्जा जं च सयदाए पग्गहितं, यावत्-प्रवेश करने पर यह जाने कि गृहस्थ ने अपने लिए च पराए पम्प हितं, या दुसरे के लिए बर्तन आदि में या हाथ में भोजन ग्रहण किया है। तं पायपरियावणं तं पाणिपरियावष्णं असणं वा, खाइम ऐसा वह गृहस्य के पात्र में या हाथ में रहा हुआ अशन, वा, साइमं वा सयं वा गं जाएज्जा परी पा से देजा वाद्य, स्वाद्य साधु स्वयं याचना कर ले या गृहस्थ दे तो उसे फामुयं-जाव-पडिगाहेम्जा । छट्ठा पिडेसणा । प्रासुक जानकर-यावत् -ग्रहण कर ले। यह छट्ठी पिंडेषणा है। Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९०] घरमानुयोग-२ पानी लेने की सात प्रतिमाएं सूत्र ६११-६१२ ७. अहावरा सत्तमा पिजेसणा-से भिक्खू वा-जाव-समाणे (७) इसके बाद सातवीं पिडेषणा इस प्रकार है-वह भिक्ष उमिलत-घम्मिय भोपणजाय जाणेज्जा, - पावत्-प्रवेश करने पर यह जाने कि गृहस्य के फेंकने योग्य आहार है। जचण्णे यहवे बुपय-चउपय-समण-माहण-अतिहि-किवण- जिसे अन्य बहुत से द्विपद-चतुष्पद-श्रमण-ब्राह्मण, अतिथि, वणीमगा णावकर्षति । दरिद्रो, और भिखारी लोग नहीं चाहते, तहप्पगारं उशित-धम्मियं भोपणजायं सयं बाई जाएज्जा, ऐसे फेंकने योग्य भोजन की स्वयं याचना करे अथवा वह परो वा से जा फासुयं-जाव-पडिगाहेजा 1 सप्समा गृहस्थ दे तो उसे प्रासुफ जानकर-यावत - ग्रहण कर ले। यह पिरसणा। -आ. सु २, अ.१, उ. ११, सु. ४०६ सातवीं पिंडे षणा है। सत्त-पाणेसण पडिमाओ पानी लेने की सात प्रतिमायें६१२, हुस्याई आयतणाई उपातिकम्म अह भिक्ख जाणेज्जा- ६१२. पूर्वोक्त (पाणषणा बणित) दोनों को छोडता हा भिक्ष सत्त पाणेसणाओ1--- ये सात पाणषणाएँ (पानी की प्रतिमा) जानें१. तत्प खलु इमा पढमा पासणा-असंस? हत्ये, (१) इनमें से प्रथम पाणषणा यह है कि-असंसृष्ट हाथ असंस? मत्ते। और असंसृष्ट पात्र। तहप्पगारेणं असं सट्ठीण हत्येण वा, असंस?ण मत्तएणं वा यदि दाता का हाथ और बर्तन किसी वस्तु से अलिप्त हो पाणगजायं सयं वा गं जाएजाजा, परो वा से वंजा, फासुय तो उससे पानी की स्वयं याचना करे अथवा गृहस्थ दे तो उसे -जाव-पडिगाहेजा पढमा पार्णसणा। प्रासुक जानकर-पावत्-ग्रहण कर ले । यह प्रथम पाणैषणा है। २. महावरा घोच्चा पाणेसणा-संसद्ध हत्ये, संस? मते। (२) इसके बाद दूसरी पाणषणा यह है-संसृष्ट हाथ और संसृष्ट पात्र । तहप्पणारेण असंस?ण हत्येण वा असंस?ण मत्तएण था, यदि दाता का हाथ और वर्नन अचित्त वस्तु से लिप्त है पाणगजायं सयं वा णं जाएज्जा, परोया से बेज्जा, फासुर्य तो उससे पानी की स्वयं याचना करे अथवा गृहस्थ दे तो उसे जाव-पडिगाहेज्जा । वोच्चा पासणा । प्रासुक जानकार-यावत्-ग्रहण कर ले । यह द्वितीय पाणषणा है । ३. अहावरा तच्चा पाणेसणा-इह खतु पाईगं वा-नाव- (३) इसके दाद तीसरी पाणषणा यह है-इस क्षेत्र में पूर्व उदीण चा संतेगतिया सहा भवंति गाहावती था-जाव- --यावत्-उत्तर दिशा में कई श्रद्धालु व्यक्ति रहते हैं, जैसे कि कम्मकरी वा। वे गृहपति-यावत्-मौकरानियाँ। तेसिंधण अषणतरेसु विरूव स्येसु भायणजायेसु जवणिक्षित- उनके यहाँ अनेक प्रकार के बर्तनों में पहले से पानी रखा पुरवे सिया, तं जहा हुआ है, जैसे--- थालसि वा, पिटरगतिवा, सरगलि था, परगंसि वा, वरगंसि थाली में, तपेली में, सूप में, छबड़ी में, बहुमूल्य पात्र में । वा। अह पुगेवं जाणेज्जा-असंस? हत्य-संस? मत्ते, संस? वा उस समय साधु यह जाने कि-गृहस्थ का हाथ अलिप्त है हत्ये असंस? मत्ते । से पपडिग्गहधारी सिया पाणिपडिग्गा किन्तु बर्तन लिप्त है अथवा हाथ लिप्त है और बर्तन अलिप्त हए वा, से पुख्खामेव मालोएज्जा। है, तब वह पाबधारी या कर-पात्री साधु पहले ही उसे कहे''आउसो ! ति वा, भगिणी ! ति था एतेण तुर्म असंस?ण "हे आयुष्मन् गृहस्थ ! या गृहस्वामिनी ! तुम इस असंसृष्ट हत्थेणं, संस?ण मसण, संस?ण था हत्थेण, असंस?ण हाथ और संसृष्ट बर्तन से अथवा ससृष्ट हाथ और असं सृष्ट मत्तेण, अरिस खसु पडिग्गहंसि वा पाणिसि वा णिहट्ट बर्तन से लेकर इस पात्र में या हाथ में पानी दो, इस प्रकार के ओवित्त वलयाहि । तहप्पगारं पाणगजायं सयं वा पं पानी की स्वयं याचना करे अथवा गृहस्थ दे तो उसे प्रास्क जाएग्जा, परो वा से बेज्जा, फासुयं-जाव-पडिगाहेज्जा । जानकर-यावत्-ग्रहण कर ले। तच्चा पाणसणा। यह तीसरी पार्णषणा है। १. ठाणं. अ. ७, सु. ५४५ Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ६१२-६१३ प्रतिमा धारण करने वाले का वचन विवेक तपाचार २९१ ४ अहावरा चउत्था पाणेसणा-से भिक्खू वा-जाव-समाणे से ज्जं पुण पाणगजायं जाणंज्जा । तं जहातिलोदगं वा, तुसोदन वा, जबोदगं वा, आयामं वा, सोवीरं वा, सुचियर्ड वा। (४) इसके बाद चौथी पाणषणा यह है । वह भिश्च-यावतप्रवेश करने पर यह जाने कि यहां तिल का धोवन, तुष का धोबन, जो का धोवन, चावल आदि का ओसामण, कांजी का पानी या शुद्ध अचित्त शीतल अस्सि बलु पडिगहियसि अप्पे परुछाकम्से, अप्पे पम्जव- इनमें से किसी प्रकार का पानी ग्रहण करने पर पात्र के अन्न जाए। आदि बा लेप नही लगता है तथा कुछ भी फेंकना नहीं पड़ता है। तहप्पगारं तिलोदगं वा-जाव-सुवियर्ड वा सयं वा गं ऐसे तिल का धोवन-यावत्-शुद्ध अमित्त शीतल जल की जाएगा, परो वा से वैज्जा, फासुयं-जाव-पडिगाहेज्जा। स्वयं याचना करे या गृहस्थ दे उसे प्रासुक जानकर-यावत - चउत्था पासणा। ग्रहण कर ले । यह चौथी पाणषणा है। ५. अहावरा पंचभा पाणेरा-- भिक्खू वा-जाव-समाणे (५) इसके बाद पांचवीं पाणषणा यह है-वह भिक्ष उम्गहियमेव पाणगजायं जाणेज्जा । तं जहा -यावत् - प्रवेश करने पर ग्रह जाने कि · यहाँ किसी बर्तन में पानी रखा हुआ है, ययासरायसि वा, डिडिमंसि बा, कोसगंसि वा। __ सकोरे में, कांसे के बर्तन में या मिट्टी के बर्तन में । अह पुणे जाणेज्जा-बढ़एरियावाणे पाणीसु बगलेवे । फिर यह भी जान जाए कि पानी देने वाले के हाथ सचित्त पानी से अलिप्त हो गये हैं, पूर्ण सूख गये हैं। तहप्पगारं पाणगजाय सयं वा णं जाएज्जा, परो वा से उस प्रकार के पानी की स्वयं याचना करे या यह गृहस्थ दे वेज्जा, फामुयं-जाव-पडिगाहेज्जा । पंचमा पासणा। तो उसे प्रासुक जानकर-यावत्-ग्रहण कर ले। यह पांचवीं पाणषणा है। ६. अहावरा छट्ठा पासणा-से भिक्खू वा-जाव-समाणे (६) इसके बाद छठी पाणषणा यह है-वह भिक्षु-यावत्पगहियमेव पाणगजायं जागेकजा-जं च सयट्टाए पाहिजं प्रवेश करने पर यह जाने कि गृहस्थ में अपने लिए या दूसरे के च परट्टाए परमहितं । लिए पानी निकाला है। तं पायपरियावाणं तं पाणिपरियावणं पाणमजायं सयं वा ऐसा वह गृहस्थ को पात्र में व हाथ में रहा हुआ पानी णं जाएज्जा परो वा से वेज्जा, फासुये-जाय-परिगाहेज्जा। साधु स्वयं याचना करे अथवा वह गृहस्थ दे तो उसे प्रासुक छट्ठा पाणेसणा। जानकर यावत्-ग्रहण कर ले । मह छठी पाणैषणा है। ७. अहावरा सत्तमा पासणा-से मिक्ख या-जाव-समाणे (७) इसके बाद सातवी पाणषणा यह है--बह भिक्ष उशित धम्मियं पाणगजायं जाणेज्जा। -यावत्-प्रवेश करने पर यह जाने किजं चणे बहवे दुपय चउप्पय-समण-माण-अतिहि-किवण- गृहस्थ के फैकगे योग्य पानी है जिसे अन्य बहुत से द्विपदवगोमगा णावकखति । चतुरूपद-श्रमण-ब्राह्मण, अतिथि, दरिद्री और भिखारी लोग नहीं चाहते, तहप्पगार उन्सितधम्मियं पाणगजायं सयं वा जाएज्जा, ऐसे फेंकने योग्य पानी की स्वयं याचना करे अथवा गृहस्थ परो वा से वेज्जा, फासुयं-जाय-पडियाहेज्जा । सत्तमा दे तो उसे प्रासुक जानकर-यावत्-प्रहण कर ले। यह सातवीं पाणेसणा। -आ. शु. २, अ. १, उ. ११, सु. ४०६ पाणेषणा है। पडिमा धारगस्स वयणं विवेमो प्रतिमा धारण करने वाले का वचन विवेक६१३. इन्वेयासि सप्ताह पिडेसणाणं, सत्तण्हं पासणाणं अण्णतरं ६१३. इन सात पिडेपणाओं और सात पाणषणाओं में से किसी पडिम पजिवाजमाणे णो एवं बवेजा-"मिच्छा पडिवण्णा एक प्रतिमा को स्वीकार करने वाला भिक्षु इस प्रकार अवहेलना खलु एते भयंतारो, अहमेमे सम्म पडिवणे" करता हुआ न कहे कि-"इन साधु भयवन्तों ने असम्यक् प्रतिमाएं स्वीकार की हैं, एक मात्र मैंने ही सम्यक् प्रतिमा स्वीकार की है।" Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२] चरणानुयोग-२ संस्तारक लेने को चार प्रतिभाएँ सूत्र ६१३-६१४ "जे एते भयंतारो एताओ पडिमाओ पडिज्जित्ताणं विहरति, अपितु वह इस प्रकार कहे -"जो ये साधु भगवन्त इन जेय अहमसि एवं पत्रिमं परिवग्जिसाणं विहरामि, सम्वैवि प्रतिमाओं को स्वीकार करके विचरण करते हैं और जो मैं इस ते उ जिणाणाए उदिता अण्णोषणसमाहीए, एवं च ण प्रतिमा को स्वीकार करके विवरण करता हूँ, ये हम सभी अपनी बिहरति । -आ. सु. २, अ. १, उ. ११, सु. ४१० अपनी शक्ति समाधि के अनुसार जिनाज्ञा में उद्यत होकर इस प्रकार विचरण करते हैं। चत्तारि संथारेसण पडिमाओ.. संस्तारक लेने की चार प्रतिमाएँ - ६१४. इच्चेयाई आयतणाई उपातिकम्म बह भिक्खू जाणेज्जा- ६१४. पूर्वोक्त (शय्यषणा में वणित) दोषों को छोड़कर भिक्षु इन इमाहि घहिं पडिमाहि संथारगं एसित्तए'। चार प्रतिमाओं से संस्तारक की एषणा करे । १. तत्थ खलु इमा पढमा परिमा-से भिक्खू या भिक्खूणी १. इनमें से पहली प्रतिमा यह है-भिक्षु या भिक्षुणी या उदिसिय उदिसिय संथारगं जाएज्जा, तं जहा- नामोल्लेख कर-करके संस्तारक की याचना करे, जैसे१. इक्कडं वा, ३. कलिणं वा, १. इक्कड नामक तृण से निष्पन्न, २. बांस की चटाई, ३, जंतुयं वा, ४. परगं वा, ३. जन्तुक नामक तृण से निष्पन्न, ४ फूल गूंथने का तृण, ५. मोरगं वा, ६. तणं षा, ५. मोर की पांखों से निष्पन्न, ६. सामान्य तृण, ७. कुसं वा, ७. कुश (दोब) से निष्पन्न, ८. कुन्चग वा, 4. पूर्वक तृण से निष्पन्न (जिससे पुताई करने की कुंची बनती है)। १. पिप्पलगं बा, १०. पलालगं वा। १. पीपल के काष्ठ से निष्पन्न, १०. पराल शालि का तृण । से पृथ्बामेव आलोएज्जा-"आउसो ! तिवा, भगिणी! ति साधु पहले से ही इस प्रकार कहे-“हे आयुष्मन् गृहस्थ या या, दाहिसि मे एत्तो अण्णतर संथारग?" बहन ! क्या तुम मुझे इन संस्तारकों में से अमुक संस्तारक दोगे ?" तहप्पगार संथारगं समं या णं जाएज्जा, परो वा से वेज्जा, इस प्रकार संस्तारक की स्वयं पाचना करे अपचा गृहस्थ दे फासुर्य जाब-पडिगाहेज्जा । पहमा पजिमा। तो प्रासुक जानकर -यावत्-ग्रहण करले । यह प्रथम प्रतिमा है। २. अहावरा दोच्चा पडिमा-से भिक्खू या भिक्खूणी वा २. इसके बाद दूसरी प्रतिमा यह है-भिक्षु या भिक्षुणी पेहाए संचारगं जाएज्जा । तं जहा गृहस्थ के मकान में सामने रखे दिखते हुए संस्तारक को देखकर उसकी याचना करे । ययामाहावति वा-जाव-कम्मकरि वा । गृहपति-यावत्-नौकरानियाँ, से पुवामेव बालोएज्जा-"उसो ! ति वा भििण ! ति उनसे पहले ही इस प्रकार कहे कि-"हे आयुग्मन् गृहस्य ! था वाहिसि मे एत्तो अण्णतर संथारयं ।" या बहिन ! तुम मुझे इन संस्तारकों में से अमुक संस्तारक दोगे?" तहप्पगार संघारगं सयं वा पं जाएज्जा, परो वा से देना, इस प्रकार के संस्तारक की स्वयं याचना करे या' गृहस्थ दे फासुर्य -जाव-पडिगाहेज्जा । दोच्चा पडिमा। तो उसे नासुक जानकर-यावत्-ग्रहण करले । यह द्वितीय प्रतिमा है। ३. अहावरा तच्चा पडिमा-से मिक्खू वा भिक्खूणी वा ३. इसके बाद तीसरी प्रतिमा यह है--भिक्षु या भिक्षुणी जस्सुवस्सए संवसेज्जा बे तस्य महासमण्णागते, तं जहा- जिस उपाश्रय में निवास करे उसी उपाश्रय में जो संस्तारक विद्यमान हों। यथाइपकडे वा-जाव-पलाले वा, शक्कड-पावत्-पराल । तस्स लाभ संवसेज्जा, तस्स अलाभे उपकुडए वा सजिए इनके प्राप्त होने पर आशा लेकर शयन करे। म प्राप्त होने वा विहरेज्जा । तच्चा परिमा । पर उत्कट कासन या निषद्यासन आदि आसनों से बैठकर रात्रि व्यतीत करे । यह तीसरी प्रतिमा है। १. ठाणं.भ.४, उ, ३, सु. ३३१ Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ I ६१४-६१५ वस्त्र लेने को चार प्रतिमाएं ४. अहावरा उत्पा पडिमा से भिक्खू या मिक्की वा अहासंचडमेव संधारणं जाएगा जहा विसिया वा हापमेव या संचार, तस्स लाभे संवसेज्जा तस्स अलाभे उक्कुडए वा सज्जिए या विहरेज्जा । चजत्था पडिमा । इच्येयाणं च परिमाणं अभ्गतरं परिमं पविम - जाव अण्णोष्णसमाहीए एवं चणं विहरति । -- आ. सु. २, अ. २, ३, सु. ४५६-४५७ बसारि त्यसण पडिमान २. अहाब वा पहिमभिक्खू या मिनी वा पेहाए त्वं जाएया हाताना कम्मर या से पुरषामेव आलोएज्जा- ''आउसो ति वा भगिणि ! ति वा वाहिति मे एसी अन्तर पत् तहप्पारं वश्यं सयं वा णं जाएजा परो वा से बेज्जा, फालुपं जाव-डिगाहेज्जा । बोच्चा पडिमा । ३. महावरा तथा पराभवा-जाव-समाने सेजं गुणवत्थं जज्जा तं जहा अंतर या उता तहष्यगारं वत्थं स वर णं जाएउजा, परो वा से वेजा कार्य जाव पडिगाहेज्जा । तच्चा पडिमा | ४. अहावरा व उस्था पडिमा --- से भिक्खू वा-- जाव- समाणे म्यं यत् जं च बहवे समम जाव-वणीमगा णावकं खंति, १. ठाणं. भ. ४, उ. ३, सु. २३१ तयाचार ६१५ माई आयतणाई जवातिकम्म अह् भिक्खू जाणेज्जा- ६१५. पूर्वोक्त (वस्त्रपणा में वर्णित ) दोषों को छोड़कर भिक्षु माहि परिमारहे वत्यं एसिए इन चार प्रतिमाओं से वस्त्र की एषणा करे - सिनाए २. भंगियं वा, १. तत्य खलु न पढना पडिमा से मिक् या भिक्खूणी या उस तं महा१. जंगियं वा, ३. वा ४. पोत्तमं वा ५. खोमियं वा, ६. तुला । हत्यारं वत्यं स या पंजाएमा, परो या से देन्जा, फासुगा पहना परिमा ६. इनमें से ही यह है- भिक्षु वा भिक्षुणी नामोल्ने कर-करके वस्त्र की याचना करे जैसे -.. १. जांगलिक २. भोगिक, ४. पोत्रक, ५. सोमिक, ऐसे वस्त्र की स्वयं याचना करे अथवा गृहस्थ स्वयं दे तो प्राक जानकर - यावत् ३. सानज, ६. ग्रहण करें। यह प्रथम प्रतिमा है । २. उसके बाद दूसरी प्रतिमा यह है- भिक्षु या भिक्षुणी बस्त्र को पहले ही देखकर गृहस्वामी-पावनौकरानी वादि से इस प्रकार कहे "हे आयुष्मन् गृहस्थ ! या बहन ! क्या तुम इन वस्त्रों में से कोई वस्त्र मुझे दोगे ?" इस प्रकार स्वयं वस्त्र की या ना करे अथवा वह गृहस्थ दे तो प्राक जानकर - यावत् ग्रहण करे। यह दूसरी प्रतिमा है। २. इसके बाद तीसरी प्रतिमा यह है वह भिक्षु पावत्प्रवेश करने पर वस्त्र के सम्बन्ध में यह जाने-जैसे किनीचे के भाग में पहना हुआ वस्त्र या ऊपर के भाग में पहना हुआ वस्त्र । ऐसे वस्त्र की स्वयं याचना करे या गृहस्थ स्वयं दे तो उसे प्राक जानकर - यावत् ग्रहण करे। यह तीसरी प्रतिमा है । ४. इसके बाद चीनी यह है-वह भिक्षु यत्प्रवेश करने पर यह जाने कि गृहस्थ ने वस्त्र को पहन कर छोड़ दिया है। जिसे कि बहुत से अन्य श्रमण यावत्-- भिखारी लोग भी लेना न चाहते हों, [ २९३ ४. इसके बाद लोधी प्रतिमा यह है भिक्षु या भिक्षुमी उपाश्रय में पहले से ही बिछे हुए संस्तारक की यात्रा करें। यथा--... पत्थर की शिला, लकड़ी का पाट या बिछा हुआ तृण मय संस्तारक इनके प्राप्त होने पर आज्ञा लेकर उस पर शयन करे। न मिले तो उत्कटुकासन या निषेचन आदि आसनों से बैठकर रात्रि व्यतीत करे यह चौथी प्रतिमा है। इन चारों प्रतिमाओं में से किसी एक प्रतिमा को धारण करने वाला साधु बाबत् सभी अपनी-अपनी समाधि के अनुसार विचरण करते हैं । वस्त्र लेने की चार प्रतिमाएं - Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९४] घरणानुयोग-२ पात्र लेने की चार प्रतिमाएं सूत्र ६१५-६१६ तहप्पगारं उशियधम्मियं वयं सयं वा षं जाएज्जा, परो ऐसे छोड़े हुए वस्त्र की स्वयं याचना करे अथवा गृहस्थ दे या से वेज्जा, फासुर्य-जाव-पडिगाहेज्जा । चउत्था पडिमा। तो उसे प्रासुक जानकार-यावत्- ग्रहण करे । यह चौथी प्रतिमा है। इन्चेमासि चउण्हं पडिमाणं अण्णतरं परिमं परिवजमाणे इन चारों प्रतिमाओं में से किसी एक प्रतिमा को धारण -जाव-अण्णोण्णसमाहीए एवं च णं विहति । करने वाला साधु-यावत्-सभी अपनी-अपनी समाधि के -आ. सु २, अ. ५, उ. १. सु. ५५६-५६० अनुसार विचरण करते हैं। चत्तारि पत्तेसण पडिमाओ पात्र लेने की चार प्रतिमाएं६१६. इच्च्छयाई आयतणाई उवातिकम्म अह भिक्खू जाणेज्मा-- ६१६. पूर्वोक्त (वस्त्रषणा में वर्णित) दोषों का परित्याग करके इमाहि चहि पडिमाहिं पार्य एसित्तए। भिक्षु इन चार प्रतिमाओं से पात्र की एषणा करे-- १. तस्य खलु इमा पत्रमा पडिमा-से भिक्खू वा भिक्खूणी १. इनमें से पहली प्रतिमा यह है कि-भिक्ष या भिक्षुणी वा उद्दिसिय-उहिसिय पायं जाएज्जा, तं जहा नामोल्लेख पूर्वक प्रतिज्ञा करके पात्र की याचना करे, जैसे१. लाउयपायंडा, २. वारुपायं या, १. तुम्बे का पात्र, २. लकड़ी का पात्र, ३. मट्टियावावया, ३. मिट्टी का पात्र। तहप्पगारं पायं सयं वा णं जाएग्जा, परोया से वेज्जा, ऐसे पात्र की स्वयं याचना करे अथवा गृहस्थ दे तो प्रासुक फासुपं-जाव-पहिगाहेजा । पढमा पडिमा । जानकर. यावत्-ग्रहण करे । यह पहली प्रतिमा है। २. अहावरा बोचा पडिमा-से मिक्खू वा भिक्खूणी वा २. इसके बाद दूसरी प्रतिमा यह है--भिक्ष या भिक्षणी पेहाए पायं जाएज्जा तं जहा (सामने दिखते हुए पात्र को लेने की प्रतिज्ञा करके) पात्रों को गाहावति वा-जाव-कम्मकार वा, पहले हो देखकर गृहपति-यावत्- कर्मकारिणी आदि से इस प्रकार कहे, से पुण्यामेव मासोएज्जा-"आउसी । ति बा, मगिणी! 'हे आयुष्मन् गृहस्थ ! या बहन ! क्या मुझे इनमें से अमक ति पा, बाहिसि मे एत्तरे अण्णतर पाय, तं जहा पात्र दोगे?" जैसे किखाज्यपायं वा-जाव-मष्टियापायं वा, तुम्बा, काष्ठ या मिट्टी का पात्र, तहप्पगार पायं सयं था णं जाएज्जा परो वा से वेज्जा, इस प्रकार के पात्र की स्वयं वाचना करे या गृहस्थ स्वयं दे फासुयं-जाद-पबिगाहेज्जा । दोच्चा पडिमा। तो उसे प्रासुक जानकर-यावत्-ग्रहण करे। यह दूसरी प्रतिमा है। ३. अहायरा तच्चा पडिमा-से भिक्खुवा-जाव-समाणे से उजं ३ इसके बाद तीसरी प्रतिमा यह है-वह भिष-यावतपुर्ण पाय जाणेज्जा-संगतियं वा, वेजयंतियं वा, प्रवेश करने पर ऐसा पान जाने कि वह महस्व के द्वारा उपयोग में लिया जा चुका है या उपयोग में लिया जा रहा है। तहप्पगारं पायं सयं या णं जाएजा परो वा से देज्जा, ऐसे पात्र की स्वयं याचना करे अथवा वह गृहस्थ दे तो फासुग-जाव-पडिगाहेम्जा । तच्चा पडिमा । प्रासुक जानकर - यावत्-ग्रहण करे। यह तीसरी प्रतिमा है। ४. अहावरा घउत्था पडिमा-से भिक्खू बा-जाव-समाणे ४. इसके बाद चौथी प्रतिमा मह है -वह भिक्षु-यावत् - उसियधम्मियं पायं जाएज्जा-जं चणे बहवे सभण-जाव- प्रवेश करने पर यह जाने कि--गृहस्थ ने पात्र को उपयोग में वणीमगा णावखति, लेकर छोड़ दिया है। जिसे कि अन्य बहुत से श्रमण-यावत् भिखारी भी लेना नहीं चाहते, तहप्पगारं पायं सयं वा गं जाएज्जा, परो वा से देज्जा, ऐसे पात्र की स्वयं याचना करे अथवा गृहस्थ दे तो प्रासुक फामुयं-जाव-पडिगाहेज्जा घनत्या पडिमा। जानकर-यावत्-ग्रहण करे। यह चौथी प्रतिमा है। इन्चेयासि चजण्हं पडिमाणं अण्णतरं पडिमं पष्टिवज्जमाणे इन चारों प्रतिमाओं में से किसी एक प्रतिमा को धारण -जाव-अण्णोष्ण समाहिए एवं च णं विहरति । करने वाला साधु-यावत् भी अपनी-अपनी समाधि के -बा. सु. २, अ. ६, उ. १, सु. ५६४-५६५ अनुसार विचरण करते हैं। १. ठाणं. . ४, उ. ३, सु. ३३१ Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ६१७-६१८ खड़े रहकर कायोत्सर्ग करने को चार प्रतिमाएँ तपाचार [२९५ चत्तारि ठाण-काउस्सग पडिमा खड़े रहकर कायोत्सर्ग करने की चार प्रतिमाएं६१७. इसचेयाई आयतणाई उचातिकम्म अह भिक्खू इच्छेज्जा- ६१७. पूर्वोक्त स्थान सम्बन्धी दोषों को छोड़कर भिक्षु इन चार चहि पडिमाहिं ठाणं ठाइत्तए। प्रतिमाओं में से किसी एक प्रतिमा से कायोत्सर्ग करने की इच्छा करे१. तरिथमा पठमा पडिमा - "अचित्तं खलु उवसज्जिस्तामि, १. उनमें से प्रथम प्रतिमा यह है-"मैं अचित्त मर्यादित अवलंबिम्सामि, काएण विष्परिकम्मिस्सामि, सवियारं ठाणं स्थान में रहेंगा, दीवार आदि का सहारा लूंगा, हाथ-पैर आदि ठाइस्सामि ति।" पहमा पडिमा । का संबोधन-प्रसारण करूंगा तथा वहीं पर थोड़ा-सा विचरण करूंगा," यह प्रथम प्रतिमा है। २. अहावरा बोच्दा पउिमा . "अचित्तं खलु उपसज्जिस्सामि, २. इसके बाद दूसरी प्रतिमा यह है-"मैं अचित्त मर्यादित अवलंबिसामि काएण विपरिकन्मिस्सामि, णो सक्यिारं स्थान में रहूंगा, दीवार आदि का सहारा लूंगा, हाथ-पैर आदि ठाणं ठाइस्सामिति ।" दोच्चा पडिमा । का संकोचन प्रसारण करूगा, किन्तु थोड़ा-सा भी विवरण नहीं करूगा," यह दूसरी प्रतिमा है। ३. इसके बाद तृतीय प्रतिमा यह है-"मैं अचित्त मर्यादित अवलंबिस्सामि णो काएण विधरि कम्मिस्सामि, णो सवियार स्थान में रहूँगा, दीवार आदि का सहारा लूंगा, किन्तु हाथ-पर ठाइस्सामि त्ति ।" तच्चा पडिमा । आदि का संकोनन-प्रसारण नहीं करूंगा तथा भ्रमण भी नहीं करूंगा." यह तीसरी प्रतिमा है। ४. अहावरा चउत्था पडिमा- ''अचित्तं खलु उचसज्जि. ४. इसके बाद चतुधं प्रतिमा यह है-'मैं अचित्त स्थान में सामि, णो अवलंचिस्सामि, णो कारण विप्परिकम्निस्सामि, स्थित रहूँगा । उस समय न तो दीवार आदि का सहारा लुंगा, णो सवियारं ठाणं ठाइस्सामि, बोसटुकाए वोसटुकेस-ममु- न हाथ-पैर आदि का संकोचन-प्रसारण करूँगा और न ही भ्रमण रोम हे संनिरुद्धं वा ठाणं ठाइस्सामि त्ति ।" चउत्था करूंगा, अपितु शरीर का ममध्य तथा केश, दाढी, मछ, रोम पडिमा। और नख आदि के परिकम का त्याग कर सम्यक् प्रवार से काया का निरोध कर इस स्थान में कायोत्सर्ग करके स्थित रहूँगा," यह चौथी प्रतिमा है। इच्चेयासि चउण्हं पडिपाणं अण्णतरं पटिम पडिबज्जमाणे इन चारों प्रतिमाओं में से किसी एक प्रतिमा को धारण -जाव-अण्णोण्ण-समाहोए एवं च गई विहरति । करने वाला साधु-यावत् - सभी अपनी-अपनी समाधि के - आ. सु. २, अ.क, उ. १, सु. ६३५-६३६ अनुसार विचरण करते हैं। सत्त अवग्गह पडिमाओ-- अवग्रह लेने की सात प्रतिमाएं - ६१८. इच्चेयाई आयतणाई उपातिकम्म अह भिक्ख जाणेज्जा ६१८. पूर्वोक्त अवग्रह सम्बन्धी दोषों का परित्याग करके भिक्षु इमाहि सप्तहि पडिमाहि उग्यहं ओगिम्हित्सए इन सात प्रतिमाओं के अनुसार अवग्रह ग्रहण करे१. जत्य स्खलु इमा पदमा पडिमा--से आगंतारेसु वा-जाब- १. इनमें से पहली प्रतिमा यह है कि वह साधु पथिकपरियावसहेसु वा अणवीइ उग्गहं जाएज्जा-जाव तेग पर शाला–यावत् परियाजकों के आश्रम में सम्यक विचार करके विहरिस्सामो । पढमा पडिमा । अवग्रह की याचना करे-यावत्- उसके बाद हम विहार कर देंगे, यह प्रथम प्रतिमा है। २. अहावरा दोच्चा पडिमा- जस्स गं भिक्खस्स एवं२. इसके बाद दूसरी प्रतिमा यह है कि जिस भिक्षु का भवति "अहं च खलु अण्णेसि भिक्खूणं अढाए जग्गहं इस प्रकार का अभिग्रह होता है कि "मैं अन्य भिक्षुओं के लिए ओगिहिस्सासि, अण्णेसि भिक्षूर्ण उगहिते उगहे उथ- अवग्रह की याचना करूंगा और अन्य भिक्षुओं के द्वारा पाचित ल्लिस्सामि।" दोच्चा पडिमा । अवग्रह में निवास करू गा।" यह द्वितीय प्रतिमा है । १ २ ठाणं. अ. ४, उ. ३, सु. ३३१ ठाणं. अ.७, सु. ५४५ । Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ चरगानुयोग-२ सप्तसप्ततिका भिक्षु प्रतिमाएं सत्र ६१८-६१६ ३. अहावरा तच्चा पडिमा जस्स णं भिक्खस्स एवं भवति ३. इसके बाद तीसरी प्रतिमा यह है कि --जिस भिक्षु का "अहं च खलु अण्णेसि भिक्खू गं अट्ठाए उगह ओगिहिस्सामि, इस प्रकार का अभिग्रह होता है कि "मैं दूसरे भिक्षुओं के लिए अण्णेसि घ जग्गहिते चाहे जो उबल्लिस्सामि।" तन्ना अबग्रह की याचना करूंगा परन्तु अन्य भिक्षुओं के द्वारा याचित पडिमा । स्थान में नहीं ठहरूंगा," यह तृतीय प्रतिमा है। ४. अहावरा. चउत्या परिमा-- जस्स में भिक्षुस्स एवं ४ इसके बाद चतुर्थ प्रतिमा यह है--जिस भिक्षु का इस मवति "अहं च खलु अण्णेति भिक्खूर्ण अट्ठाए उग्गहें जो प्रकार का अभिग्रह होता है कि " दूसरे भिक्षुओं के लिए ओगिहिस्सामि, अण्णेसि च जग्गहिते उगहे उल्लिास्सामि" अवग्रह की याचना नहीं करूंगा परन्तु अन्य साधु द्वारा याचित चजस्या पडिया। स्थान में ठहरूंगा।" यह चतुर्थ प्रतिमा है। ५ अहावरा पंचमा पडिमा-जस्स गं भिक्षुस्स एवं ५. इसके बाद पांचवीं प्रतिमा यह है-जिस भिक्षु का इस भवति "अहं च खलु अप्पणो अट्ठाए जग्गहं णोओपिण्हि- प्रकार का अभिग्रह होता है कि - "मैं अपने लिए ही अवग्रह की स्सामि, णो दोहं, गो सिहं, षो चउन्हं, जो पंचम्ह" याचना करूंगा अन्य दो, तीन, चार, पांच के लिए नहीं।" यह पंचमा पडिमा । पांचवी प्रतिमा है। ६. महावरा छट्ठा पडिमा । से भिक्षू वा भिक्खूणी वा ६. इसके बाद छट्ठी प्रतिमा यह है-भिक्षु या भिक्षणी जिस जस्सेब उगहे उवल्लिएज्जा, जे सत्य अहासमण्णागते। अवग्रह की याचना करके ठहरता है उस स्थान में पहले से ही तं महा जो शय्यासंस्तारक विद्यमान है। जैसे-- पकडे वा-जाव-पराले वा, तस्स लाभे संवसेना, तस्स इबकड नामक तृण विशेष –यावत्-पराल आदि इनके अलाभे उक्कुराए वा प्रेसज्जिए वा विहरेजजा । छट्टर मिलने पर उनका अवग्रह प्रहण करके रहे और नहीं मिलने पर पडिमा। उत्कटकासन या निषद्यासन आदि आसनों से बैठकर राव व्यतीत करें। यह छ्ट्री प्रतिमा है। ७. अहावरा सत्तमा पडिमा-से मिक्खू वा भिक्खूणी था ७. इसके बाद सातवी प्रतिमा यह है-भिक्षु या भिक्षुणी अहासंथरमेव उग्गहं जाएग्जा, तं जहा जिस स्थान की अनुशा ने वहाँ वदि पृथ्वी शिला, काष्ठशिला पुचिसिल पा, सिलं वा महासंथडमेव वा संथारग तथा पराल आदि बिछा हुआ प्राप्त हो तो उसका अवग्रह ग्रहण तस्स लाभे संबसे ज्जा, तस्स अलाभे उक्कुटुए वा णेसज्जिए कर वहाँ रहे यदि प्राप्त न हो तो उत्कटुका आसन मा निषाद्यासन वा विहरेज्जा । सत्तमा पडिमा। द्वारा रात्रि व्यतीत करे । यह सातवी प्रतिमा है । इन्वेयासि ससहं पडिमाणं अण्णतरं पटिम पडिवज्जमाणे इन सात प्रतिमाओं में से किसी एक प्रतिमा को धारण करने -जाव-अण्णोण-समाहीए एवं च ण विहरति । वाला साधु-यावत्-सभी अपनी-अपनी समाधि के अनुसार -आ. सु. २, अ. ७, उ. २, सु. ६३३-६३४ विचरण करते हैं। दत्ति-पडिमाएँ-८(४) सत्त-सत्तमिया भिक्खुपडिमा सप्तसप्तमिका भिक्षु प्रतिमा६१९. सत्त-सत्तमिया णं मिक्युपडिमा एगणपन्नाए राइंत्रिएहि ६१६. सप्त-सप्तदिवसीय भिक्ष-प्रतिमा (४६) उन्चास अहोरात्र एगेणं छन्नउएणं भिक्खासएणं अहामुत्सं-जाव-आणाए अणु- में मिक्षा में प्राप्त हुए आहार की (१९६) एक सौ छियानवे पालिता प्रवाह -ठाणं अ.५, सु ५४५ दत्तियों से सूत्रानुसार--यावत् -जिन आज्ञा के अनुसार पालन की जाती है। १ (क) सम. सम. ४६, सु.१ (ख) बव. उ.६, मु. ३७ Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२०-६२४ अट्ट दुरिया भिक्खुपतिमा ६२०. अट्ट-अट्ठमिया णं भिक्खु-पक्षिमा चउसट्टीए-राईदिएहि दोहि अट्टासिएहि मिक्लास एहि अहासुतं जाव आणाए अणुपा लिसा भव । -- अ... ६४५ नव-नवमिया भिक्खु पडिमा - ६२१. नव नवमिया णं भिक्खुपडिमा एमसीए राईदिएहिं वह य पंतहि भिखास एहि महासुतं जाव अप्पा लिता भवद्द | 2 -ठाणं. म. ६, सु. ६०० दस-दसमिया मिक्लु पडिमा ६२२. वस दसमिया णं भिक्खुपडिमा छह य मिलाएहि अहासु भव | 3 विहा चंदपष्टिमाओ ६२३. वो परिमाओ पण्णत्ताओ । तं जहा १. जबमा य चंदपडिमा १ २ ३ अष्टष्टमभिक्षु प्रतिमा एगेणं राईदियसएवं बद्ध जाव आणाए अनुपालिता -ठाणं. अ. १०, सु. ७७७ — - वव. उ. १०, सु. १ २. बहरमा य चंबपडिमा ।* जयमन्शा पहिमा६२४. जयमणं चंदपडिमं पडिवनस्स अणगारस निच्वं मासं बोकाए पहोम समुपज्जेश्या दिव्या वा मारावा तिरिणयोगिया वा अणुसोमा वा, पडिलोमा या, तक्ष्य अणुलोमा ताव अंबेज्जा वा नसिज्जा वा सहकारेज्जा वा सम्माणेज्जा वा, कल्लाणं. मंगलं, देवर्य, चेदयं, जुवाज्जा (क) सम सम (क) सम सम पहिलोमा ताव अग्रयरेण वा अडिगा था, जो वा, वेण वा कसेण वा काए आउट्टज्जा ले सथ्ये उप्पन्न सम्म सहेज्जा, सज्जा, तितिक्ा बहिया ६४, सु. १ ८१, सु. १ तपाचार [२६७ अष्ट-अष्टमिका भिक्षु प्रतिमा ६२० मष्ट अष्टदिवसीय मिक्ष - प्रतिमा (६४) चौंसठ अहोरात्र में भिक्षा में प्राप्त हुए आहार की (२८८) दो सो मठ्यासी दशियों से भानुसार यावत्-जिनाशा के अनुसार पालन की जाती है। - (ख) वव, उ. ९. सु. ३८ (ख) अब उ ९, सु. ३६ (ख) जब. उ. ६, ४० सु. (क) सम सम १००, सु. १ (ग) सप्तसप्तमिका भिक्षु प्रतिमा में प्रथम सात दिन में आहार की एक-एक दत्ति ग्रहण की जाती है, दूसरे सात दिन में आहार की दो-दो दत्ति ग्रहण की जाती है, - यावत्- सातवें सात दिनों में आहार की सात सात दत्तियाँ ग्रहण की जाती हैं। अष्ट अष्टमिका भिक्षु प्रतिभा में आठ-आठ दिन से एक-एक दत्ति की वृद्धि की जाती है। नवनवभिया भिक्षु प्रतिमा में नव नम दिन से एक-एक वत्ति की वृद्धि की जाती है। दादशमिया भिक्षु प्रतिमा में दस दस दिन से एक-एक दत्ति की वृद्धि की जाती है । ४ ठाणं. अ. २, उ. ३, सु. ७७ नव-नवमिका भिक्षु प्रतिमा - ६२१. नौलो दिवसीय भिक्षु प्रतिमा (८१) इक्कासी अहोरात्र में जिला में आहए की (००९) बार सौ पाँच दत्तियों से सूत्रानुसार - यावत्-जिनाशा के अनुसार पालन की जाती है। दादयामिका भिक्षु प्रतिमा ६२२. दश दश दिवसीय भिक्षु प्रतिमा (१००) सौ अहोरात्र में भिक्षा में प्राप्त महार की (५५० ) पाँच सौ पचास दत्तियों में सूत्रानुसार- यावत् जिनाशा के अनुसार पालन की जाती है । दो प्रकार को चन्द्र प्रतिमाएँ ६२३. दो प्रतिमायें कही गई हैं, यथा(१) यवमध्य चन्द्र प्रतिमा, (२) वज्रमध्य चन्द्र प्रतिमा । पवमध्य चन्द्र प्रतिमा ६२४. यवमध्य चन्द्रप्रतिमा स्वीकार करने वाला अणगार एक मास तक शरीर के परिकर्म से तथा परीर के ममत्व से रहित होकर रहे और देव, मनुष्य एवं तिर्यकृत अनुकूल या प्रतिकूल जिसने परीष एवं उपसर्ग होनें जनमें अनुकूल परीषद एवं उप हैं— कोई वन्दना नमस्कार करें, सत्कार सम्मान करे, कल्याणरूप, मंगलरूप, देवरूप और ज्ञानरूप मानकर पर्युपासना करे । उनमें प्रतिकूल परीषद् एवं उपसर्ग ये हैं किसी दण्ड, हड्डी, जोल, बेंत और चाबुक से शरीर पर प्रहार करे तो वह इन सब अनुकूल प्रतिकूल परीषद् एवं उपसर्गों को (प्रसन्न या खिस न होकर ) समभाव से, क्षमा भाव युक्त, वीरता पूर्वक और शांति से सम्यक् सहन करे । Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९८) भरणानुयोग-२ पवमध्य प्रतिमा सूत्र ६२४ जवमलं गं चंदपजिम पजिवनस्त मणगारस्त यवमध्य चन्द्र प्रतिमा के आराधक अणगार को, सुक्कपक्सस्स पाडिवए से कप्पाइएमा बत्ती मोयणस्स पडिगा- शुक्लपक्ष की प्रतिपदा के दिन आहार और पानी की एकहेतए, एगा पागस्स। एक दनि ग्रहण करना कल्पता है। सम्वेहि पुष्पय चउपयाइएहि आहारक्लीहि सहि पडिणि- आहार की आकांक्षा करने वाले सभी द्विपद चतुष्पद प्राणी यहि, अन्नायउंछ सुखोवहार्ड आहार लेकर लौट गये हों तब उसे अज्ञात स्थान से शुद्ध (भल्प लेप वाला) अल्प बाहार लेना कल्पता है । निजहिता बहवे समप-जाव-बगीमगा। अनक श्रमण -- पावत्-मिवारी आहार लेकर लौट गये हों अर्थात् वहां खड़े न हों तो आहार लेना कल्पता है। कप्पड से एगस्स मुंजमाणस्स पडिग्गाहेत्तए नो दोहं, नो एक व्यक्ति के भोजन में से आहार लेना कल्पता है, किन्तु तिम्हं, नो घाउमई, नो पंचहं । दो, तीन, चार या पांच व्यक्ति के भोजन में से लेना नहीं कल्पता है । नो गुम्विणीए, नो बालवच्छाए, नो बारगं ऐज्जमाणीए 1 गर्भवती, छोटे बच्चों वाली और बच्चे को दुध पिलाने वाली के हाथ से आहार लेना नहीं कल्पता है। नो अंतो एखुपस्स दो वि पाए साहट दलमाणीए, नो बाहि दाता के दोनों पैर देहली के अन्दर हों या बाहर हों, उससे एसुयस्स दो वि पाए साहट्ट दलमाणीए । आहार लेना नहीं कल्पता है।। अह पुण एवं जाणेज्जा एगं पायं अंतो किच्चा, एगं पायं यदि ऐसा जाने कि–दाता एक पर देहली के अन्दर और बाहिं किच्चा एव्यं विक्सम्मइत्ता एक पर देहली के बाहर रखकर देहली को पैरों के बीच में करके दे तो उसके हाथ से आहार लेना कल्पता है । एयाए एसणाए एसमा लज्जा आहारेजा, एयाए एस- इस प्रकार के अभिग्रह से एषणा करते हुए आहार प्राप्त हो जाए एसमाणे गोलभेज्जा, णो आहारेज्जा । तो ग्रहण करे, यदि इस प्रकार के अभिग्रह से एषणा करते हुए आहार प्राप्त न हो तो ग्रहण न करे। बियाए से कप्पड दोष्णि बत्तीओ भोयणस्स पडिगाहेत्तए, शुक्ल पक्ष के द्वितीया के दिन प्रतिमाधारी अणगार को बोषिण पाणस्स-जाव-एपाए एसगाए एसमाणे लभेज्जा भोजन और पानी की दो-दो दत्तियाँ लेना कल्पता है-पावत्आहारेज्जा, एयाए एसणाए एसमरणे भो लभेम्जा, नो इस प्रकार के अभिग्रह से एषणा करते हुए आहार प्राप्त हो तो याहारेज्जा। ले यदि हम प्रकार के नियमों से एषणा करते हुए आहार प्राप्त न हो सो न ले। तइयाए से कम्पइ तिणि रत्तीओ भोयगस्स पडिगाहेत्सए, तीज के दिन भोजन और पानी की तीन-तीन दत्तियां ग्रहण तिष्णि पाणस-जाव-एमाए एसगाए एसमाणे लभेज्जा करना कल्पता है-यावत्-इस प्रकार के अभिग्रह से एषणा आहारेजा, एयाए एसणाए एसमाणे णो लमेजा, नो करते हुए आहार प्राप्त हो तो ले यदि इस प्रकार के नियमों से आहारेग्जा। एषणा करते हुए आहार प्राप्त न हो तो न ले। चउत्थीए से करपद उवत्तीओ प्रोयणस पनिगाहेत्तए, चौथ के दिन भोजन और पानी की चार-चार दत्तियाँ ग्रहण पाणस्स-जाव-एपाए एसणाए एसमाणे लभेज्जा आहा- करना कल्पता है यावत् -इस प्रकार के अभिग्रह से एषणा रेजना, एयाए एसणाए एसमार्ग णो लभेम्जा नो आहा- करते हुए आहार प्राप्त हो तो ले, यदि इस प्रकार के नियमों से रेज्जा । एषणा करते हुए आहार प्राप्त न हो तो न ले । पंचमौए से कप्पाह पंचवत्तीओ भोयणस्स परिणाहतए, पंच पांचम के दिन भोजन और पानी की पांच-पांच दत्तियाँ पाणस-जाब-एयाए एसणाए एसमाणे सभेज्जा महारेज्जा, ग्रहण करना कल्पता है-यावत-इस प्रकार के अभिग्रह से एमाए एसणाए एसमाणे णो लमज्जा नो आहारेज्जा। एषणा करते हुए आहार प्राप्त हो तो ले, यदि इस प्रकार के नियमों से एषणा करते हुए आहार प्राप्त न हो तो न ले। Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्र ६२४ यवमध्य चन्द्र प्रतिमा सपाचार [२६९ छट्ठीए से कप्पइ छ रत्तीओ मोयगस्स परिमाहेत्तए छपाणस्स छठ के दिन भोजन और पानी की छह-छह दत्तियां ग्रहण -जाव-एपाए एसणाए एसमाणे लभेजा आहारेजा, एयाए करना कल्पता है यावत्-इस प्रकार के अभिग्रह से एषणा एसणाए एसमाणे णो सभेज्ना नो आहारेज्जा । करते हुए आहार प्राप्त हो तो ले, यदि इस प्रकार के नियमों से एषणा करते हुए आहार प्राप्त न हो तो न ले। सत्तमीए से कप्पा सत्त दत्तीओ भोयगस्त पग्गिाहेत्तए, सत्त सातम के दिन भोजन और पानी को सात-सात दत्तियाँ ग्रहण पाणस्स-जाव-एयाए एसणाए एसमाणे लमेजा आहारेक्जा, करना कल्पता है-यावत्-इस प्रकार के अभिग्रह से एषणा एपाए एसजाए एसयाणे गो लज्जा नो बाहारेज्जा । करते हुए आहार प्राप्त हो तो ले, यदि इस प्रकार के नियमों से एषणा करते हुए आहार प्राप्त न हो तो न ले। बट्ठमीए से कापड अट्ट वत्सीको मोयणस्स पडिगाहेत्तए, अष्ट आठम के दिन भोजन और पानी की आठ-आठ दत्तियां पाणस्स-जाव-एयाए एपणाए एसमाणे लज्जा आहारेज्जा, ग्रहण करना कल्पता है-यावत--इस प्रकार के अभिग्रह से एपाए एसगाए समाणे गो लज्जा नो आहारतजा। एषणा करते हुए आहार प्राप्त हो तो ले, यदि इस प्रकार के नियमों से एषणा करते हुए आहार प्राप्त न हो तो न ले। नक्ष्मीए से कप्पइ नव दत्तीओ भोयणस्स पडियाहेत्तए, नव नवमी के दिन भोजन और पानी की नव-नव दत्तियां ग्रहण पाणस्स-जाव-एयाए एसणाए एसमाणे लभेजा आहारेज्जा, करना कल्पता है-यावत्-इस प्रकार के अभिग्रह से एषणा एयाए एसणाए एसमाणे णो लमज्जा नो आहारेज्जा करते हुए आहार प्राप्त हों तो ले, यदि इस प्रकार के नियमों से एषणा करते हुए आहार प्राप्त न हो तो न ले । वसमीए से कप्पद बस वत्तीयो भोमणस्स पनिगाहेत्तए, दस दसमी के दिन भोजन और पानी की दस-दस दत्तियां ग्रहण पाणस्स-जाव-एयाए एसणाए एसमाणे लभेम्जा आहारेषजा, करना कल्पता है---यावत् -इस प्रकार के अभिग्रह से एषणा एयाए एसणाए एसमाणे णो लभेजा नो आहारेज्जा । करते हुए आहार प्राप्त हो तो ले, यदि इस प्रकार के नियमों से एषणा करते हुए आहार प्राप्त न हो तो न ले। एगारसमोए से कप्पड एगारस दत्तीयो भोपगस्स पडिगा- ग्यारस के दिन भोजन और पानी की ग्यारह-यारह दत्तियाँ हेत्तए, एगारस पाणस्स-जाव-एयाए एसगाए एसमाणे ग्रहण करना कल्पता है-यावत्-इस प्रकार के अभिग्रह से लमेजा आहारेउजा, एयाए एसणाए एसमाण को लभेज्जा एषणा करते हुए आहार प्राप्त हो तो ले, यदि इस प्रकार के नो आहारेज्जा। नियमों से एषणा करते हुए आहार प्राप्त न हो तो न ले। बारसमीए से कप्पद वारस बत्तीमो मोपणस्स पडिगाहेत्तए, बारस के दिन भोजन और पानी की बारह-बारह दत्तियाँ बारस पाणस्स-जाव-एयाए एसणाए एसमाणे लभेज्जा आहा- ग्रहण करना कल्पता है-यावत-इस प्रकार के अभिग्रह से रेजा, एयाए एसणाए एसमागे वो लभेजा नो आहारेजा। एषणा करते हुए आहार प्राप्त हो तो ले, यदि इस प्रकार के नियमों से एषणा करते हुए आहार प्राप्त न हो तो न से। तेरसमीए से कप्पह तेरस वसीओ भोयणस्स परिगाहतए, तेरस के दिन भोजन और पानी की तेरह-तेरह दत्तियाँ तेरस पागस्त-जाव-एपाए एसणाए एसमाणे लभेम्जा पाहा- ग्रहण करना कल्पता है-पावत्- इस प्रकार के अभिग्रह से रेज्जा, एपाए एसणाए एसमाणे पो लमेजा नो आहा- एषणा करते हुए आहार प्राप्त हो तो ले, यदि इस प्रकार के रेक्जा । नियमों से एषणा करते हुए आहार प्राप्त न हो तो न ले। घोहसमीए से कम्पह पोइस रत्तीको भोयणस्स पडिगाहेत्तए, चौदस के दिन भोजन और पानी की चौदह-चौबह दत्तियां चोइस पाणस्स-जाव-एयाए एसणाए एसमार्ण लमज्जा आहा- ग्रहण करना कल्पता है-यावत्-इस प्रकार के अभिग्रह से रेग्जा, एयाए एसणाए एसमागे णो लोवा नो आहा. एषणा करते हुए आहार प्राप्त हो तो ले, यदि इस प्रकार के रेजा। नियमों से एषणा करते हुए आहार प्राप्त न हो तो न ले। पन्नरसमीए से कप्पह पन्नरस बत्तीओ मोयणस्स पडिगाहेत्तए, पूर्णिमा के दिन भोजन और पानी को पन्द्रह-पन्द्रह दतियाँ पन्नरस पाणस्स-जाव-एयाए एसणाए एसमाणे लभेजता ग्रहण करना कल्पता है-यावत्--इस प्रकार के अभिग्रह से आहारेस्त्रा, एपाए एसगाए एसमाने गो सभेजा नो करते हुए आहार प्राप्त हो तो ले, यदि इस प्रकार के नियमों से थाहारेज्जा । एषणा करते हुए आहार प्राप्त न हो तो न ले । Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३००] बरगानुयोग-२ यवमध्य चन्द्र प्रतिमा सूत्र ६२४ बहुलपक्खस्स पाडिवए से कप्पति चोइस दत्तीओ भोयणस्स कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा के दिन भोजन और पानी की चौदहपहिगाहेतए, चउद्दस पागस्स-जाव-एयाए एसणाए एसमाणे चौदह दत्तियां ग्रहण करना कल्पता है यावत् -इस प्रकार के लमेज्मा आहारेजमा, एयाए एसणाए एसमाणे को लभेज्जा अभिग्रह से एषणा करते हुए आहार प्राप्त हो तो ले, यदि इस नो आहारेजा। पकार के नियमों से एषणा करते हुए आहार प्राप्त न हो तो न ले। विड्याए से कप्पा तेरस बत्तीओ पोषणस्स पडियाहेत्तए, द्वितीया के दिन भोजन और पानी की तेरह-तरह दत्तियाँ तेरस पाणस्स-जाव-एपाए एसणाए एसमाणे लभेम्जा आहा- ग्रहण करना कल्पता है-पावत्-इस प्रकार के अभिग्रह से रेज्जा, एयाए एसणाए एसमा गोलभेजा नो आहारेना। एषणा करते हुए आहार प्राप्त हो तो ले, यदि इस प्रकार के नियमों से एषणा करते हुए आहार प्राप्त न हो तो म ले । तइयाए से कप्पड जारस वत्तीओ भोयणस्स पडिगाहेत्तए, तीज के दिन भोजन और पानी की बारह-बारह दत्तियाँ बारस पाणस्स-बाव-एयाए एसणाए एसमाण सभेज्जा ग्रहण करना कल्पता है-यावत्-इस प्रकार के अभिग्रह से आहारेज्जा, एयाए एसणाए एसमागे णो लभेजा नो एषणा करते हुए आहार प्राप्त हो तो ले, यदि इस प्रकार के आहारेज्जा। नियमों से एषणा करते हुए आहार प्राप्त न हो तो न ले । घउत्थीए से कप्पड एस्कारस दत्सीओ भोयणस्स पडि गा. चौथ के दिन भोजन और पानी की ग्यारह-ग्यारह दत्तियाँ हेत्तए, एक्कारस पागस्स-जाव-एयाए एसणाए एसमागे ग्रहण करना कल्पता है-यावत्-इस प्रकार के अभिग्रह से लज्जा माहारेज्जा, एकाए एसणाए एसमाणे णो लभेजा एषणा करते हुए आहार प्राप्त हो तो ले, यदि इस प्रकार के नो आहारेजा। निगरों से पारण मारते हुए आहार प्राप्त न हो तो न ले। पंचमीए से कप्पद दस दत्तीओ भोयणस्स पडिगाहेत्तए, दस पाचम के दिन भोजन और पानी की दस-दस दत्तियाँ ग्रहण पागस्स-जाव-एपाए एसणाए एसमागे लज्जा आहारेज्जा, करना कल्पता है यावत्-इस प्रकार के अभिग्रह से एपणा एपाए एसणाए एसमाणे णो लमज्जा नो बाहारेजा। करते हुए आहार प्राप्त हो तो ले, यदि इस प्रकार के नियमों से एषणा करते हुए आहार प्राप्त न हो तो न ले। छट्ठीए से कम्पद नव दत्सीओ मोयणस्स पविगाहेसए. नव छठ के दिन भोजन और पानी की नव-नव दत्तियाँ ग्रहण पाणल्स-जाव-एयाए एसणाए एसमाणे लज्जा आहारज्जा, करमा कल्पता है-यायत-इस प्रकार के अभिग्रह से एपण एयाए एसगाए एसमाणे णो सभेज्जा नो आहारेखमा। करते हुए आहार प्राप्त हो तो ले, यदि इस प्रकार के नियमों सा एषणा करते हुए आहार प्राप्त न हो तो म ले । सत्तभीए से कप्पड अट दत्तीओ मोयणस्स एनिगाहेस ए, सातम के दिन भोजन और पानी की आठ-आठ दत्तियाँ अट्ठ पाणस्स-जाव-एयाए एसणाए एसमाणे सभेजा आहा- ग्रहण करना कल्पता है-यावत्-इस प्रकार के अभिबह से रेज्जा, एकाए एसणाए एसमाणे गोलभेजा नो आहारेज्जा। एषणा करते हुए आहार प्राप्त हो तो ले, यदि इस प्रकार के नियमों से एषणा करते हुए आहार प्राप्त न हो तो न ले। अट्ठमीए से कप्पड सत्त वत्तीयो भोयणस्स पहिगाहेत्तए, आठम के दिन भोजन और पानी की सात-सात दत्तियाँ ग्रहण सत्त पाणस्स-जाव-एयाए एसणाए एसमाणे लज्जा करना कल्पला है—यावत-इस प्रकार के अभिग्रह से एषणा आहारेखजा, एपाए एसणाए एसमाणे णो लभेजा नो करते हए आहार प्राप्त हो तो ले, यदि इस प्रकार के नियमो से भाहारेजा। एषणा करते हुए आहार प्राप्त न हो तो न ले । नवमीए से कप्पड छ बत्तीओ भोयणस्स पहिगाहेसए,छ नवमी के दिन भोजन और पानी की छह-छह दत्तियाँ ग्रहण पाणस्स-जाव-एमाए एसगाए एसमाणे लज्मा आहारेजा, करना कल्पता है-यावत्-इस प्रकार के अभिग्रह से एषणा एयाए एसणाए एसमाणे पोलमंजानी आहारेजा करते हए आहार प्राप्त हो तो ले. यदि इस प्रकार के नियमा से एषणा करते हुए आहार प्राप्त न हो तो न ले। दसभीए से कप्पह पंच दत्तोओ भोयणस्स पडियाहेत्तए, पंच दसमी के दिन भोजन और पानी की पांच-पांच दत्तियाँ ग्रहण पाणस-जाव-एयाए एसणाए एसमाणे लमज्जा आहारेन्जा, करता कल्पता है यावत्--इस प्रकार के अभिग्रह से एषणा एपाए एसणाए एसमाणे णो लभेजा नो आहारेज्जा । करते हुए आहार प्राप्त हो तो ले, यदि इस प्रकार के नियमों से एषणा करते हुए बाहार प्राप्त न हो तो न ले। Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ६२४.६२५ वज्रमध्य चन्न प्रतिमा तपाचार [३०१ एक्कारसभीए से कप्पइ चढ दत्तोश्रो भोयणस्स पहिगाहेत्तए, ग्यारस के दिन भोजन और पानी की चार-चार दत्तियाँ चउ पागस्स-जान-एयाए एसपाए एसमाणे लभेज्जा आहा- ग्रहण करना कल्पता है-यावत-इस प्रकार के अभिग्रह से रेज्जा, एयाए एसणाए एसमाणे णो लभेजा नो आहारज्जा। एषणा करते हुए आहार प्राप्त हो तो ले, यदि इस प्रकार के नियमों से एषणा करते हुए आहार प्राप्त न हो तोभ ले। बारसमोए से कप्पा तिष्णि वत्तीओ भोयणस पडिगाहेसए, बारम के दिन भोजन और पानी की तीन-तीन दत्तियां ग्रहण तिषिण पाणस्स-जाव-एयाए एसणाए एममाणे लभेज्जा करना कल्पता है -यावत् .. इस प्रकार के अभित्रह से एपणा आहारेज्जा, एयाए एसणाए एसमाणे को लज्जा नो करते हुए आहार प्राप्त हो तो ले, यदि इस प्रकार के नियमों से आहारेषजा। एषणा करते हुए आहार प्राप्त न हो तो न ले। तेरसमीए से रप्पन दो यत्तीओ मोयणस्स पडिगाहेत्तए. यो तेरस के दिन भोजन और पानी की दो दो दत्तियाँ ग्रहण पाणस-जाव-एयाए एसगाए एसमाणे सभेज्जा आहारज्जा. करना कल्पता है-वायत्-इस प्रकार के अभिग्रह से एषणा एयाए एसणाए एसमाणे णो लभेजा नो माहारेज्जा। करते हुए आहार प्राप्त हो तो ले, यदि इस प्रकार के नियमों से एषणा करते हुए आहार प्राप्त न हो तो न ले । चउवसमीए से कप्पड़ एगा दत्तो भोषणस्स पडिमाहेत्तए, चौदस के दिन भोजन और पानी की एक-एक दत्ती ग्रहण एगा पाणस्स-जाव-एयाए एसणाए एसमाणे लभेज्जा आहा- करना करना कल्पता है -यावत्-इस प्रकार के भिग्रह से रेन्जा, एपाए एसणाए एसमाणे णो लज्जा नो आहारज्जा। एषणा करते हुए आहार प्राप्त हो तो ले, यदि इस प्रकार के नियमों से एपणा करते हुए आहार प्राप्त न हो तो न ले । आमावासाए से य अभत्तटुभवह। अमावस के दिन वह उपवास करता है। एवं खतु एसा अवमज्जा चंदपडिमा अहासुत्त-जाव-आणाए इस प्रकार यह जवमध्य चन्द्र प्रतिमा सूत्रानुसार-यावत्-- अणुपालिया भवइ । - वव.उ. १०, सु. १.२ जिनाज्ञा के अनुसार पालन की जाती है। यहरमझा चंदपडिमा वजमध्य चन्द्र प्रतिमा६२५. बदरममं गं चंदपडियं पठिबन्नस्स अणगाररस निच्चं मास ६२५. वचमध्य चन्द्र प्रतिमा स्वीकार करने वाला अणगार एक बोसट्टकाए घियत्तदेहे जे केइ परीसहोवसग्गा समुप्पज्जेज्जा मास तक शरीर के परिकम से तथा शरीर के ममत्व से रहित -जाव-अहियासेज्जा। होकर रहे और जो कोई परीषह एवं उपसर्ग होवे-यावत् उन्हें शान्ति से सहन करे। वहरमासं जं चंदपडिम पजिवनस्स अणगारस्स, वजमध्य-चन्द्र-प्रतिमा स्वीकार करने वाले अणकार को, बहुलपक्खस्स पाडिवए से कप्पद पन्नरस दत्तीओ भोयणस्स कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा के दिन पन्द्रह-पन्द्रह दत्तिया भोजन पडिगाहेत्तए पन्नरस पाणस्स-जाव-एयाए एसणाए एसमाणे और पानी की लेना कल्पता है--यावत् -इस प्रकार के अभिग्रह लभेज्जा आहारेन्जा, एपाए एसणाए एसमाणे णो लभेज्जा से एषणा करते हुए आहार प्राप्त हो तो ग्रहण करे यदि इस जो आहारज्जा। प्रकार के अभिग्रह से एषणा करते हुए बाहार प्राप्त न हो ग्रहण न करे। जियाए से कप्पड़ चउड्स वसीओ भोयणस्स पडिगाहेसए, द्वितीया के दिन भोजन और पानी की चौदह-चौदह दत्तियाँ चउद्दस पाणस्स-जाव-एयाए एसगाए एमाणे लमेजा ग्रहण करना कल्पता है -थावत्---इस प्रकार के अभिग्रह से आहारेज्जा, एवाए एसणाए एसमाणे णो लज्मा णो एषणा करते हुए आहार प्राप्त हो तो ग्रहण करे, यदि इस प्रकार आहारेजा। के अभिमह से एषणा करते हुए आहार प्राप्त न हो तो ग्रहण न करे। तइयाए से कम्पह तेरस वसीयो भोयणस्स पडिगाहेत्तए, तीज के दिन भोजन और पानी की तेरह-तेरह दत्तियाँ ग्रहण तेरस पागस्त-जाव-एपाए एसगाए एसमाणे लग्ना आहा- करना कल्यता है-यावत्-इस प्रकार के अभिग्रह से एपणा रेज्जा, एयाए एसणाए एसमाणे णो लभेजा को आहा- करते हुए आहार प्राप्त हो तो ब्रह्म करे, यदि इस प्रकार के अभिग्रह से एषणा करते हुए आहार प्राप्त न हो ग्रहण न करे। Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२] धरणानुयोग-२ वञ्चमध्य चन्द्र प्रतिमा सूत्र ६२५ चउत्योए से कप्पइ पारस बसीओ भोयणस्स परिगाहेत्तए, चौथ के दिन भोजन और पानी की बारह-बारह दत्तियाँ बारस पाणस्स-जाव-एयाए एसणाए एसमाणे लभेज्जा आहा- ग्रहण करना कल्पता है यावत्-इस प्रकार के अभिग्रह से रेग्जा, एयाए एसणाए एसमाणे णो लभेजा जो आहारेज्ना। एषणा करते हुए आहार प्राप्त हो तो ग्रहण करे, यदि इस प्रकार के अभिग्रह से एषणा करते हुए आहार प्राप्त न हो ग्रहण न करे। पंचमीए से कप्पड एगारस वत्सीओ भोपगस्स परिगाहेत्तए, पाँचम के दिन भोजन और पानी की ग्यारह-न्यारह दत्तिमा एगारस पाणस्स-जान-एयाए एसगाए एसमागे लभेजा ग्रहण करना कल्यता है-थावत्-इस प्रकार के अभिग्रह से आहारज्जा, एयाए एसणाए एसमाणे गो लभेज्जा णो एपणा करते हुए आहार प्राप्त हो तो ग्रहण करे यदि आहारेज्जा। के अभिग्रह से एपणा करते हुए आहार प्राप्त न हो तो ग्रहण न करे। छट्ठीए से कप्पइ इस दत्तीओ मोयणस्म पडिगाहेत्तए, दस छठ के दिन भोजन और पानी को दस-दस दत्तियाँ ग्रहण पाणस्स-जाद-एयाए एसणाए एसमाणे लभेज्जा आहारेमा, करना कल्पता है-यावत् -इस प्रकार के अभिग्रह से एषमा एयाए एसणाए एसमाणे पो लमेमा णो आहारेमा । करते हुए माहार प्राप्त हो तो ग्रहण फरे, मदि इस प्रकार के अभिग्रह से एषणा करते हुए आहार प्राप्त न हो तो ग्रहण न करे। सत्तमोए से कप्पद नघ वत्तीओ भोयणस्स पडिगाहेत्तए, नय सातम के दिन भोजन और पानी की नव-नव दत्तियां ग्रहण पाणस्स-जाब-एपाए एमणाए एसमाणे सभेज्मा थाहारेजमा, करना फल्पता है यावत्-इस प्रकार के अभिग्रह से एषणा एयाए एसणाए एसमाणे जो लभेज्जा णो आहारज्जा। करते हुए आहार प्राप्त हो तो ग्रहण करे, यदि इस प्रकार के अभिग्रह से एषणा करते हुए आहार प्राप्त नही तो ग्रहण न करे। अट्ठमोए से कप्पइ अट्ट बत्तीको भोयणस्स पडिगाहेत्तए, अट्ट आम के दिन भोजन और पानी की आठ-आठ दत्तियाँ पाणस्स-जाव-एयाए एसणाए एसमाणे सभेज्जा आहारेज्जा, ग्रहण करना कल्पता है यावत्-इस प्रकार के अभिग्रह से एपाए एसणाए एसमागे णो लभेजा णो आहारेज्जा। एषणा करते हुए आहार प्राप्त हो तो ग्रहण करे, यदि इस प्रकार के अभिग्रह से एषणा करते हुए आहार प्राप्त न हो तो ग्रहण न करे। नवमीए से कप्पद सत्त वत्तीभो भोयणस्स परिगाहेत्तए, सत्त नवमी के दिन भोजन और पानी की सात-सात दत्तियां ग्रहण पागस्स-जाव-एयाए एसपाए एसभाणे सभेज्जा आहारेज्जा, करना कल्पता है यावत्-इस प्रकार के अभिग्रह से एषणा एमाए एसणाए एसमाणे गोलमेजा णो आहारेजा। करते हुए बाहार प्राप्त हो तो ग्रहण करे, यदि इस प्रकार के अभि ग्रह से एषणा करते हुए आहार प्राप्त न हो तो ग्रहण न करे। बसमीए से कप्पद छ वतीभो भोयणम्स पबिगाहेत्तए, छ दसमी के दिन भोजन और पानी की छह-छह दत्तियाँ ग्रहण पागल-जाव-एयाए एसणाए एसमाणे लभेज्जा आहारेषजा, करना कल्पता है-यावत्-इस प्रकार के अभिग्रह से एषणा एयाए एसणाए एसमाणे गोलभेषमा णो माहारेण्णा । करते हुए आहार प्राप्त हो तो ग्रहण करे, यदि इस प्रकार के अभिग्रह से एषणा करते हुए आहार प्राप्त न हो तो ग्रहण न करे ।। एगारसमीए से कप्पद पंच यत्तीको भोयणस्स पडिगाहेत्तए, ग्यारस के दिन भोजन और पानी की पांच-पांच दत्तिय पंच पाणस्स-जाव एवाए एसणाए एसमाणे सभेचा माहा- ग्रहण करना कल्पता है-यावत्-इस प्रकार के अभिग्नह से रेल्जा, एयाए एसणाए एसमाणे णो लग्या गो माहा- एषणा करते हुए आहार प्राप्त हो तो ग्रहण करे, यदि इस प्रकार के अभिग्रह से एषणा करते हुए आहार प्राप्त न हो तो ग्रहण न करे। Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ६२५ वनमध्य चरा प्रतिमा तपाचार [३०३ शरसमोए से कप्पइ पर सीओ भोयणस्स पडिगाहेत्तए, बारस के दिन भोजन और पानी की चार-बार दत्तियां चउ पागस्स-जाव-एबाए एसगाए एसमाणे लभेज्जा आहा- ग्रहण करमा कल्पता है यावत्-इस प्रकार के अभिग्रह से रज्जा, एयाए एसणाए एसमागे णो समेजा णो आहा- एपणा करते हुए आहार प्राप्त हो तो ग्रहण करे, यदि इस प्रकार के अभिग्रह से एषणा करते हुए आहार प्राप्त न हो तो ग्रहण रेज्जा । तेरसमोए से कप्पा तिन्नि वसीओ भोपणस्स पचिगाहेत्तए, तेरस के दिन भोजन और पानी की तीन-तीन दत्तियों तिम्ति पाणस्स-जाय-एयाए एसणाए एसमाणे सभेमा आहा- ग्रहण करना कल्पता है-यावत्-इम प्रकार के अभिग्रह से रेज्मा, एयाए एसगाए एसमाणे णो सभेजा णो आहा- एषणा करते हुए आहार प्राप्त हो तो ग्रहण करे, यदि इस प्रकार रेज्जा । के अभिग्रह से एपणा करते हुए आहार प्राप्त न हो तो ग्रहण न करे। चजबसमीए से कम्पह दो बत्तीओ भोथणस्स पडिगाहेत्तए, चौदस के दिन भोजन और पानी की दो-दो दत्तियाँ ग्रहण वो भोयणस्स-जाब-एयाए एसणाए एसमाणे सभेज्ना आहा- करना कल्पना है-यावत्-इस प्रकार के अभिग्रह से एषणा रेग्मा, एयाए एसणाए एसमाणे णो लभेज्जा पो आहा- करते हुए आहार प्राप्त हो तो ग्रहण करे, यदि इस प्रकार के रेज्जा । अभिग्रह से एषणा करते हुए आहार प्राप्त न हो तो ग्रहण न करे। आमावासाए से कापड एगा वत्ती भोयणस्स एनिगाहेत्तए, अमावस्या के दिन भोजन और पानी की एक-एक दत्सी एगा पाणस्स-जाव.एकाए एसणाए एसमाणे लमज्जा आहा- महण करना कल्पता है-यावत्- इस प्रकार के अभिग्रह से रेज्जा, एयाए एसगाए एसमागे णो लज्जा णो आहा- एषणा करते हुए आहार प्राप्त हो तो ग्रहण करे, यदि इस प्रकार रेज्जा । के अभिग्रह से एषणा करते हुए आहार प्राप्त न हो तो ग्रहण न करे। मुक्कपक्सस्स पडियए से कप्पा दो बत्तीओ मोयणस्स परि- शुक्लपक्ष की प्रतिपदा के दिन भोजन और पानी की दो-दो गाहेत्तए, वो पाणस्स-जाव-एपाए एसणाए एसमाणे लभेगमा दत्तियाँ ग्रहण करना कल्पता है यावत्-इस प्रकार के अभिआहारज्जा, एयाए एसणाए एसमागे गो लभेजा गो ग्रह से एषणा करते हुए आहार प्राप्त हो तो ग्रहण करे, यदि आहारेज्जा । इस प्रकार के अभिग्रह से एषणा करते हुए आहार प्राप्त न हो तो ग्रहण न करे। विजाए से कप्पड तिनि वत्तीओ भोगणस्स पडिगाहेत्तए, द्वितीया के दिन भोजन और पानी की तीन-तीन दत्तियाँ तिधि पाणस्स-जाब-एमाए एसगाए एसमाणे लमज्जा आहा- ग्रहण करना कल्पता है-पावत्-इस प्रकार के अभिग्रह से रेज्जा, एयाए एसमाए एसमाणे णो लर्भज्जा को आहा- एषणा करते हुए आहार प्राप्त हो तो ग्रहण करे, यदि इस प्रकार रेज्जा । के अभियह से एषणा करते हुए आहार प्राप्त न हो तो ग्रहण न करे। तड्याए से कप्पद घर दत्तीयो भोयणस्स पडिगाहेत्तए, पर तीज के दिन भोजन और पानी को चार-चार दत्तियों पागस्स-जाव-एयाए एसणाए एसमाणे लमज्जा आहारेजा, गहण करना कल्पता है यावत्-इस प्रकार के अभिग्रह से एयाए एसणाए एसमाणे णो सभेम्जा णो आहारेज्जा । एषणा करते हुए आहार प्राप्त हो तो ग्रहण करे, यदि इस प्रकार के अभिग्नह से एषणा करते हुए आहार प्राप्त न हो तो ग्रहण न करे। चउत्थीए से कप्यह पंच बत्तीओ मोयणस्स पडिगाहेसए, पंच चोथ के दिन भोजन और पानी की पांच-पाँच दत्तियां ग्रहण पाणस्स-जाव-एमाए एसणाए एसमाणे सभेज्जा आहारज्जा, करना कल्पता है-यावत्-इस प्रकार के अभिग्रह से एषणा एपाए एसणाए एसमा णो लभेषमा णो माहारेजा । __करते हुए आहार प्राप्त हो तो ग्रहण करे, यदि इस प्रकार के अभिग्रह से एषणा करते हुए आहार प्राप्त न हो तो ग्रहण न करे। Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ परणानुयोग-२ वचमध्य चन्द्र प्रतिमा पत्र ६२५ पंचमीए से कप्पद छ बत्तीओ प्रोमणस पहिगाहेत्तए, छ पाचम के दिन भोजन और पानी की छह-छह दत्तिया राणस्स-जाव-एयाए एसणाए एसमाणे लमेण्जा आहारेज्जा, ग्रहण करना कल्पता है-यावत्- इस प्रकार के अभिग्रह से एयाए एसणाए एसमा गोलभेम्जा को आहारज्जा । एषणा करते हुए आहार प्राप्त हो तो ग्रहण करे, यदि इस प्रकार के अभिग्रह से एषणा करते हुए आहार प्राप्त न हो तो ग्रहण न करे। छट्ठीए से कप्पड सत्त रत्तीयो भोयणस्स पनिगाहेत्तए, सत्त छठ के दिन भोजन और पानी की सात-सात दत्तियो ग्रहण पाणस्स-जाव-एयाए एसणाए एसमाणे सभेजा आहारज्जा, करना कल्पता है-पावत्-हम प्रकार के अभिग्रह से एषणा एयाए एसणाए एसमाणे णो लमेज्जा णो आहारज्जा। करते हुए आहार प्राप्त हो तो ग्रहण करे, यदि इस प्रकार के अभिग्रह से एषणा करते हुए माहार प्राप्त न हो तो ग्रहण न करे। सत्तमीए से कप्पा अट्ट दत्सीओ भोयणस्स पडिगाहेसए, मट्ट मातम के दिन भोजन और पानी की आठ-आठ दत्तियां पागस्स-जाव.एवाए एसणाए एसमाणे लमज्जा आहारज्जा, ग्रहण करना कल्पता है-यावत्---इस प्रकार के अभिग्रह से एपाए एसणाए एसमाणे णो लभेज्जा णो आहारेज्जा। एषणा करते हुए आहार प्राप्त हो तो ग्रहण करे, यदि इस प्रकार के अभिग्रह से एषणा करते हुए आहार प्राप्त न हो तो पहण में करे। अट्टमीए से पप्पर नब बत्तीओ भोयणस्स पडिगाहेत्तए नत्र आठ के दिन भोजन और पानी की भय-नव दत्तियां ग्रहण पाणस्स-जाव-एमाए एसणाए एसमाणे लमज्जा आहारेमा, करता कल्पता है यावत्-इस प्रकार के अभिग्रह से एषणा एयाए एसणाए एसमाणे णो लभेमा णो आहारेज्जा । करते हुए आहार प्राप्त हो तो ग्रहण करे, यदि इस प्रकार के अभिग्रह से एपणा करते हुए आहार प्राप्त न हो तो ग्रहण न करे। नवभीए से कप्पड़ बस बत्तीओ भोयणस्स पडिगाहेत्तए, इस नवमी के दिन भोजन और पानी की दस दस दतियां ग्रहण पाणस्स-जाव-एयाए एसणाए एसमागे लमज्जा आहारेजा, करना कल्पता है—यायत्-. इस प्रकार के अभिग्रह से एषणा एपाए एसणाए एसमाणे णो लभेजा णो आहारेडना । करते हुए आहार प्राप्त हो तो ग्रहण करे, यदि इस प्रकार के अभिग्रह से एषणा करते हुए आहार प्राप्त न हो तो ग्रहण न करे। वसमीए से कम्पह एगारस दसीओ भोयणस्स पडिगाहे सए, दसमी के दिन भोजन और पानी की ग्यारह-ग्यारह दत्तियां एपारस पाणस्स-जाव-एयाए एसपाए एसमाणे सभेजा ग्रहण करना कल्पता है-यावत्-इस प्रकार के अभिग्नह से आहारेज्जा, एवाए एसणाए एसमाणे जो सभेजा जो एषणा करते हुए आहार प्राप्त हो तो ग्रहण करे, यदि इस प्रकार आहारज्जा । के अभिग्रह से एषणा करते हुए आहार प्राप्त न हो तो ग्रहण न करे। एगारसमीए से कप्पइ वारस बत्तीयो भोयगस्स पडियाहेत्तए, ग्यारस के दिन भोजन और पानी की बारह-बारह दत्तियां वारस पागस्स-जाय एयाए एसणाए एसमाणे लज्जा ग्रहण करना कल्पता है-पावत्-इस प्रकार के अभिग्रह से आहारेज्ना, एकाए एसगाए एसमाणे णो लभेजा गो एषणा करते हुए आहार प्राप्त हो सो ग्रहण करे, यदि इस प्रकार आहारेज्जा। के अभिग्रह से एषणा करते हुए आहार प्राप्त न हो तो ग्रहण न करे। बारसमीए से कापड तेरस पसीओ भोयणस्स पडिगाहेत्तए, बारस के दिन भोजन और पानी की तेरह-तरह दत्तियाँ तेरस पाणस्स-जाब-एयाए एसणाए एसमाणे लमेवजा आहा- ग्रहण करना फल्पता है-यावत्-इस प्रकार के अभिग्रह से रेजा. एवाए एसणाए एसमाणे गोलभेषा णो आहा- एषणा करते हुए आहार प्राप्त हो तो ग्रहण करे, यदि इस प्रकार रेज्जा । के अभिग्रह से एषणा करते हुए आहार प्राप्त न हो तो ग्रहण न करे। Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ६२५-६२७ दत्ति प्रमाण निरूपण तपाचार [३०५ तेरसमीए से कप्पद चजहस रत्तीओ भोयणस्स पढिगाहेलए, तेरस के दिन भोजन और पानी की चौदह-चौदह दत्तियाँ पउद्दस पाणस्स-जाव-एयाए एसणाए एसमाणे लभेजा ग्रहण करना कल्पता है यावत्-इस प्रकार के अभिग्रह से एषणा भाहारेजा, एयाए एसणाए एसमार्ग पो लभेजा गो आहा- करते हुए आहार प्राप्त हो तो ग्रहण करे, यदि इस प्रकार के अभिरेजा। ग्रह से एषणा करते हुए आहार प्राप्त न हो तो ग्रहण न करे। चउहसमीए से कप्पइ पन्नरस दत्तोओ मोषणस्स पडिगाहेत्तए, शुक्ल पक्ष की चौदस के दिन भोजन और पानी की पन्द्रहपत्ररस पाणस्स-जाव-एमाए एसणाए एसमाणे सभेज्जा आहा- पन्द्रह दत्तियाँ ग्रहण करना कल्पता है-पावत्-इस प्रकार के रेज्जा, एयाए एसगाए एसमाणे णो सभेवजा णो आहा- अभिग्रह से एषणा करते हुए आहार प्राप्त हो तो ग्रहण करे, यदि रेज्जा इस प्रकार के अभिग्रह से एपणा करते हुए आहार प्राप्त न हो तो ग्रहण न करे। पुणिमाए से य अम्मत्त₹ भवइ । पूर्णिमा के दिन वह उपवास करता है। एमाए पर दाडिमा अहासुतं-जात्र-आणाए इस प्रकार यह वन-मध्य चन्द्र प्रतिमा मूत्रानुसार-पावत्अणपालिया मवई। -वव. उ. १०, शु. ३-४ जिनाजानुसार पालन की जाती है। दत्तिपरिमाण निरुवर्ण दत्ति प्रमाण निरूपण-. ६२६. संवादत्तियस्स मिक्लुस्स पडिग्गहयारिस्स गाहावहकुल ६२६. दत्तियों की संख्या का अभिग्रह करने वाला पात्रधारी पिढवाय पडियाए अणुविदुस्स, गिन्य गृहस्थ के घर में आहार के लिए प्रवेश करे उस समयजावइयं जावइयं केद अन्तो पडिगगहंसि वइत्ता दलएज्जा (१) आहार देने वाला गृहस्थ पात्र में जितनी बार झुकाकर तावहयाओ ताओ दत्तीओ वत्तवं सिया । (नमाकर) आहार दे उतनी ही "दत्तियां" कहनी चाहिये। तत्य से केह छब्बएवं वा. बूसएणं वा, बालएणं वा, अन्तो (२) आहार देने वाला गृहस्थ यदि छबड़ी से. वस्त्र से या पडिग्गहंसि उवहत्ता बलएज्जा सध्या विणं सा एगा दत्तो चलनी से बिना रुके पात्र में झुक कर दे वह सब एक दत्ती कहनी यत्तम्ब सिया। चाहिए । सत्य से वहवे मुंजमाणा सम्वे ते सयं सय पिसाहणिय (३) आहार देने वाले गृहत्य जहां अनेक हों और वे सब अन्तो पडिग्गहसि उवइता दलएज्जा, सव्वा वि गं सा एगर अपना-अपना आहार सम्मिलित कर बिना रुके पात्र में झुकाकर दस्ति वत्तवं सिया। दें वह सब "एक दत्ती" कहनी चाहिए। संसादत्तियास गं भिक्खुस्स पाणिपडिमाहियस्स गाहावरफुल दत्तियों की संख्या का अभिग्रह करने वाला कर-पात्रभोजी पिण्डवाय-पडियाए अणुपविटुस्स, निन्थ गृहस्थ के घर में आहार के लिए प्रवेश करे उस समयजावइयं जावक्ष्य के अन्तो पाणिसि उवइत्ता दलएज्जा, (१) आहार देने वाला गृहस्थ जितनी बार झुकाकर भिक्षु के तावश्याओ ताओ दत्तोओ बत्तव्य सिया। हाथ में आहार दे उतनी ही "दत्तियों" कहनी चाहिए। तत्प से केव घरबएणं वा, दूसएग वा, वालएण वा अन्तो (२) आहार देने वाला गृहस्थ यदि छबड़ी से, वस्त्र से या पाणिसि उपइत्ता बलएज्ना, सध्या विणं सा एगा वत्ती चलनी से बिना रुके भिक्षु के हाथ में जितनः आहार दे वह सब वत्सव्वं सिया । "एक दत्ती" कहनी चाहिए। तत्य से बहवे मुंजमाणा सवे ते सयं सयं पिण्डं 'साहणिय (३) आहार देने वाले गृहस्थ जहाँ अनेक हों और ये सब अम्तो पाणिसि उबहत्ता बलएक्जा सव्वा वि पं एगा रत्ती अपना-अपना आहार सम्मिलित कर बिना रुके भिक्ष के हाथ में बत्तव्य सिया । -बब. उ. ६, सु. ४३-४४ झुकाकर दे वह सब "एक दत्ती" कहनी चाहिए। मोयपडिमा विहाणं मोक-प्रतिमा-विधान - ६२७. दो पडिमाओ पश्णत्ताओ, तं जहा ६२७. दो प्रतिमाएं कही गई हैं, यथा१. ड्डिया वा मोयपडिमा, २. महल्लिया था मोयपडिमा। (१) छोटी प्रस्रवण प्रतिमा, (२) बड़ी प्रनवण प्रतिमा । खुष्टियं मोयपडिम पडिवनस्स अपगारस्स कप्पद पढम- छोटी प्रस्रवण प्रतिमा शरदकाल के प्रारम्भ में अथवा ग्रीष्मपरय-काल समयसि वा चरम-नियाह-काल-समयसि वा, काल के अन्त में ग्राम के बाहर-पावत् - सनिवेश के बाहर, बहिया गामस्स वा-जाव-सनिबेस्स वा वर्गसि वा, वणवुमांसि वन में या वन दुई में, पर्वत पर या पर्वत दुर्ग में अणगार को था, पटवर्यसि वा, एन्वयवुग्गसि वा । धारण करना कल्पत्ता है। Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६] परणानुयाग-२ मोक प्रतिमा-विधान पूत्र ६२७ मोच्या आक्रमह, चोइसमेग पारेइ, यदि भोजन करके उस दिन इस प्रतिमा को धारण करता है तो छह उपवास से इसे पूर्ण करता है। अमोच्या आरूपह, सोलसमेण पारे । ____ यदि भोजन किये बिना अर्थात् उपवास के दिन इस प्रतिमा को धारण करता है तो सात उपचास से इसे पूर्ण करता है। जाए जाए मोए आगBE, ताए ताए आईयो । इस प्रतिमा में भिक्षु को जितनी बार मूत्र आवे उतनी बार पी सेना चाहिए। दिया आगच्छद आईयग्बे, रति आगच्छाई नो भाईयम्चे। दिन में आवे तो पीना चाहिए किन्तु रात में आवे तो नहीं पीना चाहिए। सपा मते मागच्छह नो आईयय, अपामै मसे छह कृमि युक्त आवे तो नहीं पीना चाहिए, किन्तु कृमि रहित आईयव्ये। आवे तो पीना चाहिए। सबीए मत्त आगच्छइ नो आईयव्ये, अवोए मत्ते आगच्छा वीर्य सहित आवे तो नहीं पीना चाहिए किन्तु बौर्य रहित आईयध्वे । आवे तो पीना चाहिए। ससिणि मत्ते आगच्छा नो आईयवे, अससिणि मते चिकनाई सहित आवे तो नहीं पीना चाहिए किन्तु चिकनाई आगच्छा भाईयवे । रहित आवे तो पीना चाहिए। ससरले मते आगच्छह आईयवे, अससरपखे मसे आगग्छह रज (रक्त कण) सहित आवे तो नहीं पीना चाहिए किन्तु बाईयवे। रज रहित आवे तो पीना चाहिए। जावइए जावइए मोए आगच्छड, तावहए तावइए सम्वे जितना जितना मूत्र आये उतना-उतना सब पी लेना चाहिए, बाईयव्ये, जहा--- यथाअप्पे वा, बहुए वा। अल्प हो या अधिक । एवं खलु एसा बुडिया मोयपजिमा महासुसं-जाव-आणाए इस प्रकार यह छोटी प्रनवण प्रतिमा सूत्रानुसार यावत्अणुचालित्ता मवद। जिनाज्ञानुसार पासन की जाती है। महल्लियं गं मोयपडिम परिवनास अपवारस्स कप्पह से बड़ी प्रमवण प्रतिमा शरदकाल के प्रारम्भ में या ग्रीष्मकाल पक्षम-सरय-काल-समयसि वा, परम-निदाह-काल-समयसि के अन्त में ग्राम के बाहर-पावत्-सनिवेश के बाहर बन में या, बहिया गामस्स या-जाव-सनिवेसस्स वा वर्णसिवा, या वन दुर्ग में, पर्वत पर या पर्वत दुर्ग में अणगार को धारण वणवुग्गसि वा, पव्वयंक्ति वा, पव्ययम्पंसि वा, करना कल्पता है। भोग्या आरुभइ, सोलसमेणं पारे, यदि भोजन करके उसी दिन इस प्रतिमा को धारण करता है तो सात उपवास से इसे पूर्ण करता है। अभोच्या आवमा, अट्ठारसमेगं पारे । यदि भोजन किये बिना अर्थात् उपवास के दिन इस प्रतिमा को धारण करता है तो आठ उपवास से इसे पूर्ण करता है। माए जाए मोए आगच्छद, ताए ताए आईपवे । इस प्रतिमा में भिक्षु को जब-जब मूत्र आवे तब-तब पी लेना चाहिए। दिया आगमछ। आईयने, रति आगच्छह नो आईयव्वे यदि दिन में आवे तो पीना चाहिए किन्तु रात में पाये तो -जाव-एवं खलु एसा महल्लिया भोयपडिमा अहासुसं-जाव- नहीं पीना चाहिए-यावत्-इस प्रकार यह बड़ी प्रावण प्रतिमा अणुपालिता अबइ। -स्व.उ.६, सु. ४१-४२ सूत्रानुसार-यावत्-जिनाशानुसार पालन की जाती है। Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पून ६२८ प्रतिमाओं का संग्रह सपाचार [३०७ प्रतिमा-संग्रह-८(५) पडिमा संगहो६२८. बाणउई पडिमाओ पण्णताओ। प्रतिमाओं का संग्रह६२८. प्रतिमाएँ ९२ (बानवें) कही गई हैं। -सम. स. ९२, सु. १ १ समवायांग की टीका के अनुसार १२ पडिमाओं का विवरण, मूल पडिमाएं पांच(१) समाधि पडिमा, (२) उपधान पडिमा, (३) विवेक पडिमा (४) प्रतिसलीनता पडिमा, (३) एकल विहार पडिमा। समाधि पडिमा दो प्रकार की है(१) श्रुत समाधि पडिमा (२) चारित्र समाधि पडिमा । धु सावितमा के ६२ मंद हैआचारांग प्रथम श्रुतस्कंध में ५ पडिमा, द्वितीय श्रुत स्कंध में ३७ पडिमायें, स्थानांग में २६ पडिमायें, व्यवहार सूत्र में ४ पडिमायें, इस प्रकार ५ + ३७-५-१६+४ पे सब मिलकर ६२ पडिमायें हुई हैं। उपधान पशिमा के २३ भेद हैभिक्षु पडिमा के १२ भेद, धमणोपासक पडिमा के ११ भेद ये २३ हए । एक विवेक पढिमा और एक प्रतिसंलीनता पढिमा ये २५ हुए। ५ चारित्र पडिमा । सब मिलाकर ९२ पडिमायें हैं। ये १२ भेद टीकाकार ने दशा. नियुक्ति से उद्धृत किये हैं। टीकाकार कृत इस दिवरण में पांच मूल पडिमायें किस आगम में कही गई हैं ऐसा स्पष्ट कथन नहीं है। पाँच मूल पडिमाओं में से पांचवीं एकल विहार पडिमा को १२ भेदों में लेने का निषेध करके ऐष पार पडिमायें ही लेने का कथन है। यदि ऐसा ही अभीष्ट था तो स्थानांग ब. ४, ३.१ में उक्त पार पडिमाओं को मूल पडिमा क्यों नहीं कहा गया? समयायांग टीकाकार कृत विवरण में केवल पद्धिमानों की संख्या का निर्देशा है। किन्तु किस आगम में से कौन-सी पदिमायें यहाँ ली गई हैं- ऐसा स्पष्ट कथन नहीं है। विवरण में निर्दिष्ट पडिमाओं की संख्या और आगमों में उपलब्ध पहिमानों की संख्या इस प्रकार हैमिविष्ट संख्या उपलब्ध संख्या प्राचारोग श्रुत, १ में-५ अभिग्रह-१८ आचारांग श्रुत. २ में--३७ एषणा परिमायें-३७ ठाणं सूत्र में-१६ परिमायें और अभिग्रह-१८ बव. सूत्र में-४ पडिमा-१५ दशाश्रुत, सूत्र में-२३ पडिमायें-२३ उववाई-सूत्र-x भिक्षाघरी अभिग्रह अन्य बनेक अभिग्रह-३० पांच चारित्र, विवेक पहिमा और प्रतिसंलीनता पडिमा-ये अभिग्रह नहीं हैं फिर भी इन्हें पहिमानों में गिना है। दशाश्रुतस्कन्ध दशा, ७ की नियुक्ति के अनुसार ये ९२ पडिमायें अभिग्रह रूप हैं अतः यहाँ अन्य प्रकार से ६२ पडिमाओं का संकलन किया गया है। वह इस प्रकार है (मेष टिप्पण अगले पृष्ठ पर) Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८] चरणानयोग-२ विनय यावृत्य की प्रतिमाएँ विणय यावच्च पडिमाओ विनय वैयावृत्य की प्रतिमाएं६२६. एक्काणउई परखेयावच्चकम्मपडिमाओ पण्णताओ। ६२६. पर-वैयावत्यकर्म प्रतिमाएं इक्यानवें (९१) कही गई हैं । -समसम.६९,सु.१ - (शेष टिप्पण पिछले पृष्ठ का) आचा. श्रु. २ में-३७ एषणा पडिमायें दशा. द. ७ में-१२ भिक्षु पडिमायें वव. उ., १० में -८ पडिमा (चार दत्ति पडिमा, दो चन्द्र पडिमा दो मोक पडिमा) स्थानांग-ब. ५ भद्रा आदि ५ पडिमायें। औपपातिक सूत्र (भिक्षाचरी तप वर्णन) में ३० अभिग्रह पडिमा। ये सब मिलकर ६२ पडिमायें हैं। ये सब अभिग्रह रूप हैं। तथा ये सभी थमण की तप रूप ही पडिमायें हैं। पर-वैयावत्य प्रतिमायें इक्यानवें कही गई है-वे इस प्रकार हैं(१) दर्शन शान पारिवादि से गुणाधिक पुरुषों का सत्कार करना। (२) उनके आने पर खड़ा होना, (३) वस्त्रादि देकर सम्मान करना, (४) उनके बैठने के लिए आसन बिछाना, (५) आसनानुप्रदान करना-उनके आसन को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाना, (६) कृतिकर्म करना-बन्दना करना, (७) अंजली करना-हाथ जोड़ना, (4) गुरुजनों के आने पर उनके सामने जाकर स्वागत करना, (e) गुरु गोरे गमन क र उनके समा, (१०) उनके बैठने पर बैठना । यह दस प्रकार का शुश्रूषा-विनय है। तथा-(१) तीर्थकर, (२) फेवलि प्राप्त धर्म, (३) आचार्य, (४) वाचक (उपाध्याय), (५) स्थविर, (६) कुल, (७) गण, (4) संघ, साम्भोगिक, (१०) क्रिया' (आचार) विशिष्ट, (११) विशिष्ट मतिज्ञानी, (१२) श्रवज्ञानी, १३) अवधिज्ञानी, (१४) मनःपर्यज्ञानी और (१५) केवलज्ञानी इन पन्द्रह विशिष्ट पुरुषों की, (१) आशातना नहीं करना, (२) भक्ति करना, (३) बहुमान करना, (४) और वर्णवाद (गुण-गान करना) ये चार कर्तव्य उक्त पन्द्रह पद वालों के करने पर (१५xv=६०) साठ भेद हो जाते हैं । सात प्रकार का ओपचारिक विनय कहा गया है(१) अभ्यासन-वैयावृत्य के योग्य व्यक्ति के पास बैठना, (२) छन्दोऽनुवर्तन ... उसके अभिप्राय के अनुकूल कार्य करना । (३) कृतप्रतिकृति--'पसन्न हुए आचार्य हमें सूत्रादि देंगे" इस भाव से उनको आहारादि देना । (४) कारितनिमित्तकरण-पढ़े हुए शास्त्र पदों का विशेष रूप से विनय करना और उनके अर्थ का अनुष्ठान करना । (५) दुःख से पीड़ित की गवेषणा करना । (६) देश-कास को जानकर तदनुकूल वैयावृत्य करना। (७) रोगी के स्वास्थ्य के अनुकूल अनुमति देना। पाँच प्रकार के आचारों के आचरण कराने वाले आचार्य पाँच प्रकार के होते हैं उनके सिवाय उपाध्याय, तपस्वी, मोक्ष, ग्लान, गण, कुल, संघ, साधु और मनोज इनकी वैमावृत्य करने से वैयावृत्य के १४ भेद होते हैं। इस प्रकार मुश्रूषा विनय के १० भेद, तीर्थकरादि के धनाशातनादि के ६. भेद, औपचारिक विनय के ७ भेद और भाचार्य आदि के बयावृत्य के १४ भेद । इन्हें मिचाने पर (१०+६+७+१४-११) क्यानवें भेद हो जाते हैं । Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ६३०-६३३ अभिमतर-तव-परूवणं- ६३०. एसो बाहिरंग तवो, समासेण वियाहिओ । अम्मिन्तरं तवं एतो, बुच्छामि अप्पुपुवसो । अभितर तव मेया ६३१. उ० अमितरए ये १. पायच्छितं २. X. Whi अतिरए त ? भोगे १०. प्रायश्वित्त (क) (आभ्यन्तर तप ) (1) पायच्छित जग्गा चरिता६३२. चत्तारि कुम्भा पण्णत्तर, तं जहा१. मिणे, ३. परिस्साई ४. अपरिसा एवमेव च परि तंज आउरे आवतीति य संकिणे आभ्यन्तर तप का प्ररूपण - उत्त. अ. ३०, मा. २६ १. २.ए. ३. परिस्साई ४. अपरिस्साई । - ठाणं. अ. ४, उ. ४, सु. ३६० पालि जग्गा डिलेवणप्यारा६३३. ५० - कहविहाणं अंते ! पडिलेषणा पण्णत्ता ? १) ठाणं. अ. सु. ५११ (ग) उव. सु. ३० पगले जहा सं २. ४. सम्झाओ. ६. विसग्गों - वि. स. २५, उ. ७, सु. २१७ उ०- गोयम्मा ! वसविहा पडिसेवणा पण्णता, तं जहा वप्प ध्यमाव २. जजरिए. आभ्यंतर तप का प्ररूपण ६३०. यह बाह्य तप संक्षेप में कहा गया है। अब मैं अनुक्रम से आभ्यन्तर तप को कहूँगा । आभ्यंतर तप के वेद ६३१. प्र०—आभ्यन्तर तप क्या है वह कितने प्रकार है ? उ०- आन्यन्तर तप छह प्रकार का कहा गया है, यथा(१) प्रायश्चित्त, (२) विनम (३) वैयाम (४) स्वाध्याय, (६) स (५) ध्यान, जैसे तपाचार प्रायश्वित योग्य चारित्र- ६३२. कुम्भ चार प्रकार के कहे गये हैं। जैसे (१) भिन्न (फूटा ) कुम्भ, (२) जर्जरित ( पुराना ) कुम्भ, (३) परिवावी (झरने वाला) कुम्भ (४) अपरिवादी नहीं शरने वाला) कुम्भ इसी प्रकार चारित्र भी चार प्रकार का कहा गया है। — (१) भिन्न चारित्र - मूल प्रायश्चित्त के योग्य । (२) पाद प्रायश्वित के योग्य (३) परिसावी चारित्र--सूक्ष्म अतिचार वाला । [२०६ (४) अपरिसावी- बारा निर्दोष चारि प्रायश्चित योग्य प्रतिसेवना के प्रकार - ६३३. प्र० भन्ते ! प्रतिसेवता ( दोष सेवन) कितने प्रकार की कही गई है? उ०- गौतम प्रतिसेवना दस प्रकार की कही गई है, यथा (१) दर्प प्रतिसेवना अहंकार से दोष सेवन, (२) प्रमाद प्रतिसेवना आलस्य से दोष सेवन, (३) अनाभोग प्रतिसेवनमसावधानी से दोष सेवन, (४) आतुर प्रतिसेवना भूख प्यास आदि से पीड़ित होने पर दोष सेवन, - (ख) सम. स. ६, सु. १ (घ) उत्त. अ. ३०, गा. ३० (५) आपत् प्रतिसेवना-आपत्ति आने पर दोष सेवन, (६) संकीर्ण प्रतिसेवमाक्षेत्र की संकीर्णता से दोष रोवन, Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१. घरणानुयोग-२ प्रायश्चित्त का स्वरूप सत्र ६३३-६३५ सहसक्कारे, (७) सहसाकार प्रतिसेवना-अकस्मात् अनजान से अनिच्छा से दोष सेवन, पर (6) भय-प्रतिसेवना-भय से दोष सेवन, पदोसाय (E) प्रद्वेष प्रतिसेवना-रोष या द्वेष से दोष सेवन, वोमंसा (१०) विमर्श प्रतिसेवना-शिष्यों की परीक्षा के लिए -वि. स. २५, ३.७, सु. १६० दोष सेवन । पत्तारि पुरिसजाया पणता तं जहा पुरुष चार प्रकार के होते हैं१. संपागलपडिसेको गामेगे, गो पच्छणपडिसेवी, यथा -(१) कुछ पुरुष प्रकट में दोष सेवन करते हैं, किन्तु छिपकर नहीं करते, २. पच्छण्णपडिसेवी णामेगे, णो संपागस्पडिसेवी, (२) कुछ पुरुष छिपकर दोष सेवन करते हैं, किन्तु प्रकट में नहीं करते, ३. एमे संपागलपडिसेवी वि, पच्छण्णपहिसेवी वि, (३) कुछ पुरुष प्रकट में भी दोष सेवन करते हैं और छिप कर भी, ४. एगे णो संपागडपजिसेवी, णो पच्छपणपडिसेवी। (४) कुछ पुरुष न प्रकट में दोष सेवन करते हैं और न --ठाणं. अ. ४, उ. २, सु. २७२ छिपकर ही । धत्तारि पुरिसमाया पम्पत्तर, तं जहा -- पुरुष चार प्रकार के होते हैं, यथा१. संपागडपडिसेबी गाममेगे, (१) प्रकट में दोष सेवन करने वाला, २. पच्छपणपडिसेवी णाममेगे, (२) छिपकर दोष सेवन करने वाला, ३. पप्पण्णणंयोगाममेगे, (९) इष्ट वस्तु की उपलब्धि होने पर आनन्द मनाने वाला, ४. गिस्सरणणंदी गाममेगे। (४) दूसरों के चले जाने पर थानन्द मनाने वाला। -ठाणे. अ. ४, उ. २, सु. २९२ (१) पायच्छित सरूवं प्रायश्चित्त का स्वरूप६३४. बालोयगारिहाईयं, पायपिछतं तु बसविहं। १६३४. आलोचना के योग्य आदि जो दस प्रकार का प्रायश्चित्त ने भिक्खू वहई सम्म, पायच्छित्तं तमाहियं ॥ है, जिनका भिक्षु सम्यम् प्रकार से पालन करता है, वहीं प्राय -उत्त. अ. ३०, गा. ३१ पिचत्त कहा जाता है। पायच्छित्तप्पगारा प्रायश्चित्त के प्रकार६३५. १०-से कि तं पायपिछत्ते ? ६३५. प्र.-प्रायश्चित्त क्या है, वह कितने प्रकार का है? उ०-बस बिहे पायच्छित्ते पण्णत्ते, तं जहा उ०-प्रायश्चित्त दस प्रकार कहा गया है. यथा१. आलोपगारिहे, २. पडिक्कमणारिहे, (१) आलोचना के योग्य, (२) प्रतिक्रमण के योग्य, ३. तनुभयारिहे, ४.विवेगारिहे, (३) तदुपय दोनों के योग्य, (४) विवेक के योग्य, ५. विउसम्मारिहे, ६. तवारिहे, (५) व्युत्सर्च के योग्य, (६) तप के योग्य, ७. छेदारिहे, ८. भूलारिहे। (७) छेद के योग्य, (८) मूल के योग्य, ६. अणवटुप्पारिहे' १०. पारंचियारिहे। (E) अनवस्थाप्य के योग्य, (१०) पाराचिक के योग्य । -वि. स. २५, उ.७, सू. १९५ १ ठाणं. अ. १०, सु. ७३२ २ ठाणं. अ.३, उ.४, सु. १९८ ४ ठाणं 3.5, सु. ५०५ ६ (क) वि. स. २५, उ. ७. सु. २१८ ३ ठाणं. भ. ६, सु. ४८६ ५ ठाणे. अ. ६, सु. १८८ (ल) ठाणं. अ. १०, सु. ७३३ (ग) उव. सु. ३० Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १३५-६३६ आरोपणा के पांच प्रकार तपाचार [३१॥ चउबिहे पायन्छिते पण्णते, तं जहा प्रायश्चित्त चार प्रकार का कहा गया है, पया-- १. णाण-पायच्छिते, (१) ज्ञान रूप प्रायश्चित्त, २. दसण पायच्छित्ते, (२) दर्शन रूप प्रायश्चित्त, ३. परित्त पायच्छिते,' (३) चारित्र रूप प्रायश्चित्त, ४. वियत्तकिच्चे पायच्छिसे । (४) गीतार्थ रूप प्रायश्चित्त । चउम्बिहे पायच्छित्ते पणते, तं जहा प्रायश्चित्त चार प्रकार का कहा गया है, १. पजिसेवणा पायच्छित्ते, यथा-(१) प्रतिसेवना (दोष सेबन का) प्रायश्चित्त, २. संजोयणा पायच्छिते, (२) संयोजना (अनेक संयुक्त दोषों का) प्रायश्चित्त, ३. प्रारोवणा पायजिते (३) आरोपणा (बहन कराया जाने वाला अथवा, चल रहे प्रायश्चित्त के बीच में दिया जाने वाला) प्रायश्चित्त । ४, पलिउंचणा पायच्छित्ते । (४) परिकुंचना (दोष छिपाने पर दिया जाने वाला विशेष) -ठाणं. अ. ४, उ. १, सु. २६३ प्रायश्चित्त । पंचविहे बायारकप्पे पण्णत्ते, तं जहा आचार प्रकल्प (निशीय सूत्रोक्त प्रायश्चित्त) पाँच प्रकार का कहा गया है । यथा१. मासिए उग्यातिए, (१) मासिक-उद्घातिक-लघुमास रूप प्रायश्चित्त । २. मासिए अणुग्घातिए, (२) मासिक अनुदधातिक गुरुमास रूप प्रायश्चित्त । ३. चाउम्मासिए उग्यातिए, (३) चातुर्मासिक-उद्घातिक-लघु चार मास रूप प्रायश्चित्त । ४. चाउम्मासिए अणुग्धातिए, (३) चातुर्मासिक-अनुवातिक-गुरु चार मास रूप प्राय श्चित्त । ५. आरोषणा। -ठाणं, अ. ५. स. २,सु. ४३३ (५)आरोपणा वहन कराया जाने वाला भारोपणा रूप प्रायश्चित। भारोपणा-१(ख) पंच-विहा आरोवणा६३६. आरोवणा पंचविष्ठा पणता, तं जहा १. पट्टविया, २. ठषिया, आरोपणा के पांच प्रकार६३६. आरोपणा पाँच प्रकार की कही गई है, जैसे (१) प्रस्थापिता आरोपणा-बह्न कराई जाने वाली आरोपणा । (२) स्थापिता आरोषणा-कुछ समय स्थापित कर रखी जाने वाली आरोपणा। (३) कृत्स्ना भारोपणा-निरनुग्रह परिपूर्ण (एक मास की एक मास) दी जाने वाली आरोपणा । (४) अकृत्स्ना भारोपणा-अनुग्रह युक्त अपूर्ण (एक मास की १५ दिन, दो मास की २० दिन भादि) री जाने वाली भारोपणा)। ३. कसिणा, ४. अकसिगा, १ ठागं. भ. ३, उ. ४, . २०३ Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२] घरगानुयोग-२ आरोपणा के अट्ठाईस प्रकार सूत्र ६३६-६३८ ५. हाडहा। अण.. सु. पर आरोप- प्रायश्चित्त प्राप्त होने के समय से ही कराई जाने वाली आरोपणा । अट्ठावीसइ-बिहा आरोवणा आरोपणा के अट्ठाईस प्रकार६३७. अठ्ठाविसतिबिहे आयारपकप्पे पण्णत्ते, तं जहा - ६३५. भाचार प्रकल्प अट्ठाईस प्रकार का है, यथा-- १. मासिया आरोवणा, (१) एक मास की आरोपणा, २. सपंचरायमाझिया आरोवणा, (२) एक मास पांच दिन की आरोपणा, ३, सदसरायमासिया आरोषणा. (३) एक मास दस दिन की आरोपणा, ४. सपण्णरसरायमासिया आरोवणा, (४) एक स पन्द्रह दिन की आरोपणा, ५. सवीसहरायमासिया आरोवणा, (५) एक मास बीस दिन की आरोपणा, ६. सपंचयोसहराय मासिया आरोवणा, (६) एक मास पच्चीम दिन की आरोपणा, ७. दोमासिया आरोवणा, (७) दो मास की आरोपणा, ५. सपंचरायदोमासिया आरोवणा, (८) दो मास पांच दिन की आरोपणा, ६. सदसरायदोमालिया आरोवणा, (e) दो मास दस दिन को आरोषणा, १०. सपाणरसरायदोमासिया आरोवणा, (१०) दो मास पन्द्रह दिन को भारांपणा, ११. सोमवायदोमासिया आरोवणा, (११) दो मास बीस दिन की आरोपणा, १२. संपचवीसहरायदोमासिया आरोदगा, (१२) दो मास पच्चीस दिन की आरोपणा, १३. तेमासिया आरोवणा, (१३) तीन मास की आरोपणा, १४. सपंधरायतेमासिया मारोवणा, (१०) तीन मास पांच दिन को आरोपणा, १५. सवसरायतेमासिया आरोवणा, (१५) तीन मास दस दिन की आरोपणा, १६. सपण्णरसरायतेमासिया आरोवणा, (१६) तीन मास पन्द्रह दिन की आरोपणा, १७. सवीसहरायतेमासिया आरोवणा (१७) तीन मास बीस दिन को आरोपणा, १५. सपंचवीसरायतेमासिया आरोवणा, (१८) तीन माम पच्चीस दिन बी आरोपणा, १६. उमासिय आरोवणा, (१६) चार मारा की आरोपणा. २० सपंचरायचउमासिया आरोवणा, (२०) चार मास पाँच दिन को आरोपणा, २१. सदसरायचउमासिया आरोषणा, (२१) घार मास दस दिन की आरोपणा, २२. सपण्णरसरायचउमासिया भारोवणा, (२२) चार मास पन्द्रह दिन की आरोपणा २३. सवोसहरायचउमासिया आरोवणा, (२३) चार मास बीस दिन की आरोपणा, २४. सपंचवीसइरायचजमानिया आरोवणा, (२४) चार मास पच्चीस दिन की आरोपणा, २५. उग्घाझ्या आरोवणा, (२५) उद्घातिकी आरोपणा, २६. अणुरघाइया आरोवणा, (२६) अनुदघातिको आरोपणा, ३७. कलिणा आरोवणा, (२७) कसना आरोपणा, २५. अकसिणा आरोवणा 1 -सम. सम, २८, सु. १ (२८) अकृरूमा आरोपणा। वो मासियरस ठविया-आरोवणा दो मास प्रायश्चित्त की स्थापिता आरोपणा६३८. छम्मासियं परिहारट्टाणं पढविए अणगारे अंतरा दो मासिय ६३८. छः मासिक प्रायश्चित्त बहन करने वाला अणगार यदि परिहारद्वाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा-अहावरा वीसरा- प्रायश्चित्त वहन काल के प्रारम्भ में, मध्य में या अन्त में प्रयोजन 'या मारोवणा आदिमजयावसाणे सभट्ट सहेउं सकारणं हेतु या कारण से दो मास प्रायश्चित्त योग्य दोष का सेवन करके बहीणमहरित सेण पर सवीसइशपया दोमासा। आलोचना करे तो उसे न कम न अधिक बीस रात्रि की आरोपणा का प्रायश्चित्त आता है, उसके बाद पुनः दोष सेवन करले तो दो मास और बीस रात्रि का प्रायश्चित्त आता है। Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र' ६३८-६३६ दो मास प्रायश्चित्त की प्रस्थापिता आरोपणा वृद्धि तपाचार [३१३ पंचमासियं परिहारहाणं पदविए अणगारे अंतरा दो मासियं पंचमासिक प्रायश्चित्त वहन करने वाला अणगार यदि परिहारट्टाणं एडिसेबित्ता आलोएज्जा - अहावरा वीसराइया प्रायश्चित्त वहन काल के प्रारम्भ में, मध्य में या अन्त में प्रयोजन आरोवणा आविमभावसाणे सअट्ट सहेजं सकारणं महीण- हेतु या कारण से दो मास प्रायश्चित्त योग्य दोष का सेवन करके महरितं तेग परं सवीराइराइया बो मासा । आलोचना करे तो उसे न कम न अधिक वीरा रात्रि की आरोपणा का प्रायश्चित्त आता है, उसके बाद पुनः दोष सेवन कर ले तो दो मास और बीस रात्रि का प्रायश्चित्त आसा है। चाउम्मासियं परिहारट्टाणं पट्टविए अणणारे अंतरा दो मासियं चातुर्मासिक प्रायश्चित्त वहन करने वाला अणगार यदि परिहारद्वाण पडिसेबित्ता आलोगजा-अहावरा योसमराहमा पपिचत्त वहन काल के प्रारम्भ में, मध्य में या अन्त में प्रयोआरोवणा आदिमझावसाणे सअट्ठ सहेजें सकारणं अहीण- जन हेत या कारण से दो मास प्रायश्चित्त योग्य दोष का सेवन महरित तेण परं सवीसनराइया दो मासा । करके आलोचना करे तो उसे न कम न अधिक बीस रात्रि की आरोपणा का प्रायश्चित्त आता है, उसके बाद पुन: दोष सेवन करले तो दो मास और वीस रात्रि का प्रायश्चित्त आता है। तेमासियं परिहारट्ठाणं पट्टबिए अणगारे अंतरा दो मासियं मासिक प्रायश्चित्त वहन करने वाला अणगार यदि प्रायपरिहारवाणं पडिसेवित्ता आलोएन्जा-बहावरा बीसह- श्चित्त वहन काल के प्रारम्भ में, मध्य में या अन्त में प्रयोजन राश्या आरोवणा आदिमजमावसाणे सअट्ठं सहेङ सकारणं हेतु या कारण से दो मास प्रायश्चित्त योग्य दोष का सेवन करके अहीणमइरिसं तेण पर सवीसइराइया दो मासा । आलोचना करे तो उसे न कम न अधिक बीस रात्रि की आरोपणा का प्रायश्चित्त आता है, उसके बाद पुन: दोष सेवन करले तो दो मास और बीस रात्रि का प्रायश्चित्त आता है। वो मासियं परिहारट्ठाणं पविए अणगारे असरा दो दो मासिक प्रायश्चिन बहन करने वाला अणगार यदि मासियं परिहारहाणं पठिसेवित्ता आलोएज्जा अहावरा प्रायश्चित्त वहन काल के प्रारम्भ में, मध्य में या अन्त में प्रयोपोसइराइया आरोवणा आदिममावसाणे सअट्ठ सहे जन हेतु या कारण से दो माम प्रायश्चित्त योग्य दोष का सेवन सकारणं अहीणमहरितं तेण परं सवालइराख्या दो मासा। करके आलोचना करे तो उसे न कम न अधिक वीस रात्रि की आरोपणा का प्रायश्चित्त आता है, उसके बाद पुनः दोष सेवन करले तो दो मास और बीस रात्रि का प्रायश्चित्त आता है। मासियं परिहारट्ठाणं पठविए अणगारे अंतरा दो मासिय मासिक प्रायश्चित्त बहन करने वाला अणगार यदि प्रायपरिहारट्ठाणं पडिसे बित्ता आलोएज्जा-- अहावरा बोसइ- श्चित्त यहन बाल के प्रारम्भ में, मध्य में या अन्त में प्रयोजन राइया आरोवणा आदिमज्यावसाणे सअट्ठं सहेजे सकारगं हेतु कारण से दो मास प्रायश्चित्त योग्य दोष का सेवन करके अहीणमहरित तेण परं सबोसइराइया दो मासा । आलोचना करे तो उसे न कम न अधिक बीस राषि की आरो नि. उ २०, सु २१-२६ पणा का प्रायश्चित्त आता है, उसके बाद पुनः दोष सेवन करले लो दो मास और बीस रात्रि का प्रायश्चित्त आता है। दो मासियस पट्टविया आरोवणा बुढि-- दो मास प्रायश्चित्त की प्रस्थापिता आरोषणा वृद्धि - ६३६. सवीसइराइयं दो मासियं परिहारट्ठाणं पढविए अणमारे ६३६. दो मास और वीस रात्रि का प्रायश्चित्त वहन करने अंतरा दो मासिय परिहारट्ठाणं परिसे वित्ता आलोएज्जा - वाला अणगार यदि प्रायश्चित्त बहन काल के प्राम्भ में, मध्य अहावरा वोसइराइया आरोवणा आदिमजावसाणे सअट्ढे में या अन्त में प्रयोजन, हेतु या कारण मे दो मास प्रायश्चित्त सहेजें सकारणं अहोणमहरित सेण परं सदसराया तिष्णि- योग्य दोष का रोवन करके आलोचना करे तो उसे न कम न मासा । अधिक बीस रात्रि की आरोपणा का प्रायश्चित्त आता है। जिसे संयुक्त करने पर तीन मास और दस रात्रि की प्रस्थापना होती है। Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४] २ एक मास प्रायश्चित्त की स्थापिता क्षारोपणा सबसराय-तैमासियं परिहारार्थ किए अणगारे अंतरा दो माल परिहाराणं पडिसेवित्ता आलोएम्ता अहा यश बोसइराहया आरोषणा आदिमन्क्षावसाये सअहं सहे सकारणं अहोणमइरितं तेण परं चतारि मासा | भाउमाथि परिहारानं पढलिए चमारे अंतरा मासि परिहाराणं पडिसेविता आलोएब्जा - अहावरा वीसइराइया आरोवणार आदिमज्ज्ञावसाने स सह सकारणं अहोषमरितं तेण परं सबोसड़ाइया पत्तारि मासा । सवीसराय चाउमा सियं परिहारट्ठाणं पविए अणगारे अंतरा दो मास परिहाराणं परिसेविता] आमाआलोएज्जाअहावरा वीसहराइया आरोषणा आदिमन्शासा सअर्द्ध सहेज सकारण अहीणमस्ति तेण परं सदसराया पंचमासा | सराय पंचमारियं परिहाराणं पविए अणगारे अंतरा दो गालि परिहाराणं पडिसेविता आलोएडाबहावरा बसराया आरोवणा आदिममा वसा सहेडं कारणं बहीणमरितं तेण परं छम्मासा | - नि.उ. २०, सु. २७-३१ चार मास और बीत रात्रि का प्रायश्वित्त वहन करने वाला वणनार यदि प्रायश्चित काल के आरम्भ में मध्य वहन प्रारम्भ में या अन्न में प्रयोजन हेतु या कारण से दो मास प्रायश्चित्त योग्य दोष का सेवन करके आलोचना करे तो उसे कम न अधिक रात्रि की आपका आता है जिसे संयुक्त करने से पाँच मास और दस दिन की प्रस्थापना होती है । पत्र मास और दस रात्रि का प्रायश्चित्त वहन करने वाला अणगार यदि प्रायश्वित बहन काल के प्रारम्भ में मध्य में या समन्त में प्रयोजन हेतु या कारण से दो महत वश्चित योग्य दोष का सेवन करके आलोचना करे तो उसे न कम न अधिक बीस रात्रि की आरोपणा का प्रायश्चित आता है। जिसे संयुक्त करने से छ: मास की प्रस्थापना होती हैं । मासिस्स ठविया आशेषणा ६४० छम्मासिवं परिहाराणं पविए अणगारे अंतरा मामियं परिहाराणं पश्लेिविता आएका महावरा परिणया वारोवा आदिमाता सद्धं सहेज सकारणं ही मरिण पर दिमा पंच मासि परिहाराणं पठविए अणगारे अंतरा मासि यं परिहाराणं पचिविता आलोएना बहावरा परिचय आरोवना आदिमज्भावसणे समट्ठे सहेजें सकारण अहीण मरिशते परं चास सूत्र ६३६-६४० मास परिहाराणं पट लिए अणगारे अंतरा मासि परिहारट्ठाण परिसेविता आलोएब्ज- अहावरा पत्रिसया तीन मास और दस रात्रि का प्रायविचत्त बहूत करने वाला अमगार यदि प्रायश्चित बहन काल के प्रारम्भ में मध्य में या अन्त में प्रयोजन हेतु या कारण से दो मास प्रायश्चित योग्य दोष का सेवन करके आलोचना करे तो उसे न कमन अधिक बीस रात्रि की आरोपणा का प्रायश्वित आता है जिसे संयुक्त करने पर चार मास की प्रस्थापना होती है। चातुर्मासिक प्रायश्चित वहन करने वाला अणगार यदि प्रायश्वित बहन काल के प्रारम्भ में, मध्य में या अन्त में प्रयो जन हेतु या कारण से दो मास प्रायश्चित योग्य दोष का सेवन करके आलोचना करे तो उसे न कमन अधिक बस रात्रि की आरोपणा का प्रायश्चित्त आता है। जिसे संयुक्त करने से चार मास और बीस दिन की प्रस्थापना होती है । एक मास प्रायश्चित्त की स्थापिता आरोपणा६४० : मासिक प्रायश्वित वहन करने वाला अजगार यदि प्रायश्चित्त बहुत काल के प्रारम्भ में मध्य में या अन्य में प्रयो जन हेतु या कारण से मार्मिक प्रायश्वित्त योग्य दोष का सेवन करके आलोचना करे तो उसे न कम न अधिक एक पक्ष की आरोपणा का प्रायश्चित्त आता है। उसके बाद पुनः दोष सेवन कर ले तो डेढ़ मास का प्रायश्चित्त आता है । पंच मासिक प्रायश्चित्त वहन करने वाला अणगार यदि प्रायश्वित बहन काल के प्रारम्भ में, मध्य में या अन्त में प्रयोजन हेतु या कारण से मासिक प्रायश्चित योग्य दोष का सेवन करके आलोचना करे तो उसे न कम न अधिक एक पक्ष की आरोपणा का प्रायश्चित आता है। उसके बाद पुनः दोष सेवन करले तो डेढ़ मास का प्रायश्चित्त आता है। चातुर्मासिक प्रायश्चित वहन करने वाला अणगार यदि प्रायश्चित्त बहुत काल के प्रारम्भ में, मध्य में या अन्त में प्रयो Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुत्र ६४०-६४१ एक मास प्रायश्चित्त की प्रस्थापिता आरोपणा वृद्धि तपाचार [३१५ आरोवणा आदिमज्भावसणे स अट्ठ सहे सकारणं अहीण- जन, हेतु या कारण से मासिक प्रायश्चित्त योग्य दोष का सेवन मरित्तं तेण परं विबड्दो मासो । करके आलोचना करें तो उसे न कम न अधिक एक पक्ष की आरोपणा का प्रायश्चित्त आता है। उसके बाद पुनः दोष सेवन करले तो डेढ़ मास का प्रायश्चित्त आता है । तेमासियं परिहारहाणं पठविए अणगारे बंतरा मासि यं तीन रास प्रायश्चित्त वहन करने वाला अणगार यदि परिहारट्ठाणं पडिसेबित्ता आलोएज्जा-अहावरा पक्छिया प्रायश्चित्त बहन काल के प्रारम्भ में, मध्य में या अन्त में प्रयोआरोवणा आविमउमावसाणे समझें सहेज सकारणं अहीण- जन, हेतु या कारण से मासिक प्रायश्चित्त योग्य दोष का सेवन महरितं तेण पर विवढो मासो। करके आलोचना करे तो उसे न कम न अधिक एक पक्ष का आरोपणा का प्रायश्चित्त आता है। उसके बाद पुनः दोष सेवन करले तो डेढ़ मास का प्रायश्चित्त आता है। दो मासिय परिहारहाणं पट्टबिए बणगारे बतरा मासियं दो मास प्रायश्चित्त वहन करने वाला अणगार यदि प्रायपरिहारहाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा- अहावरा पक्खिया श्चित्त बहन काल के प्रारम्भ में, मध्य में या अन्त में प्रयोजन, आरोषणा आदिमउमाबसाणे सअट्ठसहे सकारणं अहीण- हेतु या कारण से मासिक प्रायश्चित्त योग्य दोष का सेवन करके सारित तेण पर दिगो शारो आलोचना करे तो उसे न कम न अधिक एक पक्ष की आरोपणा का प्रायश्चित्त भाता है। उसके बाद पुनः दोष सेवन करले तो डेढ़ मास का प्रायश्चित्त आता है। मासिय परिहारठाणं पट्ठषिए अणगारे अंतरा मासिय मासिक प्रायश्चित वहन करने वाला अणयार यदि प्रामपरिहारट्ठाणे पडिसेविता आलोएज्जा- बहावरा पक्खिया श्विल वहन काल के प्रारम्भ में, मध्य में या अन्त में प्रयोजन, आरोवणा मादिमानाबसाणे सअट्ठ सहेउं सकारणं महीण- हेतु या कारण से एक मास प्रायश्चित्त योग्य दोष का सेवन करके महरितं तेण परं विवड्दो मासो। आलोचना करे तो उसे न कम' न अधिक एक पक्ष की भारोपणा -नि.उ.२०, सु. ३२-३७ का प्रायश्चित्त आता है। उसके बाद पुनः दोष सेवन करले तो डेढ़ मास का प्रायश्चिस आता है। मासियस्स पवियर आरोवणा बुटि एक मास प्रायश्चित्त की प्रस्थापिता आरोपणा वृद्धि६४१. दिवट मासियं परिहारट्ठाणं पद्वविए अणगारे अंतरा ६४१. डेढ़ मास प्रायश्चित्त वहन करने वाला' अणगार यदि भासियं परिहारठाणं पडिसेवित्ता आलोएग्जा-- अहावरा प्रायश्चित्त बहन काल के प्रारम्भ में, मध्य में या अन्त में प्रयोपक्खिया आरोषणा आदिमजमावसाणे सअट्ठ सह सकारणं जन, हेतु या कारण से मासिक प्रायश्चित योग्य दोष सेवन अहोणमहरितं तेण परं दो मासा। करके आलोचना करे तो उसे न कम में अधिक एक पक्ष की आरोपणा का प्रायश्चित्त आता है। लिसे संयुक्त करने से दो मास की प्रस्थापना होती है। बोमासियं परिहारदाणं पटुषिए अणगारे अंतरा मासियं दो मास प्रायश्चित दहन करने वाला अणगार यदि प्रायपिचत्त परिहारट्टाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा-अहावर पक्खिया वहन काल के प्रारम्भ में, मध्य में या अन्त में प्रयोजन,हेतु या कारण आरोवणा आविममावसाणे सअळं सहेज सकारणं अहीण- से मासिक प्रायश्चित्त योग्य दोष सेवन करके आलोचना करे तो महरितं तेणं पर मलाइज्जा मासा । उसे न कम न अधिक एक पक्ष की आरोपणा का प्रायश्चित्त आता है । जिसे संयुक्त करने से ढाई मास की प्रस्थापना होती है । अड्ढाइज्ज-मासियं परिहारट्टाणं पटुविए अणगारे अंतरा ढाई मास प्रायश्चित्त वहन करने वाला अणगार यदि मासिय परिहारहाणं पडिसेबित्ता आलोएग्जा-अहावरा प्रायश्चित्त बहन काल के प्रारम्भ में, मध्य में या अन्त में प्रयोपक्षिया आरोवणा आदिमजावसाणे सअट्ट सहे सकारणं जन, हेतु या कारण से मासिक प्रायश्चित्त योग्य दोष सेवन अहोगमहरितं तेणं परं तिम्णिमासा । करके आलोचना करे तो उसे न कम न अधिक एक पक्ष की बारोपणा का प्रायश्चित्त आता है। जिसे संयुक्त करने से तीन मास की प्रस्थापना होती है। Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६] धरणानुयोग २ मासिक और दो मासिक प्रायश्वित की प्रस्थापिता आरोपमा वृद्धि मासि परिहारद्वारा पविए भगारे अंतरा मानि परिहारार्थ पडिसेविता आलोएज्जा- अहावरा पक्खिया आरोषणा आदिमानसा सहे सकारण अहीण परि ते परं अामासा अट्टमास परिहाराणं पटुविए अपमारे अंतरा मासि परिहारट्ठाण परिसेवित्ता आलोएज्जा महावरा परिया आरोषणा आविभज्यावसाणे सभट्ठे महेडं सकारण अहीण मइरितं तेण परं चत्तारिमासा । अ- पंच मासि परिहारद्वाणं पट्टषिए अणगारे अंतरा मानिये परिहारट्टान परिसेविता मानो पलिया प्रारोषणा आमावास सकारणं अयोगमारितं तेग पर पंचमासा | महावरा सहे घाउमा सिथं परिहाराणं पट्टविए अणगारे अंतरा मासिय चार मास प्रायश्चित्त दहन परिहाराणं पडिविता आला महावरा पाहून काल के प्रारम्भ में प्रायश्चित्त आक्या दिवसास सहे कारण अही जन हेतु या कारण से वायिक मइरितं तेण परं अढपंचमासा करके आलोचना करे तो उसे न आरोपण का प्रायश्चित्त आता है। चार मास की प्रस्थापना होती है। पंथ मासि परिहारट्ठाणं पट्टविए अणगारे अंतरा मासि परिहारानं पहिलेका मानबहावरा परिचया आरोवणा आविसावसाने समद्धं सहेडं सकारणं अहीण मइरितं तेण परं अछट्टा मासा | Now ६४२. यो पास परिहाराभिगगारे अंतरा मासिवं परिहारार्थ पडिसेविता आएका महावरा परिजया सूत्र ६४१-६४२ तीन म स प्रायश्चित वहन करने वाला अणगार यदि प्रायश्चित्त बहन काज के प्रारम्भ में, मध्य में या अन्त में प्रयोजन देतुमा कारण से मासिक प्रायश्वित योग्य दोष सेवन करके करे तो कम न अधिक एक पक्ष की आरोपणा का प्रायश्चिस जाता है। जिसे संयुक्त करने से साढ़े तीन मास की प्रस्थापना होती है । साढ़े तीन मास प्रायश्चित्त वहन करने वाला अणगार यदि प्रायश्चित्त बहुत काल के प्रारम्भ में, मध्य में या अन्त में प्रयोजन हेतु या कारण से मासिक प्रायश्चित्त योग्य दोष सेवन करके आलोचना करे तो उसे न कम न अधिक एक पक्ष की आरोपणा का प्रायश्चित आता है। जिसे संयुक्त करने से चार की स्थापना होती है । करने वाला अणगार यदि नध्य में या अन्त में प्रयोप्रायश्चित योग्य दोष सेवन कम न अधिक एक पक्ष की जिसे संयुक्त करने से साढ़े पाँच मास प्रायश्चित्त वहन करने वाला अणगार यदि प्रायविसवहन काल के प्रारम्भ में, मध्य में या अन्त में प्रयोजन, हेतु या कारण से मासिक प्रायश्वित्त योग्य दोष सेवन करके आलोचना करे तो उसे न कम न अधिक एक पक्ष की आरोपणा का प्रायश्चित्त आता है। जिसे संयुक्त करने से साढ़े पाँच मास की प्रस्थापना होती है । भट्टमाथि परिहाराणं पट्ठबिए अपगारे अंतरा साढ़े पाँच मास प्रायश्चित्त वहन करने वाला अणवार यदि मासि परिहाराणं विविता आलीमा अहावरा प्रायश्चित बहुत काल के प्रारम्भ में मध्य में या अन्त में प्रयो पक्या आरोपा आदि सब सहेज सकारनं जन हेतु कारण माविक प्रायश्वित योग्य दोष सेवन करने अहीम तेन परं सम्मा आलोचना करे तो उसे न कम न अधिक एक पक्ष की आरोपणा " नि. उ. २०, सु. ३८-४६ का प्रायविचत आता है। जिसे संयुक्त करने से छह मास की प्रस्थापना होती है। मासिस्तोमा मियरस य पट्टविया आरोवणा बुद्धि मासिक और दो मासिक प्रायश्चित्त की प्रस्थापिता - आरोपमा वृद्धि 2 साढ़े चार मास प्रायश्चित्त वहन करने वाला अणगार यदि प्रायश्चित वहन काल के प्रारम्भ में मध्य में या अन्त में प्रयो जन हेतु या कारण से मासिक प्रायश्चित्त योग्य दोष सेवन करके आलोचना करे तो उसे न कम न अधिक एक पक्ष की आरोपणा का आता है जिसे संयुक्त करने से पाँच मास की प्रस्थापना होती है। ६४२. प्रश्न करने वाला अगवार यदि आव विनता के प्रारम्भ में मध्य में या अन्त में प्रयोजन Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४२ मासिक और दो मासिक प्रायश्चित्त को प्रस्थापिता आरोपणा वृद्धि अवाहन मासियं परिहारा पबिए अगवारे अंतरा बोमासि परिहारट्ठाण परिसेविता आलोएक्जा-सहावरा श्रीसदराइया आरोषणा आदिम सावसाने सअद्धं सहेडं सकारण अहीणमहरिलं, तेण परं सपंचराइया सिणिमासा । पंचरइय-तेमासि परिहारट्ठाणं पटठविए अणगारे अंतरा मासिधं परिहारठाण परिसेविता आलोएम्मा व्हावरा पलिया आरोपमा आमास स स सकारणं अहमहरित ते परं सबीहा तिष्णि मासा J आरोवणा आमिरसावसाने समय सहे सकारण अहीण हेतु या कारण से मासिक प्रापनिस बोग्य दोष सेवन करके मरितं तेण परं अड्डाइज्जा मासा । आलोचना करें तो उसे न कम न अधिक एक पक्ष की आरोपण का प्रायश्चित्त आता है। जिसे संयुक्त करने से हाई मास की प्रस्थापना होती है। ढाई मास प्रायश्चित्त वहन करने वाला अणगार यदि प्रायश्चिन्त वहन काल के प्रारम्भ में, मध्य में या अन्त में प्रयोजन, हेतु या कारण से दो मासिक प्रायश्चित्त योग्य दोष सेवन करके आलोचना करे तो उसे न कम न अधिक बोस रात्रि की आरोषणा का प्रायश्चित आता है। जिसे संयुक्त करने से तीन मास और पाँच रात्रि की प्रस्थापना होती है। तीन मास और पॉन रात्रि प्रायश्चित्त वहन करने वाला अणगार यदि प्रायश्चित काल के प्रारम्भ में मध्य में या अन्त में प्रयोजन हेतु या कारण से एक मास प्रायश्चित्त योग्य दोष का सेवन करके आलोचना करे तो उसे न कम न अधिक एक पक्ष की आरोपणा का प्रायश्चित आता है। जिसे संयुक्त करने से तीन मास और बीस रात्रि की प्रस्थापना होती है । , सयोसइराइव तेमालयं परिहाराणं पविए अणगारे अंतरा वोमासि परिहारद्वाणं परिसेवित्ता आलोएज्जामहावरा बोरामा आरोपणा आदिमयावसाये सम सहेजें सकारणं भहीणमइरिस तेथ परं सवसराहया तारि मासा | सदसराय-याम्भवियं परिहाराचं पलिए अथगारे अंतरा मासि परिहारट्ठाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जाअहावरा पक्षिया आरोषणा आविमज्साधसाणे सज सहे सकारण अहीणमवरितं तेन परं पंचूणा पंचमासा । तपाचार पंचू-पंज-यासि परिहाराणं पट्टविए अणगारे अंतरा दोमाथि परिहाराणं पहिलेविता मालोएमा अहावरा वीसइरादा भरोषा सम सहे सकारण अहीणमइरित ते परं मासा wwwwwww छद्मासि परिहारट्ठाणं पट्ठविए अणगारे अंतरा मासि परिहाराणं डिसेविता आलोएना महावरा या आरोषणा सर्ट सहे सकारणं अट्टणमरित ते परं माया नि. [at चार मास और दस रात्रि प्रायश्चित्त वहन करने वाला अणगार यदि प्रायश्चित वहन काल के प्रारम्भ में, मध्य में या अन्त में प्रयोजन हेतु या कारण से एक मास प्रायश्चित्त योग्य दोष का सेवन करके आलोचना करे तो उसे न कम न अधिक एक पक्ष की आरोपणा का आयश्चित आता है। जिसे संयुक्त करने से पाँच मास में पांच दिन कम की प्रस्थापना होती है । पाँच मास में पाँच दिन कम प्रायश्चित्त वहन करने वाला अपार यदि प्रायश्चित व नाके प्रारम्भ में मध्य में या अन्त में प्रयोजन हेतु वा कारण से दो मास प्रायगत योग्य दोष का सेवन करके आलोचना करे तो उसे न कम न अधिक बीस रात्रि की भारोपणा का प्रायश्चित आता है जिसे संयुक्त करने से साढ़े पांच मास की प्रस्थापना होती है । " साढ़े पांच मास प्रायश्चित्त वहन करने वाला अगगार यदि प्रायश्चित बहन काल के प्रारम्भ में मध्य में या अन्त में प्रयो जन हेतु या कारण से एक मास प्रायश्वित योग्य दोष का सेवन करके आलोचना करे तो उसे न कम न अधिक एक पक्ष की २०४७-५२ आरोपमा काय आता है जिसे संयुक्त करने से छ मास की प्रस्थापना होती है । 掇 तीन मास और वीरा रात्रि प्रायश्चित्त वहन करने वाला अणगार यदि प्रायश्चित्त वहन काल के प्रारम्भ में, मध्य में या बन्त में प्रयोजन हेतु या कारण से दो मास प्रायनित बौध दोष का सेवन करके आलोचना करे तो उसे न कम न अधिक बीस रात्रि की आरोपणा का प्रायश्चित्त माता है। जिसे संयुक्त करने से चार मास और दस रात्रि की प्रस्थापना होती है। Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८] चरणानुयोग-२ आलोचना के कारण सूत्र ६४३-६४४ आलोचना-१(ग) आलोयणा कारणा आलोचना के कारण६४३. तिहि ठाणेहि मायो मायं कटु आलोएज्जा, पटिक्कमेज्जा, ६४३. तीन कारणों से मायावी माया करके आलोचना करता णिदेज्जा, गरिहेज्जा, बिउट्टेग्जा, विसोहेज्जा, अकरणयाए है, प्रतिक्रमण करता है, निन्दा करता है, गर्दा करता है, व्यावृत्ति अम्भुढेज्जा, अहारिहं पायच्छित तवोकर्म पडिवरजेज्जा, करता है. विशुद्धि करता है, पुनः वैसा नहीं करूंगा ऐसा कहने तं जहा को उद्यत होता है, यथायोग्य प्रायश्चित्त रूप तपःकर्म स्वीकार करता है, यथा१. मायिस्स णं अस्सि लोगे गरहिते भवति । (१) मायावी का यह लोक गहित होता है। २. उववाते गरहिते भवति, (२) परलोक गहित होता है। ३. आशती गरहिता भवति,' (३) आगामी जीवन गहित होता है। तिहि वाहि मायी मायं कटु आलोएग्जा-जाब-तबोकम्म तीन कारणों से मायावी माया करके आलोचना करता है पडियन्जेज्जा, तं जहा -वावत्--तपःकर्म स्वीकार करता है । यथा१. अमायिस्स णं अस्सिं लोगे पसत्ये भवति, (१) सरल मनुष्य का वर्तमान जीवन प्रशस्त होता है। २. उचयाते पसत्थे भवति, (२) परलोक प्रशस्त होता है। ३. आयाती पसत्या भवति, (३) आगामी जीवन प्रशस्त होता है। तिहि ठाणेहिं मायी मायं कटटु आलोएन्जा-जाब-तबोकम्म तीन कारणों से मायावी माया करके आलोचना करता है परिवज्जेम्जा तं जहा -यावत्-तप कर्म स्वीकार करता है । यथा - १. जागठ्याए, (१) ज्ञान के लिए, २. सणव्याए, (२) दर्शन के लिए, ३. चरितठ्याए। -ठाणं, अ. ३, उ. ३. सु. १७६ (३) चारित्र के लिए। आलोयणा दोसा आलोचना के दोष६४४. वस आलोयणादोसा पाणत्ता, तं जहा ६४४. आलोचना के देश दोष कहे गये हैं। जैसे१. आकंपइसा, (१) सेवा आदि के द्वारा प्रसन्न करके आलोचना करना। २. अणुमाणइत्ता, (२) "मैं दुर्बल हूँ, मुझे अल्प प्रायश्चित्त देवें" इस भाव से अनुनय करके आलोचना करना । ३. जं दिठें, (३) दृष्ट दोष की आलोचना करना । ४. वायरं च, (४) केवल बड़े दोषों की आलोचना करना । ५. सुदम या, (५) केवल छोटे दोषों की आलोचना करना। ६. छपणं, (६) इस प्रकार से आलोचना करना कि गुरु सुनने न पावें। ७. सहाउलगं, (७) जोर-जोर से बोलकर आलोचना करना। ८. बहुजणं, () एक के पास आलोचना कर फिर उसी दोष की दूसरे के पास आलोचना करना। ६. अश्वत्त, (९: अगीतार्थ के पास आलोचना करना । १०. तस्सेथी। -ठाणं. अ. १०, सु. ७३२ (१०) अपने समान दोष वाले के पास आलोचना करना। १ ठाणं.अ.८, सु. ५६४(ख) २ बि. स. २५, उ.७, सु. १६१ Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ६४५ आलोचना करने का क्रम आलोयणा करण-कमी आलोचना करने का क्रम ६४५. भिक्खु य अनयरं अकिवठाणं परिसेविता इलेक्जा ६४५. भिक्षु किसी अकृत्यस्थान का पतिसेवन कर उस की आलोएसए, जत्थेव अपणो आयरिय-उवज्झाए पासेज्ना, आलोचना करना चाहे तो जहाँ पर अपने आचार्य या उपाध्याय तस्संतिथं आलोएज्जा गाव अहारिहं तवोकम्मं पायच्छिदेखे वहाँ उनके समीप आलोचना करे – पावत् यथायोग्य पडवा | प्रायश्चित रूप तपःकर्म स्वीकार करे | तो चे अपणो धारिए पासेना अत्यसंभो साहम्मियं पासेज्जा बहुस्सुयं सम्मागर्म तस्संतियं आलो. एन्जा हारितयोकम्पं पायपिडिया नो वेव संभोदयं साहम्मियं पासेज्जा बहुस्सुयं बभागमं जत्थेव असंभवं साम्यियं पजा हुनुभाग तस्संतियं आलोएज्जा जाव अहारिहं तवोकम्मं पायच्छित्त' पश्चिवळजेज्जा | नो चेव णं असंमोहयं साहम्मियं परसेञ्जर बहुस्सुयं बभा धर्म जत्येव वाकवियं पातेजा बहुस्वागतांतियं आलोएन्नादान आहारिहंतोष पायच्छित पवि उजेश्मा । · नो क्षेत्र णं सारूवियं पासेज्जा बहुस्सुयं जन्मागमं जरथेष समणोवाक्षगं पच्छाकडं पासेज्जा बहुस्यं बभागमं कप्पड़ से सतिए आलोएलए या जाव - आहारिह तयोकम्मं पाय छित परिधज्जेस वा । नो मे समोवास पापा गर्म जवस भावापासेना, कपड़ से तस्संतिए आलोएज्जा वा पक्किमेलए बा जाव - अहारिहं पछि पडियजेस मा नो विवाई येडाई पासा बहिया म वा जान-ससिस वा पाईणाभिहे वा उीणामिमुहे वा करमलपरिमाहियं सिरसावल मत्थए अंजलि कट्टु एवं यदि अपने आचार्य या उपाध्याय न दिखे ( न मिले ) तो जहाँ पर साम्भोगिक ( समान समाचारी वाले) साथमिक साधु को देखे (मिले) "जो कि बहुत एवं बहु अनम हो" उसके समीप आलोचना करे - यावत् यथायोग्य प्रायश्चित्त रूप तपः कर्म स्वीकार करे । तपाचार [३१e यदि सम्भोषिक माधम बहुत हुआगमन सादि न मिले तो जहाँ पर अन्य सम्भोग गाथमिक साधु को देखे– 'जो बहुश्रुत हो और बहुआगमज्ञ हो" वहीं उसके समीप आलोचना करे - यावत् - यथायोग्य प्रायश्चित्त रूप तप कर्म स्वीकार करे । यदि सागिकार्मिक बहुत और म साधु न दिखे (ग मिले तो जहाँ पर अपने साप साधु को देवे (मिले) "जो बहुत हो और बहुआ हो" यहाँ उसके समीप आलोचना करे यावत् यथायोग्य प्रायश्विन रूप तपः कर्म स्वीकार करे । - यदि सारूप्य साधु बहुभुत और बागमशन दिले न मिले तो जहाँ पर पश्चात्कृत (संयम त्यागी) श्रमणोपासक को देखे ( मिले ) जो बहुत और बहुआrea हो वहाँ उसके समीप आलोचना करे-पावत भायोग्य प्रतिपा कर्म स्वीकार करे । यदि पश्चात श्रमणोपासक बहुश्रुत और बहुमागज्ञन दिये न मिले तो यहाँ पर सम्भावित हानी पुरुष (गममात्री स्व-पर- विवेकी सम्यक् दृष्टि व्यक्ति) को देखे (मिले) ता नहीं उसके समीप आलोचना करे यावत् प्रायशि रूप तपःकर्म स्वीकार करे । - यदि सम्यक् भावित ज्ञानी पुरुष न दिखे (न मिले तो ग्राम - यावत् - सनिवेश के बाहर पूर्व या उत्तर दिशा की ओर अभिमुख हो करतल जोड़कर मस्तक के आवर्तन करे और मस्तक पर अंजली करके इस प्रकार बोले एग्जा 'एवइया मे अबराहा एवइ-पसुतो अहं अवरो" अरिहंतालिममा जान अहार योजन किया है" इस प्रकार बोलकर पायत्ति पश्चिवज्जेज्जा । "इतने मेरे दोष हैं और इतनी बार मैंने इन दोषों का वीर मिद्धों के बव. उ. १, मु. ३३ समीप आलोचना करे याषत्यवायोग्य प्रायश्चित्त रूप तपः कर्म स्वीकार करे । Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२०] MA चरणानुयोग – २ एतं जहा १. आधारथं, २. आहार, आलोयणा सवन जोगा आलोचना श्रवण के योग्य ४६. सहा संपणे आणणारे अरिहति आलोय पछि ६४६. दानों से सम्पन्न अगार आलोचना सुनने के योग्य होता है, यथा (१) आचारवान् शान आदि पंचाचार से युक्त हो । (२) आधारमा आलोचना लेने वाले के द्वारा आलोचना किये जाने वाले समस्त दोषों का जानने वाला हो । (३) व्यवहारवान् बाला हो । भगम आदि पाँच व्यवहारों का जानने (४) अपीडक लज्जा या संकोच छुड़ाने में कुशल हो । (५) प्रकुर्वक आलोचना कराने में समर्थ हो। (६) अ‌विभाषी आलोचना करने वाले के दोष दूसरों के सामने प्रकट करने वाला न हो। २.बहार ४. ओवीलए, ५. पकुवाए, ६. अपरिस्सा. ७. निज्जाए वायसी ६. पिम्मे, १०. दशमे । (७) निर्यायक - प्रायश्चित्त के अनुसार तपाचरण कर सके ऐसा प्रायश्वित देने वाला हो । (c) अपायवर्ती आलोचना न करने के फलों को बताने में समर्थ हो । (६) प्रियधर्मा-धर्म से प्रेम रखने वाला हो, धर्म में अमन्त अनुराग हो। (१०) बुद्धधर्मा - आपत्तिकाल में भी धर्म में दृढ़ रहने वाला हो । जो अनेक शास्त्रों के विज्ञाता, आलोचना करने वाले के मन सोउं ॥ में समाधि उत्पन्न करने वाले और गुणग्राही होते हैं. ये अपने इन्हीं ३९ वा. २६२ गुणों के कारण बालोचना सुनने के अधिकारी होते हैं। आलोचना करने के योग्य आलोयणा करण जोगा ६४. दसह ठाणे संपणे अणगारे अरिहद अत्तदोसं आलो ६४७. दस गुणों से युक्त मालोचना करने योग्य होते हैं, यथा इस तं जहा १. जाणे, २. विजय ५. दंसणपणे, - आगमविणा पाहावा पाही । एए कारणेणं अरिहा वो ७. वंते, ६. अमावी, १ (क) ठाणं. अ. २क) ठाणं. अ. आलोचना श्रवण के योग्य - ठाणं. अ. १०, सु. ७३२ सु. ६०४ सु. ६०४ २. कुलप ४. पाण ६. परिसंपन् ८. दंते, १० अपच्छाता -ठाणं. अ. १०, सु. ७३२ साहम्मियाणं आलोयणा तह पढवणा विही ६४८. दो सामिया एगयओ विहरति, एगे तस्थ अन्नयरं अकिच्च द्वाणं पडिविता आलोएडा, बलिं बता कर बेयारिं । - सूत्र ६४६-६४८ (१) जाति सम्प (3) विनय सम्पन (५) वन सम्प (2) जमानी, सामिकों की आलोचना तथा प्रस्थापना विधि६४८. दो साथमिक साधु एक साथ विवरते हों और उनमें से यदि एक सा किसी महत्व स्थानको प्रतिसेवता करके का चना करे तो उसे प्रायश्चित्त तप में स्थापित करके अन्य साघमित्र भिक्षु को उसकी चैवास्य करनी चाहिए। (ख) वि. स. २५, उ. ७, सु. १९३ (ख) वि. स. २५ उ ७, सु. १६२ (२) कुल सम्पन्न, (४) ज्ञान सम्पन्न, (६) चारित्र सम्पन्न, (५) दान्त, (१०)। Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आलोचना न करने वाले का आर्तध्यान तपाचार [३२१ । दो साहम्मिया एगयओ विहरंति, दो वि ते अन्नयर अकिच्च- दो सार्मिक साधु एक साथ विचरते हों और वे दोनों हो ट्ठरणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा, एगं तस्य कप्पागं ठवइत्ता साधु किसी अकुत्य स्थान की प्रतिसेवना करके आलोचना करे तो एगे निविसेज्जा, अह पच्छा से वि निविसेज्ना । उनमें से एक को कल्पाक-अग्रणी स्थापित करे और एक परिहार तप रूप प्रायश्चित्त को वहन करे। उसका प्रायश्चित पूर्ण होने के बाद वह (अग्रणी) भी प्रायश्चित्त को वहन करे। बहवे साहम्मिया एगयओ विहरति, एगे तत्व अन्नयरं बहुत से साधर्मिक साधु एक साथ विचरते हों और उनमें से अकिन्चट्ठाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा ठवणिज्ज ठवइत्ता एक साधु किसी अकृत्य स्थान की प्रतिसेवना करके आलोचना करणिज्ज वेवावडियं । करे तो (उनमें जो प्रमुख स्थदिर हो वह) उसे प्रायश्चित्त बहन करावे और दुसरे भिक्षु को उसकी वयावृत्य के लिए नियुक्त करे। बरखे गहमिया मामलो पिरति मावे वि अश्यरं बहुत से साधर्मिक साधु एक साथ विचरते हों और वे सब अकिच्चद्वार्थ पडिसेवित्ता आलोएज्जा, एग तत्थ कप्पा किसी अकृत्य स्थान की प्रतिसेवना करके आलोचना करें तो ठवहत्ता अवसेसा निटिक्सेज्जा, अह एच्छा से वि निधि- उनमें से किसी एक को कल्पाक स्थापित करके शेष सब प्रायसेज्जा । - वब. उ. २, सु. १-४ श्चित्त बहन करें। बाद में वह कल्पाक साधु भी प्रायश्चित्त वहन करे। अणालोयणरस अत्तझाणं आलोचना न करने वाले का आर्तध्यान६४६. मायो गं मायं कटु, ६४६. अकरणीय कार्य करने के बाद मायावी उसी प्रकार भीतर ही भीतर जलता है, से जहाणामए-मयागरेति वा, तंबागरेति वा समभागरेति जैसे-लोहे को गलाने की भट्टी, तांबे को गलाने की भट्टी, बा, सीसागरेति वा, रुप्पागरेति या, सुबवणागरेति बा, जस्ता को गलाने की भट्टी, शीशे को गलाने की भट्टी, चांदी को तिलागणीति था, तुसागणीति वा, मुसापणोति था, गलाग- गलाने की भट्टी, सोने को गसाने की भट्टी, तिल की अग्नि, तुष गीति वा, दलागणीति घा, सोडियालिछाणि वा, मंडिया- की अग्नि, भूसा की अग्नि, नल की अग्नि, पत्ते की अग्नि, लिछाणि वा, गोलियानिछाणि वा, कुंभाराबाएति वा, मदिरा का चूल्हा, भण्डिका का चूल्हा, गोलिका का चूल्हा, धड़ों कवेल्लुआचाएति वा, पट्टावाएति वा, जंतवाडचुल्लोति वा, का पजावा, खप्परों का पजावा, ईटों का पजावा. गुड़ बनाने लोहारंपरिसाणि वा। की भट्टी, लोहकार की भट्टी, तत्ताणि, समजोतिभूताणि, किसुकफुल्लसमाणाणि उपका- तपती हुई, अग्निमय होती हुई, किंशुक के फूल के समान सहस्साई विणिम्मुयमाणाई-विणिम्मुयमाणाई, जालासहस्साई लाल होती हुई सहनों उल्काओं और सहस्रों ज्वालाओं को छोड़ती पमुंचमाणाई-पमंचमाणाई इंगालसहस्साहं पविक्खिरमाणाई- हुई, सहस्रों अग्निकणों को फेंकती हुई, भीतर ही भीतर जलती पविवियरमाणाई, अंतो तो प्रियायंति, एषामेव मायी माय है उसी प्रकार मायावी माया करके भीतर ही भीतर जलता है। कटु अंतो अंतो लियाइ। जंवि य गं अण्णे केइ वदंति पि यचं मायी जाणाति, यदि कोई अन्य पुरुष आपस में बात करते हैं तो मायावी "अहमेसे अभिसंकिग्जामि-अभिसंकिज्जामि।" समझता है कि "ये मेरे विषय में ही शंका कर रहे हैं।" ठाणं. अ. ८, सु. ५९७(म) आलोयणा करणकारणाई आलोचना करने के कारण६५०. अट्टहिं ठाणेहि मायो मायं कटु आलोएज्मा-जाव-अहारिहं ६५०. आठ कारणों से मायावी माया करके उसकी आलोचना पायच्छित्तं तवोकम्म परिवज्रेज्जा, तं जहा करता है-यावत्-यथायोग्य प्रायश्चित्त रूप तपःकर्म स्वीकार करता है। जैसे१. मायिस्स पं अस्सि लोए गरहिते भवति, (१) मायावी का यह लोक गहित होता है। २. उववाए गरहिते भवति, (२) परलोक गहित होता है। Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२] धरणानुयोग -२ आलोचना न करने के कारण सूत्र ६५०-६५१ ३. आयाती गरहिता भवति ।। (३) भविष्य गहित होता है। ४. एगमवि मायी मायं कटु जो आलोएज्जा-जाव-अहारिह . (४) जो भायात्री एक भी मायापार करके आलोचना नहीं पायच्छित्तं तवोकम्मणी पडिवग्जेमा रिम तस्स आरक्षणा। करता है-यावत्-तपःकर्म स्वीकार नहीं करता है, उसके आराधना नहीं होती है।। ५. एगवि माथी माय कटटु आलोएज्जा-जाब-तबो कम्म (५) जो भायाधी एक बार भी मायाचार करके उसकी पविवज्जेम्जा, अस्यि तस्स आराहणा। आलोचना करता है-यावत्-यथायोग्य प्रायश्चित्त और तपः कर्म स्वीकार करता है, उसके आराधना होती है। ६. बहोवि मायी मार्ग कटु गो आलोएज्मा-जाव-सवोकम्म (६) जो मायावी अनेक बार मायाचार करके उसकी आलोणो परिवज्जेज्जा, णस्थि तस्स आराहणा। चना भहीं करता है-बावत्- तपःकर्म स्वीकार नहीं करता है। उसके आराधना नहीं होती है। ७. बहुओवि मायी मायं कटु आलोएज्जा-जाव-सबोफम्म (७) जो मायावी अनेक बार मायाचार करके उसकी आलोपडिवोज्जा, अस्थि तस्स आराहणा। चना करता है-यावत् - तप कर्म स्वीकार करता है, उसके आराधना होती हैं। ८ आयरिय उवमायस्स वा गे अतिसेसे गाणसणे समष्ण- चारी या मायाय को अतिशय ज्ञान और ज्जेज्जा से य मममालोएज्जा मायी णं एसे । दर्शन उत्पन्न हो जाय तो वे जान लेंगे कि यह मायावी है। -ठाणं. अ.८, सु. ५६७ (ख) आलोयणा अकरण कारणाई आलोचना न करने के कारण६५१. तिहि ठाणेहि मायो मायं कटु णो आलोएज्जा, जो पडि- ६५१. तीन कारणों से मायावी माया करके न उसकी आलोचना बकमेम्जा, जो णिवेज्जा, णो गरहेज्जा, गो विउ ज्जा, णो करता है, न प्रतिक्रमण करता है, न निन्दा करता है, नगीं विसोहेज्जा, णो अकरणयाए अम्मुट्ठीमा, णो अहारिहं करता है, न ज्यावृत्ति करता है, न विशुद्धि करता है, न पुनः पायपिछत्तं तवोकम्म पडिवोज्जा, तं जहा -- वैसा नहीं करूंगा ऐसा कहने को उद्यत होता है, न यथायोग्य प्रायश्चित्त रूप तप कर्म को स्वीकार करता है । यथा१. अरिसु चाहं, (१) मैंने अकरणीय कार्य किया है। २. करेमि शाह, (२) मैं अकरणीय कार्य कर रहा हूँ। ३. करिस्सामि चाहं, (३) मैं अकरणीय कार्य करूंगा। तिहि ठाणेहि मापी माय कट्ट गो आलोएज्जा-जाव-तयो. तीन कारणों से मायावी माया करके न उसकी आलोचना कम्म गो परिवम्जेज्जा, तं जहा करता है-पावत्-न तपःकर्म को स्वीकार करता है । यथा१. अकित्ती वा मे सिया, (१) मेरी अकीति होगी, २. अवणे वा मे सिया, (२) मेरा अवर्णवाद होगा । ३. अविणए वा मे सिया। (३) मेरा अविनय होगा। तिहि ठाणेहि भायी मायं कटटु णो आलोएन्जा-जाव-सबो- तीन कारणों से मायावी माया करके न उसकी आलोचना कम्मं जो पडियज्जेम्जा, तं जहा करता है-यावत्-न तपःकर्म को स्वीकार करता है, यथा१. कित्ती वा मे परिहाइस्सह, (१) मेरी कीर्ति कम हो जाएगी । २. जसे वा मे परिहाइस (२) मेरा यश कम हो जाएगा। ३. पूयासबकारे वा मे परिहाइस्सह । (३) मेरा पूजा-सत्कार कम हो जायगा। --ठाणं. अ. ३, उ. ३, सु. १७६ १ ठाणं, अ. ३, उ.३, सु. १७६ २ ठाणं. अ.८, सु. ५६७(क) Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ६५२-६५३ आलोचना न करने का फल सपाचार [३२३ मालोयणा अकरण फलं आलोचना न करने का फल६५२. मायो मायं कटु अगालोइय-अपडिक्कते कालमासे काल ६५२. कोई मायावी माया करके उसकी मालोचना या प्रतिक्रमण फिच्चा अण्णतरेसु देवलोगेसु देवत्ताए उववत्तारो भवति, विये बिना ही काल-मास में काल करके किसी देवलोक में देव तं जहा-जो महिहिएम-जावणो चिट्टितिएम से ण तत्थ रूप से उत्पन्न होता है, किन्तु वह महाऋद्धि वाले–यावत् - देवे भवद, णो महिडिहए-जावणो चिरदिइए। दीस्थिति वाले देव लोक में उत्पन्न नहीं होता। बह देव होता है, किन्तु महाऋषि वासा-यावत-दीर्घ स्थिति बाला देव नहीं होता । जावि य से तस्य बाहिरमंतरिया परिसा भवति, साविय वहाँ देवलोक में उसकी जो बाह्य और याभ्यन्तर परिषद पंणो आढाति, णो परिज्जाणाति, गो महरिहेणं आसणेणं होती है, वह भी न उसको आदर देती है, ने उसे स्वामी के रूप उबणिमंतेति, भासं पि य से भासमाणस्स-जाव-पत्तारि पंच में मानती है और न महान् व्यक्ति के योग्य आसन पर बैठने के देवा असा चेव अम्मति "मा बई देवे ! भासज- लिए निमन्त्रित करती है। जब वह भाषण देना प्रारम्भ करता माता।" है, तब चार पाँच देव बिना कहे ही खड़े हो जाते है और कहते हैं - "देव ! बहुत मत बोलो, बहुत मत बोलो।' से गं ततो देवलोपाओ आजक्सएणं, भवरखएणं, लितियखएणं, पुनः वह देव आयुक्षय, भवक्षय और स्थितिक्षय के अनन्तर अणंतरं चयं घइत्ता इहेव मागुस्सए भवे जाई इमाई कुलाई देवलोक से व्युत होकर यहीं मनुष्य भव में जो ये अन्तकुल हैं, भवंति, तं जहा-बंतकुलाणि वा, पंतकुलाणि वा, तुच्छ- प्रान्तकुल हैं, तुच्छकुल हैं, दरिद्रकुल हैं, भिक्षुकुल हैं, कृपणकुल कुलाणि दा, दरिबकुलाणि वा, मिक्वागकुलाणि वा, किवण- हैं, या इसी प्रकार के अन्य हीन कुल हैं, उनमें मनुष्य के रूप में कुलाणि वा, तहप्पगारेसु कुलेसु पुमत्ताए पच्चायाति । उत्पन्न होता है। से णं तत्य पुमे भवति तुरुवे दुबम्णे बुग्गंधे पुरसे बुफासे वहां वह कुरूप, कवर्ण, दुर्गन्ध देह वाला, अनिष्ट रस और अणि? अंकते अप्पिए अमणुपणे, होगस्सरे, दीणस्सरे, कठोर स्पर्श बाला पुरुष होता है। वह अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय, अणिठ्ठस्सरे, अंकतस्सरे, अप्पियस्सरे, अमणण्णस्सरे, अम- अमनोज्ञ' और अमनोहर होता है। वह हीनस्वर, दीनस्वर, णामस्सरे अणएक्जक्यणे पच्चायाते । अनिष्टस्वर, अकान्तस्वर, अप्रियस्वर, अमनोज्ञ स्वर, अरुचिकर स्वर और अनादेय वचन वाला होता है। जावि य से तत्य बाहिरंगभंतरिया परिसा भवति, सावि य वहां उसकी जो बाह्य आभ्यन्तर परिषद होती है वह भी को आवाति-जाव-चत्तारि पंच जणा अणुत्ता चैव अम्भु- उसका न आदर करती है—यावत्-चार-पांच मनुष्य बिना रसि "मा बहुं अजउत्तो। भासउ-मास" कहे ही खड़े हो जाते हैं और कहते हैं-"आर्यपुत्र ! बहुत मत -ठाणं. अ. सु. ५६७(च) बोलो, बहुत मत बोलो।" आलोयणा करण फलं--. आलोचना करने का फल६५३. मायी णं मायं कट्ट आलोहय पडिक्कते-जाव-चिरदिति- ६५३. कोई मायावी माया करके उसको आलोचना प्रतिक्रमण एसु । से गं तस्य देवे भवति, महिदिए-जाव-विदितिए। कर-यावत्-दीर्घ स्थिति वाले देव लोक में उत्पन्न होता है। वहाँ वह महाऋद्धि वाला-पावत्-दीर्घ स्थिति वाला देव होता है। हार-विगाइय वच्छे फडक-तुडित थंभिस-भुए अंगव-कुंडल- उसका वक्षःस्थल हार से सुघोभित होता है, वह भुजाओं में मटू-गडतल-कण्णपीढधारी विचित्तहत्याभरणे, विचित्तवत्या- कड़े त्रुटित और बाजूबन्द पहने रहता है। उसके कानों में चंचल भरणे, विनिसमालामउसी कल्लाणग-पवर-वत्थ-परिहिते, तथा कपोल तक कानों का स्पर्श करने वाले कुण्डल होते हैं । कहलाणग-पवर-गंध मल्लागसेवणंथरे-मासुरबोंबो पलंब-वण- वह विचित्र हस्ताभरणों, विचित्र वस्त्राभरणों, विचित्र मालाओं मालधरे, बिब्वेणं और सेहरों वाले मांगलिक एवं उत्तम वस्त्रों को पहने हुए होता है, बह मांगलिक श्रेष्ठ सुगन्धित पुष्प और विलेपन को धारण किये हुए होता है । उसका शरीर तेजस्वी होता है, वह लम्बी लटकती हुई मालाओं को धारण किये रहता है। वह दिव्य वर्ण, दिव्य गन्ध, दिव्य Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ वरगानुयोग-३ बालोचना करने का फल सूत्र ६५३.६५५ वणेणं, विश्वेणं गंधेणं, विश्वेणं रसेणं, विरुषेणं फासेणं, रस, दिव्य स्पर्ण, दिव्य संचात, दिव्य संस्थान और दिव्य ऋद्धि विश्वेणं संघातेणं, विरुवेणं संठाणेग, विवाए-बहीए, विवाए से युक्त होता है। वह दिव्य श्रुति, दिया प्रमा, दिव्य कांति, जुईए, दिवाए पाए, दिवाए छायाए, विश्वाए बच्चीए, दिव्य अचि, दिव्य तेज और दिव्य लेश्या से दशों दिशाओं को विश्वे तेएणं, विवाए लेसाए, इस विसामो उम्जोवेमाणे, उद्योतित करता है, प्रभासित करता है, वह नाट्यों गीतों तया पमासेमाणे, महयाहत-गट्ट-गीत-यावित-संती-तल-ताल-सुजित- कुशल वादकों के द्वारा जोर से बजाये गये बादित्र, तंत्री, तल, घण-मुहंग-पडुप्पवाइय-शेण-विष्याई भोगभोगाई मुंजमाणे ताल, त्रुटित, धन और मृदंग की महान ध्वनि से युक्त दिव्य विहरद। भोगों को भोगता हुआ रहता है। जावि य से तस्थ बाहलसतिया परिका भवति, साबिर हाँ बसपी जो बाह्य आभ्यन्तर परिषद होती है वह भी गं आडाइ-जाव-सत्तारि पंच देवा अगुप्ता व अग्भुट्ठति उसका आदर करती है-यावत् -चार पांच देव बिना कहे ही "ब. देवे | भासउ मास।" खड़े होकर कहते हैं-"देव ! अधिक बोलिए और अधिक बोलिए।" से गं ताओ देवलोगाओ आउखएणं-जाव-बहत्ता इहैव पुनः वह देव आयुक्षय-यावत्-देवलोक से च्युत होकर माणुस्सए मवे जाई इमाई फुलाई भवंति-अदाई विलाई यहाँ मनुष्य भव में सम्पन्न दीप्त विस्तीर्ण और विपुल भवन, विस्थिष्ण विउल-भवण-सयणासगं-जाणावाहणाई बधण- शयन, आसन, यान और वाहन वाले, बहुधन, वहु सुवर्ण और महज़ायरूप-रययाई आयोग-पओग-संपउत्ताई. विच्छडिजय बहु चांदी वाले आयोग और प्रयोग में संप्रयुक्त अवशेष प्रचुर पउर भलपापाई, रासीबास-गो-महिस-गवेलय-प्पभूयाई, भक्तपान का सदा त्याग करने वाले, अनेक दासी-दास गाय-भैंस, बहुजनस्स अपरिमूताई, तहप्पगारेसु कुलेसु पुमत्ताए भेड़ आदि रखने वाले और बहुत व्यक्तियों के द्वारा अपराजित पन्यायाति। ऐसे उच्च कुलों में मनुष्य के रूप में उत्पन्न होता है। मेणं तत्थ पुमे भवति सुख्ने, सुवणे, सुगंधे, सुरसे, मुफासे, वहाँ वह सुरूप, सुवर्ण, सुगन्ध और सुस्पर्श वाला होता है। अतु, कते, पिए, मणण्णे, मणाभे, अहीणस्सरे, अदीगस्सरे, वह हष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ और मन के लिए गम्य होता है। इस्सरे, कंतस्सरे, पिपस्सरे, मपुग्णस्सरे, मगामस्सरे, वह उच्च स्वर, प्रखर स्वर, इष्ट स्वर, कान्त स्वर, प्रिय स्वर, आवेजवयणे पच्चाया। ___ मनोज्ञ स्वर, कचिकर स्वर और आदेय वचन वाला होता है। जावि य से तस्य बाहिरभतरिया परिसा भवति, सा वि वहाँ पर उसकी जो बाह्य आभ्यन्तर परिषद होती है, वह यगं आढाति-जाब-चत्तारि पंच जणा अणुसा देव अग्मुट्ठति भी उसका आदर करती है-यावत--चार पाँच मनुष्य बिना "बहुअज्जउत्ते ! भास-मासउ।" कहे ही खड़े हो जाते हैं और कहते हैं-“हे आर्यपुत्र ! और --ठाणं. २, ८, सु. ५६७ () अधिक बोलिए और अधिक बोलिये ।" आलोयणा फले आलोचना करने का फल६५४. ५०-आलोयणाए गं पन्ते ! जौवे कि अणय ? ६५४, प्र.-भन्ते ! आलोचना करने से जीव क्या प्राप्त करता है? उ.-झालोयणाए णं मायानिया मिच्छासणसल्लागं उ.-भालोचना से वह अनन्त संसार को बढ़ाने वाले, मोक्खमग्गविग्घाणं अणन्तसंसारवणार्ग उदारणं मोक्षमार्ग में विश्न उत्पन्न करने वाले, माया, निदान तथा मिथ्या करेइ । उज्जभावं च पं अणयइ । उज्जुमावपडियन्ने दर्शन-गल्य को निकाल फेंकता है और ऋजु-भाव को प्राप्त होता पप जोवे अमाइ इस्योयेय-नपुंसगयेयं च न भन्धद। है, ऋजु भाव को प्राप्त हुआ व्यक्ति अमायी होता है, इसलिए पुष्वबर्डचणं निजरेइ। वह स्त्री वेद और नपुंसक बेद कम का बन्ध नहीं करता और -उत्त. अ. २६, सु. ७ यदि वे पहले बन्धे हुए हों तो उनका क्षय कर देता है। पलिउंचिय-अपलिउंचिय-आलोयगस्स पायच्छित वाण कपट सहित तया कपट रहित आलोचक को प्रायश्चित्त विही देने की विधि१५५. जे सिक्लू मासिव परिहारदाग परिसेवित्ता आलोएक्जा, ६५५. जो भिक्षु एक बार मासिक-परिहारस्थान की प्रतिलेखना Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्र ६५५ कपट सहित तथा कपट रहित आलोचक को प्रायश्चित्त देने की विधि तपाचार [३२५ अपलिउंत्रिय मालोएमाणस्स मासियं, पतिषिय आलोए. करके आलोचना करे तो उसे माया-रहित आलोचना करने पर माणस्स वोमासियं । एक मास का प्रायश्चित आता है और माया-सहित आलोचना करने पर दो मास का प्रायश्चित्त आता है। मिासको रिहाई पजिसेवित्ता झालोएग्जा, जो भिक्षु एक बार द्विमासिक परिहारस्थान की प्रतिसेवना अपलिउंघिय बालोएमाणस्स दो मासियं, पसिउचियं आलो- करके आलोचना करे तो उसे माया रहित आलोचना करने पर एमाणस तेमासियं। द्विमासिक प्रायश्चित्त आता है और माया-सहित आलोचना करने पर मासिक प्रायश्चित्त बाता है। जे भिक्खू तेमासिय परिहारद्वाणं पटिसेविता आलोएज्जा, जो भिक्षु एक बार त्रैमासिक परिहारस्थान की प्रतिसेवना अपलिउंचिय आलोएमाणस्स तेमासियं, पलिउंचिय आसो- करके बालोचना करे तो उसे माया-रहित बालोचना करने पर एमाणस्स चाउम्मालियं। त्रैमासिक प्रायश्चित्त आता है। और माया-सहिरा आलोचना करने पर चातुर्मासिक प्रायश्चित्त आता है। जे भिक्खू पाउम्मासिय परिहारट्ठाणं पडिसे वित्ता आलो- जो भिक्षु एक बार चातुर्मासिक परिहारस्थान की प्रतिसेवना एज्जा-अपलिउंघिय आलोएमाणस्स घाउम्मासियं, पलिउं- करके आलोचना करे तो उसे माया-रहित आलोचना करने पर निय भालोएमाणस्स पंचमासि । चातुर्मासिक प्रायश्चित्त भाता है और माया-सहित आलोचना करने पर पंचमासिक प्रायश्चित्त आता है। जे मिक्डू पंचमासिय परिहारट्टाणं पडिसेबित्ता आलोएज्जा, जो भिक्षु एक बार पंचमासिक परिहारस्थान की प्रतिसेदना अपरिचिय आलोएमागस्त पंचमासियं पलिउचिए आलो. करके आलोचना करे तो उसे माया-रहित आलोचना करने पर एमागस्स छम्मासिर्य। पंचमासिक प्रायश्चित्त आता है और माया-सहित मालोचना करने पर पाण्मासिक प्रायश्चित्त आता है। तेणं परं पलिखिए वा, अपलिउंथिए बाते व छम्मासा। इसके उपरान्त माया-सहित या माया-रहित आलोचना करने पर भी वही पाण्मासिक प्रायश्चित्त आता है। जे भिक्खू बहुसो वि मासिय परिहारहाणं पडिसेषित्ता आलो- जो भिक्षु अनेक बार मासिक परिहारस्थान की प्रतिसेवना एग्जा, अपलिउंचिय आलोएमाणस्स मासियं, पलिउचिप करके आलोचना करे तो उसे माया-रहित आलोचना करने पर आलोएमाणEस दो मासिपं । एक मास का प्रायश्चित्त आता है और माया सहित आलोचना करने पर द्विमासिक प्रायश्चित्त आता है। जे मिक्खू बहसो वि दो मासिय परिहारद्वाण पडिसेविता जो भिक्षु अनेक बार द्विमासिक परिहारस्थान की प्रतिसेवना आलोएग्जा, अपलिविय आलोएमाणस दो मासियं, करके आलोचना करे तो उसे माया-रहित आलोचना करने पर पलिजंचिय आलोएमाणस तेमासियं । द्विमासिक प्रायश्चित्त आता है और माया-सहित आलोचना करने पर मासिक प्रायश्चित्त आता है। जे भिक्खू बहसो विते मासियं परिहारहाणं पडिसे वित्ता जो भिक्षु अनेक धार त्रैमासिक परिहारस्थान की प्रतिसेवना आलोएग्जा, अपलिउंधिय आलोएमाणस ते मासियं, पलि- करके आलोचना करे तो उसे माया-रहित मालोचना करने पर उंधिय बालोएमाणस चाउम्मासियं । मासिक प्रायश्चित आता है और माया-सहित आलोचना करने पर चातुर्मासिक प्रायश्चित्त आता है। मिक्खू बहसो वि चाजम्मासियं परिहारद्वाण पडिसेबित्ता जो भिक्षु अनेक बार चातुर्मासिक परिहारस्थान की प्रतिआलोएज्जा, अपसिउंघिय आलोएमाणस्स चाउम्मासियं, शेषना करके आलोचना करे तो उसे माया-रहित आलोचना पलिउंघिय आलोएमाणस्स पंचमासियं । करने पर चातुर्मासिक प्रायश्चित्त आता है और माया-सहित आलोचना करने पर पंचमासिक प्रायश्चित्त आता है। Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६] चरणानुयोग- २ कथा कपट रहित आलोचक को प्रायश्चित्त देने की विधि जे भिलू बहुसो वि पंचमासियं परिहारट्ठाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा. अपलिउंचिय आलोएमाणस्स पंचमासियं पनि एमाणस्स उम्बासिय तेथ परं पनिया एका रा जे भिक्खु मासि वा जाव यंत्रमासिगं वा एएस परिहारद्वाणं अध्ययरं परिहाराणं परिसेविता आलोएना अपलिचि आलो एमाणस्स मासियं वा जाव पंथमासि वा पलिउंचिय आलोएमाणस्स दो मासियं वा जाव - छम्मा सिमं वा । ते परं पलिचिय वा अपलिउंचिए वा ते जेब छम्मासा । मासि यायाम-बहुवि पंचम वा, एएस परिहारद्वाणानं अण्णयरं परिहारट्ठाणं परिसेविता आलोया अपनिचिय आलोएमा माति वा जाव पतिचि आलोमास से मालियामा सियं था । तेग परं पनिचिएका अलिचिए वा ते देव मासा | जे भिक्खू चाजम्मा सियं वर, साइरेग चाउम्मासि वा मासिक सारे पंचमालिया एस परिहारट्ठा पाणं अण्णपरं परिहारद्वाणं परिसेविता आलोएग्जाअपचय मानोएमा चारयामियं वा साइ था पंचमाया परिचय आएमाणात पंचमात या सारे पंचभासियं वर, छम्मासि या, सेण परं पलिउंचिए वा अपलिजेचिए या ते चैव धम्मासा | जेवावा चाम्मासयं वा बहुसो षि पंचभरसियं या साइरेग- पंचमासि वर एएस परिहारद्वाणानं परिहाराणं परिसेविसा अलोएडा- व इ बहुसो वि अण्णयरं जो भिक्षु अनेक दार पंचमासिक परिहारस्थान की प्रति सेवना करके आलोचना करे तो उसे माया रहित मालोचना करने पता और मायाति आलोचना करने पर प्रमादा है। इसके उपरान्त माया सहित या माया -रहित आलोचना करने पर भी वही षाण्मासिक प्रायश्चित्त आता है । जो भिक्षु मासिक - यावत् — पंचमासिक - इन परिहारस्थानों में से किसी परिस्थान की एक बार प्रतिसेवना करके आलोचना करे तो उसे - सूत्र ६५५ माया-रहित मालोचना करने पर आवेदित परिहारस्थान के अनुसार मासिक- यावत्-पंचमासिक प्रायश्चित्त आता है और यह आलोचना करने पर परिहारस्थान के अनुसार ईनामिकात्यकिप्रायश्चित भाता है। इसके उपरान्त माया-या मायाति आसीना करते पर नहीं पाया प्रायश्चित माता है। जी भिक्षु मानिकाय पंचमासिक इन परिहारान में से किसी एक परिहारस्थान की अनेक बार प्रतिसेवना करके आलोचना करे तो उसे - माया-रहित आलोचना करने पर वासेवित परिहारस्थान के अनुसार मासिकायाति प्रारस्थित आता है और माया सहित आलोचना करने पर आसेवित परिहारस्थान के अनुसार दूँ मासिक - यावत् षाण्मासिक प्रायश्चित्त आता है । इसके उपरान्त माया-महिमा माया-रहित आलोचना करते पर वही पाण्मासिक प्रायश्वित जाता है। मालिक या कुछ नासिक इन परिहारथानों में से जो मासिक या कुछ अधिक नातुर्मासिक, पंचकिसी एक परिहारस्थान की एक बार प्रतिसेवना करके आलोचना करे तो उसे मायारहित आलोचना करने पर आसेवित परिहारस्थान के अनुसार चातुर्मासिक या कुछ अधिक चातुर्मासिक, पंचमासिक या कुछ अधिक वातिक प्रति आता है और माया सहित मालोचना करने पर आरोपित परिहारस्थान के अनुसार पंचमारिक या कुछ अधिक नमानिक या सामासिक प्रायश्चित आता है। इसके उपरान्त माया सहित पापाति आलोचना करने पर वही षाण्मासिक प्रायश्चित्त आता है। चातुर्मासिक, अनेक बार पंचमासिक या अनेक बार कुछ अधिक जो भिक्षु अनेक बार चातुर्मासिक या अनेक बार कुछ अधिक पंचमासिक परिहारस्थानों में से किसी एक परिहारस्थान की प्रतिसेवना करके आलोचना करे तो उसे Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ६५५-६५६ प्रस्थापना में प्रतिसेवमा करने पर आरोपणा तपाचार [३२७ अपलिचिय आलोएमाणस्स चाउम्मासियं षा, साइरेग- माया-रहित आलोचना करने पर आसेवित परिहारस्थान के चाउम्मासियं वा, पंचमालियं या, साइरेग-पंचभासियं वा, अनुसार चातुर्मासिक या कुछ अधिक चातुर्मासिक, पंचमासिक या कुछ अधिक पंचमासिक प्रायश्चित्त आता है और पलिउंचिय आलोएमाणस्स पंचमासिय वा, साइरेग-पंच. माया-सहित आलोचना करने पर पंचमासिक या कुछ अधिक मासियं वा, छम्मासियं वा । पंचमासिक या छमासिक प्रायश्चित्त बाता है। सेण पर पलिउंचिए या, अपलिउंचिए वा ते चेत्र छम्मासा ।' इसके उपरान्त माया-सहित या माया-रहित आलोचना -वव. उ. १, सु. १-१४ करने पर वही छह मासिक प्रायश्चित्त आता है। पतृवणाए पडिसेवणाकरणे आरोवणा प्रस्थापना में प्रतिसेवना करने पर आरोपणा६५:. जे भिक्खू घाउम्मासियं बा, साइरेग-चाउम्मासिय था, ६५६. जो भिक्षु चातुर्मासिक या कुछ अधिक चातुर्मासिक, पंच पंचभासियं वा, सारेग-पंचमासियं बा, एएसि परिहारट्ठा- मासिक या कुछ अधिक पंचमासिक-इन परिहारस्थानों में से णाणं अण्णवरं परिहारद्वाणं पडिसेवित्ता आलोएम्जा- किसी एक परिहारस्थान की एक बार प्रतिसेवना करके बालो चना करे तो उसेअपलिउंचिय आलोएमाणे ठवणिज्ज ठवइत्ता करणिज्ज माया-रहित आलोचना करने पर आरोपित प्रतिसेवना के बेयावधियं । अनुसार प्रायश्चित्त रूप परिहार तप में स्थापित करके उसकी योग्य वयावृत्य करनी चाहिये। ठविए वि पडिसेवित्ता, से विकसि तत्व आहहेयब्वे यदि वह परिहार तप रूप में स्थापित होने पर भी किसी सिया । प्रकार को प्रतिसेवना करे तो उसका सम्पूर्ण प्रायश्चित्त भी पूर्व प्रदत्त प्रायश्चित्त में सम्मिलिल कर देना चाहिये। १. पुम्बि पडिसेवियं पुस्वि आलोइयं, (१) पूर्व में प्रतिसेवित दोष की पहले आलोचना की हो, २. पुग्वि पडिसेवियं पच्छा आलोइयं, (२) पूर्व में प्रतिसेवित दोष की पीछे आलोचना की हो, ३. पच्छा एडिसेविय पुग्विं आलोइयं, (३) पीछे से प्रतिसेवित दोष की पहले आलोचना की हां, ४. पच्छा पडिसेबियं पच्छा आलोइयं, (४) पीछे से प्रतिसेवित दोष की पीछे से आलोचना की हो । १. अपलिउचिए अपलि चियं, (1) माया-रहित आलोचना करने का संकल्प करके माया. रहित आलोचना की हो, २. अपलिउचिए पलिउ चियं, (२) माया-रहित आलोचना करने का संकल्प करके माया सहित आलोचना की हो, ३. पलिउचिए अपलिज चिय, (३) माया-सहित आलोचना करने का संकल्प करके माया रहित आलोचना की हो, ४. पलिज चिए पलिनियं, (४) माया-सहित आलोचना करने का संकल्प करके माया सहित आलोचना की हो । आलोएमागस्स सध्वमेयं सकयं साहणियं आरुहेयध्वे, इनमें से किसी भी प्रकार के भंग से आलोचना करने पर उसके सर्व स्वकृत अपराध के प्रायश्चित्त को संयुक्त करके पूर्व प्रदत्त प्रायश्चित्त में सम्मिलित कर देना चाहिए। जे एयाए पट्टवणाए पटुषिए निम्बिसमाणे पडिसेवेद्र, ते वि जो इस प्रायश्चित्त रूप परिहार तप में स्थापित होकर बहन कसिणे तत्व आरुहेयको सिया। करते हुए भी पुनः किसी प्रकार की प्रतिसेवना करे तो उसका सम्पूर्ण प्रायश्चित्त भी पूर्वप्रदन प्रायश्चित्त में आरोपित कर देना चाहिए। १ नि. उ. २०, सु. १-१६ Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८] चरणानुयोग - २ प्रस्थापना में प्रतिसेवना करने पर आरोपणा जे भिक्खू चाम्बासिय वा साइरेव बाबा पंचभागिय साइएस परिहारट्ठा पाणं अन्यपरं परिहारद्वाणं परिसेविता आनोएडा, सिविय आलोत्माथे उमणिययं वहता कर वैयावडियं । विए बिपा से विकसितरमेव आहे तिथा। १. पुटिवं परिसेवियं पुर्वियं आलोइयं २. पुषि पडिसेवियं पच्छा आलोयं, २. पडा पहिषियं निवं आलो ४. पच्छा पडिसेवियं पच्छा आलोइयं । १. अलि दिए अपलिवियं २. अपलिउ थिए पलिज दियं, २. लिए अपलिि ४. पल दिए सि चियं । आलोएमाणस्स सध्वमेयं सकयं साहनिय आह जे एयाए पट्टषणाए पट्टषिए निश्सिमाणे डिसेवेह से वि कसितत्व यम्बे लिया। जे बहुतो विचमा बहुवि सारेग atanifer श बहुसो वि पंचमासयं वा बहुसो वि साइरेग-पंथमासियं वा, एएस परिहारट्ठाणानं अनपरं परिहाराणं पचिविसावलोवा-अपलिज धिय आलोएमाणे ठवणिज्जं व्ववत्ता करणि मावडियं । afty fe डिसेविता से विकसिणे सत्येव आहेयव्वे सिया । १. आलो सूत्र ६५६ - जो भिचातुर्मासिक या कुछ अधिक मोतिक, पंच मासिक या कुछ अधिक पंचनासिक इन परिहारस्थानों में से किसी एक परिहारस्थान की प्रतिसेवना करके आलोचना करे तो उसे माया सहित आलोचना करने पर आसेवित प्रतिसेवना के अनुसार प्रायनिल रूम परिहार तप में स्थापित करके उसकी योग्य वैदा करनी चाहिए यदि वह परिहार तप में स्थापित होने पर भी किसी प्रकार की प्रतिसेवन करे तो उसका सम्पूर्ण प्रायश्चित भी पूर्व प्रदत्त प्रायश्चित में सम्मिलित कर देना चाहिए। (१) पूर्व में प्रतिमेति दोष भी पहले आलोचना की हो, (२) पूर्व में प्रतिरोधित दोष की पीछे आलोचना की हो. (३) पीछे से प्रतिवित शेष की पहले आलोचना की हो, (४) पीछे दोष की पीछे आलोचना की हो। (१) माया-रहित आलोचना करने का संकल्प करके भावारहित आलोचना की हो, (२) माया-रहित आलोचना करने का संकल्प करके गायासहित बालोचना की हो, (३) माया सहित आलोचना करने का संकल्प करके मायारहित आलोचना की हो, (४) माया सहित बालोचना करने का संकल्प करके मायासहित आलोचना को हो । इनमें से किसी भी प्रकार के भंग से आलोचना करने पर उसके सर्वं स्वकृत अपराध के प्रायश्चित्त को संयुक्त करके पूर्व प्रदत प्रायश्वित में सम्मिलित कर देना चाहिए। जो इस प्रायश्चित रूप परिहार तप में स्थापित होकर वहन किसी प्रकार की प्रतिसेवना करे तो उसका भी पूर्व प्रदत प्रायश्चित में आरोपित कर करते हुए भी सम्पूर्ण प्राय देना चाहिए। जो भिक्षु चातुर्मासिक या कुछ अधिक चातुर्मासिक, पंचमासिक या कुछ अधिक पंचमासिक परिहारस्थानों में से किसी एक परिहारस्थान की अनेक बार प्रतिसेवना करके बलोचना करे तो उसे पुनः माया-रहित आलोचना करने पर जावित प्रतिसेवना के अनुसार प्रायश्चित्त रूप परिहार तप में स्थापित करके उसकी योग्य वैयावृत्य करनी चाहिए । यदि वह परिहार तप में स्थापित होने पर भी किसी प्रकार की प्रतिसेवना करे तो उसका सम्पूर्ण प्रायश्चित्त भी पूर्व प्रदत्त में सम्मिलित कर देना चाहिए। (१) पूर्व में प्रतिसेवित दोष की पहले आलोचना की हो, Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ६५६ २. पुषि पडिसेवियं पच्छा आलोयं, २. पच्छा पहिलेवियं पृथ्वि आलो ४. पच्छा परिसेवियं पच्छा आलोइयं । १. अपलिम्बिए अपलिन्चियं, २. अयं प्रस्थापना में प्रतिसेवना करने पर आरोपणा ३. पलिए अपलिचियं ४. चिनिचियं । आलोएमाणस्स सरमेयं सकयं साहणियं आरुयथ्ये । जे एमए पढाए पनिए निस्सिमाणे एडिलेड, से कसाव आया। भिक्खु बहुसो बचाउमावि या बहुवि सारेग मामासि वा बहुसो वि पंचमासियं वा बहुसो वि साइरेग पंचमासि या एएस परिहारट्ठानाणं अश्यरं परिसेवित्ता आलोएज्जर, पालोमा वडियं । १. पुनि पडिसेवि वि आलोइय २ वि डिसेविय पच्छा आलोय', २. पापविलिय ४. पच्छा डिसेविय' पच्छा आलोय, १. अपलिचिए अपलिनिय २. अपए तिम्बिय ३. परिधिए अपलिन्चिय', ४. लिपिसि लाकरणिया ठाए पिडितेविता से विकसितत्वेव सिया । तपाचार [३२६ (२) पूर्व में दिवस दोष की पीछे आलोचना की हो. (३) पीछे से प्रतिवेदित दोष की पहले आलोचना की हो, (४) पीछे से प्रतिसेवित दोष को पीछे आलोचना की हो । (१) माया-रहित आलोचना करने का संकल्प करके मायारहित आलोचना की हो, (२) प्राया रहित आलोचना करने का संकल्प करके मायासहित आलोचना की हो, (३) माया सहित आलोचना करने का संकल्प करके मायारहित आलोचना की हो, (४) माया-महित मालोचना करने का संकल्प करके भाया सहित आलोचना की हो। इनमें से किसी भी प्रकार के भंग से आलोचना करने पर उसके सर्व स्वकृत अपराध के प्रायश्चित्त संयुक्त करके पूर्व प्रदत प्र में सम्मिलित कर देना चाहिए । जो इस प्रायश्चित्त रूप परिहार तप में स्थापित होकर वन करते हुए भी पुनः किसी प्रकार की प्रतिसेवना करे तो उसका सम्पूर्ण प्रायश्चित्त भी पूर्व प्रदत्त प्रायश्चित्त में आरोपित कर देना चाहिए। जो भिक्षु चातुर्मासिक या कुछ अधिक चातुर्मासिक, पंचमासिक या कुछ अधिक पंचमासिक-इन परिहारस्थानों में से किसी एक परिहारस्थान की अनेक बार प्रतिसेवना करके आलो चनः करे तो उसे माया सहित आलोचना करने पर कति प्रतिसेवना के अनुसार प्रारूप परिहार तप में स्थापित करके उसकी योग्य वैदा करनी चाहिए। यदि वह परिहार तप में स्थापित होने पर भी किसी प्रकार की प्रतिरोधना करे तो उसका सम्पूर्ण प्रायश्चित भी पूर्व प्रद प्रायश्चित्त में कर देना चाहिए। (१) पूर्व में प्रतिसेति दोष की पहले आलोचना की हो. (२) पूर्व में प्रतिसेवत दोष की पीछे आलोचना की हो, (३) पीछे से प्रतिसेवित दोष की पहले आलोचना की हो, (४) पीछे से प्रतिसेवित दोष की पीछे आलोचना की हो। (१) माया-रहित आलोचना करने का संकल्प करके मायारहित आलोचना की हो, (२) मायारहित आलोचना करने का संकल्प करके मायासहित] आलोचना भी हो, (३) माया सहित आलोचना करने का संकल्प करके मायारहित आलोचना की हो, (४) माया सहित आलोचना करने का संकल्प करके माया सहित] आलोचना की हो Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३०] चरणानुयोग-२ आक्षेप लगाने वालों को प्रायश्चित सूत्र ६५६-६५६ आलोएमाणस्त सव्वमेय सकय साहणिप' आहहेयवे, इनमें से किसी भी प्रकार के भंग से आलोचना करने पर उसके सर्व स्वकृत अपराध प्रायश्चित्त को संयुक्त करके पूर्व प्रदत्त प्रायश्चित्त में सम्मिलित कर देना चाहिए। जे एयाए पट्टवणाए पदविए निग्विसमाणे परिसेवेह, से वि जो इस प्रायश्चित्त रूप परिहार तप में स्थापित होकर बहन कांसणे तत्वैव आरूहेयवे सिया। करते हुए भी पुन: किसी प्रकार की प्रतिसेवना करे तो उसका - वव. उ. १, सु. १५.१८ सम्पूर्ण प्रायश्चित्त भी पूर्व प्रदत्त प्रायश्चित्त में आरोपित कर देना चाहिए। आलोचना और प्रायश्चित्त-१(घ) अक्खेव-कराणं पायच्छित्तं आक्षेप लगाने वालों को प्रायश्चित्त६५७ कप्पस्स छ पत्यारा पण्णता, तं जहा ६५७. कल्प साध्वाचार के छह विशेष प्रकार के प्रायश्चित्त स्थान कहे गये हैं। यथा१. पाणाइवायस्स वायं वयमाणे, (१) प्राणातिपात का आरोप लगाये जाने पर । २. मुसावायरस वाय वयमाणे, (२) मृषावाद का आरोप लगाये जाने पर, ३. अविनावागस्स वाय' घयमाणे, (३) अदत्तादान का आरोप लगाये जाने पर, ४, अविरहयावाय वयमाणे, (४) ब्रह्मचर्य भंग करने का आरोप लगाये जाने पर, ५. अपुरिसवाय वयमाणे, (५) नपुंसक होने का आरोप लगाये जाने पर, ६. वासवाय वयमागे। (६) दास होने का आरोप लगाये जाने पर, इच्चेए कप्पस्स पत्थारे पत्यरेता सम्मं अपरिपूरमाणे संयम के इन विशेष प्रायश्चित्त स्थानों का आरोप लगाकर ताण पत्ते सिया।' उसे सम्यक् प्रमाणित नहीं करने वाला साधु उसी प्रायश्चित्त -कप्प. उ. ६, सु. २ स्थान का भागी होता है। अणुग्धाइय पायश्चित्तारिहा अनुपातिक प्रायश्चित्त के योग्य६५८. पंच अणुग्धाश्या पण्णता, तं जहा ६५८. पाँच अनुद्घातिक (गुरु) प्रायश्चित्त के योग्य कह हैं, यथा१ हत्य कामं करेमागे, (१) हस्तकर्म करने वाला, २. मेहुणं पडिसेवेमाणे, (२) मैथुन-सेवन करने वाला, ३. राई भोषणं मुंजमाणे, (३) रात्रि भोजन करने वाला, ४. सागारियपिड मुंओमाणे, (४) शय्यातर पिण्ड को खाने वाला, ५. रायपि भुजेमाणे। --ठाणं. अ. ५, उ. २, सु. ४१४ (५) राजपिण्ड को खाने वाना। अणवठप्प पायच्छित्तारिहा अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त के योग्य६५६. ती अगवटुप्पा पण्णत्ता, तं जहा ६५६. तीन अमवस्थाप्य प्रायश्चित्त के योग्य कहे गये है, यथा १ नि. ल. २०, सु. १७-२० २ ठाण. अ. ६, सू. ५२८ ३ (क) ठाणं. अ. ३, उ. ४, सु. २०३ (ख) कप्प. उ.४, सु. १ Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ६५६-६६२ भनवस्थाप्य ग्लान भिक्षु को लघु प्रायश्चित देने का विधान तपाचार [३३१ १. माहम्मियाग तेषण करेमाणे, (१) साधर्मिकों की चोरी करने वाला, २. अण्पम्मियाणं तेगं करेमाणे, (२) अन्यधर्मिकों की चोरी करने वाला, ३. हत्थाताल दलयमाणे । - ठाणं, अ. ३, उ.४, सु. २०३ (३) हस्तताल देने वाला अर्थात् मारक प्रहार करने वाला। अणवठप्प-गिलाणस्स-लहुपायच्छित्त-दाण-विहाण- अनवस्थाध्य ग्लान भिक्ष को लघ प्रायश्चित्त देने का विधान६६.. अणबटुप्पं भिक्खं मिलायमाणं नो कप्पा तस्स गणावच्छेइ- ६६०. अनवस्थाप्य भिक्षु (नवमा प्रायश्चित्त को वहन करने एस्स निहितए। अगिताए तस्स करणिज्ज वेवावडिय', वाला साधु) यदि रोगादि से पीड़ित हो जाये (उस प्रायश्चित्त जाब-तओ रोगायंका विप्पमुक्को, तो पन्छा तस्स को वहन न कर सके) तो उसे गण से बाहर करना नहीं कल्पता अहालहसए नाम ववहारे पट्टवियरवे सिया । है किन्तु जब तक यह रोग-आतंक से मुक्त न हो तब तक उसकी - वव, उ. २. सु. ७ अग्लान भाव से वैयावृत्य करानी चाहिए। बाद में (म्णावच्छेदक) उस अनवस्थाप्य साधु को अत्यल्प प्रायश्चित्त दें। छेओवट्ठावणा पाच्छित्तारिहा छेदोपस्थापनीय प्रायश्चित्त के योग्य६६१. भिक्खू य गणामी अबक्कम्म ओहावेजा, से य इच्छष्जा ६६१. यदि कोई भिक्षु गण से निकलकर संयम का त्याग कर दे यो पि तमेव गणं उपसंपज्जित्ताणं विहरित्तए, नस्थि पं और बाद में वह उसी गण को स्वीकार कर रहना चाहे तो तस्स तप्पत्तियं केइ छैए वा परिहारे वा, नन्नत्य एगःए उसके लिए केवल "छेदोपस्थापना" प्रायश्चित्त है इसके अतिछओवट्ठावणियाए। -वव. उ. १, सु. ३२ रिक्त उसे दीक्षा-छेद या परिहार तप आदि कोई प्रायश्चित्त पारंचिय पायच्छित्तारिहा पाराचिक प्रायश्चित्त के योग्य - ६६२. पंचहि ठाणेहि समय णिग्गये साहम्मिय पारंसितं करेमाणे ६६२. पाँच कारणों से श्रमण-निमंन्य अपने सामिक को पाराणातिषकमति, सं नहा ञ्चित्त (दसवां) प्रायश्चित्त देता हुआ भगवान् की आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करता है । जैसे-- १. फुले वसति कुलस्स मेवाए अम्भुढेता भवति । (१) जो साधु जिस कुल में रहता है, उसी में भेद डालने का प्रयत्न करता है। २. गणे वसति गणस्स मेदाए अम्भुठेत्ता भवति । (२) जो साधु जिस गण में रहता है, उसी में भेद डालने का प्रयत्न करता है। ३ हिसष्पेहि, (१) जो साधु कुल या गण के सदस्यों का पात करना चाहता है। ४. छिप्पेही. (४) जो कुल या गण के सदस्यों का एवं अन्य जनों का छिद्रान्वेषण करता है। ५. अभिक्सणं अभिक्खणं पसिणायतगाई जित्ता मति। (५) जो बार-बार अंगुष्ठ आदि प्रश्न विद्याओं का प्रयोग -अणं. अ. ५, उ. १, सु. ३९ करता है । तओ पारंचिया पण्णत्ता, त जहा पारान्चिक प्रायश्चित्त के पात्र ये तीन कहे गये हैं, यथा - १. वुठे पारंचिए, (१) दुष्ट पाराश्चिक, २. पमते पारंचिए, (२) प्रमस पाराश्चिक, ३. अत्रमन्नं करेमाणे पारंथिए । (३) परस्पर मैथुनसेवी पाराधिक। -ठाणं. अ. ३, उ. ४, सु. २०३ (ख) ठाणं. अ. ३, उ. ४, सु. २०३ १ (क) काप. उ. ४, सु. ३ २ कप्प. उ. ४, सु.२ Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२] परणानयोग पारचित ग्लान भिजु को लघु प्रायश्चित्त देने का विधान पारंचिय गिलाणस्स लहुपायच्छित्त-दाण-विहाणं - पारंचित ग्लान भिक्षु को लघु प्रायश्चित्त देने का विधान - ६६३. पारंचिय भिक्खं गिलायमाणं नो कप्पड तस्स गणावच्छेद- ६६३. पारंचित भिक्षु (दशवे प्रायश्चित्त तप को बह्न करने यस्स निहितए। अगिरनाए तस्स करणिज्ज वेयावडिय, वाला माधु) यदि रोगादि से पीड़ित हो जाय (उस पारश्चित्त -जाव तओ रोगायंकाओ विप्पमुक्को, तो पच्छा तस्स अहा- को बहन न कर सके) तो गणावच्छेदक को उसे गण से बाहर लहसए नाम ववहारे पट्टवियध्वे सिया। करना नहीं कल्पता है। किन्तु जब तक बह रोग आतंक से मुक्त -ब. उ. २, सु. ८ न हो जाय तब तक उसकी अग्लान भाव से वैवावृत्व कगनी चाहिए । बाद में (गणावच्छेदक) उस पारंचित भिक्षु को अत्यल्प प्रायश्चित्त दें। लहपायपिछत्त जोग्गा - लघु प्रायश्चित के योग्य६६४. खितचित्तं भिक्खं गिलायमागं नो कप्पई तस्स गणावच्छेद- ६६४. विक्षिप्त चित्त ग्लान भिक्षु को गण से बाहर निकालना यस निम्नहितए अगिलाए तस्स करणिज्जं बेयावडियं, उसके गणावच्छेदक को नहीं वल्पता है। जब तक वह उस रोग -जाव-तओ रोगायंकाको विप्पमुषको तओ पच्छा तस्स अहा- आतंक से मुक्त न हो तब तक उसकी अग्लान भाव से सेवा करानी लहसए नाम ववहारे पवियध्ये सिया। चाहिए। उसके बाद उसे (गणावच्छेदक) अत्यल्प प्रायश्चित्त में प्रस्थापित करे। वित्तचित्तं भिक्षु गिलायमाणं नो कप्पड तस्स गमावच्छेद- दिप्त चित्त ग्लान भिक्षु को गण से बाहर निकालना उसके यस्स निहित्सए अगिलाए तस्स करणिज्ज व्यावडियं, गणावच्छेदक को नहीं कल्पता है। जब तक बह उस रोग आतंक -जाव-सओ रोगायंकाओ विप्पमुक्को तओ पछा तस्स अहा- से मुक्त न हो तब तक उसको अग्लान भाव से सेवा करानी सहसए नाम पवहारे पठ्ठषियम्वे सिया। चाहिए। उसके बाद उसे (गणावच्छेदक) अत्यल्प प्रायश्चित्त में प्रस्थापित करे। जक्खाइट्ठ भिक्खु गिलायमाणं नो कप्पा तस्स गणावच्छेद- यक्षाविष्ट ग्लान भिक्षु को गण से बाहर निकालना उसके पस्स निहित्तए । अगिलाए तस्स करणिरुजं वेयावडियं, गणावच्छेदक को नहीं कल्पता है। जब तक वह उस रोग आतंक -जाव-तओ रोगायंकाओ विप्पमुक्को तओ पछा तस्स अहा- से मुक्त न हो तब तक उसकी अम्लान भाव से सेवा करानी लहुसए नाम ववहारे पछवियम्वे सिया। चाहिए। उसके बाद उसे (गणावच्छेदक) अत्यल्प प्रायश्चित्त में प्रस्थापित करे। उम्माय-पत्तं भिषघु गिलायमाणं नो कापद तस्स गगावच्छ- उन्माद प्राप्त ग्लान भिक्षु को गण से बाहर निकालना उसके इयस्स निग्जहित्तए । अगिलाए तस्स करणिम्जं बेयावडियं, मणावच्छेदक को नहीं कल्पता है। जब तक वह उस रोग आलंक -जाव-सओ रोगायंकाओ विष्पमुम्को तओ पच्छा तस्स अहा- से मुक्त न हो तब तक उसकी अम्लान भाव से सेवा करानी लहसए नाम बबहारे पट्टविषयवे सिया । चाहिए। उसके बाद उसे (गणावच्छेदक) अत्यल्प प्रायश्चित्त में प्रस्थापित करे। उक्सग पत्तं मिक्स गिलायमाणं नो कम्पद तस्स गण बच्छे- गरार्ग प्राप्त ग्लान भिक्षु को गण से बाहर निकालना इयरस निज्जूहित्तए । अगिलाए तस्स करणिज्जं वेयावडियं, उसके गणावोदक को नहीं कहलाता है। जब तक वह उस रोग -जाव-सओ रोगायकाओ विष्पमुक्को तओ पच्छा तस्स अहा- आतंक से मुक्त न हो तब तक उसकी अग्लान भाव से सेवा लहसए नाम ववहारे पट्ठविपल्वे सिया। करानी चाहिए। उसके बाद उसे (गणावच्छेदक) अत्यल्प पाय पिचत में प्रस्थापित करे। साहिगरणं भिषा गिलायमाणं नो कप्पड़ तस्स गणावच्छेइ- कलह युक्त ग्लान भिक्षु को रण से बाहर निकालना उसके यस्स निहितए अगिलाए तस्स करणिज्जं वेयावडिय, गणावच्छेदक को नहीं कल्पता है। जब तक वह उस रोग आतंक -जाब-तओ रोगायंकाओ दिप्पमुक्को तओ पच्छा तस्स अहा- से मुक्त न हो तब तक उसकी अग्लान भाव से सेवा कराती लहसए नाम ववहारे पट्टवियत्वे सिया। चाहिए। उसके बाद उसे (गणाबदक) अत्यल्प प्रायश्चित्त में प्रस्थापित करे। Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ६६४-६६७ प्रायश्चित्त का फल तपाचार १३३३ सपायच्छिस मिक्खं गिलायमाणं नो कप्पा तस्स गणावच्छे- प्रायश्चित्त प्राप्त ग्लान भिक्षु को गण से बाहर निकालना इयस्स निहित्तए । अगिलाए तस्स करणिज्जं वेयावलियं, उसके मणायत्छेदन को नहीं कल्पता है। जब तक वह उम रोग -जाव-तको शेयायको विपमुको सओ पच्छा अहालह- आतक से मुक्त न हो तब तक उसकी अग्लान भाव से सेवा करानी सए नाम बघहारे पवियचे सिया। नाहिए। उसके बाद उसे (गणावच्छेदक) अत्यल्प प्रायश्चित में प्रस्थापित करे। भत्तपाणपडियाइक्खिय भिव गिलायमाणं नो कप्पड़ तस्स भक्त प्रत्यास्यानी म्लान भिक्षु को गण से बाहर निकालना गगावच्छे यस्स निम्नहित्तए। अगिलाए तस्स करणिज्जं उसके गणावच्छेदक को नहीं कल्पता है । जव तक यह उस रोग धेयावडिय-जाव तओ रोगायंकाओ विष्पमुक्को तओ पच्छा आतंक से मुक्त न हो तब तक उसकी अग्लान भाव में सेवा करानी तस्म अहालसए नाम ववहारे पट्टषियब्वे सिया । चाहिए। उसके बाद उने (गणावच्छेदक) अत्यल्प प्रायधिचत्त में प्रस्थापित करे। अठ्ठ-जाय भिक्षु गिलायमाणं नो कप्पड तस्स गणावच्छ प्रयोजनाविष्ट (आकांक्षा युक्त) ग्लान भिक्षु को गण से इयस्स निहित्तए । अगिलाए तस्स करणिज्ज वेयावरिया, बाहर निकालना उसके गणावच्छेदक को नहीं कल्पता है । जब तक -जाव-तो रोयायंकाओ विप्पमुक्को तओ पच्छा तस्स अहा- वह उस रोग आतंक से मुक्त न हो तब तक उसकी अालान भाव लहुसए नाम बबहारे पवियम् सिया । से सेवा करानी चाहिए। उसके बाद उसे (गणावच्छेदक) अत्यल्प -वव. उ. २, सु. ६-१७ प्रायश्चित्त में प्रस्थापित करे। पायच्छित फलं प्रायश्चित्त का फल - ६६५. ५०-पायच्छित्त-करणेणं भन्ते ! जीये कि जणया? ६६५. प्र.-भन्ते ! प्रायश्चित्त करने से जीव क्या प्राप्त करता है? उ.--पायच्छित्तकरणेणं पावकम्म विसोहि जणयह, निरह- उ-प्रायश्चित्त करने से वह पापकर्म की विशुद्धि करता यारे पावि भवई । सम्मं च णं पायच्छिसं पडिबग्ज- है और निरतिचार हो जाता है। सम्यक् प्रकार से प्रायश्चित्त माणे मग च मम्गफलं व विसोहक, आयारं च आयार स्वीकार करने वाला वीतराग माग (सम्पपरव) और मार्ग-फल फल च आराहेह। --उत्त अ. २६, सु. १८ (ज्ञान) को निर्मल करता है तथा आचार (चरित्र) और आधार फल (मुक्ति) की आराधना करता है। अत्त-णिदा-फलं आत्मनिंदा का फल६६६.५०-निन्दणयाए णं भन्ते ! जीथे कि जणयह ? ६६६. प्र.- भन्ते ! आत्म-निन्दा! से जीव वया प्राप्त करता है? उ. - निन्दणयाए णं पच्छाणुसावं जणयह । पछाणुतायेणं उ.-आत्म-निन्दा से वह पश्चात्ताप को प्राप्त होता है। विरज्जमाणे करणगुणसेढि पडिबज्जई | करणगुणसेतो पश्चात्ताप से वैराग्य को प्राप्त होता हुआ वह जीव क्षपक श्रेणी परिवन्ने अणमारे मोहणिज्ज कम्म उग्धाएइ। को प्राप्त होता है । क्षपक श्रेणी को प्राप्त हुआ अनगार मोह -उत्त. अ. २६, सु.८ नीय कर्म को क्षीण कर देता है। विविहा गरहा -- अनेक प्रकार की महीं६६७. तिविहा गरहा पण्णता, तं जहा -- ६६७. गर्दा तीन प्रकार की कही गई है, यथा पाप कर्मों को नहीं करने के लिए१. मणसा वेगे गरहति, (१) कोई मन से नहीं करते हैं, २. वयसा बेगे गरहति, (२) कोई बचन से गर्दा करते हैं, ३. कायसा वेगे परहति -पावाणं कम्माणं अकरणयाए । (३) कोई काया से गर्दा करते हैं। अहवा-गरहा तिथिहा पण्णता तं जहा--- अथवा गहीं तीन प्रकार की कही गई है पाप कर्मों को नहीं करने के लिए-- १. बीह पेगे अवं गरहति, (१) कोई दीर्घकाल तक पाप-कर्मों की मर्हा करते हैं, Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४] चरणानुयोग-२ आत्म गहाँ का फल सूत्र ६६७-६६६ २. रहस्सपेगे अदं गरहस्ति, (२) कोई अल्प काल तक पाप-कर्मों की गहा करते हैं, ३. कायंपेगे पडिसाहररि-पावाणं फम्माणं अफरणाए। (३) कोई काया को पापकर्म से निवृत्त कर लेते हैं। -ठाणं. अ. ३, उ.१, सु. १६५ चबिहा गरहा पण्णसा, संहा हा गा की कही गई है । जैसे१. उपसंपज्जानिसेगा गरहा, (१) अपने दोष को निवेदन करने के लिए गुरु के समाप जाऊँ इस प्रकार का विचार करना, यह एवा नहीं है । २. वितिगिच्छामिलेगा गरहा, (२) अपने निन्दनीय दोषों का निराकरण करूं इस प्रकार का विचार करना, यह दूसरी गहीं है। ३. ज किचिमिच्छामित्तेगा गरहा, (३) जो कुछ मैंने असद् भाचरण किया है, वह मेरा मिथ्या हो, इस प्रकार के विचार से प्रेरित हो ऐसा कहना यह तीसरी मां है। ४. एवं पि पण्णत्तेगा गरहा । (४) ऐसा भी भगवान् ने कहा है कि अपने दोष की गर्दा करने से दोषों की शुद्धि होती है, ऐसा विचार करना यह चौथी -साणं, अ. ४, उ. २, सु. २२५ गहीं है । अत्त गरहणा फलं आत्म गर्दा का फल - ६६८. १०---गरहणयाए णं भन्ते ! जीवे कि जणयइ? ६६८. प्र.-भन्ते ! आत्म-गहीं से जीव क्या प्राप्त करता है ? उ.-गरहणयाए गं अपुरस्कारं जगया। अपुरस्कारगए उ०-आत्म नहीं से वह जीव अवज्ञा को प्राप्त होता है। पं जीवे अप्पसत्येहिती, जोगेहितो नियतेड पसत्ये य अवज्ञा को प्राप्त हुआ जीव अप्रशस्त प्रवृत्तियों से निवृत्त होता पवत्तइ । पसत्यजोगपडियन्ने यणं अणगारे अगन्त है और प्रशस्त प्रवृत्तियों को अंगीकार करता है। प्रशस्त योगों घाइपग्जवे सवेद । -उत्त. अ.२६ सु. ६ से युक्त हुआ बनगार आत्मा के अनन्त ज्ञान दर्शनादि की घात करने वाली कम पर्वायों को क्षीण कर देता है। पारिहारिक तप-१() पारिहारिय-अपारिहारियाणं णिसेज्जाइ ववहारो- पारिहारिक और अपारिहारिकों का निषद्यादि व्यवहार - ६६६. बहवे पारिहारिया बहवे अपारिहारिया इच्छेन्जा एपघओ ६६६. अनेक पारिहारिक भिक्षु और अनेक अपारिहारिक भिक्षु अभिनिसेज्जं था, अभिनिसोहियं या चेइत्तए, नो से कप्पर यदि एक साथ रहना या बैठना चाहे तो स्थविर भिक्षु को पूछे थेरे गणापुच्छिता एमयओ अभिनिसेज्ज वा अमिनिसीहियं बिना एक साथ रहना या एक साथ बैटना नहीं कल्पता है। वा घेइत्तए। पप्पाहणं येरे आपूपिछत्ता एगयो अमिनिसेजमा अमि- स्पविर भिक्षु को पूछ करके ही वे एक साथ रह सकते हैं निसीहियं वा चेहत्तए। या बैठ सकते हैं। घेरा य गं वियरेज्जा, एवं कपड़ एगयओ अमिनिसेज या यदि स्थविर भिक्षु आज्ञा दें तो उन्हें एक साथ रहना या अभिनिसीहियं वा चेइत्तए । एक साथ बैठना कल्पता है। पेरायणं वियरेज्जा, एवं गणो कप्पड एगयओ अभिनिसेज स्थविर भिक्षु आज्ञा न दें तो उन्हें एक साथ रहना या वा अभिनिसोहियं वा चेदत्तए। बैठना नहीं कल्पता है। Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्र ६६६-६७० पारिहारिक और अपारिहारिकों के परस्पर आहार सम्बन्धी व्यवहार सपाचार [३३५ Animmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmwwwrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrammmmmmmmmmmmmmmmmm.. जो पं थेरेहिं अविष्णे, अभिनिसेज्ज वा अभिनिसीहियं वा यदि स्थविर की आज्ञा के बिना वे एक साथ रहें या त्रै एइ, से संतरा छए था परिहारे वा।। तो उन्हें उस मर्यादा उल्लंघन का दीक्षा छेद या परिहार तप - वव. उ.१, सु. १६ प्रायश्चित्त बाता है। पारिहारिय-अपारिहारियाणं अण्णमष्णं आहार ववहार- पारिहारिक और अपारिहारिकों के परस्पर आहार सम्बन्धी व्यवहार६१७०. बहवे पारिहारिया बहवे अपरिहारिया इच्छेन्जा एगपो ६७०, अनेक पारिहारिक और अनेक अपारिहारिक भिक्षु यदि एगमासं वा, तुमासं वा, तिमासं षा, चाउमासं वा, पक्षमासं एक, दो, तीन, चार, पाँच, छ: मास पर्यन्त एक साथ रहना घा वत्पए। ते अन्नमन संभुति, अन्नमन्नं नो संगति। चाहे तो पारिहारिक भिक्षु पारिहारिक भिक्षु के साथ और मासंते, तमो-पच्छा सम्वे वि एगयओ सति । अपारिहारिक भिक्षु अपारिहारिक भिक्षु के साथ बैठकर आहार कर सकते हैं और पारिहारिक भिक्षु भपारिहारिक भिक्षु के साथ बैठकर आहार नहीं कर सकते हैं, किन्तु छ: मास तप के और एक माम पारणे का बीतने पर वे सभी (पारिहारी और अपारि हारी) भिक्षु एक साथ बैठकर आहार कर सकते हैं। परिहार-कप्पष्ट्रियस्त भिक्षुस्स नो कप्पा असणं वा-जाय अपरिहारिक भिक्षु को पारिहारिक भिक्षु के लिए अशन साइमं वा दाउं वा अणुप्पदाउ वा। -यावत् - स्वादिम आहार देना या निमन्त्रण करके देना नहीं कल्पता है। थेरा य ण वएग्जा-'इम ता अज्जो ! तुम एएस देहि या यदि स्थविर कहे कि- "हे आर्य! तुम इन पारिहारिक अणुपदेहि वा," भिक्षुओं को यह आहार दो या निमन्त्रण कर के दो।" एवं से कप्पा यावा, अणुपदावा । ऐसा कहने पर उसे आहार देना या निमग्नग करके देना कल्पता है। कम्पइ से लेवं अणुजाणावेत्तए, परिहार कल्पस्थित भिक्षु यदि लेप (घृतादि विकृति) लेना चाहे तो स्थविर की आज्ञा से उसे लेना कल्पना है । "अणुनाणह भंते 1 लेवाए" "हे भगवन ! मुझे घृतादि विकृति लेने की आज्ञा प्रदान एवं से कप्पह सेवं समासेवित्तए । इस प्रकार स्थविर से आज्ञा लेने के बाद उसे घृतादि विकृति का सेवन करना कल्पता है । परिहार-कल्पष्टुिए भिक्खू सएवं पडिग्गहेणं यहिया अपणो परिहारकल्प में स्थित भिक्षु अपने पात्रों को ग्रहण कर वेशवाजयाए गच्छज्जा, येराव णं वएज्जा । अपने लिए आहार लेने जावे, उसे जाते हुए देखकर स्थविर कहे कि"पडिग्गाहेहि अन्जो ! अहं पिभोक्खामि वा पाहामि वा," हे आर्य ! मेरे योग्य आहार पानी भी लेते थाना में भी खाऊँगा घिऊंगा।" एवं से कप्पइ पडिग्माहेत्तए । ऐसा कहने पर उसे स्थविर के लिए आहार लाना कल्पता है। तस्य नो कप्पह अपरिहारिएणं परिहारियस्स पडिमा हंसि अपरिहारिक स्थविर को पारिहारिक भिक्षु के पात्र में असणं वा-जाव साइमं या भोत्तए वा पायए वा। अशन--यावत--स्वाद्य खाना पीना नहीं कल्पता है। कप्पद से सयंसि वा, पडिम्गहंसि, समंसि वा पलासगंसि, किन्तु उसे अपने ही पात्र में, पलासक में, जलपात्र में, दोनों सयंसि वा कमण्डलगसि, सयंसि वा खुम्भमंसि वा, सयंसि हाय में या एक हाथ में ले ले कर खाना-पीना कल्पता है। वा पाणिसि उट्ठ-उद्धट्ट भोसए वा पायए वा। एस कप्पो अपरिहारियस्स परिहारियाओ। ग्रह पारिहारिक भिक्षु का पारिहारिक भिक्षु की अपेक्षा से आचार कहा गया है। Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६] वरणानुयोग-२ परिहारकल्पस्थित करण भिजु को अल्प प्रायश्चित्त देने का विधान सूत्र ६७० ६७१ वा" परिहारकप्पट्टिए मिक्सू भेराणं पडिग्गहेणं यहिया येरागं परिहार कल्प में स्थित भिक्षु स्थविर के पात्रों को लेकर व्यावडियाए गमछज्जा थेरा य गं वएज्जा उसके लिए आहार-पानी लाने को जावे तब स्थबिर जसे कहे कि"पनिगाहेहि अज्जो! तुमंपि पच्छा भोवलसि वा पाहिसि "हे आर्य ! तुम अपने लिए भी साथ में ले आना और बाद में खा लेना पी लेना।" एवं से कप्पड़ पडिग्गाहेत्तए । ऐसा कहने पर उसे स्थविर के पात्रों में अपने लिए भी आहार लागा कल्पता है। तस्य नो कप्पइ परिहारिएणं अपरिहारियरस पदिग्गहंसि बपारिहारिक स्थविर के पात्र में पारिहारिक भिक्षु को अशन असणं वा-जाब-साइमं वा भोत्सए वा पायए वा । यावत् - स्वाद्य खाना-पीना नहीं कल्पता है। कम्पह से सयंसि वा पडि गहसि, सयंसि का पलासगंसि किन्तु उसे अपने ही पात्र में, पलाशक में, कमण्डल में, सयंसि वा कमण्डलगंसि, सयंसि वा खुरामगंसि, सस या दोनों हाथ में या एक हाय में ले लकर खाना-पीना कल्पता है। पाणिसि उदट-उबर भोसए वा पायए वा। एस कप्पो परिहारियस्स अपरिहारियाओ। यह पारिहारिक भिक्षु का अपारिहारिक भिक्ष की अपेक्षा -उ २, सु २७-३० मे आचार वहा गया है। परिहारकप्पटियस्स गिलाणस्स लहू पायजित दाण परिहारकल्पस्थित रुग्ण भिक्षु को अलर प्रायश्चित्त देने विहाणं का विधान६७१. परिहार-कप्पढिए भिक्खू गिलाएमाणे अन्नयर अफिच्च- ६७१ परिहार तप रूप प्रायश्चित्त करने वाला भिक्षु यदि हाण ट्ठाणं पडिसेविसा आलोएज्जा, होने पर किसी अकृत्य स्थान की प्रतिसेवना कर आलोचना करे तो - उसके प्रायश्चित्त के सम्बन्ध में तीन विकल्प है१. से य संथरेज्जा ठवणिज ठवइत्ता करगिजं वेयावडिय। (१) यदि वह परिहार तप करने में समर्थ हो तो आचार्यादि उसे परिहार ता रूप प्रायश्चित्त र और उसकी यावश्यक सेवा व.ग । २. से य नो संघरेज्जा अनुपरिहारिएणं तस्स करणिज्ज (२) यदि वह समर्थ न हो तो आचार्यदि उसकी वयावृत्य वेयावडिया के लिए अनुपारिहारिक भिक्षु को नियुक्त करे । ३. से य संते बले अणुपारिहारिएणं कीरमाणं यावडियं (३) यदि वह पानिहारिक भिक्षु सबल होते हुए भी अनुसाइज्जेज्जा, से विकसिणे तस्येव आरहेयव्ये सिया। पारिहारिक भिक्षु से बयावृत्य करावे तो उस का प्रायश्चित्त भी पूर्व प्रायश्चित्त के साथ आरोपित करे। परिहार-कप्पदिय भिक्ख गिलायमाणं नो कप्पड़ तस्स परिहार तप रूप प्रायश्चित्त करने वाला भिक्षु यदि रोगादि गणावच्छे इयस्स निग्जूहितए। अगिलाए तस्स करणिज्जं से पीड़ित हो जाय तो गणावच्छेदक को उसे गण से बाहर करना बेयावरिया, जावतमओ रोगायंकाओ विपमुक्को । तओ नहीं कल्पता है। किन्तु जब तक वह रोग के आतंक से मुक्त न पच्छा तस्स अहालहसए नाम ववहारे पट्टवियम्वे सिया। हो तब तक उसकी अग्लान भाव से बयावृत्य करानी चाहिए -चत्र.उ. २, सु. ५-६ बाद में गणावच्छेदक उस पारिहारिक भिक्षु को अत्यल्प प्रायश्चित्त दे। .परिहारकप्पट्ठिए भिक्खू बहिया थेराणं वेयावडियार परिहारकल्पस्थित भिक्षु यदि स्थविरों की यादत्य के लिए गच्छेज्जा, से य आहच्च अदक्कमेजजा, तंव येरा जाणिज्जा कहीं बाहर जावे और कदाचित् कोई दोष सेवन कर ले-पह - अप्पणो आगमेणं, अन्नेसि वा अंतिए सोच्ना, तो पछा वृत्तांत स्थविर अपने ज्ञान रो या अन्य से सुनकर जान ले तो सस्स बहालहसए नामं वबहारे पट्ठत्रियत्वे सिया। चयावृत्य से निवृत्त होने के बाद उसे अस्प प्रायश्चित्त दे। -कप्प. उ. १, सु.५१ Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ६७२-६७५ परिहार कल्पस्थित भिक्षु की पंयावृत्य तपाचार [३३७ परिहारकप्पट्ठियस्स वेयावडियं -- परिहार कल्पस्थित भिक्षु की यावत्य६७२. परिहारकप्पट्ठियस्स गंभिक्खुस्स कप्पइ आयरिय-विशा- ६७२. जिस दिन परिहार तप स्वीकार करे उस दिन परिहार याण सद्दिवस एगिहंसि पिडवाय स्वायत्तए। कल्पस्थित भिक्षु को एक वर से बाहार दिलाना बाचार्य या उपाध्याय को कल्पता है। सेणं परं नो से कप्पर असणं या-जाव-साइमं वा दाउं वा उसके बाद उसे अशन--यावत्-स्वादिम देना या बार-बार अणुप्पदावा कप्पड़ से अन्नयरं व्यावडिय करेत्तए, देना नहीं कल्पता है किन्तु आवश्यक होने पर कोई वैयावृत्य तं जहा करना कल्पता है यथाउठ्ठावणं वा, निसीयावणं बा, तुयट्टावणं वा. उच्चार- परिहार कल्पस्थित भिक्षु को उठावे, बिठावे, करवट बदपासवण-खेल-जलसिंघाणाणं विगिवणं श विसोहेग वा लावे, उसके मल मूत्र अलेष्मादि परठे, मल-मूत्रादि से लिप्त करेत्तए। उपकरणों को शुद्ध करे। अह पुण एवं जाणेजा-छिन्नाथाएमु पंथेसु आउरे झिलिए यदि आचार्य या उपाध्याय यह जाने कि-ग्लनि बुभुक्षित पिवासिए तबस्सी दुबले किलते मुच्छेज्ज श पवईज्ज घा, तृषित तपस्वी दुर्बल एवं क्लान्त होकर गमनागमन-रहित मार्ग एवं से कप्पद असणं वा-जाव-साइमं वा दाउ वा, अणुप्प- में कहीं मूच्छित होकर गिर जायेगा तो अशन-यावत्-स्दाबाउवा। -कप्प. उ. ३, सु. ३१-३३ दिम देना या बार-बार देना कल्पता है। नोट :--विनय के लिए देखिए ज्ञानाचार --चरणानुयोग प्रथम भाग १४ ७० से १६ तक वैयावृत्य-२ वैयावृत्य स्वरूप६७३. आचार्य आदि सम्बन्धी दस प्रकार की वयोवृत्य का यथाशक्ति आसेवन करने को वैयावृत्य कहा जाता है। वेयावच्च सहवं६७३. आयरियमाईए, यावच्चम्मिदसविहे । आसेवणं जहायाम, वेषाव तमाहियं ।। -उत्त. अ. ३०, गा. ३३ वेयावच्च करण चउभंगो-- ६७४. चत्तारि पुरिसजाया पण्णता, तं जहा-- १ आतवेयावच्च करे गाममेगे, णो परवेयावच्चकरे, H २. परवेयावच्चकरे गाममेगे, जो आतवेयाषच्चकरे, ३. एगे आतवेयापच्चकरे वि, परवेयावच्चकरे वि, वैयावृत्य करने वालों को चौभंगी६७४, (१) कई अपनी सेवा करते हैं किन्तु दूसरों की सेवा नहीं करते। (२) कई दूसरे की सेवा करते हैं किन्तु अपनी सेवा नहीं करते हैं। (३) कई अपनी सेवा करते हैं और दूसरे की सेवा भी करते हैं। (४) कई अपनी सेवा भी नहीं करते और दूसरे की सेवा भी नहीं करते हैं । वैयावृत्य के प्रकार६७५. यावृत्य तीन प्रकार का है, यथा (१) आत्मवैयावृत्य-अपनी सेवा ४. एगे जो आतबेयावमधफरे, जो परवेयावच्चकरे ।। -साणं. अ. ४, उ. ३, सु. ३१६ वेयावच्च पगारा१७५, तिविहे वेयावच्चे पणते, तं जहा १. आयवेयावच्चे, Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३८] परणानयोग-२ बयावत्य-विधान सूत्र ६७५-६७७ २. परवेयावच्चे, (२) पर-वैयावृत्य-दूसरे की सेवा, ३. तदुभयवेयावच्चे। साणं. अ. ३, उ. ३, सु. १६४ (३) तदुभय बयावृत्य . दोनों की सेवा । प० -- से कि तं वेयावच्चे ? पा-वयावृत्य क्या है. उसके कितने भेद हैं ? उ०. बेयावचच्छे वसबिहे पणते, तं जहा - उ० ---वैयावृत्य दश प्रकार का कहा गया है, यथा१. मारिय-यावच्चे, २. उवमाय-यावच्चे, (३) आचार्य-वैयावृत्य, (२) उपाध्याय-त्रयावृत्य, ३. थेर-यावरचे, ४. तवस्सी-बेधावच्चे, (३) स्थविर-वैयावृत्य (४) तपस्वी यावृत्य, ५, गिलाण-घेयावच्चे, ६. सेह-वेयावच्चे, (५) ग्लान वैयावृत्य, (६) शक्ष-यावत्य, ७. कुल-वेयावचे . गण-वेवावरचे, (७) कुल-वैयावृक्ष्य, (८) गण-मावत्व, ६. संघ-यावच्च, १०. साहम्मिच-यावच्चे ।। ६) संघ-वैयावृत्य, (१०) सार्मिक-बयावृत्य । -बि. स. २५. उ, ७, सु. २३५ बेयावच्छ विहाणं वैयावृत्य-विधान६७६. इमं च धम्ममावाय. कासवेण पवेवितं । ६७१, भगवान महावीर के द्वारा बताये गये हा धर्म को स्वीकुज्जा भिक्खू गिलाणस्स, अगिलाए समाहिए कार कर भिक्षु मग्लान भाव से समाधियुक्त होकर रुग्ण भिक्षु -सूय सु. १. अ. ३, उ.३, सु २० की यावृत्य करे । वित्त अबोइए निम्नं, खिप्पं हबइ सुचोइए। विनयवान् शिष्य सदा गुरु के द्वारा प्रेरणा किये बिना ही जहोवट्टि सुकम, किच्चाई कुब्बई सया । उनका कार्य करता है और गुरु के प्रेरणा करने पर शीघ्र ही -उत्त. अ. १, गा. ४४ उस कार्य को कर देता है तथा सदैव शुरु के आदेशानुसार ही सभी कार्य भलीभांति सम्पन्न कर लेता है। गिलाणद्वापेसियं आहारस्स विहि-णिसेहो ग्लान के निमित्त भेजे गये आहार का विधि निषंध६७७ मिक्खागा णामेगे एवमासु समाणे वा बसमाणे या गामाणु- ६५७ एक क्षेत्र में स्थिरवासी अथवा मास कला आदि रहने गार्म वूइज्जमाणे श मणुष्ण मोयणजातं लभिता । वाले वा प्रामागुयाम विचरण करने पहुंचने वाले साधु भिक्षा में मनोज भोजन प्राप्त होने पर किसी भिक्ष से कहे कि"से य मिक्खु गिलाइ, से हंदह णं तस्साहरह से य मिक्खू "वह भिक्ष रुग्ण है अतः आप उसके लिए यह आहार ले णो मुंज्जेज्जा तुम चेव पं भुजेम्जासि।" जाकर दे दो, अगर वह रोगी भिक्ष न खाए तो तुम खा लेना।" "से एमतितो 'मोक्षामि" ति कटट पलिउंचिय पलिउचिय मनोज्ञ आहार में लोलुपी कोई भिक्ष 'इस आहार को मैं आलोएम्जा त जहा—' इमे पिजे, इमे लोए, इमे तित्तए, ही खाऊं" ऐसा सोचकर रोगी के पास कपट युक्त कहे, पथा-... इमे कडयए, इमे कप्ताए, इमे अंबिले, इमै मरे, णो खलु "यह बाहार तो मात्र पिंड रूप है, यह तो रूक्ष है, यह तो तीखा एतो किचि वि गिलाणस्स सदति" ति माइट्ठाणं संफासे । है, यह तो कड़वा है, यह तो कसैला है, यह तो खट्टा है, वह यो एवं करेज्जा । तहाठितं आलोएज्जा जहाठित गिलाणस्स तो मीठा है इसमें कुछ भी ग्लान के अनुकूल नहीं लगता है।" साति, जहा-तिलयं तितए ति वा-जाब-महरं महुरे ति । इस प्रकार कपटाचरण करने वाला भिक्ष माया का स्पर्श करता है। भिक्ष को ऐसा नहीं करना चाहिए। किन्तु जिस तरह ग्लान को अनुकूल हो तथा जैसा आहार हो, वैसा ही दिखलाए, यथा-तिक्त को तिक्त-यावत्--मीठं को मीठा बसाए । १ (क) चव. उ. १०, सु. ३६ (ख) सब. सु. ३० (ग) ठाणं. अ. १. सु. ५१२ (ब) पर वैयावृत्य कर्म प्रतिमा के ६१ प्रकार भी हैं। -सम. सम. ६१ सु.१ (क) शार्ण अ. १०, सु. ७१२ तथा ठाणं. अ.५, उ.१, सु. ३६७ तथा नि. श. २५, उ. ७, सु. २३५ में उपरोक्त क्रम है किन्तु उवदाई और व्यवहार सूत्र में कुछ व्युत्क्रम से १० प्रकार के वयावृत्य कहे गये है। सूय. सु. १, अ.३, ३. ४, गा, २१ २ Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूत्र ६७७-६७८ विशिष्ट चर्ण में सेवा करने के संकल्प तपाचार [३३६ भिक्खागा णामेगे एक्माहंसु समाणे वा वसमाणे या गामाण- स्थिरवासी साधु अथवा मासकल्प आदि रहने वाले या गाम दूइजमाणे वा मणु भोयणजातं लमित्ता- पामानुग्राम विचरण करके पहुंचने वाले साधुओं को मनोज्ञ भोजन प्राप्त होने पर किसी भिक्ष से कहे कि-- "से य भिक्खू गिलाइ, से हंदह पं तस्साहरह, ___ बह भिक्ष रोगी है उसके लिए यह मनोज्ञ आहार ले जाओ, से व भिक्खू णो भुज्जेमा, आहरेज्जासि ।" अगर बह रोगी भिक्ष इसे न खाए तो यह आहार वापस हमारे पास ले आना क्योंकि हमारे यहाँ भी रोगी साधु है। से य-"णो खतु मे अंतराए आरिस्सामि।" इस पर आहार लेने वाला साप ऐसा कहे कि - "यदि मुझे - आ. सु. २, अ. १, उ. ११. सु. ४०७-४०८ आने में कोई विष्न उपस्थित न हुआ तो यह आहार वापस ले आऊँगा।" विसिटु चरियाए सेवाकरण संकप्पा विशिष्ट चर्या में सेवा करने के संकल्प-- ६७८. जस्स णं भिक्खस्स अब पगप्पे, ६७८. जिस भिक्ष की यह आचार मर्यादा (प्रतिका) होती है किअहं च खलु पडिपणत्तो अपडिग्णतेहिं गिलाणो अगिलाणेहि यदि मैं रोगादि से पीड़ित हो जाऊं तो अन्य साधु को यह अमिकख साहम्मिहि कीरमाण वेयावडिय साइक्जिस्सामि, नहीं कहूँ कि तुम मेरी वयावृत्य करो। किन्तु कोई निरोग मार्मिक साधु बिना कहे ही वयावृत्य करना चाहेगा तो मैं उसे स्वीकार करूंगा। अहं शवि खलु अपडिण्णत्तो पडिम्यत्तस्स अगिलाणो गिलाण- यदि मैं निरोग अवस्था में होऊ तब कोई सार्मिक साधु स अभिकंख साहम्मियस्स कुज्जा पेयावडिय करणाए। रोगादि से पीड़ित हो और वह सेवा कराना चाहे तो मैं भी उसके बिना कहे उसको वै बृत्य करूंगा। इस प्रकार के विकल्प रखते हुए कोई भिक्षु ऐसी प्रतिज्ञा लेता है कि१. बाहटु परिगणं आणखेस्सामि आहां च सातिग्जि- (१) मैं अपने सार्मिक भिक्षु के लिए आहारादि लाऊंगा स्सामि, और उनके द्वारा लाया हुआ स्वीकार भी करूंगा। २. आहट परिणं आणखेस्सामि आहडं च नो साति- (२) मैं अपने साधर्मिक भिक्षु के लिए आहारादि लाऊँगा ज्जिस्सामि, लेकिन उनके द्वारा लाया हुआ स्वीकार नहीं करूंगा। ३. आहटट परिणं नो भागक्वेस्सामि आह साति- (३) मैं सामिकों के लिये आहारादि नहीं माऊँगा किन्तु, जिजस्लामि। उनके द्वारा लाया हुआ स्वीकार करूंगा। ४. बाहट परिणं णो आणखेस्लामि आहां जो साति- (५) मैं साधमिकों के लिए आहारादि नहीं लाऊंगा और जिजस्सामि। उनके द्वारा लाये हुए को स्वीकार भी नहीं करूंगा। लाषिय आगमाणे तवे से अभिसमण्णागते भवति । उक्त प्रतिज्ञाओं में से किसी प्रतिज्ञा को ग्रहण करने पर भिक्ष लाघवता को प्राप्त कर तर को प्राप्त करता है। जहेतं भगवता पवेदितं तमेव अभिसमेच्चा सध्यतो सवताए भगवान ने जिस रूप में इसका प्रतिपादन किया है उसे सम्मसमेव समभिजाणिया। उसी रूप में जानकर सब प्रकार से सर्वथा समत्व का आचरण करे। एवं से अहाकिष्ट्रियमेव धम्म समभिजाणमाणे संते विरते इस प्रकार वह भिक्ष तीर्थकरों द्वारा उपदिष्ट (भक्त प्रत्यासुसमाहितलेस्से । तत्यावि तस्स कालपरियाए से वि तत्व रूपान) धर्म को सम्पक रूप से जानना हुभा और जाकरण करता वियन्तिकारए। हुआ शान्त बिरत और प्रशस्त सेश्या में अपनी आत्मा को सुसमाहित करने वाला होता है। इस प्रकार भाराधना काल में मरण को प्राप्त करता है और वह मरण भी उसे अन्तक्रिया कराने वाला होता है। Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४०j समानुपाग-२ इच्य विमोहश्यतणं हितं सुहं खभं णिस्सेयसं अणुगामियं । - आ. सु. १, अ. ८, उ. ५. सु. २१६ १. जस्स णं भिक्खुस्स एवं मवति 'अहं च वसु असि भिक्खुषं असणं वा जान साइमं वा आहद्दु दलविस्सामि बाह्यं च सातिज्जिस्सामि ।' २. जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवति असणं वाजा साइमं वा आहह्यं च णो सातिज्जिस्सामि' । 'अहं न खलु मणस महद्दु पिस्साम ३. जस्स णं भिक्खु एवं भवति 'अहं च खलु अस मिक्स वाद-साइमं या आह यो दलविरसाभि आहडं च सातिज्जिस्सामि' । 1 ४. जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवति 'अहं खलु मण्णसि मित्र असावा हो विस्तानि आह दो साजिस्तानि । अहं तु ते महातिरितेष असतेषं महापरिण हिएक असणं वा जाव-साइमेज या अभिकं साहम्मियस्स कुन्ना देवापि करणाए अहं मावि ते महातिरिच बसविण अहापरिगहिएण असगेण वा जाव - साइमेण वा अभिकख साहम्मिएहि कौरम्माणं वेथावडिय' साति जिस्सामि । लाघविय आगममाणे- जाव- सम्मत्तमेव समभिजा गिया - आ. सु. १, अ. उ. ७, सु. २२७ १. अगिला आरिय बेपाय करेमाणे, २. वेदा करेसा २. अलि धेरे बेवारेमा ४. अगिनाए यरियाद करेगा. त्याल २. अगिनाए दिला येयाय करेमाचे इस प्रकार यह मरण भिशुओं को कर्मों से विमुक्त कराने में आश्रम रूप है, हितकर है, सुखकर है, सक्षम, कल्याणकर है और परलोक में भी साथ चलने वाला है। (१) जिसकी ऐसी प्रतिमा होती है कि मैं दूसरे भिक्ष ुओं को अशन यावत् स्वाद्य लाकर दूंगा और उनके द्वारा लाये हुए का सेवन करूँगा । - सूत्र ६७८ ६७६ - (२) जिस की ऐसी गतिजा होती है कि दूसरे भिक्षुओं को अनास्था लाकर दूंगा, लेकिन उनके द्वारा लाये हुए का सेवन नहीं करूँगा ।" (३) जिस भिक्षु की ऐसी प्रतिभा होती है कि "मैं दूसरे भिनब को अनासकर नहीं दूंगा, लेकिन उनके द्वारा लाये हुए का सेवन करूँगा ।" अथवा कोई साधर्मिक मुनि अपनी आवश्यकता से अधिक एषणीय ग्रहण कर लाए हुए अमन - याषत् - स्वाद्य में से वैयावृत्य की भावना से देना चाहा तो उसे स्वीकार करूंगा। इनमें से कोई भी प्रतिज्ञा धारण करने वाला भिक्षु लाभवता की प्राप्त कर यावत् - समत्य का आचरण करता है । याय का फल येयायच्च फलं १०. सिम गिम्ये महाणिम्बरे महा६७६. पांच स्थानों से धमनिन्धमहान विकरने वाला ६७६. पंचहि भवति, सं जहा और महापर्यवसान ( संसार का सर्वथा उच्छेद करने वाला) होता है। जैसे www (४) सिभिल की ऐसी प्रविशा होती है कि "मैं दूसरे भिक्षुओं को अनयत्खाय उाकर नहीं दूंगा और उनके द्वारा लाया हुआ सेवन भी नहीं करूँगा ।" - मैं अपनी आवश्यकता से अधिक एवणीय एवं लाए हुए अशन — यावत् स्वाद्य में से यदि कोई साधर्मिक साधु सेना चाहेगा तो उसे वैयावृत्य की भावना से दूंगा। - (१) ग्लानि - रहित होकर आचार्य की वैयावृत्य करता हुआ । (२) निहित होकर उपाध्याय की याक्ष्य करता हुँला । हुआ। (३) ग्लानि - रहित होकर स्थविर की वैयावृत्य करता इस (४) खानिरहित होकर तपस्वी की वैयावृश्य करता हुआ । (५) ग्लानिरहित होकर रोगी मुनि की वैयावृत्य करता Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ६७६.६८१ बयावृत्य न करने आदि का प्रायश्चित सूत्र तपाचार [३४१ पंचहि ठाहिं समणे निगंथे महाणिज्जरे महापऊजवसाणे पांच स्थानों से श्रमण-निग्रन्थ महान् कर्म निर्जरा करने वाला भवति, तं जहा और महापर्यवसान वाला होता है। जैसे१. अगिलाए सेहव्यावच्चे करेमाणे, (१) ग्लानि रहित होवार नवदीक्षित की यावृत्य करता हुआ। २. अगिलाए कुलवेयावच्च करेमाणे, (२) ग्लानि रहित होकर कुल (एक आचार्य के शिष्य समूह) की यावृत्य करता हुआ । ३. अगिलाए गणबेयावच्च करेमाणे, (३) ग्लानि रहित होकर गण की वैयावृत्य करता हुआ। ४. अगिलाए संघनेयाषच करेमाने, (४) ग्लानि रहित होकर संघ को वैवावृत्य करता हुआ । ५. अगिसाए साहम्मियवेयावच्छ करेमागे 11 (५) ग्लानि रहित होकर साधर्मिक की वैयावृत्य करता ' -ठाणं. अ. ५, उ. १. सु. ३६७ हुआ । ५०-वेषावस्येक मन्ते ! जो कि बणयह ? प्र०-भन्ते ! वैयावृत्य से जीव क्या प्राप्त करता है? उ.-वेयावावे तित्ययरनामगोतं कम्म निधन्धद। उ-वैयावृत्य करने से यह तीर्थकर नाम-गोव का मा -उत्त. अ. २६, सु. ४५ जंन करता है। वेयावच्चअकरणाइ पायच्छित्त सुत्ताई-- वैयावृत्य न करने आदि का प्रायश्चित्त सूत्र६८०.जे भिण्डू मिलाणं सोम्या णचा ग गयेसह ण गवसतं वा ६८०. जो भिक्षु रोधी के सम्बन्ध में सुनकर या जानकर उनकी सारज्जइ। गवेषणा नहीं करता या नहीं करने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्ख गिलाणं सोच्चा गच्चा उम्मग्गं वा पडिपहं वा जो भिक्षु रोगी के सम्बन्ध में सुनकर या जानकर उन्मार्ग से गच्छद्द गछतं वा साइजह । या अन्य मार्ग से जाता है या जाने वाले का अनुमोदन करता है। मे भिक्खु गिलाण-वेयावच्चे अम्मष्टिए सएणं लामेणं असंथ. जो भिक्षु रोगी की सेवा के लिए उद्यत हुआ है और अपने रमाणे जो तस्स न तडितप्पा न पडितप्पतं वा साइज्ज। लाये हुए आहार से रोगी सन्तुष्ट नहीं हो तो उसका खेद प्रकट नहीं करता है या नहीं करने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू पिसाण-वेयावच्चे अम्भुद्धिए गिलाणपाजग्गे दब- जो भिक्ष रोगी की सेवा के लिए उद्यत हुआ है उसे रोगी जाए अलभमाणे जो तन पडियाइरलहन पडियाइक्वंतं योग्य द्रव्य न मिलने पर उसको पुनः आकर नहीं कहता है या वा साइज । नहीं कहने वाले का अनुमोदन करता है। त सेवमाणे आवजह चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं अणुग्याइयं। उसे चातुर्मासिक अनुद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि. उ. १०, सु. ३६-३६ आता है। असमत्येण वेयावच्चकारावण पायच्छित सुतं असमर्थ से सेवा करवाने का प्रायश्चित्त सूत्र६५१. जे भिक्खू नायगेण वा मनायगेण वा, उवासएण वा, अणु- ६.१. जो भिक्ष असमर्थ स्वजन से, अन्य से, उपासक से या वासरण वा अपलेण यावच्चं कारेड फारसं का साइज्नइ । अनुपासक से वैयावृत्य करवाता है या करवाने वाले का अनु मोदन करता है। तं सेवमाणे भावयह चाउम्मासि परिहारहाणं अग्धाइयं । उसे चातुर्मासिक अनुद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) —नि. ७.११, सु. ८६ आता है। HERE १ वक.उ.१०,सु. ४०-४१ Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२] चरणानुयोग-२ स्वाध्याय के भेद सूत्र ६८२-८४ स्वाध्याय-३ समायभेया६८२.५०-से कितं समाए ? उ.-पंचविहे सज्माए पन्नते, तं जहा--- १. वायणा, २. परिपुच्छणा, ३. परियट्टणा, ४. अणुप्पेहा५. धम्मकहा। से तं समाए। -वि. स. २५, उ, ७, सु. २३६ सुस-सिक्खण-हे जणो६८३. पंचहि ठाणेहि सुत्तं सिक्खेज्जा, सं जहा १. गाणयाए, २. बसणट्टयाए, ३. चरिसट्टयाए, ४. बुग्गहविमोयगढायाए, स्वाध्याय के भेद .. ६८२.१ --- स्वाध्याय क्या है उसके कितने प्रकार हैं? ३० स्वाध्याय पाँच प्रकार बा कहा गया है, वह इस प्रकार है (१) वाचना-यथाविधि यथासमय श्रुत-बाङमय का अध्ययन और अध्यापन। (२) प्रतिपच्छना-अध्ययन किये हुए विषय में विशेष स्पष्टीकरण हेतु पूछना, शंका-समाधान करना । (३) परिवर्तना-सीखे हुए ज्ञान को बार-बार दुहराना । (४) अनुप्रेक्षा-आगम तत्वों का चिन्तन मनन करना। (५) धर्मकथा-- श्रुत-धर्म की न्याम्या-विवेचना करना। यह स्वाध्याय का स्वरूप है। सूत्र सीखने के हेतु६८३. पाच कारणों से सूत्र को सीखना चाहिए । जैसे (१) ज्ञानार्थ-नये-नये तत्वों के परिज्ञान के लिए। (२) दर्शनार्थ---श्रद्धान के उत्तरोत्तर वृद्धि के लिए। (३) चारित्रार्थ --चारित्र की निर्मलता के लिए । (४) व्युग्रहविमोचनार्थ-दूसरों के दुराग्रह को छुड़ाने के लिये। (२) यथार्थ भाव मानार्थ-सूत्र शिक्षण से मैं यथार्थ भावों को जानूंगा, इसलिए । स्वाध्याय का फल६८४. प्र.-- मन्ते ! स्वाध्याय से जीव क्या प्राप्त करता है ? स- स्वाध्याय से वह ज्ञातावरणीय कर्म को क्षीण करता है। जो मुनि इस तप, संयम योग और स्वाध्याय योग में सदा प्रवृत्त रहता है, वह सेना से घिर जाने पर आयुधों से सुसज्जित बीर की तरह अपनी और दूसरों की रक्षा करने में समर्थ होता है। स्वाध्याय और सध्यान में लीन, छ: काय रक्षक, निष्पाप मन वाले और तप में रत मुनि का पूर्वसंनित मल उसी प्रकार विशुद्ध होता है जिस प्रकार अग्नि द्वारा तपाए हुए सोने का मल। ५. जहत्थे वा भावे आणिस्सामीति कट । -ठाणं. म. ५, उ.1, सु. ४६७ सज्झाय फलं६८४.५०-सजमाएक मन्ते ! जीवे कि जणयह ? उ.-सजमाए नाणावरणिज कम्म सवेह । -उस. अ. २६, सु.२० तवं चिमं संजमजोगयं च, समायजोमं च सपा अहिए। सूरे व सेणाए समत्तमाउहे. अलमप्पणी होई अलं परेसि ।। समाय सरक्षापरपस्स ताणो, अपावभाषस्स तवे रयस्स । विसुज्नई जंसि मलं पुरेकर, समोरिय रुपमलं 4 जोहणा ॥ १ (क) उव. सु. ३० (ग) उत्त. अ. ३०, गा. ३४ (ख) ठाणं. अ. ५, उ. ३, सु. ४६५ (घ) विशेष विस्तार ज्ञानाचार में देखें। Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन ६८४-६८ अन्यतीथिकादि के साथ स्वाध्याय भूमि गमन प्रायश्चित्त सूत्र तपाचार ३४३ से तारिसे दुक्खसहे जिइंगिए. जो पूर्वोक्त गुणों से युक्त है, दुःखों को सहन करने वाला है, सुयेग जुत्ते अममे आँफंघण । जितेन्द्रिय है, श्रुतमान है, ममत्व-रहित और अकिंचन है, वह विरायई कम्मघणम्मि अवगए. कम समूह के दूर होने पर उसी प्रकार शोभित होता है जिस कसिणऽभपुडायगमे व चंदिमे ॥ प्रकार सम्पूर्ण अभ्रपटल से रहित चन्द्रमा । -दस. ब. ८, गा. ६१-६३ सज्झायभूमिसु अण्ण उस्थियाइ सद्धिगमण पायच्छित्त यन्यतीर्थिकादि के साथ स्वाध्याय भूमि गमन प्रायश्चित्त सूत्र६८५. जे भिक्खू अण्णउत्थिएव वा गारस्थिएण या परिहारियो वा ६८५. ओ भिक्ष अन्यतीथिक या गृहस्थ के साथ तथा पारिहारिक अपरिहारिएण सशि पहिया बियारभूमि वा विहारभूमि साधु अपारिहारिक के साथ (उपाथय से) बाहर की स्वाध्यायवा निक्खमह वा, पविसइ बा, निक्समतं वा, पविसतं वा भूमि में या मल विसर्जन भूमि में प्रवेश करता है या निष्क्रमण साइज करता है, प्रवेश कराता है या निष्क्रमण कराता है, प्रवेश करने वाले का या निष्क्रमण करने वाले का अनुमोदन करता है। त सेवमाणे आवज्जद मासियं परिहारट्टाणं उग्घाइयं । उसे मासिक उदधातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) आता है। -नि. उ. २. सु. ४१ दुगन्छिय कुलेसु सज्झाय उद्देशण पायच्छित सुतं- निन्दित कूल में स्वाध्याय देने का प्रायश्चित्त सूत्र६६६. जे भिक्खू सुरछियकुलेसु ससायं उद्दिसह उद्दिसत वा ६८६. जो भिक्ष घृणित कुलों में स्वाध्याय का उद्देश (मूल पाठ साहज्जा। वाचन करना) करता है, करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है। तं सेवमाणे आवस्जद चाउम्भासिय परिहारद्वाणं उघाइयं । उसे चातुर्मासिक उपातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि. उ. १६, सु. ३० आता है। सुत्त वायणाहेउणो सूत्र-वाचना के हेतु६८७. पंचहि गणेहि सुत्त बाएज्जा, तं नहा -- ६८७. पांच कारणों से सूर्य की याचना देनी चाहिए । जैसे१. संगहट्टयाए. (१) शिष्यों को श्रुत-सम्पन्न बनाने के लिए। २. उवम्गहट्टयाए, (२) शिष्य वर्ग पर अनुग्रह पूर्वक उपकार करने के लिए। ३. गिजरठ्याए, (३) कमों की निर्जरा के लिए। ४ सुत्ते वा मे पन्जययाते भविस्सइ। (४) वाचना देने से मेरा श्रुत परिपुष्ट होगा, इस कारण से । ५. सुत्तस्स वर अवोमिछत्ति-णयट्टयाए। (५) श्रुत के पठन-पाठन को परम्परा अविच्छिन्न रखने के -ठाणं. अ. ५, उ. ३, सु. ४६७ लिए। सुयवायणिज्जा सूत्र बाचना के योग्य-- ६८८. चत्तारि यायणिज्जा पण्णत्ता. तं जहा ६५८. चार वाचना देने के योग्य होते हैं, यथा१. विणीए, (१) बिनीत--सूवार्थदाता के प्रति बन्दनादि विनयभाव करने वाला। २. अबिगतिपडिबद्ध, (२) विकृति अप्रतिबद्ध-धृतादि विकृतियों में आसक्त न रहने वाला। ३. विओसवियपाडे, (३) व्यवमित प्राभृत-उपशान्त कलह वाला। ४. अमाई। - ठाणं, अ. ४, उ. ३, सु. ४६७ (४) श्रमायावी । १ (क) तओ कम्यंति पाएताए, तं जहा (१) विणीए, (२) नो विगइ पडिक्ले, (३) विओसबियपाहुडे। -कप्प. उ. ४, सु. ११ (ख) ठाणं. अ. ३, उ.४, सु. २०४ Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४] परणामुयोग-२ सूत्र वाचना के अयोग्य सूत्र ६८६-६६२ सुथ अवायणिज्जा-. सूत्र वाचना के अयोग्य६८६. चत्तारि भवाणिज्जा पण्णता, तं जहा ६८६. चार वाचना देने के योग्य नहीं होते हैं, यथा-- १. अविणीए, (१) अविनीत-सुत्रार्थदाता के प्रति वन्दनादि विनय भाव न करने वाला। २. विगह-पडियद्ध, (२) विकृति प्रतिबद्ध-धुतादि विकृतियों में आसक्त रहते वाला । ३. भविओसदिय पाहुरे (३) अव्यवशभित प्राभृत- अनुपशान्त कलह वाला। ४. मायो। -ठाणं. अ, ४, उ. ३, सु. ३२६ (४) मायावी। सुयवायणाए फलं सूत्र बाचना का फल६१०. ५०-थायणाए पं भन्ते ! नीचे कि जणयह ? ६६० प्र०—भन्ते ! वाचना (अध्यापन) से जीव क्या प्राप्त करता है? उ०-थायणाए निज्जरं जणयह । सुयस्स य अणासायणाए -वाचना से यह कर्मों को क्षीण करता है। श्रुत की बट्टइ। सुयस्स अणासायणाए वट्टमाणे तित्थधम्म आशातना के दोष से बच जाता है । श्रत की आशातना से बचने अवलम्बइ । तिस्थधम्म अवलम्बमाणे महानिजरे वाला तीर्थ-धर्म का अवलम्बन करता है, तीर्थ धर्म का अवलम्बन महापजवसाणे भवइ। -उत्त. अ, २६, सु, २१ करने वाला जीव कर्मों की महा निर्जरा और संसार का अन्त फरने वाला होता है। दुगंछिय कुले-वायणादाणादाण पायच्छित्त सुत्ताई- घृणिस कुल में वाचना देने-लेने के प्रायश्चित्त सूत्र६६१. जे भिक्खू दुर्गछिय कुलेसु सम्झायं बाएइ, वाएतं वा ६६१. जो मिक्ष घृणित कुलों में स्वाध्याय की बाचना (सूत्रार्थ) साइजइ। देता है, दिलवाता है या देने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू तुगंछिय कुलेसु समायं पडिल्छाइ, पटिसछंत या जो भिक्ष घृणित कुलों में स्वाध्याय की वाचना लेता है, साइज्जह। लियाता है या लेने वाले का अनुमोदन करता है। तं सेवमाणे आवज्जइ चाउम्मासिय परिहारट्टाफ उग्घाइयं । उसे चातुर्मासिक उघातिक परिहारस्थान प्रायश्चित्त) -नि. उ. १६. सु. ३१.३२ आता है। अविहीए वायणा-दाणे पायच्छित्त-सुत्ताई अविधि से वाचना देने के प्रायश्चित्त सूत्र--- ६६२. जे मिक्खू हेदिल्लाई समोसरणाहं अवाएसा उरिल्लाई ६९२. जो मिक्ष प्रारम्भ के समोसरण (अंग सूत्र, श्रुतस्कन्ध, समोसरणाई बाएइ वार्यतं वा साइम्जा । अध्ययन, उद्देशक) की वाचना न देकर बाद के समोसरण (अध्ययन उद्देशों) की वाचना देता है, दिलवाता हैं या देने वाले का अनुमोदन करता है। जे मिक्खू णवयंभचेराई अवाएसा उत्तम सुयं याएद वायत जो भिस, नव ब्रह्मचर्य (आचारांग सूत्र प्रथम श्रुतस्वन्ध) वा साइजा की बाचना न देकर छेद सूत्र आदि की वाचना देता है, दिलवाता है या देने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू अपतं वाएर वाएंतं वा साइजह । जो भिक्ष अपात्र (अयोग्य) को वाचना देता है, दिलवाता है या देने वाले का अनुमोदन करता है। जे मिक्ल पत्तं पाएइ गं पाएतं वा साइजइ । जो भिक्ष पात्र (योग्य) को याचना नहीं देता है, नहीं दिल वाता है या नहीं देने वाले का अनुमोदन करता है। १ (क) तओ नो कप्पति वाएत्ता, तं जहा(१) विणीए, (२) विगए पडिबढे, (३) अविसत्रिय पाहुडे । -कण उ. ४, सु. १० (ख) ठाणं. अ. ३, उ. ४. सु. २०४ - Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्र ६६२-६६४ पाश्वस्थावि को याचना धेने का प्रायश्चित्त सूत्र सपाचार [३४५ जे भिक्खू अव्वत्तं वाएइ वाएंतं वा साइजइ । जो भिक्ष अन्यक्त (अप्राप्त यौवन वय वाले) को वाचना देता है, दिलवाता है या देने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू वत्तं न बाएइ न वाएनं या साइजह ।। जो भिक्ष व्यक्त (प्राप्त यौवन वम वाले) को बाचना नहीं देता है, नहीं दिलवाता है, या नहीं देने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिषखू वो सरिसगाण एक्क संचिक्खाबेद, एक्कन जो भिक्ष दो समान योग्यता वाले शिष्यों में से एक को संचिवसावेड, एषक वाएड, एक्क न पाएइ, त करत वा शिक्षित करता है और एक को नहीं करता है, एक को याचना साहज्जद देता है एक को नहीं देता है अथवा ऐसा करने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू आरिय-उवमाएहिं अविविष्णं गिरं आइयइ जो भिक्ष आचार्य और उपाध्याय के दिये बिना वाचना आइयंतं वा साइजह। लेता है. लिवाता है या लेने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू अण्णउत्यियं वा गारत्थियं वा बाएह बाएंत वा जो भिक्ष अन्यतीथिकों या गृहस्थों को वानना देता है, साइज्जद। दिलवाता है या देने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू अण्णउत्थिपं का गारस्थियं वा परिका पडिच्छतं जी भिक्ष अन्यतीयिक से या गृहस्थ से वाचना लेता है, या साइजइ। लिवाता है या लेने वाले का अनुमोदन करता है। त सेवमाणे आवाज चाउम्भासियं परिहारट्टाणं उग्घाइयं । उसे चातुर्मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) - नि.उ.१६, सु.१७,३० आता है। पासस्थाईणं वायणा दाणे पायच्छित्त सुत्ता मारवानिशीलापनाने के प्रायश्चित्त सुत्र६६३. जे भिक्खु पासस्थं वाएइ वाएतं वा साहज्जइ । ६६३. जो भिक्ष, पावस्थ को वाचना देता है, दिलवाता है या देने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिषय पासत्वं पहिच्छ परिनछतं वा साइज्जह । जो भिक्ष पार्श्वस्थ से वाचना लेता है, लिवाता है या लेने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्स्व ओमण्णं वाएइ वाएतं वा साहज्जद । जो भिक्ष अबसप को बाचना देता है, दिलवाता है या देने बाले का अनुमोदन करता है। जे भिषस्थ भोसणं पहिच्छह पडिच्छंतं वा साइजह । ___ जो भिक्ष अवसन से वाचना लेता है, लिवाता है या लेने वाले का अनुमोदन करता है । के भिक्ट्र कुसीसं बाएइ वाएतं वा साइज्जह । जो भिक्ष कुशील को याचना देता है, दिलवाता है या देने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू कुसोल पडिन्छ। परिच्छत वा साइज्जद । जो भिक्ष कुशील से वाचना लेता है, लिवाता है या लेने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू संसत्तं वाएछ बाएतं वा साइज्जइ । जो भिक्षु संसक्त को वाषना देता है, दिलनाता है या देने वाले का अनुमोदन करता है। जे मिक्खू संसतं पहिन्छइ पउिच्छतं वा साइज्जद । __ जो भिक्ष संसक्त से बाचना लेता है लिवाता है या लेने वाले' का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू णितिय पाएइ वायंत या साइज्जह । __जो भिक्ष नित्यक को वाचना देता है, दिलवाता है या देने वाले का अनुमोदन करता है। ओ भिक्खू णितिय पहिच्छाई परिच्छतं वा साइजह। जो भिक्ष नित्यक से वाचना लेता है, लिवाता है या लेने वाले का अनुमोदन करता है। १ भाष्य में २१.२२ एवं २५.२६ सु. १६-२० के समान हैं, पुनरावृत्ति हुई है। Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६] वरगानुयोग-२ प्रतिप्रश्न का फल सूत्र ६६३-६६७ त सेवमागे बायबइ चाउम्मासियं परिहारट्टापं उपायं। उसे चातुर्मासिक सदघातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) --नि. स. १६, सु. ३१-४० आता है। पडिपुच्छणा फलं-- प्रतिप्रश्न का फल६६४.५०-पडिपुस्छणयाए गं मंते ! जीवे कि जणया? ६६४. प्र. - भन्ते ! प्रतिप्रश्न करने से जीव क्या प्राप्त करता है? ३० - परिपुच्छणयाए गं सुत्तरथ-तनुभयाई विसोहेह । कंसा- ज० - प्रतिप्रश्न करने से वह मूत्र, अर्थ और उन दोनों से मोहणिज्ज कम्मं वोरिछबह । सम्बन्धित सन्देहों को दूर करता है और कांक्षा-मोहनीय कर्म का -उत्त.अ. २६, सु. २२ विनाश करता है। परियट्टणा फलं पुनरावृत्ति का फल६६५. प०-परियट्टणाए णं अते ! जीये कि जण्या ? ६६५.प्र.--भन्ते ! परावर्तना (पठित पाठ के पुनरावर्तन) से जीव क्या प्राप्त करता है? उ.-परियट्टण्णाए गं बंजगाई जगयइ, वंजणदि ध उप्पा- उ.-परावर्तना से वह अक्षरों को उत्पन्न करता है अर्थात् -- -उत्त. अ. २९, सु. २३ स्मृत को परिपक्व और वि-मृत को याद करता है तथा व्यंजन लब्धि (पदानुसारिणि लब्धि) को प्राप्त करता है। अणुप्पेहा फलं अनुप्रेक्षा का फल६६६. ५०-अगुप्पेहाए गं मंते ! जीवे कि जणया? ६६६. प्र०-भन्ते ! अनुप्रेक्षा (अर्थ चिन्तन) से जीव क्या प्राप्त करता है? उल-अणुप्पहाए गं आउपवनाओ सत्तकम्मपगरीओ उ०-अनुप्रेक्षा से वह आयुष-कर्म को छोड़कर शेष सात पणियबन्धणबद्धामो सिविलवग्धगयामो पकरे। कर्मों की गाढ़-बन्धन से बन्धी हुई प्रकृतियों को शिथिल-बन्धन बाली कर देता है। दोहकालदिश्याओ हस्सकालट्टियाओ एकरे। उनकी दीर्घकालीन स्थिति को अल्प कालीन कर देता है, तिम्वाणभावाओ मन्वाणुमावाओ पकरेइ । उनके तीय अनुभाग को मन्द कर देता है। बहुपएसग्गाओ अप्पपएसम्गाओ पकरेह । उनके बहु-प्रदेशों को अल्प कर देता है । आउयं च ण कम्मं सिय अन्धइ सिप नो बन्धइ । आयुष्कर्म का बन्धन कदाचित करता है, कदाचित् नहीं भी करता है। मसायावेयगिर्जच गं कर्म नो मुग्लो मुज्जो जब- असाता-वेदनीय कर्म का बार-बार उपचय नहीं करता है। अनादि-अनन्त लम्बे-भार्ग वाली तथा चतुर्गति-रूप संसार अटवी को तुरन्त ही पार कर जाता है। अणाइयं अपवन दीहम चाउरन्त संसार कम्तारं चिप्पामेव वीइवया। -उत्त, अ. २६, सु. २४ कहाए भेया६६७. तिविहा कहा पसा, तं जहा--- १. अस्थकहा, २. धम्मकहा, कथा के भेद६६७. कथा तीन प्रकार की कही गई है। यथा (१) अर्थ कथा --धन के उत्पादन उपार्जन विषयक कथा। (२) धर्म कथा—जिसके कहने सुनने से धर्म की भावना बड़े वह कथा 1 (३) काम कथा-जिसके श्रवण करने से विषय वासना उत्पन्न हो वैसी कथा। धर्म तीन प्रकार का होता है(१) श्रुत-धर्म, (२) चरित्र-धर्म, (३) अस्तिकाय-धर्म। ३. कामकहा। -ठाणं. अ. ३, उ. ३, सु. १६४ सिबिहे धम्मे पण्णसे, तं नहा१. सुयधम्ने, २. परिसधम्मे, ३. भत्थिकायधम्मे। -ठाणं. ब.३,७.३, मु. १६४(९) Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ६६७ विहा कहा पण्णत्ता, तं जहा - १. अक्लेवणी, २. विक्वणी, ३. संगणी, ४. निवेज्जणी । अश्लेषण कहा चउबिहा पण्णत्ता, तं जहा१. आयार अवणी, २.बहाणी २. पति अवणी, ४. दिट्टिवाय अक्लेवणी । मिक्लेषणी कहा चउविहा पण्णत्ता, सं जहा१. ससमयं कहेति, ससमयं कहता, परसमयं कति, २. परमकता, समर्थ हायतिता भवति, ३. सम्मावतं कति सम्मायातं कहेत्ता, मिच्छा वातं कहेति, ४. मिन्छाया कहेता, सम्मवावं ठावतित्ता भवति । संवेगभी कहा हाणला जा १. संगणी २. परलोपसंवेगणी, ३. आतसरीरसंबंधणी, ४. परसरीरसंवेगणी । णिवेणी कहा चढविहा पण्णत्ता, तं जहा १. होगे दुचिमा कम्मा इहलोगे फसविवागता मति २. इहलोगे बुन्चिला कम्मा परलोगे दुहफलविवागसंसा भवंति, कथा के मेद संपाचार कथा चार प्रकार की कही गई है, यथा- (१) आक्षेपणी- ज्ञान और चारित्र के प्रति आकर्षण उत्पन्न करने वाली कथा | (२) विक्षेपणी-सत्मार्ग की स्थापना करने वाली कथा | (३) संवेगनी जीवन की नश्वरता और दुःख बहुलता दिखाकर वैराग्य उत्पन्न करने वाली कथा | ४७ (४) निधीकृत कर्मों के शुभाशुभ दिवाकर संसार के प्रति उदासीन बनाने वाली कथा । आक्षेपणी कथा चार प्रकार की कही गई है। यथा (१) आचार आक्षेपणी- साधु और श्रावक के आचार का वर्णन वाली । (२) व्यवहार माक्षेपणीतों के दोष लगने पर का वर्णन करने वाली । (२) प्रक्षेपणीयग्रस्त श्रोत को मधुर दनों से उपदेश देकर संशय दूर करने वाली । (४) दृष्टिपात आक्षेपणी - श्रोता की योग्यता के अनुसार विविध नवों (ष्टियों से तत्व का विणकरने वाली । विक्षेपणी कथा चार प्रकार की कही गई है, यथा(१) वक्ता अपने सिद्धांत का कथन कर फिर दूसरों के सिद्धांत का कथन करता है । - (२) दूसरों के सिद्धांत का कथन कर फिर अपने सिद्धांत की स्थापना करता है । (३) वक्ता सम्यग्वाद का कथन कर फिर मिथ्यावाद का कथन करता है । (४) वक्ता मिथ्यावाद का कथन कर फिर सम्यग्वाद की स्थापना करता है । संवेगनी कथा चार प्रकार की कही गई है, यथा (१) इहलोक संवेगनी - मनुष्य जीवन को असारता तथा अनित्यता दिखाने वाली कथा । (२) एश्लोक संवेगनी - देवादि भवों में जो नाना प्रकार के दुःखों का अनुभव करते हैं उनकी कथा । (३) आम शरीर संबेगनी - अपने शरीर की अशुचिता का प्रतिपादन करने वाली कथा । (४) परवशरीर संवेगनी दूसरे के शरीर की अशुचिता का प्रतिपादन करने वाली कथा | निवेदनी कथा चार प्रकार की कही गई है, यथा (१) इस लोक में किये हुए दुष्कर्म इसी लोक में दुःखरूप फल देने वाले होते हैं। (२) इस लोक में किये हुए दुष्कर्म परलोक में दुःखरूप फल देने वाले होते हैं। Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४८] चरणानुयोग-२ प्रवचन का स्वरूप सूत्र ६६७-७०० ३. परलोगे वृच्चिमा कम्मा इहलोगे हफलविषायसंजुत्ता (३) परलोक में किये हुए दुष्कर्म इस लोक में दुःखरूप फल भवंति, देने वाले होते हैं । ४, परलोगे दुम्चिना कम्मा परलोमे दुहफलविवागसंजुत्ता (४) परलोक में किये हुए दुष्कर्म परलोक में ही दुःखरूप मवंति. फल देने वाले होते हैं। १. इहलोगे सुच्चिन्नर कम्मा इहलोगे सुहफल विवागसंजुत्ता (१) इस लोक में किये हुए शुभ कर्म इसी लोक में सूखमय भवंति, फल देने वाले होते हैं। २. इहलोगे सुच्चिन्ना कम्मा परलोगे सुहफलविवागसंघुसा (२) इस लोक में किये हुए शुभ कर्म परलोक में मुखमय भर्वति, फल देने वाले होते हैं। ३. परनोगे सुचिमा कम्मा इहलोगे सुहफलविवागसंजुला (३) परलोक में किये हुए शुभ कर्म इस लोक में मखमय भति, फल देने वाले होते हैं। ४. परमोशे मुनिक काम गरले गे सुहागत्रिदानसंतला (४) परलोक में किये हुए शुभ कर्म परलोक में सुखस्य फल भवति। -~-ठाणं. अ. ४, ७, २, सु. २८२ देने वाले होते हैं। पवयण सरूवं प्रवचन का स्वरूप६९८ इर्म च णं सम्बजगजीव-रक्षणदयट्टयाए पावयणं भगवया ६६८. यह प्रवचन श्रमण भगवान महावीर ने जगत के समस्त सुकहिये, अत्तहियं, पेरुचा भावियं, आगमेसिभ', सुझं जीवों की रक्षा दया के लिए समीचीन रूप में कहा है। यह प्याउय, अकुडिल, अणुसरं सभ्यरख पावाण, विउसमणं । प्रवचन आत्मा के लिए हितकर है, परलोकगामी है, भविष्यत् -4. सु. २, अ. १, मु. ६ काल में भी कल्याणकर है, शुद्ध है, स्यावयुक्त है, मुक्ति प्राप्ति का सरल सीवा मार्ग है, सर्वोत्तम है तथा समस्त दु:खों और पापों को उपशान्त करने वाला है। प०—पवयगं अंते ! पययणं, पावयगी परपणं? प्र०-भगवन ! प्रवचन को ही प्रवचन कहते हैं, अथवा प्रवचनी को प्रवचन कहते हैं ? उ.---गोयमा ! अरहा साव नियम पावयणी, पक्ष्यणं पुण उ०-गौतम ! अरिहन्त तो निश्चित रूप से प्रवचनी है दवालसंगे गणिपिळगे, तं नहा--आयारो-जाव-विद्विवानी। और द्वादशांग गणिपिटक प्रवचन हैं । यथा आवारांग-याक्त -दिया. स. २०, ३.८, सु. १५ दृष्टिवाद । धम्मकहाए विही णिसेहो धर्मकथा के विधि-निषेध६६६. से भिखू धम्म किट्टमाणे णो अनस्स हे धम्म आइक्वेज्जा, ६६१, धर्मोपदेश करता हुआ भिक्षु आहार के लिए, पानी के णो पाणस्स हे धम्म माइक्वेज्जा, णो वत्थस्स हे धम्म लिए, वस्त्र-प्राप्ति के लिए, आवास स्थान के लिए, शयनीय आइक्खेग्जा, णो सेगस हेडं धम्म आइनेमा, णो सयणस्स पदार्थों को प्राप्ति के लिए तथा दूसरे विविध प्रकार के कामहे धम्म आइक्खज्जा, णो अन्नेसि बिरूय-क्वाणं काम- भोगों (भोग्य पदार्थों) के लिए धर्म कथा न करे । भोगाणं हेज धम्ममाइक्खेज्जा, अमिलाए धम्ममाइक्विज्जा, अग्लान भाव से (प्रसन्नता पूर्वक) धर्मोपदेश करे। णणस्य कम्मणिज्जरप्नुयाए धम्म आइक्खेज्जा । कर्मों की निर्जरा (आत्मशुद्धि) के उद्देश्य के सिवाय अन्य - सूय. सु. २, अ. १, सु. ६६. किसी भी फलाकांक्षा से धर्मोपदेश न करे । धम्मकहाविवेगो धर्म-कथा विवेक७००. जहा पुण्णस्म कस्थति तहा तुम्हस्स कस्यति । ७००. साधक जैसे सम्पन्न व्यक्ति को धर्म-उपदेश करता है, वैसे ही दरिद्र को भी धर्म उपदेश करता है। बहा तुच्छस्स कस्यति तहा पुग्णास कस्यति । जैसे दरिद्र को धर्मोपदेश करता है, धंसे ही सम्पन्न को भी धर्मोपदेश करता है। Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ७०० धर्म-फया विवेक तपाचार [३४६ अवि य हणे अणाीयमाणे । एत्यं पिजाण सेयं ति णस्थि । कदाचित तत्व को सम्बक ग्रहण न करते हुए श्रोता भिक्षा को मारने भी लग सकता है। अतः मिन को यह लाने बिना धर्मकथा करना श्रेयस्कर नहीं होता है किकेऽसिए: 'श्रोता कौन है और किस सिद्धान्त को मानने वाला है?' -आ. सु. १, अ.२, उ. ६, सु. १०२ वर्य लोगस्स जाणित्ता पाईणं पडोणं वाहिण उदीणं आइपखें आगमज्ञ मुनि प्राणी जगत पर दया अनुकम्पा भावपूर्वक विमए किट्टए वेदवी। पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण आदि दिशाओं में विचरता हुआ धर्म का आख्यान करे, उसका निभेद करके समझाये तथा धर्माचरण से सुफल का प्रतिपादन करे। से उढिएसु वा अणुट्टिएषु वा सुस्तकमाणेसु पवेवए-संति वह मुनि धर्माचरण युक्त या धर्माचरण रहित जो भी पुरुष विति, उषसम, णिवषाणं, सोयषियं, अज्जविय', मद्दषिय, धर्म श्रवण के लिए उपस्थित हो उन्हें शान्ति, विरति, उपशम, लाविय, अणतिवत्तिय'। निर्वाण, पवित्रता, सरलता, कोमलता, अपरिग्रह एवं अहिंसा आदि धर्मों का प्रतिपादन करे। ससि पाणाणं सम्यसि भूताणं, सरुवेसि जीवाणं, ससि वह भिक्ष समस्त प्राणियों, सभी भूतों, सभी जीवों और सत्ताणं अणुबौद्ध भिक्खू धम्ममाइपखेज्जा। समस्त सत्वों का हित चिन्तन करके धर्म का व्याख्यान करे। अणुवीइ भिक्खू धम्ममाइक्खमाणे णो अत्ताणं आसाएमा, भिक्षु वेिक पूर्वक धर्म का व्याख्यान करता हुआ अपने णो परं आसाएज्जा, पो अण्णाई पाणाई भूयाई जीवाई आपको बाधा न पहुंचाए. न. दूसरों को वाधा पहुँचाए और न ही सत्ताई आसाएज्जा। अन्य प्राणों, भूतों, जीवों और सत्वों को बाधा पहुंचाए। से अणासायए अणासायमाणे बज्जमाणाणं भूताणं जीवाणं किसी भी प्राणी को बाधा न पहुंचाते हुए धर्म कहने वाला सत्तार्ण जहा से दीवे असंगणे एवं से मवति सरणं महामुणी। वह महामुनि संसार-प्रवाह में डूबते हुए प्राणों, भूतों, जीवों -आ सु. १, अ. ६, उ. ५, सु. १६६-१६७ और सत्वों के लिए असंदीन (नहीं डूबने वाले) द्वीप की तरह पारणभूत होता है। आयाति पाणी दह माणवाणं संसारपडिवण्णाण संबुज्न- ज्ञानी पुरुष इस संसार में स्थित, सम्यक् बोध पाने के लिए माणाधं विशाणं पत्तागं । उत्सुक एवं विज्ञान प्राप्त मनुष्यों को उपदेश करते हैं। अट्टर वि संता अदुवा पमत्ता । जो आर्त अथवा प्रमत्त होते हैं, ये भी धर्म का आचरण कर सकते हैं। महासश्चमिण ति बेमि। यह यथातथ्य सत्य है, ऐसा मैं कहता है। गाऽणागमो मन्चमुहस्स अत्पि, इच्छापणीता काणिकेया, 'जीव मृत्यु के मुख में नहीं जायेंगे, ऐसा सम्भव नहीं है । कालगहोता गिच ये णिविट्ठा पुढो पुढो जाई पकापति । फिर भी कुछ लोग इच्छाओं के द्वारा प्रेरित होकर असंयम में संलग्न रहते हैं । वे मृत्यु को पकड़ में आ जाने पर भी कमसंचय करने या धन संग्रह में लगे रहते हैं। ऐसे लोग विभिन्न योनियों में बारम्बार जन्म ग्रहण करते रहते हैं। बहमेगेति तस्य तत्म संययो भवति । महोववातिए फासे ऐसे मनुष्यों का इस लोक में उन-उन जन्म-मरण के स्थानों परिसंवैवयंति। का अति सम्पर्क होता है। वे वहाँ जन्म-मरण के अनेक दुःखों -आ. सु. १, अ. ४, उ. २, सु. १३४.१३५' का अनुभव करते हैं। केसिधि तक्काइ अबुज्म मावं, सत्व चर्चा करने पर कोई अश्रद्धालु मनुष्य भावों को न शुष्कं पि गछछज्जा असहहाणे । समझकर क्रोध को प्राप्त हो सकता है और वक्ता को मार आपुस्त कालातियारं वषातं, सकता है या कष्ट दे सकता है इसलिए मुनि अनुमान के द्वारा लखाणमाणे य परेसु अद्वै॥ दूसरों के भावों को जानकर धर्म कहें। १ इस सूत्र का पोष अंश चारित्राचार पृ. २०७ पर देखें। Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५०] चरणानुयोग-२ धर्मकथा का प्रभाव सूत्र ७००-७०१ कम्मं च छंदं च बिगिच धीरे, धीर साधक श्रोता के कर्म और अभिप्राय को सम्यक् प्रकार विणएखाउ सरवतो मायमा । से जानकर उनके मिथ्यात्व अज्ञान आदि आत्मीय भावों को स्वेहि सुम्पति भयावहेहि, सब तरह से दूर करे, तथा उन्हें यह समझाये कि-'मनोहर विजर्ण गहाय तसथावरेहि।। रूप खतरनाक होते हैं इनमें लुब्ध जीवन विनष्ट हो जाते हैं।' इस प्रकार विद्वान पुरुष श्रोता के अभिप्राय को जानकर प्रस स्थावर जीवों का कल्याणकारी उपदेश दे । न पूर्वणं चेव सिलोयकामी, भिक्ष धर्मोपदेश से पूजा और श्लाया की इच्छा न करे । पियमप्पियं कस्सइ णो कहेज्जा । किरी का प्रिय या अप्रिय न करे तथा इन सब अनों का परिसध्ये अणठे परिवज्जयन्ते, वर्जन करता हुआ आकुलता रहित एवं कषाय रहित होकर अगाउले या अफसाइ भिक्खू ॥ उपदेश दे। -सूय- गु. १, म. १३, गा. २०-२२ रोबुज्नमाणे इह माणवेसु बाधा से परे जस्स इमाओ जिसने सबोध को प्राप्त किया है वह इस लोक में मनुष्यों जाईओ सचओ सुपडिलेहियायो भवति आघाई से णाण- को धर्म का उपदेश दे । जिसने इन जन्म-मरण के स्थानों को सब मणेलिस। प्रकार से भली भांति जान लिया है, वही विशिष्ट ज्ञान का कथन कर सकता है। से किति तेसि समुट्टिताणं निमित्तवंडाणं समाहिया दण्डों (पापों) का त्याग करने वाला समाधि भाव से युक्त पणाणमंतापं बह मुसिमागं । प्रज्ञावान् जो पुरुष धर्म सुनने के लिए उपस्थित हो उन्हें भिक्षु मुक्ति मार्ग का कथन करता है। एवं पेगे महावीरा विपरिक्कमति । ___ कुछ महान वीर पुरुष इस प्रकार के कथन को सुनकर -आ. सु. १, अ. ५, उ.१, सु. १७७-१७८ संयम मार्ग में पराक्रम करते हैं। आयपुसे सया बंते, छिपणसोए अणासवे । जो आत्मा को संवत करने वाला, सदा जितेन्द्रिय, हिंसा जे धम्म मुझमक्खाति, पजिपुग्णमर्गलिस ।। आदि के आश्रवों को छिन्न करने वाला आधव रहित साधक है -सूय. सु. १, अ. ११, गा. २४ वही शुद्ध प्रतिपूर्ण और अनुपम धर्म का उपदेश करता है। जे भिषण मायणे अण्णतरं विसं वा अणुदिसं वा पग्विष्णे बह मात्रा को जानने वाला भिक्षु किसी दिशा या अनुदिशा धम्म आइक्खे विभए फिट्टए उद्वितेसु वा अणुवट्टितेसु वा में पहुंचकर धर्माचरण से युक्त या धर्माचरण से रहित जो भी सुस्तसमाणेसु पवेदए। पुरुष धर्म श्रवण के लिये उपस्थित हों उन्हें धर्म का आख्यान करे, पद विभाग कर कहे, उसका निरूपण करे ।। संति विरति उवसम निष्वाणं सोयवियं अज्जविषं महवियं मुनि सभी प्राणियों-यावत्-सभी सत्वों के हित का लापवियं अणंतिवातियं सम्बसि पाणार्ण-जाव-सत्ताणं अणुबीइ विचार कर शान्ति, विरति, उपशम, निर्वाण, शौच, आर्जब, किट्टए धम्मं । -सूय. सु. २, अ. १, सु. ६८९ मार्दव, लाघव और अहिंसा आदि धर्मों का प्रतिपादन करे । धम्मकहा पभावो धर्मकथा का प्रभाव७०१. इह खलु तस्म मिक्खुस्स अंतियं धम्म सोच्या णिसम्म उहाय ७०१. इस जिन शासन में भिक्ष के पास धर्म सुननर मनन कर वीरा अस्सि धम्मे समुट्टिता, जे ते तस्स मिक्सस्स अंतियं सम्यग् उत्थान से इस्थित हो कई बीर पुरुष इस धर्म की श्रद्धा धम्म सोच्चा णिसम्म सम्म उट्टाणेणं उट्ठाय वीरा अस्सि में उस्थित हुए हैं। जो वीर पुरुष भिक्ष के पास धर्म सुनकर अम्मे समुट्टिता, ते एवं सम्वोमगता, ते एवं सम्योवरता, ते जानकर सम्यग् उत्थान से उत्थित हो संयम धर्म में उस्थित हुए एवं सम्योवसंता, ते एवं सम्वत्ताए परिनिव्वर। हैं वे इस प्रकार सर्वात्मना मोक्ष मार्ग को प्राप्त कर सर्वात्मना -सूय. सु. २, अ. १, सु. ६६१ पापों से उपरत होकर सर्वात्मना उपांत हो जाते हैं वे सम्पूर्ण कर्म क्षय कर परिनिर्वाण को प्राप्त होते हैं। Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ७०२-७०६ धर्मकया का फल सपाचार [३५१ ----... धम्मकहा फलं धर्मकथा का फल७०२. प.-धम्मकहाए णं भन्ते जीवे कि जणयह? ७०२. प्रा -- भन्ते ! धर्मकथा से जीव क्या प्राप्त करता है ? उ.-धम्मकहाए पं निज्जरं जणयह । धम्मकहाए गं पव- उ०-धर्मकथा से वह कर्मों की निर्जरा करता है। धर्म ५पं पाया पक्षांनी आगमिस्स भद्द- कथा से वह प्रवचन की प्रभावना : रता है। प्रवचन की प्रभाताए कम्मं निबन्धह। बना करने वाला जीव भविष्य में कल्याणकारी फ्ल देने वाले - उत्त. अ. २६, सु. २५ कर्मों का अर्जन करता है। इस्थि परिसाए रयणीए धम्मकहाकरण पायच्छित्त सुत्तं - स्त्री परिषद में रात्रि धर्मकथा करने का प्रायश्चित्त ७०३. जे भिक्स्यू राओवा, विधाले वा, इस्थिमज्नगएइस्थि संसते ७०३. जो भिक्ष रात्रि में मा संध्याकाल में (१) स्त्री परिषद इस्थि-परिवुझे अपरिमाणाए कह कहेछ, कहेंत वा साइज में, (२) स्त्रीयुक्त परिषद में, (३) स्त्रियों से घिरा हुआ अपरि मित कथा कहता है या कहने वाले का अनुमोदन करता है। तं सेवमाणे पालना चाउम्मामियं परिहारट्टाणं अणुग्घाइयं। उसे चातुर्मासिक अनुवातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) --नि. उ, ८, सु. १० आता है । ** ध्यान-५ - णिसिद्ध प्राणा-पिहित माणा निषिद्ध ध्यान और विहित ध्यान७०४, अट्टाहाणि वज्जित्ता, झाएजा सुसमाहिए। ७०४. सुसमाहित मुनि अत और रौद्र ध्यान को छोड़ कर धर्म धम्मसुक्काइंशाणाई, साणं तं तु बुहायए ॥1 और शुक्ल ध्यान का चिन्तन करे। इसे ही तत्यश पुरुष ध्यान -उत्त, अ. ३०, गा.३५ कहते है । माण भैया - ध्यान के भेद७०५. १०-से कि त साणे? ७०५, प्र--ध्यान क्या है, उसके कितने भेद है ? उ.--माणे चाउविहे पन्नत्ते, तं जहा ज०-ध्यान (एकाग्र चिन्तन) के चार भेद हैं, यथा१. अट्टे गाणे, (१) आर्त ध्यान-रागादि भावना से अनुप्रेरित ध्यान, २. रोदे मागे, (२) रौद्र यान---हिसादि भावना से अनुरंजित ध्यान, ३ घम्मे माणे, (३) धर्म ध्यान-धर्म भावना से अनुप्राणित ध्यान, ४. सुपके भरणे। (४) शुक्ल ध्यान' – शुभ-अशुम से अतीत आत्मोन्मुख शुद्ध -वि. स. २५, उ. ७, सु. २३७ ध्यान । अदृझाण भेया आतध्यान के भेद-- ७०६. अडे माणे चविहे पाणसे, सं जहा ७०६. आर्त ध्यान चार प्रकार का कहा गया है, यथा१. अमणुण्णसंपयोगसंपत ते, तस्स बिप्पयोग सतिसमक्षागते (१) अमनोश वस्तु की प्राप्ति होने पर उसके वियोग की पावि भवति, चिन्ता करना। - - - -- 1 १ २ उत्त. अ. ३४, गा.३१ (क) सम. सम, ४, सु. १ (ख) ठाणं. म. ४, उ. १, सु. २४७ Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२] चरणानुयोग-२ आर्तध्यान के लक्षण सूत्र ७०६-७१. ranamannaamanawwamraawwamwwwwwww २. मणुषणसंपयोगसंपउत्त, तस्स अक्षिप्पयोग सतिसमनायते (२) मनोज्ञ वस्तु की प्राप्ति होने पर उसके अवियोग की याधि भवति, चिन्ता करना । ३. आपंकसंपयोगसंपडसे, तस्स विप्पयोग सतिसमन्नागते (३) आतंक (रोग) होने पर उसके वियोग की चिन्ता यावि भवति, करना। ४. परिसियकाममोगसंपउसे तस्स अविप्पयोग सतिसमना- (४) प्रीप्त उत्पन्न करने वाले काम भोग आदि की प्राप्ति गते यावि भवति। -वि. स. २५ उ.७, सु. २३८ होने पर उनके अवियोग को चिन्ता करना । अट्ट झाण लक्खणा-- आतध्यान के लक्षण७०७. अस्स प्राणस्स चत्तारि लक्खणा पन्नता, तं जहा - ७०७. आर्तध्यान के चार लक्षण कहे गये है, यथा -- १. कंदणया, (१) क्र-दनता-आऋन्द करना, २. सोयणया, (२) शोचनता-शोक करना । ३ तिप्पणया, (३) सेपनता-आंसू गिराना । ४. परिदेवणया। -वि. स. २५, उ. ४, सु. २३६ (४) परिदेवनता-बार-बार विजाप करना। रुद्द झाण भेया रौद्रध्यान के भेद७०८. रोद्दे साणे चरविहे परते, तं जहा ७२६. रौद्रध्यान चार प्रकार का कहा गया है, यथा१. हिसाणुबंधी, (१) हिंसानुबन्धी - हिंसा को उद्दिष्ट कर एकाग्र चिन्तन करना। २. मोसाणबंधी, (२) मृषानुबन्धी-असत्य को उद्दिष्ट कर निरन्तर चिन्तन करना । ३. सेया बंधी, (३) स्तेयानुबन्धी-पोरी से सम्बद्ध एकाग्र चिन्तन करना । ४ सारक्खणाणुबंधों। -वि. स २५, उ.७, सु २४० (४) मंरक्षणानुबन्धी-धन आदि के संरक्षण हेतु अनिष्ट चिन्तन करना। रुद्द शाण लक्खणा रौद्रध्यान के लक्षण७०६. रोदस सागस्स चतारि लक्खणा पन्नता, तं महा-- ७०६. रौद्रध्यान के चार लक्षण कहे गये हैं । यथा१. उस्सन्न दोसे, (१) ओसन दोष-हिंसादि किसी एक दोष में लीन रहना । २. बहुदोसे, (२) बहुल दोष-हिंसापि बहुत दोषों में प्रवृत्त रहना। ३. अण्णाणवोसे, (३) अज्ञान दोष -- अज्ञान के कारण हिमादि में धर्म-बुद्धि से प्रवृत्ति करना। ४. आमरणंतदोसे। (४) आमरणान्त दोष-हिंसादि कायों का मरण पर्यन्त - वि. स. २५, उ.७, सु. २४१ पश्चात्ताप न करना एवं उसमें प्रवृत्त रहना । धम्माण भेया धर्मध्यान के भेद७१०. धम्मेमाणे चाउम्बिहे उप्पयारे पन्नते, तं जहा- ७१०. धर्मध्यान चार प्रकार के चार पदों में अवतरित होता है, यथा१. क्षाणाविजये, (१) आज्ञाविचय-बीतगग की आज्ञा का या उनके द्वारा प्ररूपित तत्वों का चिन्तन करना। (स) ठाणं. अ. ४, उ. १, सु. २४७ १ ठाणं. अ. ४, ज. १, सु २४७ २ (क) उव. सु. ३० में चौथा लक्षण "विलवणया" है। ३ ठाणं. अ. ४, उ १, सु. २४७ ४ ठाण.अ.४, ज., सु. २४७ Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ७१०-७१४ धर्मभ्यान के लक्षण तपाचार [३५३ २. अवायविजये, (२) अपायविषय · राग-द्वेष, कषाय, मिथ्यात्व, अविरति आदि मानवों का चिन्तन करना। ३. विवागविमये, 6) विपाकविषय-शानावरणीव भादि कर्मों से उत्पन्न आत्मा की विभिन्न अवस्थाओं का चिन्तन करना। ४. संठाणविजये। (४) संस्थानविचय-कध्वं अधोसोक, द्वीप समुद्र आदि के -वि. स. २५, उ. ७, सु. २४२ विषय में चिन्तन करना। धम्मशाण लक्खणा धर्मध्यान के लक्षण७११. धम्मस्स जसाणस्स चत्तारि लक्षणा पन्नता, तं महा- ७११. धर्मध्यान के चार सक्षण कहे गये हैं। यथा१. आणाई (१) आज्ञारुषि-वीतराग की आज्ञा में रुचि होना, २. निसरगहई १२) निसर्ग कचि-किसी के उपदेश के बिना स्वभाव से ही जिनभाषित तत्वों पर श्रद्धा होना। ३. मुत्तराई, (३) सूत्र चि-आगमों के अध्ययन व श्रवण में रुचि होना। ४. ओगावरुई। (४) अवगाह रुचि-(उपदेश रुचि) धर्मोपदेश श्रवण में -वि. स. २५, उ. ७, सु. २४३ उत्पन्न रुचि होना । धम्माणस्स आलंबणा धर्मध्यान के आलम्बन७१२. धम्मस्स णं माणस्स चत्तारि आलंवगा पन्नता, तंगहा- ७१२. धर्मध्यान के चार अवलम्बन कहे गये हैं, यथा-- १. वायणा, (१) वाचना, २. पडिपुच्छणा', (२) पृच्छना, ३. परियट्टणा, (३) परिवर्तना, ४. धम्मकहा। -वि. स. २५, ३. ७, सु. २४४ (४) धर्म कथा । धम्मशाणस्स अणुप्पेहाओ धर्मध्यान की अनुप्रेक्षाएँ७१३. धम्मस्स गंशाणस घसारि अजुप्पेहाओ पन्नत्ताओ, तं जहा- ७१३. धर्मध्यान की चार अनुप्रेक्षाएँ कही गयी हैं । यया१. एगत्ताणुप्पेहा, (१) एकत्वानुप्रेक्षा आत्मा के एकत्व भाव का चिन्तन करना। २. अणियामुप्पेहा, (२) अनित्यानुप्रेक्षा-शरीर, जीवन आदि की अनित्यता का चिन्तन करना। ३. असरणाणुप्पेहा, (३) अशरणानुप्रेक्षा-आत्मा की अशरणदशा का चिन्तन करना। ४. संसाराणुप्पेहा । -वि. स. २५, उ. ७, सु. २४५ (४) संसारानुप्रेक्षा-संसार परिभ्रमण का चिन्तन करना। सुक्कज्माण भेया शुक्लध्यान के भेद७१४. सुरके शाणे चविहे उप्पडोयारे पन्नते, तं जहा- ७१४. शुक्लष्यान के चार प्रकार और चतुष्प्रत्यावतार बहे है, यथा१. पुहत्तवियक सवियारी, (१) पृथक्त्व-वितर्क-सविचारी--एक ट्रम्य विषयक अनेक पर्यायों का पृथक् पृथक् चिन्तन करना। १ उव. सु. ३० में चौथा लक्षण "उवएसुरुई है" २ उव. सु. ३०, दूसरा आलम्बन (पूच्छणा) है। Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४] परणामुयोग-२ शुक्लष्पान के लक्षण सूत्र ६१४-७१७ २. एगत्तबियक्के अधियारी, (२) एकत्व-वितर्क-अविचारी-किसी एक पदार्थ के गुण या पर्याय का स्थिर चित्त से चिन्तन करना। ३. सुहमकिरिए अनियट्टी, (३) सूक्ष्म क्रिया अनिवर्ती-योग निरोध में प्रवृत्त आत्मा की परिणाम अवस्था। ४. समोछिन्नकिरिए अप्पडिबाई।। (४) समुग्छिन्न क्रिया अप्रतिपाती-सम्पूर्ण योग निरोध वि. स. २५, उ, ७, सु. २४६ हो जाने पर प्राप्त पौदहवें गुणस्थान की आत्म-परिणाम अवस्था । सुक्कक्षाण लक्खणा शुक्लध्यान के लक्षण७१५. सुक्कस्स पं शरणस्स चत्तारि लक्खणा पन्नत्ता, तं जहा- ७१५. शुक्लध्यान के चार लक्षण कहे गये है, यथा१. खंती, (१) क्षमा, २. मुत्ती, (२) निर्लोभता, ३. अजये, (३) सरलता, ४. मद्दथे । -बि. स. २५, उ.७, सु. २४७ (४) मृदुता । सुक्कझाणस्स आलंबणा शुक्लध्यान के अवलम्बन - ७१६. सुस्करसणं माणस्त चत्तारि आलंधणा पन्नत्ता, तं जहा- ७१६. शुक्लध्यान के चार अवलम्बन कहे गये हैं । यथ१. अध्वहे. (१) अन्यथ-व्यथित नहीं होना । २. असम्मोहे, (२) असम्मोह-देवादि कृत माया में मोहित नहीं होना । ३. विबगे, (३) विवेक-आत्मा और देह के भिन्नता की अनुभूति होना। ४. विभोसम्मे। -वि. स. २५, उ.७, सु. २४० (४) मुलग-शरीर और उपधि में अनासक्त भाव होना। सुक्कझाणस्स अणुप्पेहाओ शुक्लध्यान की अनुप्रेक्षायें-- ७१७. सुक्कस्स गं माणस्स चत्तारि अणप्येहामओ पन्नत्ताओ, सं जहा- ७१७. शुक्लध्यान की चार अनुप्रेक्षाएँ कही गई हैं। यथा१. अणतदत्तियाणुप्पेहा, (१) अनन्तवतितानुप्रेक्षा-अनन्त भव परम्परा का चिन्तन करता । २. विप्परिणामागुप्पेहा, (२) विपरिणामानुप्रेक्षा--वस्तुओं के विपरिणमन पर नितन करना । ३. असुमाणुप्पेहा, (३) अशुभानुप्रेक्षा-संसार के अशुभ स्वरूप पर चिन्तन ४. अवायागुप्पेहा । (४) अपायानुप्रेक्षा--जीव जिन कारणों से दुःखी होता है उन विविध अपायों का चिन्तन करना। यह ध्यान का स्वरूप है। से तंमाणे ।' ---वि. स. २५, उ. ७, सु. २४१ १ उव. सु. ३० में शुक्लध्यान के प्रकारों में ३-४ प्रकार में स्थानान्तर "अनियट्टी" की जगह "अप्पडिवाई" और अप्पष्टिवाई की जगह "अनियट्टी" है। २ उव. सु. ३० में शुक्लध्यान के लक्षणों को आलम्बन और मालम्बन को लक्षण कहा गया है। ३ (क) ठाणे, म. ४, उ, १, सु. २४७ (ख) उव. सु. ३० Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ७१८-७१६ व्युत्सर्ग का स्वरूप तपाचार [३५५ कायोत्सर्ग--५ विउसग्गसरूवं - पुत्सर्ग का स्वरूप--- ७१८. सयणासमठाणे वा, जे उ भिक्खू न वावरे । ७१८, सोने, बैटने या खड़े रहने के समय जो भिक्षु शरीर की कायस्स विउस्सम्गो, छटो सो परिकित्तिओ।। बाह्य प्रवृत्ति नहीं करता है। उसके काया की चेष्टा का जो -उत्त. अ. ३०, गा. ३६ परित्याग होता है, उसे व्युत्सर्ग कहा जाता है। वह आभ्यन्तर तप का छठा प्रकार है। विउसग्गस्स भयप्पमेया व्युत्सर्ग के भेद प्रभेद७१६.प.-से कि तं विओसगे ? ७१६. प्र.-युत्सर्ग क्या है, उसके कितने भेद हैं ? उ०—विओसग्गे दुबिहे पाणी, तं जहा उ०-- व्युत्सर्ग के दो भेद बतलाये गये हैं, यथा१. दध्वविओसी, २. भावविओसग्गे य। (१) द्रव्य-व्युत्सर्ग, (२) भाव-च्युत्सगं, प.-से किं तं दध्वविओसगे? प्र-द्रव्य व्युत्सर्ग क्या है, उसके कितने भेद हैं ? उ०-वग्यविओसग्गे चनधिहे पणते, त जहा उ०—द्रव्य व्युत्सर्ग के चार भेद कहे गये हैं, वे इस प्रकार हैं१. गणविमओसग्गे, (१) गण च्युत्सर्ग-गण एवं गण के ममत्व का त्याग । २. सरीरविभोसग, (२.हर स्युलम --पह ताप दैहिक सम्बन्धौं की ममता या आसक्ति का त्याग । ३. उवहिविओसग्गे, (३) उपधि-व्युत्सर्ग-उपधि का त्याग करना एवं साधन सामग्रीगत ममता का, साधन सामग्री को मोहक तथा आकर्षक बनाने हेतु प्रयुक्त होने वाले साधनों का त्याग । ४. मत्तपाणविमोसम्यो। (४) भक्त-पानव्युत्सर्ग- आहार पानी का तथा तद्गत से तं दस्वविओसगे। भासक्ति या लोलुपता आदि का त्याग । यह द्रव्य व्युत्सर्ग का विवेचन है। प०.-से कि त मावविओसगे। प्र.-भाव न्युत्सर्ग क्या है--उसके कितने भेद हैं ? उ.-भावविभोसग्गे तिविहे पणते, तं जहा उ.-भाव व्युत्सर्ग के तीन भेद है, यथा१. कप्तायविओसम्गे, (१) कषाय-व्युत्सर्ग, २. संसारवियोसग्गे, (२) संसार-व्युत्सर्ग, ३. कम्मविमोसग्गे । (३) कर्म-युत्सर्ग। प.-से कि तं कसायिओसगे ? प्र.-कषाय-व्युत्सर्ग कया है उसके कितने भेद हैं ? उ..-फसाविओसो चलम्विहे पण्णसे, सं जहा उ.--कषाय-व्युत्सर्ग के चार भेद कहे गये है, वे इस प्रकार हैं१. कोहविमोसग्गे, (१) क्रोध-व्यत्सर्ग-क्रोध का त्याग । २. माणविओसगो, (२) मान-व्युत्सर्ग-अहंकार का त्याग । ३. मायाबिओसम्गे, (३) माया-म्युत्सर्ग-छल कपट का त्याग । ४. लोहरिओसगे। (४) लोभ-व्युत्सर्ग---लालच का त्याग । यह कषाय व्युत्सर्ग से तं कसाय विओसगे। का विवेचन है। ५०-से कि तं संसार विओसरगे? प्र-संसार व्युत्सर्ग क्या है वह किसने प्रकार का है ? जल-संसारविमोसम चम्बिहे पण, तं जहा 3-संसार व्युत्सर्ग (चार गति के बन्ध के कारणों का त्याग) चार प्रकार का बतलाया गया है। वह इस प्रकार है Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६ ] चरणानुयोग- २ १. संसारविसग्गे, २. सिरिय संसारविसम्मे ३. मणुय संसार विओसग्गे, ४. देव संसारणिओसम्पे, से सं संसारविसगे । किम्मवियो २० ० कम्मविलोम अपि जहा १. गाणावरणियम्म २. बरिसणावरणिकम्मविभोगे, ३. मणिकमविओसम्य २. वायसम्मवियो ४. मोहम्म्मवियोगे ६. नामकम्म विओगे, ७. गोय कम्मविओोसणे, ? सेकसि से तं भावविओसग्गे ।' ८. अंतरायामविजये। काउसग फलं७२० प० 1 १ उष. सु. ३० उसग्गं भन्ते । जोने कि भगवा ? कायोत्सर्ग का फल वि. स. २५, उ. ७, सु. २५० -२५५ (१) गैर-संसार नरक गति बंधने के ७११-७२० का त्याग | (२) तिर तिच दति बंधने के कारणों का त्याग । (३) मनुज-संसारव्युत्सर्ग-मनुष्य गति बंधने के कारणों का त्याग । (४) देवसंसार-सदेव पति बंधने कारों का ध्यान यह संसार व्युत्क्ष का वर्णन है। प्र० - कर्म व्युत्सर्ग क्या है वह कितने प्रकार का है ? उ०- कर्म व्युत्सगं आठ प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकार है (१) ज्ञानावरणीय आवरक कर्म पुगलों के बंधने के कारणों का त्याग ) (२) दर्शनावरणीय प्रम (आरमा के दर्शन (सामान्य ज्ञानगुण) के आवरक कर्म पुद्गलों के बंधने के कारणों का त्याग ।) (३) वेदनीय कर्म ब्युत्सगं ---- (साता असाता दुःखरूप वेदना के हेतुभूत पुद्गलों के बंधने के कारणों का त्याग । सुख दुःखात्मक अनुकूल-प्रतिकूल वेदन में आत्म को तद्-अभिन्न मानने का उत्सर्जन ) - ज्ञान के कायोत्सर्ग का फल ७२०० प्राप्त करता है ? (४) मोहनीय कर्म (आय के स्वप्रतीति-स्वानुभूति स्वभाव रामरूप गुण के नरक कर्म पुदुमलों के बंधने के कारणों का त्याग ) (५) आयुष्य कर्म स्वर्ग (किसी भव में पर्याय में रोक रखने वाले आयुष्यकर्म केसों के बंधने के कारणों का त्याग ) (६) नाम-कर्म-रस- (आत्मा के अर्तत्व गुण के वारक कर्म पुद्गलों के बंधने के कारणों का त्याग ।) (७) गोत्र-कर्म - व्युत्सर्ग --- (आत्मा के अगुरुलघुत्व (न भारीपन न इलापन) रूप गुण के आवरक कर्मों के बंधने के कारणों का त्याग ।) (4) अन्तराय -कर्म- व्युत्सर्ग- ( आत्मा के शक्ति रूप गुण के आवरक (अवरोध) कर्म पुद्गलों के बंधने के कारणों का त्याग ) यह कर्म व्युत्सगं है । इस प्रकार भाव व्युत्म का विवेचन है। को (म्या की मुद्रा) से जीव क्या Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ i सूत्र ७२० ७२२ तवाचरण उद्देसो ७२१. उ०- काउसो त पान्तिं विसो । विद्धपायन्ते य जीवे निब्बुयहिए ओहरियभारो "" भारवहे पाणी हे वरद । -- उत्त. अ. २६, सु. १४ सभाही न तं महा- १. नो इहलोट्टयाए तत्रमहिठेक्जा, २. गोप यो किसिम-स-सिनो तथमहिना, -- ४. नम्र निम्नरयाए तमहिना । चरमं पर्व भव भव्य य इत्थ सिलोगो - विगतदोरए नियं चव निरासए निज्जरट्ठिए । वसा घुण पुराणपावगं गुत्तरे सया तवसमा हिए || --दस. अ. ६, उ. ४, सु. ६-१० ०को से वह अतीत और वर्तमान के प्रायश्चित योग्य कार्यों का विशोधन करता है। ऐसा करने वाला व्यक्ति भार को नीचे रख देने वाले भार वाहक की भांति स्वस्थ हृदय वाला हो जाता है और प्रशस्त ध्यान में लीन होकर सुखपूर्वक विचरण करता है। 据 तप समाधि एवं फल- ६ " तब चरण फलं ७२२. अभिगम अजरो सम्माहिओ, सुविसुद्ध सुसमाहियपओ विजलहिय सुहावहं पुणो, कुय्बइ सो पथममध्यणो ॥ असं क्य तपाचरण का उद्देश्य जाइमरणाओ मुम्बई, प्रत्ययं च च सवसो । सिद्धं वा भव सासए, देवे वा अप्पर महि ॥ - दस, अ. ६, ४, सु. १३-१४, गा. ६-७ पच्छा वि ते पयाया, खियं गच्छति अमरभयणा । जेसि पिको तयो संजमो य, सन्ती य बम्भवेरं च ॥ - दत्त, अ. ४ मा २७ दोन्हं अन्नवरे सिया । वा. देवे वावि महिलिए । विमोहा, मन्त्री | समाकृष्णा जक्वेहि, आवासाई जससिणो || तपाचार [३५७ तपाचरण का उद्देश्य ७२१. तप समाधि के चार प्रकार हैं, जैसे (१) इहलौकिक सुख के निमित तप नहीं करना चाहिए। (२) पारलौकिक सुख के निमित्त पर नहीं करना चाहिए। (३) कीर्ति पथ प्रसिद्धि और प्रथा के लिए नहीं करना चाहिए। ( ४ ) निर्जरा के अतिरिक्त अन्य किसी भी उद्देश्य से तप नहीं करना चाहिए। यह पद है और यहाँ एक श्लोक है। सदा विविध गुण बाप में रख रहने वाला नि पौद्गलिक प्रतिफल की इच्छा से रहित होता है। वह केवल निर्जरा का इच्छुक होता है, तप के द्वारा पुराने कर्मों का विताय करता है और तप समाधि में सदा मुक्त हो जाता है। तप आचरण का फल २२. जो चारों साथियों को जरूर और सुसमाहित चित्त वाला होता है वह अपने लिए हितकर और सुखकर मोक्ष स्थान को प्राप्त करता है । वह जन्म मरण से मुक्त होता है, नरक आदि अवस्थाओं को पूर्णत: त्याग देता है । इस प्रकार वह या तो शावत सिद्ध हो जाता है अथवा अल्प कर्म वाला महविक देय होता है । जो पिछली अवस्था में प्रवजित हुए हों किन्तु उन्हें तप, संयम, क्षमा और ब्रह्मचर्यं प्रिय है तो वे शीघ्र ही स्वयं को प्राप्त होते हैं । जो संत मिलू होता है, यह दोनों में से एक संस्था की प्राप्त होता है, यथा - ( १ ) सब दुःखों से मुक्त ( २ ) महानु ऋद्धि वाला देव । देवताओं के आवास क्रमशः उत्तरोतर मोह रहित ह्यतिमान् और यशस्वी देवों से आकीर्ण होते हैं । Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८] घरणामुयोग-२ तपाति के चोरों को दुर्गति सूत्र ७१२-७२४ दोहाव्या इहिमत्ता, समिद्धा काम-रूविणो । वे देव दीर्घाय, ऋद्धिमान, दीप्तिमान, इच्छानुसार रूम महणोववन्नो - संकास, मुरुडो पनिशानियां कर्मवाल, अभी उत्पन्न हुए हों, ऐसी कान्ति वाले सूर्य के मभान अति-तेजस्वी होते हैं । ताणि ठाणागि गच्छन्ति, सिविखत्ता संजम तवं । जो भिक्षु या गृहस्थ उपशान्त होते हैं वे संयम और तप का भिवाए था गिहत्थे वा, जे सन्ति परिनिब्जा। आराधन कर इन उपरोक्त देव-आवास स्थानों में जाते हैं। -उत्त, अ. ५, गा. २५-२८ खवेत्ता पुवकम्माई, संजमेण तयण य। सर्व दुःखों से मुक्ति पाने के लिए महर्षि संयम और तप के सम्बदुक्खप्पाहीणा, पक्कमन्ति महेसिणो द्वारा पूर्व कर्मों को क्षय कर सिद्धि को प्राप्त होते हैं। -उत्त, अ, २८, मा. ३६ एवं तवं तु दुविहं, जे सम्म आयरे मुणी। इस प्रकार जो पण्डित मुनि दोनों प्रकार के तपों का सम्यक् सो लिप्पं सन्वसंसारा, विप्पमुच्चइ पण्डिए । रूप से आनरण करता है, वह शीघ्र ही समस्त संसार से मुक्त -उत्त्व. अ. ३०, गा. ३७ हो जाता है। तवाइ-तेणाणं दुग्गइ तपादि के चोरों की दुर्गति७२३ तवतेणे क्यतेणे, स्वतेणे य जे नरे। ७२३. जो मनुष्य जप का चोर, वाणी का चोर, रूप का चोर, आयारभावतेणे य, कुष्पई वकिम्बिस ॥ आचार का चोर और भाव का चोर होता है, वह किल्बिषिक देव योग्य कर्म बन्ध करता है। लसूण वि देवतं, उववन्नो देवकिम्बिसे । किल्विषिक देव के रूप में उत्पन्न जीव देवत्व को पाकर भी तत्था वि से न याणाइ, कि मे किच्चा इमं फल ।। वहाँ यह नहीं जानता कि यह मेरे किस कार्य का फल है। तत्तो वि से चइताणं, लम्भिही एलमूयगं । ___वहाँ से च्युत होकर वह ऐसे मूक बकरे आदि योनि को नरय तिरिक्खजोणि बा, बोली जत्य सुदुल्लहा ।। प्राप्त करता है अथवा नरक या तियंचयोनि को प्राप्त करता है जहाँ जिन धर्म की प्राप्ति अत्यन्त दुर्लभ होती है। एवं च दोस दर्ष, नायपुत्तेण शसियं । ज्ञातपुत्र भगवान महावीर ने कहा कि इन पूर्वोक्त दोषों को अणुमायं वि मेहावी, मायामोसं विवज्जए॥ जानकर मेधावी मुनि संयम पालन में अणु-मात्र भी माया-मृषा -दस. अ. ५, उ. २, मा. ४६-४६ न करे। तवस्मियाण रइयाणं कम्मणिज्जरणयाए तुलणा- तपस्वियों और नैरयिकों के कर्म निर्जरा की तुलना७२४. १०-जापइयं गं मंते ! अगिलायए समणे निगथे कम्म ७२४. प्र०-भन्ते ! पर्युषित (शीतल अमनोज) आहार करने निजरेड, एवइयं कम्म नरएसु नेरइया बासेण वा, बाला थमण निर्ग्रन्थ जितने कर्मों का क्षय करता है क्या उतने पासेहि वा, वाससएहि खवयंति ? ही कर्मों का नरमिक जीव नरक में एक वर्ष, अनेक वर्ष या सौ वर्ष में क्षय करता है? ज.-नो तिगढे सम81 उ०- हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । प०-जावइयं गं मंते ! चउरथभत्तिए समणे निम्नथे कम्म प्र.-भन्ते ! चतुर्थ भक्त (एक उपवास) करने वाला श्रमण निजरेइ, एवइयं कम्मं नरएसु नेरहया वास-साणं निर्ग्रन्य जितने कगों वा क्षय करता है क्या उतने ही कर्मों का था, वास-सएहि वा, वास-सहस्सेण वा खवयंति ? नैरयिक जीव नरक में सौ बर्प, अनेक सौ वर्ष या हजार वर्ष में क्षय करता है? उ.-नो तिण? समट्ठ। उ.-हे गोतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। ५०-जावदयं गं भंते ! छटुभत्तिए समणे निगं कम्म प्र.-भन्ते ! छटु भक्त (दो उपवास) करने वाला श्रमण निज्जरेइ, एवइयं कम्म नरएसु नेरहया वासहस्सेण निग्रंथ जितने कर्मों का क्षय करता है क्या उतने ही कर्मों का वा, वास-सहस्सेहि वा, वास-मप-सहस्सेण बा, नरयिक जीव नरक में हजार वर्ष, अनेक हजार वर्ष या एक लाख खवयंति? वर्ष में क्षय करता है? Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्र ७२४ तपस्वियों और नरपिकों के कर्म निर्जशको तुलना तपाचार [३५९ उ.-नो तिण? सम81 उ-हे गौतम ! वह अर्थ समर्थ नहीं है। ५०–जावइयं णं भंते ! अट्ठमसिए समणे निग्गंधे कम्म प्र०. भन्ते ! अष्टम भक्त (तीन उपत्रास) करने वाला श्रमण निजरेइ, एवह कम्मं नरएसु नेरइया वास-सय- निर्ग्रन्थ जितने का का क्षय करता है क्या उतने ही कर्मों का सहस्सेण या, बास-सय-सहस्सेहिं वा, वासफोडीए वा नैरयिक जीव नरक में एक लाख वर्ष, अनेक लाख वर्ष या एक खवयोन्त ? करोड़ वर्ष में क्षय करता है? उ.-नो तिगढ़ सम?। उ० --हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। प०--जावइयं णं भंते ! इसमत्तिए समणे निर्गथे फम्म ५०-भन्ते ! दशम भक्त (चार उपवास करने वाला श्रमण निजजरेइ, एबदय कम्म नरएसु नेरहया वास-कोडीए निर्ग्रन्थ जितने कर्मों का क्षय करता है क्या उतने ही कर्मों का वा वास कोडोहिं घा, बास-कोडाकोसीए वा खवयंति? सय नैरयिक जीव नरक में एक करोड़ वर्ष, अनेक करोड़ वर्ष या कोटा-कोटी वर्ष में क्षय करता है? उ०-नो तिण? सम?।। उ.-हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है।। ५० सेकेणणं भंते । एवं बुच्चइ - जावह अनगिला- प्र.-भन्ते ! यह किस कारण से कहते हैं कि अन्नग्लायक पए समणे निग्गंथे कम्मं निज्जरेइ एवइयं कम्मं श्रमण नियंस जितने कर्मों का क्षय करता है उसने ही कर्मों को नरएसु नेरइया वासेणं वा, वासेहिं वा, वास-सएणं नैरयिक जीव नरक में एक दर्प, अनेक वर्ष या मो वर्ष में भी वा, नो स्वचयन्ति-जाव-वास कोडाकोडीए वा नो क्षय नहीं कर सकता-यावत्-कोटा कोटी वर्ष पर्यन्त क्षय सवयन्ति? नहीं कर सकता? - गोयमा ! से जहानामए केह-पुरिसे जुले, जराजज्ज- उ-हे गौतम ! जिस प्रकार कोई वृद्ध, जरा जर्ज रित रिपदेहे, सिढिरनतयावलि तरम-संपणिवगत्ते, पविरल- शरीर वाला, शिथिल स्वचा से सलवटें युक्त शरीर वाला, कतिपरिसडिय-वंत सेतो, उहाभिए, ताहाभिहए, आउरे, पय गिरे हुए दांतों वाला, गरमी से न्याकुल, तृपा से पीड़ित, असिए, विधासिए, दुम्बन, किलत, एग मह पोसंब. दुःखी, बुभुक्षित-तृषित, दुर्वल और मानसिक क्लेश वाला पुरुष मंडियं मुक्क जडिलं गठिल्लं चिषक वाइडं अपत्तियं हो और वह एक बड़ी कोणत्र नाम के वृक्ष को सूखी हुई, वक्र मुंण परसुणा अवक्कमेज्जा, तए पं से महंताई अन्थियों वाली चिकनी और निराधार रही हुई लकड़ी पर एक महंताई सद्दाई करेइ, नो महताई महंताई दसाई मोटे कुल्हाडे द्वारा प्रहार करे तो वह पुरुष बहुत जोर-जोर से अवद्दालेह । शब्द करता है किन्तु अनेक टुकड़े नहीं कर सकता। एवामेव गोपमा ! मेरइयाणं पाबाई कम्माई गाठी- इसी प्रकार हे गौतम ! नैरयिकों के अपने कर्म गाढ बंधे कयाई सिक्कणी-कथाई सिलिट्टी-कयाई खिसोभूताई हुए चिकने किये हुए निधत्त हुए एवं निकाचित किए हुए होते हैं भवंति, संपगा पिय ते वेदणं वेदेसाणा नो महा- इसलिए वे सम्प्रगाढ़ वेदना को भोगते हुए भी महानिर्जरा वाले निज्जरा जो महापज्जवसाणा प्रति । तथा महापर्यवसान वाले नहीं होते हैं। २. से जहाना भए केह-पुरिसे अहिकरणिं आचठमाणे (२) जिस प्रकार कोई एक पूरुष जोरदार शब्दों के साय, महया महया सद्देणं, महया-महया घोसेणं, महया महापोष के साथ एरण पर धन की चोट मारता है, बहुत जोरमहया परंपराधाएणं, नो संचाएइ तोसे अहिंगरपिए जोर से आवात करता है किन्तु एरण के स्थूल पुद्गलों को तोड़ने के अहाबायरे पोग्गले परिसाहित्तए, में समर्थ नहीं होता है। एवामेव गोयमा ! मेरयाणं पावाई कम्माई गाढी- इसी प्रकार हे गौतम ! रयिकों के अपने पापकर्म गाढ़ कियाई-जाव-नो महापज्जवसाणाई भवंति । बंधे हुए होते हैं - यावत्-वे महापर्यवसान वाले नहीं होते। ३. से जहानामए फेद-पुरिसे तरुण बलवं-जाव-मेहाबी (३) जिस प्रकार कोई तरुण पुरुष बलवान यावत्निससिप्पोबगए एवं महं सामलिगडिय उल्लं, अज- मेधावी और निपुण शिल्पकार एक बहुत बड़े शाल्मली वृक्ष की हिल, अगठिल्लं, अधिक्कणं, अवाइड, सपत्तियं गिली, अजटिल, अगठिल, (गांठ रहित) चिकनाई से रहित सीधी तिक्षेण परसुणा अक्कमेज्जा, तए पं से पुरिसे नो और आधार सहित लकड़ी पर तीक्ष्ण परशु से प्रहार करता हुआ महंताई महंताई सद्दाई करेष्ठ महंताई महंताई दलाई वह पुरुप बहुत जोर-जोर से शब्द नहीं करता है किन्तु अनेक अवद्दालेइ। टुकड़े कर देता है। Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६०] चरणानुयोग-२ तप से प्राप्त चारण लब्धि का वर्णन सूत्र ७२४-७२५ एवामेव गोयमा ! समणाणं निगाथाणं अहाबायराई इसी प्रकार हे गौतम ! थमण निर्ग्रन्थों के स्थूल फर्म शिथिल, कम्मा सिदिलीकयाई निद्रियाइकयाई विप्परिणामि प्रभावहीन और विपरिणाम को प्राप्त शीघ्र ही ध्वस्त होते हैं। याई खिप्पामेव परिविडत्याई भवति । जावइयं ताइयं इसलिए सामान्य वेदना का वेदन करते हुए भी श्रमण निर्ग्रन्थ पि ते वेदणं वेदेमाणा महानिज्जरा महापज्जवसाणा महानिर्जरा एवं महापर्यवसान को प्राप्त होते हैं । मवति । ४.५० से जहा वा केइ पुरिसे सुषकतणहत्वगं जायतेयंसि (४) प्र. हे गौतम ! जिस प्रकार कोई पुरुष शुष्क तृण पक्लिवेज्जा से भूणं गोयमा ! से सुषके तणहत्थए हाथ में लेकर अग्नि में डाले, डालते ही वे शुष्क तृण शीघ्र ही जायतेयंसि पक्विते समाते शिप्पामेव श्समा दिन बह? जर जारी है? उ.-हंता मसमसाविस्जद। उ.-हो भन्ते ! जल जाते हैं। एवामेव गोयमा ! समणाणं निम्गंयाणं अहाबापराई इसी प्रकार हे गौतम ! भ्रमण निन्यों के स्थूलकर्म शिथिल कम्माई सिढिलोकयाई-जाव-महापज्जवसाणा भवति। होते हैं यावत्-वे महापर्यवसान को प्राप्त होते हैं। ५. प०-से महानामए के पुरिसे तत्तंसि अयकस्लसि उदग- (५) प्र.-जिस प्रकार कोई पुरुष तप्त तवे पर पानी का बिंदु पक्लिवेज्जा से नूर्ण गोयमा ! से उबगबिंदु तत्तंसि बिन्दु डाले, डालते ही वह उदक विन्दु तप्त तवे पर शीघ्र ही अयकवल्लसि पक्तितं समाणे खिम्पामेव विवंसं ध्वस्त हो जाता है ? आगच्छद? -हंता विद्धसं आगच्छद। उ०-हाँ भन्ते ! वह बिन्दु शीघ्र ही नष्ट हो जाता है। एवामेव गोयमा ! समणाणं निग्गंयाणं अहावाबरा इसी प्रकार हे गौतम ! श्रमण निग्रंन्मों के स्थूलकर्म शिथिल कम्माई सिढिलोकयाई-जाव-महापज्जवसाणा भवंति। होते हैं-यावत्-महापर्यवसान को प्राप्त होते हैं। से तेणढणं गोयमा! एवं युवाइ-जावइयं मन्नगिला- हे गौतम ! इसी कारण ऐसा कहा जाता है कि अन्नग्लायक यए समणे निर्माथे कम्म निजरेइ एवश्यं कम्मं नरएम श्रमण निर्ग्रन्थ जितने कर्मों का क्षय करता है उतने कमों का क्षय नेरया-जाब-वास-कोडाकोडीए वा नो खवयंति। नैरयिक जीव नरक में यावत्-कोटा कोटी वर्ष में भी नहीं -वि. स. १६, उ.४, सु २-७ करते। लयेणपत्त चारण लद्धिस्स वण्णओ तप से प्राप्त चारण लब्धि का वर्णन७२५. प.-कतिबिहा गं भंते ! चारणा पण्णता? ७२५. प्र.-भगवन् ! चारण कितने प्रकार के कहे गये हैं ? उ०-गोधमा ! दुखिहा धारणा पण्णता, तं जहा.--- उ०-- गौतम ! चारण दो प्रकार के कहे गये हैं, यथा१. विज्जाचारणा य, २. जंघाचारणा य । (१) विद्याचारण और (२) जपाचारण । ५०. से केपट्ठणं भंते ! एवं बुच्चद-विज्जाचारणे-विजा- प्र- भगवन् । विद्याचारण मुनि को "विद्याचारण" क्यों चारणे? कहते हैं ? -गोयसा ! तस्स गं छठ्छद्रेणं अणिक्सित्तेण तवो उ-गौतम ! निरन्तर बेले देले के तपश्चरणपूर्वक पूर्वकम्मेणं विजाए लदि सममाणस्स विज्जाधारणलड़ी श्रुतरूप विद्या द्वारा उत्तरगुणलब्धि अर्थात् तपोलब्धि को प्राप्त नाम लसी समुप्पज्जद। मुनि को विद्याचारणलब्धि नाम की लब्धि उत्पन्न होती है। से तेण?ण गोयमा 1 एवं बुच्चइ विज्जाचारणे- इस कारण से गौतम ! वे विद्याचारण कहलाते हैं। विज्जाचारगे। प०-विज्जाधारणस्स गं मंते ! कह सोहर गती, कहं सीहे प्र-भगवन! विद्याचारण की शीघ्र गति कैसी होती गतिविसए पण्णते? है? और उसका गति विषय कितना शीघ्र होता है ? ३०-गोयमा ! अयण जंबुद्दीवे दोवे-जाव-किरिबिसेसाहिए उ०-गौतम ! यह जम्बूद्वीप नामक द्वीप, जो सर्वद्वीपों में परिवरलेवेणं । देवे गं महिहोए-जाव-महेसक्खे-जाव- (आभ्यन्तर है)-पावत् - जिसकी परिधि (तीन लाख सोलह 'इगामेव-इणामेव ति कट्ट' केबलकप्पं जंबुद्दीव दीवं हजार दो सौ सत्ताईस पोजन से) कुछ विशेषाधिक है, उस . . Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ७२५ तप से प्राप्त चारण लन्धि का वर्णन तपरचार [३६१ तिहिं अमछरानिवाएहि तिक्युत्तो अणुपरिपट्टित्ता गं सम्पूर्ण जम्बूद्वीप के चारों ओर कोई महद्धिक - यावत्-महाहथ्वमागच्छेज्जा, विज्जाचारणस्स गं गोयमा ! तहा सौख्य-सम्पन्न देव-यावत्-"यह चक्कर लगा कर आता है।" सीहा गती, तहा सोहे गतिविसए पण्णते। यों कहकर तीन चुटकी बजाए उतने समय में, तीन बार चक्कर लगांकर आ जाये, ऐसी शीघ्र गति विद्याचारण की है और उसका इस प्रकार का शीघ्रगति का विषय कहा है। प०--विज्जाचारणस्ल गंते ! तिरिय के वतियं गतिविसए प्र-भगवन ! विद्याचारण की तिरछी गति का विषय पण्णते? कितना कहा है ? उ.- गोपमा ! से पं इओ एगेणं उप्पाएणं माणुसुत्तरे पत्रए उ०---गौतम ! वह (विद्याचारण मुनि) यहाँ से एक उत्पात समोसरणं करेति, करेता, तहिं चेइयाई बंदति बंदिता (उड़ान) से मानुषोत्तर पर्वत पर समवसरण करता है (अर्थात् बितिएणं उप्पाउणं नंदीपरवरे दीवे समोसरणं करेति, वहां जाकर ठहरता है) फिर वहाँ चैत्यों (ज्ञानियों) की स्तुति करेत्ता तहि चेइयाई वंदति, वंदिता तो पडिनिय- करता है । तत्पश्चात वहाँ से दुसरे उत्पात में नन्दीश्वरद्वीप में तति, परिनिपत्तित्तः इहमागच्छा, आगच्छित्ता इह समवसरण करता है, फिर वहाँ पर भी प्रत्यों (ज्ञानियों) की चेहयाई वंदति । चिज्जासारणस्स गं गोयमा ! तिरियं दन्दना (स्तुति करता है, तत्पनात यहाँ से (एक ही उत्पात एवतिए गतिविसए पग्णसे । में) वापस लौटता है और यहां आ जाता है । यहाँ आकर चैत्य (ज्ञानियों) की वन्दना करता है । गौतम ! विद्याचारण मुनि की तिरछी गति का विषय ऐसा कहा गया है। प०-विजाचारणम्स णं मते! उजत केवतिए गतिविसए प्र.-भगवन ! विद्याचारण की ऊर्ध्वगति का विषय कितना पण्णते? कहा है? उ-गोयमा ! से इओ एगेणं उष्पाएणं नंदणषणे समो- उ०-गौतम ! वह (विद्याचारण मुनि) यहाँ से एक सरणं करेति. फरेखा सहि घेहयाई बवति, वंचिता उत्पात से नन्दनवन में संगवसरण करता है। वहाँ ठहर कर वह बितिएणं उप्पाएणं पंढगवणे समोसरण करेति, करेत्ता चैत्यों (शानियों) की वन्दना करता है। फिर वहाँ से दूसरे तहि पेडयाई वदति, वंदित्ता तओ पडिनियत्तति, पडि- उत्पात से पण्डकवन में समवसरण करता है वहाँ भी वह पत्य नियत्तित्ता इहमागच्छाह, आपिछत्ता इहं चेहयाई (ज्ञानियों) की स्तुति (वन्दना) करता है। फिर वहां से वह वदति । विज्जाचारणस्स गं गोयमा ! उढं एषतिए लौटता है और बापस यहाँ आ जाता है । यहाँ आकर यह त्यों गतिविसए पपणत्ते । (ज्ञानियों) की स्तुति वन्दना करता है । हे गौतम ! विद्याचारण मुनि की अवंगति का विषय ऐसा कहा गया है। से गं तस्स ठाणस्स अणालोइयपहियते फालं करेति यदि वह विद्याचरण मुनि उस स्थान की आलोचना और नत्यि तस्स आराहणा। से गं तस्स ठाणस्स आलोइय- प्रतिक्रमण किये बिना ही काल कर जाये तो उसकी चारित्र पडिपकते काल करेति अस्थि तस्स आराहणा। आराधना नहीं होती और यदि वह विद्याचारण मुनि उस (प्रमाद) स्थान की आलोचना और प्रतिक्रमण करके काल करता है तो उसकी (चारित्र) आराधना होती है । प.-से केणढणं भंते ! एवं बुच्चनजंघाचरणे-जंघाचरणे? प्र.-भगवन ! जंघाचारण को जंघाचारण क्यों कहते हैं ? उ.-गोयमर ! तस्स णं अमअमेणं अणिक्खितेणं तबो- गौतम ! निरन्तर तेले-तेले तपाचरण-पूर्वक आत्मा कम्मेणं अप्पाणं पारमाणस्स जंघाचारणलखी नाम को भावित करते हए मूनि को जंघाचारण नामक सन्धि उत्पन्न लखो समुप्पज्जति । से तेणगं गोयमा! एवं बच्चद होती है, इस कारण से गौतम ! उसे "जधावारण" कहते हैं। जंघाचारणे-जंघाचारणे । प० - जंघाचारणस्स पं भंते ! कहं सोहा गति, कह सोहे ०--भगवन ! जंघाचारण की शीन गति कैसी होती है ? गतिविसए एण्णते? और उसकी शीघ्रगति का विषय कितना होता है ? Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२] घरगानुयोग--२ तप से प्राप्त चारण लब्धि का वर्णन सूत्र ७२५ ज०-गोयमा ! अयण्णं जंबुद्दीचे बोबे एवं जहेव विज्जा- उ०—गौतम ! यह जम्बुद्वीप नानक द्वीप-यावत-(जिसकी चारणस्स नवरं तिसत्तनुत्तो अणुपरियट्टित्ता णं हस्त- परिधि तीन लाख सोलह हजार दो सौ सत्ताईस योजन से कुछ) मागमछेज्जा, अंघाचारणस्स गं गोयमा ! तहा सीहा विशेषाधिक है, इत्यादि समा वर्णन विद्याचारण के समान गति तहा सीहे गतिविसए पग्णते। जानना चाहिए। विशेष यह है कि कोई महद्धिक-यावरचुटकी बजाए, उतने समय में इस समय जम्बूद्वीप की (इक्कीस बार परिक्रमा करके शीघ्र वापस लौटकर आ जाता है, हे गौतम ! जंघाचारण की इतनी शीघ्रगति और इतना शीघ्रगति विषय कहा है । शेष कथन सब पूर्ववत है। 40-जंघाचारणस्स गं भंते ! तिरिय फेवतिए गतिविसए प्र. - भगवन ! जपाचारण की तिरछी गति का विषय पष्णते? कितना कहा है। ७०-गोयमा | से गं इओ एगेण उपाएणं रूपगवरे दो उ०-गौतम ! वह (जंघावारण मुनि) यहाँ से एक उत्पात समोसरण करेति, करेता तहि चेइमाई बंदति बंदिता से रुकवर द्वीप में ममवसरण करता है फिर वहाँ ठहरकर वह तमओ पडिनिपत्तमाणे बितिएणं उप्पाएणं नंदीसरवर- चत्य (ज्ञानियों) की स्तुति वन्दना करता है । चैत्य (शानियों) की बीते सपोसाक करताना तेहयाई वदति, स्तुति करके लौटते समय दूसरे उत्पात से नन्दीश्वर द्वीप में वंदित्ता इमागच्छद, आगचिछत्ता इहं चेइयाई वदति ! समवसरण करता है तथा वहाँ स्थित होकर चत्य (ज्ञानियों) की जंघाचारणस्स णं गोयमा ! तिरिय एवतिए गतिविसए स्तुति करता है। तत्पश्चात वहां से लौटकर यहाँ आता है। पष्णते। यहाँ आकर वह चैत्य (ज्ञानियों) की स्तुति करता है । हे गौतम ! जंघाचारण की तिरछी गति का ऐसा (शीघ्र) गतिविषय कहा है। ५७ -जंघाचारणस्स पं मंते ! उरई केवतिए गतिविसए प्र.- भगवन ! जंपाचारण की ऊर्ध्वगति का विषय कितना पाणते? कहा गया है? उ. - गोयमा ! से णं इओ एगेणं उत्पाएक पंडगवणे समो- ३०-गौतम ! वह (जंघाचारण मुनि) यहाँ से एक उत्पात सरणं करेति, करता तहिं चेहयाई ददति बंदिसा में पण्डकपन में गमवसरण करता है। फिर यहाँ ठहर कर चैत्य तओ पडिनियत्तमाणे वितिएण उपाएणं रणवणे (ज्ञानियों) की स्तुति करता है। फिर वहाँ से लौटते हुए दूसरे समोसरणं करेति. करेता तहिं चेइयाई बंदति, बंदित्ता उत्पात से नन्दनवन में समवसरण करता है। फिर वहाँ चत्य इहमागच्छद, आगच्छित्ता इह चेइयाई वंदति, जंघा- (ज्ञानियों) की स्तुति करता है 1 तत्पश्चात वहाँ से वापस यहाँ चारणस्स पं गोयमा ! उजवं एवतिए गतिविसए आ जाता है। इतना कर्व गति का विषय कहा गया है। पण्णते। से पं तस्स ठाणस्स अणालोइय-पडिक्क खते कालं यह जंघाचारण उस लिब्धि-प्रयोग-सम्बन्धी प्रमाद) स्थान करेति नस्थि तस्स आराहणा। से गं तस्स ठाणस्स की आलोचना तथा प्रतिक्रमण किये बिना यदि काल कर जावे आलोइय-पडिस्कते कालं करेति अस्थि तस्स तो उसकी (चारित्र) आराधना नहीं होती। (इसके विपरीत) बाराहणा। -विया. स. २०, उ. यदि वह जंवाचारण उस प्रमाद स्थान की आलोचना और प्रति क्रमण करके काल करता है तो उसकी आराधना होती है। Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । भाHOM RAN HaRN - - रयामारी ॥ - SAR । ना आणगाहिय बालवारिओ परतकमती जो जत्तमाउत्तो। जाजा या जहत्थाम, गायो वीरियायारी ।। RAAT 4: भाग १ ० ४५ amergin - च र णा नु यो ग " [वी या चार] Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ७२६-१७२८ वीर्य का स्वरूप वीर्याचार [३६३ - - -- वीर्याचार वीर्य का स्वरूप-१ बोरिय सरूवं वीर्य का स्वरूप७२६. वुहा चेयं सुयक्लायं, वीरियं ति पच्चति । ७२६. तीर्थकर भगवान् के द्वारा प्ररूपित जिन मार्ग में वीर्य दो किं नु वीरस्स वीरतं, केण धीरो ति चुपचति ।। प्रकार का कहा गया है। पोर पुरुष की वीरता क्या है और उसका वर्णन किस प्रकार है? कम्ममेरे पवेदति, अकम्मं वा वि सुम्यता । तीर्थकर भगवान् दो प्रकार के वीर्य का प्रतिपादन करते एतेहि बोहि ठाणेहिं, जेहिं विराति मच्चिया ॥ है-कर्म धीर्य और अकर्मवीर्य । सभी मनुष्य इन दो स्थानों में विद्यमान हैं। पमा कम्ममाहंसु, अपमायं सहाऽवर । तीर्थंकरों ने प्रमाद को कर्मवीर्य (कर्मों की वृद्धि कराने तभावावेसतो वा वि, बालं पंडितमेष वा ।। पाला) और अप्रमाद को अकर्मवीर्य (फर्म रहित बनाने वाला) -सूय. सु. १, अ., गा.१३ कहा है। कर्मवीर्य के सद्भाव की अपेक्षा से मनुष्य 'बाल' और अकर्मवीयं के सद्भाव की अपेक्षा से वह 'पंडित' कहलाता है। बालवीरियाईणं विवक्ता-- बालवीर्य आदि की विवक्षा७२७. १० - अण्णउस्यिया में भंते ! एवंआइक्खंति, एवं भासंति, ७२७. प्र०-भन्ते ! अन्यतीथिक इस प्रकार कहते हैं, इस प्रकार एवं पण्णवति, एवं पोति "समणा पंडिया, समणो- विशेष रूप से कहते हैं, इस प्रकार बताते हैं और इस प्रकार वासया शलपंडिया" ? जस्स णं एगपाणाए वि व प्ररूपित करते हैं कि-"श्रमण पण्डित कहलाते हैं और श्रमणोअणिक्खित्ते से णं "एसबाले" ति बसवं सिया। पासक बाल-पण्डित कहलाते हैं तथा जिस के एक जीव के वध से कहमेयं भते । एवं? की भी अविरति है वह 'एकान्त बाल" कहलाता है, भन्ते ! क्या अन्यतथियों का यह कथन सत्य है? उ.--गोयमा | जंगं ते अण्णउत्थिया एवं आइपखंति-जाव- उ०-हे गौतम । अन्यतीथिकों ने जो इस प्रकार कहा है एगतमाले ति वत्तवं सिमा, जे ते एषमासु मिच्छं ते कि-- श्रमण पण्डित" है-यावत्-एकान्त बाल" कहलाता एवमासु । है, उनका यह कथन मिथ्या है। अहं पुण पोयमा ! एवं आहक्वामि-जाव-परूवेमि हे गौतम ! मैं इस प्रकार कहता हूँ-यावत् प्ररूपित "एवं खलु सममा पजिया', समणोवासया 'बालपडिया' करता हूँ कि "श्रमण पण्डित है और श्रमणोपासक बाल-पण्डित जस्स गं एगपागाए वि व णिक्खित्ते से पं गो एगत- है और जिस जीव ने एक भी प्राणी के वध की विरति की है, बाले ति बत्तव्य सिया"। वह जीव एकान्त बाल नहीं कहलाता है" (किन्तु वह बाल पण्डित -वि. स. १७. उ. २, मु. १० फहलाता है।) बालयोरियसरुवं बालवीर्य का स्वरूप७२८. जे थाऽबुद्धा महाभापा, वीरा मसम्मसवंसिणो। ७२८. जो महाभाग वीर पुरुष अबुद्ध और असम्यक्त्वदी है। असुख तेसि परक्कत, सफस होइ सम्बसो ।। उनका पराक्रम अशुद्ध और सर्वथा कर्मबन्धयुक्त होता है । - सूय. सु.१, अ.८, गा. २२ खुते हवाले गम्भाति रज्जति ! अस्सि घेतं पचंति मोक्ष-साधना से भ्रष्ट होने वाला अज्ञानी साधक गर्भ आदि रूपंसि वा छसि था। में फंस कर दुःख पाता है। इस माहंत शासन में यह कहा गया -आ. सु. १, अ. ५, उ. ३, सु. १५६ है कि–'रूप में एवं हिंसा में आसक्त होने वाला गर्भादि में जाता है।' Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४] वरणानुयोग-२ अन्न हो उपदेश योग्य है सूत्र ७२-७३१ जग्मुं च पास हह मच्चिएहि, इस संसार में मनुष्यों के साथ रागादि बन्धनों को तोड़ आरंभजीवी उपयाणुएस्सी । डाल, क्योकि वे आरम्भजीवी हैं, शारीरिक मानमिक उभय कामेसु गिद्धा णिचयं करति, सुखों के या काम-भोगों के अभिलाषी हैं, वे काम-भोगों में आसक्त संसिच्चमाणा पुगरेति गर्न । होकार का का संचय करते रहते है और कर्मों का पंचय कर वे पुनः पुनः जन्म धारण करते हैं। अवि से हासमासम्ज, हंता गंदीति णति । वह अज्ञानी मनुष्य अज्ञान के कारण हास्य विनोद द्वारा बलं बालस्स संगेग, वेरं बड़ोति अप्पणो ॥ प्राणियों का वध करके खुशी मनाता है ऐसे अज्ञानी पुरुषों का -आ. सु. १, अ. ३, उ.२, सु. ११३-११४ संसर्ग भी नहीं करना चाहिए। जिससे अपनी आत्मा के साथ वर भाव की वृद्धि होती है। बालो ही उवएस जोग्गो अज्ञ ही उपदेश योग्य है७२९. उद्देसो पासगस्स पत्थि । ७२६. जो द्रष्टा (सत्यदर्शी) है उसके लिए उपदेश की आवश्य कता नहीं होती। बाले पुण णिहे कामसमणुष्णे असमितदुक्खे दुमती वुक्याणमेव अज्ञानी पुरुष जो स्नेह के बन्धन में बंधा है, काम-सेवन में आव। अणुपरियति । अनुरक्त है, वह कभी दुःख का शमन नहीं कर पाता। वह दुःखी -आ.सु. १, अ. २, उ.३, सु.८० होफर दु.खों के आवर्त में बार-बार भटकता रहता है। सकम्मवोरिय सहवं सकर्मवीर्य का स्वरूप -.. ७३०. सत्यमेगे सुसिक्वंति, अतिवायाय पाणिगं । ७३०. कुछ लोग प्राणियों को मारने के लिए शस्त्र चलाने की एगे भंते अहिपति, पाणभूयविहेडिणी ॥ अथवा धनुर्वेद आदि की शिक्षा प्राप्त करते हैं और कुछ लोग प्राणियों और भूतों के विघातक मन्त्रों का अध्ययन करते हैं। माइणो कट्ट मायामओ, काममोगे समारमे । मायावी मनुष्य छल कपट करके काम भोगों को प्राप्त करते हंता छेत्ता पकत्सित्ता, आपसायाणगामिणो । हैं । वे अपने सुख के अनुगामी होकर प्राणियों को मारते काटते और चीरते हैं। भणसा वयसा घेव, कायसा चेव अंतसो । असंयमी मनुष्य मन से, वचन से और काया से अशक्त होने आरतो परतो यावि, बुहा विय असंजता ।। पर भी इस लोक के लिए या परलोक के लिए जीवों को हिंसा करते हैं, करवाते हैं। वेरा कुस्खती वेरी, ततो बेरेहि रज्जती । हिमा करने वाला पुरुष अनेक जीवों के साथ वर का अनुपावोगा य आरंभा, दुक्खफासा य अंतसो ॥ बन्ध करता है। जिससे वह नये देर में संलग्न ही जाता है। (वास्तव में) हिंसा की प्रवृत्तियाँ मनुष्य को पाप की ओर ले जाती हैं अन्त में उनका परिणाम दुःखदायी होता है। संपरागं णियचछंति, अत्तबुकशुकारिणो । स्वयं हिंसा आदि दुष्कृत करने वाले मनुष्य संसार (जन्मरग-वोसस्सिया बाला, पाचं कुव्वंति ते बहुं । मरण) को प्राप्त होते हैं। फिर राग-द्वेष के वशीभूत होकर बहुत पाए करते हैं । एवं सकम्मबीरियं, बालाणं तु पवितं । ___ यह बाल मनुष्यों का सकर्मचीर्य बतलाया गया है। अब एतो अकस्मयीरियं, पंडियाणं सुणेह मे। पण्डित मनुष्यों के अक्रमवीर्य को मुझसे मुनो । - सूय. सु. १, अ. ६, गा. ४-६ अकम्मयोरिय सरूवं अकर्मवीर्य का स्वरूप७३१. बविए बंधणुम्मुक्के, सव्वतो छिण्णबंधणे । ७३१. संयमी पुरुष बन्धन से मुक्त होकर प्रमाद या हिंसा में पणोल्ल पावगं कम्म, सल्स कंतति, अंतसो॥ सर्वतः प्रवृत्त नहीं होता है बह पाप-कर्म को दूर कर सम्पूर्ण शल्य रूप कर्मों को काट देता है। Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ७३१-७३२ पण्डित वीर्य का स्वरूप वीर्याचार [३६५ याउयं सुयवाणात, उवावाय समोहते । वह मोक्ष की ओर ले जाने वाले सु-आख्यात धर्म को पाकर मुज्जो भुज्जो बुहावास, असुभत्तं तहा तहा ।। चिन्तन करता है कि-"प्राणी बार-बार दुःसमय आवासों को प्राप्त होता है और उसके जैसा जैसा अशुभ कर्म होता है वैसा वैसा अशुभ फल प्राप्त होता है।" ठाणी विविठाणाणि, बहस्संति न संसओ। विविध स्थानों में रहे हुए जीव अपने स्थानों को अवश्य अणितिए अयं वासे, गायएहि य सुहीहि य ॥ छोड़ेंगे इसमें कोई संशय नहीं है। ज्ञामिजनों और मित्रों के साथ यह संवारा (संयोग) नित्य नहीं है। एवमायाय मेहायो, अपणो गिदिमखरे। अनित्यता का विचार कर मेघावी मनुष्य अपनी आसक्ति आरिवं उपसंपज्जे सवबम्ममका विथ । को छोड़ दे और सब दूषणों से रहित निर्मल आर्य धर्म को स्वी कार करे। सहसम्मुइए जच्चा, धम्मसारं सुषेत्तु वा । धर्म के सार को अपनी मति से जानकर अथवा दूसरों से समुवट्टिते अणगारे, पच्चक्याय पायए॥ सुनकर उसके आचरण के लिए उपस्थित मणगार सम्पूर्ण पापों का त्याग कर दे। ज किंवक्कम जाणे, आउक्लेमास अपणो । पण्डित अणगार अपनी आयु के क्षीण होने का कारण जान तस्सेय अंतरा सिप्पं, सिक्स सिक्खेज्ज पंडिते ।। कर उस के अन्तराल (शेष बचे काल) में भी शीघ्र ही संलेखना अहण करे। जहा कुम्मे सअंगाई, सए हे समाहरे। जैसे कछुमा अपने अंगों को अपने शरीर में समेट लेता है, एवं पाबाई मेधावी, अक्षप्येण समाहरे।। इसी प्रकार पण्डित पुरुष अपनी बात्मा को पापों से बचाकर अध्यात्म में ले जाए। साहरे हत्य-पाचे य, म सबिवियाणि य । वह हाथ, पर, मन और पांचों इन्द्रियों का, बुरे परिणामों पावगं च परीणाम, मासादोसं घ तारिस ।। का और भाषा के दोषों का संयम करे। यणु माणं च मायं च, तं परिणाय पंडिए। पण्डित पुरुष कषाय के परिणामों को जानकर अणुमात्र भी सातागार व णिहुते, उपसते गिहे परे ।' मान और माया का आचरण न करे । विवेकी साधक सुख सुविधा तथा प्रतिष्ठा आदि में उद्यत न हो तथा उपशांत व निस्पृह होकर विचरण करे। पाणे व णाइवातेज्जा, अविपर्ण पि य णादिए । कभी भी प्राणियों का अतिपात न करे, अदत्त भी न ले, सावियं ण मुसं यूया, एस धम्मे बुसीमतो॥ कपट-सहित झूठ न बोले यह मुनि का धर्म है। अतिक्कम सि वायाए, मणसा वि प पत्थए। प्राणियों के प्राणों का अतिपात (पीड़न) वाणी से भी न सभ्यतो संबरे देते, आयाणं सुसमाहरे ।। करे, तथा मन से भी प्राणों का अतिपात न चाहे। सब ओर से संवृत होकर रहे और इन्द्रियों का दमन करता हुआ मोक्ष मार्ग का सम्यक् आराधन करे। कर च कज्जमाणं च, आगमेस्सं घ पावगं । ___ आत्म गुप्त और जितेन्द्रिय मुनि किये हुए, किये जाते हुए सव्वं तं गाणुजाति, आयगुत्ता जिहंदिया । और भविष्य में किए जाने वाले इन समन पापों का अनुमोदन -सूप. सु. १, अ. ६, गा. १०-२१ भी नहीं करते हैं। पण्डियधीरिय सरूवं-- पण्डित वीर्य का स्वरूप७३२. जे य बुद्धा महाभागा, बीरा सम्मत्तदंसिणो। ७३२. जो महाभाग वीर पुरुष बुद्ध और सम्यक्त्वदर्शी है उनका - सुर तेसि परक्कतं, अफलं होइ सम्बसो ।। पराक्रम शुद्ध और सर्वथा कर्म बन्ध से मुक्त होता है। --सूय. सु. १, अ.८, गा. २३ १ पाठान्तर-अणुमाणं च मायं च सं परिणाय पंहिए। सुयं मे इहमेगेसि एवं पौरस्स वीरियं ।। Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६] घरणानुयोग-२ तितिक्षा से मोक्ष सूत्र ७३३-७३४ तितिक्खया मोक्ख तितिक्षा से मोक्ष७३३. अप्पपिंडासि पाणासि, अप्प भासेज्ज सुबते । ७२३. सुव्रत पुरुष थोड़ा भोजन करे, थोड़ा जल पीए, थोड़ा तेऽभिनिग्नुले वते, बीतनेही सदा जये ।। बोले, सदा क्षमाशील, शांत, दांत और अनासक्त होकर सदा संयम में पुरुषार्थ करे। प्राणजोगी समाटु, काय उसेग्न सम्बस। मानयोग को सम्यग स्वीकार कर सभी प्रकार से काया का तितिमयं परमं जच्चा, आमोक्खाए परिष्वएम्जासि || व्युत्सर्ग करे, परीषहोपसर्ग सहन रूप तितिक्षा मोक्ष का परम -सूय. सु. १, अ.८, गा. २५-२६ साधन है-यह जानकर जीवन पर्यन्त संथम की साधना में पराक्रम करे। समाहिजुत्तस्स सिद्धगई समाधि युक्त की सिद्धगति --- ७३४. ओयं चित्तं समादाप, साणं समणुपमइ । ७३४. राग-द्वेष से रहित निर्मल चित्त को धारण करने पर धम्मे ठिओ अविमणो, निवागमभिगच्छह ॥ एकाग्रतारूप ध्यान उत्पन्न होता है और शंका-रहित धर्म में स्थित आरमा निर्वाण को प्राप्त करता है। इमं चित्तं समादाय, मुज्जो लोयंसि जायइ । इस प्रकार चित्त-समाधि को धारण कर आत्मा पुनः पुनः अपणो उसमं ठाणं, सण्णि-जाण जाणइ ।। लोक में उत्पन्न नहीं होता और अपने उत्तम स्थान को जाति स्मरण ज्ञान से जान लेता है। अहातचं तु सुमिणं, खिप्पं पासेइ संबडे । संवृत-आत्मा यथातथ्य स्वप्न को देखकर पीघ्र ही सर्व सव्वं वा ओहं तरति, सुक्खाओ य विमुच्चद्द ।। संसार रूपी समुद्र से पार हो जाता है, तथा शारीरिक और मानसिक दोनों प्रकार के दुःखों से छूट जाता है। पंताई भयमाणस्स, विवित्तं सयणासणं । अल्प आहार करने वाले, अन्त-प्रान्तभोजी, विविक्त शयनअप्पाहारस्स दंतस्स, देवा बंसेति ताइणो । आसनसेवी, इन्द्रियों का निग्रह करने वाले और षटकायिक जीवों के रक्षक संयत साधु को देव-दर्शन होते हैं। सषकाम - विरत्तस्स, खमतो भय - भेरवं । सर्वकाम-भोगों से विरक्त, भीम-भैरव परीषह-उपसर्गों के सजो से बोही भवद, संजयस्स तवस्सिगो ।। सहन करने वाले तपस्वी संयत को अवधिज्ञान उत्पन्न होता है । तवसा अवहर लेस्सस्स, सगं परिसुज्म । जिसने तप के द्वारा अशुभ लेश्याओं को दूर कर दिया है उडवं अहे तिरिय च, सध्वं समणुपस्सति ।। उसका अवधिदर्शन अतिविशुद्ध हो जाता है और उसके द्वारा वह ऊहर्वलोक, अधोलोक और तिर्थक्लोक में रहे हुए जीवादि सभी पदार्थों को देखने लगता है। सुसमाहियलेस्सस्स, अवितक्फस्स भिक्खुगो । ___ सुसमाधियुक्त प्रशस्त लेण्या वाले, विकल्प से रहित भिक्षासवतो विप्पमुक्कल्स, आया जाणइ पज्जवे ।। वृत्ति से निर्वाह करने वाले और सर्वप्रकार के बन्धनों से विप्रमुक्त आत्मा मन के पर्यवों को जानता है अर्थात् मनःपयंवज्ञानी हो जाता है। जया से णाणावरणं, सव्वं होई बयं गयं । जब समस्त ज्ञानावरण कर्म क्षय को प्राप्त हो जाता है, तब तया सोगमलोग च, जिणो जाणति केवली ॥ वह मुनि केवली जिन होकर समस्त लोक और अलोक को जानता है। जया से सणावरण, सव्वं होई खयं गये। जब समस्त दर्शनावरण कर्म क्षय को प्राप्त हो जाता है, तया लोगमलोग च, जिणो पासति केवली ॥ तब वह मुनि केवली जिन होकर समस्त लोक और अलोक को देखता है। Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ७३४-७३५ परिमाए विशुद्धा मोजे लोगो वहा मध्यम सूइए, हलाए एवं कमानि हम्मति मोह ात पिसानों को बीर्य हानि गए। पामेति सुसमाहिए ॥ हम्मद तले । वयं गए । सेजावइम्मि निहए, जहा सेणा पणसति । एवं सम्मानि पति मोहसि गए । धूमहीणो जहा अग्गी, खीयति से निरिक्षणे । एवं कम्माणि संति, मोहपिक्सेल गए । सुबक मूले जहा रुवखे, सिaमाणे ण रोहति । एवं कम्मा ण रोहंति, मोहणिजे स्वयं गए ॥ जहा दाणं बोयाणं न जायंति पुर्णकुरा | कम्म बोए दसु न जायंति भवंकुरा ॥ - चिच्चा क्षौरालियं बोंदि, नाम-गोयं च केवली । च हिला भवति नीरए । एवं अभिसमागम्य चिसमादाय उसी । सेणि सुद्धिमुगम्म आया सोधिमुबेहइ ॥ विरमंत चित्ताणं वीरियहानी ७३५. किमणेण णो जणेण फरिस्तामि ? ति भण्णमाणा एवं पेये विता मातरं पितर हेच्या नातओ य परिग्रहं वीराय भाषा समुद्वाए अहिंसा सुव्यता देता । परस वीणे उप्पश्य पडिवयमाणे । बसट्टा कायरा जणा लूसगा भवंति । बौर्वापार [२१७ fe सिलोए पाए भवति - " से समणविते, से समणविस्मते।" भिक्षु प्रतिमानों के विशुद्ध रूप से आराधन करने पर और मोहनीय कर्म के हो जाने पर सुसमाहित] आत्मा सम्पूर्ण लोक और बजट को देता है। जिस प्रकार ताल वृक्ष के अग्र भाग को तीक्ष्ण शस्त्र से छेदन किये जाने पर वह सम्पूर्ण वृक्ष नीचे गिर जाता है, इसी प्रकार मोहनीय कर्म के क्षय हो जाने पर शेष सर्व कर्मी ही विनष्ट हो जाते हैं। जैसे सेनापति के मारे जाने पर सारी सेना अस्त व्यस्त हो जाती है इसी प्रकार मोहनीय कर्म के क्षय हो जाने पर सर्व कर्म विनष्ट हो जाते हैं। जैसे घूम-रहित अग्नि ईन्धन के अभाव से स्वतः शान्त हो जाती है, इसी प्रकार मोहनीय कर्म के पो जाने पर शेय सभी कर्म क्षय को प्राप्त हो जाते हैं । हे आयुष्मान् शिष्य इस प्रकार समाधि के भेदों को जानकर राग और द्वेष से रहित चित्त को धारण कर क्षपक श्रेणी - दा. द. ५, सु. ६, गा. १-१७ को प्राप्त कर आत्मा शुद्धि को प्राप्त करता है, अर्थात् मोक्ष पद को प्राप्त कर लेता है । प्रान्त चित्त वालों की वीर्यहानि ७३५. "ओ आत्मन् ! इन स्वार्थी स्वजनों से मैं क्या लाभ प्राप्त करूँगा ?" यह मानते और कहते हुए कुछ लोग माता-पिता, शातिजन और परिग्रह को छोड़कर वीर वृति से मुनि धर्म में सम्यक् प्रकार से प्रव्रजित होते हैं और पूर्णरूप से अहिंसक, सुव्रती और दांत बन जाते हैं । जैसे शुष्क जड़ वाला वृक्ष जल सिंचन किये जाने पर भी पुनः अंकुरित नहीं होता है. इसी प्रकार मोहनीय कर्म के क्षय हो जाने पर शेष कर्म भी उत्पन्न नहीं होते हैं । जैसे जले हुए बीजों से पुनः अंकुर उत्पन्न नहीं होते हैं, इसी प्रकार कर्म बीजों के जल जाने पर भवरूप अंकुर उत्पन्न नहीं होते है। मौदारिक शरीर का त्याग कर तथा नाम, गोत्र, आयु और वेदनीय कर्म का छेदन कर केवली भगवान कर्म रज से सर्वथा रहित हो जाते हैं । संदन में स्थित होकर दीन बनकर गिरते हुए कुछ मुनियों को तू देख वे विषयों से पीड़ित कायरजन संयम को नष्ट करने या हो जाते हैं । J इस कारण से कुछ साधकों की अपकीर्ति हो जाती है कि "यह श्रवण धर्म से युत हो गया है, यह धमगधर्म से युक्त हो गया है।" Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८] घरमानु---- परोषह सहने से कर्मों का सय सूत्र ७३५-७३७ पासहेगे समपणागतेहि सह असमण्णागए, णममाहिं अणम- यह भी देख ! संयम से व्युत होने वाले कई मुनि उत्कृष्ट माणे, विरतेहि अविरते, ववितेहि अवविते । आपार वालों के बीच शिथिलाचारी समर्पित मुनियों के बीच असमर्पित, विरत मुनियों के बीच अविरत तया साधुओं के बीच चारित्रहीन होते हैं। अभिसमेच्चा पंडिते मेधावी णिट्ठिपट्टी वौरे आपमेणं सवा इस प्रकार संपम-घ्रष्ट साधकों को तथा संयम-प्रष्टता के परिषकमेक्जालि। परिणामों को भली भांति जानकर पण्डित बुद्धिमान और मोक्षार्थी -आ. सु. १, अ. ६, उ. ४, सु. १६३-१६५ वीर मुनि सदा संयम में पराक्रम करे । परोषह-जय--२ परीसहेहि कम्मलओ परीषह सहने से कर्मों का क्षय७३६. कविता अहमेव लुप्पए, लुप्र्पती लोगसि पाणिणो। ७३६. "इस संसार में मैं ही केवल दुःस्त्रों से पीड़ित नहीं हूँ, एवं सहिएऽधिपासते, अगिहे से पुट्ठोऽधिसाए । परन्तु लोक में दूसरे प्राणी भी पीड़ित है"-इस प्रकार ज्ञान --सूय. सु. १, अ.२, उ. १, गा. १३ सम्पन्न पुरुष अन्त दृष्टि से देख्ने और वह परीषहों से स्पृष्ट होने पर राग द्वेष रहित होकर उन्हें सहन करे । न य संखयमाहु जोविर्थ, तह वि य बालजणे पपरमसी । टूटे हुए जीवन-सूत्र को जोड़ा नहीं जा सकता। फिर भी बाले पावेहि मिज्जती, इति संखाय मुणो ण मज्जती ॥ अज्ञानी मनुष्य (हिंसा आदि करने में) धृष्ट होता है। वह अज्ञ जीव अपने पाप-कमों से मरता जाता है—यह जानकर मुनि मद नहीं करता। छंदेश पलेतिमा पया, बहुमाया मोहेण पाउड़ा। अत्यन्त माया और मोह से घिरे हुए ये प्राणी अपनी इच्छावियरेण पलेति माहणे, सोउम्हं वयसा हियासए ॥ नुसार आचरण कर विभिन्न गतियों में पर्यटन करते हैं किन्तु -सूय. सु. १, अ. २, उ. २, गा. २१-२२ मुनि सरल भाव से संयम में लोन रहकर मन वचन और काया से शीत और उष्ण आदि परीषहों की सहम करता है। परीसहप्पगारा परीषह के प्रकार७३७. बावीस परीसहा पणत्ता, तं जहा ७३७. बावीस परीषह कहे गये हैं, यया१ दिगिच्छा-परीसहे, २. पिवासा परीसहे, (१) क्षुधा-परीषह, (२) पिपासा-परीषह. ३. सीय-परीसहे, ४. उसिग-परीसहे. (३) शीत-परीषह, (४) उष्ण-परीषह ५. बंस-मसय-परीसहे, ६. अचेल-परीसहे, (५) वंश-मशक-परीषह, (६) अचेल-परीषद, ७. अरह-परीसहे, ८. इत्थी-परीसहे, (७) अरति-परीषह, (८) स्त्री-परीषह, ९. चरिया-परीसहे. १०. मिसीहिया-परोसहे. (6) चर्या-परीषह, (१०) निषद्या-परीषह, ११. सेज्जा-परीसहे, १२. अकोस-परोसहे, (११) शय्या-परीषह, (१२) आक्रोश-परीषह, १२. वह-परीसहे, १४. जायणा-परीसहे. (१३) बध-परीषह, (१४) याचना-परीषह, १५. अलाम-परोसहे, १६. रोग-पररेसहे, (१५) बलाभ-परीषह, (१६) रोग-परीषह. १७. तणफास-परीसहे, १८. जल-परीसहे. (१७) तृण-स्पर्श परीषह् (१८) जल-परीषह, १६. सक्कारपुरस्कार-परीसहे, २०. पन्ना-परीसहे, (१९) सत्कार-पुरस्कार परीषद, (२०) प्रज्ञा-परीषह, Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्र ७३७-७४१ परीषह प्ररूपणा वीर्वाधार [३६६ - .. - ---- २१. अनाण-परीसहे, २२. दसण-परीसहे। (२१) अज्ञान-परीषह, (२२) दर्शन-परीषह --सम. सम. २२, सु. १ परोसह परूवणा परीषह प्ररूपणा७३८. परीसहाणं पविभत्ती, कासवेणं पवेश्या । ७३८. परीषहों का जो विभाग काश्यप गोत्रीय भगवान के द्वारा तंभे उहरिस्सामि, आणब्धि सुणेह मे ।। प्रवेदित या प्ररूपित है उसे मैं क्रमशः कहता हूँ। तुम मुझसे उत्त. अ. २, गा, ३ सुनो। १. खहा परीसहे (१) क्षुधा-परोषह७३६. विगिछर परिगए बेहे, तबस्सी भिषानु थामवं । ७३६. देह में क्षुधा व्याप्त होने पर भी तपस्वी और धैर्यवान न छिन्वे न छिन्वायए, में पए न पयावए । भिक्षु फल आदि का सेवन न करे, न कराए तथा अन्न आदि न पकाए और न पकवाए। कालो पव्वंगर्सकासे, किसे धर्माण संतए। शरीर के अंग भूख से सूखकर काकजंघा के समान दुर्बल मायन्ने असण-पाणस्स, अवीण-मणसो चरे।। हो जाये, शरीर कुश होकर नसें दीख जायें तो भी आहार-पानी -उत्त. अ २, गा. ४-५ की मर्यादा को जानने वाला साधु अदीनभाव से विचरण करे । २ पिवासा परोसहे (२) पिपासा-परीषह७४०, तओ युट्ठो पिवासाए, दोगुंछी लग्ज-संजए । ७४०. असंयम से घृणा करने वाला सज्जावान संयमी साधु प्यास सीओवगं न से विमा, वियज्ञस्सेसणं घरे ॥ से पीड़ित होने पर भी सचित पानी का सेवन न करे, किना प्रासुक जल की एषणा करे। छिन्नावाएसु पंसु, आउरे सुपिवासिए। निर्जन मार्ग में जाते समय प्यास से अत्यन्त आकुल हो परिसुक्कमुहे दोणे, तं तितिषखे परीसह ॥ जाने पर मुंह सुख जाने पर भी साधु अदीनभाव से उस प्यास के --उत्त. अ. २, गा. ६-७ परीषह को सहन करे । ३. सीय परीसहे (३) शीत-परीषह७४१, चरन्तं विरयं लूह, सोयं फुसइ एगया। ७४१. विरत होकर रुक्ष वृत्ति से संयम में विचरते हुए कभी नाइवेल मुणी गच्छे, सोच्दा णं जिणसासणं ।। शीत का स्पर्श हो तो जिनागम को सुनने वाला मुनि संयम की किसी भी मर्यादा का उल्लंघन न करें। न मे निवारणं अस्थि, छवित्ताणं न विज्जई । शीत से प्रताड़ित होने पर मुनि ऐसा न सोचे कि-मेरे अहं तु अम्गि सेवामि, इइ भिक्खू न चिन्तए । पास शीत निवारक घर आदि नहीं है और शरीर की सुरक्षा के -उत्त. ब. २, गा. ८.६ लिए वस्त्रादि भी नहीं है, इसलिए मैं अग्नि का सेवन करूँ।। जया हेमंतमासम्मि, सीतं फुसति सवातगं । जब जाड़े के महीनों में बर्फीली हवा और सर्दी लगती है तत्य मंदा विसोयन्ति, रज्जहीणा व खसिया ॥ तब मन्द पराक्रमी साधक वैसे ही विषाद को प्राप्त होते हैं जैसे -सूय. सु. १, अ. ३.उ. १, मा.४ कि राज्य से च्युत राजा। १ (क) उत्त. म. २, सु. २ (ख) समवायांम और उत्तराध्ययन में १६ परीषहों के नामों का क्रम समान है केवल २०वें, २१ और २२वें परीषहों के नामों में व्युत्क्रम है। समवायांग उत्तराध्ययन (२०) अण्णाण परीसह (२०) पण्णापरीसह, (२१) दंसण परीसह, (२१) अण्णाण परीसह (२२) पण्णापरीसह, (२२) सण परीसह । विभिन्न प्रकाशनों में इन नामों का विभिन्न श्रम भी मिलता है। Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७० ] www ४. उसिणपरोस - चरणानुयोग २ ७४२. उसिण परियाणं परिदाहेण घिसु वा परियावेणं, सायं नो उन्हातले मेहावी, सिगाणं नो विपत्थए गायं तो परिसिवेज्जा, न वीएज्जा य अप्पयं ॥ पुट्टे गिम्हासितादेणं तत्थ मंदा विसोयंति ५. दंसमस्यपरोस हे ४२. पुो — | तज्जिए । परिवेषए । समसमरे व महागुणी नागो संगाम सीसे वा सूरो अभिहणे परं ॥ पुट्ठो य दंस-मसएहि, न मे दिट्ठ परे लीए - - उत्त. अ. २, गा. १०-११ विमणे सुष्पिवासिए । मच्छा अप्पोदए जहा || ए न संतसेन वारेन उवेहे न हणे पाणे, भुतं मंस-सनियं ॥ -उत्त. अ. २, गा. १२-१३ तणफासमवाइया जह परं मरणं सिया ॥ 1 सूय. सु १, अ. ३, उ. १. गा. १२ ६. अवेलपरी७४४. परिहि होक्खामि ति अचेतए । अनुवाद भिन्न थिए । एगया अचेल होइ, सचेले यावि एगया। एवं धम्म हियं नच्चा, नाणी नो परिदेवए । --सूय. सु. १, अ. ३, उ. १, गा. ५ मछली । + उष्ण परीवह -उत्त. अ. २, गा. १४-१५ जे मिक्लू असेले परिवसिते तस्स णं एवं भवति- "चा अहंता अहिवासित सीता अहियासिलए फार्स अहिया सित्तए दंस मसगफास अहिया सिलए एक्सरे अणतरे विश्व फासे अहियासिस हिरियमाणं संचामि महियासिसए" एवं से कम्पति कविवध धारिए सूत्र ७४२-७४४ (४) उष्ण परोषह ७४२. गरमी के परिवाग से तथा दाह से पीड़ित होकर बवा श्री कालीन सूर्य के परिताप में परितप्त होने पर भी मुनि मुख के लिए विलाप न करें । गर्मी से अभित होने पर भी मेघानी मुनि स्वान की इच्छा न करे । शरीर को गीला न करे। पंखे से शरीर पर हवा भी न करे । गर्मी में धूप से स्पृष्ट होकर तथा प्यास से व्याकुल वने साक से ही विवाद को प्राप्त होते हैं जैसे कि थोड़े पानी में (५) दंश मशक परीषह ७४३ डांस और मच्छरों का उपद्रव होने पर भी महामुनि सम भाव में रहे। जैसे युद्ध के प्रभाग में रहा हुआ प्रवीर हाथी बाणों को नहीं गिनता हुआ शत्रुओं का हनन करता है, उसी प्रकार मुनि परीषहों पर विजय प्राप्त करे । भिक्षु उन डांस और मच्छरों को न श्राम देवे और न हटाए तथा मन में भी उनके प्रति द्वेष न लाए। मांस और रक्त खाने पीने पर भी उनकी उपेक्षा करे, किन्तु हनन न करे । मुनि ढांस और मच्छरों के काटने पर तथा तृण स्पर्श को न सह सकने के कारण ऐसा सोचने लगता है कि - "परलोक तो मैंने देखा ही नहीं है परन्तु इस कष्टमय जीवन से मरण तो साथ ही दोनता है" (६) अचेल परीष ०४४, वस्त्रों के जीर्ण हो जाने पर में अचेत हो जाऊंगा वस्त्र मिलने पर में सचेल हो जाऊंग" मुनि ऐसा न सोचें । वस्त्र न मिलने पर मुनि कभी अचेलक भी होता है और वस्त्र मिलने पर कभी सचेतक भी होता है और अचल धर्म को हितकर जानकर ज्ञानी मुनि किसी प्रकार का खेद न करे । जो भिक्षु वस्त्र रहित रहता है उसे इस प्रकार का संकल्प हो कि डांस मैं घास के तीखे स्पर्श को सहन कर सकता हूँ, सर्दी का स्पर्श सहन कर सकता हूं, गर्मी का स्पर्श सहन कर सकता हूँ, और मच्छरों के काटने को साइन कर सकता हूँ और भी अनेक प्रकार के कष्टों को सहन करने में समर्थ हूँ किन्तु मैं सच्या निवारणार्थं वस्त्र को छोड़ने में समर्थ नहीं हूं।" ऐसी स्थिति में यह पट्टा धारण कर सकता है। बन्धन Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूत्र ७४४-७४६ अचेलस्व का प्रशस्त परिणाम वीर्याचार [३७१ आहवा सत्य परक्कमंत मुज्जो अचेलं तणफासा फुसति, सीस- इस पर्या में पराक्रम करते हुए कभी अचेल भिक्षु को अनेक फासा फुर्सति, तेउफासा फुसंति, वंस मसगफासा फुसंति, बार घास के तीखे स्पर्श चुभते हैं, शीत का स्पर्श होता है, गर्मी गरे अपने निकट पालसिसे: । का स्पर्श होता है, डांस और मच्छर काटते हैं फिर भी वह उन अनेक प्रकार के स्पों को सहन करता है। अचेले लावियं आगममाणे । तये से अभिसमग्णागते इस प्रकार वह अचेल भिक्षु कर्म लाधव की प्राप्त होता भवति । हुआ कायक्लेश आदि तप लाभ को प्राप्त करता है। जहेयं भगवया पवेदितं तमेव अभिसमैच्चा सम्वतो सव्ययाए अतः साधक जैसा भगवान ने प्रतिपादन किया है, उसे उसी सम्मत्तमेष समभिजाणिया। रूप में जानकर सब प्रकार से सर्वात्मना समस्ख को ही भली -मा. सु. १, अ, ८, उ.७, सु. २२५-२२६ भांति आचरण में लाये । एवं खु मुगी आदाणं सुयक्तातधम्मे विधूतकप्पे पिज्झो- मुनि तीर्थकर भगवान् द्वारा संयम में सदा स्थिर रहकर सइत्ता। कर्मक्षय करने में आत्म शक्ति लगा देता है। जे मले परिसिते तस्स गं भिमखुस्स गो एवं भवति- इसलिए जो अचेलक रहता है, उस साधु को वस्त्र सम्बन्धी इस प्रकार के संकल्प उत्पन्न ही नहीं होते कि-- "परिजुष्णे मे वरण, खत्थं जाइस्सामि, सुत्तं जाइरसामि, सुई "मेरा वस्त्र जीणं हो गया है, वस्त्र की याचना कसंग, जाइस्सामि, संधिस्सामि, सौबिस्सामि, उक्कसिस्सामि, डोरे की याचना करूंगा, सूई की याचना करूंगा, उससे वस्त्र वोक्कसिस्तामि, परिहि सामि, पाउणिस्सामि ।" को साधूंगा, सीऊँगा, छोटे वस्त्र को जोड़कर बड़ा बनाऊँगा, बड़े वस्त्र को फाड़कर छोटा बनाऊँगा फिर उसे पहनूंगा और शरीर को उकंगा।" अदुवा तत्थ परक्कमतं भुज्जो अचेल तणफासा फुसंति, सौत- किन्तु अचेनत्व-साधना में पराकम करते हुए निर्वस्त्र मुनि कासा फुसं ति. तेउफासा फुसंति, बंस-मसगफासा फुसंति एग को अनेक बार घास के तृणों का स्पर्श, सर्दी और गर्मी का स्पर्श तरे अण्णयरे विरुयरूबे फासे अहियासेति । तथा डांस और मच्छरों का स्पर्श पीड़ित करता है। अन्य भी अनेक प्रकार के कष्ट आते हैं। उन्हें यह सहन करता है । अचेले लाघवं आयममाणे सवे से अभिसमण्णागए भवति । इस प्रकार मह अचेलक भिक्षु कर्मलावव को प्राप्त होता हुआ कायक्लेषा आदि तप के लाभ को प्राप्त करता है। जहे भगवया पवेवितं । तमेव अभिसमेच्या सब्बतो सम्ब- अतः साधक जैसा भगवान् ने प्रतिपादन किया है, उसे उसी ताए सम्मत्तमेव समभिजाणिया। रूप में जानकर सब प्रकार से सर्वात्मना समत्व को भलीभांति -आ.सु. १, अ.६, उ. ३, सु.१५७ जानकर आचरण में लाये। अचेलस्स पसस्थ परिणामो अचेलत्व का प्रशस्त परिणाम५४५. पंचहि ठाहिं अलए पसस्थे भवति, तं जहा ७४५. पांच स्थानों से अचेलक प्रशस्त होता है, यथा - १ अप्पा पडिलेहा, (१) उसके प्रतिलेखना अल्प होती है, २. लाघथिए पसत्ये, (२) उसका लाघव प्रशस्त होता है, ३. रुये चेसासिए, (३) उसका रूप विश्वास-योग्य होता है, ४ तवे अषुण्णाते. (४) उसका तप जिनानुमत होता है, ५. विउले इंदियणिग्गहे। (५) जराके विपुल इन्द्रिय-निग्रह होता है। -ठाणं. अ.५ उ.३, सु. ४५५ अरइ परीसहे अरति-परीषह - ७४६. गामाणुगामं रीयंत. अणगारं अकिवणं । ७४६. एक गांव से दूसरे गांव में विहार करते हुए अकिचन अरई अप्पविसे सं तितिक्खे परीसह । मुनि के चित्त में संयम के प्रति अरुचि उत्पन्न हो जाय तो उस परीषह को सहन करे। Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७२] वरणानुयोग-२ स्त्री-परीवह सूत्र ७४६-७४७ : असं पिटुओ किल्या, विरए मायरखिए। हिंसा आदि से विरत रहने वाला, आत्मा की रक्षा करने धम्मारामे निरारम्भे, उवसन्ते मुगी चरे ।। बाला, धर्म में रमण करने वाला, असत् प्रवृत्ति से दूर रहने -उत्त. अ. २, गा. १६-१७ बाला जपशान्त मुनि अरति को दूर कर संयम में विचरण करे । इत्थो परीसहे स्त्री-परीषह७४७. संगो एस मणस्साणं, जाओ लोगसि इथिओ। ७४७. लोक में जो स्त्रियाँ हैं, वे मनुष्यों के लिए आसक्ति का मस्स एपा परिमाया, सुफर तास सामग्णं ।। काय बिसने इस अंगनापूर्व: स्याम दिया है उसका थामण्य सफल है। एवमादाय मेहाबी, पंकभूया उ इत्यिो । __ "स्त्रियाँ ब्रह्मचारी के लिए दल-दल के समान हैं" यह नो ताहि विणिहम्नेजा, घरेज्जत्तगयेसए । जानकर मेधावी मुनि उनमें न फंसे किन्तु आत्म गवेषणा करता -इत्त.म. २, गा. १८-१९ हुआ विचरण करे। जहा नई वेयरको, दुत्तरा इह सम्मता । जैसे वैतरणी नदी को पार करना अत्यन्त दुष्कर माना गया एवं लोगसि मारीओ, दुत्तरा अमईमया । है वैसे ही मन्द बुद्धि वाले पुरुष के लिए इस लोक में स्त्रियाँ दुस्तर होती हैं। अहिं नारीण संसोगा, पूषणा पिढतो कता । जिन्होंने विकृति पैदा करने वाले स्त्रियों के संयोगों से पीठ सम्वमेयं निराकिच्चा, ते ठिसा सुसमाहिए ।। फैर ली है। वे इन समग्र परीषहों को निरस्त करके समाधि में -सूय. सु. १, अ. ३, २. ४, गा. १६-१७ स्थित रहते हैं। जे मातरं च पितरंच, विप्पजहाय पुष्वसंयोग । जो भिक्ष माता-पिता और पूर्व-संयोगों को छोड़कर, संकल्प एगे सहित चरिस्सामि, आरतमेहुणे विविसी। करता है कि-"मैं अकेला आत्मस्थ और मैथुन से विरत होकर एकान्त स्थान में विचरण करूंगा।" सुहमेण तं परकम्म, छन्नपवेण इथिओ मंदा । कई मन्द स्त्रियाँ निपुण और गूढार्थ वाले पदों का प्रयोग उवायं पिताओ जागिसु, बह लिस्संति भिक्खुणो एगे ।। करती हुई उस मुनि के पास आती हैं। वे उस उपाय को भी जानती हैं जिससे कोई भिक्षु उनका संग कर लेता है। पासे मिस निसीयंति, अभिरखणं पोसवस्पं परिहिति । वे उस भिक्षु के समीप बारम्बार बरती हैं, अधोवस्त्र को काय आहे वि बसेंति, बालमुछट्ट काक्षमणश्वर ।। बार-बार ढीला कर उसे बांधती हैं, शरीर के अधोभाग को दिखलाती हैं और भुजाओं को ऊपर उठाकर कांख को दिखाती हुई साधु के सामने से जाती है। सपणाऽऽसणेहि जोग्गेहिहरथीमो एगया नियंति । वे स्त्रियां कालोचित पायन और शासन के लिए कभी उसे एताणि घेव से जाणे, पासाणि विरुवस्वाणि ॥ निमन्त्रित करती हैं । मुनि इन नाना प्रकार के उपक्रमों को काम जाल में फंसाने वाले बन्धन समझे । नो तासु चालु संधेजा, नो वि य साहसं समभिजाणे । मुनि उन स्त्रियों से आँख न मिलाए, उनकी मैथुन भावना नो सधियं पि विहरेज्जा, एवमण्या सुरक्खिओ होई।। के साहस को स्वीकार न करे, उनके साथ विचरण भी न करे, इस प्रकार से आत्मा सुरक्षित रहती है। यामंतियं योसवियं वा, भिवर्ख आयसा निमंतेति । स्त्रियां भिक्ष को आमन्त्रित कर तथा विश्वास पैदा कर एताणि चेव से जाणे, सहाणि विस्वरूपाणि ।। स्वयं सहवास का निमन्त्रण देती हैं। अत: भिक्षु नाना प्रकार के निमन्त्रण रूप शब्दों को बन्धन समझे । मनबंधणेहिं गेहि, कलुषिणीयमुवसित्तागं । दे मन को बांधने वाले अनेक उपायों के द्वारा दीन भाव अधु मंजुलाई मातंति, आणवर्गति मिनकहाहि ॥ प्रदर्शित करती हुई विनयपूर्वक भिक्षु के समीप जाकर मीठी बोली बोलती हैं और संयम से विमुख करने वाली कथाओं के द्वारा उसे वश में करती हैं। Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ७४७ स्त्री परीवह वीर्याचार [३७३ सीहं जहा व कुणिमेणं, णिमयमेगचरं पासे । जैसे निर्भय और अकेले रहने वाले सिंह को माम का प्रलोएविस्थिया उ बंधति, संवर्ड एगतियमणगारं ॥ भन देकर पिंजड़े में बांध दिया जाता है वैसे ही स्त्रियाँ संवृत और अकेले भिक्षु को शन्द आदि विषयों का प्रलोभन देकर बांध लेती हैं। अह तत्थ पुणो नमयंति, रहकारुष्य गेमि आणुपुथ्वीए।। वे स्त्रियां उस भिक्षु को वैसे ही झुका देती है जैसे दढ़ई बडे मिए पासेग, फंदते विण मुवती ताहे ॥ क्रमशः चक्के की पुट्टी को झुका देता है। उस समय वह पाश -सूय. सु. १, अ. ४, 3. १, गा. १-६ से बँधे हुए मृग की भाँति स्पंदित होता हुआ भी बन्धन से छूट नहीं पाता । सुतमेपमेयमेगेसि, इत्थीवेदे सि टु सुभक्खायं । लोकधुति में सुना गया है और स्त्री वेद (कामगास्त्र) में एवं पिता वदितागं, अनुवा कम्मुणा अवति ।। भी कहा गया है कि "स्त्री किसी बात को वाणी से स्वीकार करती है किन्तु कम से उसका पालन नहीं करती है यह उसका स्वभाव है।" अन्न मणेण चितेति, अन्नं धाया कम्मुणा अन्न । वह मन से कुछ और ही सोचती है; वनन से कुछ और ही तम्हा ण सह भिक्खु, बहुमायाओ इथिओ गच्चा ।। कहती है तथा कर्म से कुछ और ही करती है। इसलिए भिक्षु स्त्रियों को बहुमायाविनी जानकर उन पर विश्वास न करे।। जुवती समणं व्या, निसलंकारवस्थगाणि परिहेत्ता। कोई मुवती विचित्र वस्त्र और बाभूषण से विभूषित होकर विरता चरिस्सहं सूहं धम्ममाइक्खणे भयंतारो । श्रमण से कहे कि-'"हे भदन्त ! मुझे धर्म का उपदेश दें। मैं विरत होकर संयम का पालन करूंगी।" अनु साथिया पवायेण, अहगं साधम्मिणी य समणाणं । अथवा श्राविका होने के बहाने बह कहती है- "मैं तुम्हारी जतुकुम्मे जहा आवाजोती, संवासे विलू विसीएमा । साधर्मिणी हूँ, (किन्तु मुनि इन बातों में न फंसे) जैसे आग के पास रखा हुआ लाख का पड़ा पिघल जाता है वैसे ही स्त्री के संवास से विद्वान् पुरुष भी संयम से शिथिल हो जाते हैं । जतुकुम्मे जोतिमूषगू, आसुमितत्ते णासमुपपाति । जैसे अग्नि से छूता हुआ लाख का घड़ा शीघ्र ही तप्त एबित्थियाहि अगगारा, संवासेण णासमुवप्ति ॥ होकर नष्ट हो जाता है, इसी प्रकार अनगार पुरुष भी स्त्रियों के संसर्ग से संघम प्रष्ट हो जाते हैं। कुषंति पावगं कम्ग, पुट्टा वेगे एकमासु । कुछ भिक्षु बब्रह्मचर्य-सेवन करके भी किसी के पूछने पर नाहं करेमि पावं ति, बंकेसाइणी ममेस ति॥ कहते हैं कि-"मैंने अब्रह्मचर्य-सेवन नहीं किया है। यह स्त्री तो वचपन से ही मेरी गोद में सोती रही है।" बालस्स मंदर्य वितिय, जं च कई अवजाणई भुज्जो । उस मूर्ख साधक की यह दूसरी मूढ़ता है कि वह किए हुए लुगुणं करेड से पार्य, पूयणकामए विसरणेसी ।। पाप को पुनः छिपाता है। वह पूजा का इच्छुक और असंयम का आकांक्षी होकर दुना पाप करता है। संलोकगिज्जमणगारं, आयगतं णिमंतणेणाऽऽहंसु । दिखने में सुन्दर और जात्म ज्ञानी अनगार को स्त्रियाँ वत्यं पताइ! पायं वा, अन्न पाणगं पडिग्गाहे ।। निमन्त्रण देती हुई कहती हैं-'हे भवसागराता ! आप वस्त्र, पात्र, अन्न या पान को मेरे घर से स्वीकार करें।" पोवारमेय बोजा, जो इचछे अगारमायतुं । भिक्षु उपरोक्त प्रलोभनों को सूअर फंसाने वाले चावल के बडे ये विसयपासेहि, मोहमागच्छती पुणो मो॥ दाने के रामान समझे और उनके घर जाने की इच्छा भी न -सूय. सु. १, अ. ४, उ. १, गा. २३-३१ करे। किन्तु कोई मन्द साधक इन विषय-बन्धनों में फंसकर पुनः मोह को प्राप्त हो जाते हैं। Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७४] घरकानुया-! पर्या परीषह वत्र ७४७-७५० एवं लु तासु विष्णप्पं, संबवं संवासं च चएज्जा। इन उपरोक्त दोषों को जानकर स्त्रियों के साथ परिचय सम्मातिया इमे कामा, बजकरा य एषमक्खाता॥ और सहवास का परित्याग करे, क्योंकि ये काम-भोग सेवन करने से बढ़ते हैं और तीर्थंकरों ने उन्हें क्रम चन्धन का कारण बतलाया है। एवं भयं ग सेयाए, इति से अप्पगं निम्मित्ता । ये कामभोग भय उत्पन्न करने वाले हैं किन्तु कल्याणकारी णो इस्थि णो पसु भिक्खू, गो सयं पाणिशा णिलिज्जेम्जा। नहीं हैं। इसलिये भिक्षु अपने आप को स्त्री संसर्ग से रोक कर स्त्री और पशु का अपने हाथ से स्पर्श भी न करे । सुषिसुबबलेस्से मेधाबी, परफिरियं बज्जए गाणी । विशुद्ध अन्त:करण बाला मेधावी ज्ञानी भिक्षु मम, वरन मगमा वयसा कायेणं, सध्यफाससहे अणगारे ।। और काया से स्त्री सम्पर्क सम्बन्धी क्रियाएँ न करे वास्तव में जो स्त्री सम्बन्धी परीषहों को सहन करता है वही अनगार है। बच्चेवमाह से वोरे, भगवान महावीर ने ऐसा कहा है-जो राम और मोह को धूतरए धूयमोहे से भिक्खू । धुन डालता है, यह भिक्षु होता है। इसलिए शुद्ध अन्त:करण तम्हा असत्यविसुद्ध, वाला भिक्षु काम बांछा से मुक्त होकर मोक्ष पर्यन्त संयमानुष्ठान सुविमुक्के आमोक्खाए परिवएज्जासि ।। में प्रवृत्ति करे। -सूय. सु. १, अ. ४, उ. २, गा. १९-२२ ६. चरिया परीसहे (C) चर्या-परीषह-- ७४८. एग एव घरे माडे, अभिभूय परीसहे। ७४८. संयम के लिए जीवन-निर्वाह करने वाला मुनि परीषहों गामे वा नगरे वावि, निगमे वा रायहागिए ।। को जीतकर गाँव में या नगर में, निगम में या राजधानी में अकेला आसक्ति रहित होकर विचरण करे।। असमाणो घरे भिक्खू, नेव कुज्जा परिगहं। भिक्षु अप्रतिबद्ध होकर बिहार करे । कहीं भी ममत्वभाव न असंसत्तो मिहत्येहि, अगिएओ परित्वए॥ करे । गृहस्थों से निलिप्त रहे। स्थायी निवास न करता हुआ -उत्त. ब. २, गा. २०-२१ संयम में विचरण करे। १०. णिसोहिया परीसहे (१०) निषीधिका परीषह७४६. सुसाणे सुन्नगारे वा, एक्स-भूले व एगओ। ७४६. राग-तुप रहित मुनि चपलताओं का बर्जन करता हमा अकुक्कुओ निसीएग्जा, न य वित्तासए परं ।। कभी श्मशान, शून्यगृह अथवा वृक्ष के नीचे बैठे, दूसरों को त्रास तत्थ से चिट्ठमाणस, जवसम्मम्मि धारए । वहाँ बैठे हुए साधु को कोई उपसर्ग मा जाये तो उसे सहन संकाभीजो न गच्छेज्जा, उठेत्ता अन्नमासणं ।। करे, किन्तु किसी प्रकार को शंका से भयभीत होकर वहाँ से उठ -उत्त, अ. २, गा. २२-२३ कर दूसरे स्थान पर न जाए। ११. सेज्जा परीसहे (११) शय्या परीषह७५०. उच्यावयाहिं सेम्जाहि, तवस्सी भिक्खु थामवं । ७५०. तपस्वी और धर्यवान् भिक्षु अनुकूल या प्रतिकूल शय्या को नारवेल बिहल्लेग्जा, राबविट्ठी विहपई॥ पाकर मर्यादा का अतिक्रमण न कर अथति हर्ष या शोक न लाए । 'यह अच्छा है यह बुरा है' इस प्रकार की पाप दृष्टि रखने वाला साधु संयम की मर्यादा का हनन कर देता है। पारिककुवस्सयं ला, कल्लाणं अबुध पावगं । __स्त्री पशु आदि से रहित अच्छी या बुरी शव्या के प्राप्त किमेगरामं करिस्सइ, एवं तत्थ हियासए॥ होने पर "एक रात में क्या होना जाना है" ऐसा सोचकर शय्या -उत्त. अ. २, गा. २४-२५ सम्बन्धी जो भी सुख दुःख हो, उसे सहन करे। Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ७५१ आक्रोश परीषह वीर्याचार [३७५ १२. अक्कोस परीसहे (१२) आक्रोश परीषह७५१. अकोसेज परो भिषखू, न तेसि पडिसंजले । ७५.१. कोई मनुष्य भिक्षु को गाली आदि भाक्रोश बचन कहे तो सरिसो होइ बालाणं, तम्हा भिक्खू न संजले ।। भिक्षु उसके प्रति क्रोध न करे, क्योंकि क्रोध करने से भिक्षु अज्ञानियों के सदृश हो जाता है, इसलिए भिक्षु क्रोध न करे । सोपचाणं कसा मासा, दारुणा गाम-कण्टगा । मुनि कंटक के समान चुभने वाली, दारुण कठोर भाषा को तुसिणीओ उज्जा , न ताओ मणसोकरे। सुनकर मौन रहता हुआ उसकी उपेक्षा करे, उसे मन में न लाए। -उत्त. अ २, गा. २६-२७ अण्पेगे पडिभासरित, पारिपंथियमागता । साधु-चर्या से द्वेष रखने वाले कुछ लोग सामने आकर कहते पडियारगया एते, जे एते एवजीविगो ॥ हैं कि-"इस प्रकार का जीवन जीने वाले ये अपने किये हुए कर्मों का फल भोग रहे हैं।" अप्पेगे बई नति, नगिणा पिंडोलगाहमा । कुछ लोग कहते हैं-"ये नग्न है, पिंड गौंग कर खाने वाले मुंडा कंदविणटुगा, उज्जल्ला असमाहिया ।। हैं, अधम हैं, मुंडित हैं, खुजली के कारण विकृत शरीर वाले हैं, मैले हैं और असमाधि उत्पन्न करने वाले हैं।" एवं विप्परिवाणेये, अप्पणा तु अजाणगा। इस प्रकार धर्ग मार्ग मे रखने वाले स्पा ही अज्ञानी तमाओ ते तमं अंति, मंदा मोहेण पाउडा । हैं। बे विवेकशून्य मनुष्य मिथ्यात्व से आवृत होकर स्वयं ही -सूय. सु. १, म. ३, उ. १, मा. ६-११ अन्धकार से अन्धकार की ओर अर्थात् दुर्गति में जाते हैं यह विचार कर भिक्ष. उन पर द्वेषन करे, समभाव रखे।' तमेगे परिमासंति, भिक्खुपं साहुजाविणं । साधु का आचार पालन करने वाले के विषय में कई लोग जे ते उ परिभासंति, अन्तए ते समाहिए। इस प्रकार के आक्षेपात्मक बचन कहते हैं किन्तु वे आक्षेप करने वाले स्वयं ही समाधि से कोसों दूर है। संबह-समकपा ह, अन्नमन्मेमु मुशिष्ठत्ता। वे कहते हैं कि "आप लोग एक दूसरे में भूच्छित होकर पिंडवायं गिलाणस्स, जं सारेह वसाह ५॥ परस्पर गृहस्थों के समान आचरण करते हैं क्योंकि आप रोगी के लिए स्वयं आहार साकर उन्हें देते हैं।" एवं तुरमे सरागत्या, अत्रमन्नमणश्वसा । __ इस प्रकार आप लोग सरागी हैं. परस्पर एक दूसरे के वणनट्ट सम्पह - सम्मावा, संसारस्स अपारगा ।। वर्ती रहते हैं, अतः सत्पथ की उपलब्धि से रहित हैं तथा संसार -सूय. सु. १, अ. ३, उ. ३. गा. ८-१० को पार नहीं कर सकते हैं। एते सद्दे अचायन्ता, गामेसु नगरेसु वा। जन साधारण द्वारा कहे गये इन शब्दों को सहन न करते तत्थ मंवा विसीयन्ति, संगामंसि व मोरुपो॥ हुए कई मन्द साधक ग्राम नगर आदि में विचरते हुए वैसे ही -सूय सु. १, अ. ३, स. १, गा. ७ विषाद को प्राप्त होते हैं जैसे संग्राम में गया हुवा डरपोक सैनिक। सक्का सहेजें आसाए कंटया, धन आदि की आशा से मनुष्य लोहमय काटों को सहन कर अओमया उच्छया नरेणं । सकता है परन्तु जो किसी प्रकार की आशा रखे बिना कानों में अणासए जो उ सहेज्ज कंटए, तोर के समान चुभते हुए वचन रूपी कांटों को सहन करता है, वईपए कण्णसरे स पुज्जो ।। वह पूज्य है। मुहसनुक्खा हवंति कंटया, लोहमय कांटे अल्पकाल तक दुःखदायी होते हैं और वे भी अओमया से वि तो सुखरा । शरीर से सहजतया निकाले जा सकते हैं किन्तु दुर्वचनरूपी कांटे वायाकुरुत्ताणि दुष्कराणि, सहजतया नहीं निकाले जा सकते, ये वैर की परम्परा को बढ़ाने बेराणुषीणि महस्मयाणि ।। वाले और महाभयानक होते हैं। Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६] परणानुयोग-२ वक्ष परीवह पुत्र ७५१-७५१ समावर्यता वयणाभिधाया, सन्मुख आते हुए वचन के प्रहार कानों तक पहुंचकर मन के कण्णेश्या दुम्मणिर्य वर्णति । परिणामों को दुषित कर देते हैं। जो शूरवीरों में अग्रणी जितेधम्मो ति किच्चा परमग्गरे, न्द्रिय मुनि उन बचन प्रहारों को "सम्यक् सहन करना मेरा धर्म जिईदिए जो सहई स पुज्जो ॥ है" ऐसा मानकर उन्हें सहन करता है, वह पूज्य है। -दस. अ.६.उ. ३, गा. ६-८ १३. बइपरोसहे (१३) बध परीषह७५२. हो न संजले सिक्यू, मणं पिन पोसए। ७५२. मारे जाने पर भी मुनि क्रोध न करे। मन को भी दूषित तितिक्वं परमं नच्चा, भिक्खू धम्म विचितए । न करे । क्षमा को परम साधन जानकर मुनि धर्म का चिन्तन करे। समणं संजय बन्तं, हणेज्जा कोइ कस्थई । संपत और दान्त श्रमण को कोई कहीं पीटे तो वह "आत्मा नस्थि जीवस्स नासु ति, एवं पेहेज्ज संजए ।। काना नहीं होता" ऐसा चिन्तन करे। (परन्तु प्रतिशोध की -उत्त. अ. २, गा. २८.२६ भावना न लाये) अप्पेगे झंझुयं भिक्षु, सुणी दसति लसए। भिक्षा के लिए पर्यटन क ते हुए किसी क्षुधित भिक्षु को तत्प मंदर विसीयन्ति, तेउपुट्ठा व पाणिणरे ॥ क्रूर कुत्ता काटने लगता है तो उस समय मन्द साधक वैसे ही सूय, सु. १, अ. ३, उ. १, गा. ८ विषाद को प्राप्त होता है जैसे कि अग्नि के स्पर्श से प्राणी । आयदण्डसमायारा, मिच्छासंठिय भावणा। __ आत्मा को दण्डित करने के आचरण वाले, मिथ्यात्व से ग्रस्त हरिसप्पकोससमावण्णा, केइय लूसतिष्णारिया । भावना वाले तथा हर्ष शोक या राग द्वेष से मुक्त कुछ अनार्य मनुष्य मुनियों को कष्ट देते हैं। अप्पेगे पलियंतसि, चारो चोरोत्ति सुव्वयं । ___सीमान्त प्रदेश में रहने वाले कुछ अज्ञानी मनुष्य सुब्रती बंधति भिक्खुयं बाला, कसायवयणेहि य॥ भिक्षु को 'यह गुप्तचर है, यह चोर है' ऐसा समझकर बाँध देते हैं और गट वचन कहकर हैरान करते हैं। तत्य वंडेण संशोते, मुट्टिणा अवु फलेण वा । वहाँ डंडे, मुक्के या थप्पड़ से पीटे जाने पर असमर्थ साधक गातीणं सरती बाले, इत्थी वा कुद्धगामिणी ।। वैसे ही अपने ज्ञातिजनों को याद करता है जैसे क्रोधित होकर सूय. सु. १, अ. ३, उ.१, गा. १४.१६ घर से भाग जाने वाली स्त्री कष्ट आने पर अपने ज्ञातीजनों को याद करती है। हम्मभागो न कुम्पेज्जा, बुच्चमागो न संजले । साधु किसी के द्वारा पीटे जाने पर क्रोध न करे, दुर्वचन सुमणो अहियासेज्जा, ण य कोलाहल करे । कहने पर मन में जले नहीं किन्तु प्रसन्नचित्त से उन्हें सहन करे -सूर्य. सु. १, अ. ६, गा. ३१ और किसी प्रकार का कोलाहल न करे। १४. जायणा परीसहे - (१४) याचना परीषह - ७५३. मुक्कर खलु भो निच्चं, अणमारस्स मिक्खुणो। ७५३. अहो ! अनगार भिक्षु की यह चर्या वास्तव में दुष्कर है सम्वं से जाइयं होह, नस्थि किचि अजाइयं ।। कि-'उसे सब कुछ याचना से ही प्राप्त होता है, बिना याचना के उसे कुछ भी ग्रहण करना नहीं होता है।' गोपरगपषिदुस्स, पाणी नो सुप्पसारए । "गोचराम में प्रविष्ट मुनि के लिए गृहस्थों के सामने हाथ सेस्रो अगार-वासुत्ति, इह मिक्खु न चिन्तए । पसारना आसान नहीं है । अतः गृहवास ही श्रेष्ठ है" मुनि ऐसा -उत्त. अ. २, गा, ३०-३१ चिन्तन न करे। सया बत्तेसणा दुक्खं, जायणा दुप्पणोल्लिया। ___ "सदा दत्त भोजन की एषणा करना कष्टकर है, प्रत्येक वस्तु कम्मत्ता बुरुमगा घेव, इच्चाहंसु पुढो जणा ।। की याचना करना भी दुष्कर है। साधारण अज्ञानी जन भी -सूप. सु. १, अ. ३, 3. १, गा, ६ भिक्षा के लिये धूमते हुए भिक्षु को यह कहते हैं कि --'ये अभागे हैं और पूर्वकृत कर्मों के फल से दुःखी हो रहे हैं।' Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृष ७५४.७५६ अलास परीषह बीर्याचार [१७७ १५. अलाभपरीसहे (१५) अलाभ परीषह७५४. परेसु धासमेसेजा, भोयणे परिणिट्टिय। ७५४. गृहस्थों के घर भोजन तैयार हो जाने पर मुनि उसकी लखे पिण्डे अलजे वा, माणुतपेज संजए॥ एषणा करे। आहार थोड़ा मिलने पा न मिलने पर संयमी मुनि पश्चात्ताप न करे। अल्जेवाहं न लम्भामि, अवि लामो सुए सिया। ___ "आज मुझे भिक्षा नहीं मिली है परन्तु संभव है कल मिल जो एवं परिसंचिक्खे, अलामो छ न तज्जए । जायेगी" जो इस प्रकार से सोचता है उसे अलाभ का दुःख नहीं -उत्त. अ. २, गा. ३२-३३ होता है। १६. रोग परीसहे (१६) रोग-परीषह७५५. नच्चा उपत्यं दुक्खं वेषणाए दुट्टिए। ७५५. रोग को उत्पन्न हुआ जानकर तथा वेदना से पीड़ित होने नाहीयो ठाए सो समासः ।। पर दीन न बने । व्याधि से विचलित होती हुई प्रज्ञा को स्थिर बनाये रखे और प्राप्त दुःख को समभाव से सहन करे। सेगिपर्छ नाभिनन्देज्जा, संचिक्लऽत्तगयेसए । आत्म गवेषक मुनि चिकित्सा का अनुमोदन न करे। रोग एवं बु तस्म सामण्णं, जं न कुज्जा न कारवे ।। हो जाने पर ममाधि पूर्वक रहे । उसका श्रामण्य यही है कि वह -उत्त. अ. २, गा. ३४-३५ रोग उत्पन्न होने पर भी चिकित्सा न करे, न कराए। १७. तणफास परोसहे (१७) तृण-स्पर्श परोषह७५६. अचलगस्स लहस्स, संजयस्स तवस्सिगो। ७५६. अचेलक और रूक्ष शरीर वाले संयत तपस्वी के घास पर सणेसु सयमाणस्स, होज्जा-गाय-विराहणा ।। सोने से शरीर में चुभन्न होती है। आयवस्स निवाएणं, अउला हव देयणा । गर्मी पड़ने से अतुल वेदना होती है-यह जानकर भी तृण एवं नया ने सेबन्ति, तन्तुळ तण-तज्जिया ।। से पीड़ित मुनि वस्त्र का सेवन नहीं करते । -उत. अ. २, गा. ३६-३७ १८. जल्ल परोसहे . (१८) जल-परोषह७५७. फिसिन्नगाए मेहावी. पंकेण व रएण वा। ९५७. मैल, कीचड़, रज या ग्रीष्म के परिताप से शरीर के चिसु वा परितावेणं, सायं नो परिवेवए । क्लिन (गोला) हो जाने पर मेधावी मुनि सुख के लिए विज्ञाप न करे। एन्ज निज्जरा-पेही, आरियं धम्माणुत्तरं । निर्जरार्थी मुनि अनुत्तर आर्य धर्म को पाकर देह-विनाश -जाव-सरीरमेको ति, जल्लं काएण चारए । पर्यन्त काया पर खेद जनित मैल को धारण करे और तज्जनित - उत्त. अ. २. गा. ३८-३६ परीषह को सहन करे। १९. सपकार पुरक्कार परोसहे (१९) सत्कार पुरस्कार परीषह७५८. अभिवायणमाभट्ठाणं, सामी कुरुजा निमन्तणं । ७५८. जो राजा आदि के द्वारा किए गए अभिवादन, सत्कार जे ताई पडिसेवन्ति, न तेसि पोहए मुणी।। अथवा निमन्त्रण का सेवन करते हैं, उनकी मुनि इच्छा भी न करे। अणुक्कसाई अप्पिच्छे, अन्नाएसी अलोसुए। अल्प कषाय वाला, अल्प इच्छा वाला, अज्ञात स्थल से रसेसु नागिनोज्जा, नागुतप्पेज्ज पनवं ।। भिक्षा लेने वाला अलोलुप भिक्षु रमों में गृद्ध न हो। प्रशावात् -उत. अ. २, गा. ४०.४१ मुनि दूसरों को सम्मानित दख मन में खेद न करे। २०. पणा परीसहे (२०) प्रना-परीषह७५६. से नणं पुचि कम्माऽणापफला फडा। ७५६. निश्चय ही मैंने पूर्वकाल में अज्ञानरूप फल देने वाले कर्म जेणाहं नाभिजागामि, पुट्ठो केण कन्हई ।। किये हैं। उन्हीं के कारण मैं किसी के कुछ पूछे जाने पर भी उत्सर देना नहीं जानता। Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७८ ] चरणानुयोग – २ अह पच्छा उद्दज्जन्ति, कम्मा णाणफला कडा । एवमस्सार अध्वानं मन्यः कम्म विभाग ॥ · २१. अप्राण परीस ७६०. निरदुर्गाम्म विरओ, मेहणाओ सुसंबुडो । नाभिजानामि, धम्मं कहलाण पावगं ॥ जो २२. सण परीसहे -- ७६१. नत्यि नृणं परे लोए अदुवा पवित्र मिति तापमादाय पडि पविजओ । एवं परि मे छन नि ॥ - उत्त. अ. २, गा ४२-४३ इड्डी वाषि तवस्सियो । निवितए ॥ सव्व परीसहजय निद्देसो ७६२. एए परोसा राज्ये जे मिलून विनेज्जा, अजिया अब जिया अनुवाद भविस्स । सं ते एवमाहं — (२१) नज्ञान- परीषह १७६०. मैंने व्यर्थ ही मैथुनादि से निवृत्ति और इन्द्रियों के दमन का प्रयत्न किया जबकि में अभी तक "धर्म कल्याणकारी है या दुखकर है" यह प्रत्यक्ष ज्ञान से नहीं जान पाया ( अर्थात् अभी तक मुझे कोई अवधिज्ञानादि प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं हुआ | ) " तपस्या और उपधान को स्वीकार करता हूँ, प्रतिमा का पालन करता हूँ। इस प्रकार विशेष चर्या से विचरण करने पर - उत्त. अ. २, गा. ४४-४५ भी मेरा छद्मस्थ भाव दूर नहीं हो रहा है।" ऐसा खेद युक्त चिन्तन न करे । (२२) दर्शन-परीषद - १६१. "निरषय ही परदीक नहीं है, तपी की ऋद्धि भी नहीं है इसलिए संयम लेकर में ठगा गया हूँ" भिक्षु ऐसा चिन्तन न गो कासवेण पवेद्रया । पुट्ठो केणड कपटुई || जड़ कालुणियाणि कासिया, दवि सिद्विर्त विवाहाविया परीसह अपराजिनो मुणी७६२.रमेसणं समणं डागडियं सबस्गिणं । बहरा बुढा म पत्थए, अवि सुस्से ण य तं लभे जणा ॥ अज्ञान परीषह ॥ -उस. अ. २, ग्रा. ४६-४७ अड जीबिय णावसए. उत्त. अ. २. गा. ४८ जड शेवंति व पुत्तकारणा यो सम्मति न संत्तिए । जय ज्जाहि णं वंधिई परं । सूत्र ७५१-७६३ "अज्ञान रूप फल देने वाले ये कर्म उदय में आकर इसके बाद क्षीण हो जायेंगे ।" कर्म के विपाक को जानकर मुनि इस प्रकार आत्मा को आश्वासन दे (किन्तु प्रज्ञा (बुद्धि) की कमी का खेद न करे । } णो लांति ण संवित्तए । सू. सु. १, अ. २, उ. १, गा, १६-१८ "जिन हुए थे, जिन है और जिन होंगे ऐसा जो भी कहते हैं वे असत्य बोलते हैं" इस प्रकार भी भिक्षु चिन्तन न करे । सभी परीयह जीतने का निर्देश- ७६२. इन सभी परीषहों का काश्यप गोत्रीय भगवान महावीर ने प्ररूपण किया है, इन्हें जानकर, इनमें से किसी परीषह के द्वारा कहीं भी स्पृष्ट होने पर भुनि इनसे पराजित न हो । परीयों से अपराजित मुनि ७६३ मोक्ष की एषणा के लिए उत्थित, चारित्र आराधना आदि में स्थित तपस्वी अणगार की यदि उसके पुत्र अथवा वृद्ध वाता पिता पुनः घर में बने की प्रार्थना करें और वे प्रार्थना करते-करते थक जाये तो भी भिक्षु को अधीन नहीं कर सकते । यदि कौटुम्बिक उस श्रमण के पास आकर करुणाजनक शब्द बोले, पुत्र प्राप्ति के लिए रुदन करे फिर भी वे राग-द्वेष रहित संयम में तत्पर उस श्रमण को पुनः गृहवास में स्थापित नहीं कर सकते यदि उस खमण को काम-भोग के लिए निर्म त्रित करे अथवा उसे बांध कर घर ले आये, परन्तु यदि वह असंयम जीवन की आकांक्षा नहीं करे तो उसे वे पुनः गृहवास में स्थापित नहीं कर सकते । Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ७६४-७६५ परीसहपराजिओ मुणी७६४ मेहति प्रमाणो, पाहा तुम माया पिया य सुता य मारिया अग्ने अन्तेहि मुश्छिता, सो पद जहाहि पोस । मोहं नंति नरा दिसम सिह गाहिया ते पाह पुणो पयिता ।। - सूय. सु. १. अ. २, उ. १, गा. १६-२० संतता केलोएर्ण भवेरपराजिया | तत्य मंदर विसीयन्ति मच्छा पविट्ठा व क्रेपणे ॥ सू. सु. १, . १ बा. १३ २ परीषहों से पराजित मुनि परीसहसो भक् ७६५. से गिहेसु वा गिर्हतरेसु वा गामेसु वा गामंतरेसु षा, जगरे वा गगरंतरे था, जगवएस था, जगनयंतरे वा संगतिया जगा भूसा भवति अनुवा फरसा फुति फासे पुट्ठो छोरो अहियासए बोए समितदंसणे । ते जो सहद नामकंट भय भैरवसदसष्पहासे, अराई पडि पनि मसाणे, । अक्कोस पहार तज्जणाओ य । रामराजे ॥ विविगुणलवोरए य निच्वं, नो भीए भयमेरवाई विस्म परीषह सहन करने वाला भिक्षु ७६५ घरों में गृहान्तरों में, ग्रामों में ग्रामान्तरों में, नगरों में, नगरान्तरों में जनपद में या जनपदतरों में कुछ विद्वे पीवन हिंसक (उपवी होते हैं. वे उपसर्ग देते हैं अथवा सर्दी, गर्मी, डांस मच्छर आदि के कष्ट प्राप्त होते हैं, उनसे स्पृष्ट होने पर आ. मु. अ. . ४ . १९६ समदर्शी मुनि उन सबको राग द्वेष रहित होकर सहन करे। न सरीरं चाभिए जे स भिक्खू ॥ मोसच तदे है. अक्कुट्ठे व हए व लूसिए वा । पुढवि समे मुणी हवेज्जा, अनियाणे मोहल्ले व जे स भिक्खू अभिभूय हा परोसा माओ अप्पयं । समुद्धरे वित्तु जामरणं महत्भयं तवे रए सामभिएस वीर्याचार [ ३७६ - दस. अ. १०, ग्रा. ११-१४ परीयों से पराजित मुनि ७६४. ममत्व रखने वाले माता, पिता, पुत्री और पत्नी आदि उस श्रमण को शिक्षा देते हुए कहते हैं कि "तू समझदार है हमारी सेवा कर। क्योंकि हमारी सेवा से वंचित रहकर तु परलोक को सफल नहीं कर पायेगा । इसलिए तू हमारा पोषण कर ।" संयम भाव रहित कुछ मुनि (माता, पिता, पत्नी या पुत्री आदि) में मूच्छित होकर मोड़ को प्राप्त होते हैं अ पारिवारिक जनों के द्वारा संयम रहित किये जाते हैं और वे पुन पाप करने में प्रवृत्त हो जाते हैं । केशलोच से संतप्त और ब्रह्मचर्य पालन में पराजित असमर्थ साधक संयम में वैसे ही विवाद को प्राप्त होते हैं, जैसे जाल में फेंसी हुई मछलियां तड़कती हैं। जो इन्द्रियों को कांटे के समान चुभने वाले – (१) आक्रोश वचनों को, (२) प्रहारों को, (३) तर्जनाओं को और (४) बैताल आदि के अरपन्त भयानक शब्दयुक्त अट्टहासों को सहन करता है तथा सुख और दुःख को समभावपूर्वक सहन करता है - वह भिक्षु है। जो श्मशान में प्रतिमा को ग्रहण करके अत्यन्त भयजनक दृश्यों को देखकर भी नहीं डरता, जो विविध गुणों और तपों में रत रहता है और जो शरीर पर भी ममत्व नहीं रखता, वह भिक्षु है। जो मुनि बार-बार देह का व्युत्सगं और त्याग करता है, किसी के द्वारा माको वचन कहने पर पीटने पर अथवा कष्ट देने पर पृथ्वी के समान सहनशील होता है, निदान नहीं करता है, कुलवृत्ति नहीं करता है, वह भिक्षु है। जो शरीर मे परीयों को जीतकर संसार समुद्र से अपना उद्धार कर लेता है, जो जन्म-मरण को महाभयकारी अर्थात् दुःखों का कारण जानकर संयम और तप में रत रहता है-वह भिक्षु है। Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८०] घरणानुयोग-२ हाय का 31 सूत्र ७६५-७६६ अगुस्सुमो उरालेस, जयमागो परिव्यए । भिक्षु सुन्दर पदार्थों के प्रति उत्सुक न होता हुआ संयम में चरियाए अप्पमसो, पुट्ठो तस्थाहियासए॥ पतनापूर्वक प्रवृत्ति करे । संयम चर्या में अप्रमत्त होकर रहे तथा - सूम. सु. १, अ. ६, मा. ३० परीषहों और उपसगों के होने पर उन्हें सहन करे । ऐसे भो कसिणा फासा, फरसा पुरहियासया । हे वत्स ! ये पूर्वोक्त सारे परीषह कठोर और दुःसह है हत्यी वा सरसवीता, कीवाऽवसगता गिह ।। इनसे विवश होकर पौरुषहीन भिक्षु वैसे ही घर लौट आता है, -सुय. सु. १, अ. ३, उ. १, गा. १७ जैसे संग्राम में बाणों से बींधा ही हाथी। परीसहजयफलं परीषहजय का फल७६६. खुह पियासं दुस्सेज, सीउपहं अरई मयं । ७६६. क्षुधा, प्यास, दुःभय्या, शीत, उष्ण, अरति और भय को महियासे अबहिओ, देहे दुक्तं महाफलं ।। मुनि अदीन भाव से सहन करे। क्योंकि शारीरिक कष्टों को -दस. अ. ८, गा. २७ सहन करना मोक्ष महाफल का हेतु है। उपसर्ग-जय-२ अगविहा जवसांगा अनेक प्रकार के उपसर्ग--- ७६७. घडविहा उपसागा पण्णता, तं जहा--- ७६७. उपसर्ग चार प्रकार के कहे गये हैं, जैसे१.दिव्या, (१) देव के द्वारा किया जाने वाला उपसर्ग। २. माणुसा, (२) मनुष्यों के द्वारा किया जाने वाला उपसर्ग। ३. तिरिक्खजोणिया, (३) तियंचयोनि के जीवा के द्वारा किया जाने वाला उपसर्ग । ४. आयसंयमिज्जा। (४) स्वयं अपने वारा होने वाला उपसर्ग। - ठाण. अ ४, उ. ४, सु. ३६१(१) दिव्वा उक्सग्गा देवकृत उपसर्ग७५८. विश्वा उदसम्गा घविहा पक्षणता, तं जहा - ७६५. दिश्य उपसर्ग चार प्रकार के कहे गये हैं, जैसे१. हासा, (१) कुतूहल-वश किया गया उपसर्ग। २. पोसा, (२) पूर्वभव के देर से किया गया उपसर्ग। ३. बीमंसा, (३) परीक्षा लेने के लिए किया गया उपसर्ग । ४. पुरोवेभाया। (४) हास्य प्रदेषादि अनेक मिले-जुले कारणों से किया --ठाणं. म. ४, उ. ४, सु. ३६१(२) गमा उपसर्ग । माणुसा उवसग्गा-- मानवकृत उपसर्ग७६६. माणुसा उबसग्गा पश्चिहा पणता, तंजहा ७६६. मानुष उपसर्ग चार प्रकार के कहे गये हैं। जैसे१.हासा, ११) हास्य से किया गया उपसर्ग । २. पओसा, (२) द्वेष से किया गया उपसर्ग । ३. वोमंसा, (३) परीक्षार्थ किया गया उपसर्ग । ४.कुसील पडिसेवणय।। (४) कुशील सेवन के लिए किया गया उपसर्ग। -ठाणं. म, ४, उ. ४,सु. ३६१(३) Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्र ७७०-७७३ तिर्यचकृत उपसर्ग धौर्याधार [३८१ तिरिक्खाजोणिया अवसग्गा-- तिर्यचकृत उपसर्ग७७०.तिरिक्त्रजोणिया अवसग्गा नउस्विहा पण्णत्ता, तं जहा - ७७०. तिचकोनिक उपसर्ग चार प्रकार के कहे गये हैं। जैसे - १. भया, (१) भय से किया गया उपसर्ग : २ पदोसा, (२) 'ष से किया गया उपसर्ग । ३. आहारहे, (३) आहार के लिए किया गया उपसर्ग । ४. अवच्च-सेण सारस्वणया । (४) अपने बच्चों के एवं आवास-स्थान की सुरक्षा के लिए -ठाणं. अ. ४, उ. ४, सु. ३६१(४) किया गया उपसर्ग । अधिवेमुग्भुया उपसग्गा - अविवेकोदभूत उपसर्ग७०६. आपसंचयणिज्जा उपसागा बिही पता, महा- ७७१. अपने द्वारा होने वाले उपसर्ग चार प्रकार के कहे गये हैं। जैसे१. पणता, (१) आँख में रज-कण चले जाने पर उसे मलने से होने वाला कष्ट । २.पवरणता, (२) मार्ग में चलते हुए असावधानी से गिर पड़ने का कष्ट । ३. थमणता, (३) हस्त-पाद आदि के शून्य हो जाने से उत्पन्न हुआ कष्ट । ४. लेखणता। -ठाणं. अ. ४, उ.४, सु. ३६१(५) (४) सन्धि स्थलों के जुड़ जाने से होने वाला कष्ट । पडिकूलोबसगा प्रतिकूल उपसर्ग--- ७७२. सूरं मन्नति अप्पागं, जाव तं न पत्सति । ७७२. जब तक जुझते हुए दृढ़ सामर्थ्य वाले विजेता को नहीं जुळतं वधम्मा, सिसुपाले व महारहं ।। देखता तब तक कायर मनुष्य भी अपने आपको शूर मानता है, जैसे कि कृरुण को देखने से पूर्व शिशुपाल ।। पयाता रा रमसोसे, संगामम्मि उहिते । अपने आपको शूर मानने वाले वे युद्ध के उपस्थित होने पर माता पुतण याणा, जेतेण परिविपछए । उसके अग्र भाग में जाते हैं। किन्तु भयंकर दुःख से घबराकर माताएं भी अपने पुत्र को भुल जाती हैं और उन्हें छोड़कर भाग जाती है वैसे ही भयंकर युद्ध में विजेता पुरुष के द्वारा घायल कर दिये जाने पर वे भान भूल कर दीन बन जाते हैं। एवं सेहे वि अप्पु, भिक्खाचरिया अकोविए। ___ इसी प्रकार भिक्षु को चर्या में अनिपुण तथा परीषहीं और तर मन्नति अप्पाणं, ज्वाय चूहं न सेवई ।। उपसगों को अप्राप्त नव दीक्षित भी तब तक अपने मापको शुर-सूय. सु. १, अ. ३, उ.१, सु. १.३ वीर मानता है जब तक वह संयम की कठिनाइयों का सेवन नहीं करता। मोहजासंगा उपसम्गा मोह संग सम्बन्धी उपसर्ग७७३, अहिले सुहमा संगा, मिक्खूर्ण जे बुरुत्तरा। ७७३, ये सूक्ष्म ज्ञातिजन सम्बन्धी संग भिक्षुओं के लिये दुस्तर जस्थ एगे विसीयंति, ण चयप्ति जाविसए ।। होते हैं। वहाँ कुछ साधक विषाद को प्राप्त होते हैं, वे संयम -सूम. सु. १, अ. ३, उ.२, सु, १ जीवनयापन करने में समर्थ नहीं होते। अप्परे णायओ विस्स, रोयति परिवारिया । ___साधु के शातिजन उसे देखकर रोते हुए कहते हैं "हे तात! पोसगे सात पुट्ठोऽसि, कस्स तात चयासि ।। हमने तुम्हारा पालन पोषण किया है, अब तुम हमारा पोषण करो। फिर तुम हमें क्यों छोड़ रहे हो? पिता ते येरओ तात, ससा त सुष्ठिया इमा । हे ताल ! ये तुम्हारे पिता वृद्ध हो रहे हैं, तुम्हारी यह मायरा ते सगा तात, सोयरा कि चयासिणे 11 बहिन छोटी है। ये तुम्हारे सहोदर सगे भाई हैं, फिर तुम हमें क्यों छोड़ रहे हो? Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८२] चरणानुयोग – २ मातरं पितरं पोस एवं लोगो भविस्सा पोते पिछ-मातरं ॥ एवं उत्तरा महतल्लावा, पुसा से तास खुड़गा । भारिया ते गवा तात, श्रा सा अभ्णं जणं गमे ॥ हि बौयं पितात पासामो, जानु ताय सयं हिं ॥ गं न तेषामणो सिया । अकामगं परचकम्मं को ते वारेमरति ॥ जं किचि अणगं सात, तं पि सव्वं समीकसं । हिरणं व्यहारावी तं पिवास से वयं ॥ इच्छेव णं सुसहंति, कालुनिय समुट्ठिया विबद्धो नातिसंगेहि ततोऽगारं पधावति ॥ महादेव बने जायं, मासुमा विद्यति एवं णं परिबंधति जायमी असमाहिणा || विवो णातिसंगेहि, हस्थी वा वि नवग्गहे । विट्टतो परिसध्यंति धूतीगो व्व अबूरगा ।। मोहसंग सम्बन्धी उपस एते संचा मनुस्सा, पाताला व अतारिमा । वासंति नातिच्छिता ॥ तंभ परिणाम, सच्चे गंगा महासभा । जीवितं भाषिकसेना, सोच्या धम्ममन्तरं ॥ महिने संति आवट्टा, कासवे पवेदिता । बुद्धा त्यासति सोहि ॥ ALM - सूय. सु. १. अ. ३, उ. २, सु. २.१४ रायाणी शयमच्या य, माहगा अनुव खतिया । निमंतयंति मोगे, भिक्खु साहुजोदिगं ॥ हायस्स रह जाह, बिहारगमणेहि य । मुंज भोगे इमे साधे, महरिसी पूजयामु तं ॥ कत्यगंधमलंकार, इत्वीय रामणाणि य जाहिगाई भोगाई, भाजमो पूजया ।। सूत्र ७७३ हे तात! तुम माता-पिता का पोषण करो, इस प्रकार तुम्हारा यह लोक और परलोक सफल हो जायेगा। लौकिक आचार भी यही है कि पुत्र माता-पिता का पालन करे । हे तात ! तुम्हारे उत्तम और मधुरभाषी ये छोटे-छोटे पुत्र हैं। तुम्हारी पत्नी भी ययौवना है। वह कहीं दूसरे मनुष्य के पास न चली जाये । सामोतात ! घर चलें। तुम काम मत करना। हम काम करने में समर्थ हैं, हम पुनः तुम्हें घर में देखना चाहते है। आओ अपने घर वलें । हे तात | घर जाकर तुम पुनः आ जाना। इतने मात्र से तुम अश्रमण नहीं हो जाओगे। घर के काम में इच्छा रहित रह कर अपनी रुचि अनुसार करने में तुमको कौन रोक सकेगा । है तात ! तुम्हारा जो कुछ ऋण था उस सबको हमने चुका दिया है। आवश्यक कार्य के लिए तुम्हें जो धन की आवश्यकता होगी, वह भी हम तुम्हें देंगे। इस प्रकार वे करुण ऋन्दन करते हुए उपरोक्त प्रकार से शिक्षा देते हैं। तब ज्ञातिजनों के सम्बन्धों से बंधा हुआ वह पर लौट जाता है । जिस प्रकार वन में उत्पन्न बुझ को लता वेष्टित कर लेती है, उसी प्रकार ज्ञातिजन उसको असमाधि में जकड़ देते हैं। जैसे नया पड़ा हुआ हाथी गांधा जाता है वैसे ही यह शातियों के संग से बंध जाता है तथा सातिजन उसके पीछे से ही चलते हैं जैसे नई ब्याई हुई गाय अपने बछड़े के पीछे । मनुष्यों के लिए ये ज्ञातिसम्बन्ध समुद्र की भांति दुस्तर हैं । उनमें मूच्छित होकर असमर्थ साधक क्लेम पाते हैं। सभी संग महान कर्म बंध के हेतु हैं इसे जानकर तथा अनुतर धर्म को सुनकर भिक्षु गृहवासी जीवन की आकांक्षा न करे । काश्यप गौविय भगवान् महावीर ने और भी ये आवरी कहे हैं जिनसे ज्ञानी दूर रहते हैं धीर अशानी उनमें सजाते हैं। राजा, राजमन्त्री ब्राह्मण अथवा क्षत्रिय संयमजीवी भिक्षु को भोगों के लिए करते हैं। " महर्षि! तुम हाथी घोड़े रथ और पाली आदि में बैठकर उद्यान कीड़ा के द्वारा इन प्लाघनीय भोगों को भोगो । महर्षि | हम आपका आदर सत्कार करते हैं । हे आयुष्मम् ] वस्त्र, मुर्गान्धित पदार्थ, आभूषण, विषया 1 पलंग और अपन सामग्री आदि इन भोगों को भोगो, हम आपका आदर सत्कार करते है । Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूष ७७३-७७४ उपसगों से अपीड़ित मुनि वोर्याचार [२८३ ओ तुमे नियमो विष्णो, भिक्खुभावम्मि सुस्वला । अगारमावसंतस्स, मख्यो संयजिए तहा ॥ हे सुब्रत ! तुमने भिक्ष जीन में जिस नियम का आचरण किया है, वह सब घर में बस जाने पर भी वैसे ही विद्यमान विरं जमागस्स, दोसो सगि कुतो तव । तुम चिरकाल से मुनिचर्या में विहार कर रहे हो, अब तुम्हें इच्चेव णं निमंतेति, नीवारेण व सपरं ।। भोगों के सेवन से दोष कैसे बायेगा? वे भिक्षु को इस प्रकार निमन्त्रित करते हैं जैसे चावल डालकर सूबर को। चौड़या भिक्खुचरियाए, अचयंता अवित्तए। मिक्ष चर्या में चलने वाले किन्तु उसका निर्वाह करने में तत्य मंदा विसीयन्ति, उजाणंसि व दुन्मला ।। असमय मन्द पुरुष से ही बिषाद को प्राप्त होते हैं जैसे ऊँची चढ़ाई में दुर्बल बैल। अचयंता व सूहेण, उवहाषण तज्जिता । __ संयम-पालन में असमर्थ तथा तपस्या से कष्ट पाने वाले तत्प मंदा विसीयंति, उज्जासि अरगवा ।। मन्द पुरुष वैसे ही विषाद को प्राप्त होते हैं जैसे कीचड़ में बूढा बल। एवं निमंतगं ला, मुच्छिया गिद्ध इत्थी । विषयों में मूच्छित, स्त्रियों में गृद्ध और कामों में आसक्त अज्मोदेवण्णा कामेहि, चोइज्जंता गिहं गया ॥ भिक्ष इस प्रकार का निमन्त्रण पाकर समझाने बुझाने पर घर --सूय. मु. १. अ. ३, उ. २, गा १५-२२ चले जाते हैं। उपसाग अणाहओ मुणो उपसर्गों से अपीड़ित मुनि७७४. जहा संगामकालम्मि, पितृतो भीरु पेहति । ७७४, जैसे युद्ध के समय डरपोक सैनिक पीछे की ओर गड्के, वलयं गहण नूम, को आणेद पराजयं ।। खाई और गुफा को देखता है. इस विचार से कि-'कौन जाने पराजय हो जाये ?' मृहत्ताणं मुत्तस्स, मुत्तो होसि तारिखो । घड़ी और घड़ियों में कोई एक घड़ी जय या पराजय की पराजियावसप्पामो, इति भीर उबेहति ॥ होती है, पराजित होने पर हम भागकर छिप सकें ऐसे स्थान को डरपोक सैनिक देखकर रखता है। एवं तु समगा एगे, अबलं नस्त्राण अप्पर्य । इसी प्रकार कुछ श्रमण अपने को जीवन पर्यन्त संयम पालन अणागतं भयं हिस्स, अवकपतिमं सुर्य ।। करने में असमर्थ जानकर भविष्य के भय को देखकर ज्योतिष आदि शास्त्रों का अध्ययन जीवन निर्वाह के लिए करते हैं। को जापति विओवातं, इत्योओ उबगायो वा। कोन जाने स्त्री या जल के परीषह न सह सकने के कारण चोदता पवखामो, नणे अस्थि पकम्पितं । संयम से पतन हो जाये ऐसी स्थिति में हमारे पास पूर्वोपार्जित धन भी नहीं है इसलिए किसी के कुछ पूछने पर निमित्त आदि बताकर जीवा निर्वाह कर सकेंगे। इम पडिले हति, बलार परिलहिणो । छिपने के स्थान देखने वाले उपरोक्त प्रकार से सोचा करते वितिगिच्छ समावण्णा, पंचाणं व अकोविया ।। हैं। इस प्रकार संदेह से युक्त बने हुए वे वास्तव में मोक्ष मार्ग को नहीं समझते हैं। जे उ संगामकासम्मि, नाता सूरपुरंगमा । जो पुरुष जगत् प्रसिद्ध व शूरवीरों में अग्रणी हैं वे संग्राम गते पिटुमुवेहति, कि परं मरणं सिया ।। काल में पीछे मुड़कर नहीं देखते । वे यह सोचते हैं कि . 'मरने से अधिक क्या होगा ?' एवं समुदिए भिक्खू, बोसिज्जा गारबंधन। इसी प्रकार घर के बन्धन को छोड़कर न मारम्भ का त्याग आरंभ तिरिय कट्ट, अत्तत्साए परिषए ।। कर उपस्थित भिक्षु आत्म-हित के लिए संयम में पराक्रम करे । -सूम. सु. १, अ. ३, उ.३, गा.१-७ Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४] परणानुपोंग-२ पूर्व पुरुषों के दृष्टान्त से संयम शिथिल मुनि पुस्ख पुरिहिटतेण मंचोमुणी पूर्व पुरुषों के दृष्टान्त से संयम शिथिल मुनि७७५, माहंसु महापुरिसा, पुखि तत्तलवोधणा। ७७५. कई अज्ञानी पुरुष कहते हैं कि-'अतीत काल में तात उवएग सिद्धिमावणा, तत्थ मंदे विसीयती ॥ तपोधनी महापुरुष सचित्त जल का मेवन आदि करते हुए सिद्धि को प्राप्त हुए हैं।' यह सोचकर मन्द भिक्षु अस्नान आदि प्रतों में शिथिल हो जाता है। अभुंजिया जमी बेहो, रामजते य मुंजिया। विदेह जनपद के राजा नमि ने भोजन छोड़कर, रामपुत्र ने बाहुए उदगं मोबा, सहा तारागणे रिसी। भोजन करते हुए तथा बाहुक और तारागण ऋषि ने केवल जल पीते हुए सिद्धि प्राप्त की। आसिले वेविले चेव, दीवायग महारिसी । आसिल, देबिल, पायन और पाराशर आदि महषियों ने पारासरे वगंभीच्चा, बीयाणि हरियाणि य ।। सचित्त जल, बीज और हरित का सेवन करते हुए सिद्धि प्राप्त की। एते पुटवं महापुरिसा, आहिना इह संमता। कई अन्यतीधिक कहते है कि-'अतीत में हुए ये महापुरुष मोपचा बीओवयं सिद्धा, इति मेयमणुस्सुतं ।। जगत् प्रमिकको बीक है, इन्होंने सचित्त बीज और जल का सेवन कर सिद्धि प्राप्त की ऐसा हमने पर म्परा से सुना है।' तस्थ मंदा विसीयति, वाहछिन्ना व गहमा । इस प्रकार के प्रांतिजनक वचनों को सुनकर मन्द भिक्षु पिट्टतो परिसप्पति, पोडसप्पी व संभमे ।। विषाद को प्राप्त होते हैं। वे भार से दुःखी होने वाले गधे की -सूय. सु. १, अ. ३, उ. ४, गा. १-५ भांति संयम में दुःख का अनुभव करते हैं तथा लकड़ी के सहारे चलने वाले पंगु की भांति संयम में पीछे रह जाते हैं। इहमेंगे उ भासंति, सातं सातेण बिम्जती। ___ कुछ दार्शनिक कहते हैं -- 'सुख से ही सुख प्राप्त होता है' जे तत्य आरिवं मग, परमं च समाहियं ।। किन्तु वास्तव में जो तीर्थ करों का प्रतिपादित मार्ग है उससे ही परम समाधि प्राप्त होती है। मा एवं अवमन्नता, अप्पेणं तुम्पहा बहुं । तुम वीतराग मार्ग को छोड़कर मरूप सुखों के लिए मोक्ष के एलस्स अमोक्शाए, अयहारिव जूहा ।। सुखों को बिगाड़ने वाले न बनो, क्योंकि अल्प सुखों को नहीं छोड़ने से लोह वणिक् की तरह पश्चात्ताप करना पड़ेगा। पाणाइवाए वहन्ता, मुसावाए असंजता । __ शाश्वत सुखों के लिए विषय सुख न त्यागने वाले ही प्राणाअविनावाणे वट्टन्ता, भेटणे य परिग्महे ।। लिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन और परिग्रह से निवृत्त न -सूय. सु. १, अ. ३, उ. २, गा. ६-८ होकर उनमें ही प्रवृत्त रहते हैं। एवमेगे तु पासत्या, पण्णवेति अणारिया। स्त्रियों के वशवर्ती, अज्ञानी और जिनशासन से पराड मुख इत्थीवंसं गता बाला, जिणसासणपरम्महा ।। सन्मार्ग से भ्रष्ट कुछ अनार्य लोग इस प्रकार कहते हैजहा गं पिला वा, परिपोलेकज महत्त। "जिस प्रकार गांठ या फोड़े को दबाकर मवाद को निकाल एवं विण्णवणिस्थीसु, बोसो तत्व कुतो सिया ।। देने से पौड़ा शांत हो जाती है उसी प्रकार सहवास के बाद काम-पीड़ा शांत हो जाती है अतः इसमें क्या दोष है ? महा मयादए नाम, थिमितं भुंजती वर्ग । ___जैसे भेड़ जल को हिलाये बिना धीमे से उसे पी लेती है, एवं विष्णवणिस्थीसु, बोसो तस्य कुतो सिया॥ वैसे ही प्रार्थना करने वाली स्त्री के साथ सहवास कर लिया जाय तो उसमें दोष क्या है ? जहा विहंगमा पिया, थिमितं भुंजती दर्ग। __ "जैसे पिंग नामक पक्षिणी आकाश में रही हुई ही जल को एवं विग्णवणित्यीमु, बोसो तत्य कुतो सिया ।। क्षुब्ध किये बिना उसे पी लेली है, वैसे ही प्रार्थना करने वाली स्त्री के साथ सहवास कर लिया जाये तो उसमें दोष क्या है ?" Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्न ७७५-७७८ परोषह सहने का निर्देश बोर्याचार [३८५ एवमेगे उपासत्वा, मिच्छाविट्टो नयारिया। इस प्रकार कुछ मिथ्यादृष्टि अनार्य पार्वस्थ काम-भोगों में अशोदवना कामेहि, पूतणा इव तरुणए । बैसे ही आसक्त होते हैं 'जैसे भेड़ अपने बच्चे में। -सूय, मु. १, अ. ३, उ. ४, गा. ६-१३ जवसम्गसहण निद्देसो परीषह सहने का निर्देश७७६. संखाय पेसस धम्म, दिट्टिमं परिनिगरे । ७७६. सम्यग्दृष्टि सम्पन्न और प्रशांत भिक्षु पवित्र धर्म को जानअवसग्गे नियमित्ता, आमोक्खाए परिवएग्जासि ॥ __ कर मोक्षप्राप्ति तक उपसगों को सहता हुआ संयम में पराक्रम -सूय. सु. १, ३, उ. ४, गा. २२ करे । उवसगासहण फलं परीषह सहने का फल७७७, विवे व जे उचसग्गे, तहा तेरिन्छमाणसे । ७७७. जो भिक्षु देव, तियं च और मनुष्य सम्बन्धी उपसगों को जे भिक्खू सहई निच्च, से न अन्छाइ मण्डले ।। सदा सहता है, वह संसार में भ्रमण नहीं करता। -उत्त. अ. ३१. गा. ५ पंचेन्द्रिय विरतिकरण-४ शब्द की आसक्ति का निषेध७७८, श्रोत्रन्द्रिय के विषय को शब्द कहते हैं, जो शब्द राग का हेतु है उसे 'मनोज्ञ' कहा है। जो शब्द द्वेष का हेतु है उसे भमनोज्ञ कहा है। इन दोनों में जो समभाव रखता है वह वीतराग है। ___ शब्द के ग्रहण करने वाले को थोत्र कहते हैं, श्रोत्र से ग्रहण होने वाले को शब्द कहते हैं । राग के हेतु को समनोश शब्द कहा है। द्वेष के हेतु को अमनोज्ञ शब्द कहा है। सद्दामत्तिणिसेहो७७८. सोमस्स सई गहणं वयन्ति, तं रागहे तु मणुनमाह। तं बोसहेलं अमणुन्नमाहु, समो य जो तेसु स बीयरागो।। सद्दस्त सोयं गहणं वयन्ति, सोयस्स सह गहणं वयन्ति । रागस्त हे समग्रमा, दोसस्स हे अमणुनमाहु ।। सद्देसु जो गिडिमुवेइ तिव्वं, अकालियं पावई से विणासं । रागाउरे हरिणमिगे ष मुढे, सद्दे अहिले समुवेद मन्चं॥ जे यावि दोसं समुवेइ तिब्ध, तस्सिक्खणे से उउवेद दुक्खं । बुहन्तबोसेण सरण जन्तू, न किषि सह अवरज्मई से ।। एगन्तरते रहरंसि सद्दे, अतालिसे से कुणई पओस । दुक्खस्स संपीलमवेड बाले, न लिप्पई तेग मणी विरागो ।। १ सूय. सु. १, अ. ३. उ. ३, गा, २१ जिस प्रकार शब्दों में अतृप्त रागातुर मुग्ध हरिण मृत्यु को प्राप्त होता है उसी प्रकार मनोज्ञ माब्दों में जो तीव्र आसक्ति रखता है वह अकाल में ही विनाश को प्राप्त होता है। __ जो अमनोज्ञ शब्दों से तीव द्वेष करता है, वह उसी क्षण दुःख को प्राप्त होता है। इस प्रकार स्वयं के ही तीव्र द्वेष से प्राणी दुःखी होला है किन्तु उसके दुःखी होने में शब्द का कोई अपराध नहीं है। जो मनोहर शब्द में सर्वथा अनुरक्त रहता है और ममनोहर शब्द से तुष करता है, वह अज्ञानी दुःखों की पीड़ा को प्राप्त होता है। किन्तु विरक्त मुनि उनमें लिप्त नहीं होता। Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८६] परगानुयोग-२ रूप की शासक्ति का निषेध सूत्र ७७८-७७६ सहाणुगासाणुगए य जोवे, मनोहर शब्दों में आसक्त जीव अनेक प्रकार के बस स्थावर चराचरे हिंसह गावे । जीवों की हिंसा करता है, वह अपने ही स्वार्थ को प्रमुख मानने चित्तेहि ते परियावेई बाले, वाला घलेशयुक्त अज्ञानी पुरुष नाना प्रकार से उन चराचर जीवों पोलेर अत्तार किलि? ।। को परिताप पहुंचाता है। सहाणुयाएण परिरहे अनुराग और ममत्व बुद्धि होने से उसके उत्पादन उम्पायगे रक्षणस निनोये । में, रक्षण करने में, व्यवस्थित रखने में और उसके बिनाण या पए विओगे य काहं सुहं से? वियोग होने पर कैसे सुखी हो सकता है ? उसके उपयोग करने संभोगकाले य अतिसिला। के समय भी तृप्ति न होने के कारण दुःख ही होता है। सई अतित्ते य परिगहे य, जो पाद में अतृप्त और उसके परिग्रहण में अत्यन्त आसक्त सत्तोयसत्ती न उवे तुट्टि। होता है, उसे कभी संतुष्टि नहीं हो सकती। वह असंतुष्टि के अतुट्टिदोसेण वही परस्स, दोष से दुःखी बना हुआ मनुव्य लोभ के वशीभूत होकर दूसरे सोमाविले आययई अदतं ।। की शब्द वाली वस्तुएँ चुरा लेता है। सम्हाभिभूयस्स अदतहारिणो, वह तृष्णा से पराजित होकर चोरी करता है और शब्द सद्दे अतित्तस्स परिग्गहे प। परिग्रहण में अतृप्त होता है । अतृप्ति-दोष के कारण उसके मायामायामसं वड्ढइ लोभदोसा, मृषा की वृद्धि होती है नया माया-मृषा का प्रयोग करने पर भी तस्थावि दुक्खा न विमुच्चई से। वह दुःख से मुक्त नहीं होता। मोसस्स एच्छा य पुरषी य, असल बोलने के पहले और पीठ तथा बोलते समय भी पओगकाले य दुही चुरन्ते। जीव दुःखी होता है इसी प्रकार शब्द में अतृप्त होकर चोरी एवं अदत्ताणि (ममाययन्ती, करता हुआ भी वह आश्रय हीन होकर दुःखी ही होता है । ___ सद्दे अतित्तो दुहिओ अगिस्सो ।। सद्दाणुरस्सस्स नरस्स एवं, इस प्रकार शब्द में अनुरक्त पुरुष को अल्प सुख भी कब कतो मुहं होज्ज कयाइ किसि। और कैसे हो सकता है? क्योंकि मनोज शब्दों को पाने के लिए तस्थोवभोगे वि किलेसदुपखं, भी वह दुःख उठाता है और उनके उपभोग में भी अतृप्ति का निव्वत्तई जस्म कएण दुकावं क्लेश और दुःख बना ही रहता है। एमेव सम्मि गओ पओस, इसी प्रकार जो शब्द से टूव रखता है, वह भी उत्तरोत्तर उवद दुपयोहपरंपराओ। अनेक दुःखों की परम्परा को प्राप्त होता है। द्वेषयुक्त चित्त से पदचित्तो य चिणाद कम्, घह जिन कर्मों का बन्ध करता है वे कर्म भी उदयकाल में उसके जसे पुणो होइ बुहं विवागे ।। लिए दुःख रूप होते हैं। सहे विरत्तो माओ विसोगो, किन्तु जो पुरुष शब्द से विरक्त होता है वह शोक रहित एएण बुवखोहपरम्परेण । रहता है। जिस प्रकार जल में रहते हुए भी कमल जल से न लिप्पई भवमझे वि सन्तो, अलिप्त रहता है उसी प्रकार वह भी संसार में रहते हुए इन जलेण वा पोखरिणीपलासं ।। दुःख की परम्पराओं से अलिप्त रहता है। -उत्त. अ. ३२, गा, ३५-४७ रुवासत्ति णिसेहो रूप की आसक्ति का निषेध७७६. चक्स्सस्स एवं गहर्ष वयन्ति, त रागहे तु मणुनमाह। ७६. चक्षुन्द्रिय के विषय को रूप कहते हैं। जो रूप राग का संभोसोउं अमनमाह, समो उजो सेसु स वीयरागो।। हेतु है उसे मनोज्ञ कहा है, जो रूप द्वेष का हेतु है उसे अमनोज्ञ कहा है। इन दोनों में जो समभाव रखता है वह बीतराग होता है। Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ७७६ रूप की आसक्ति का निषेध वीर्याचार [३८७ रूबस्स चक गहणं क्यरित, चक्खुस्स ख्यं महणं वयन्ति । रूप के ग्रहण करने वाले को चक्ष कहते हैं, चक्षु से ग्रहण रागस्स हेउं समणुनमाहु, दोसास हे अमानमाह॥ होने वाले को रूप कहते हैं। राग के हेतु को ममनोज्ञ रूप कहा है, द्वेष के हेतु को अमनोज्ञ रूप कहा है। क्वेसु जो गिद्धिमवेद तिम्व, अकालियं पाव से विणास। जिस प्रकार प्रकाश लोलुप पतंगा रूप में आसक्त होकर रामाउरे से मह वा पयंगे, आलोयलोले समबेद मम ॥ मृत्यु को प्राप्त होता है उसी प्रकार जो पुरुष रूप में तीव्र आसक्ति रखता है वह अकाल में ही विनाश को प्राप्त होता है। जे पाविदोस समयेइ तिब्ब, तस्मिकखणे से उउयेई बुक्खं। जो अमनोज रूपों से तीन द्वेष करता है वह उसी क्षण दुःस्त्र दुहातबोसेण सएण जन्तु, न किचि रूवं अवरजाई से ॥ को प्राप्त होता है। इस प्रकार स्वयं के ही तीन द्वेष से प्राणी दुःखी होता है किन्तु उसके दुःस्त्री होने में रूप का कोई अपराध नहीं है। एगरतरते रुहरंसि सवे, असालिसे से कुणई पओस । जो मनोहर रूप में सर्वथा अनुरक्त रहता है और अमनोहर दुक्खस्स संपीलमुबह बासे, न निप्पई तेण मुणी विरागो॥ रूप में द्वेष करता है, वह अज्ञानी दुःषा की पीड़ा को प्राप्त होता है। किन्तु विरक्त मुनि उनमें लिप्त नहीं होता । क्याणगासाणुगए प जोवे, घराचरे हिसइ गरुवे। मनोज्ञ रूप में आसक्त जीव अनेक प्रकार के प्रम-स्थावर चिहि ते परितावेद बाले, पीलेइ अत्तगुरु किलिट्ठ ॥ जीवों की हिंसा करता है, वह अपने ही स्वार्थ को प्रमुख मानने वाला क्लेशयुक्त अज्ञानी पुरुष नाना प्रकार से उन चरा चर जीवों को परिताप पहुंचाता है। रूवाणुवाएण परिगण, उपायणे रक्षणसभिजोगे। रूप में अनुगग और ममत्व वृद्धि होने से उसके उत्पादन में, पए दिओगे य कह सुहं से ? संभोगकाले य अतिसिलामे ॥ रक्षण करने में, व्यवस्थित रखने में और उसके बिना या वियोग होने पर कैसे सुखी हो सकता है ? उसके उपयोग करने के समय भी तृप्ति न होने के कारण दुःख ही होता है। सबै अतित य परिगहमि, सत्तोवसतो न उवे तुहि। जो रूप में अतृप्त है और उसके परिग्रहण में अत्यन्त अतुद्धिवोसेण दुही परस्स, लोभाबिले आययई अदत्तं ॥ आसक्त होता है. उसे कभी सन्तुष्टि नहीं हो सकती, वह असं. तुष्टि के दोष से अत्यन्त दुःखी बना हुआ मनुष्य लोभ के वणी भूत होकर दूसरों की रूपवान बस्तुए चुरा लेता है। सम्हामिभूयस्स अदतहारिणो, को अतित्तस्स परिसंगहे य । वह तृष्णा से पराजित होकर चोरी करता है और रूपमायामुसं वडाइ लोभदोसा, तस्या वि दुक्खा न विमुच्चाई से ।। परिग्रहण में अतृप्त होता है। अतृप्ति दोष के कारण उसके मावा-मृषा की वृद्धि होती है तथा माया-मृषा का प्रयोग करने पर भी बह दुःख से मुक्त नहीं होता। मोसस्स पच्छा य पुरस्थो य, पभोगकाले य बुही दुरन्ते । असत्य बोलने के पहल और पीछे तथा बोलते समय भी एवं अवत्ताणि समाययस्तो, रूदे अतिसो दुहिओ अणिम्सोय जीव दुःखी होता है इसी प्रकार रूप में अतृप्त होकर चोरी करता हुआ भी वह माश्रयहीन होकर दुःखी ही होता है। रुवाणुरसस्स नरस्स एवं, कसो मुहं होइन कयाइ किंचि ! इस प्रकार रूप में अनुरक्त पुरुष को किचित् सुख भी कब सस्थोवभोगे वि किलेसदुपक्ष, निवत्तई जस्स कएण दुवखं ।। और कैसे हो सकता है ? क्योंकि मनोज्ञ रूपों को पाने के लिए भी वह दुःख उठाता है और उनके उपभोग में भी अतृप्ति का क्लेश और दुःख बना ही रहता है। एमेव कवम्मि मओ पओसं. उई दुक्खोहपरम्परायो। इसी प्रकार जो रूप से द्वेष रखता है, यह भी उत्तरोत्तर पदुद्धचित्तो य चिणाइ कम्म, ज से पुणो होड दुह विवागे॥ अनेक दुःखो की परम्परा को प्राप्त होता है। द्वेष-युक्त चित्त से वह जिन बमों का बन्ध करता है, वे कम भी उदय फाल में उसके लिए दुःख रूप होते हैं। Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८] वरणानयोग-२ गन्ध की आसक्ति का निषेध सूत्र ७७६-७८० स्वे विरत्तो मकओ विसोगों, एएण दुक्खोहपरम्परेण । किन्तु जो पुरुष रूप से विरक्त होता है वह शोक-मुक्त बन न लिप्पई मवमन्मे वि सम्तो, जलेण वा पोखरिगोपलातं ।। जाता है । जिस प्रकार जल में रहते हुए भी कमल जल से लिप्त -उत्त. अ.३२, गा. २२-३४ नहीं होता, उसी प्रकार वह भी संसार में रहते हुए इन दुःखों कीरा से लिप्त नहीं होता । गंधासत्ति णिसेहो गन्ध की आसक्ति का निषेध७५०. घाणस्स गन्धं गहणं धान्ति, ७८०. घ्राणेन्द्रिय के विषय को गन्ध कहते हैं। जो गन्ध राग तं रागहे तु मनमा । का हेतु है उसे मनोज्ञ कहा है जो गन्ध द्वेष का हेतु है उसे तं बोसहेउं अमनमात्र, अमनोश कहा है। इन दोनों में जो समभाव रखता है वह वीतसमो य जो तेसु स बीयरागो।। राग होता है। गन्धस्स चाणं गणं अन्ति, गन्ध के ग्रहण करने वाले को प्राण कहते हैं, प्राण से ग्रहण घाणस्स गन्ध गहणं वरित । होने वाले को गंध कहते हैं । राम के हेतु को समनोज गंध कहा रागस हेड समगुन्नमाह. है, द्वेष के हेतु को अपनोज्ञ गंध कहा है। चोसस्स हेउं अमणुनमाहु॥ गन्धेसु जो गिडिमवेह तिथ्वं, जिस प्रकार नाग-दमनी आदि औषधियों के गंध में गृद्ध अकालियं पाबइ से विणास। होकर बिल से निकलता हुआ रामातुर सर्प दुःखी होता है उसी रागाउरे ओसहि गन्ध-गिसे. प्रकार जो मनोज गंध में तीय श्रामक्ति करता है, वह अकाल में सप्पे बिलाओ विष निक्खमते ॥ ही विनाश को प्राप्त होता है। जे यावि दोर्स समुह तिब्वं, जो अमगोज्ञ गंध से तीव्र हूँष करता है, वह उसी क्षण दुःख संसिक्क्षणे से उ उवह सुक्खं । को प्राप्त होता है । इस प्रकार स्वयं के ही तीय द्वेष से प्राणी दुद्दन्तकोसेण सएण जस्तू, दुःखी होता है किन्तु एसके दुःखी होने में गन्ध का कोई अपराध न किधि गन्धं अवराई से ॥ नहीं है। एगन्तरस्ते बदरंसि गये, जो मनोहर गन्ध में सर्वथा अनुरक्त रहता है और अमनोहर अतालिसे से कुई पोसं । गन्ध से द्वेष करता है, वह अज्ञानी दुःखों की पीड़ा को प्राप्त बुक्सस्स संपीलमुवेद बाले, होता है। किंतु विरक्त मुनि उनमें लिप्त नहीं होता । न लिप्पई तेग मुणी विरागो।। गन्धाणुगासाणुगए य जीवे, मनोज गन्ध में आसत्त. जीव अनेक प्रकार के उस स्थावर चराचरे हिसई अंगरूवे । जीवों की हिंसा करता है वह अपने ही स्वार्थ को प्रमुख मानने चिहि ते परिसावेह बाले, वालाशयुक्त अज्ञानी नाना प्रकार के उन चराचर जीनों को पीसद असदगुरु फिलिटु। परिताप पहुंचाता है। गन्धाणुवाएक परिगहग, गन्ध में अनुराग और ममत्व बुद्धि होने से उसके उत्पादन उप्पायणे रक्हणसनिओये । में, रक्षण करने में, व्यवस्थित रखने में और उसके विनाश या बए विओगे य कहं मुहं से? वियोग होने पर कैसे सुखी हो सकता है? उसके उपयोग के संभोगकाले य अतित्तिलामे ।। समय भी तृप्ति न होने के कारण दुःख ही होता है। गन्धे अतिसे ब परिम्प य, जो गन्ध में अतृप्त है, उसके परिग्रहण में अत्यन्त आसक्त सत्तोवसतो न उयेइ हुट्टि। होता है, उसे कभी सन्तुष्टि नही हो सकती है। वह असंतुष्टि अतुहिनोसेण बुही परस्स, के दोष से दुःखी बना हुआ मनुष्य लोभ के वशीभूत होकर दूसरों लोभाबिले आययई अवतं ॥ की मन्धवान वस्तुएं चुरा लेता है। तण्हाभिभूयस्स अवसहारिगो, वह तृष्णा से पराजित होकर चोरी करता है और गन्धगन्धे अतित्तस्स परिग्महे य। परिग्रहण में अतृप्त होता है। अतृप्ति दोष के कारण उसके Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ७८०-७८१ रस को आसक्ति का निषेध वीर्याचार [३८६ गते मायामसं वा लोपदोसा, माया-मृषा की वृद्धि होती है तथा माया-मृषा का प्रयोग करने तस्थावि दुपखान विमुच्चाई से ।। पर भी पर भी वह दःख से मुक्त नहीं होता। मोसस्स पच्छा व पुरत्थो य, ___ अपत्य बोलने के पहले और पीछे तथा बोलते समय भी पोगकाले य ही दुरन्ते । जीव दुःखी होता है। इसी प्रकार वह गन्ध से अतृप्त होकर एवं अवताणि समाययन्तो, चोरी करता हुआ भी आश्रयहीन होकर दुःखी ही होता है । गन्धे अतित्तो हिओ अणिस्सो । गन्धाणुरसस्स नरस्स एवं, इस प्रकार मन्ध में अनुरक्त पुरुष को किंचित् मुख भी कब तो मुहं होम्ज कयाइ किंचि ?। और कैसे हो सकता है ? क्योंकि मनोज गन्धों को पाने के लिए तत्योपभोगे वि फिलेप्सदुक्खं, वह दुःख उठाता है तथा उनके उपभोग में भी बतृप्ति का क्लेश नितई जरस दुपक्ष। और दुःख बना ही रहता है। एमेव गन्धम्मि गओ पओसं, इसी प्रकार जो गन्ध से द्वेष रखता है, वह भी उत्तरोत्तर उवेद दुखोहपरम्पराओ। अनेक दुःखों की परम्परा को प्राप्त होता है । द्वेष युक्त चित्त से पदुद्दचित्तो य चिणाइ कम्म, वह जिन कर्मों का बन्ध करता है के कर्म भी उवय काल में जसे पुणो होइ बुहं विवागे ।। उसके लिए दुःख रूप होते हैं। गन्धे विरत्तो मणुओ विसोगो, किन्तु जो पुरुष गन्ध से विरक्त होता है वह शोक-मुक्त बन एएण दुकालोहपरम्परेण । जाता है। जिस प्रकार जल में रहते हुए भी कमल जल से लिप्त न लिप्पई भवमझे वि सन्तो, नहीं होता, उसी प्रकार वह भी संसार में रहते हुए इन दुःखों लेण वा परेक्सरिगोपलास ।।। की परम्परा से लिप्त नहीं होता। -उत्त. अ. ३२,गा. ४५-६० रसासत्तिगिसेहो रस की आसक्ति का निषेध७८१. जिम्माए रसं गहणं वयन्ति, तं रागहे तु मणुनमाजु । ७८१. रसनेन्द्रिय के विषय को रस कहते हैं। जो रत राग का तं वोसहेजे अमजुन्नमा, समो य जो तेसु स बीयरागो॥ हेतु है उसे मनोज्ञ कहा है, जो द्वेष का हेतु है उसे अमनोज्ञ कहा है। इन दोनों में जो समभाव रखता है वह वीतराम होता है। रसस्स जिम्मं गहणं क्यन्ति, जिम्माए रर्स गहण वयन्ति। रस + ग्रहण करने वाली को जिल्ला कहते रागस्स हेवं समणुम्नमाहू, बोसस्स हेउ अमणुन्नमाह।। ग्रहण होने वाले को रस कहते हैं। राग के हेतु को समनोज रस कहा है. द्वेष के हेतु को अमनोज्ञ रस कहा है। रसेसु जो गिठिमवेद तिध्वं, अकालियं पावह से विणास। जिस प्रकार मांस खाने में गृद्ध बना हुआ रागातुर मत्स्य रागाजरे वडिस विमिन्नकाए, माछे जहा आमिस-भोगगि कांटे से बींधा जाता है उसी प्रकार मनोज्ञ रसों में तोत्र आसक्ति करने वाला अकाल में ही विनाश को प्राप्त होता है। में यावि दोस समुह तिव्वं, संसिक्खणे स उ उबेद उपखं । जो अमनोज्ञ रस से तीन द्वष करता है वह उसी क्षण दुःस्त्र दुहन्तदोसेण सएण जन्तु, रसं न किंचि अवरज्माई से ॥ को प्राप्त होता है, इस प्रकार स्वयं के ही तीन द्वेष से प्राणी दुःखी होता है किन्तु उसके दुःखी होने में रस का कोई अपराध नहीं है। एगन्तरसे हारे रसम्मि, अतालिसे से कुगई पोस। जो मनोहर रस में सर्वथा अनुरक्त रहता है और अमनोहर दुक्खस्स संपीलमुखेड बाले, न लिप्पई तेण मगो विरागो॥ रस में द्वेष करता है, वह अज्ञानी दुःखों की पीड़ा को प्राप्त होता है। किन्तु विरक्त मुनि उनमें लिप्त नहीं होता। रसाणुगासाणुगए य जोवे, चराचरे हिसइ गल्वे। मनोहर रस में आसक्त जीय अनेक प्रकार के बस स्यावर चित्तेहिं ते परितावेह बाले, पीले अत्तगुरु फिलिट्ट ।। जीवों की हिंसा करता है, वह अपने ही स्वार्थ को प्रमुख मानने बाला कलेशयुक्त अज्ञानी पुरुष नाना प्रकार के उन चराचर जीवों को परिताप पहुँचाता है ! Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६०] वरमानुयोग-२ स्पर्श की असक्ति का निवेध सूत्र ७८१-७८२ उपवायणे रसाणुवाएण परिमाण, रस में अनुराम और ममत्व वृद्धि होने से उसके उत्पादन रखणसम्निमओये। रक्खणसाम्न में, रक्षण करने में व्यवस्थित रखने में और उसके बिनाम या वए विओगे य कहं सुहं से, वियोग होगे पर कैसे सुखी हो सकता है ? उसके उपयोग के संभोगकाले 4 अतिसिलामे ।। समय भी तृप्ति न होने के कारण दुःख ही होता है। रसे अतिते व परिग्गहे य. जो रस में अतृप्त है और उसके परिग्रहण में अत्यन्त ससोवसत्तों न उबेद तुर्द्धि। आसक्त होता है । उसे कभी सन्तुष्टि नहीं हो सकती। वह असंअतुट्टियोसेण बुही परस्स, तुष्टि के दोष से दुःखी बना हुआ मनुष्य लोभ के वशीभूत होकर लोभाक्लेि आययई अवतं । दूसरों की रसवान् वस्तुएँ चुरा लेता है। तहाभिभूयस अवतहारिणो, वह तृष्णा से पराजित होकर चोरी करता है और रस-परिरसे अतिलस्म परिरमो प। ग्रहण में अतृप्त होता है। अतृप्ति दोष के कारण उसके भाषापायामुसं बड्इ लोमोसा, मृषा की वृद्धि होती है तथा माया-मृषा का प्रयोग करने पर भी __ तश्यावि दुषला न विमुश्चद से ॥ वह दुःख से मुक्त नहीं होता। मोसस्स पन्छा य पुरत्यओ य, ___असत्य बोलने के पहले और पीछे तथा बोलते समय भी पयोगकाले य वुही दुरन्ते । जीव दुःखी होता है। इसी प्रकार वह रस में अतृप्त होकर चोरी एवं अवत्ताणि समाययस्तो, करता हुआ भी आश्रयहीन होकर दुःखी ही होता है। रसे अतिसो हिओ अणिस्सो।। रसाणु सस्स नरस्त एवं, इस प्रकार रस में अनुरक्त पुरुष को किंचित् सुख भी कब कत्तो सुहं होज्ज कयाइ किंचि?। और कैसे हो सकता ? क्योंकि मनोज्ञ रसां को पाने के लिए वह तस्थोवमो वि किलेसक्छ, दुःख उठाता है और उनके उपभोग में भी अतृप्ति का क्लेश निम्बसई जस्स कएग तुमलं ।। और दुःख बना ही रहता है । एमेय रसम्मि गओ पओसं, इसी प्रकार जो रस से द्वेष रखता है, वह भी उत्तरोत्तर उवेइ दुक्योहपरम्पराओ। अनेक दुःखों की परम्परा को प्राप्त होता है, द्वष मुक्त चित्त से पचित्तो य विणाइ कम्म, वह जिन कर्मों का बन्ध करता है वे कर्म भी उदय काल में उसके जं से पुणो होइ दुई विवागे ॥ लिए दुःख रूप होते हैं। रसे विरसो मणओ विसोगो, किन्तु जो पुरुष रस से विरक्त होता है वह शोक-मुक्त बन एएण दुक्खोहपरम्परेण । जाता है । जिस प्रकार जल में रहते हुए भी कमल जल से लिप्त न लिप्पई भयमले वि सन्तो, नहीं होता है, उसी प्रकार वह संसार में रहते हुए भी इन दुःखों जलेण या पोक्लरिणीपलासं ॥ की परम्परा से लिप्त नहीं होता। --उत्त... ३२, गा. ६१-७३ फरिसासत्ति णिसेहो--- स्पर्श की आसक्ति का निषेध७८२. कायस्स फासं पहणं वयक्ति, ७२. स्पर्श न्द्रिय के विषय को काया कहते हैं, जो स्पर्श राग तं रागहे तु मान्नमाहु । पा हेतु है उसे मनोज्ञ कहा है, जोष का हेतु है इसे अमनोश तं दोसहउँ अमणुन्नमा कहा है। इन दोनों में जो समभाव रखता है वह वीतराम समय जो सेसु स यीपरागो।। होता है। कासस्त कार्य गहणं वयन्ति, स्पर्श के ग्रहण करने वाले को काया कहते हैं, काया से कायस्स फासं गहणं वयन्ति । ग्रहण होने वाले को स्पर्श कहते हैं। राग के हेतु को समनोश रागस्स हेदं समणुन्नमा, स्पर्श कहा है, द्वेष के हेतु को अमनोज्ञ स्पर्श कहा है। दोसस्स हे अमणुग्नमाह ।। Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ७८२ स्पर्श को आसक्ति का निषेध वोर्याचार [३६१ women जिस प्रकार घड़ियाल के द्वारा पकड़ा हुआ अरण्य-जलाशय के शीतल जल के स्पर्श में मग्न बना रागातुर भंसा विनाश की प्राप्त होता है उसी प्रकार मगोज्ञ स्पों में तीय आसक्ति करने वाला यह अकाल में ही विनापा को प्राप्त होता है। जो अमनोज्ञ स्पर्श से तीन द्वष करता है, वह उसी क्षण दुःख को प्राप्त होता है इस प्रकार स्वयं के ही तीच द्वेष से प्राणी दुःखी होता है किन्तु उसके दुःखो होने में स्पर्श का कोई अपराध नहीं है। जो मनोहर स्पर्श में सर्वथा अनूरक्त होता है और अमनोहर गर्श सेहोष करता है, वह अज्ञानी दुःखां की पीड़ा को प्राप्त होता है। किन्तु विरक्त मुनि उनमें लिप्त नहीं होता। -.. ...: - - फासेसु जो गिडिमुवेद्य तिब्ध, अकालियं पाखद से विणास । राणाउरे सोय-जलायसन्ने, गाहागहीए महिसे व रम्ने । जे पावि बोसं समुवेद तिव्वं, तस्सिक्खणे से उ उबेच दुषखं । दुहन्तबोसेण सएण जन्तू, न किंचि फास अबराई से ॥ एनन्तरले रुइरंसि फासे, अतालिसे से कुणई पोस । दुपस्सस्स संपीलमुवेइ बाले, न लिप्पई तेण मणी विरागो॥ फासाणगासाणुगए प जीवे, चराचरे हिंसइ गरूवे । चित्तेहि ते परितावेह नाले, पोखड अत्तगुरु किलि?।। फासागवाएगं परिग्गहेण. Smuvi रणसनिमओये। वए विओगे य ह मुहं से, संभोगकाल य अतित्तिलामे ।। फासे अतित्तं य परिम्गहे य, सतोवसत्तो न उबेहु तुहि। अतुद्विदोसेण दुही परस्स, लोभाखिले आययई अदत्त ।। तम्हाभिभूयस्स अदसहारिणी, फासे अतित्तस्स परिग्गहे य। मायामुस वइ सोमनोसा, तस्थावि दुषखा न विमुन्धई से ।। मोसस्स पच्छा य पुरस्थओ य, पओगकाले य दुही तुरन्ते । एवं अदत्ताणि समाययरतो, फासे अतितो बुहिमओ अणिस्सो॥ कासाणुरत्तस्स नरस्स एवं, कस्तो सुहं होग्न कयाद किनि । सत्योपभोगे वि किलेसबुक्वं, निवसई जस्स एण दुक्खं ॥ एमेव फासम्मि गओ पोस, उवेइ दुक्खोहपरम्पराओ। पवुद्धचित्तो म चिणाद कम्म, जं से पुणो होइ वुहं विवाये ॥ मनोहर स्पर्क में आसक्न जीव अनेक प्रकार के उस स्थावर जीवों की हिंसा करता है वह अपने ही स्वार्थ को प्रमुख मानने पाला क्लेश युक्त अज्ञानी पुरुष नाना प्रकार के उन चराचर जीवों को गरिताप पहुंचाता है। स्पर्श में अनुराग और ममत्व बुद्धि होने से उसके उत्पादन में, रक्षण करने में, व्यवस्थित रखने में और उसके बिना या वियोग होने पर कैसे सुखी हो सकता है ? उसके उपयोग के गमय भी तृप्ति न होने के कारण दुम ही होता है। जो स्पर्श में अप्त है और उसके परिग्रहण में अत्यन्त आसक्त होता है, उसे कभी सन्तुष्टि नहीं हो सकती। वह असंतुष्टि के दोष से दुःखी बना हुआ मनुष्य लोभ के वशीभूत होकर दूगरों की स्पर्शवान वस्तुएँ चुरा लेता है। वह तृष्णा से पराजित होकर चोरी करता है और स्पर्ण परिग्रहण में अतृप्त होता है, अतृप्ति दोष के कारण उसके मायामृषा की वृद्धि होती है तथा माया-मृषा का प्रयोग करने पर भी वह दुःख से मुक्त नहीं होता। असल्य बोलने के पहले और पीछे तथा बोलते समय भी जीव दुःखी होता है। इसी प्रकार यह स्पर्श में अतृप्त होकर चोरी करता हुआ भी आश्रयहीन होता हुआ दुःखी ही होता है। इस प्रकार स्पर्श में अनुरक्त पुरुष को किचित् भी सुख कब और कैसे हो सकता है ? अल्प सुख भी कहाँ से होगा क्योंकि मनोज रसों को पाने के लिए वह दुःख उठाता है और उनके उपभोग में भी अतृप्ति का क्लेश और दुःख बना ही रहता है। इसी प्रकार जो स्पर्श से ढोष रखता है वह भी उलरोसर अनेक दग्दों की परम्परा को प्राप्त होता है। द्वषयुक्त चित्त से वह जिन कर्मों का बध करता है। वे कर्म भी उदय वाल में उसके लिए दुःख रूप होते हैं। Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९२] परणानुयोग-२ समस्व बुद्धि से आत्म शक्ति का समुत्थान पुत्र ७८२-७८६ फासे विरत्तो मणुओ विसोगो, किन्तु जो पुरुष स्पर्श से विरक्त होता है वह शोक मुक्त एएण दुक्खोहपरम्परेण । बन जाता है। जिस प्रकार जल में रहते हुए भी कमल जल से नलिम्पई भवमझ वि सन्तो, लिप्त नहीं होता, उसी प्रकार वह संसार में रहते हुए भी इन लेण व पोखरिणीपलासं ॥ दुःखों की परम्परा से लिप्त नहीं होता। -उत्त. अ. ३२, गा. ७४-५६ मुहं मुहं मोह-गणे जयस्ते, बार-बार शब्दादि मोह-गुणों पर विजय पाते हुए और अणेग-रूवा सभणं घरन्ते । रांयम मार्ग में विचरते हुए श्रमण को अनेक प्रकार के प्रतिकूल फासा फुसन्ती असमंजसं च, स्पर्श पीड़ित करते हैं। किन्तु भिक्षु उन पर मन से भी द्वेष न तेसु पिषखू मणसा पउस्ते ।। न करे । मन्दा य फासा बह-लोहणिज्जा, काम-भोगों के अल्प स्पर्म भी बहुत लुभावने होते हैं किन्तु सहप्पगारेसु मणं न कुज्जा। संयमी उन स्पों में मन को न लगाये, क्रोध से अपने को बचावे, रक्लेज्ज कोहं विणएज्ज माणं, मान को दूर करे, माया का सेवन न करे और लोभ का त्याग माय ने सेबे परहेज लोहं ॥ करे। जे संखया तुच्छ परप्पवाद, जीवन सांधा जा सकता है ऐसा कहने वाले अन्यतीर्थिक ते पिज दोसाणगया परजमा निस्सार वचन बोलने वाले हैं, वे राम हष युक्त होने से पराधीन एए अहम्मे ति दुगुछमाणो, हैं। ये लोग धर्म-रहित हैं ऐगा सोच कर उनसे दूर रहता हुआ पंखे भुणे-जाव-सरौर-भेओ ॥ मुमुक्षु अन्तिम सांस तक संयम गुणां की आराधना करे। --उत्त, अ. ४, गा. ११-१३ वीर्य-शक्ति-५ समत्तधिया वोरियपाउरणं - समत्व बुद्धि से आत्म-शक्ति का समुत्थान - ७८३. जहत्य मए संघी झोसिते, एवमण्णत्य संधो दुज्योसए भवति, ७८३. जैसे मैंने इस ज्ञान, दर्शन और चारित्र से कर्म संतत्ति को तम्हा बेमि--'णो गिणहवेज्ज वीरिय'। भय किया है वैसे अन्य मत में कर्म संतति को क्षय करना कठिन __-आ. सु. १, अ. ५. उ. ३, सु. १५७(म) है। इसलिए मैं कहता हूं कि- "भुमुक्षु साधक शक्ति का गोपन न करे।" अप्पवीरिएण चत्तारि दुल्लभंगा आत्म-बीर्य में चार अंग दुर्लभ७८४. चत्तारि परमंगागि, दुल्लहाणीह जन्तुणो। ७६४. इस संसार में प्राणियों के लिए चार परम-अंग दुर्लभ हैं -- माणुसत्तं सुई सया, संजमि य बोरियं ।। मनुष्य जन्म, धर्म श्रवण, धर्म में श्रद्धा और संयम में पराक्रम । -उत्त. ब. ३, गा.१ अप्पवोरिएण कम्माण-धुणणं आत्म-बल से कर्म क्षय - ७६५. माणुसतंमि आयाओ, जो धम्म सोच्चा सरहे । ७८५. मनुष्य भव को प्राप्त कर जो व्यक्ति धर्म को सुनता है तबस्सी बीरियं लब, संखुड़े निझुमे रयं । और उसमें श्रद्धा करता है, वह तपस्वी संयम में पुरुषार्थ कर -उत्त. अ.३, गा.११ संवृत हो जाता है और कर्म-रज को नष्ट कर डालना है। मोणेग कम्मधुणणं-- मुनित्र से कर्म क्षय७८६. जं सम्मं सि पासहा तं मोणं ति पासहा, जं मोणं ति यासहा ७६६. जो रामत्व को देखता है वह मुनित्व को देखता है, जो सं सम्मति पासहा । मुनित्य को देखता है वह समत्व को देखता है। - - - - - - - - - - - - - Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ७८६-७०८ अप्रमत्त भाव से करणीय कृश्य धीर्याशर [३९३ ण हम सबक सिविलेह, अहिज्जमाणेहि, गुणासाएहि, वंक- समत्व का आचरण करना उन साधका द्वारा शक्य नहीं है समावारेहि पमतेहिं गारमायसहि । जो मन्द पुरुषार्थी हैं, पदार्थों में स्नेह रखते हैं, विषय लोलुप हैं, मायाचारी हैं, प्रमादी हैं और गृहवास में लीन हैं। मुणी मोणं समादाय धुणे कम्म सरीरगं । किन्तु मुनि संयम ग्रहण करके स्थूल और सूक्ष्म शरीर को कृश करने में पुरुषार्थ करे। पंतं लुहं सेवेति वीरा सम्मसदसिणो। समत्वदर्शी वीर मुनि प्रान्त (बासी या बचा खुचा थोड़ा सा) और रुक्ष (नीरस, विकृति-रहित) आहारादि का सेवन करते हैं। एस ओहंतरे मुणी तिणे मुसे विरते वियाहित । ऐसे मुनि जन्म-मृत्यु के प्रवाह को पार करने वाले होते हैं --आ सु १. अ. ५. उ. ३. सु. १६१ वे ही मुनि तीर्ण-मुक्त और विरत कहलाते हैं। अपमत्तभावेण करणिज्ज किच्चाई अपमन्तु भाव मे मीरा कृल-.. ७८७. अहिं ठाहिं सम्मं घडितब्ब जतित्तवं, परपक्रमितवत्रं, ७७. आय स्थानों में साधक सम्यग् आचरण करे, सम्यक् अस्ति च पं अ? जो पभाएतम्वं भवति । प्रयत्न करे, सम्यक् पराक्रम करे और इन आठों स्थानों में कुछ भी प्रमाद नहीं करे। १. असुयाणं अम्माणं सम्म सुणणताए अम्मुट्ठतब्ध प्रति । (१) अश्रुत धर्मों को सम्यक् प्रकार से सुनने के लिए जाग २. सुताएं धम्माणं ओपिण्हणयाए. उवधारणयाए अमुट्ठ (२) सुने हुए धर्मों को मन से ग्रहण करे और उनकी स्थिरसम्वं भवति । स्मृति के लिए जागरूक रहे। ३ णवाणं कम्माणं संजमेणमकरणताए अन्? तन्वं भवति । (३) संयम के द्वारा नवीन कर्मों का निरोध करने के लिए जागरूक रहे। ४. पोराणार्ग कम्माणं तवसा विगिधगयाए, विसोहणमाए (४) तपश्चरण के द्वारा पुराने कर्मों को पृथक् करने और अग्भट्ठतव्वं भवति । विशोधन करने के लिए जागरूक रहे । ५. असंगिहीय परियणस्स संगिहणयाए अम्मुटु यच्वं भवति । (५) असंगृहीत परिजनों (शिष्या) का संग्रह करने के लिए जागरूक रहे। ६. सेहं आयारगोयरं पाहणताए अम्म? यव्वं भवति । (६) मोक्ष (नवदीक्षित) मुनि को आचार-गोचर का सम्यक बोध कराने के लिए जागरूक रहे । ७. गिलाणस्स अगिलाए यावच्चकरणयाए मामुट्ठयव्यं (७) ग्लान साधु की ग्लानि-भाव से रहित होकर बयावृत्य भवति। करने के लिए जागरूक रहे। ८. साहमियाणधिकरणसि उप्पणसि तस्थ अपिस्सितो- (4) सार्मिकों में परस्पर कलह उत्पन्न होने पर "ये मेरे यस्सिते अपक्सग्गाही ममत्वावमूने 'कहं णु साहम्मिया साघमिक किस प्रकार गन्द, कलह और तू तू मैं-मैं से मुक्त हों" अप्पसदा अप्पझंझा अप्पतुमंतुमा उवसामणताए' अचमुटुयन्वं ऐसा विचार करते हुए राग-द्वेष से रहित होकर किसी का पक्ष भवति । -ठाणं. अ. ८. सु. ६४६ न लेकर मध्यस्थ भाव को स्वीकार पर उसे उपशान्त करने के लिए जागरूक रहे। आणाणुसरणं जवएसो आज्ञानुसार आचरण करने का उपदेश - ७८३. अणाणाए एगे सोक्टाणा, आगाए एगे गिरवट्ठाणा एतं ते ७८. कुछ साधक अनाज्ञा में उद्यमी होते हैं किन्तु आशा में मा हो । उद्यमी नहीं होते हैं। यह अबस्था तुम्हारे जीवन में न हो तीर्थकर भगवान का यह आदेश है। Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४] घरगानुयोग-२ प्रमाव परित्याग का उपदेश सूत्र ७८८७९१ एतं कुसलस्स बसणं तद्दिष्ट्ठीए. तम्मुत्तीए, तप्पुरकारे, तस्सग्णी, मुनि उसी में अपनी दृष्टि नियोजित करे, उसी में तन्मय तष्णिवेसणं । हो, उसे ही प्रमुख बनाए, उसी के स्मरण में संलग्न रहे, उसी में दसचित्त होकर उसका अनुसरण करे। अभिभूय अवक्खू अनभिमूते पभू मिरालंबताए । ___जिसने परीषह-उपसर्गों पर विजय प्राप्त कर तस्वों का - आ. सु. १, अ. ५, 3. ६, सु. १७२ साक्षात्कार किया है वह परीषहों से अभिभूत नहीं होता और वहीं निरालम्बी होकर संयम पालन में समर्थ होता है। पमाय परिश्चाग उदएसो प्रमाद परित्याग का उपदेश७८६. समपं तत्थुवेलाए. अप्पाणं विष्पसाबए । ७८६. साधना काल में मुनि समत्व का विचार करके आत्मा को अणण्णपरमं गागी, गो एमाए कयाइ वि ।। गदा प्रसन्न रखे, ज्ञानी मुनि संयम में कदापि प्रमाद न करे । आयगुसे सदा बीरे, मायामायाए जावए। सदा आत्मगुप्त और पराक्रमी साधक परिमित भोजन से विराग स्वेहिं गच्छेज्जा, महता खुमाएहि वा ।। संयम यात्रा चलावे, अल्प या अधिक रूप आदि विषयों से पूर्ण -आ. सु. १, अ ३, उ. ३, सु. १२३ विरक्त रहे। तिविहा धम्म जापरणा तीन प्रकार की धर्म जागरणाvt. 'मन्ते ! ति' भगवं गोयमे समणं भगवं महावीर बंदति ७०. 'हे भगवन !' इस प्रकार सम्बोधित करते हुए भगवान नमंसति, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी गौतम स्वामी ने श्रमण भगवान महावीर स्वामी को बन्दन मम स्कार किया और बंदना नमस्कार करके इस प्रकार पूछा-- प.-कविधा से ! जागरिया पन्नता? प्र--भगवन ! जागरिका कितने प्रकार की कही गई है ? उ.-गोयमा तिविहा जागरिया एमसा, तं जहा उ.--गौतम ! जागरिका तीन प्रकार की कही गई है। यथा१. युद्धजागरिया, २. अबुद्धनागरिया, (१) बुद्धजागरिका, (२) अबुद्धजागरिका, ३. सुरक्खजागरिया। (३) सुदर्शनजामरिका । प० से केजवणं भन्ते ! एवं पञ्चति "तिविहा जागरिया प्रा-भगवन ! किस हेतु से कहा जाता है कि जागरिका पन्नत्ता',तं जहा तीन प्रकार की है, जैसे-- १. गुरागागरिया, २ अबुद्धबागरिया, (१) बुद्ध-नागरिका, (२) अबुद्ध-जागरिका ३. सुरक्खजागरिया? (३) सुदर्शन-जागरिका? उ.-गोयमा ! जे हमे अरहता भगवंतो उप्पशनाण-दसण- उ० हे गौतम ! जो उत्पन्न हुए केवलज्ञान-कैवलदर्शन के घरा जहा खंवए-जाव-सत्वाण सम्वदरिसी एएण धारक अरिहन्त भगवान हैं-वायत्--स्कन्दक प्रकरण के अनुबुवा बुद्धजागरिव जागरंति । __सार जो सर्वज्ञ, सर्वदर्शी हैं, वे बुद्ध हैं. वे बुद्ध जागरिका करते हैं। जे इमे अणगारा भगवंतो इरियासमिया-जाव-गुत्तबंभयारी, जो ये अनगार भगवन्त ईसि मिति युक्त-यावत्-गुप्त एए णं अजुद्धा अबुसजागरियं जागरंति । ब्रह्मचारी हैं, वे अबुद्ध छद्मस्थ हैं। वे अबुद्धजागरिका करते है। जे इमे समणोवासमा अभिगय जीवाजीवा जाव-विहरंति एते जो ये श्रमणोपासक जीव अजीव आदि तत्वों के ज्ञाता हैं गं सुरक्खुनागरियं जागरंति । - यावत्-पोषधादि करते हैं वे सुदर्शन जागरिका करते हैं। से तेण?णं गोयमा! एवं उच्चति तिमिहा जागरिया-जाव- इसी कारण से हे गौतम ! तीन प्रकार की जागरिका सुदवखुबागरिया। —यावत्-सुदर्शन जागरिका कही गई है। -वि. स. १२, न, १, सु २५ एगत्त अण्णत भावणा एकत्व अभ्यत्व भावना-- ७६१. जस्स पं भिवानस्स एवं भवति-"एगो अहमसि, ण मे ७९१ जिस भिक्ष के मन में ऐसा अध्यवसाय हो जाय कि 'मैं अरिय कोई, ण याहमवि कस्सह एवं से एनागिणमेव अप्पाणं अकेला हु मेरा कोई नहीं है और न मैं किसी का हूँ" वह अपनी Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ७६ १.७६३ अनित्य भावना वीर्याचार [३६५ सममिमाणेजा । लाघवियं आगममाणे तवे से अमिसमण्णा- आत्मा को एकाकी भाव में ही रखे इस प्रकार वह लापवता को गते भवति । प्राप्त करता हुआ तप के लाभ को प्राप्त करता है। जहेयं भगवता पवेदितं तमेव अभिसमेच्चा सम्वती सम्वताए भगवान ने जिस रूप में प्रतिपादन किया है. उसे उसी रूप सम्मत्तमेव सममिजाणिया! में जानकर सब प्रकार से सर्वात्मना सम्यक प्रकार से क्रियान्वित -आ. सु. १, म. ज.६.सु.२२२ करे। समाए पेहाए परिश्वयन्तो. सिया मणो निस्सरई बहिडा । सम्यक्तया सावधानीपूर्वक संयम पालन करते हुए यदि न सा महं नोवि अहं पि तीसे, इच्छंव तामओ विणएज्ज रागं॥ कदाचित् मन संयम से बाहर निकल जाए तो साधु यह विचार -दस. अ.२, मा. ४ करके राग भाव को दूर करे कि "वह मेरा नहीं है और न मैं ही उसका हूँ।" अहेगे धम्ममादाय आदाणप्पमिति सुप्पणिहिए घरे अप्पलीय- कई साधक मुनि धर्म को ग्रहण करके धर्माचरण में इन्द्रिय बहे। और मन को समाहित करके चंचलतारहित हो स्थिरतापूर्वक विचरण करते हैं। सव्वं गेहि परिणाय एस पणए महामुणी । धे महामुनि समग्र आसक्ति को छोड़कर संयम में पुरुषार्थ करते हैं। मतियच्च सम्बओ संग, "ण महं अस्थि ति एगो अहमंसि" फिर सर्वथा संघ का त्याग करके "मेरा कोई नहीं है इसनयमाणे। लिए मैं अकेला हूँ" ऐसा चिन्तन कर संयम में यरन करते है। एत्य विरते अणगारे सम्वतो भूरे रीयंते जे अचेले परिसिते वह संग्रम में स्थित विरत अनगार सब प्रकार से मुण्डित संचिक्षति भोमायरियाए। होकर विचरण करता हुआ अवमोदरिका के हेतु अल्प वस्त्र या निस्सा रहता है। से अकुचा , हतेवा, तूसिते वा, पलियं पर्ग, अनुवा उसे कोई आक्रोश वचन कहे. मारे, पीटे, केश आदि स्त्रींचे, पर्गणं, असहेहि सहफासेहि। पहले किए हुए किसी धुणित दुष्कर्म की याद दिलाकर अथवा तथ्यहीन शब्दों द्वारा दोषारोपण करे । हति संखाए एगतरे अण्णतरे अभिणाय तितिक्खमाणे ऐसी स्थिति में मुनि उन अनेक उपसर्गों को अपने कर्मोदय परिवए। का फल जानकर सम्यक् चिन्तन द्वारा समभाव से सहन करता हुआ संयम में विचरण करे। यहिरी व अहिरोमणा या सवं विसोसियं सफासे वे उपसर्ग सज्जाकारी हों या अलज्जाकारी हों सम्यग्दी फासे समितवंसगे। मुनि सभी बाधामों को दूर करता हुआ उन कष्टों को मम्यक प्रकार से सहन करे। एते भो ! णगिणा बुत्ता जे लोगसि अपारमण धम्मिणो। हे मानवो ! धर्म क्षेत्र में उन्हें ही भावनम्न निम्रन्थ कहा -मा. सु.१,म.६, उ. २, सु. १०४-१५ गया है जो मुनिधर्म में दीक्षित होकर पुनः गृहवास में नही आते। अणिच्चा भावणा अनित्य-भावना७९२. आहारोपया वेहा परोसह पर्मगुरा। पासह एगे सबिबिएहि ७६२. यह शरीर आहार से परिपुष्ट होता है और भूख प्यास परिगिलायमाणेहि । ओए वयं पति । आदि परीषहों के आने से यह क्षीण हो जाता है। ऐसी स्थिति -आ. सु. १, अ. ८, ३. ३, सु. २१०(क) में कायर साधक सभी इन्द्रियों से दुःख का अनुभव करते हुए देखे जाते है, किन्तु राग द्वेष रहित समभावी मुनि इस अवस्था में भी संयम का पूर्णरूपेण पालन करते हैं। अंसरण भावणा अशरण भावना७९३. वित्तं पसयो य नाइओ, तं बाले सरणं ति मन्नई। ७६३. अज्ञानी जीव बन, पशु और ज्ञातिजनों को अपना शरणएसे मम भुषी अहं, नो ताणं सरणं न विजई ।। भूत समझता है । ये मेरे हैं मैं इनका स्वामी हूँ, किन्तु वास्तव में ये उसके लिए न त्राणरूप है और न थरणरूप है। -- - - - Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६] चरणानुयोग-२ मैत्री भावना पूत्र ७१३-७९६ अम्मागमितमि धातुहे, अहवा उपकमिते भवंतिए । जब प्राणी के ऊपर किसी प्रकार का दुःख आ पड़ता है तब एगस्स गई । आगई, बिदुभता सरणं ण मन्नई ॥ वह उसे अकेला ही भोगता है तथा उपक्रम के कारणों से आयु -सूय सु. १, अ. २, उ. ३, सु. १६-१७ नष्ट होने पर या मृत्यु उपस्थित होने पर वह अकेला ही परलोक में जाता है तथा वहाँ से मरकर पुनः अकेला ही आता है। इस लिए विद्वान पुरुष किसी को अपना शरण नहीं मानते। मेत्ती भावणा मैत्री भावना७६४. पुरिसा ! तुममेव तुम मित्तं, कि यहिया मित्तमिच्छसि। ७९४. हे पुरुष ! तुम ही तुम्हारे मित्र हो फिर बाहर अपने से -आ. सु. १, अ. ३, उ. ३, सु. १२५ भिन्न मित्र क्यों दूद रहे हो? जावन्तविज्जपुरिसा, सखे ते बुक्खसंभवा । जितने भी अविद्यावान अज्ञानी पुरुष हैं, वे सब अपने लिए लुप्पन्ति बहुसो मूढा, संसारंमि अणम्तए । दुःख उत्पन्न करने वाले हैं। वे मूढ़ बने हुए इस अनन्त संसार में बार-बार दुःखों से पीड़ित होते हैं। समिक्ख पडिए तम्हा, पासजाईपहे बहू। इसलिए पण्डित पुरुष अनेक बन्धनों और जन्म मरण के अप्पणा समेसेज्जा, मेत्ति भएसु कम्पए ।। स्थानों की समीक्षा कर स्वयं सत्य धर्म की गवेषणा करे और --उत्स. अ. ६, गा.१-२ सब जीदों के प्रति मंत्री का आचरण करे। संबर भावणा संवर भावना७६५ सम्हाऽतिविजो परम ति गया, ७६५. हिंसादि पाप के फल का ज्ञाता विद्वान मुनि परम-मोक्ष आर्यकर्वसी ग करेइ पात्र । पद को जानकर कभी भी पाप कर्म में प्रवृत्त नहीं होता। अग्गं च मूलं च विगिच धीरे, हे धीर ! तू अग्र अघाति कर्म (और मूल) धाति कर्म को पलिछिरियाणं णिकम्मरसी ॥ दूर कर, उन कमों को उन्मूलन करने से निकमंदी हो जाता है। एस मरणा पमुश्चति, सेविटुपये मुणी। वह आत्मदर्शी मुनि मरण से मुक्त हो जाता है, वही दास्तव में कर्म और संसार भय का द्रष्टा है। अथवा मोक्ष मार्ग का जाता है। लोगसि परमवंसी विवित्तजीवी उवसन्ते, समिते सदा-जते लोक में जो परमदर्शी है, राग-ष रहित शुद्ध जीवन जीता कालमखी परिवए। है, उपशान्त है, पांच समितियों से समित है, ज्ञानादि से सहित अ.सु. १, अ. ३, उ. २, सु. ११५-११६ है और सदा संयमशील होकर पण्डित भरण की आकांक्षा करता हुमा विचरण करता है। संयम में पराक्रम-६ पण्णावताण परक्कम प्रज्ञावानों का पराक्रम७६६. एवं तेसि महावीराण निरराय पुम्बाई वासाईरीयमाणार्ण ७६६. चिरकाल तक पूर्यो या वर्षों पर्यन्त संयम में विचरण करने दवियाणं पास अहियासियं। वाले, चारित्र संपन्न तथा संयम में प्रगति करने वाले महान वीर साधुओं ने जो परीषहादि सहन किये हैं। उसे तू देख । आगतपण्णागाणं किसा बाहा भवंति, पयगुए य मंससोणिए। उन प्रज्ञावान मुनियों की भुजाएँ कृश होती हैं, उनके शरीर में रक्त मांस बहुत कम हो जाते हैं । Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूब ७१६-७६९ पण्डित का पराकम बीर्याचार [३९७ विसेणि कट्ट परिणाय एस तिष्णे मुसे विरते विवाहिते। संसार-वृद्धि कराने वालो राग-द्वेष कषायरूप श्रेणी संतति -आ. सु. १, अ.६. उ. ३, सु. १८७-१८८(घ) को प्रज्ञा से जानकर उसे छिन्न-भिन्न करता है। बही मुनि तीर्ण. मुक्त एवं विरत कहलाता है। पंडियस्स परक्कम -- पण्डित का पराक्रम७६५. एवं जाणित्तु दुक्खं पत्तेयं सातं । मणभिक्कतं च खलु वयं ७६७. 'प्रत्येक प्राणी का सुख और दुःख अपना-अपना अलग है', संपेहाए सगं जाणाहि पंबिते । यह जानकर तथा 'यौवन एवं पाक्ति अभी समाप्त नहीं हुई है। पण्डित पुरुष ऐसा विचार कर अवसर को जानकर धर्म का आचरण करे। -जाव-सोथपण्णाणा अपरिहीणा, जाय-तपण्णागा अपरि- जब तक श्रोत्र-प्रज्ञान, नेत्र-प्रज्ञान, प्राण-प्रज्ञान, रसनाहोणा, जाब-घाणपणाणा अपरिहोणा, -जाव-जोहपणाणा प्रज्ञान और स्पर्श-प्रज्ञान परिपूर्ण है, इन अनेक प्रार की शारीअपरिहोणा, जाव-फासपश्याणा अपरिहीणा इच्चेहि विरूव- रिक शक्तियों के परिपूर्ण रहते हुए आत्महित के लिए सम्यक् स्वेहि पणाणेहि अपरिहोणे हि माय सम्म समणुवा- प्रकार से प्रयत्नशील बने । सेम्जासि। -आ. सु. १, अ. २, उ. २, सु. ६८ समत्तदसिस्स परक्कम समत्वदर्शी का पराक्रम७१८. मणी मोग समावाय, धुणे कम्म-सरीरगं । ७६८. मुनि संयम स्वीकार कर कर्म-शरीर को प्रकम्पित करे पंतं गुहं सेवंति, वीप समत्तबंसिणो ॥ अथात् कर्म क्षय करने में पुरुषार्थ करे। यह जानकर समस्वदर्शी वीर नीरस और रूक्ष आहार आदि का सेवन करते हैं। एस ओघतरे मणी तिष्णे मुसे विरते वियाहिते ति बेमि । संसार समुद्र को पार करने वाला मुनि तीर्ण, मुक्त और -आ.सु. १, अ. २, उ. ६, सु. १६ (ख-ग) बिरस कहलाता है। जाति च बुदिध व हज ! पासे, हे आर्य! तू इस संसार में जन्म और जरा के दु:खों को भूतहिं जाग पडिलेह सात। देख ! तथा सभी जीवों के विषय में जान कि वे सभी सुख ही सम्हा तिविग्जो परमं ति बच्चा, चाहते हैं । भक्तः मोक्ष मार्ग को जानकर समरवदी बिद्वान मुनि समतवंसी ग करेति पावं किसी भी पाप कार्य में प्रवृत्त नहीं होता है। -था. सु. १, अ. ३, उ. २, सु. ११२ का अरघ के आणवे? एत्यपि अगहे परे । योगी के लिए भला क्या अति (शोक) है और क्या सम्म हासं परिचम मल्लीणगुत्तो परिव्वए । मानन्द है? इन दोनों अवस्थाओं से रहित होकर विचरण करे। -आ. सु. १, अ. ३, उ. ३, सु. १२४ वह सभी प्रकार के हास्य आदि का त्याग करके इन्द्रियनिग्रह तथा मन-वचन-काया को गुप्त करते हुए विचरण करे । मुत्तत्त सहवं मुक्तात्मा का स्वरूप७६६. जं आणेजा उपचालयं सं जाणेज्जा दूरालयं, जाना ७६६. जिसे तुम परम तत्व में स्थित जानते हो, उसे मोक्ष मार्ग पूरालइयं तं जागेज्जा उपचालयं । में स्थित जानो। जिसे तुम मोक्ष मार्ग में स्थित जानते हो उसे -था. सु.१, भ. १, उ. ३, सु. १२५ ही परम तत्व में स्थित जानो। धीरस्स परक्कम वीर पुरुष का पराक्रम - ८००. एम वीरे पसंसिए ने पवे पविभोयए। ८००, वह वीर प्रशंसा के योग्य है, जो कर्मों से बंधे हुए मनुष्यों को मुक्त करता है। उपट अहं तिरिय दिसामु से समबती सवपरिग्णाचारी ण वह कुशल साधक ऊँची दिशा, नीची दिशा और तिरछी लिपति छपरवेण वीरे। दिशाओं में सब प्रकार के समग्र विवेक के साथ चलता है। वह -आ. सु. १, ब. २, उ. सु.१०३ वीर हिंसा आदि पाप स्थान से लिप्त नहीं होता। Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८] चरणानुपौग-२ वीर पुरुष का पराक्रम सूत्र ८०० ने खलु भो ! वीरा समिया सदा जया संघव सिणो आतो. "हे आर्यो ! जो साधक बीर है. पांच समितियों से सम्पन्न धरता अहा तहा लोग उवेहमाणा पाईगं पडोणं वाहिणं है, ज्ञानादि से सहित हैं, सदा संयत है, सतत जागरूक हैं. पापों उदोण हय सच्चसि परिविचिदिसु । साहिस्सामी गाणं वीरा से उपरत हैं, यथावस्थित लोक के स्वरूप को देखते हैं, पूर्व, समियागं सहियाणं सदा जयाणं संधश्वंसीषं आतोवरताणं पश्चिम, दक्षिण और उतर सभी दिशाओं में सर्वत्र सत्य (संयम) अहा तहा लोगमुव्हमाणाणं । में स्थित हैं, उन वीर समित, सहित, सदा यतनाशील, सतत जागरूक, पापों से उपरत, लोक के यथार्थ द्रष्टा शानियों के सम्यक ज्ञान की हम भी आराधना करेंगे" ऐसा साधक विचार करे । ५०–किमाथि उवाही पासगस्स ण विज्जति ? प्र-सत्यद्रष्टा बीर के कोई उपाधि होती है या नहीं? उ. णस्थि । - आ. सु. १, थ.४, उ.४, सु. १४६ 30-उसके कोई उपाधि नहीं होती है। आषोलए पीलए णिप्पोलए जहिता पुण्यसंजोग हिच्या ___ मुनि पूर्व संयोग का त्याग कर संयम स्वीकार करके पहले उखसम। कर्म व शरीर का आपीडन करे, फिर प्रपीडन करे और तदनन्तर निष्पीडन करे अर्थात् उत्तरोत्तर तप वृद्धि करे। तम्हा अविमणे वीरे सारए समिए सहिए सवा जए । इसलिए वीर मुनि सदा विषयों के प्रति रति और शोक से मुक्त आत्मरत समितियों से मुक्त और सामादि से सहित होकर सदा संयम में पल्ल करे। तुरणुचरो मग्गो वीराणं अगियट्टमामीणं, विगिध मंस मोक्षगामी वीर पुरुषों के मार्ग पर चलना कठिन होता है। सोगित। अतः हे शिष्य ! तू तपश्चर्या के द्वारा मांस और खून को सुखा दे। एस पुरिसे दविए वोरे आयाणिज्जे बियाहिते मे घुणाति जो साधक संयम स्वीकार कर कर्म क्षय करने में पुरुषार्थ समुस्सयं वसित्ता बंभचेरसि । करता है वही पुरुष मोक्षार्थी वीर और संयमवान् कहा जाता है। --आ. सु. १, अ. ४, उ. ४, सु. १४३ कोहाइमाणं हणिया य वीरे, __ वीर पुरुष कषाय के आदिभूत अंग क्रोध और मान को नष्ट लोभस्स पासे णिरयं महंत । करे । लोभ को महान नरक के रूप में देखे । अतः लघुभूत मोक्षतम्हा य वीरे विरते वहाओ, गामी वीर हिंसा से विरत होकर विषय-वासना रूप माधव डिविषन सोयं लभूयगामी ॥ स्थानों को छिप-भिन्न कर डाले। गंपं परिणाय इहज वीरे, वीर पुरुष इस लोक में राग-द्वेष भादि कर्म बन्ध के कारणों सोयं परिणाय चरेक्ज बन्ते । को ज्ञपरिक्षा से जानकर प्रत्याख्यान परिशा से तत्काल ही छोड़ उम्मुगग- लई यह माणवेहि, दे, इसी प्रकार इन्द्रिय विषयों को भी जानकर दमितेन्द्रिय बन जो पाणिणं पागे समारंभेज्जासि ।। कार संगम में विचरण करे। इस मनुष्य जन्म में ही जीव को कर्मों से उन्मुक्त होने का अवसर मिलता है। अतः प्राणियों के प्राणों का संहार आदि सावध कार्य न करे। तम्हा रवि इक्स पंडिए, इसलिए राग-द्वेष रहित पण्डि- मुनि गुण दोषों का विचार पावाओ विरतेऽमिनिम्बु।। कर पाप से विरत और कषायों से उपशान्त हो जाए। वीर पणपा वीरा महाबीहि, पुरुष लक्ष्य तक ले जाने वाले उस शाश्वत महापय के प्रति सिक्षिपहं याज्यं धुर्व ॥ उद्यमशील होते हैं जो कि सिद्धि का मार्ग है। वेतालियमगमागओ, मणं वयसा कारण संबुडो। कमों का नाश करने वाले संयम मार्म को प्राप्त कर मुनि खेच्चा वित्तं च पायओ, आरंभं च सुसंघु चरेग्जासि ॥ मन, बचन और काया से संवृत होकर धन स्वजन और आरम्भ -सूय, सु. १, अ. २, उ.१, मा. २१-२२ का सम्पूर्ण त्याग कर संयम में ही विचरण करे । Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ८००-८०२ भिक्षु का पराकम वोर्याचार [३६६ - - - - सुस्यसमागो उबासेज्जा, सुप्पण्णं सुतवस्सियं । जो आत्मप्रज्ञा के अन्वेषी, धृतिमान और जितेन्द्रिय वीरमुनि वीरा जे असपण्णेसी, धितिमंता जितिदिया ॥ हैं ये प्रज्ञावान तपस्वी गुरु की सेवा भक्ति युक्त उपासना करें। गिहे बीयमपस्संता, पुरिसाचाणिया मरा। ___गृहबास में प्रकाश न देखने वाले मनुष्य प्रनजित होकर पुरुषाते वीरा यहणुम्मुक्का, नायखति जीवितं ।। दानीय (आदरणीय पुरुष) हो जाते हैं। वे वीर मनुष्य अन्धन से - सूच, सु. १, २,गा. ३३-३४ मुक्त हो जति है और कभी असंयमी जीवन की इच्छा नहीं करते। दुबख लोगस्स आणित्ता बंता लोगस्स संजोग, जंति वीरा लोक के दुःखों को जानकर वीर साधक लोक संयोगों का महाजाणं । परेण परं अंति, णायकवनि जीवित। परित्याग कर मोक्षपथ को प्राप्त करते हैं। वे आगे से आगे --आ. सु. १, अ, ३, उ. ४, सु. १२६ बढ़ते जाते हैं, किन्तु असंयम जीवन की आकांक्षा नहीं करते। भिक्खुस्स परक्कम -- भिक्षु का पराकम-- ८०१. भारस्स आता मुणि मंत्रएज्जा, ८०१. मुनि संयम-मार को वहन करने के लिए भोजन करे। कखेज पावस्स विवेग भिक्खू । पाप से सदा दूर रहने की इच्छा करे । दुःल से स्पृष्ट होने पर लुक्खेण पुढे धुपमातिएग्जा, शांति रखते हुए संयम का आमरण करे, युद्ध भूमि में जैसे सुभ? संगामसीसे व परं दमेजा।। पुरुषत्र के योद्धा का दमन करता है, उसी तरह साध कर्म रूपी शत्र का दमन करे। अनि हम्ममाणे फलगावती, किसी के द्वारा मारे जाने पर भी काष्ट पलक की भांति समागम कति अंतगहस । रहकर मुनि पण्डित मरण की आकांक्षा करता है। यह कर्म को मिधूय काम ग पवंचुप्ति, क्षीण कर जन्म-मरण के प्रपंच से छूट जाता है। जैसे कि धुरा अक्खरखए वा सग तिबेमि ॥ के टुट जाने पर गाड़ी का गमनागमन रुक जाता है। -सूय. सु. १, अ.७, गा. २६-३० आयगुत्त भिक्खस्स परक्कम आत्मगुप्त भिक्षु का पराक्रम-- ८०२. भिपखं चलतु पुट्ठा वा अपुट्ठा पा जे इमे आहाच गंधा ८०२. भिक्षु से पूछकर या बिना पूछे ही बनाए हुए आधाकर्मी फुसंति से हता हणह, खणह, छिवह, वहह, पत्रह, आलंपह, आहार के न लेने पर कोई गृहस्थ भिक्षु को कदाचित् रस्सी बिसंह, सहसक्कारेह, विष्परामुसह। ते फासे पुट्ठो धौरो आदि से बांध दे और आक्रोश में आकर नौकर आदि से कहे अहियाप्सए। वि-'इस को पीटो, घायल कर दो, हाथ पैर आदि अंग काट डालो, इसे जला दो, इसका मांस पकाओ, इसके वस्त्रादि छीन लो, इसका सब कुछ लूट लो, जल्दी ही इसे मारो, इसे अनेक प्रकार से पीड़ित करो", उन दुःख रूप कष्टों के आ पड़ने पर धैर्यवान मुनि उन्हें समभाव से सहन करे। अदुवा आयारगोयरमाइक्से तक्कियाणमणेलिसं । अवुवा यह आत्मगुप्त मुनि उस पुरुष की योग्यता का विचार कर उसे गृत्तीए गोयरस्स अणु पुष्येण सम्म पडिलेहाए आयगुत्ते बुद्धहि मात्राचार समझाये अथवा अनुपम धर्म का स्वरूप समझाये। एवं पवेदितं। योग्य न हो तो मौन पूर्वक रहे। इस प्रकार अनुक्रम से पर्या-आ. मु. १, अ. ८, उ.२, सु. २०६ लोचना करते हुए एषणा समिति का सम्यक् रूप से पालन करे । ऐमा तीर्थकरों ने प्रतिपादन किया है। अप्पमसो कामेहि जवरतो पावकम्मेहि, धीरे आयगुत्ते खेयाणे, जो काम भोगों के प्रति अप्रमत्त है और पापकमों से उपरत है वह पुरुष यौर बात्मगुप्त और खेदज्ञ होता है। जे पज्जवजायसत्यस खेयपणे से असत्यस्स खेपणे । जे जो शब्दादि विषयों को विभिन्न पर्यायों से होने वाले मसत्याहस खेयष्णे से पज्जवजायसत्यस्स खेयरणे । असंयम को जानता है वह संयम स्वरूप को जानता है जो संयम -आ. सु. १, अ. ३, उ. १, मु. १०६ के स्वरूप को जानता है वह विपयों की विभित्र पर्यायों से होने वाले असंयम को जानता है । Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४००J बरमामुयोग--२ मेघावो मुनि का पराक्रम मूत्र ८०२-०३ पुरिसा ! असाणमेव अभिणिगिज्म, एवं दुक्खा पमोक्खसि। हे पुरुष ! तू अपनी आत्मा का ही निग्रह कर ऐसा करने से --आ. सु. १, अ. ३, उ. ३, सु. १२६ तू दुःख से मुक्ति प्राप्त कर सकेगा। इमेव चंब जुमाहि, कि ते जुग्ण बजातो? इम कर्म-पारीर के साथ ही युद्ध कर, दूसरों के साथ युद्ध करने में तुझे क्या मिलेगा? शुबारिह बसु बुल्लभ । जहेस्य कुसलेहि परिणाविवेने भाव युद्ध के योग्य मनुष्य शरीर प्राप्त होना अवश्य ही मासित। -आ. सु. १, अ. ५, र. ३, सु. १५६ दुर्लभ है । इस जिन शासन में तीर्थंकरों में जिस प्रकार से परिज्ञा और विवेक बताये हैं। सम्वत्य संमतं परावं ! तमेव उपातिकम्म एस महं विवेगे पाप सर्वत्र सम्मत है मैं उसी पाप का निकट से अतिक्रमण वियाहिते। -आ. सु. १, अ. ८, उ. १, सु. २०२ (क-ख) करके स्थित हूँ यह मेरा विवेक कहा गया है। से एगे संविङपहे मुगी अग्रणहा तोगमुवेहमाणे। वास्तव में वही मुनि मोक्षपथ पर प्रगतिशील होता है जो वीतराग मार्ग से विपरीत आचरण करने वाले लोगों की उपेक्षा करता रहता है। पति कम्म परिष्णाय सध्यसो ! से ण हिंसति, संगाल, मो . इस प्रकार और कारणों को सम्यक् प्रकार से जान पगठमति, उन्हमाणे पत्तेयं सातं, वण्णाएसौ गारमे कंचणं कर भिक्षु किसी प्रकार की हिंसा नहीं करता और संयम का सावलोए। आचरण करता है पाप कार्य में घृष्टता नहीं करता, प्रत्येक प्राणी के सुख का विचार करते हुए संयम का इच्छुक मुनि समस्त लोक में कुछ भी आरम्भ न करे । एगप्पमुहे विदिसम्पत्तिणे णिग्विण्णचारी अरते पयामु। वह एक मात्र मोक्ष को चाहने वाला संसार मार्ग से प्रतीर्ण और विरक्त होकर विचरने वाला मुनि स्त्रियों के प्रति अनासक्त से पसुमं सम्वसमण्णागत पणाणेण अपाणेण अकरणिज्जं विशिष्ट प्रज्ञावान संयमधारी मुनि के लिए अन्तःकरण से पावं कम्म तं जो अण्णेमी। पाप कर्म अकरणीय है, अतः साधक उनका अन्वेषण न करे । - आ. सु. १, अ. ५, उ. ३, सु-१५९-१६० अप्पा चेव दमेयरवो, अप्पा हु खलु बुद्दमो । आत्मा का ही दमन करना चाहिए क्योंकि आत्मा का दमन अप्पा बम्तो सुही होइ, अस्सि लोए परत्य य ।। करना बड़ा कठिन है आत्म दमन करने वाला ही इहलोक और परलोक में सुखी होता है। वरं मे अप्पा बन्ती, संजमेण तवेण य। अच्छा पहो है कि मैं संयम और तप के द्वारा अपनी आत्मा माहं परेहि दम्मतो बन्धहि बहेहि य ॥ का दमन करूं दूसरे लोग बन्धन और वध के द्वारा मेरा दमन -उत्त. अ. १, सु. १५-१६ करें-यह अच्छा नहीं है । मेहावी मुणिस्स परक्कम मेधावी मुनि का पराक्रम८०३. सदी आणाए मेधावी । ८०३. वीतराग की आज्ञा में श्रद्धा रखने वाला मेधावी होता है। लोग च आणाए अभिसमेच्या अकुतोभयं । वह जिनवाणी के अनुसार षट्जीवनिकाय रूप लोक को जानकर पूर्ण अभयदाता हो जाता है। अत्यि सस्थं परेण परं, गरिय असत्यं परेण परं। शस्त्र (असंयम) एक से एक बढ़कर तीक्ष्ण से तीक्ष्णतर होता है किन्तु अश्वस्त्र (संयम) एक से एक बढ़कर नहीं होता अर्थात् वह एक रूप होता है। में कोहयसी से माणदंसी, जो क्रोधदर्शी होता है, वह मानदी होता है, जे माणसो से मायासी। जो मानदर्शी होता है, वह मायादी होता है, से मायादसी से सोमबंसी। जो मामादर्शी होता है, वह लोभदर्शी होता है। Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूत्र ०३ मेधावी मान का पराक्रम धीर्माचार [४०१ जे लोमसी से पेज्जदसी, जो लोभदर्णी होता है. वह रागदर्शी होता है, जे पेजवंसी से दोसईसी, जो रागदी होता है, वह देषदर्शी होता है, जे बोसदसी से मोहवंसी, जो द्वेषदर्शी होता है, वह मेहदी होता है जे मोहर्दसी से गम्मवंसी, जो मोहदों होता है, वह गर्भदर्शी होता है, जे गम्भदंसी से जम्मदंसी, जो गर्मदर्शी होता है, वह जन्मदर्शी होता है, से जम्मवंसी से मारवंसी, जो जन्मदशी होता है, वह मृत्युदर्शी होता है, जे मारदप्ती से णिरयवंसी, जो मृत्युदर्शी होता है. वह नरकदर्शी होता है, जे णिश्यवंसी से सिरियदंसी, जो नरकदर्शी होता है, वह तिय चदर्शी होता है, जे तिरियदंसी से दुक्ख इसी। जो तिर्यचदर्शी होता है, वह दुःखदर्शी होता है। से मेहावी अभिणियमा मोहंच, मागंच, माय च, लोह मेधावी क्रोध, मान, माया, लोभ, राग-द्वेष, मोह, गर्भ, च, पेज घ. दोसंच, मोहं च, गरुमं च, जम्म च, मार च, जन्म, मृत्यु, नरक, तिर्यंच और दुःख को छोड़ दे। गरगं न, तिरिय च, दुक्खं च । एवं पाप्लगस्स बसण उबरयसत्पस्स पलियंतकरस्स, ___ यह समस्त कर्मों का अन्त करने वाले, हिंसा आदि असंयम से उपरत एवं निराकरण द्रष्टा तीर्थकर भगवान का उपदेश है। आयाणं निसिद्धा सगळिम, जो पुरुष कर्म बन्ध के कारणों को रोक देता है, वही स्व कृत कर्मों का भेदन कर पाता है। ५. किमस्थि जवाही पासगस्स, विज्जति, F- क्या सर्व द्रष्टा को कोई उपाधि होती है या नहीं ? उ०–णस्थि । आ. सु. १, अ. ३, उ. ४, सु. १२६-१३१ उ०—नहीं होती है। बहुं च खलु पावं कम्म पर। ___ इस जीव ने भूतकाल में अनेक प्रकार के पापकर्मों का बन्ध किया है। सच्चमि धिति फुबह । एत्योवरह मेहाची सव्वं पावं कम्म अतः घेयं रस्त्रते हुए संयम पालन करते रहना चाहिए । सोसेति । -आ. सु. १, अ. ३.स.२, सु. ११६ ११७ सयम में लीन रहने वाला मेधावी समस्त पापकों का क्षय कर डालता है। पुरिसा ! सच्चमेव समभिजाणाहि । सच्चस्स आणाए उव- हे पुरुष ! तू सत्य को ही भलीभांति समझ । सत्य की आज्ञा द्विए से मेहायो मार तरति। में उपस्थित रहने वाला मेधावी संसार को पार कर लेता है। -आ. सु. १, अ. ३, उ. ४, सु १२७ जे महं अबहिमणे। जो महान होता है, उसका मन बाहर नहीं होता । पवारण पवायं जाणेज्मा सहसम्मुझ्याए परवागरण अण्णसि पूर्व जन्म की स्मृति से, तीर्थकर से प्रश्न का उत्तर पाकर घा अंतिए सोचा। या किसी अतिशय ज्ञानी से सुनकर तीर्थंकरों के बचन से विभिन्न दार्शनिकों के वाद को जानना चाहिए। णिधेसं पातिवत्तेज्ज मेहावी, मेधावी भगवदाज्ञा का अतिक्रमण न करे। सुपडिलेहिय सध्यमओ सरुवताए सम्ममेव समिजाणिया। किन्तु सब प्रकार से भली भांति विचार करके सम्पूर्ण रूप से सम्यक् पालन करे। इह आरामं परिणाय अस्लोणगुसो परिक्वए निद्रियट्ठी वीरे इस जिनशासन में संयम को स्वीकार कर सर्व प्रकार से मागमेणं सदा परकमेज्जासि । आत्मगुप्त होकर विचरण करे, तथा मोक्षाभिलाषी वीर मुनि -आ. सु. १, अ. ५, उ. ६, सु. १७२-१७३ सदा आगम निर्दिष्ट आदेश के अनुसार ही पराक्रम करे।। अकम्मस यवहारो ण विमति । कर्मों से मुक्त आत्मा के लिए कोई व्यवहार अर्थात् संसार 'भ्रमण नहीं होता। कम्मुणा उवाही जायति । संसार भ्रमण रूप उपाधि (दुःख) कर्म से ही होती है । Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०२] धरणानुयोग-२ - - महषि का पराक्रम सूत्र ८०३.०६ कम्मं च पडिलेहाए कम्ममूलं च ज छणं, परिलहिय सम्वं अतः कर्म का मली गति पर्वालोचन करे तथा कर्म का मूल समायाय बोहि तेहि अदिस्समाणे । हिमा आदि है, उनका भी भली भांति निरीक्षण करके संयम ग्रहण करे तथा राग और द्वेष दोनों से दूर होकर रहे। तं परिष्णाय मेहावी विदित्ता लोग वंता लोगसणं से मतिम इस प्रकार सम्यग परिज्ञान कर मतिमान साधक लोक को परक्कमेम्मासि। जानकर लोकसंज्ञा का त्याग करके संयम राप में सम्यक् पराक्रम -या. मु. १, २, ३, उ. १. सु. ११०-१११ करे 1 महेसिस्स परक्कम महषि का पराक्रम८०४. अवरेण पुण्वं प सरंति एगे, २०४. कुछ अज्ञानी पूर्व या पश्चात् काल का स्मरण नहीं करते। किम्मस्त तीतं किं वाऽऽयमिस्सं ? वे इसकी चिन्ता नहीं करते कि- इसका अतीत क्या था, भासंति एगे छह माणवा तु, भविष्या होगा?' मीट मा भविष्य में आत्मा के अस्तित्व जम्मस्स तीतं तं आगमिस्स ।। को स्वीकार नही करते । जातीतम?ण य आगमिस्स, कुछ अज्ञानी ऐसा कहते हैं कि-"जो अतीत में जैसा होता अटुं जियछंति तथागता उ। है भविष्य में भी वैसा ही बनता है" किन्तु सर्वज्ञों का सिद्धांत यह विधूत कप्पे एतापस्सी, है कि "अतीत की अवस्था वर्तमान में होने का और वर्तमान की णिजमोसहत्ता खवगे महेसी । अवस्था ही भविष्य में होने का नियम नही है अर्थात् कर्मानुसार -आ. सु. १, अ. ३, उ. ३, सु. १२४ अवस्था परिवर्तित होती है। इस सिद्धांत का विचार कर विधृत कल्प (संयम) में उपस्थित महषि सम्पूर्ण कर्म क्षय कर मोक्ष प्राप्त करता है। परिरोगह परिच्चाए अपमसस्स परक्कम परिग्रह के परित्याग में अप्रमत्त का पराक्रम - ८०५. से सुपडियुर सुवणीयं ति गच्चा पुरिसा! परमचक्खू ! ८०५. वह परिपह से विमुक्त मुनि सम्यक् प्रकार से प्रतिबुद्ध है विपरिक्कम । एतेसु चेव यंभचरं। उसी का संयम परिपुष्ट है यह जानकर, हे परम चक्षुष्मान पुरुष! तूं परिग्रह त्याग में सम्यक पराक्रम कर, ऐसा पराक्रम करने वाले में ही ब्रह्म य (संयम) स्थित रहता है। से सूतं च मे अमस्यं च मे-"बंधपमोक्यो अज्मत्येव ।" मैंने सुना है और अनुभूत किया है कि "बन्धन से मुक्ति संयमी आत्मा द्वारा ही सम्भव है।" एस्य विरते अणगारे दोहरायं तितिक्मए। इस परिग्रह से विरत अनगार परीषहों को जीवन पर्यन्त सहन करे। पमते बहिया पास, अप्पमत्तो परिभए । जो प्रमत्त है, उन्हें निग्रंथ धर्म से बाहर समन्न । अतएव मुनि अप्रमस होकर संयम में विचरण करे । एवं मोर्ष सम्म अणुवासेज्जासि । इस प्रकार पराक्रम द्वारा मुनि धर्म का सम्यक् पालन करे । ---आ. सु. १, अ. ५, उ. २, सु. १५५-१५६ कम्म भेयणे परक्कम कर्म भेदन में पराक्रम५०६, से वंता कोहं च, माणं च, मायं घ, लोभं च, एवं पासगस्स ८०६, संयमनिष्ट मुनि क्रोध, मान, माया और लोभ का वमन . सणं उबरतसस्थस्स पलियतफरस्त, आयाणं सगाभि । करे, हिंसा से उपरत तथा समस्त कर्मों का अन्त करने वाले ~ आ. सु. १, अ. ३, ३.४, सु. १२८ सर्वश-सर्वदर्शी तीर्थकर प्रभु का यह कथन है कि- 'जो कर्म बन्ध के कारणों का निरोध करता है, वही स्वकृत कर्मों का नाश करने वाला है।' Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ८०-८०८ कषायों को कृश करने का पराक्रम वीर्याचार [४०३ कसाय पयणु करणे परक्कमो - कषायों को कृश करने का पराक्रम... ०७. इह आणाखी पंडिते अणिहे, एगमध्याणं संपेहाए धुणे ८०५. इस वीतराग आज्ञा का आकांक्षी पण्डित मुनि अनासक्त सरीरं, कसेहि अप्पाणं जरेहि अध्याणं । जहा जुनाई कटाई होकर एकमात्र आत्मा को देखता हुआ कार्मण शरीर को प्रकम्पित हध्दयाहो पमत्थति एवं अससमाहिते, णिहे । कर ले । अपने कषाय-आत्मा को कृश करे, जीर्ण कर डाले । जैसे अग्नि जीर्ण काष्ठ को शीघ्र जला डालती है, वैसे ही समाहित आत्मा स्नेह रहित होकर तप रूप अग्नि से कर्म-पारीर को जला कर नष्ट कर डाले। विगिंच कोहं अधिकंपमाणे, इमं निरुद्धाज्य संपेहाए । दुक्लं मनुष्य जीवन अल्पायु है यह विचार करता हुआ साधक च जाण अदुवा गमेस्स, पुखो फासाइंच फासे । लोयं न स्थिर चित्त होकर क्रोध का त्याग करे। वर्तमान में अथवा पास विष्फंवमाण। भविष्य में क्रोध से उत्पन्न होने वाले दुःखों को जाने । क्रोधी पुरुष भिन्न-भिन्न नरकादि में विभिन्न दुःखों का अनुभव करता है। संसार के प्राणी दुःखों से संत्रस्त होकर इधर-उधर भटक रहे हैं उन्हें तू देख ! मे णिचुरा पाहि कम्मेहि, अणिदाणा ते वियाहिता : जी गुण पाकमो स है, तो निदान (दुःव रहित) तम्हातिविज्जो णो परिसंजलेज्जासि । कहे गये हैं । इसलिए विद्वान पुरुष ! विषय-कषाय की अग्नि से -आ. सु. १, अ. ४, उ. ३, सु. १४१-१४२ प्रज्वलित न होवे। बंधण विमुत्तिए परक्कम बन्धन से मुक्त होने का पराक्रम८०८. युकिज तिउज्जा, बंधगं परिणाणिया। ८०८. बोधि को प्राप्त करो और बन्धन को जानकर उसे तोड़ फिमाह बंधणं वीरे? किवा जाणं तिउट्टई ।। डालो । शिष्य पूछता है कि-'महावीर स्वामी ने बन्धन किसे कहा है ? किस तत्व को जान लेने पर उसे तोड़ा जा सकता है?' चित्तमसमचितं वा, परिगिज्म किसामवो । जो मनुष्य चेतन या अचेतन पदार्थों में तनिक भी परिग्रहसन्न वा अणजाणाति, एवं दुषखा ण मुच्चई ।। बृद्धि रखता है और दूसरों के परिग्रह का अनुमोदन करता है वह दुःख से मुक्त नहीं हो सकता। सपं तिवायए पाणे, अवुवा अणेहिं घायए। ___ जो परिग्रही मनुष्य प्राणियों का स्वयं हनन करता है. दूसरों हपंतं वाऽणुजाणार, रं बढेति अप्पणो । से हनन करवाता है अथवा हनन करने वाले का अनुमोदन करता है वह अपने पैर को बढ़ाता है। जस्सि फुले समुप्पन्ले, जेहि वा संवले गरे । जो मनुष्य जिस कुल में उत्पन्न होता है और जिनके साथ ममाति लुप्पती माले, अन्नमन्नेहिं मुछिए । निवास करता है वह उनमें ममत्व रखता है । इस प्रकार परस्पर होने वाली मूळ से मूच्छित होकर यह अशानी नष्ट होता रहता है। वित्तं सोयरिया घेव, सबमेत न ताणए । धन और भाई-बहन ये सब रक्षा करने में समर्थ नहीं है संखाए जीवियं-व, कम्मुणा उ तिउति ॥ तथा जीवन' भी क्षणभंगुर है यह जानकर मनुष्य कर्म के बन्धन को तोड़ डालता है। एए गंथे घिउक्कम्म, एगे समण-माहणा। कुछ श्रमण ब्राह्मण इन उक्त धन-परिवार का परित्याग कर अयाणता विस्सिता, सत्ता कामेहि माणवा ।। देते हैं किन्तु विरति और अविरति के स्वरूप को नहीं जानते --सूय. सु. १, अ. १, उ. १, पा. १-६ हुए भी गर्व करते हैं। वे अज्ञानी पुरुण कामभोगों में आसक्त हो जाते हैं। Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०४) घरणानुयोग-२ सोका ही आत्मश सूत्र ८०६-८१२ लोगविष्णु एव अत्तविपण - लोकज्ञ ही आत्मज्ञ६. लोगं च प्राणाए अभिसमेच्चा अकुतोभयं ! ५०६. मुनि अप काय रूप लोक को भगवान की आशा से जानकर उन्हें किसी भी प्रकार का भय उत्पन्न न करे।। से बेमि-णेव सयं लोगं अम्माइमखेज्जा, णेक अत्ताणं अबमर- मैं कहता हूं-'मुनि स्वयं अप कायिक जीवों के अस्तित्व का पूक्तेज्जा। निषेध न करे । न अपनी आत्मा का अपलाप करे।' जे लोग अभाइक्ख ति से अत्ताणं अमाइक्खति, जे अत्ताणं जो अपकाय रूप लोक का अपलाप करता है, वह वास्तव अज्भाइक्वंति से लोग अन्भाइक्खंति ।। में अपना ही अपलाप करता है। जो अपना अपलाप करता है, - आ. सु. १, अ. १, उ. ३, सु. २२ वह अप्काय रूप लोक के अस्तित्व को अस्वीकार करता है। आयावाइस्स सम्म परक्कम आत्मवादी का सम्यक् पराक्रम१०.जे आया से विष्णाता, जे विण्णाता से आया । १०. जो आत्मा है वह विशाता है, जो विज्ञाता है वही आत्मा जेण विजाणंति से आया । है, क्योंकि स्व-पर को जानता है इसलिए वह आत्मा है । सं एडुमच पडिसं खाए। उस ज्ञान की विभिन्न परिणतियों की अपेक्षा से आस्मा की पहचान होता है। एस आयावादी समियाए परियाए वियाहिते। इस प्रकार जो आत्म स्वरूप का ज्ञाता है उसी का संयम -आ. सु. १, अ. ५, उ. ५, सु. १७१ पर्याय सम्यक कहा गया है। जाणाइ सहियस्स परक्कम . ज्ञानादि से युक्त मुनि का पराक्रम११. सहित धम्ममादाय सेयं समणुपरसति। ५११. ज्ञानादि से युक्त साधक धर्म को ग्रहण करके आत्म हित का सम्यक् प्रकार से अवलोकन करता है। बुहतो जीवियस परिववण-माषण-पूयणाए जसि एगे राग और द्वेष से कलुषित कई एक प्राणी जीवन निर्वाह के पमायति । लिये वन्दना सम्मान और पूजा के लिए हिंसादि प्रमाद कार्यों में प्रवृत्ति करते हैं। सहिओ दुक्ख मत्ताए पुटरे णो संझाए । ज्ञानादि से युक्त साधक दुःख के अनेक प्रसंग उपस्थित होने पर व्याकुल नहीं होता। पासिम दविए लोगालोगपवंचातो मुच्चति । ___ अतः हे शिष्य ! तू देख कि-'ऐसा संयमी राधिक इस भव -आ. सु. १, अ. ३, उ. ३, सु. १२७ और परभव के समस्त प्रपंचों से मुक्त हो जाता है।' समाही कामी समणस्स परक्कम - समाधि के इच्छुक श्रमण का पराक्रम८१२. जहा य अपडप्पभया बलाया, मण्डं बलागप्पभव बहाय। ८१२, जैसे बगुली अण्डे रो उत्पन्न होती है और अण्डा बगुली से एमेव मोहायतणं खु तह, मोहं च ताहायपणं वन्ति ।। उत्पन्न होता है उसी प्रकार तृष्णा मोह से उत्पन्न होती है और मोह तृष्णा से उत्पन्न होता है : ऐसा ज्ञानी पुरुष कहते हैं। माह तृष्णा रागो य दोसो वि य मम्मबीयं, कम्मच मोहप्पभव वयन्ति। राग और द्वेष ये दोनों ही कर्म के बीज है। कर्म मोह से कम्मं च जाईमरणस्स मूलं, युक्खं च जाईमरणं वयन्ति । उत्पन्न होता है और कर्म ही जन्म मरण का मूल है। जन्म मरण ही दुःख का मूल है ऐसा ज्ञानी पुरुष कहते हैं। चुक्खं हमें जस्स न होइ मोहो, जिसके मोह नहीं है उसने दुःख का नाश कर दिया। जिसके ___ मोहो हो जस्स म होइ तण्हा। तृष्णा नहीं है उसने मोह का नाम कर दिया। जिसके लोभ नहीं तम्हा हया जस्स न होइ लोहो, है उसने तृष्णा का नाश कर दिया। जिसके पास कुछ भी परिग्रह लोहो हो बस्स न किंधणाई॥ नहीं है उसने सोभ का नाम कर दिया। १ बा.सु. १,०१, च. ४, सु. ३२ । Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ८१२-८१३ संयम में पराक्रम करने वाले को मुक्ति बौर्याचार (४०५ राग छ वोर्स च तहेब मोहं, उठत्तकामेण समूलजाल । राग-प और भौह का समूल उन्मूलन चाहने वाले मुनि जे जे उशया पडिज्जियम्वा, ते कित्तहस्सामि अहाणुपुरिव ॥ को जिन-जिन उपायों को स्वीकार करना चाहिए उन्हें मैं क्रमश: -उत्त. अ. ३२, गा. ६-६ कहूंगा। जे इन्दियाणं विसया मना, समाधि चाहने वाला तपस्वी श्रमण इन्द्रियों के जो मनोज्ञ न तेसु मा निसिरे कयाइ। विषय हैं उनमें कभी भी राग न करे लौर अमनोज्ञ विषयों में न या मषुल्लेसु मणं पि कुज्जा, मन से भी दोष न करे। समाहिकामे समणे तवस्सी। -उत्त. अ. ३२, गा. २१ संजमे परक्कंतस्स विमुसि संयम में पराक्रम करने वाले की मुक्ति८१३. एवं ससंकप्प-विकपणा, ८१३. इस प्रकार राग-द्वेषात्मक संकल्प-विकल्पों से निवृत्त होने संमायई समयमुवट्टियस्स । पर मन में समता उत्पन्न होती है तथा इन्द्रिय विषयों के प्रति अत्थे च संकल्पओ तओ से, संकल्प-विकल्प के न रहने से काम गुणों में होने वाली तृष्णा भी पहोयए कामगुणेषु तण्हा ।। नष्ट हो जाती है। स बीयरागो कयसम्बकियो, खबेद नाणावरणं खणणं । फिर वह भीतराग बना हुआ जीव पूर्ण कृतकृत्य होकर क्षण तहेव जं सगमावरेइ ज चन्तरायं एकरेइ कम्मं ॥ भर में ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय : कर्म का क्षय कर देता है। सब तो जाणइ पासए य. तत्पश्चात् वह सर्वज्ञ सर्वदर्शी हो जाता है तथा मोह और ___ अमोहणे होई निरन्तराए। अन्तराय से रहित हो जाता है। अन्त में वह सम्पूर्ण आश्रव अणासवे सागसमाहिजुत्ते, रहित होकर ध्यान के द्वारा समाधि' में लीन बन कर कर्म मल से आउक्खए मोक्खमुह सुखे ।। शुद्ध होकर आयुष्य का क्षय होते ही मोक्ष को प्राप्त कर लेता है। सो तस्स सबस्स बुहस्स मुक्को, वह मुक्त जीव संसार में प्राणियों को सतत पीडित करने जं बाहर सथयं जन्तुमेय। वाले सम्पूर्ण दुःखों से रहित हो जाता है तथा दीर्घकालीन कमवोहामविप्पमुक्को पसायो, रोग से वह मुक्त हो जाता है। वह प्रशस्त और कृतार्थ बना तो होह अच्चतही कमरयो ।। हुआ जीव अत्यन्त सुखी हो जाता है। अगाहकालप्पलवस्स एसो, अनादिकालीन समस्त दुःखों से मुक्त होने का यह मार्ग सब्यस्स युक्खस्स पमोक्खमम्यो। बताया गया है उसे स्वीकार कर जीव क्रमशः पुरषार्य कर शाश्वत विवाहिओ जं समुविच्च सत्ता, सुखी हो जाते हैं। कमेण अध्चन्तसुही भवन्ति । -उत्त. अ. ३२, गा.१०७-१११ णिम्ममो निरहंकारो, बोतरागो अणासषो । मुनि ममत्व और अहंकार से रहित बन कर आश्रव रहित संपत्तो केवलं गाणं, सासयं परिगिरे। हो जाता है, फिर वीतराग बनकर केवलज्ञान को प्राप्त कर -उत्त. अ. ३५, गा. २१ शाश्वत मोक्ष सुख को प्राप्त कर लेता है। तवोगुणपहाणस्स, उज्जुमा खंतिसंजमरयास । जो श्रमण तपो-गुण से प्रधान, ऋजुमति, शाति तथा संवम परीसहे जिणंतस्स, सुलहा सुग्गइ तारिसमस ।। में रत और परीषहों को जीतने वाला होता है उसके लिए सुगति -दस. अ. ४, मा. २७ सुलन है। अणुत्तरे य आगे से, काश्यपगोत्रीय श्रमण भगवान महावीर द्वारा प्रतिपादित कासवेग पवेदिते । संयम स्थान सबसे प्रधान है। जिस संयम की आराधना करके नं किम्मर पिम्बुग,एग, अनेक महापुरुष अपनी कषायाम्नि बुझाकर शीतस बने हैं और वे गि पाति पछिया । पापभीर मुनि संसार के अन्त को प्राप्त करते हैं। Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०६ परणानुयोग-२ धर्म में पराम के लिए एलक का दृष्टांत सूत्र ८१३-१४ पंडिए पीरियं ला णिग्घायाय पवत्तमं । कर्म को विदारण करने में समर्थ वीर्य को प्राप्त करके धुणे पुष्यकाळ कम्म, पवं चाविण कुब्बई ।। पण्डितसाधक पूर्वकृत कर्मों को नष्ट करे और नवीन कर्मवन्ध न करे। ण कुम्वई महावीरे, कर्म विदारण करने में समर्थ धर्मवीर अनादि काल से किये अणुपृथ्व कड रयं । जाने वाले पापकर्म को नहीं करता है, वह पापकर्म पूर्वकृत पाप रयसा संमूहीभूते, के प्रभाव से ही किया जाता है। परन्तु वह पुरुष अपने पूर्वकृत कम्मं हेच्चाण जं मत । पापकर्मों को रोक कर मोक्ष के सम्मुख हो जाता है। जं मतं सवसाहूणं, समस्त साधुओं को मान्य जो संयम है, वह कर्मरूप शल्य तं मतं सल्लगत्तप्पं । को काटने वाला है। इसलिए अनेक साधक उस संयम की साहइत्ताग से तिष्णा, भाराधना करते. संसार सागर से पार हुए हैं अथवा वे देव देवा वा अविसु ते ॥ अविमु पुरा वीरा, आगमिस्सा बि सुब्वया । प्राचीनकाल में बहुत से श्रीर पुरुष हुए हैं और भविष्य में दुण्णिबोहस्स मम्गस्स, अंसं पाउकरा लिणे ॥ भी होंगे वे दुर्लभ सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रय रूप सोक्षमार्ग के अन्त -सूय, सु. १, ब. १५, गा. २१-२५ को पाकर तथा दूसरों के सामने उस मार्ग को प्रकाशित करके संसार से पार हुए हैं। धम्मस्स परक्कमट्टा एलग दिटुन्तो धर्म में पराक्रम के लिए एलक का दृष्टांत५१४, जहाएसं समुद्दिस्स, कोई पोसेज्ज एलयं । ८१४. जैसे मेहमान के उद्देश्य से कोई बकरे का पोषण करता ओयणं जवस देउजा, पोसेज्ज वि सयंगणे ।। है। उसे चावल, मूंग, उड़द आदि खिलाता है और अपने घर के आंगन में ही उसका पालन करता है। समो से पुढे परिवूढे, जायमेए महोदरे । इस प्रकार वह पुष्ट, बलवान, मोटा, बड़े पेट वाला, तृप्त पोणिए विउले देहे, आएसं परिकंखए ।। और विपुल देह वाला होकर पाहुने की आकांक्षा करता है। जाव न एह आएसे, ताब जीवइ से दुही । जब तक पाहूना नहीं आता है तब तक ही वह बेचारा जीता अह पत्तमि .माएसे, सीसं छत्तूण भुज्जई ।। है। पाहुने के आने पर वह मस्तक छेदन करके खाया जाता है। जहा से खलु उरभे, आएसाए समीहिए । जैसे पाने के लिए निश्चित किया हुआ वह बकरा यथार्थ एवं बाले अहम्मिट्ट, ईहई नरयाउयं ।। में उसकी आकांक्षा करता है, वैसे ही अधर्मिष्ठ अज्ञानी जीव वास्तव में नरक के आयुष्य की इच्छा करता है। हिंसे बाले मुसाबाई, श्रद्धाणमि विलोवए। हिराक, अज्ञानी, मृषावादी, मार्ग में लूटने वाला, दूसरों अलबत्तहरे तेणे, माई कण्टहरे सके ।। की वस्तु को हरण करने वाला चोर, मायावी, किसका धन हरण करू-ऐसे विचार करने वाला धर्तहत्यीविसगिद्ध य, महाररामपरिगहे । स्त्री और विषयों में युद्ध महाआरम्भ और महापरिग्रह मुंजमार्ग सुरं मंसं, परिवूढे परंदमे ॥ वाला, सुरा और मांस का उपभोग करने वाला, बलवान, दूसरों का दमन करने वाला। अयकक्करमोई य, तुंदिल्ले चियलोहिए। बकर की भांति कर्कर शब्द करते हुए मांस को खाने वाला, आउयं मरए कसे, जहाएसं व एलए।। बड़े पेट वाला और उपचित लोही वाला व्यक्ति उसी प्रकार नरक के आयुष्य की आकांक्षा करता है जिस प्रकार मेमना पाहुने की। आसणं सयणं जाणं, वित्त कामे य भुजिया । ___ आसन, शयन, यान, धन और विषयों को भोगकर दुःख से दुस्साह धर्ण हिच्चा, बहं संचिणिया रयं ॥ एकत्रित किये हुए धन का परित्याग कर बहुत कर्मों को संचित करता है। Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ८९४-०१६ धर्म में पराक्रम के लिए फाकिणी और आम्र का दृष्टांत www पन्युध्यन्नपरायणे । सभी फम्मगुरु जन्तु, व आगयाएले मरतमि सोई । तो आउपरिक्खीणे, चुया देहा विहिंसमा । आसुरियं दिसं बाला, मच्छन्ति अवसा तम ॥ -- उस. अ. ७, गा. १-१० धम्मस परषकमा अंबागियो विट्ठन्तो१५ नहाए हे. सहत्रां हारए नरो अपत्थं अम्यगं भोच्चा राया रज्जं तु हारए ॥ - एवं माणुसगा कामा, देवकामाण अन्तिए । सहनिया को नाकामा व दिखिया ॥ माता पत्र ठि जाई जीवन्ति दुम्मेहा ऊणे बाससयाउए || धम्मस्त परक्कमट्ठा वणिगदितो-१६. जहा व तिथि पिया दिया। गोलह का एगो ॥ एगो मूलं पि हारिसा आम्मतत्वाणि । वारे वम एसा एवं धम्मे वियागह ॥ माणूसुतं भवे मूलं साभो देवराई भये मूलच्छेएण जीवाणं, नरगतिक्षित्तणं धुवं ॥ हओ गई बालस्स, आवई वसूलिया । देवमाणूसच णं लिए सोलास ॥ सओ जिए सई होइ, दुविहं योग्यहं गए। बुल्लहा तस्स उम्मग्गा बढाए सुचिरादवि ॥ एवं जियं सपेहाए तुलिया बालं व पंडियं । मूलियं ते पवेसन्ति माणसं जोगिमेति ये ।। प्रज्ञावान पुरुष को देवलोक में अनेक वर्षों की स्थिति होती है वह ज्ञात होने पर भी मुर्ख मनुष्य सौ से कम जन --- उत्स. अ. ७, गा ११-१३ के लिए उन दीर्घकालीन सुखों को हार जाता है। धर्म में पराक्रम के लिये वणिक का दृष्टांत ८१६. जैसे लीन वणिक पूंजी को लेकर निकले। उनमें से एक लाभ प्राप्त करता है, एक मूल घन लेकर लौटता है। और एक मूल को भी गंवाकर वापस आता है, यह व्यापार की उपमा है। इसी प्रकार धर्म के विषय में भी जानना चाहिए। मनुष्यत्व यह मूलधन है और देवगति लाभ रूप हैं अतः के साथ भी निश्चित हो नरक और विच गति में जाते हैं। मायाहि सिखाहि जे नरा गिहिसुखया । माजी कम पाचि ॥ atर्याचार जेसि तु विउला सिक्सर, मूलियं ते अच्छिया । सीलवन्ता सविसेसा, अबीणा जन्ति देवयं ॥ [४०७ कर्मों से भारी बना हुआ एवं वर्तमान सुखों में तल्लीन वह जीव मरणान्त काल में उसी प्रकार शोक करता है जिस प्रकार पाहुने के आने पर मेमना । फिर आयु क्षीण होने पर वे नाना प्रकार की हिमा करने वाले अज्ञानी जीव देह छूटने पर परवश होकर अन्धकारपूर्ण नरक में जाते हैं । धर्म में पराक्रम के लिए काकिणी और आम्र का दृष्टांत१५. जैसे कोई मनुष्य बाकी के लिए हजार मोहरों को मेवा देता है और जैसे कोई राजा अपथ्य आम को खाकर राज्य से हाथ धो बैठता है । उसी प्रकार देव सम्बन्धी कामवोगों के सामने मनुष्य राम्बन्धी काम भोग भी काकिणी और आम के समान तुच्छ हैं । दिव्य और दिव्य-काम-भोग मनुष्य की आयु और कामभोगों से हजार गुणा अधिक है। अज्ञानी जीव की ये दो प्रकार की गति होती है, वहाँ उसे बन्धनादि कष्ट प्राप्त होते हैं। वह लोलुप और तंत्रक पुरुष देवा और मनुष्य की पहले ही हार जाता है। द्विविधदुईति में गया हुआ जीव सदा हारा हुआ होता है। उटा उनसे बाहर निकाल के बाद भी दुर्लभ है। इस प्रकार हारे हुए को देखकर तथा बाल पण्डित की तुलनाकर जो मानुषी योनि में आते हैं वे मूलधन के साथ प्रवेश करते हैं। जो मनुष्य विविध परिणाम वाली शिक्षाओं द्वारा घर में रहते हुए भी सुनती हैं, वे मानुषी यांनि में उत्पन्न होते हैं, क्योंकि प्राणी अपने किये हुए कर्म का फल अवश्य पाते हैं । जिनके पास बिल मिला है. ये शील-सम्पन्न और उत्तरोतर गुणों को प्राप्त करने वाले दीन पुरुष मनुष्यत्व का अतिक्रमण करके देव को प्राप्त होते है। Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०८] चरणानुयोग-२ धर्म में पराक्रम के लिए विव्य मानुषिक भोग की तुलना सूत्र ५१६-५१६ एवमबीणवं भिक्खं, अगारि च वियागिया । इस प्रकार भिक्षु और गृहस्थ के पराक्रम-फल को जानकर कहष्णु जिच्चमेलिक्खं. जिचमाणे न संविदे ।। विवेकी पुरुष ऐसे लाभ को कैसे खोएगा? वह कषायों के द्वारा --उत्त.अ. ७, गा. १४-२२ पराजित होता हुआ क्या यह नहीं जानता कि मैं पराजित हो रहा हूँ। यह जानते हुए उसे पराजित नहीं होना चाहिए । धम्मस्स परक्कमट्ठा दिव्व मणस्स भोग तुलणा - धर्म में पराक्रम के लिये दिव्य मानुषिक भोग की तुलना८१७. अहा कुसग्गे उदगं, समुद्रेण सम मिणे । ८१७. मनुष्य सम्बन्धी काम-भोग देव सम्बन्धी काम-भोगों की एवं मागुस्सगा कामा, देवकामाण अन्तिए । तुलना में वैसे ही हैं, जैसे कोई व्यक्ति कुश की नोक पर टिके हुए जल-बिन्दु की समुद्र से तुलना करता है । कुसम्गमेता इमे कामा, सनिम्मि आउए । ____ इस अति-संक्षिप्त आयु में ये काम-भोग कुशाग्र पर स्थित कस्स हे पुराकाउं, जोगवखेमन संविवे॥ जल-बिन्द जितने हैं फिर भी किस हेतु को सामने रखकर मनुष्य योग-क्षेम को नहीं समझता ? इह कामाऽणियटुस्स, अस? अवराई । इम मनुष्य भव में काम-भोगों से निवृत्त न होने वाले पुरुष सोच्या नेयाउयं भग्गं, अं भुमो परिभम्सई ।। का यात्म-प्रयोजन नष्ट हो जाता है। वह पार ले जाने वाले वीतराग मार्ग को सुनकर भी बार बार भ्रष्ट होता है अर्थात् जन्म मरण करता है। इह कामणियट्टस्स, अत्त? नावराई। इस मनुष्य मन में काम-भोगों से निवृत्त होने वाले पुरुष का पूहवेहनिरोहेणं भवे देवे ति में सुयं ।। आत्म प्रयोजन नष्ट नहीं होता है। वह औदारिक शरीर का निरोध कर देव होता है -ऐसा मैंने सुना है । इजढो जुई जसो वणो, आउं सुहमगुत्तरं। (देवलोक से च्युत होकर) वह जीव विपुल ऋद्धि, यश, भृम्जो जत्थ मणुस्सेसु, तत्थ से उच्चवज्जई ।। वर्ण, आयु और अनुत्तर सुख वाले मनुष्य-कुलों में उत्पन्न -उत्त. अ.७, गा. २३-२७ होता है। धम्मस्स परक्कमट्ठा उबएसो धर्म में पराक्रम के लिए उपदेश - ८१८. बालस्स पस्स बालसं, अहम्म पडिबग्लिया । ८१८. तू अमानी जीव की मूर्खता को देन कि वह अधर्म को चिच्चा धम्म अहम्मिल, नरए उववजई ।। ग्रहण करता है। और धर्म को छोड़कर अमिष्ठ बन कर नरक में उत्पन्न होता है। धीरस्स पस्स घोरत, सम्बधम्माणुवसिगो। सब धौ का पालन करने वाले धीर-पुरुष की धीरता को चिच्चा अथम्म धम्मि?, देवेसु उववज्जई ।। देख कि वह अधर्म को छोड़कर धर्मिष्ठ बनकर देवों में उत्पन्न होता है। तुलियाण मालमावं, अबास चैव पण्डिए। पण्डित मुनि बाल-भाव और अबाल-भाव की तुलना करके चहउण बालभावं. अबाल सेषए मुणि ।। बाल-शव को छोड़कर चबाल-भाव का सेवन करता है। -उत्त. भ. ७, मा.२८-३० धम्मस्स परक्कम कालो धर्म में पराक्रम का समय८१६. जरा जाब न पोलैइ वाही जाब न बढ़इ । ५१९. जब तक बुढ़ापा पीड़ित न करे, व्याधि न बड़े और जाविन्दिया न झायन्ति, ताव धम्म समायरे ।। इन्द्रियाँ क्षीण न हों तब तक धर्म का आचरण कर लेना चाहिए। --दरा.ज.क, मा. ३५ Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ८२० वीतराग माष को प्रपणा वीर्याचार [४०६ वीतराग-माव-७ वीतराग भाव की प्ररूपणा८२०, मन के विषय को भाब (अभिप्राय) कहते हैं। जो भाव राग का हेतु है उसे मनोज्ञ कहा है जो द्वेष का हेतु है उस अमनोज कहा है। इन दोनों में जो समभाव रखता है वह वीतराग होता है। भाव के ग्रहण करने वाले को मन कहते हैं, मन से ग्रहण होने वालों को भाव कहते हैं। राग के हेतु को समनोज्ञ वहा है, द्वेष के हेतु को अमनोज्ञ भाव कहा है। वोयरागभाव परूवर्ण१२०. मगरस भाव गहगं वयन्ति, तं रागहेडं तु मणनमाह। सं रोसहेड अमणनमार, समो य जो तेसु स बीयरागो। भावस्स मणं गहणं अयन्ति, मणस्स भावं गहणं वयन्ति । रागल्स हेउं समणुनमाह, दोसस्स हे अमणुनसा ॥ भावेसु जो गिबिमुवेझ तिवं, अकालिय पावई से विणास 1 रागाउरे कामगुणेसु गिल्वे, करेणमुग्गाऽवहिए व नागे ।। जे याविबांसं समुबइ तिच, संसिक्खणे से उ उबेद चुक्ख । बुद्दन्तदोषेण सएण जन्तू. न किंचि भावं अवरज्सई से ॥ एगन्तरसे बदरंसि भावे, अतासिसे से कुणई पोस । पखस्स संपीलमुवेइ बाले, न लिप्पई तेग मुणी विरागो ।। मावाणुगासागुगए य जीवे, घराचरे हिंसइ गरूवे । चितहि ते परितावेद बाले, पीलेइ अत्तगुरु फिलिट्ठ ।। भावाणुयाएणं परिग्रहेण, उप्पायणे रक्षणसनिओगे। यए विओगे य कहं सुहं से? संभोगकाले य अतित्तिलाभे ।। भावे अतित्ते य परिग्गहे य, सत्तोवस्तो न उवेइ तुट्टि। अतुट्टिदोमेण बुही परस्स, लोमाविले आइयई अदत्तं ।। तहामिभूयस्स अदसहारिणो, भावे अतित्तस्स परिग्गहे य । मायामुसं वबढइ लोमदोसा, तथापि दुक्खा न विमुच्चई से ।। जिरा प्रकार हथिनी के पथ में आकृष्ट काम-गुणों में गुद्ध बना हुआ हाथी दुःखी होता है। उसी प्रकार जो मनोज भावों में तीव आसक्ति रखता है, वह बकाल में ही विनाश को प्राप्त होता है। जो अमनोज्ञ भाव से तीव्र द्वष करता है, वह उसी क्षण दुःख को प्राप्त होता है इस प्रकार स्वयं के ही तीव्र द्वष से प्राणी दुःखी होता है किन्तु उसके दुःखी होने में भाव का कोई अपराध नहीं है। जो मनोहर भान में सर्वथा अनुरक्त रहता है और अमनोहर भाव में वष करता है वह अज्ञानी दुःखों की पीड़ा को प्राप्त होता है। किन्तु विरक्त मुनि उनमें लिप्त नहीं होता। मनोहर भाव में आसक्त जीव अनेक प्रकार के बस स्थावर जीवों की हिंसा करता है, वह अपने ही स्वार्थ को प्रमुख मानने वाला क्लेश युक्त अज्ञानी पुरुष नाना प्रकार के उन चराचर जीवों को परिताप पहुंचाता है। भाव में अनुराग और ममत्व बुद्धि होने से उसके उत्पादन में, रक्षण करने में, व्यवस्थित रखने में और उसके विनाश या वियोग होने पर वह कैसे सुखी हो सकता है ? उसके उपयोग के समय भी तृप्ति न होने के कारण उसे दुःख हो होता है। जो भाव में अतृप्त है और उसके परिग्रहण में अत्यन्त आसक्त है, उसे कभी सन्तुष्टि नहीं हो सकती। वह असन्तुष्टि के दोष से दुःखी बना हुआ मनुष्य लोभ के वशीभूत होकर दुसरों की वस्तुएं चुरा लेता है । वह तृष्णा से पराजित होकर चोरी करता है और भावपरिग्रहण में अतृप्त होता है । अतृप्ति दोष के कारण उसके माया-मृषा की वृद्धि होती है तथा माया-मषा का प्रयोग करने पर भी बह दुःख से मुक्त नहीं होता। Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१०] चरणानुयोग-२ वीतराग भाव की प्ररूपणा १८२० असत्य बोलने के पहले और पीछे तथा बोलते समय भी जीव दुःस्त्री होता है। इसी प्रकार वह भाव में अतृप्त होकर चोरी करता हुआ भी आश्रयहीन होकर दुःखी होता है। मोसस्स पच्छा य पुरत्यओ य, पोगकाले य दुही दुरन्ते । एवं अदत्ताणि समाधयन्तो. भावे अतिसो वुहियो अणिस्सो ॥ भावाणुरत्तस्स नरस्स एवं, कत्तो मुह होऊण कयाइ किचि । तरथोवभोगे वि किलेसदुक्खं, निश्वत्तई जस्स कएण बुक्लं ।। एमेव भावम्मि गओ पओस, उह दुक्खोहपरम्पराओ। पट्टचित्तीय चिणाई कम्म, जं से पुणो होर कुहं विवाग ।। भावे विरत्तोमणुमो विसोगो, एएष दुश्खोहपराम्परेग। न लिप्पई पवमझे वि सन्तो, जलेण वा पोल्परिणोपलासं ॥ इस प्रकार भाव में अनुरक्त पुरुष को किंचित भी सुख कब और कैसे हो सकता है ? मनोज्ञ भावों को पाने के लिए वह दुःख उठाता है, उनके उपभोग में भी उसे अतृप्ति का क्लेश और दुःख वना ही रहता है। इसी प्रकार जो भाव से वेष रखता है वह भी उत्तरोत्तर अनेक दु.खों की परम्परा को प्राप्त होता है। द्वेष युक्त चित्त से वह जिन वमों का वन्ध करता है, वे कर्म भी उदय काल में उसके लिए दुःख रूप होते हैं। किन्तु जो पुरुप भाव से विरक्त होता है वह शोक-मुक्त हो जासा है जिस प्रकार जल में रहते हुए भी कमल जल से लिप्त नहीं होता, उसी प्रकार वह संसार में रहते हुए भी इन दुःखों की परम्परा से लिप्त नहीं होता । इस प्रकार इन्द्रिय और मन के विषय, रागी मनुष्य के लिए दुःख के हेतु होते हैं। वे वीतराग के लिए कभी किंचित् भी दुःखदायी नहीं होते। काम-भोग समता के हेतु भी नहीं होते और वे विकार के हेतु भी नहीं होते। जो पुरुष उनके प्रति द्वेष या राग करता है, वह तविषयक मोह के कारण विकार को प्राप्त होता है। एविधियस्था य मगस्स प्रत्या, बुक्खस्स हे मण्यस्स रागिणो । ते वयोवं पि कयाइ दुक्खें, न वीयरागस्स करेरित किचि ।। न काममोगा समयं उर्वति, नयादि भोगा बिगई उति । जे तप्पगोसी य परिमाही य, ___ सो तेसु मोहा बिगई उवे ।। कोहं च माणं च तहेव माय, लोहं दुग्छ अरई रईच। हास भयं सोग पुमिस्थिवेयं, नपुंसवेयं विविहे य मावे ।। आवजई एषमगर, एवंविहे कामगुणेषु सतो। अग्ने य एयप्पभवे विसेसे. कारणदीणे हिरिमे वइस्से ।। कप्पं न इच्छेन्ज सहायसिसळू, पछाणुताय तवपमा । एवं विशारे अमियरुपयारे. आवश्बई इन्विय बोरवस्से ॥ जो काम-गुणों में बासक्त होता है, वह क्रोध, मान, माया, लोभ तया जुगुप्सा अरति, रति, हास्य, भय, शोरु, पुरुष-वेद, स्त्री-वेद, नपुंसक-वेद तथा हर्ष विषाद आदि विविध भावों और इसी प्रकार के अनेक रूपों को प्राप्त करता है। इसके अतिरिक्त और भी उनसे उत्पन्न अन्य परिणामों को प्राप्त होता है जिससे बह करुणास्पद, दीन, लज्जित और अप्रिय बन जाता है। ___ यह मेरी शारीरिक सेवा करेगा-इस लिप्सा से कल्पयोग्य शिष्य की भी इच्छा न करे । संयम तप का कोई प्रभाव न देख कर पश्चात्ताप न करे । क्योंकि इस प्रकार के संकल्प करने वाला इन्द्रिय रूपी चोरों का दशवर्ती बना हुभा अनेक प्रकार के विकारों को प्राप्त होता है। Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ८२०-८२३ कर्म निर्जरा का कल वीर्याचार [४११ amreme तओ से जायन्ति पओयणाई, विकारों की प्राप्ति के पश्चात् उसके समक्ष उसे मोह रूपी निमज्जि मोहमहण्णवम्मि । सागर में डुबोने वाले विषय-सेवन के प्रयोजन उपस्थित होते हैं । सुहेसिणो वृक्वविमोयणट्ठा, फिर यह सुख की प्राप्ति और दल के विनाश के लिए अनुरक्त तप्पच्चयं उज्जमए य रागी । बनकर उन विषयों संयोगों की पूर्ति के लिए उद्यम करता है। विरज्जमागस्स य इन्दियस्था, जितने माद आदि इन्द्रिय-विषय है, वे सब मनोज्ञ हों या सद्दाइया तावइयपगारा। अमनोश हों, विरक्त मनुष्य के मन में कुछ भी विकार उत्पन्न न तस्स सम्वे धि मणुनयं था, नहीं करते । निम्वत्सयंती अमणुनयं पा ॥ -उत्त. भ. ३२, मा. १००-१०६ कम्मणिज्जरा फलं . कर्म निर्जरा का फल८२१. प.--बोदाणेणं मंते ! जीवे कि जणया? ८२१. प्र.-भन्ते ! व्यवदान (पूर्व संचित कम विनाश) से जीव को क्या लाभ होता है ? उ.-बोदाणेणं अकिरियं जणपा। अकिरियाए भक्त्तिा उ.---पूर्वकृत कर्म के क्षय से जीव अक्रिय हो जाता है, तो पन्छा सिज्यह, मह, मुन्ना, परिनिग्वाएइ, अक्रिय होने के पश्चात् जीव सिद्ध, बुद्ध और मुक्त होता है, सभ्यबुक्लाणमंत करे। परिनिर्वाण को प्राप्त होता है और समस्त दुःखों का अन्त -एस. अ. २६, मु.३० करता है। बीयरागया-फलं वीतरागता का फल८२२. प०-बीयरागयाए गं अंते ! जी कि जणय ? ८२२. भन्ते ! वीतरागता से जीव क्या प्राप्त करता है। उ०-बोयरागयाए णं नेहाणुबंधणागि, तहाणुबंधणागि य बीतरागता से वह स्नेह के अनुबन्धनों और तृष्णा के अनु वोच्छिन्दा, मण्णा मणुग्नेसु सफरिसरसरूवगंधेसु बन्धनों का विच्छेद करता है तथा मनोज ओर अमनोज शन्द, चैव विरगनाइ । -उत्त. भ. २६, सु. ४७ स्पर्श, रस, रूप और गन्ध से विरक्त हो जाता है। उपसंहारो उपसंहार५२३. एवं उदाह निर्माथे, महावीरे महामुणी । ८२३. अनन्तज्ञानी और अनन्तदर्शी निन्य महामुनि महावीर ने अर्णतणाणसी से, धम्म सितवं सुतं ॥ श्रुतधर्म का उपदेश दिया । -सूर्य. सु. १, अ. ६, उ. ४, गा. २४ ॥ धरणानुयोग समाप्त ॥ सत्र सूत्र संख्या १८२३ पर समाप्त Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . परिशिष्ट : १: - संकलन में प्रयुक्त आगमों के सन्दर्भ स्थल चरणानुयोग : भाग १ १८-१९ २०.२१ २२ परि (७३९) ३०२ ४८.४५ १४३ आवश्यक-सूत्र ४० १६३ (१) मंगलाचरण mmmmm Inा १९१ (१-५) १९४ (0 सूत्रकृतांग सूत्र परि. (५३२) ३५ गा. १.२९ १९८ (२-३) २१६ २१७ धर्म प्रज्ञापना 'भगवती सूत्र ३७२ स. उ. आचारांग सूत्र .yFM १०८ १११२-१३३ ४८५ ५३७ ७१२ (२) ७६० Y GAAAAAAAmag २६ ३४ परि. (७३९) अंतिम सूत्र-१ अंतिम सूत्रः १-२ अतिम सूत्रभतिन मूत्र समवायांग सूत्र दि. प. ३१ सम. १० म १ २ भगवती सूत्र (विवाह प्रज्ञप्ति) जबूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र ४० टि. व. १ सूर्यप्रज्ञप्ति सूत्र टि. ३९ ६ ३ १८९ (क) ६४ १९१ १ ८ १२०२ (ग-घ) परि (७३२) ३० दि.८ ३ २०९ (ख) १५ .८८ २३० परि ७१९ १५ २ १५ - सूत्रकृतांग-सूब १० १२.१५ १६-१८ पा. टि. ० ७ २००७ टि. १८ ८-१९ Y६-४८१७ २० ४.MAAVM चन्द्रप्रज्ञप्ति सूत्र २३-२४ २५-२८ उपासकदसा-सूत्र rrrrrman २८ २५-३० पष्ठ प्रज्ञापना सूत्र prrrrrrr" । । । । १५ टि. २१ (क) प्रश्नव्याकरण-सूत्र ३-१४ उत्तराध्ययन सूत्र १५-१७ १९-२० उववाइय-सूत्र - पृष्ठ ठाणांग-सूत्र इन सब ३ नदी सूत्र रायप्रश्नीय-सूत्र स.२१४ ४-१५ Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१४ चरणानुयोग परिशिष्ट-१ : संकलन में प्रयुक्त आगमों के संदर्भ स्थल पृष्ठ १४ पृष्ठ ********^^**** **** * * * * * * * * * * * * * * * टि. ४२ ४२-४३ ४३ Y? पृष्ठ टि. ५० पृष्ठ ५० 40 पृष्ठ टि. ५१ दशवेकालिक सूच म. १ उत्तराध्ययन सूत्र अ. to ۲۷ १४ १६ १६ १९ २३ २९ २९ २९ २९ २९ ३१ अनुयोगद्वार सूत्र अ. ૨ व्यवहार-सूत्र उ. to निशीम सूत्र उ. ११ ११ आचार प्रज्ञप्ति ठाणांग-सूत्र उ. TIT. १ गा. ४२ १ २-७ ९.१० १२-२० १४-१५ ४-२० २४ २५ १७ १९ १९-२४ ६५-६८ ५ २८-२९ ४४ ४८-५१ ५२-५४ १० स. २०७ ४२७ ४३५ ४३६-४३९ ४२०-४५७ '४९८-४६६ ४६७-४६८ ४७१ ४७२ ४७३ ४७४ ४७५ YUE स २१-१३ ७६ (१ स. पर पू टि. ५३ टि. ५३ टि. ५३ दि. ५३ ५३ ५३ ५३ ५३ ५१ ५१ ५२-५३ पृष्ठ ५१ ५१ पृष्ठ पृष्ठ अं. परि (७४०) ५९ ६ ५१ ८ ५३ ५५ १४ पृष्ठ १२८. (८-११) स. ८ ११२ भगवती सूत्र दशवेकालिक सूत्र पृष्ठ ८७ ८८ दि. १११ नियुक्ति ११ सु. १११ -t १११ R १११ १ ९२-९३ R १०३-१०५ १ ७० R उत्तराध्ययन सूत्र १०६ R १०६ १०८ १ १०८ t ११२ १ R མ མ ཚོ སྨྱོས ཀ ཐཱ २ उ. १० बृहत्कल्प- सूत्र टि. १९ ज्ञानाचार म. ५ अ. २८ २८ आचारांग सूत्र १ उ. ६ उ. भ. २ ११ १३ १३ १४ १४ सूत्रकृतांग-सूत्र १४ उ. 3 ११५ (१) ११५ (२) ११५ (३) च. ༣ ११५ (४) १६४ (१) १६४ (२) १६४ (३) १६४ (४) ४१० (९) ४३२ सु. १०-१८ गा. १-६ ११-१२ गा. १-३ ३५ ܪܕ सु. २० मु. १९० १९१ १८९ गा. २८३ १ मा. ७ टीका १२ TIT. १५ १५ २-४ ६-७ १-१३ 19 १५-१७ १८-२४ २५-२७ २६ २७ पृष्ठ ६१ परि (७४०) ५६ दि. १९९ ५५-५६ ५५ (१३-१४) १२२ १०९ ८७ २४. २०२ टि. ८९ १२३ १२३ १२३ ९२३ टि. ६० दि. १११ १९८ १९८ १२२ ११९ ११९ १९९ टि. १९१ ८०-८१ परि (७४१) ८० १२० ९२० १२० १२० १२२ ११९ ११९ १९४ १९४ ११५ 돌판 ६१ ་་ १०१ ११७ ११७ १८ ११८ २२ १२२ १२२ १२२ टि. ७० ११४ १४ ११५ ११७ ११३ १०९ ठाणांग-सूत्र १०९ ११६ १२१ म. २ चे चे उ. ३ २ २६३ . १ R १ २ २ ર २ २ २ ३ ३ ३ , ‍ ३ व मु. ५३ ५४-५५ (७) ८४ १६३ (१-८) १७७ १७७ १९३ () १९५ २०८ २१८ (१) २१८ (२) २१८ (३) २१९ २२० २३५ २६) २३६ (१६) २३६ (२) २३९ २४१) २४१ (१६) २५१ २५६ (५.९) २५६ (९-८) २५६ (१०) २५६ (१९) २५६ (१२) २५६ (१३) २५६ (१४) २७९ (१) २८० (२) २८१ (१) २८४ (१) २८४ (२) २८५ (९) २८५ (२) २८५(३) ३१९ (४३) ३१९ (८) ३१९ (४) ११९ (५) ३१९ (९) ३१९ (२५) ३१९ (३०) ३१९ (२७) ३१८ (१४) ३२० ३२७ (२) ३२७ (७) ३२७ (१४) ३२७ (८-९ २४४ (३६) १४८ १४९ ३५२ (४-५) ३५० (९) Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरणानुयोग : परिशिष्ट-१ : संकलन में प्रयुक्त आगमो के सदर्भ स्थल ४१५ १०० १०३ ७२ १२१ R २६० (२) 10 (1) २६० ३६०(4) ३९४ (० १९४ (0 ४२० ४९९ (१-0 ५८५ ५८७ ७१४ (२) ७१४(१) ७१८ भद्र ५.१२ ३.१८ ११ १२५ टि.८० टि, १११ -MNANMarrrrrrrry दशाश्रुतस्कंध-सूत्र (२०) ६७-६८ २२-२३ १-२ पून ९२-९५ दि. १० १२३ ७१-७५ २०-२५ ७८१ १४-१५ समवायांग-सूत्र व्यवहार-सूत्र पृष्ठ टि.९६ १२३ सम, ३३ उसराध्ययन-सूत्र भगवती-सूत्र 66666 - - - १०२ - वृहत्कल्प-सूत्र - - - - ५८ - ४ निशीथ-सूत्र - टि. ६. टि, ८० १७ २५ २१९-२३४ - १८-१९ - ज्ञाताधर्म कथा-सूत्र i ger ziger Magar - - - - - उववाइय-सूत्र - २७-२९ - आवश्यक-सूत्र - पृष्ठम. ७५-८० ३०(२३-१४) - ३८-३९ - - दशवकालिक-सूत्र - e世化es - - पर उ. गा. २३.२४ ३५-३६ ३७.४८ ८२ - - दर्शनाचार ८३ - १०-१५ १४ १५-१२ - DAANAAKKA १०९-११० ८६ ६२ - ४.५ आचारांग-सूब ४३६६६२.६१ M M - 8862 ६२ १२ १९-२० M पृष्ठ M २-१० ११ १२-१३ १४-११ १ Art ५८ २ १ - M - . Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१६ चरणानुयोग : परिशिष्ट-१ : सकलन में प्रयुक्त आगमों के संदर्भ स्थल १३५१ १४३ ५ ५ ३ ३ १११ (6) १६१ (२) १ ६४४ ६५३ ६५४.६५८ १०१ १४५ १४२ PV दि. १२५ १ ५ ५ rrrrrrr १०१ १०२ १५५-१५७ १५७१५२ १३८ १४० १८६ १८७-१९० १२-१४ १५-२८ १ ६ ६ १ १ १७६ १७८ (क) १७८-१८० ६६७-६७१ ९७२-९७६ ६९२-६९३ २-२८ २९-३२ उत्तराध्ययन-सूत्र १ १९९ १३५-१३६ १६५ परि (७४) १६५१ परि. (७४१) १६५१ परिः (७४) १६५१ ८ १ २०० क ९.१० १४-१५ ८ १ २००-ग ठाणांग-सूत्र १७८ १३० १९४ टि, १४१ १३८ १९८८-१९९ १४३-१४५ २३ ८ १ २०१-क अ. उ. १७ ५४.५५ ५५-(२-४) १२-५४ ३९-५२ सूत्रकृतांग-सूत्र १३१ १२७ टि. १२७ १६४ १२९ १२९ टि, १२७ पृष्ठ सु. अ. उ. गा. ५९ (५-क) १६३ (३) १६३ (९५) १२५ १२६ ६०-६३ १४-१५ १६-२७ २८ २९-३० १२५ ११४ १२६ . - . - टि. १५४१ ११७-८ १६० टि. १५० १ १ १ ११-१२ १६० १६१ १६२ १९-२५ दि. १५९ १ १ २ १.५ १७८-१८० १ २ ६-३ १६८ १ १ २ २४-२९ २ १६० टि. १५७ १ १ ३ १९०/ १९३ २०४ (९) २०४ (20) २२३ (२) २२०० २३६(७) २३६ (१७) - . . " १३४ १३५ १२७ ३४७ १९५ १३० ६२ ७३.७५ १.३ २५७-२५९ ३२ १६ २०० दशाश्रुतस्कंध-सूत्र २०० २०० २०१ सा (७) २४ (१७) २७१ २०१ २८० ३.५ १७० १७३ टि, १६५१ २ ३ १०-१२ १२९ १२९ ४२६ (१) ४२६ (२) . १७५ १७६ १ ३ ११२-१९४ १९१-१९२ १२-१४ ११-२० १३-२० १२९ ......... २८ टि. १२७ टि. १२७ १० - परि. (४) १७८ १९६-१९७१ १९७ ११४ ६१९ ७३४ ७५१ टि. १२६ वृहत्कल्प-सूत्र १३० टि. कम उ.४ सु. १२ १३० दि. - ४ १ निशीथ-सूत्र १२५ ११-१२ २२ २३ २५.२८ २९-११ ११ ११ भगवती-सूत्र १९२ १२५-१९६१ .. १२५ दि. १२५ १३ १९०-१९१ १८० १३ १-६३ आवश्यक-सूत्र ३-४/१ १७० १६७ १७० १२२ १२८ १२९ १७ ११.१७ १८.२२ चारित्राचार १ १५ ३.५ दशवकालिक-सूत्र १२७ १० १८२ १८२-१८४ १८५. १८६-१८ १४८ ६३८ ६३२-६४२ आचारांग-सूत्र २ २ १ १ सु. अ. .... ज. स. ६४४-६४५ 353 २०७ Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरणानुयोग : परिशिष्ट-१ : सकलन में प्रयुक्त आगमों के संदर्भ स्थल ४१७ सूत्रकृताग-सूत्र उत्तराध्ययन-सूत्र उ. गा. अ. गा. ७-९ सु. ग. टि. २१० ११ २०६ १ १ २०७ ३ १० २४० २४८ २२६ २२६ २१६ दि २२७ २४४ २१६ २१६ १० २३ टि ७०-७३ २९० दि २१३ सु. ६७९ २३ टि ८७ २०५ २०५ २९ २१५ १०५ दि २९० ठाणांग-सूत्र ठाणांग-सूत्र . आवश्यक-सूत्र २८३ २८६ ५७१ ५७१ २८७ ५७१ ६१४ २०५ परि (०४२) २०५ २०५ टि. २०५ (१७) परि (७४२) २०५३ (२१) २२० टि. २११ टि. २१२ टि. २१२ टि. अहिंसा महाव्रत का स्वरूप एवं प्रतिज्ञा २८६ २८७ FAS २८६ ३८९ ४१८ ૪ર૭ ४८७ आचारांग-सूत्र २८७ २८६ २८६ २८७ २३९ १०७०९ १०७०९ २०७१५ २०७१५ सं. अ. ४८७ الله به الله २१२ २१३ १०.१८ २३-३१ ७०९ २१३ पृष्ठ २३० २३३ २३५ २३९ २४० २४० समवायाग-सूत्र ४२-४ ७११ १ ، مم مم مممم هم समवायांग-सूत्र सम. १ ५ ४६-४८ २७९ २१८ २५ दि सम. २१३ २११ दि. विवाह-प्रज्ञप्ति-सूत्र به विवाह-प्रज्ञप्ति २४ २२४ २३५ ૨૭ २२४ २२७ २५२ २५२ टि. २९६ २४५ २२६ ७८(स) १०४ هر کا २८८ २५-९७ प्रसनव्याकरण-सूत्र २१० टि सू. अ. २२४ २१२ २०७दि. २१० २०६ २०५ २०६ २१२ दि ---Marrrrrrrrrrrrror १३६-१३९ २४० ५११४७-१४८ १७० २११-२१२ ७०-७१३ ७०० २१-२४ १२.१४ २२१ २२२ २२४ २१८ २८२ २८२ १२२ २३६ २५३ २५४ २५४ २५४ २५३ २५४ २५४ परि. (७४२) २२५ २१८ ७२४ ७१५-७१९ ७२० ७२८ प्रश्नध्याकरण-सूत्र दशवकालिक-सूत्र २११ ७७७-७७९ N M brMM २१५ सूत्रकृतांग-सूत्र २ २ ५ १८-12 दावकालिक सूत्र पष्ठ २२५ २२७ २११ सा २४६ २१६ स. १ १ म. . ५ उ. ४ - गा. ९-१० १-४ ५. २११ टि २११ र गा. ८-२१ ११ २१५ १३ Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१८ चरणानुयोग : परिशिष्ट-१ : संकलन में प्रयुक्त आगमों के संदर्भ स्थल २१६ ૨૨૮ प्रज्ञापना-सूत्र २४८ २७५ २७१ له १५-२३ २३-२८ २९-३४ पद, له له ८६२ ३५ २३८ २२ १-२ ته له ل २४२ ८९६ २७४ २४९ २५० २४५ २६० २५० २५० २५१ दशवकालिक-सूत्र २३ गा.१४-३२ गा.५१ गा.९-१० गा.२.३ गा.४ لهى له १-७ يه له ४ २८९ २८९ टि. يه २६० गा. १२ गा.५ गा. पा. ४२-४५ २५-३० له له उत्तराध्ययन-सूत्र له २६८ २७० २७० २६१ २६१ له गा.९ गा.१०-११ गा.१२ गा.११-१६ अ. गा. له الهي २९९ २८१ दि २४ १९ २७ १५-६७ ६८-१२० (१८०-२२४) २७-३२ ३३-३८ ३२ ८०-८५ ८६-९१ उत्तराध्ययन-सूत्र २६२ २६४ २६४ २६५ २६७ २६७ २५१ कप्प-सूत्र (बृहत्कल्प-सूत्र) ९२ ६४-७० २८७ २१७ दि २३४ निशीथ-सूत्र द्वितीय महावत दशाश्वतस्कन्ध २९४ २९४ २९४ २६४ १० १ ५-10 २८३टि २८३ आचारांग-सूत्र पृष्ठ २८९ स. २ अ. १५.७८०-७८२ ठाणाग-सूत्र २८४ तृतीय-महाव्रत २८४ २८४ आचारांग-सूत्र ५२७ २०४ २८५ २८५ २११ टि ६ २९१ टि १० २१३ दि १० २०० ३०१ ३०१ २ ७ २ ० १ २ १५ - ६०७ (क-स) ६०७ (ग) ७८३.७८५ समवायांग-सूत्र निशीथ-सूत्र समवायांग-सूत्र पृष्ठ २११ २९१ टि सम. २५ सम. २५ पृष्ठ २७४ २७६ सु.१ स. १ सम. २५ २५ ३०० ३०२ टि २७७ प्रश्नव्याकरण-सूत्र ११-१४ १५-१८ १९-२२ २३-२९ २७.३० "-१४ ११० २७७ २७७ २७८ २७८ २७४ २७४ २७४ २७६ २५१ २९१ टि २२१ २९२ २९३ विवाह-प्रज्ञप्ति स. ८ च . स. १-१५ प्रश्नव्याकरण-सूब १४-१७ rrrrrrrr २७५ ३०३ و نه نه २०३ २-७ २५५ २५६ २९३ २९१ टि २९६ ३४.३९ نه یه २६० ११.१५ ११-१५ १६-१८ २०८ ३०४ १०५ १०२ टि १०९ ३०९ له २५५ २५८ २६० १०-१५ १०-१५ لع له Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरणानुयोग : परिशिष्ट-१ : संकलन में प्रयुक्त आगमों के संदर्भ स्थल ४१९ समवायांग-सूत्र यशवकालिक-सूत्र ३२८ १२९ सम. ४२८ टि २३० ३०० ३०० दि. ६ गा. १३ ४२४ ३२४ उत्तराध्ययन-सूत्र मगवती-सूत्र ३२३ २०३६ 100 दि टि. ३१४ १२५ सु.३२२ ३२२ टि १२३ VF NMMAJ व्यवहार-सूत्र पे २९ १२५ १०-११ १२.१३ १४-१५ २०६ प्रश्न व्याकरण-सूत्र उ. ७ स. २६-२७ निशीथ-सूत्र ३२५ १२१ ३२५ १९-२० म. व्यवहार-सूत्र ४२.३ २० ९-१० ११-१२ ३१९ १२१ PrMMMMAMMY २४-२५ चतुर्थ महावत १२१ ३२१ ११५ टि. YOY ४२७ ४८-१२ ४८-१२ (क) कल्प-सूत्र आचाराग-सूत्र ४१३ सु. म. उ. सु. दशवकालिक-सूत्र १४-१५ १-४ १३-१४ ४१९ १ ५ ४ १४ २३२ निशीथ-सूत्र उद्देशक-१ FAMRAPARMA پدر به ३२५ په १६४-१६५ ६९० ६९१.६९८ ७०१.७०७ ७२१-७२२ ७२३ ७२५-७२६ ७२७ ७१० ७३१ ७८६-७८८ गा. ९-११ स. १५-१६ गा, ५१ गा. ५२ गा. ५३ पा. १४ गा. ५५ rec ४१६ له له له ३२६ १२५ टि ३२७ उद्देशक-३ ४० TY गा. ५६ ३५२ ३२७ ८ टि गा. ५७ १५३ १६-२१ २२-२७ ४३ ४२-४६ सूत्रकृतांग-सूत्र उत्तराध्ययन-सूत्र ३५३ ३५५ गा. ५०-५५ १ ४ . १०-२२ ३२७ ર २५५ ५७ ३२६ ३२७ ३५६ ३५५ १४ २ १-२२ १२४ ३५६ १२६ ठाणांग-सूत्र .PM ३५६ ३५२ १५७ ४२३ १२५ १२८ उद्देशक-४ परि. (४२) ३२२ ३२२ ३२२ २ १ ५४.५५ ३५८ २५७ ५५-६० १६३ ६६३ .mmmmm 66. २२८३ ४२८ गा. ४-५ ३५९ ३६१ ८०-८२ Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ र ४२० चरणानुयोग परिशिष्ट १ संकलन में प्रयुक्त आगमों के संदर्भ स्थल ३६० ३६१ ३६२ ३६१ ३६२ ३६३ ३५८ ३६३ ४१६ ४१९ ४१७ ४१६ ४१६ ४२२ ४२२ ४१४ ४१९ ३९९ ३९८ WY ३४५ s 100 ४०० ४००३ Yot VOR ४०४ ४०३ ४४ ४०५ ३९९ ४०५ ४२३ उद्देशक- ६ ४०५ ३४७ १४८ ३५० L ४०८ ४१० ४०१ ४१० ४१२ उद्देशक ७ ४२१ ४२२ ४२० परि (७४५) ४२० परि (७४५) ४१८ YOU ४११ ४१२ ४१३ ४०६ ४१३ परि(७४३) ४१४-१ परि (७४३) ४१४-२ परि(७४३) ४१४-१ परि (७४५) ४१६-४ परि (७४४) ४१४५ وا ७ ७ ८३-८८ ८९ ९० ९१-९६ ९७-९८ ९८ ९९-१०० २०१ २ ३-१० ११ (११) १२ १३ १४-१८ १९-२३ २४-२९ ३०-३५ ३६-४१ ४२-४७ xe ४न्छु ५०.५४ ५५-५७ ५८-६३ ६४ ६५ ६६-७१ ७२-७३ (७३) ७४-७५ ૬ ي २-३ ४-६ ७-२ १०-१२ १३ १४- १९ २०-२५ २६-३१ ३२-५७ ૧૮ ३५ ४०-४ ४५.४७ ४८.५१ ५४ 44 ५६-६९ ६२-६३ (६३) ६४-६५ ६६ ६७-७४ ७५-७६ ७७-७८ ७९ ८०-८१ परि (७४४) ४१४-६ परि (७४५) परि (७४५) परि (७४५) १८६ * १८७ ३८७ ३८९ ३८८ परि (७४८) ४२३ ૧૮૮ १९० १९१ ३८९ ३९० ३८५ ३९१ पू. १६४ २६४ ३६५ ३६५ २६७ १९६ १६७ १६८ ३६८ ३६९ ३६९ ३६४ २६९ १९२ १९१ ३४९ १४२ १४६ १९३ १९३ ३९५ ३९४ ३९५ २९७ १९६ १९७ ३९७ ३९२ ३९७ ४० ४२० o 18 19 19 उद्देशक- ८ ८ पू. ३७९ ३७० १७२ ४१४-७ ४२४-८ ४२४ - ९ उद्देशक- ११ ११ १९ ११ १९ ११ ११ ११ ११ ११ tt ११ १९ ११ उद्देशक- १५ जं १५ १५ १५ १५ १५ १५ १५ १५ १५ १५ १५ १५ १५ १५ 22 22222233333 १५ १५ १५ १५ १५ उद्देशक- १७ 1 $222 १७ १७ ८२-८४ ८५-८८ ८९-९० ९१ 3 ११-१६ १७-२२ ३६ ३७-४१ Y7-xx ४५-५० ५१ ५२ (47) ५१-५८ ५९-६० ६१-६२ ર सु. १३-१८ १९-२४ ३८ १९.४३ w-n ४७-५२ ५३ ५४ ५५-६० ६१-६२ ६२ ६१-६४ ६५ १०० १०५ १०६ १११ ११२-११७ ११८-१२३ १२४ १२५ १२६-१३० १३१-९३३ १३४-२३९ १४० १४१ ९४२-१४७ २४८१४९ (१४९) १५०-१५१ १५२ १५३ १५४ सु. १५-२० २१-२६ 0 ३७२ ३७६ ३७३ ३७६ ३७५ १७६ ३७६ ३७९ ३७१ ३७८ ३७७ ३७९ ३८० ३८२ ३८० १८० ቆረ ३८२ १८३ ८४ १७८ १८४ पू. rre ४५१ ४५४ 234 ४५१ ४३८ ४३६ ४४२ ४५१ ४३५ ४३५ re ४५१ ४३८ ४१९ ४३६ ४५२ W परि (७४८) ४३५ Wc ४५९ ४२९ परि (७४८) ४३२ १ ₹ R १ १ १ १७ १७ १७ १७ १७ १७ * . १७ अपरिग्रह महाव्रत ܐ ૨૩ १७ १७ १७ १ १ s १७ १७ १७ १७ आचारांग सूत्र सू. म. उ. R १ ५ ९ २ t R २ ७ १७ १७ १७ * १७ २ २ २ १५ २ १ ५ ₹ ६ t १ ६ २ R ረ ३ र ११ २ १२ २ १५ ४१.४५ ४६-४८ ४१-५४ ५५ ५६ ५७-६२ ६३-६४ (६४) ૬ ६५.६६ ६७ ६८.७३ ७४-७९ ९१ ९४-९८ ९९-१० १०२-१०७ ૨૦૮ २०१ १०-११५ ११६-११७ (११७) ११८-११९ १२० ६३-६४ ६६-९७ ५९ ७३-७४ ७५-७६ ७९ ८१-८२ ८ ८४-८५ ८९ (घ) ९०-९१ ९२ २३ ९७ ९९ क १०५ ष १०८ (ख) ११९ १४९ - ग १४९ (घ) १५४ १५५ १५७ १४-१५ (क) १८१-१८२ १८३ १८९ २०९ १६९-६८७ १८९ ७८९-७९१ ७९२ Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरणानुयोग : परिशिष्ट-१ : सकसन में प्रयुक्त आगमों के संदर्भ स्थर, ४२१ ४४० सूयगडाग-सूत्र ४५-४८ ४०-४५ vo-yt ४८३टि ४७६ ७७ ४७७ निसीय सूत्र २-८ निशीथ-सूत्र २१-२६ २७-२८ ४५४ ४३९ ४१६ ४४४३७ ४३५ ४४८ ४४८ परि. (७४९) ४७४ ४७३ ४३४ ४३९ १७९ - - २. ८.१४ ७४-७७ ४६५ V.१०.१६ ४८१ ४८१ ४८० ४८१ ४८१ ४८१ ४८२ १०-१२ २०-२४ परि. (७४५) १२ ३५ ३६.३९ ४०.४२ ४४ ४७४ ६७७-६७८ ६८५ ६८५ ४६६ परि. (७४) अष्टप्रवचन माता दि. ४२९ २ . ३६.४७ समवायांग ठाणाग-सूत्र १०-१३ सम. ४१४ परि. (७४८) ४६२ ४६१ ४८५टि ४३७ टि. ४३१ ४८८ ८.९ १६-२८ २९ ४८५ २५ ४१२ प्रश्नव्याकरण समवायांग-सूत्र ४५९ له 5 ११५-११८ २३९.१५० له ४३२ ४१२ و ५८ ४८५ दि ४८५ st له له له له له و 3 20Gkse रात्रि-भोजन उत्तराध्ययन-सूत्र و ४६७ ४३टि. و प्रश्नव्याकरण दशवकालिक-सूत्र ७६ टि ४८५ AGAM ४८५ ४८५ टि. पृष्ठ वशवकालिक आवश्यक-सूत्र ४० ४२२ ४६ ४८५ टि ५८-५९ V (१) ईर्या समिति उत्तराध्ययन उत्तराध्ययन-सूत्र आचारांग-सूत्र पृष्ठ ४८६ که هم ५४ १६३ ७५टि به له ४९ ४५३ ३२९ له वृहत्कल्प-सूत्र له ३५५ ४३४ २८ २९-३० ४९५ ४९५ ५०१ ४८९ ४९९ ४९९ به په له ته له ४२९टि टि.४८३ Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२२ चरणानुयोग : परिशिष्ट-१ : सकलन में प्रयुक्त आगमों के संदर्भ स्थल - बृहत्कल्प-सूत्र ५१० १५-२१ .. ५०२ ५०४ ५०४ ४८१-४८२ १ ११ ठाणाग-सूत्र ५०५ rrrrrr. ته له له له ته له له له له له ४९३-४९७ .. मु. ५०० ४८९ ५०१ ५०१ टि १०२ २३८ ५१०दि ५१४दि ५०० Yt १० १० ५१टि ५१ ७४१(३) निशीथ-सूत्र به पनवणा-सूत्र FARM ५००-५०१ ५०२ ५०४ ५०५ ५०६ ५०७ ५०८ ५०२ ५१५ ४९६ ४९६ ४९७ ४९७ ४८९ ४९० ४९० له له له له ४९३ ५४ ५१५ १८-१९ ५१७ ५१७ ५१८ ४९९ ५०० ४११ ५०२ irr. ८३०-८२१ ५३२-८३८ ८३९-८४८ ८४९ ८५० ८५१ ८५२ ८५३ ८५४-८५७ ०-८६६ सूत्रकृतांग-सूत्र ४९० ५०६ २५-२६ १.२३ ५७ y ) (२) भाषा समिति ४७ ५१०टि. ८७० ठाणांग-सूत्र आचाराग-सूत्र ६-८९७ ८९ ५१०दि ५११ अ. उ. ५२५ १५१०-५१४ YHM टि. ४८६ ५०१ ५२० दशवकालिक-सूत्र २ -२) ५२२ ५१८ ५१० ५२४ ५२१ ५२२ भगवती-सूत्र पृष्ठ ५१० ५१८टि ५२५ ५१ ४-५ ५२५ ५२६ ૧૭ ५२८ ५२२ ४८८ ४८७ झाताधर्मऊयाग-सूत्र ५२८ ५२७ ५२ ५२७ ४८७टि ५३१ ५३७ ५३४ ५१५ ५३६ १७ 1८ ५२७ ५२७टि. दशवकालिक-सूत्र BANAADAANAANANDNNNNNNNnnnnnnnn ५१८ टि. ५२२टि. ५२० ५२रटि २१-२२ २२ ५२० ५२९ ५॥ २४ २५ ५४ २६-१९ ३०-३१ ४१२ टि ५२१टि. ५२१ ५२९ दि. ५२१ ५२०टि. ५२१ उत्तराध्ययन-सूत्र ५४८ . १७ ३६-३७ RRRRRRRRMirrrrrrrrr ४९४दि ४८६ २४ ३८-३९ ५११ ५२२ ५२५ ५२८दि ५२० व्यवहार-सूत्र सूत्रकृताग-सूत्र पृष्ठ ४९७ ५२५ 4 गा. २५-२६ . ५२१ टि ५२१ Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 ५२३ ५१९ ५२३ ५१० ५१९ ५१८टि. ५३१ ५२५ पू. ५२४ ५२४ पू. ५२४ पू. ५१२ ५१२ पृष्ठ ५६४ ५४१ ५६० ६०२ ५७४ ५४१ t टि. ५४४ R टि. ५३९ टि. ५४१ ५४९ १०२ ५७९ ५७९ ५९६ टि.५५८ ५१६ ५८९ ६९६ ५४८ ६१६ ६१४ ६१४ ६१५ ६१८ उतराध्ययन सूत्र ५९७ १ टिं. ५५६ १ १ १ ६१५ ५६८ ५४९ ६१७ ५४७ ५५० ? १ म. ९ २४ बृहत्कल्प- सूत्र उ. (३) एषणा समिति २ २ २ निशीथ-सूच आचार-सूत्र उ. २ १५ म. ८ ८ 6 १ १ २ १ २१ च. ४ २ ५१-५२ ५१ ५४ 44-46 ५५ ४१.४८ w-vt उ. ३ गा. ९ २ २ ने व ३ ‍ मा. २४-२५ ९-१० 3~ मु. የረ १-३ सु. ८६ ८७-६८ ८७ ८८(४) (4)27 49-4 ८९२०४२०५ २०४-२०५ २१० २१८ २२३ ३२४ ३२५ ३२६ ३३१ ३३‍ ३३२ ३३३ ३३५ ३३१ ३३७ १३८ क २३८-ब 710 ३४९ ३४२ १४३ ३४५ ३४८ ३४९ ३५० चरणानुयोग परिशिष्ट-१ : संकलन में प्रयुक्त अरगमों के संदर्भ स्थल ५८८ ५४८ ५४८ ५५० 50% ५४५ ५४७ ५४६ ५७२ ५८५ ५७२ ༦་ ཝཱ་ ५६१ ५६२ ५११ ५६८ ५६८ ५१९ ५७३ ५७० ५७१ ५१४ ५७५ ५७५ ५७६ ५७६ ५७६ ५७८ ५७८ ५७५ ५७७ ५७७ ५७७ ५७७ ५७८ ५७८ ५५५ ५४३ ५५५ 100 ६०६ ५६३ ५५८ २०४ ६०६ टि. २०७ ረረ ६०७ ६१९ ५४६ ६०२ ५८० ५८२ ५८३ पू. ५५९ что ५५५ टि.५९६ २ २ २ २ २ २ २ २ २ २ २ २ २ ? t T ? t t १ १ १ १ १ . १ १ १ १ १ , 19 स. ? १ t १० 20 ११० t १० t to وا - उ. ७ ७ 1 Y ८ ८ ८ ረ ८ ८ ९ १० , २ २ १५२ १५४ ३५५ १५६ ३५७-क ३५७ ३५९ ३६० ३१० 150-77 ३६१ ३६२ ३६३ ३६५ ३६६ ३६७ १६८-क १६८ १६८.ग ३६८- प ३६८-५ ३६८-छ २४-२६ १४ ३७४ 1७५ ལ་ Eye १७८ ३७९ ३८० ३८१ ३८२ ३८३ ३८४ १८५ १८६ ३८७ १८८ ३५० ३९१ ३९२ ३९४ ३९६ १९७(१) ३९७(२) ३९९ 100 ফ ६०२ १६०८ ६०९ २६२३-६२८ २६२९-६३१ ६३२ Yot YOR ४०५ ५५४ ५४० ५५८ ५५९ ५६५ ५६५ 440 ५९९ ५३४ टि.५५८ टि. ५४४ पू. ५३७ टि. ५३७ 12.433 ५३५ ५३८ ५१७ दि. ५१७ ५३६ ५३६ ६१२ ६१२ ५३९ ५३९ टि.५३३ ५३८ टि.५९६ पू. ५५७ ५९९ ६१० €70 टि. ५३३ ६११ ५३३ स. ६८८ १५५ गा. ८.९ टि.५५६ २ ५ गर. ८.९ ५५६टि. २ ग. ८-९ ठाणांग-सूत्र ६०५ टि. ५५७ टि.५९६ ६१२ पू. ५१६ टि. ५३३ दि.५४९ T १० t ११ ११ ११ १३ १३ १३ R दि. ५१५ ५१८ ५१३ ५६५ १ t पू. ११५ ‍ १ १ २ २ २ म. २५ १ t २ + २ सु. सु. २ उ. ३ भगवतीसूत्र (विवाह प्रज्ञप्ति) ११ १३ tr उ. १५ १० १२ १ १ .. ६८७ ६८८ ६८७-९८८ प्रश्नव्याकरण- सूत्र अ. t 13 ४२३ औपपातिक-सूत्र M५५५६६६१ 144 ካረረ २४३ २९५ $10 ३५० ३५२ ५०० (१) ५००(२) ५१४ (२०) ६८९ ६८१ ६७४ ६९३ 耳 २६ २७ १७ १८ १८ १९ २० Y! २०५ PEEE**** उप. सु. ३० Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२४ चरणानुयोग : परिशिष्ट-१ : संकलन में प्रयुक्त आगमो के संदर्भ स्थल वशवकालिक-सूत्र टि.५७६ टि, ५५८ ५४१ बहत्कल्प-सूत्र .NANNAal ی سه ५३४ टि.५५६ दि. ५७३ २७-२८ ३१-३२ لا ५७६ टि. ५८० ६१८ و ५४८ و ४.६ ६१९ و ५६४ ५६५ 100 ५४० ६०७ ५३३ ५९८ ५२६ ५७१ ५४ و ६२० ६२० ६२० و । .. ४८ ४८-४९ १७-१८ १९-२० २५-२२ The ५४९ و 800AAAAAAAAAmansSLA २३-२४ و २५-२८ ५४९ ६२१ २१२ و ५८७ و ५८८ ५८८ و و २१ टि.५९॥ ५९८ ५२९ ५६४ २२ و २२-२७ ..... । । । । । ६०८ ५५६ ६०८ ६०८ ६०८ २८ و و ५४ ५४१ टि.५४६ ५८७ ५७४ टि. ५७३ टि.५८५ टि.५९८ २९-११ و यवहार-सूत्र و و ३३-५२ दि.६०० टि.५९६ ५८७ و उत्तराध्ययन-सूत्र २०-२१ २२-२३ و ५५२ ५५१ ५५१ ५४२ ५४२ ६१९ ५७१ दि. ५६८ و و ५४० टि.५४५ و 10-११ १२-१३ २२-२२ ५५८ و و दि.६१२ ६२२ و ६०० 400 ५४० ५४० ५५८ टि.५९६ ५५८ टि.५२६ टि. ५९ ५-८ و ११-१२ १७.३० ३३-४ و ६८-६९ و दि.५६४ ६०२ و १५ ३४ व्यवहार و ७२-७३ و ३३-३४ و १२ टि.५७४ टि. ५६८ ५७० दि. ५६२ टि.५७५ ५८७ ५८८ ६०० ७६-९५ ९८-१०० १०१ १०२-१०३ २०४-१०५ ११३ ५२५ ५३८ टि.५४४ टि.६१२ ५४४ दि.५४० ६२५ दि.५१८ و १५ २५ २०-११ १४-१५ निशीथ-सूत्र १०२ ११८-१३० ५६० ५४४ ६०२ ६०० ५५१ ६०२ ६०३ २-३ दशाश्रुतस्कन्ध १८९ ५६५ ५४ दि. ५४८ टि. ५४ टि, ५४५ टि. ५४६ ५७४ १०-१२ ५५४टि ५६० दि ५६. टि ५९६ टि. ५९८ टि. ५० ५४३ ६६६६111188६६- १४-१७ Somnarsuvv 4000040AAAAAAAAp टि.५७६ टि. ५७१ दि.५७८ टि.५७८ टि. ५७८ २१ (२) ५४३ टि १०-११ ४१-४३ ५७१ Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरणानुयोग : परिशिष्ट-१ : सकलन में प्रयुक्त आगमो के संदर्भ स्थल ४२५ ६०९ ६२१ ६०३ YMY ५५९ 40 ६४९ له له له ३८-३९ ६०५ له ६०३-६०४ ته له ४३० ४३५ १२ ४३३ ४३४ ४१५ ४३६ १७ १८ ५५२ ठाणांग-सूत्र له ५९१ له ५५० له ६२८ १८० NRNMrrrrrOMMMMMMMMM له له १८२ १८२ ५११ परि, (७५०) به टि.६३१ टि.६३१ टि.६२८ टि.६२८ टि.६३१ ५९२ १८८ १८८ २०-२८ १७५ यशवकालिकसूत्र ६१८ EnKTAKKK..55555 MAAAAAINA ४८ ४९ ५९० ६१० ५ १०६-११२ १३० दि. ६१ - 1111113552322322452-256..... rrrrrrrNNNNNNrrrrrrrrrrrrrrrrrrr MMMMMMANNYM निशीथ-सूत्र दशाभूतस्कन्ध-सूत्र K8633 ४५८ ४६० ) ४६०-४६१ ६४-७८ दि. ६१ दि. ६२८ टि. १२८ ५-१२ ६५१ टि.६५४ १५८ ६०८ १२-१३ निशीथ-सूत्र ५८९ ५८२ ५९० ५४९ ६०९ ५६२ ५६२ ५१० ६१२ MMMMMMM............. 66666GRAHASANA ६१७ ६७ ३४.१६ १२३ १२४ १२५ २२६-१२५ १३० १३t टि.६१ ६१८ १५६ शय्यषणा २ ५७३ ५९० परि. (40) ५६० ६५३ ६२१-६२२ ६३५ ६३७ Yt-६४२ आचारांग-सूत्र आवश्यक-सूत्र ہو له सूत्रकृताग-सूत्र ६४८ ६१७ به ४१३ ४१४ ४१४ सू. म. (३) एषणा समिति ६४८ ६४८ ६४८ भगवती-सूत्र Blablalh टि.६५२ आवाराग-सूत्र په له ته له له له له له له له له له له له ४१२-४१७ ४१८ ४१९ ४२० दशवकालिक सूत्र ६१८ ६१८ दि.६३१ उत्तराध्ययन सूत्र ६४० ६४० ६४० ६४१ ६२९ ७० २ - १७१ له له Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२६ धरणानुपोग : परिशिष्ट-१ : संकलन में प्रयुक्त आगमों के संदर्भ स्थल ३५ ४०-४१ ४२-४॥ १०.१३ ६५७ ६६८ ६ ॥ दि.०५ १८६ १८५ निशीच सूत्र . . १७९ ७-८ ९-१० ११-१२ ५०-५८ . ६१८ '७२ ६१७ ६७ १५० ६६२ १६४ १०-१२ १२-१३ ३४-३६ ६६५ ६६६ ६१७ निशीथ सूत्र १२१ १२२ ६६५ . ४७-५६ ६८९ ६८७ 22.2 10.HNNNNAWWANA वस्त्रषणा आचारांग-सूत्र ६८६ ६७९ : اللي م ६३५ م rururuMMING FurururaFM MINuwarming ,300mmm..HY १८९ १८८ ६३७ ६७७ ६७६ ه ५३५ ६८. ४ २१५-२१४ ५ २१६-२१७ ६२२०-२२१ । र ५५३ (क) ५५ () ५५४ ६५८ ६७४ ६७७ ८७.९० ६६९ १६१ ५५५ (ख) ५५५ (गो १८६ ६७० ६८८ १८७ ६८७ ६८७ م به لام له له له له له له له له له له له له له له ६७१ २४-२७ ६७० ५५७ ५५८ १५६१-५६२ २८-10 ६७१ १३-१४ ५EY टि.६५० ६७२ ६७२ ६४ ६०८ ६८५ ६८० १८० ६८१ ६८१ दि.१८१ दि.६८१ ६८२ २४-१५ ३९-४० ४२-४३ ४५-४६ ४८-४१ ५१-५२ १ ५६८ १५६९-५७१ १ ५७२-५७४ ५७५.५७८ ६५८ له له ६५४ ६५४ २९-३२ . ५७८ ६८० १८२ ६८२ ६७५ ६८४ १८४ له ५७१ ३४ 279 له १६-१८ १८८ ته ५८१ ५८३ ५८४ बृहत्कल्प-सूत्र आचारांग सूत्र ६८५ له له له 100 ११. ६५७ ठाणाग-सूत्र ६१० ६१२ ६१२ (२२ له له له له व्यवहार सूत्र ته दि.१७५ १७४ (७७ दि.७५ ५१० (का ५९० (ब) ५९१ (क) ५९१ ) ५९२-५९१ له १ १ ६१२ لي AN ५९४ به ६५२ १२-१३ १४-१५ २४-२५ बृहत्कल्प-सूत्र له ११५ له به १ . ५२७ (ब) ५९७ (ग) ३-४ به Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरणानुयोग : परिशिष्ट-१ : सकलन में प्रयुक्त आगमो के संदर्भ स्थल ४२७ .. . . ६९६ ५५८ निशीथ सूत्र दशवकालिक सूत्र . . ७०३ ७०० टि.७१३ जार - ५९९ ६०० (को ६००(स) ६०० ६०० (५) ६०५ () ५०५ (घ) ९०५ () - ६६६.४४ ७०९ ७०९ टि.७०८ १५-१८ १५.१८ ४०२ ५० ७०२ उत्तराध्ययन सूत्र ६०५ रजोहरण एषणा ठाणांग सूत्र ७१६ ठाणांग सूत्र ७१६ दि.६९० ७१६टि. ७१८ २५-२६ १७८ २२ भगवती सूत्र भगवती सूत्र व्यवहार सूत्र व्यवहार सूत्र ७१४ ७१८ दशवकालिक सूत्र निशीथ-सूत्र ६९९ बृहत्कल्प सूत्र ३५-३८ बहत्कल्प ७१४ ७१६ Wrur १९-२२ ७१४ ७१४ ६९९ ४०-४२ निशीथ सूत्र निशीथ सूत्र परिष्ठापनिका समिति ६७-७७ و आचारांग सूत्र ४१-४ आदान-निक्षेपणा-समिति १४५ ७२१ ७२५ ७२२ هوا له له له له ته आचाराग सूत्र ६४८ ५२१ - ६५०-(4) .६५१-२५६ २ १० م له ६९८ २-२, ४-५ ७.८ १-४ ५-७ ८-९ १०-११ १२-२३ २४-१४ 14-४० ७१२ टि.७१३ टि,७१३ २ ५२५८२ २ ६०५ (क-स) ५०७ (ग) दशर्वकालिक सूत्र ७०४ ७०० ७०६ ७१७ १८ ४१ ठाणाग सूब उत्तराध्ययन सूत्र ७०७ ४४.४५ ७१५ ५०२ २४ पायपुछण एषणा ७२० ७२० ७२० २४ प्रश्नव्याकरण सूत्र बृहत्वाल्प-सूत्र बृहत्कस्प सूत्र ७०८ m ७२१ Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थाग: परिशिष्ट-१ : संकलन में प्रयुक्त आगमो के संदर्भ स्थल उत्तराध्ययन सूत्र व्यवहार सूत्र गा. ७३८ ७२२ सूत्रकृतांग सूत्र ७३० निशीथ सूत्र ७३० ७३४ ७४ ૨૮ ७२६ ७३४दि ४१ ७१-७९ ठाणांग सूत्र 20 २६(२) २०४ १०२-१०३ १०५ १०६-१११ ७३० टि.७३१ ७० ७१४ ७३३ ७३४ ७२९ ७२७ ७२७ ७११ (क) ७११ (ह) 10 - YO.५० ७३४ ७३५ समवायांग सूत्र ७३७ गुप्ति ७३२ दि १० दशाश्रुतस्कन्ध आचाराग सूत्र वशवकालिक सूत्र .: आवश्यक सूत्र ७३० ४ २ ७३७ १ ५ १ .१४५ १५२-१५ | । ७३०टि. चरणानुयोग : भाग २ भगवती सूत्र निशीथ सूत्र १२. | दीक्षा आचाराग सूत्र संयमी जीवन दशवकालिक सूत्र आचामांग सूत्र १ ८ ८ १ १५८ २०२() २०९(क) टि. . टि. २/१० २/२ पृष्ठ २/२६ २/२० ४.९ ठाणांगसूत्र उत्तराध्ययन सूत्र पृष्ठ २/२८ २/२७ २/२७ ७०-७१ १००-१०१ १०६ १०७ १०७() २/२/३ व्यवहार सूत्र २१ ६६(क) १६(२) २ टि. १६५(१-0 २ टि. १६७ (१) २०४ १२२ १५-१७ २/२७ २/२६ २/३८ २/२६ १९ १८४-१८९ १८५(ग) ५ १५(स)-१९८ २०९(गो सूत्रकृतांग सूत्र २०-२१ महत्कल्प सूत्र ३५५(६-) १५५(८) Ma(२.) ७१३ १४-१५ पृष्ठ २/४१ २/२६ ४टि. र २ १ Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरणानुयोग : परिशिष्ट-२ : सकलन में प्रयुक्त आगमों के संदर्भ स्थल ४२९ ४.८ मगवती सूत्र १० २/११ २/२६ २/२६टि. १ २/५४ २/१७ २/10 २/x0 २/५३ २/५२ पष्ट २/३० २/३० . १ २ २/२२ १० २/२३ १० २/२३ ५० २/२४१० २१. र -04 २०-२१ १४-१५ २०-२२ १४-१५ 60MMAR २/१८ टि.९ २/१८ १८-२० २/४२ चु. २ २/४२ चु. २ २/ २ १२-१६ उत्तराध्ययन सूत्र १४ प्रश्नव्याकरण-सूत्र पृष्ठ २२ २/३७ २/३५ २/३९ २/४ २/४० २/३९ २२ २/२२ २/२१ २/३२ १/२ २ ५ २ ५ २ ५ . ९ १० २/५६ २/३९ २/३८ २/५५ १४ औपपातिक सूत्र २/४२ २/४० २/५५ २/५५ २/५५ २/ २-११ २/३९ २/१२ स. २७ १२६ दि. दि. २/१८ २/३४ २/२५ २/२१ । २/३ दि. २ २/४५ २ दशवकालिक सूत्र १०.१५ सु.६१२-१३७ सु. ७१४ गा.२३ १६ २ ५ २/५६ २० प्र. गा. पृष्ठ न. २/२१ २/१८३ म. २ 21848 ६० २/३४ २/४१ ठाणाग सूत्र ११-१४ १५.१६ २०..२२ २/२० १२ पाठ . २/२६ २/५२ १७ १८ २/१३ AAN ८२ २९-10 २/३ १४ २०४३ २/१४ २/३४ २/३४ २/११ २०५२ २/१ १४ १६३ १६३ २०६ २१० ३१० (-३) २/५० २०४२ २४५७ २४५ २५दि ३२.३३ ३ सु. १० - २/१७ २/१७ २/११टि, २/४ २/१३ २/१५ २/३६ २/१५ २/२८ २/१४ २/१४ ८-१० ११-१२ १२५ ३२५ २६ २ २/३९ २/२५ २/१२ २ ३५ ३५ AN ३६८ ४२२ ४२८ ४२९ ४२० ४९६ ५२१ २/७ १५-१६ १७-२१ २२-२५ २६-२८ २९-३१ ३२.३५ ३६-३९ vo-४२ बृहत्कल्प सूत्र २८ २/५०३ २१-२३ २/१५ २/११ टि. २/१५ २० ६१५ निशीथ सूत्र २/ २/४५ २/४९ २४९ २/५० २/५८ टि. समवायांग सूत्र ५३-५५ ५६.५८ २०९ २/५० १२ १२ सम. ६०-६३ ६४-६६ १७.६८ २/५१ २/५२ समाचारी a पृष्ठ २/१४ २/१४ २/४५ २/२९ २/५ आचाराग सूत्र २/1८ ४-४५ ८ ६० पृष्ठ शु. अ. उ. २/३८ ४१४ २/२८ Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३० चरणानुयोग : परिशिष्ट-२ : संकलन में प्रयुक्त आगमों के संदर्भ स्थल ४६५ ४६५(२) ११६ २/६३ २२१ २/१४ ४८० २/७२ २/७२ २/७२ २/६९ टि. १२४ ५०(१) २/६४ ४६८ ठाणांग सूत्र ५४९ ६०१ ४८ २/७० २/६८ २/७१ २/७७ पठ २/८३ २/८९ टि. २/२० टि. २४८३ २/९० टि. २/१० टि. २/१० टि. २/९० टि. २/100टि. २/९० टि. २/११ टि. २/९० टि. २/९० दि. २/२० टि. २/९. टि. ७१२(२) ७४८ २/६८ टि. २७४ ४१३(१ ५० ५९-६१ २/६५ टि ७५५(६-२) ७५५ (-1) २/५९ २/१८ २/७६ २/७१ २/७३ ५२ (क) ५२(ख) ६७४ VVVVVVVVVVVVVVVVVVVVVVV २/६८ टि. ७५५(६-७) १० YV भगवती सूत्र समवायांग सूत्र २/७४ मम पृष्ठ २४५७ टि. स. २५ उ. . २/७१ टि. १(२) २० उत्तराध्ययन सूत्र २/६५ बृहत्कल्प सूत्र पृष्ठ २/६२ २/६८ टि. २/५७ २/५५ २/५८ २/५९ २/५९ २/५९ टि १ ) ८-१२ २/६५ टि. २/१३ दि. निशीथ सूत्र ૨/૧૨ २/६८ दि. पृष्ठ २/८८ २/८८ २/८८ २/८८ २/८८ २/८८ २८८ २/८९ २/८९ २/८९ २/८९ २/८९ २/८१ २४८९ २/२० २८९ २/९० २/२० २/२० २/१० २/२० २/२० २/८६ २/९० २/९० २/२० २/९० २४९० २/९० २/५० २/२० २/९१ २४९९ २/९१ १७-१८ १९-२० २१.२२ २०-२५ २६-२७ २८ २५-१० (३०) २/६० २/६० २/६० उ. स. ४ २१ १० ४०-४१ ४२.४३,४६ w १० ५ १०४७ २/०७ २/७६ ૨/૨ २७५ १० २/६१ २/६१ २/६१ 化信信信信它允拓危依依它们它化信息化位e化他信信信信信信信化农信任你化怎但仍eeee (गा.७) प्रतिक्रमण २/६१ २/६२ टि. ३९-४२ ठाणाग सूत्र १(१) ४.४६ ४७-५१ २/६२ २/१५ २/९९ टि २/८८ दि. २/८८ दि. दशाभुतस्कन्ध १२ ) १३ १३९ 1440) १९4१४-१७) १९(१८-२० २१५ २/९१ (२) १२-१५ २४९१ २/९१ २/६८ २/६८ २/६९ २/१७ २/६७ २/६७ २/७१ २/७१ २/७२ २/८८ दि. Ver २/८४ २/८८ टि. २/८९ टि. २४८८ टि. २४८९ दि. २/१०२ २/८९ दि. V८९ दि. २/८५ टि. २/९९ ४ ) २८२ (क) ३ ३२७ (१०-१२) ३८१ (० १२० (० २/१ २/९१ २/५१ eceee २/५ Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरणानुयोग : परिशिष्ट-२ : सकलन में प्रयुक्त आगमो के संदर्भ स्थल ४३१ २/१४ ३६.३७ श. पृष्ठ २/२०१७ २/२०१७ भगवती सूत्र . २ २ २/९४ २/९५ २/१०९ २/१०९ २/११० २/११0 २/110 टि. दि. टि. टि. उपासकदशा सूत्र २/११ २/१५ २/९६ २/५६ म. १०० १०१ १०२ १०(१) १०३(२) १०४ २/१३ टि. २/११४ २/११४ /११४ २/११५ उत्तराध्ययन सूब २/२७ २/१७ २/९८ १०५ दि. सुत्ता. ६ 000 औपपातिक सूत्र दि. मा.१-४ पृष्ठ न, २/१०८ टि. सूत्रकृतांग सूत्र उत्तराध्ययन पृष्ठ 1. २/९१ २/१०२ २/१०३ २/१०३ २/१० २/२०३ २/१०३ २११०४ २/२०४ २/१०४ २/१०४ २/tov पृष्ठ न. २/१२१ यु. १ म. २ ज. ३ मा.११ पृष्ठ - २/१२५ भ. ५ गा. २३-२४ ठाणांग सूत्र दशाश्रुतस्कन्ध पृष्ठ नं. दशा. अनुयोगवार सूत्र पृष्ठ नं. अ. २/१०६ ३ २/१०६ ३ २/१०७ . २/१०७ उ. १ १ ११ (0 २/१२० दि. द. १७-३० #CCC.. पृष्ठनं. २/८२ १५M ९-२९ आवश्यक सूत्र २४८२ २८२ २१० २/१२१ ३४ २/१०५ ४ . २/१०६ ४ ३ २/१०८ टि ५ १ निशीथ सूत्र . 000 ६४-६५ ६६-६७ १८-६९ ९२ पृष्ठ न. २/१०५ समवायांग सूत्र १२ पृष्ठ न. २/२०६ २/१०७ २/१०८ २/१०९ २/१०८ २/१०७ २/१०९ २/१२० २/१० २/११० २/११ २/१९९ सम. पुष्ठ नं. २/११७ दशाश्रुतस्कन्ध सूत्र ७२-७३ ७४.७५ पक्षा. भगवती सूत्र पृष्ठन. २/१० टि. २/५० टि. २/८९ टि. १-१० १-१९ द. आवश्यक सूत्र पृष्ठ प. श. उ. २/१२६ ११ २/१०७ ५ २/११२ ७ २/१२१ ७ २/११२ ७८-७९(१) ७९ (२) ८०-८१ ८२-८३ ८७-८८ ८९-१० ११-१२ २/११४ पृष्ठ ९-20 सत्ता . २४८५ ४.५ 1 - 4 आराधना-विराधना २/११३ ८ २/११३८ २/१२५ ८ २/१२७ ८ २/११५ २/११६ टि. आचासंग सूत्र २८५ V८५ २४८५ २/८५ २/८६ ४८६ ૨૮૬ २८८ २/९१ २/१३ उपरासकदशा सूत्र १८ २०-२६(१) २/१२/ट, १ ५ ५ २/१२८१४ २/१५ १८४ २/१५. २ २ पृष्ठ नं. २/१०८ २/१०७ २/१०८ १५८ १९२ २१५ ११८ सुत्ता. ४ दि. टि. १ १ Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३२ चरणानुयोग : परिशिष्ट-२ : संकलन में प्रयुक्त आगमों के संदर्भ स्थल ADD सुयगडाग सूत्र अनाचार म. न. २/४ २/१४३ २/१W २/१४५ २/१४५ २/१४७ २/tvs आचाराग सूत्र २१७२टि, २/१६८ २ २/१५४टि. १ २ १२९ गा. ९-१० ६८२ ५८-६१ (अगसुत्ताणि) ४९ (अंगमुताणि) २/१६रोटे, २ ७९-८१ ११७ ११८-११२ पृ. नं. २/१७८ २/१७८ २/१७७ २/१७ १२(ख) १५० २/१४० २/१५१ २/१५२ १२० स्थानाग सूत्र सूत्रकृतांग सूत्र १२१ १२२ १२३-१२४ १२४-१२२ २/१४० २/१३८ ११८ पू. न. २/१७० २/१३५ २/१७० २/१३४ २/१५४ २/१२७ दि. २/१५६ टि २/१५६ टि. २२२ (0 ३२१ (१-४) १४ ५९७ प्रजापना २/१२५ टि, पद १५ सू. ८९९ उत्तराध्ययन सूत्र २/१७९ २/१२१ २/१९२ २/१९२ २/१९० २/१७६ २/१७६ २/१९२ به له له له له م ५९७ पू. नं. م م م . OMAN.ANNAR 11 ayu00-0unmम समवायांग २/१७० २/१७२ २/१७२ २/१७२ .. 'टि. ४-१५ १७-२० २९-३० १२-२१ २५६-२६० २११ २६३.२६७ २/१९२ २/१८२ टि, २ २/१७४ २/१९३२ २/१८९ टि, २ २/१६९ १७ २/१७२ २/१७१ २/१५४ mमरा भगवती सूत्र ‘दशाभूत स्कंध पृ.न. 04 ठाणांग सूत्र ----.... शा. W २/२६९ टि. २/२६४ टि. २/२६५ टि. २/१६५ दि. २/१६५ टि. २/१३० २/१३४ २/१३० २/१३३ २/१३५ २/१३९ २/११० २/१६७ २/१२७ टि. २/१२८ टि. २/१५७ २/१५८ SonnNASANNANO 1:25::... २२-२५ २६-१९ ३०-१२ म.न. २/१८० टि. २/२८१ टि. . १८१ दि. २/१७६ २/१८० २/१८० दि. २/१९१ २/१९० २/१८३ २/१८५ २/१६७ २/१६० १५-३४ 4666-- ८१० ५०२ ५२१ ६०६ ६०८ ७३८(१) ७३८ (२) १-१ २/१६३ २/११४ २८ १९.४१ ४२-n r७- ५०-५३ समवायाग सूत्र २/११७ २/१६८ जाताधर्मकथा सम. बृहत्कल्प सूत्र नृ. नं. २/१५५ टि. २/५३२ ita म.न. २/१२७ दि. २/१८९ २/१८५ टि. २/१८४ दि. २/१९० टि. २/१८९ टि. १ उपासकदशा सूत्र निशीय सूत्र भगवती सूत्र पृ.न. पृ.न. २/१७४ उववाई सूत्र आवश्यक सूत्र २/१८t २/१८. टि. २/१८१ २/१८१ २/१८१ दि. १६ टि. २/१३६ दि. - २/१० Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरणानुयोग : परिशिष्ट-२ : संकलन में प्रयुक्त आगमो के संदर्भ स्थल ४३ २/२०० ३९६१२) दशवकातिक सूत्र १५-२० २/१९५ २/१९५ २/९७ २/१९७ २/१९६ २/१९६ गा. पू. न. २/१८३ २/१९२ २/१७४ -rAREE: २२.२४ २४-२७ xxxrom rrrrr ३९९ (२) ४१४ ४१७ (१) ८ २९-३० २/१९२ २/१९६ ४७ ४१२ उत्तराध्ययन सूत्र संघ व्यवस्था २/२५३ २/२५४ २/२२७ २/२२८ २/२२९ २/२०१ टि. २/२२९ २/२०५ दि. २/२३७ २/२१६ २/२२५ टि. २/२२९ २/२३७ २/२०९ २/२०५ २/२४४ २/२०६ २/२३२ २२५२ ४२५३ २/२०० आचारांग सूत्र ६-१० ११-१२ १३ ५४ ५७० ५९४ ६०१ २१-२१ २/२४६ २/२४५ २/२०२ २/२४१ २/२३३ ७३९ (१) ७३९ (२) . न. २/१७७ २/१७२ २/१९२ २/१९० २/१७० २/१७८ २/१७९ २/१७८ २/१९० २/१७६ २/१७७ २/१७६ २/१७८ २/१७७ २/१९० २/१७६ २/१२० २/१९१ १९९ २०७.२०८ १२७ २२० २/२३४ मगवसी सूत्र सूयगडाग सूत्र सू पृ.नं. २/२०१ २/१९८दि. २/२०० २/१९९ २/१९८ २/ ४ १ २ २ १२२-१२८ (१२-१८) ५०-५३ सू. ७० ७४ २/१९३ २/१९३ २/१९४ २/२७१ २ २ २/२००दि २ ७ उत्तराध्ययन सूत्र सू.७२ समवायाग सूत्र दशाश्रुतस्कन्ध पृ.न. २/२५५ २/२३४ २/२५ पृ.न. २/२३१ पृ. न. २/१८५ २/१४ २/१८९ स्थानाग सूत्र दशवकालिक सूत्र अ. उ. नं. अ. बृहत्कल्प सूत्र १२७ (२) प. २/ टि. १८० (00 वशाश्रुतस्कन्ध २/१८० निशीथ सूत्र २/१९९ २/१९९ २/२०१ २/२३१ २/२०१ २/२०२ २/२०२ २/२०२ २/२५ २/२५२ २/२५२ टि. २/२५. टि. २/२०६ पू.न. २/१९५ २/१९४ २/१९७ २/१९७ २/१२७ २/१९७ २/१९८ २/१९८ २/१९४ २/११४ १८० १८०० १८0 (0 १८० (७) १८८८) १८८० १५८ (११) १९८ (१०) २१४(६-७) २२० (१) २२० (२) २२० (१) २९० १२० (१-२) ३२०1-10 पृ.न. २/२०६ दि. २/२०६ २/२०६ २/२०६ २/२०७ २/२०७ ૨/ર૦૮ २/२०८ २/२०८ २७ २६..... ७० बृहत्कल्प सूत्र २/१९९ २/१९९ २/२२७ २/२०१ टि. २/२०१ टि, २/१९८ टि. ४ ४ ४ २/१९४ प.न. २/२५४ Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३४ चरणानुयोग : परिशिष्ट-२ : सकलन में प्रयुक्त आगमो के संदर्भ स्थल ७-१८ ४८-५१ ५२ २/२०३ २/२०३ १४-१५ १६-१७ सूयगडाग सूत्र २० २० २/२२४ २/२२३ २३- २४-३८ २/२२६ २/२२६ २२२६ २.२२१ २४२३९ २/२४० २.२४२ २४२५६ २४२५५ २/२२५ २४२३० २/२३० १२२५टि. २०-२२ २२-२५ २६-२८ २० १४-१५ २४ प. नं. २/२५७ २/२५७ २/२५७ ११० २/२७१ टि. २ २ २३० निशीथ सूत्र ७१४ १६-१८ स्थानांग सूत्र २१५ ७-१८ सू. प.न. २/२३४ २/२३६ २/२५५ २/२४७ २/२४८ २/२४८ व्यवहार सूत्र २५.२६ २८-२९ ३०.३१ ३२-३३ ३४-३५ १६.३७ ७७ (१-२) ७७ (३-४) ७५६) ७७ (६) च. न. २॥ ४०-४१ ३१ (क) (७) ३ ९८८ () ३ १८८(१२) १८८ (१३-१४) १८-२२ २/२९ २/२४७ २/२२७ २/२५५ २/२५५ २/२२६ २/२३६ २/२७ २/१४८ २/२४८ २/४९ २/२४९ २/२१७ २/२४८ २/२४८ २/२५० २/२०९ ७७-७८ ७९-८० ८१-८२ ८३-८४ ८५.८६ ८९-९० ९१-९२ १३-१४ ९५-१६ ९७-९८ १९६ (२) k kkkkkammu.amartDAAR ६.१० ११ २५१ (२-1) २७८ (१-२) २७८ (३-४) ३०१ 204.20NAAoNKAN पृ. न. २/२६५ २/२७१ टि. २/२७९ टि. २/२५९ टि. २/२९७ टि. २/२६५ २/३१८ २/२६० २/२६६ टे. २/२६६ दि, २/२८५ दि. २/२८८ टि. २/२८२ टि. २/२८२ टि. २/२८२ टि. २/२७९ टि. २/२७९ २/२७७ दि. २/२७७ २/२५८ २/२९२ टि. २/२९३ टि. २/२५४ टि. २/२९४ टि. २/२७५ २/२७२ २/२७३ २/२७३ दि. २/२०४ २/२७३ दि. २/२७४ ४२८५ टि. २/२७६ टि. २/२७९ २/२५८ टि. २२६७ टि. २/२८२ टि. २/२८८ टि. २/२९० टि २/२९५ दि. २/२९६ /७४ २/२९७ २/२९७ २/२२७ २/३१८ १८-२२ २३-२९ ३३१ (७) ३३१ (८) १७-२५ ११-१२ २/२५६ २/३६ २/२२३ ३९२ १२१-१२२ २/२२१ २/२५१ २/२५१ २/२.१ २२-२ २/२५२ २/२९६ २/२६१ २/२१७ २/२१६ २/२१० २/२११ २/२१६ २/२२० २/२१४ २/२१.. /२१. २/२२ २/२१८ २/२१६ २/२१२ २/२३२ २/२२१ २/२२२ २/२२५ २/२२१ २/२१८ २/२१५ २/२१३ २/२२० २/२१४ २/२३० २/२३० २/२३४ २/२०५टि. २/२०५ २/२४ २/२४ २/२४४ २२१२ २/२६ २/२४ २/२१९ २/२०१टि. २/२०४ १८ २४-२५ २६-३२ तपाचार (बाह्यतप) ३९६ (९-१०) ३९६ (११) ३९६ ३९६ (१२) ४०० आचाराग ४२७ (१) ४२७ (२) هم له २२८ ५१४ १७.१८ ५१४ به به به ५४५ (२) ५४५(३) पृ.नं. २/२६४ ૨/ ૪ २६० २/२९१ २/२६१ २/२०५ २/२६५टि. २/२६५टि. २९० २/२९० २/२९० २२९० २/२९४ २/२१४ 06666Gnnar به १२-१८ १५-२५ ३१० ४०९ ४०९ ५०९ ४१० २ २ ५५४ १४.१५ १८-२१ ६८७ ७३२ به به به به بیم له ته له له له به له ५५१-५५० १०-११ १२-१॥ १९-२० समवायांग २/२९५ 11-६४ ६१८-६५९ 4.10 | पृ. नं. २/२५८ टि. २/८० له Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरणानुयोग : परिशिष्ट-२ : सकतन में प्रयुक्त आगमो के संदर्भ स्थल ४३५ २/२७५ २/२९४ टि. २/२२७ टि. २/२९७ टि. २/२०८ २/३०७ दि. २/२९७ दि. AA23 व्यवहार सूत्र २/२५७ २/२५८ टि. २/२५८ टि. २/२१८ २/२५९ २/२६० २/२६६ २/२६६ १00 १०-११ १२.१३ भगवती सूत्र प्. न. २/३१५ २/२६७ टि. २/२९४ टि. २४२२७ टि. २/२९७ टि. २/२९७ टि. २/३०६ ..AARMA २९ vo ४१-४२ २०-२१ २२-२३ २/२९७ २/२०१ २/१०५ 86 २/२६१ २/२६७ २/२८० र/२६१ टि. २/२६३ २/२१८ २५८ २/२५८ २/२५९ दि. २/२६१ टि. २/२०२ टि. १.२ ३-४ २/२६८ टि, २/२५८ २/२६८ २/२६८ २/२६८ २/२७२ २/२७२ २/२७८ २/२८८ २/२८८ २/२६५ २/२८० १९७ १९८ तपाचार (आभ्यंतरतप) आचारांग सूत्र ************ २५०-२५५ 6666666666666666666. दवाश्चतस्कंध २ २०० २०१-२०२ २०३ २०४-२०६ २०७ ૦૮ २०९ २१० २११ २१२ २१३ २१४-२१५ २१६ २/२६७ २/२६८ २/२७१ २/२७२ २/२७४ २/२७६ २/२१२ २/२७७ २/२७७ २/२७८ २/२८० टि. २/३४९ २/३४९ २/३५० २/१९ १ २ १ ४ १ ६ ६ १०२ ११४-१३५ १ १७७ (क)-१७८ ५१९६ (स)-१९७ २/१0 १८७ २९ २ १ ११ २१९ २२७ ४०७-४०८ सूयगडांग सूत्र उववाई सूत्र २० 32834 २०-२२ १५० २/१५० २/०५० २/१४८ २/३५० १९१ म. न. २/२५८ टि. २/२५८ टि. २५८ टि. २/२५९ २/२६१ टि. २/२५२ २/६६ दि. २२९७ दि. २/२१८ टि. २/२७१ दि. २/२७३ टि. २/२७४ टि. २/२७६ दि. २/२७७ टि. २/२७८ टि. २/२७८ टि. ३०० १०० 104-0 ३० (१०-११) ३० (१) ३०(१) 10 (४) १०(१७ २/२५१ २/२८१ २/२८२ २/२६ टि. २/२६८ टि. २/२८२ ૨૨૮૨ २/२८२ २/२८२ २/२८१ २/२८१ २/२८३ ૨૮૨ २/२८१ २/२८४ २/२८४ २/२८४ २/२८४ २/२८४ ૨૨૮ २/२८५ २/२८५ २/२८५ २/२८५ २/२८५ २/२८६ २/२८६ २/२८६ २/२८५ २/२८७ २/२८८ ठाणांग सूत्र प. न. १४ २०१८ १०(१७१९) १०(१९का ३० (२०) २/११८ R/ वशवकालिक सूत्र १७६ १७६(४६) १९४ (6) १९४(9 १९४() दि. १९८ (२२) टि. २०३(२) टि. २०३ २०३ (२) २०३ ( ४ दि. २०४(८) ४ टि. ROY ) (दि. ७ (१.१३) २/10 २/११ पृ. नं. २/२०० दि. म. ५ ज. . 81-18 उत्तराध्ययन सूब कल्पसमा २/१ २०४ प.न. २/२६१ २/२५८ दि. ने. २/२७५ २/२७५ ११-१२ ४ १५-२१ -१५४ २/११ ॥ २६३ Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३६ चरणानुयोग : परिशिष्ट-२ : संकलन में प्रयुक्त आगमों के संदर्भ स्थल २/३१० २१७ २१८ २११ २३५ २२८ २/३४६ २/३४६ २/२५२ २/३४१ २३५ २ २७२ २८२ २८८ २९२ (१) ३१९ ३२६ ३२६ ३६० टि. १९७ (१) ३९७ (२) ३९८ (२) ته له २/३३४ २/३१० २/३३७ २/३४३ २/१४ २/१०९ ૨૨૨૮ २/३४१ !!! २/३३० २/३११ २/३१२ २/३४२ २/२०९ २/३१० २/३८ २/१३८ २/३४२ २/३५१ २/३५२ २/३५२ २४३५२ २/३५२ २/३५३ २/३५३ २३८ به له له له له GAN KR: २/३३७ २/३४२ २/३४८ स २१५ २ २२० २२. २१॥ २३ २३ टि. ४६५ ४९७ (१) २४५ २४१ २६२ २४७ २/३४२ २/३५२ २/३५४ २/३५४ २/१५४ २/३५४ २/१५६ कल्पसूत्र टि४८९ २४८ २४९ २५०-२५५ २४ २/३०९ टि.५११ २/३३० टि.५२८ २/३१७ २/३२२ प्रश्नव्याकरण दि पृष्ठ २४. २/३३० २०११ २/३३१ २/३४ २/१४३ २/३२७ ያንን २/१३० २/३१० २ . दि.६८८ टि.५९४ ५९७(२-क ५९७ (२ ख) ५२७ (२ ग) ५९७ (२ ) ३१-३२ २/३२२ २/३२१ २/३२३ २/३४ २/३१८ उववाई सूत्र दि.५९७ व्यवहारसूत्र पृष्ठ २/१०९ २/३०९ २/३३८ २/३५२ २/३२० पृष्ठ -१४ टि. १०४ () टि, १०४ (२) ६०५ ६८८ दि. ७१२ (३) दि. ३० (२) टि.३०(२२) टि. १० (३० टि, २०(1) टि, ३०(३७-४२) टि.१० (३७-४) टि, 20 (३७-४) टि, 10 (१७.४९) टि.३०(१७-) टि, ३० (५०-५५) १५-१८ २/३५४ २/०५४ २/१२७ ያነO २/१३५ २ २/३१० २/२१० २/१३८ २/३९८ २/३२० २/३१० २/३१० २/३१० ७३२ (२) ७३२ (१) ७३२ (१) २/३५४ २/३५६ २/१२१ CAM दर्शवकालिक सूत्र समवायांग सूत्र गा. २७ ያና २/१३८ २/३४१ २७-20 टि ९ 2 ४o.yt पृष्ठ २/३५७ २/३५८ २/३४३ २/३५७ २/३५७ १३.१४ ९-१० निशीथ सूत्र टि. २/३०९ २/३१२ २/३३८ १(१) १(१) उत्तराध्ययन सूत्र भगवती सूत्र २/३४३ २/३५१ २/१४१ २/३४१ २/३४ ३६-३२ ८६ ३० -vrrrrrrr ... .. . . . गृष्ठ २/३६० የረ २/३५८ २/३५८ २५-२८ २-७ २/०४५ २/३४६ २/३२७ २/३३० १७-१० ३१.४० टि १-१६ टि.१७-२० २१-२६ २७.३१ २/३१० »v..... १९० १११ टि. ११२ २/१५७ २/३३३ २/३४२ ३८-४ २/३१० Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ १ २ पृष्ठ स. २/४०४ t १ २/४०४ १ २/१९७ २/ ३६४ २/१९७ P र २/१९७ १ २ २/३९९ १ ३ २/४०२ १ ३ १ २ २/३९७ १ ३ २/३६४ R २/ ३९६ १ २/४०३ १ २/१९८ १ २/१९८ १ 7/103 १ २/१९२ ₹ २/४०० १ वीर्याचार आचारांग सूत्र ३ ३ R き 1 २/४०१ ₹ २/३९५ २/१९४ ? २/४०२ १ २/ ३५७ १ २/३९६ ३ ३ ३ १ २/३९७ १ २/४०० १ २/४०४ ۲ २/२०१ Y २/४०२ १ २ ३ च २/३९९ १ २ २/४०२ १ 4 पृष्ठ २/४०१ २/०६८ २/३७८ अ. उ. १ १ t t t २/ ३७९ १ २/३९८ ९ २/१६८ P ३ Y १ ६ १ २ २/ ३६३ २/४०० २/ ३९३ २/४०४ २/३९४ t R/VOR १ २/३९५ १ ६ २/१७१ १ ६ २/३२७ १ ६ a २/३६८ १ ६ २/३७५ १ ६ २/४०० १ ८ २/४०३ १ ८ २/३९९ t ८ न २/१९५ ८ ५ २/३९५ १ ६ २/ ३७१ १ ८ ७ ५ P २ २ म ३ ३ ३ २ ३ १ टि. ११० १११ ११२ ११३ ११४ ११४-११६ (क) ११६ (ग)- १९७ सूयगडाग सूत्र स्.. २२ टि. ३ (क) ६-८ ८० उ. ₹ ९९(X) १०३ १०९ १ १ १२०-१२१ १२३ (क) १२४ (क) १२४ (स) १२५ (क) १२५ (ख) १६१ १७१ ९७२ (क) १७२-१७३ १८४ (क)- १८५ १८७ (क, ख, ग १८७ (घ) १८८ १२६ १२७ (क) १२७ (ख) १२८ १२९ (घ) १४३ १४६ १५५-१५६ १५७ (घ) १४९ (भ) १५९ (क. ग) १५० (४) १६० २२९-१३१ १४१-१४२ १९३-१९५ १९६ (क) २०२ (ख) २०२ (च) २०६ २१० (क) (ख) २२२ २२५-२२६ गाँ.. १-६ १३ १६-१८ १९-२० २१-२२ २१-२२ चरणानुयोग परिशिष्ट-२ संकलन में प्रयुक्त आगमों के संदर्भ स्थल ४३७ दशकालिक सूच सूत्र उ. २/ ३९६ २/३८१ २/ ३६९ २/ ३७० २/२७६ २/३७५ ૨/૨૬ २/ ३७५ २/३८५ दि. २/३७५ १ २/३७० २/३७९ २/१७६ २/३८० २/३८१ २/३८२ १ २/१८३ १ २/१८३ १ } t २९ २/३८४ १ २/१८४ t २/३८५ R २/५७२ १ २/१८५ २/ ३७३ २/१७३ २/१७४ २/ ३९९ पृष्ठ 3/140 २/१८० ૨/૧૮૦ २/१८१ २/ २८१ २/ ३७२ २/१९२ १ 1 पृष्ठ २/११९ t पृष्ठ २/१९४ 2/111 २/३६३ ? २/१६४ t २/१६५ १ २/३६३ t २/१६५ र १ २/ २६६ २/४११ २/१८० १ २/१७५ २/१९९१ २/४०६ t १ १ १ ९ १ Y Y ५ ८ ₹ ༡ཧྨ་ * म. ረ ८ ८ १ १ १ ठामांग सूत्र १ १ समवायांग सूत्र सम. २२ भगवती सूत्र उ. ~~ १६-१७ १-३ Y ५ ६ ७ ८ ९-११ १२ १३ १४-१६ १७ २-१४ १५-२२ 2-15 ८-१० १-५ 4-6 ९-१३ १६-१७ २२ १-९ २१-३१ १९-२२ २९-३० १-३ ४-९ १०-२१ २२ २३ २५-२६ २४ ० ३१ २१-३४ २१-२५ 婪 ३६१ (९) ३६१ (२) ३६१ (३) ३६१ (४) ३६१) ww ६४९ इ. ९(९) T २४ १० पृष्ठ २/३९५ २/४०५ २/३८० २/४०८ २/५७६ २/२७९ पृष्ठ २/४०० २/ ३६९ २/३६९ २/ ३६९ २/३६९ २/३६९ २/३७० 7/300 २/३७० दशाश्रुतस्कंध पृष्ठ २/३६७ दसा. ४, सु.६, २/३७१ २/३७२ २/३७४ २/३७४ २/ ३७४ २/३७५ २/ ३७६ २/३७६ २/३७७ २/२७७ २/३७७ २/३७७ २/३७७ २/३७८ २/१७८ २/३७८ २/ ३७८ २/३५२ २/३९२ २/३९२ २/३९६ Tow २/४०७ २/४०८ २/०८ २/०८ २/४११ २/४११ २/३८५ ९/००५ २/४०५ २/८८ २/१८६ २/१८९ २/१९० २/१९२ २/४९० अ. २ *//** зточ २/४०५ ४ ८ 4. ९ १० उत्तराध्ययन सूत्र 34. २ २ २ २ ७ ७ २९ २९ ३९ कर ३२ ३२ ३२ ३२ ३२ ३२ ३२ १२ ३२ १५ गाया ४ २७ २७ ay ६-८ ११-१४ गा. १-१७ गा. १५-१६ टि. २ ४-५ ६.७ ८-९ १०-११ १२-१३ १४-१५ १६-१७ १८-१९ २०-२१ २२-२३ २४-२५ २६-२७ २८-२९ ३०.३९ ३२-३३ ३४-३५ ३६-३७ २८-३९ Yo-x? ४२.४३ Yx-x4 ४६-४७ ४८ ༣ ११ ११-१३ १-२ 1-10 ११-१३ १४-२२ २१-२७ २८-३० ३० Yo ६-९ २९ २२-३४ ३५-४७ ४८-६० ६१-७३ ७४-८६ ८७-९९ ९००-१०६ १०७-११६ २९ Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट : २ चरणानुयोग- शब्द सूची अदक्कन्त २/१०० अइक्कम २/८३.८४ अक्रमण विसोही २/८४ अइभार २/१०८ अइभूमि १/५४५ अमाय पाण- भोयण १/३२४ असार १ / १३७,१३८, २/८३,८४,९३, १०७,१०९, ११०,१११, ११२, ११४ अरे गहिय १/६८९ अलोलुप १/८२ अवहास १/१९४ अकष्प २/४५ अरुणद्वियाण १/५५६ अकप्पणिज्ज १/४३२ अकष्पित आहाराइ २/४८.४९ अकम्म १ / १४७, २१० २ / ३६३.४०१ अकम्मदीरिय २/३६४ अकम्पंस १/१७९ अकरणिज्ज किन्दा १/३०२ अकसाइ १/१०७ अकमिण चरम १ / ६८६ अकसिण वत्य १ / ६७९ अकसिणा २/३११ अकाममरण २/१७०,१७२ अकाल १/५४४ अकिञ्चद्वाण २/३१९,३२०,३२१ अकिच्चाण सेवण १/४२३ अकिरिय १/१६७,१९८, २/४११ अकिरियआया १/७४१ अकिरिया १/९०३, १३४, १५२.१६४, १७०,१८९ अकिरियाफल १/१०३ अकिरियावाई १/१७०, १७२, १७३, १७८ अकिंचण १/३०० २/४५ अकिंचणता २/१३ अकुकहल १/८ अकुसल २/१८३ अकोहल २/२७ अकोविया १/१८०, २/३८१ अकोण १/८२ अकडूयए २/२७४ अकंपिय (गणधर ) १/७ अकोस परीसह २/३६८,३७५-३७६ अक्वायाणिस्सिया १/५११ अक्खात पवज्जा २/६ अक्खीणमहणतिय १/२२३ अकदेवकराण पायच्छित्त २/३३० अक्खेवणी २ / २४७ अखण्ड चम्म १/६८६ अखेय(त) १/१८२.१८४,१८५ अगडसुयाणं वरुण १/६६४ अगणि १/२२६,२४६ अगणिकम्मसमारंभ १/२३४,२३५.२३६ अगणिकाय १/ २३६ अगणिसत्य १/ २३४,२३५ अगार १/१३२, २/१,२,३,७०,१२१, १२५ अगारधम्म २/१०८ अगारव २/२५७ अगारवास २ / ३७६ अगारसामाध्य धम्म २/१०८ अगारि २/४०८ अगारिकम्म २/५५ अगारिण १ / १०५ अगुणप्पेही २/५६ अगुसी १/७३० अग्ग २ / ३९६ अग्गपिड १/५८८,५८९ अग्गबीयाद १/५७७ अग्ग २ / ३९७ अरिसमूह ( गणधर ) १/७ अग्गी उवभा २/१९१ अग्गी उवसग्ग २/२८३ अंगलिया २/२२१ आगति १ / १९९ आगाढावयण १/५३२ अचवखुदंसणगुणष्पमाण १/२३ अचवले १/८२ अचित्त १/५१० अवित्तकम्म १ / ६३५ अति परिग्गह २ / ११० अचित्ता २/२०६ अतिदत्तादाण २/१०९ अचियत्तकुल १/५४५ अनियतविसोही २/१८१ अचियत्सोवघात २/१८१ अचिरकालकर्य १/७२० अचेल १/६७६,६७७,६८८ २/३७०, ३७१,३९५ अचेलग २/३७७ अचेल परीसह २/३६८,३७०,३७१ अलस्स पसत्य परिणाम २ / ३७९ अवेलिया २/२७५ अच्चक्खर १/९७ अवासायणया १/९९, २/१९४ अच्ची १/७४९ अन्यकम्प २ / १४० अच्व॑त॒सुही २/४०५ अच्वंबिल १ / ६३० अच्छ १/५४८ अच्छिपत्त परिकम्म १ / ३५६,३९०, ३९७,४०४ अच्छीपत्त परिकम्मकारावण १/३६८, ३७६,२८३ अच्छीपरिकम्म १/३९६,४११ अच्छीपरिकम्मकावण १/२६८ २७५,३८२ अच्छीमल १/३४०,३५२,३५८,३६४, ३७१, ३७८, ३८५,३९२, ३९९,४०६ अच्छेज्ज १/५०७, ६१४ अजय १/२४७ अजयणा १/२४७ अजणउक्कोसिया २/१३५ अजाणू १ / १२३ अजाया) २/११३ अजिय १/३ अजीव १/५९,९२५.१२६,१४१. १६०,१८९ अजीवकादय आरंभ १/२८२ अजीवभिस्सिया १/५१२ अजुत्त परिणय १/११९ जुतव १/११८ अजुत्तसोभ १/१९८ अजुन १/११७,११८ अजुत्ता १/११८ अजोगत २/१०४ अज्ज १/२०१ वि१/२०१ अज्जपणा १/११९ अज्जव १ / १३३ अज्जव (धम्म) १/३१,३२ अज्जा १/११९ अज्झणाणावरणिज्जा १/२०५,२०६ अज्झत्य जागरणा २/४३ अज्झत्यवण १/५१८ अज्झत्थिय २ / ३३७ अज्झप्यजोगसरहणजुन १ / ७३४ अयोगसुद्धादाण २/२१ अज्झयण छद्भवग्ग २/८२ अज्झसिर १ / ७२० अज्झोववज्जणा १/१२३ अकोववरण १/४७३ अझपत २/५४ अट्टझाण २/३५१ अट्टमाण लक्खण २/३५२ अट्ट १७४७ अट्टालय १/७४७ अटु मदुमिया भिन्तु पश्चिमा २/२९७ अटुकर २/२०१ अट्ठजाय २/३३३ नोट : प्रथम अंक चरणानुयोग भाग का सूचक है, तथा द्वितीय अंक पृष्ठ का जैसे प्रथम शब्द अहन्त- २/१००- अर्थात् भाग २ के पृष्ठ १०० में यह शब्द आया है । Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ I T अट्ठणाणायार १/११२ अट्ठदसी १/९०८ अभ२/७२ अट्ठमी पोसह १ / ६१६ अलोलुप १/४४० अट्ठविहकम्मराठि १/३२५ अद्वारसठाणा २/४५ अट्ठारस पावट्ठाण २/१८१ अहाती भी १/४५१ अदि २/६५ विमा १/२२१-२२२ अवरत १/६३.६८ अढोमोयरिया ६११ अणग २/३८२ अणगार १/६०,६१,१५२, २०५.२१०. २१५,२२८,२२९,२३१,३२७,३३४, ३३७,४८७, ४८८, २/१,२,३,१९, २०, १२१.१३६, १३७, १६५, १६७, २१६,२६२,२६३,२८०,२८१,२८२, २८३,२८४,२८५,२८६,२८७,२९७. २९८,३०१,३०५,३०६, ३२०,३७५, ३७६,३९४,४०२ अणगारगुणा २ / २९ अणगारधम्म १/३० अणगार सामाश्य १/७३९ अणगारिय १/१३२ अणच्चसायणसीला १/१०३ अपचावित १/७१५ अणच्चासायणाविणय १/७५,७६ अणज्ज १/२०१ अज्जदिट्ठी ९/२०१ अज्जधम्म १/२४० अणजपण्णा १ / ११९ अणज्जा १ / ११९ अजज्मोववरण २ / २६२,२६३ अट्ठा १/५०६ अणण्णदेसी २/२८ अणणाराम २/२८ अणतपण १/१३५ अणत्तव २/२८ अणतवओ अत्तवओयणा २/२८ अणत्यदंडवेरमण २/१००, १०८, १११ अणन्तधार पज्जव २ / ३३४ अणपन्नियदेवत्तण २/१३० अणभिक्कन्त किरिया १ / ६६४ अभिगहिया) १/५१२, २/७४ अणभिगहिय कुट्टी १/१२६ अभिगहिय मिच्छादक्षण १/१६४ अणवज्ज (अनवद्य) १ / १४६, १६८ अणवटुप्प २/२१६,३३०,३३१ अणवट्ठप्प पायच्छित्तारिह २/३३० गाह २/३१० अणवदग्ग २/५३ अणसप २ / २५८-२६५ अणय १/१०३ अणण्यफल १/१०३ अणण्हव १/४३२ अणाल १/१०७ अणागत १ / १७२ २/१०० अणागमण धम्मिणो २/३९५ अणागयवयण १/५१८ अणागार २ / १०० भणाढिता २/८ अणायि (देव) १/१२० अणानुबंध २०१५ अणावादी १/१७२ अणावानिय २/०४ अणादीय २/५३ अभौग २/३०९ अणायार १/१८७,१८८,५५६, २/८४, १७४-१९८ अणायार- भंड-सेवी २/१५४ अणारिय १/१५९,१७९,१६३.१९५, ४८९, २/६५ अणारियवयण १/२४५ अणारंभ १/२८२,४५४ अणारंभजीवी २/ ७३७ अणालोयण २/३२१ अणाविल २/४१ अणात १/४३४,४३५ अप्पासन १/१०४, २०७, २२०, २/२५७,४०५ अणासायमाण १/५०५, ५०६ गाडि १/५९१ अणियाठाण १/५०० अणि २/३७४ अभिनास २/४१ अपिच्च भावणा २/३९५ अणि २/२०४ अणिदाण १/४० अणिदाणया १/५३ मणिगामी १/३९८ अणियाण २ / १६८ अणियाणभूत १/३९ अणिरम १ / १५९ अभिसिद्ध १/५०७,५६३.६१४ अणिस्सर १/१४२ अणिस्सा १/२१६ १/२१२ अणुकेप ९/८९ अणुस १/४५४ अनुभाव पायचि २/३३० अणुच्चकुइय २/७४ अणुट्ठानवीय २/७४ अणुष्णवणी २/२८२ अणुष्णविय पाणभोयण भोई १/३०१ परिशिष्ट २ चरणानुयोग- शब्द सूची ४३९ अण्णापारा २/२०१ अणुत्तर १ / ५,६,५१, ६०, १००, १२७, १३४, १४५, १४७ अणुतरणाण दंसण १ / १९७ अणुतरणाणदसणधर २/४० अणुत्तरदसी २/४० अणुत्तर धम्म १/३६ अणुत्तरनाणी २/४० अनुत्तरोववातिय (देव) २/५३ अणुदिसा २/४७ अणुपालणासुद्ध २/९९ अणुप्पेह (1) १/१३३.६१७,६१८: २/ ३४२ अणुप्पेहा फल २/३४६ अणुभासणासुद्ध २/९९ अणुमाण १/१८ अणुमाणइत्ता २/३१८ अणुव १/४५२ अणुवीति १/१०८ अणुवीति भासणया १/२९६ अणुवीय मित्तोरगजाई १/३०१,३०२ अणुवीय बाय १/११२ अणुवीय भासी १/२५० अणुब्वय २/१०७,१०८ अणुसासण १/८४,८५,८६ अणुसोय १/१४२ अणुसोमवारी २/५३६ अणुस्सयुक्त १/४५५ अणूणाइरित्त पडिलेहणा २ / ६१ अणेगचित्त १ / ७३२ अगछन्दा २/४३ अणीमदसी १/४३५ retain १/१८१ गोवर १/४१८ अणकीडा २ / ११० मत १/३ अणतकायसंजुत्त आहार १/५७५ अतिघात १/११२ अतच १/६ अनंतनाणसी २/४१९ अणतनाणोवराय १/१०२ अणतमिस्सिया १/५१२ अणतमोह १/४५५ अणवरसमुदाणाकरिक्षा २/९६४ अनंतरहिया पुढची १/७४२ अनंतरागम १/२३ अतानुबन्धिकौह्माण माया लोभ १/१३४ अणविल १ / ६३१,६३२ २/२३५ अण्णउत्थिय १/१६७,३१०, ३११.३१२. ३६३, ३६४,३६५,३६६, ३६७, २६८, ३६९,३७०.३७१, ३७२,३७३,३७४, Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४० परिशिष्ट : २ चरणानुयोग-शब्द सूची अदीणविसी १/५३५ अदीणपण्णा १/११९ अदीणा(ना) १/११९ अदुगुछियकुल १/५४८ अदुटू १/१३० अदागसमाणे २/१०५ अद्धजोयणमेरा १/६११,६१३, ३७५,३७६,३७७,३७८,३७५,३८०, ३८१,३८२,३८३,३८४,३८५,३८६, ३८७,३८८,२८९,३९०,३९१,४९३, ५८६,६७७,६८७,७१४,७२८ः २/१३१,१३२,१९४,१९५,१९६, २३४,२३५,२३६, ३४३,३४५,३६३ अण्णउत्थियाण दमणपण्णवणा १/७४१ अण्णगणाओ आगयाणमणपदेसस्सविहि णिसेह २/२४२ अण्णगिलायचरए २/२७१ अण्णगिलायए २/२७० अण्णतित्थिय १/१९२ अपणतित्थिय पसंसाकरण २/१९७ अण्णपरिगहाए १/७३३ अण्णपरियावए १/७३३ अण्ण-पाण १/५३० अण्णमण्ण व्यहार २/२३१ नितिगि २.२८ अण्णमण्ण वेयावच्चकरण विहाण २/२२९-२३० अण्णमण्ण अच्छी परिकाम १/३११ अण्णमण्ण अच्छीपत्त परिकम्म १/३६२,४१२ अण्णमपणस्स उत्तरोट्र परिकम्म १/३६१,४१० अण्णमण्णस्स ओट्र परिकम्म १/३६०.४०९ अण्णमण्णस्स कायपरिकम्म १/३५७,४०५ अण्णमण्णकिरिया १/३४० अण्णमण्णम्स केसपरिकम्म १/२६३,४१३ अण्णमपणन्स चक्खुपरिकम्म १/११ अण्णमण्णस्स जंघाइरोमाण परिकम्म १/३५९,४०८ अण्णमण्णस्स णहसिहापरिकम्म १/३५९,४०८ अण्णमण्णस्स दतपरिकम्म १/३६१,४१० अण्णमण्णस्स पायपरिकम्म १/३५८,४०७ अण्णमण्णस्स भुमगरोम परिकम्म अण्णायचरए २/२७०,२७१ अण्णाण पमायदोस २/२४६ अतारिमा २/१८२ अतित्तिलाभ २/३८६.३८७,३८८. २०.३९१ अतिरत्ता २/५९ अतिराउल १/५१७ अतिहिसंविमाग २/१०१,१०८,११४ मतीरंगम १/०३९ भतुट्टिदोस २/३८६,३८७.३८८, ३९०,३९१.४०१ अतुरियभासी १/५१९ असेण २NO भतेणग ठाण २ अत २/४०४ मत्तगरहा फल २/३३४ अतधाण २/३२१ गणिनाफा २/३३३ अत्तदसण १२ अत्तक्सो २/२८ अत्तविष्णु २४0Y अता १/१७० मत्तागम १/२३ अत्तुकोस. २/१५४ अत्य 1/८४ अत्पकहा २/३४ अत्य (जानाबार) १/५५,११२ मत्वधर १/१०९,१२२ अत्यपडिणीय १/८५ अस्वसुयधम्म १/३० अत्यागम १/२३ बत्यिकाय १/१५४ भरियकाय धम्म १/३१,१२७ २/३४६ भत्यिय १/५७८ अत्वी १/we अधिरप्पा १/१४२ अधिरामण १/७३८ भदंत २/२५७ अवतहारी २/३८६,२८७,३८८,३९०, ३९१,०९ बदसादाणाक्व १/३१० अदिटुजायणा २/६७ अदिट्ठाण १/५८७ अदिदुधम्म १/९१ अदिटुलाभिए २/२७० अदिण्णा(ना)दाण १/१७३,२१२,२३२. २/५२,३८४ अदिपणा(नादाणामोवेरमण१/३00,३०१. ३०२,७३३, २/२९ अदिनाण्णादाण महब्वय १/१०७ अदितादाण-वय-नियम-वेरमण १/३०८ अदीण १/२०१ अदीणदिट्टी १/२०१ अबदामिस्सिया १/५१२ अडपलियंका २/२७४ अपेडा १/५३९; २/२८७,२८१ अदमागहा भासा १/१५ अबहार १/४२०,६४० अढा पध्यक्खाण २/१०० अवामिस्सिया १/५१२ अधम्म १/१८९ अधम्मठिय १/४६,७,४८ अधम्मपएस १/२७,२८,२९ अधम्मपसंसा पायच्छित्त १/५० अधम्पिय उवकम १/४६ अधम्मियकरण १/४५ अधम्मिय बक्साय /४६ अणा १/१२३,१२९ अधिगम २/२०७ अन्नत्या अणाभोगेणं २/९४,९५,९६.९७ बनमन्त्रकोमाणे पारचिय २/३३१ अन्नाण १/५९,१२६,१६४.१९५ अनाणकिरिया १/१६४ अन्द्राण परीसह २/३६९,३७८ अनायभासी २/५४ अनिन्हवण (ज्ञानाचार) १/५५. अनियट्टि २/१०४ भनियाण २/३७९ अनियाणया २/१८० अनिरय १/१५२,१५४,१५५,१५७ अनीहारिम २/२६०,२६१ अपकारकारगा १/१२१ अपच्चाणुताबी २/३२० अपच्चिम-मारणतिय-सलेहणा-झूसणा २/७३ अपच्छिम मारणतिय-सलेहणा-झूसणा झूलित २/१२१ अपच्छिममारणतिय सलेहणा-झूसणा भाराहणया २/१०१,१०७,१०८ अपजत्तिया (भासा) १/५११.५१२ अपजवसित १/१६४ अपहिच्छगा १/१२० अपहिलेहण १/७२९ अपहिलेहणासील २/७४ अपहिवाई १/२४,१२७ अपठिसेवी १/२३,४२४ अपहिसलीण २/२७८ अण्णमण्णस्स मलणीहरण १/३५८ अण्णमण्ण सीसवारिय करण १/४ अण्णवहाए १/७३३ अण्णाण १/१६७,१८० अण्णाणमोहसिण २/५२ अण्णाणवाय १/१७८ अण्णाणिया १/१८० अण्णाणियाण १/१७९,१८० अण्णाणी समणस्म गई २/५५ अण्णायउंच २/४१ Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट : २ चरणानुयोग-शब्च सूची ४४१ अपत २/३४ अपमज्जणासील २/७४ अपमतभावेण करणिज्ज किच्चाई २/३९३ अपरिकम्म २/२६० अपरिग्गह १४३९,४५४, २/४० अपरिगह आराहणा फल १/४५५ अपरिग्गह ठाण २/४६ अपरिमहस १/२१० अपरिगह महावय १४२९-४७४ अपरिग्गहियागमण २/११० अपरिग्गही १४३४ अपरिणय १/५७५.५७९,५८०.५८२, ५८३,११,६३२ अपरिपुय २/७२ अपरिमिब २/७३ अपारमाब/२०७ अपरिस्था /०९,३२० अपरिहारिव २/२७ अपक्षिमित २/२१६,२२१ अचमिचिय ३२५,३२६,३२७, ३२८,३२१ बपसत्य कायविणय १/७८.७९ अपसत्य मणविणय १/७७ अपनत्व वाविणय १/७८ अपसू१/३०० बपाश्याए/२७५ अपरिहारय १/१२१,६२२,९८६ बपाराय १/१०४ अपाविहारिष २/३३४.१३५,३१६ बपाम १/४३९ अप्पणो आपरियलक्खण वागरण २/१९६ अप्पत्तिय १/१७९ अप्पधिगरणे २/२४ अप्पमज्जिय-दुष्पमज्जियउच्चार पासवणभूमि २/११४ अप्पमज्जिय-दुप्पमज्जिय सिज्जा-संथारे २/११४ अप्पफरुसवयण १/५३२ अप्पमत१/२८३,५४०:२/१७८.१७९, ३९९,४०२ अप्पमत्त अज्मवसाण १७३७ अप्पमाणभोई १/३०४ अप्पभाय पडिलेहणा १/७१५ भणमाभो १/२२१ अप्पमुसावाय १/२९४ अप्पयरा १/१३८ अप्पलीण १/४५४ अप्पसमविट्ठी १/२२४ अप्पसायारिय १/६३५ अप्पसावम्ल किरिया १/१९ अप्पा १/१६०, २/४३,100 अप्पाउस कारण २/१०६ अप्पाणरक्ली २/१७९ अप्पाधिकरण २/२१६ अप्पाहार १/६११ अप्पियकारिणी १/५२५ अम्मापियर) /re अफलरायो १/t अफासुय १/५४९.५६०.५६१,५६३, ५६८.५६९,५७०,५७१,५७२,५७३. ५७५,५७६.५७७,५७८.५७९.५८०, ५८१,५८२,५८३.५८४,५८५.५८८, ५९६,५९७,५९८.६०७,६१६,६२९, ६३१,६५२,६६०.६७८,९४,६९५, ६९६.६९८,७२५. २/११५ अवहिमणे २/1 अबहुसंपन २/७२ अबहुस्सय १/११० अबाल १/१८२,१८३,१८४,१८५३ २/४०८ जबुद्ध जागरिया २/३९४ अहे १/११६ अवभचरिय १/३३३ अबभचेरविरमण १/३२१ अबभसेवी २/२३४ अभक्खाण १/१७३,२१२ अभुवाण २/५७,५८ अम्भत्तट्ट पच्चखाण सुत्त २/९६ अभओ १/२२१ अभयदाण १/३१८ अभिभोग भावणा २/१५३ अभिवन्त किरिया १/६३५ अभिवन्त कूर कम्मा १/५०४ अभिक्खलाभिए २/२७० अभिगमकुसल १/८४ अभिगमदसण १/१२७ अभिगम(रुई) १/१२६ अभिगहियमिच्छादसण १/१६४ अभिरगह २/२६८ अभिग्गह पम्वाखाण सुत्त २/९६ अभिग्गहम्मि १/५१२ अभिचारिय १/५०० अभिनन्दण (तीर्थकर) १/३ भभिनिचारिका १/५५०.५५१ अभिनवत्य १/६७९ अभिसेयट्ठाण १/४६१ अभिसेय रायहाणी १/५०० अभिहर १/५६०.६१४ अभूतोवभातिय १/५१५,५२०,५२१, ५२२,५२४ अमणुन पोग्गल १/७४ अमर भवण २/३५७ अमाई १/८२, २/३२० अमितपाणभोयज णिसेह १/३२९ अमित्त २/२५ अमियामणिय २/७४ अभिल १/४६ अमिसकपास १४२३,६८९ अमिमक्र १/१७९ अमिलाणि १/६५० भमुश्यिय २/१७४ अमुणी २/२७ भमुणी-मुणी मकब २/२८ अमुसा २/२४६ अमूद १/१०५.१३० मभूतादिट्टी १/१२६ ममेहावी १/१८३ अमोसलि १/७१५ अम्मापिसमाणे २/१०५ मथपाय १/६९३ अयसभाया (गणघर) १/७ अपलोह १२२ भयसिरिया १/७४ भयहारी १/३८४ अयंक १/१४६ भर (तीर्थकर) १/३,४,१९८ अब २/३७२,३९७ अरह णिसेह ४३ मरहय १/२५६,२६५ अरह-रह १/१७३, २/१० भरति अरतजीबी २/२७१ अरसाहार २/२७२ भरहा १/१,१२,१९,४०; २/१९८.१९९, ३४८ अपुट्ठलाभिए २/२७० अपुणरावसि २/५३ अपुग्णकवा १/१२१ अपुण्णा १/१२१ अपुण्णावभासा १/१२१ अपुस १/२00 भपुरकार २/३३४ अपुरिसतरकर १/१४८,६४५.६६९, ६९१.९२.६९७,७२५ अपंडित १/१८३ अप्पमविण्णादाण १/३०६ अप्पलिभोसहिभक्तणया २/११० अपडिनबया १/१३३,१३४ अप्पटिया २/ अप्परिलेहियदुपहिलेयिउच्चार पासवण भूमि २/११४ अप्पडिले हिय दुष्पडिलेहिय सिज्जा संधारे २/११४ अप्पडिविण्य १/१७३ अपरिहारिय १/६६० Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४२ परिशिष्ट : २ चरणानुयोग-शब्द सूची अराय १/४९९ अविणयकरण १/९९ अरिहंत १/१,२,३,२३,१२१.१६७, अविणयफल १/७१ १७१.२१५,५१०; २/२००.३९४ अवणीय (त) १/८६,८७,८९,९१.९२, गरिहामा मसाणा १,९५ अरिहतपण्णतधम्म १/१२९ अविणीयप्पा १/९१ अरिहताण २/३१९ अविद्वत्थ १/५०१,६३१,६३२ अरुणोववाय २/२२३ अविभूसा ठाण२/५१ अलाभ परीसह २/३६८,३७७ अवियत्त १/१८३ अलित्त १/५०३.५०७ अविवार २/२६० अलियनयण १/२५९,५२४ अविरहाति) १/४३७, २/१७४ अलूसय १/१०८ अविरोह धम्म १/३० अलोग(य) १/६०,६१,१८८ अविवेगुन्भुया उवसग्गा २/३८१ अल्लीणगुत्त २/३९७,४०१ अवुग्गाहित १/१३० अल्लीणता १/५८ अवगुयदुवारिय १/६५० अवककरभोई २/४०६ अब्बत २/३१८.३४५ अबगह पडिभा २/२९५,२९६ अन्चावारपोसह २/११४ अवज्झाणचरिय २/१११ अबुकत्त १/६३१.६३२ अवज्झाणता २/२५३ अब्बोयहा १/५१२ अवड्ढमौयरिया १/६११ अच्वंजणजाय २/२२४ अवणीत-उवणीतवयण १/५१८ असहय १/२६५ अवणीय चरए २/२६९ असईजणपोसणया २/१११ अवणीय-उमणीयचरए २/२६९ असच्च १/८४,१८१ अवणीयवयण १/५१८ असच्चदिट्ठी १/२०० अवण्ण १/५०,१२९.६१३, २/१५४, असच्चपण्णा १/११९ असञ्चमोसा १/७३१,७३४ अवण्णवाय १/५२५ असच्चा १/११९,२०० अवपणवाई २/१५३ असच्चामोसा १/५१०.५११.५१२, अवतारवाय १/१६१ ५१५,५१८,५२४ अवनवा (भासा) १/५३० असज्जमाण २/२४५ अवतन सच्च १/२९३ असज्झाइय १/६९ अबदले १/१२१ असमाय १/६६.६७ अवलंस २/१५४ असज्मायकाल १/६३ अवनयदंसणा १/२०१ असमायकाल विहाण १/६३ अवनया १/२०१ असमासु १/१३१ अवमारिय १/१६५ असण १/९४,९५,१५२,४४१,४७७, अवमोरिय १/५२७ ४७८,४७५,४८०,४८१,५०८,५०९, अवयणाण १/२९८ ५२०.५२२,५२८,५३७.५४३,५४७, अवरह १/६३,६८ ५४९,५५१,५५५,५५८,५६०.५६१, अवलित १/७१५ ५६३.५६८.५६९,५७०,५७१,५७३, अवलेहणिय १७१४ ५७४,५८५,५८६,५९०,५९५,५९६, अवस्मय १/५०३ ५९७,५९९,६०२,६०३,६०४,६०५, अवरविदेह १/२६ ६०६.६०९,६१०,६११,६१३,६१६, अववाए एगागी बिहार विहाण ६१७,६१९.६४१, २/७३,११५ २/२४५ असणार णिक्खवण १/६०९ अवस्सकरणिज्ज २/८२ असणाणं संगह निसेह १/४१ अवहेलस २/३६६ असत्य १/२३४, २/600 अवजण २/६७ असत्यपरिणय) १/५७५,५७६, अवाउडए २/२७४ ५७७,५७८ अवागरा १/१२० असबलचरित २/१०२ अवायदंसी २/३२० असम्भमा २/४१ अवायविजय २/३५३ मसमणपाउग १/७४७.७४८, २/२२६ अविजपुरिमा २/३९६ मसमाहिही धी) १/२१३.७३३,२/५४ अविणय १/१६४,१८७ असमाहिठाण २/१८५ असमाहिणा २/३८२ असमिय २/७४ असरण भावणा २/३९५-३९६ असायणा १/९३,९४,९५,९६,९८.९९ असातायावे(योणिज्ज १/२१४५५७, ५९९ असारंभ १/२८३ असावज्ज १/५१८,५१९,५२०,५२१, ५२२,५२४ असासताय) १/१६०,१७० असाहुणो २/५४ असाहया २/५६ असार १/१५२,१५४,१७१,१८१,१८९,५ ३१, २/२८ असिक्खाठाण १/९३ असिणाण ठाण २/५१ असिणाती, विअहभोइ, मोलिकडे दिआ वि राओ बंभयारी २/११६,११८ असित्थ २/७२ असिद्धि १/१५२,१५४,१८९ अभिपत्त १/५०७ असिप्पजीवी २/२५ असिय १/२५६ असिकिलेस २/२५२ असील १/१m असीलपण्या १/११९ असुर १/२00 असुइदिट्ठी १/२०० असुइसामंत १/६५ असुद्धदसणा-१/२०० असुडपन्ना १/११९ असुद्धा १/११९.२०० असुर १/१,४८ असुरिन्द २/५२ असुरिय भावण २/१५४ असूहदीहाउबंधकारण २/१०६,१०७ असहम जीव १/२८३ असंजम १/१४३,२८६: २/११,१६,४९ असंजमप्पगारा २/१४ असंजय १/४६,४७,१४ असंजयस्स आहारदाण फल २/११५ असंजयस्स गई २/१२६ असंघड़िय १४७८,४७९,४८० असंबर १/२१२ असविभागी १/८७,९१, २/१७७ असंदु) १/१६२: २/३७.५६ असंवुड अणगार १/२१४ अससट्रचरए २/२६९ मस्साओ १/२२१ अहक्खाय २/११ महक्खायचरित १/७३६ अहक्खायचरितगुणप्पमाण १/२४ अहवायचरित संजय २/१४ Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट : २ चरणानुयोग-शब्द सूची ४४३ आभितर तप २/२५८,३०९-३५: । आभरणचित्ताणि १७४६ आभरणविचित्ताणि १/६७०,७४६ आभरणाणि १/६७० आभिओग २/१५४ आभिओगत्ता २/१५४ आभिणिवीहियणाण १/५५,५६,५७,५८ आभिणिबोहियणाणविणय १/७५ आभिणिबोहियनाणावरणिज्ज कम्म अहस्सिर १/८२ अहाकडं १/५५४ अहाछन्द १/१४४ २/१९८ अहाछन्दविहारपटिमा २/२५१ अहालहुसग १/६५७ अहालंद १/५५१.६०२,६३२,६५१,६५४ अगिरण २/४२,७६,२४४,२५५,२५६ अहिगरिणी २/११२ अहितकारगा ठाणा २/२५३ अहियगारिणी १/५३१ अहियग्गी १/१०२ अहियप्या १/१७९ अहिंस २/४० अहिंसा १/२१०,२१६,२१९,२२१,२२२ अहिंसा ठाण २/४५ अहिंसा महाव्रत १/२१५-२८८ (पढ़म महन्वय १/२१५-२८८) अहिंसा सरूवरूवगा पालगा १/२२२ अहिसाए सट्ठी नामाई १/२१९ अहुणाधोय १/६३१,६३२ अहोदिसिपमाणाइक्कम २/११० अहोदिसिवय २/११० अहोराइयाभिक्खुपडिया २/२८०.२८७ अहोलीय १/२५ अकेसाइणी २/३७३ अंग-मगह २/२२५ अंध २/४०४ अंडसुहम २/७७ अंतकुल २/१६६ अतचरए २/२७१ अंसजीदी २/२७३ अंतरगिहे णिसेज्जाओ अपवाओ २/५० अंतराय २/१०५ अंताहार २/२७२ अतेउरपवेसकारण २/२२७ अतेबासिस्सप्पगारा २/२०३ अलोसल्लमरण २/१६९,१७३ अब २/४०७ अंबुखुज्ज २/२८६ अंबुसुज्जियाए २/२७५ आइक्लग १/४२६ आइक्खितए २/५० आइण १/७४५ आइण्णसंखड़ी १/६१५ आईणगाणि १/६७० आउकम्मसमारंभ १/२३१,२३२,२३३ आउकाइयआरभ १/२८२ आउकाइय जीव २/९,१० आउकास्य संजम २/१४ आउकादया १/२२५ आउकाय अणारभ ठाणा २/४७ आउाय १४४,२३१ आउजीवा १/२२६ आउट्टि १/४८७ आउठाण १/७२८ आउत्त १/४८८ आउय १/१४७, २/१०४.३४६,३६७ आउयकम्म १/२१४,५५७,५९९ आउर २/३०९ आउंटण पसारण २/९५ आऊ १/१६२,२२६,२४६ आऊ महाभूत १/१५४ आएसण १/६४४.६४५,६४६ आकारकरण १/७४५ आकंपइत्ता २/३१८ आकुण पट्टग १/६७८ आगर १/१७० आगम १/१८,२२,२३, २/२००,२०१ आमाण /६३ आगमतो(ओओदव्यावस्सय २/७८,७९ आगमती(ओ) भावावस्सय २/८१ आगाढ फरुसवयण २/१९४ आगारधम्म १/३० आगारसामाइय १/७३९ आगासगामिणो १/१६६ आगासपएस १/२७,२८,२९ आगास महाभूत १/१५४ आगंतार १/६३२,७४१,७१७ आजीविओवासग २/१२६,१२७ आजीविय २/११२,१२६ आजीवियतवपगारा २/२५८ आजीवियपिण्ड १/५६६ आणमणी १/५१४,५१६ आणय-पाणय-आरण-अच्चुय(देव) आमगंध १/५४२ आमलग १/१०१ आमलगपाणग १/६२९ आमिस भोगगिद्ध २/३८९ आमोदायोरिय।) १/३३१:२/२५८.२ ६६-२६८ आमोसग १/४५०,४९१,६८५.७०३ आमोसहिपत्त १/२२२ आमणि १/५१२ आयगवेसय २/२४ आयगुत्त १/१९२ आयगुत्त भिक्खुस्स परकम २/३९९ आयछट्ठवाय १/१६१ आयजोईण १/७३२ आयट्ठीण १/७३२ आयदण्ड २/३७६ आयणा १/१६८ आयतमक्खू १/M. आयतण १/२२१,४४२ आयपरिमाण १/७३२ आयमह १/७२९ आयरक्खा २/२०२ आयरिय १/१,८५,८६,९२.९९.१००, १०१,१०२,१२९.१३८,१५३,४९६, ४९७.६०३,६०४,६०९,६६८:२/८, ९,६६,६७,६८७१,७६,७६,२०५, २०८,२०९.२१०,२११,२१२,२१३, २१४,२१५,२१६,२१८,२१५,२२०, २२२,२२४,२३२,२३६,२३७,२३८. २४०,२४१,२४२,२४६,२५३,२५४, ३१९,३३६,३३७ आयरिय आसायणा १/९६ आयरियत्ताए २/२०१,२०२ आयरिमपहिणीय १/८८:२/२३१ आयरियप्पगार २/२०२-२०३ आयरियवयण १/२४५,२४६ आयरिय-वेयावञ्च २/३३८ आयरियाद अइसया २/२०५ सायनए २/२७४ आयसाँचे)घेयणिज्जा २/३८०,३८१ आयहियाण १/७३२ आया १/१६१, २४०४ आयाणनिम्लेव १/१४३ आणवणप्पओग २/११४ आणा २/२००,२०१,३९३,४००,४०१ आणाधम्म १/३० आणापाणुनिरोह १/१४७ आणारुइ १/१२६ आणावायमसलोय १/७२० आणाविजय २/३५२ आणाणुसरण उचएसो २/३५३-३९४ आणद २/३९७ आतब २/२७ आत(योवेयावच्च २/३३७,३३८ आतसरीरसवेगणी २/३४७ आता(या) १/१५०,१५१ आतावए २/२७४ आता यावण १/७०० आतंक १/६१२,७३७ आतायोकदसी १/२२४, २/३९६ आदाणगुत्त १/१७० आदीणभोई १७३ आधाकम्मिय १/६४५ आपुच्छणा २/५७,५८ Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४४ परिशिष्ट : २ चरणानुयोग-सब्द सूची आयादाणभंड निस्तेवणाममिति आरंभ १/३७,१३१,१७४,१७९२०८, १/२१८,२७९,२८१,२८२,४८५, २०९,२८२,४३९४८:२/३,१७, ७१२-७१९,७३२.७३३ १०८,१११ आयाणमट्टी १/१०६ आरमजीवी २/१७७.३६४ आयाणसोतगढित १/७३५ आरंभपरिच्याय १/१३५ आयाणि १/६७०,७४५ आरम्भ परिण्णाय २/११६ आयाम १/६२८.६३२ आरभसत्ता १/७४१ आयामय २/२६० आली थीणजणाारण १/३२४ आयामसित्यभोई २/२७२ आलस्स १/९३ आयार १/२३,८५.१५७.३०४ आलाव सलाव कारण २/२२७ आधारअक्खेचणी २/३४७ आलिसदग १/१७५ आयारकप्प २/३११ आलोच्य २/३२७,३२८,३२९ आयारकप्पपरिभट्ट २/२१३ आलोश्यपाणभोयणभोई १/२१८ आधारगोयर १/७४०४१ आलोयग २/३२४ आयारधम्मपणिही १/५१ आलोयण पाणभोयण १/२७९ आयारपकप्प २/२१३,२१४,२१७, आलोयणया १/१३३.१३४ २२३,२२४ आलोयणा २/३१८,३१९,३२०,२२१, आयार-पकप्पघर १/६६४ ३२२.३२३.३२४ आयार-एपणति १/५१.५४ आलोयणा अकरण कारण २/३२२ आयारपण्णत्तिधर १/५३१ आलोयणा अकरण फल २/३२३ आयारभावादेसनू १/५२८ आलोयणा करण २/२३० आधार-विणय १/७२ आलोयणा करण जोग्गा २/३२० आयारच २/३२० आलोयणाकरण कारण २/३२१-३२२ आयारसमाही १/५३.५४.८५ आलोयणा कारणा २/३१८ आयारसपया २/२०६ आलोयणा करण फल २/३२३-३२४ आयावणा २/२७५ आलोयणादोसा २/३१८ आयतियमरण २/१६९ आलीयणारित २/३१० आयबिल २/२७२ भालोषणा सवण योग्गा २/३२० आयंबिल पच्चक्षाण सुत्त २/१५ भामवण १८६, २/१०३ आयबिलिए २/२७२ आलुप १४५३ आरभडा १/७१६ आवउति ११६ आरामगार १/६३२,७४३,७४७ आवकहिय १/२४ आरामगिह २/२८२ आवकहिय अणसण २/२५८.२६० भाराहगीय) १/३०४,५१०.५११:२/६१, आवाहिय पडिमण २/८३ १२७,१२८.१२९.१३०.१३१,१३२, आवट्टसोय २/२७ आवतीति २/३०९ माराहगा अणारेभा अणगार आवायमसलोय १/७२० २/१३६-१३८ मावस्सय २/७८-८२ आराहगा अप्पारम्भा समणोक्सगा आवस्सिया २/५७,५८ २/१३८-१४० आधीइमरण २/१६९ आराहगा सर्पिणपचिदिय आस १/५४८ तिरिक्खजोणिया २/१४० आस-करणाणि १/४६. आराहणविराहणी १/५१५ आससि १/५३८ आराहणा१/५९:२/७७,८२,१३४.१३५. आसजुवाणि १/४६१ २५४,३६१,३६२ भासण १/६५७,६६१ भाराहणापगारा २/१३५ भासत १३४ आराहणाफल १/५२ मासत्ति १/३९ आराही १/५१५ आसत्यपर १/५०८ आराहणी भासा १/५१३,५१४ आसव१/१२५,१२६,१४२,१७०,१८९, आरियखेत २/२२६ २०५,२०६,२०७,४३ आरिय मग्ग २/३८४ आसबदार १३७ २/१०३ आरोवणा २/३११,३१२,३२७ आसबदार परिक्रमण २/८३ आरोवणा पायश्चित्त २/३११ आसाढी पारिवा १/ आसायणा फल १/९८ आसासा २/१०५ आसिल २/३८४ आसीविस १/९८.९९ मासीविसभावणा २/२२३ आसुर १/१६२, २/१५४ आसरकाय १/१३० आसुपण्ण १/१०४ मासुरत्ता २/१५४ आसुरय दिम २/४०७ आसोत्थ पवाल १/५७६ आसोय पडिवा १/६९ भासदिय १/३३६; २/४९ आहाका १/३४ आहा(घा) कम्म १/५५१.५५४,५५७, ५५८; २/१३४.१७१ आहाकम्मिय १/१४ आहार १/१८८,५३४,५३५,५३७,५६८, ५६९.६१०,६११.६१२,७२० । २/२६३,२६४ आहारएसणा १/२८० भाहारकरण २/७२ आहारजुसज्यम्सय १/६५१ आहारपस्वस्खाण १/३ /१०३ आहारपाण णिसेह १/५३९ आहारपोसह २/११४ आहार २/३२० भाहारहेज २/३८१ आहारसमिसि १/२८१ भाहारसरुव १/५३३ माहारमण पबिमा २/२८८ जाहियबिट्टी १/१६७ माहियपण्ण १/१६७ माहियबाई १/१६७ माहेण १/६१७,६१८.६१९ माहोहिय १/३९ मड २/२९२ जमखागकुल १/५४९ चाकारो २/५७.५८ चाणुलोमा १/५१२ चापरिमाण २/१०८.११० न्यालोभ २/२६५ गही २/२०५,३७८,४०८ जीगारव १/९० पीसकारमम्माण २/४२ तरिय १/२४/२/२५८-२५९ इसरिय परिक्रमण २/८३ इसरियपरिग्गहियागमण २/१०९ इसरिए भणेगविहे २/२५१ इत्विकह १/११४,११५ हत्यिकामभोग १/१५३,१७६ हस्वित्तट्टा निदाणकरण २/१५८ हत्यिभोग २/१५९ Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट : २ परणानुयोग-मम्म सूची ४४५ हस्थियभवलोयण १/७४८ हत्यिलिगसदा १/५१३ अस्थिवयण १/५१८ हत्यिवयू १/५१३,५१४.५१५,५१६ पत्थिविग्गह १/६१५ हत्यिवेदखेसण्ण १/३३५ इत्थिसापारिय १/६३५,६३७ इत्थी दियाण आलोयण णिसेह उ मेरग १/५७६,५८२,५८३,५८८ उच्चसालग १/५८२,५८३,५८८ उच्छोलण २/५६ उजाण १/५२१,५२९,७४७ जज्जाणगिह १/७४७ उज्जाणसाल १/७७ उज्जालिम १/५७० इत्थीकविवज्जणया १/४२४,४२५ पत्थीनिलय १/३२५ इत्थी परीसह २/३६८,३७२-३७४ इत्थी-पम-पंडगसंमत्त सयणासणवज्जणया १४२४ इत्थीपुरिस उवसांग २/२८३ इत्थीरामणिसेह १/३३४ इत्थीवस २/३८४ इत्थीविसयगिड २/०६ पत्थीवेय २/३२४,२७३ इत्थीण इन्द्रियाणमालोयणवज्जणया १/४२४४२५ इत्थीणं कह १/३१५ पत्थीण कूप्यार सहसवणणिसेह १/३२८ इत्थीहि सडि निसेज्जा णिह १/३२६ इरियट्ठाय १/६१२ हरिया १/१४३ हरियावहिया १/१४७,४८७,४८८ परियावहिया किरिया २/११२ परियावहिया परिमण सुत्त २/८६ (पोईरियासमिई १/२७९,४८५. ५०९.७३३ हरियासमिय १/२१०,२१७,७३२, पद्रिय अपदिसलीण २/२७८ इदियग्गी १/३२९ इंदियचोर बस्से २०१० इंदियणिग्गह फल १/७३६ इदियत्व १८६ दियदरसिण १/३२४ इदिय पच्चास १/१८ दिय पडियनी २/२0470 ईसर १/१६० सरकारणिय १/१५५,१५७ ईसरकारणियबाई १/१५५ हापोहमागण गवेसण १/५८ उक्रलियंट १/२८५ उमस २/४१ उसावर १/५०७ उगावात १/६७ उत्तिण २/८२ ग्य २/२८६,२९२,२९३ उग्यासणिए २/२७३,२७४,२७५ उझोसिया २/१३५,१३६ उरिखतचरए २/२६ ९.२७१ उक्खिस-निक्खित्तथरए २/२६९ जमिलतविषेगेण २/९५.९७ जग्गकुल १/५४८ उगतव २/२५८ जग्गमविसोही २/१८१ उग्गमोवषात २/१८० जग्गय वित्ती १/४७८,४७९ उग्गह १/६५३,६५४,५५५,६५६.६६०, ६६१.६६७.६६८,७४९ जग्गहमण्णुवणया १/२0७ जगह समिति १/२०८ उपमहसीमजाणणया १/३०७ उग्गणसीलय १/३०२ उग्गहाणंतग १/६७९ जग्गालगिलण १८३ उपभोसजायणा १/६८८ उच्चागोय १/१०,४५ उच्चार १/५४९,६४६,७२०,७२१,७२३, ७२४,७२५,७२६,७२७,७२८,७२९, जम्नुदिट्ठी १/२०१ उज्द सणा १/२०१ उपना १/११८ उज्जुमाग २/१९३,३२४ उज्जुमई १/२२२ उज्जुसुथ (नय) १/२५,२६,२७ उज्जुसुय २/७९ उपुहियाठाण १/४६१ उज्जू १/११८ उह १/१९१ जट्टिप १/७१० उहचिण १/५२८ उद्वीणिय १/४५९,४६० उट्ठाण सुय २/२२३ उडविसिवय २/११० उदिसिपमाणामम २/११० उनलोय १/२५ जा १/१२३,१२९ उण्णकपास १/२३,६८९ उह १/६३३ उत्तरकुरु १/२६ उसरगुण पश्चक्लाण २/९९.१०० उत्तरण १/५०२ उत्तरत्तिय १/५०२ उत्तरविही १/१०६ उसरा १/१८४ उत्तरोदरोम १/३७४ जत्तरोहरोम परिकम्म १/३५४.३८८, ३९५, ४०२ उत्तरो? रोम परिकम्मकारावण १/३६७, ३७४,३८१ उत्सार १/१४२ उत्तासणियाए २/२७५ उत्तिग १/२८३ उत्तिगलेण १/२८५ जवजाल १/५०५,५०६ उदउस्ल काय २/७० उदगपसूप १/६५३ उदगपोक्लल १/१५६ उदगम्य १/१५६ उपरि १/१५६,५२७ उदयग) १/१६६,४९९,५०१ उदयपर १/१६६ उदयसत्य १/२२१.२३२,२३३ उहि भत्स २/११९.१२० इसि २/४१ सिज्मय १/१४ स्मरियमय २/१९१। बहलोइय ववसाय ६ पहलोदयसह १५८ पहलोश्यारवेस भासति १२ बहलोग जासायणा १/१७ इहलोगपरिणीय १/८८ बहलोग परिबमा २/६ बहलोग संवेगणी २/३४७ बहलोगाससप्पभोग २/९३ बंगाल ८९,६१० हंगामकम्म २/१११ इगिणीमरण २/१६९.२६३ द १/१४१, २/१९९ विभूर १७ मह १/१८ दिमहापारिवा १/६३ उभार पनिमण २/८३ उच्चार-पासवण २/२८६,२८७ उच्चार-पासवण-सेल-सिषाण-जल्ल परिवा-वणासमिति) १/८५, ७३२,७३३ उच्चार पासवण भूमि परिहण १/७२१, २/७५ उभारमत्तय २/७४ उच्च ५/५८२,५८३ उन्मुखंडिय १/५८२,५८३.५८८ उपभोयग १५४२,५८३.५८८ उचागल १/५८२.५८३,५८८ Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४६ परिशिष्ट : २ चरणानुयोग-शब्द सूची उद्दिभत्तपरिणाय २/११६ उवघायणिस्सिया १/५११ उदीण १/१३८,१४८,५५५: २/४.२६५ उवचितकाय १/५२० उदीणा १/१२३,१२९ उवज्झाय १/१,८६.९९,१०२,१२९,४९६, उद्दसंड १/२८५ ४९७.६०३,६०४,६६८,२/८,९,६६, उहाणि १/६७०,७४६ २०५,२०८,२०९,२१०.२११,२१२, उद्दायण १/१९९ २१३,२१४,२१५,२१६,२१८,२१९. उद्देसिय १/१४४,५५८.६६९,७२२ २२०,२२२,२२४,२३२,२३६,२३७, उदेसियाइ आहार १/५९६ २३८,२४०,२४१,२४२,२४६,२५३, उन्नय १/२०१ २५४,३१९,३३७ उन्नयदिट्ठी १/२०१ उवज्झाय आसाथणा १/९६ उन्नयदसणा १/२०१ उवायत्ताए २/२०१,२०२ उपकारकारगा १/१२१ उवझायपहिणीय १/८८ २/२३२ उप्पण्णमिस्सिया १/५१२ उदज्झाय पददाण २/२१५ उप्पण्णविगायमिस्सिया १/५१२ उवज्झाय देयावच्च २/३२८ उप्पलाद १/५७७ उवट्ठाण किरिया १/६४४ उपाइय १/१७२ उवट्ठावण २/४ उप्पायणा दोस १/५६६ उवट्ठावण अजोग्गा २/१० उपायणविसोही २/१८१ उवट्ठावण कालमाण २१८ उपायणोवघात २/१८० उवट्ठावण जोग्ग २/९ उबडिय १/५०७ उवट्ठावण विहाण २/८ उम्भिय १/२२६ जवाणिहिए २/२७१ उम्भिण्ण आहार १/५६१ उवणीय-अवणीयचरए २/२६९ उभिषण(दोस) १/५६०,५६१ उवणीयचरए २/२६९ उन्भियलोण १/४८१ उवणीत-अवणीत बयण १/५१८ सम्भिया १/२४१.२४२ उवणीयवयण १/५१८ । उम्मग्ग १/१९५,१९६,६८५ उवभोगपरिभोगपरिमाण २/१००, उम्मग गमण १/४८९,४५० १०८.११० उम्मागदेसण २/१५४ उवमोग-परिभोगाइरित २/१११ उम्माय १/३२४,३२६,३२७,३२८,३२९, उववज्झा १/९१ ३३० २/२८७ उवधाइय १/१४५ उम्माय ठपणाई २/१७६ उववातिया १/२४,२४२ उम्मायपत्त २/३३२ उववूह १/१२६ उम्मिस्स दोस १/५७४ उवसग्ग १/६१२२/२४५,२६५,२८०, उम्मुग्ग २/३९८ २८६,२८७,३७४,३८०,३८५ उरब्भ २/४०६ उवसग्ग अणाहओ मुणी २/३८३ उराल १/१८८ उवसम १/१३१ उरालग १/१४१ जनसमिय (भाण) १/१६ उवइ वहावण १४९१ उवसंत १/८७,१८६,२/२५ उवएस (क) १/१२६ उवसपज्जित २/२२१,२२२ उवकरण असंबर १/२१२ उवसंपदाया) २/५७.५८,२०१ उवम १४५ उवस्सय १/६३२,६३३,६३४,६३५, उबक्सरसंपन्न १/५३७ ६३७,६३८,६३९.६४०,६४१,६४२, उवक्सडिय १/५२० ६४३,६४५.६४६,६४७,६४८,६४९, उवक्खर १/४३२ ६५०.६५१,६५५,६५६,६६३,६६५, उवक्खर संपन १/५३७ २/७३,२७५ उबगरण १/४२०.७१२,७२१,७२२ उवस्सय असकिलेस २/२५२ उवगरण-उपायणया १/७३,७४ उचस्सयपरिण्णा २/११८ उवगरण चियाए २/१२ उबस्सिया१/२०५ उवगरण दव्वोमोयरिया २/२६६ उवहह १/५३७ उवगरणपरूवणा २/५ उबहाण १/७,५५,१११ उवगरणजम २/१३ उवहाण पडिमा २/२७९ उवग्गहट्टयाए २/३४३ उवहाणव १/१०९ उवधात २/१८० उवहाणवीरिय १/३५,१९५:२/४०.२४५ उवहाणायार १/१११ उवहि १/७१४,७१५.७१६,७१८.७२०.' २/३९८ जदहिपच्चक्खाण १/१३३,१३८ २/१०३ उवहि वहावण २/२३६ उवहि विओसरग २/३५५ उवहिसकिलेस २/२५२ जवाणह १/४३३ उवादीतसेस १/४५४ उबादीयमाणा १/२२६ उवासगपडिमा २/११६,११७,११८, ११९.१२०,२८८ उवासिया १/५६,५७,५८,१२७,१२८, १२९,२०६,३२२, २/१,२,१७,१८ जवाही २/४०१ उसभ १/३, २/१९९ उसिण परीसह २/३६८.३७० उसिणवियह २/७२ उसिणोदग गहण २/७२ उम्सओ १/२२१ उस्सकिय १/५६९ उस्सटुपिड १/५९१ उस्सव १/६१६ उस्सा १/२८५ उस्सिचिय १/५७० उस्सेइम १/६३१,६३२, २/२५९ उछ १/५४१२/२३,४० एकल विहारिस्स गणे पुणरागमण एकादसमा उवासग पडिमा २/१२० एगट्ठाण पच्चक्खाण सुत्त २/९५ एगत अण्णत भावणा १/३९४-३९५ एगत्त भावणया णिब्वेय १/१४० एगत्तवियक अवियारी २/३५४ एगत्य आवासकारण २/२२७ एगपासियाए २/२७५ एगप्पवाई १/१६० एगराच्या भिक्खुपडिमा २/२८०,२८७ एगल्लविहार पडिमा २/२४४,२४६ एगबयण १/५१८ एगवयणविवक्ता १/५१२ एगवयू १/५१२ एगग्गमणसनिवेसणया १/१३३,७३३ एमल्ल विहार सामायारी १/७२ एगत अण्णावाय १/१८० एगत किरियावाय १/१६८ एगत किरियाबाई १/१६८ एंगतकूर २/५५ एगतणाणवाई १/१७८ एगतदिट्ठी १/१८७, २/५४ एगतपडिय १/४३४ Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट : २ चरणानुयोग-शब्द सूची ४४७ अंतचारी १/५३६ अंतधाणपिण्ड १/५६७ अंतराय १/१७ अंतरूच्छुय १/५८२.५८३,५८८ अंतलिस १/६७,५१९,६४७ अंतलिक्षजाय १/६५५,७००,७०१ अंतहुण्डी (देवी) १/९ असोगिहठाण १/६५३ अदुय बंधण १/१७५ अंधत १/४५ 'पगतबाल १/३१०.३११,३१२,३१३; २/२६३ एमत विणयवाई १/१८१ एंगागिरस समाही २/२४६ एगावली १/४२१,६४० एगासण पच्चक्खाण सुस २/९५ एगित्यिसद्धि १/७४७ एगागी भिमस्स अपसत्या विहार चरिया २/२४६ एगागी भिक्खस्स पसत्वा विहार ___ चरित्या २/२४५ एगीभाव २/१०४ एगे पाये २/२६६ एगे वत्थे २/२६६ एरण्ड १/१००,१०१ एरण्डपरियाय १/१०० एरण्डपरिवार १/१००,१०१ एरण्णवय १/२६ एरवय १/२६; २/२०० एरावण १/६,३१८ एरावती(ई) १/५०१,५०२ एवंभूत (नभ) १/२९ एलमूयग २/३५८ एलय २/४०६ एसणा १/१४३,५३८,५३९.५४०3; २/२६८ एसणाखेत्तपमाण १/५४७ एसणाविसोही २/१८१ एसणासमिति) १/४८५,५३३,७३३ एसणासमिय १/५४०,७३२ एणिज्ज २/११५ एसणोवघात २/१८० एसिय १/५३२,५३४ एसियकुल १/५४९ औगाहियाहार १/५३८ ओगिण्डर १/५३८ ओघाइयार पहिरमण सुत्त २/८६ ओधाइयार विसोहीकरणं २/१०६ ओटुकम्मकारावण १/३६६ ओट्टपरिकम्म १/३५४,३८८,३९४,४०१ ओट्टपरिकम्म कारावण १/३७३,३८० ओण्णिय १/७१० औदश्य (भाव) १/१६ ओद्देसिय अणायार १/१८१.१८३ ओभासिय १/७०७ ओम २/२६६ ओमचरओ २/२६८ ओमचेस १/६७६,६७७ ओमजण पुरस्कार १/१४६ ओमरता २/५९ ओमरातिणिय २/१३३,१३४ ओमथियाए २/२७५ ओमाणभीरु १/२० ओयण १/५५० ओयारिय १/५७० ओरालिय २/३६७ ओरालियकम्माई १/१४७ ओरालिय कामभोग १/३३२ ओरालिय परदारगमण २/१०९ ओरालियसरीरग १/६६ ओरालिय असज्माय १/६५ ओवत्तिय १/५७० ओवम्म १/१८,२१,२२ ओवामाथी १/५१ ओवायकारी २/५४ ओवाय पव्यजा २/६ भोवणिहिए २/२७० भोवीलय २/३२० मोसक्रिय १/५६९ भोसण्ण १/१९०, २/२७,२४८.३४५ मोसनविहार पडिमा २/२५१ ओसप्पिणी २/१९८ मोसहरहि) १/४१,५२१,५३०, ५७९.६२५,७५० औसहिजुन उवस्सय १/६५० ओहायमाण आयरियाइणा पद-दाण-निद्देस २/२१२ ओहारिणी भासा १/५१४,५१५, ५२२,५२३, ५२४,५२५ ओहाविय २/२१५ ओहि जिण १/२२२ ओहिणाण १/७३२, २/२८७ औहिणाण अरहा २/१५९ ओहिणाण केवली २/१९९ ओहिणाना)णस्त लोभगा १/११६ ओहिणाणजिण २/१९९ ओहिणाण पच्चक्ख १/१८ ओहिणाणविणय १/७५ ओहिदेसण १/११६,७३२ ओहिदसणगुणप्पमाण १/२३ ओहिमरण २/१६९ ओहोवहोवग्गहिय १/७१५ अंककरेलुय १/५७६ अंक पलियंक १/७४३ अंग १/१२६ अंग संचालण १/७४५ अंगादाण १/४१६,४१७,४१८ अंगादाण परिकम्म १/४१६,४१७ अंड १/२८३ अंडकड १/१६० अंडय।) १/२२६,२४१,२४२,२४६ अंडसुहम १/२८५ अंस १/१२३ अंतकड १/१६९ अतकिरिय १/१० अंतकिरिया १/२०७,२१० अंब १/५८०,५८१,५८२ अंडक जिय १/६३२ अंबडगल १/५८१ भवचोयग १/५८१,५८२ अंबपाणग १/६२९ अधपेसिय १/५८१ अबभिनग १/५८१ अवसरडेय १/५७६ अंबसालग १/५८१ अंबाडगपलब १/५७६ अबाहगपाणग १/६२९ असिया ओमीयरिया १/६११ अंसुय १/७४ असुयाणि १/६७० करणता २/२५३ कमाईण उपटूण १/४७७ कक्खडफास १/१७७ कक्खरोम १/३५३,३६५,३७२,३८०, ३८७,३९४,४०१,४०८ कक्खवीणिय १/४५९,४६० कच्छ १४६० कच्याइ अवलोयण १/४९२ कज्जलमाण १/५०८ कज्जलावेमाण १/५०७ कटुकम्म १/४८१ कट्ठक्खाय १/५३५,५३६ कट्ठमालिय १/४२१ कट्ठसिल २/२८२ कड १/४१ कडग १/४२१.६४० कहिबंधण २/३७० कहिण २/२९२ कण १/५७८ कणकुण्डग १/५७८ कणग १/१३९ कणगकताणि १/६७० कणगखइयाणि १/६७० कणगखचियाणि १/७४६ कणगपट्टाणि १/६७०.७४६ कणपूयलि १/५७८ कणगफुसियाणि १/६७०.७४६ कणगंताणि १/७४६ Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट : २ चरणानुयोग- शब्द सूची ४४८ रूपाणि १/६७०,७४६ कणगावली १/४२१, ६४० कण्डूसगबंध १ / ७१० कण्णणि १/५२८ कण्णमल १/३५२,३५८,३६४,३७१, ३७८,३८५,३९२, ३९९,४०६ सोय २०१७ पनि २/१७८ २/१५७, १५८.१६१ १/३० कण्हसोग १/२७६, २७७, २७८ कति १/१८६ कनियमहापाविका कन्दप्प २/१११,१५३ २/६३ कथमिवाह विराहामा २/१५३ काय २/१०९ पिपाम १/६२९ कपिंजल १/१७५ को १/२७५ रुपती २/११ कम्पट्ठियाण १/५५६ कप्पणिज्जभासा २/२८२ कष्पणीय उवस्मय २/२८२ कप्पणीय संधारण २/२८२ कप्पातीत १/५२ कप्पिय २/४८ पोवय १/५२ कम्बी १/१०९ कम्मर (यक्ष) १/९ कम्म १/६१, १४७,१८७ २/११०. २६३,३९९ कम्मकरी १/५५०.५५५.५७२.६३९ ६४१.६४२,६४५ कम्मकोषिय २/१७० कम्मर्ग १ / १८८ कम्मराठि १/१४७ २ / २७८ कम्मजिराफत २/४११ १/५५७५९९,६०० कम्मवीय २/३६७, ४०४ कम्म भैयणे परचम २/४०२ कम्ममकुव्वम २/३८ कम्मरय १/६०,४३६ कम्मविओसग्ग २/३५५,२५६ कम्मविवाग २ / ३७८ कम्मवेयणकाल १/४५५ कम्मसच्चा २/४०७ कम्मसमारंभ १/१५२,१५७,१५९,५४१६ २/२६ कम्मसरीरगं १ / १३५ २/३९७ कम्पया १/८६ कम्माऽणाणफला २/३७७ कम्मा णाणफला २/३७८ कम्मादाण २ / १११,१२६, १२७ कम्प्रेस १ / १४७ कयवयकम्म २/११६ कय-विक्रय २/५३२ करकण्डू १/१९८ करणगुणसेटि २/३३३ करण १/३२,१३३,१३४, २/२९ करम १/२८५ करीरपाणग १/६२९ करंड १/१०१ कलम १/१७५ कलह १/१०३.२१२ कलह नवसमप्य विहिणिसेही २ / २५४ कलहकरण १/४२२ कलहकारण २/४२ कलहडमरवज्जय १/८२ कलि १/४१ कलिंग १ / १९८ कल्लाण १/५९,१५२,१५४,१७१,१७८, १९०,२२० २/५७ कल्लाणभागी १/१०२ कविट्टसर १/५७६ कसाय १/४३७,५१९ कसाय असफिलेस २/२५२ कसायकलूसिय १/४५२ कमायणिसेह २ / १९० कसाया २/१०३ कसायपरिमण २/८३ कसाब पडिलीणया ९/१३२. १३४ २/२७५,२७६, २७७ कसामपमाय २ / १८० कसायपयणुकरण परक्रम २/४०३ कसायपरिण्णा १/११८ कसायविओसग्ग २ / ३५५ कसायसंकिलेस २/२५२ कमि सही १/५७९ कसिण चम्म १/६८६ कसिण वत्य १/६७९ कसिणा २/३११ करिनाकसि बाय १/६७९ कसेरुग १/५७६ कग १/४२६ कहा २/३४६,३४ काउस्सग्ग १ / १३३.६५२,६५३ २/६१. ६२,८४,३५६,३५७ सरकारी २/४२ काउसग्गपडिमा २/११८.२९५ 'काउसग्गफल २/३५६ काउसग्ग विहि सुत २/९३ काउल पडिमा १/४६१४६४ कामिणी २/४०० काण १/५२८ /४५ काणिय १/१६५.५२७ काम १/४४७,४४८ कामका २/३४६ कामकामी १/४ कामवध १/३४ कामगिद्ध २/१७९ कामगुण १/३३१, ४४७,४४८: २/४०५. ४०९, ४१० कामजल ९/७००,७०१ कामभोग १/१३५,१३९, १४०, १४६, १५२, १५३,१५४,१५५,१५७,१५९, १८७, १९९,३२४, ३३१, ४३५, ४४६, ४४७, ४४८, ४७४ २ / १७१, ४१० कामभोगतिब्बाभिलास २/११० कामभोगासप्पओ २/९२ कामरुवी १/४४६ कामलालसा १/४४६ कामा सप्पभग २ /१५४ कामेसणविद् १/४४ काय २/३९० कायगुती २/ ७३० कायअपडिली २ / २७८ काय असकिलेस २ / २५३ कायअसंवर १/२१२ कायकिलेस २ / २५८, २७३- २७५ कायमा १/१३१ कायगुतवाए फल १/७३६ कायगुती १/४८५,७१०.७३५ कामी १/७३२ कायगुती महत १/७३५ काममा २/११ काय २/४५ ereate १ / १४७ कायजोगपविलीणया २/२७० कायमा २/१११ काहि १/७२८ कायपओग किरिया १/१६४ कामपरिकम्म १/३२८.३५११८४.१९९ ३९८ कायपरिकम्म कारावण १/३६३.३७०, ३७७ कायपाय १/६९३ कायलिय १/२२३ कायविणय १/७५,७८,७९ कायसमाहारया १/१३२,१३४,७३६ २/२९ कामसमिति २/४८५ कायसमिया १/७३२ कासले २/२५२ कायसेजम २/१३ कायाणि १/६७०,७४५ काल १/४८६ काल (ज्ञानाचार) १/५५,६२-६९ Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट : २ चरणानुयोग-शब्द सूची ४४९ कुडपोय १/३२६ कुकुटि-अडग-पमाणमेत १/६११,६१२ कुच्चग २/२९२ कुच्चि -किमिय १/२६०.२६४,२६७, २७०,२७४,३४३,३७,३५० कुट्टण १/१७४ कुट्टी १/५२७ कुतुबुद्धि १/२२२ कुणाला १/५०२ कुणालाविसय २/२२६ कुणित १/१६५ काल आसायणा १/९७ कालोमोयरिय २/२६७ कालकूड १/१४ कालधम्म २/२६५ कालपडिलेहणा १/६२,१३३ कालपडिलेहणाफल १/६२ कालपरियाय २/३३९ कालभकासि २/४१ कालमेरा १/६४४ कालादक्रम २/११५ कालाकालसमुहाथी १/५३ कालातिकत १/६११.६१२ कालादि कारेवा १/४४ कालाभिग्गहचरए २/२६९ कासियमय १/६८ कालीपवंग संकास २/३६९ काबोयावित्ति १/५३५ कासवणालिय १/५७८ कासीराया १/१९९ काहिय १/१९० किणा १/५०६ किपहमिगाईणगाणि १/६७०,७४६ कित्ती १/२१९ किटिबसिय भावण २/१५३ किमिणिहर १/२७४ किमिणीहण १/२६०.३४३,३४७,३५० किमिणीहरावण १/२६४,२६७,२७० किरिय १/१५८,१५९,१६७.१७२,१९८ किरियवाद १/१७०,२०७ किरिया १/१५२,१५४,१५५,१५७,१८९ किरिया(इ) १/१२६ किरियाठाण २/१८९ किरियावाई(दी) १/१६७,१६८ किरियावाईदरिसण १/१६८ किरियासंपन्ना १/११६ किलिनगाय २/३७७ किलत २/५० किवणकुल २/१६६ किविण १/६४,६६५,६९२,६९७,७२२, कूरकहावण १/१४ कून्तुल्ल १/१७४ कृपतुल्ल-कूहमाण २/१०९ कूडमाण १/१७४ कूहलेहकरण २/१०९ कूहसखिज्ज २/१०९ कूडागार १/७४ केउर १/४२१ केयण १/७३२ केवलणाण १/५५,५६,५७,५८,७३२: २/२८७ केवलणाण अरहा २/१९९ केवलणाण केवली २/१९९ केवलणाण जिण २/१९९ केवलणाण-दमण १/११६ केबलदसण १/७३२ केवलदसणगुणप्पमाण १/२३ केवलणाण पच्चक्स १/१८ केवलणाणविणय १/७५ केवलणा(नाणावरणिज्जाण कम्म १/५६ केवलबोहि १/१२७,१२८.१२९.१३१ केवलमरण १/७३२ केवलमाभिणिबोहियणाण १/७४० केवलवरनाणदसण १/१४७ केवलि २/१,२,१७,१८ केवलिआराहणा २/१३५ केवलिकम्मस १/७३६; २/१०४ केवलिपण्णत्त धम्म १/३७,३८,३९,४०. ४८,४९,१२८.२/१५६.१५८,१५९, १६०,१६१,१६२,१६२,१६४,१६५. कुतित्यिनिसेवय १/४५ कुदसणा १/२०० कुप्पावणिय दवावस्सय २/८०,८१ कुप्पावणिय भावावस्सय २/८१,८२ कुम्भ २/३०९ कुम्भिपक १/५७८ कुमारेण १/१७५ कुम्म १/१३६.१७५,१९१, २/३६५ कुररी १/१४ कुराह १/५४९ कुरुवा १/१२२ कुलत्थ १/१७५ कुलथेर २/२०० कुलधम्म १/३१ कुलपहिणीय १/८८, २/२३२ कुलमय २/१९१,१९२ कुलय १/७०० कुलल १/१९२,३२६ कुलवेयावच्च २/३३८ कुलसंपण्णा १/१२२, २/३२० कुलहीणा १/१२२ कुवियगिह १/७४८ कुविय-पमाणावकम २/११० कुवियमाल १/७४८ कुविंद १/५०४ कुस १/२९२ कुसग्गमेता २/४०८ कुसपच १/५०४,५०७,५०८ कुसमण २/५४,५६ कुसमय (कुसिद्धान्त) १/७ कुसल १/१८२,१८३,१८४,१८५ कुसील १/१३८,१४२,१९०.३३४,३३५, ४५२, २/५६,२४८.३४५ कुसीलधम्म १/२३६ कुसील पटिसेवणया २/३८० कुसीलवडण २/५० कुसीलविहार पडिमा २/२५१ कुसीसलिंग १/१४ कहेउविजासवदारजीवी १/१४ कूअणता २/२५३ केवलिली)पवत्त धम्म-आसायणा १/९७ केवलिउवासग १/३७ केवलि उवासिया १/३७,३८ केवलिसांवग १/३७.२८.३९ केवलिसाविया १/३७,३८.३९ केवलिली) १/३.१२.२४,३७,३८.३९, ४०,५१,५६,५७,५८.६०.६१,१०६. १२७,२०५ केवलिमरण २/१६९ केवलीआसायणा १/९७ केवलीणठाण १/२२० केवलीपगारा २/१९९ केसपरिकम्म १/३५६,३९१,३९७,४०५ केसपरिकम्मकारावण १/३६९,३७६, किविणपिट १/५९१ किब्जिय ठाण २/१६२ किदिवसिय १/१६२ किसी उवमा २/७ किचूणोमोयरिया १/६१२ किपागफल १/३३१ कीपदोस १/१६१ कीयगड १/१४,६१४ कीय दोस १/५५९ कीव १/९३, २/५ कुइयं काय णीय १/३२४ कुहाय २/१११ कुछई १/७३८ केसरक्षण २/७६ केसलोय १/५३५, २/३७९ केसवाणिज्ज २/१११ केसी १/१९६,wom५ केसी (श्रमण) १/७३१ कोचगकम्म २/१९५ कोउयकरण २/१५४ Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खंध १/२३९ खंधपएस १/२७,२८.२९ गर १/५९ गइमुत्तमा १/११० गज्जदेव १/५२३ गजल १/६७०,७४६ गज्जित १/६७ गण १/४५: २/२४६,२५१,२५२,२५५, ४५० परिशिष्ट : २ चरणानुयोग-शब्द सूची कोउहल १/१४४ खत्तिय १/७४८,७४९ कोकतिय १/५४८ वत्तिय कुल १/५४९ कोकुइय २/१५३ खमा १/१३४, २/२९ कोट्टागकुल १/५४९ समावणया १/१३३,१३४, २/५५ कोट्ठागार १/७४७ खय १/१३१ कोट्टियाउत्त १/५६२ खरकटयसमाणे २/१०५ कोडीसहिय २/१०० खलियनिन्दणा २/८२ कोडी १/१६५ खलुक १/९०,९१ कोयपिडदोष) १/५६४ खाइम १/९४,९५,१५२,४४१,५३७, कोयव(वाणि) १/६७०,७४६ ५५८,५६४.५६९,५७०,२/११५ कोलपाणग १/६२९ खाणुयाइणिहरण १/२५४ कोलवास १/७४३ वाणुयार पिसरण णिसेह १/२८३ कोलसुणय १/५४८ खाणुसमाणे १/१०५ कोलुण १/२४९ खामणा सुत १/९३ कोवसीलता २/१५४ खारवत्तिय १/१७५ कोविय १/१०५ खिसियवयण १/२९९,५२४ कोसंबी १/५00 खीर १/१०१,४२३,४२७,५५०,५९५, कोह १/७,७१,९३,१७३,१८९,१९५, २/२७२ २१२,२९९, २/३९१,४१० खीरासविय १/२२३ कोह अपडिसलीण २/२७८ खुज्जत १/५ कोइणिस्सिया १/१ सुजित(य) १/१६५,५२७ कोहदंसी २/k00 खुडगाय) २/४.६७ कोहपिण्ड १/५६७ सुठ्ठिय २/७० कोहमुण्डे २/७ खुडिय मोय पटिमं पवित्र २/३०५ कोहविओसग्ग २/३५५ खुड्डिया २/४ कोहदिजय १/१३४, २/१९३ खुड्डिया मोय पडिमा २/२७९,३०५, कोहबिवेग १/५३४,२९६; २/२९ ३०६ कोहवेयणिज्ज कम्म २/१९३ खुहिया विमाण पविभत्ती २/२२३ कक १/१९२ खुरप्पसंठाण १/१७७ कैखा १/१३७, २/१०७ खुरमुंग्य /११९,१२० कखा-पदोस २/३०.३१ खुहा परीसह २/३६९,३८० कखामाहणिज्ज १/१३७ खेत १/४३२ कखामोहणिज्ज कम्म २/३४६ खेत ओमोयरिया २/२६७ कटक १/१४९ खेत्तायोपण १/५,१८२,१८३,१८४,१८५, कैती १/२१९ १९९,७४८, २/३९,३९९ कथय १/१०९ खेत्तपमाण २/६४ कंद १/२३९ खेत्तमत्तय २/७४ कैपिल्ल १/५०० खेतवत्यु-पमाणाइकम २/११० कंबल १/४५२.६५१.७११,७१२,७४६; खेत्तवुड्डी २/११० खेताइकन्तदोस १/६११,६१२ कबलगाणि १/६७० खेत्ताभिग्गहचरए २/२६९ कस १/१३९ खेल १/६४६,७२० सपाय १/६९३, २/४९ खेलगोल १/३३६ कुंडमोय २/४९ खेलोसहिपत १/२२२ कुंडल १/४२१,६४० खोमिय १/६७०,६७५, २/२९३ कुडिया १/४३३ खंड १/१०१,४२३,४२७ कुंथु १/३,४,१९८ खंत १/१८६ कुथुरासिभूत १/११६ खंति (धम्म) १/३१,३२ खझ्य(भाव) १/१६ खंती १/१३३,२१९, २/१९३ खओवसम १/८,३९,५६,५७,५८,१२८, खतिक्खम २/४१ १२९,२०६,३२२,३२३ खंते २/३२० खओषसमिया(भाव) १/१६ खेदए २/३९४ खज्जूरपाणग १/६२९ खंदमन् १/६८ गण अवागह कारणा २/२५३-२५४ गणटकर २/२०४ गणथेर २/२00 गणधम्म १/३१ गणधारण २/२१६ गणधारण अरिहा २/२१६ गणपडिणीय १/८८, २/२३२ गणपमुह २/२१७ गणपमुहा २/२२० गणपरिच्चाय २/२३७ गणत्रिओसग्ग २/३५५ गणचुग्गह कारण। २/२५३ गणव्यावच्च २/३३८ गणबेयावन्चकरा २/२०३ गणसमायारी १/७२ गणसोहकर २/२०४ गणसोहिकर २/२०४ गणसंकमण २/२४१ गणसंगहकर २/२०४ गणसठिइ १/४९ गणह(घोर १/७,२३,६०४, २/८६.२३८ गणहरसीस १/२३ गणावच्छेदणी २/२२५ गणावच्छेय १/९,६६,६७,६८.७१,७३, ७६,२०५,२१०,२१२,२१३,२१४, २१५,२१६,२२२,२२४,२३८,२३५, २४०,२४१,२४२,२४६,३३१,३३२, २३३,३३४,३५,६०४,६०६.६६८ गणिका आवागमणणिसेह १/३३३ गणिडी २/२०५,२०६ गणित्ताए २/२०१,२०२ गणिपिढग १/९,२३,१५६ गणिसंपया १/७५, २/२०६ गणिमागमसंपन्न २/७३९ गणी १/६०४,६६८,६९१,२/६६,२३८ गतभूमणमिg १/३२४ गति १/१९९ गति-परिकमण्णू १/१८२,१८३,१८४, गम्भदेसी २/४०१ गय १/३३ गरहणया १/१३३,१३४ गरहा २/३३३-३३४ गरुपत १/२१२ Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - -... परिशिष्ट : २ चरणानुयोग-शब्द सूची ४५१ - . . गरुलोववाय २/२२३ गलिगदहा १/९१ गलियस्स १/८९ गवेलग १/४३३ गवेसण १/५३८ गवेसणाकाले गमणविही १/५४ गवेसणाविही १/५४१ गह १/१७७ गहजूहियाठाण १/४६१ गहासवा २/३८२ गणे(सणा) १/५३८ गाढमालव १/५२० गाम १/४०,१९५,४६० गामकटय २/३७९ सामथेर २/१९९ गामवहाणि १/४६१ गामधम्म १/३१,३६,१९५,२३६,३३१ गाभधम्मनियंतिय १/६१५ गाम-पहाणि १/४६१ गामपिडोलग १/५४५,६०४ नाम महाणि १/४६१ गामरक्खकुल १/५४९ गामरत्वगवसीकरण १/७४९ गाभवहाणि १/४६१ गायणाइकरण १/४५९ गारस्थ १/४७४२/१७२ गारस्थिणी २/२३५ गारस्थिय १/३६३,३६४,३६५,३६६, ३६७,३६८,१६९,३७०,३७१,३७२, ३७३,३७४,३७५,३७६.३७७,३७८, ३७९,३८०,३८१,३८२,३८३,२८४, ३८५.३८६.३८७,३८८,३८९,२९०, ३५१,४९३,६७७,६८७,७१४,७२८५ २/१९४,१९५,१९६,२३४,२३५, ७११,७१२,७१३,७१४,७१८,७४३, ७४७२/६६,६७,६९,७०,७५,१२०, १२८,२२५.२३४,२३५,२५६,२८४, ३०५ गिद्धपुट्ठमरण २/१६९,१७०,१७३ गिम्ह १/६३४.६४९,६५०; २/७५, २२४,२२५,२२६ गिरिपक्खंदण २/१७३ गिरि पढण २/१६९,१७०,१७३ गिलाण १/१९४, २/६८.६९,३३८, ३३२,२७५ गिलाण आयरियाइणा पद-दाणनिदेस २/२११ गिलाग संलगनण पमान १५ गिलाणणियंठ १/६२८ गिलाणनीसाए २/६९ गिलाण पहिणीय १/८९ गिलाणपेसिय २/३३८ गिलाणवेयावच्च २/३३८ गिलाणस्स अट्ठा १/७५० गिलासिण १/१६६ गिलासिणी १/५२८ गिल्लि १/१७४ गिहकम्म १/६३६ गिहत्य २/४२.५६,५७,१३१,३५८ गिहत्यसकार १/५२५ गिहत्यसंसट्टेण २/९५,९७ गिहत्याण १/५८६ गिहवई १४५ गिहारम्भ १/६३६ गिहि-णिज्जा -वजण ठाण २/५० गिहितिगिच्छ १/२६० गिहिधूम १/२७८ गिहि-भायण-अभुजणं ठाणं २/४९ गिहिमत १/६०९ मिहिवत्य १/६८८ गिहिवत्योओगकरण १/१८८ गिहिसुष्यया २/४०७ गीय / गुजाग १/९१ गुग्माणुचरित १/५१९ गुण ४५३,६४० गुणधारणा २/८२ गुणप्पमाण १/१८,२४ गुणप्पेही २/५७ गुणवय पहिवत्ती २/८२ गुणब्बय १/३०३:२/१०७,१०८,१०९, गुति(ती) १/१०४,१२६,२२१,४८५. ७३०-७३८ गुतिदियाण १/७३२ गुरु १/८४,९८,१०३ गुरु अभट्टाणेण २/९५ गुरुकुलवास २/१०३ गुरुवंदणसुत्त २/८४ गुरुसाहम्भिय सुस्सूसणया १/१३३,१३४ गुल १४२३,४२७.५५० गुयिणी १/५८७ गेवेज्जग (देव) २/५३ गो १/५२१,५२९ गोच्छग(य) १/६९१,७११.७१२, २/५, ६० गोण १/४८९,५४८ गोणगिह १/७४८ गोणसाल १/७४८ गोतावादी १/४५ गोत १/१०७,१७ गोदोहिया २/२७४,२८६ गोपुर १/७४७ गोमय १/४८१,४८२ गोमयरासि १/६८२ गोमुत्तिया १/५३९: २/२६७,२८२ गोय २/१०४.३६७ गोयम १/७.१५.१६,३६,३८.३९.४०, ४५,४६,४७,४८,५२,५३,५६,८८,८९, १०२,१२५.१२७,१२८,१२९,१३५, १९४,१९८, २०५,२०६,२१२,२१४, २१५,३२२,३२३,४३४,४३६,४४०, ४५.४८८.५११,५१२,५१३,५१४, ५१५,५१६,५१७,५३३,५५७,५९९, ६००,६१०,६११,७३१,७४२,२/१, २,१७,१८,२९,३०,३१,९९,१००, १०१,११२,११३,११५,१२२,१२६, १२७,१२८,१२९,१३०.१३२,१३५, १३६,१३८.१४०,१४१,१७७,१७८, १७९.१९१.१९८,१९९.२००,२६३. ३०९,३४८,३५८,३५९,२६०,३६१, ३६२,३६३,३९४ गोयर २/३५९ गोयरकाल २/२८१ गोयरग्ग २/५०,२६८ गोयरगपविट्ठ २/३७६ गोयर चरिया २/२८१ गोयरचरिया अश्यार विसोही सुत्त २/८७ गोयरिया १/५३९ गोरमिगाइगाणि १/६७०,७४६ गोरसविगत ई) १/५३८ गोलारूवग १४६ गोलियसाला १/६२४ गोलोमपमाणमित्त २/७६ गारस्थियवयण १/२९९,५२४ गारबधण २/३८३ गारमावस १४८ गारव २/१९२,१९३ गाह १/१७५ गाहावइति, ती) १/४९१.५०४,५५०, ५५५.५७२,६३९.६४०,६४१,६४२, ६४५ गाहावाति) जग्गह १/६५३ गाहावर करडग १/१०१ गाहावर (ई,ति,ती) कुल १/४९२,४९४, ५४६,५४७,५४८,५५०,५६०,५६१, ५६२.५६३,५६८,५६९,५७०,५७१, ५७२,५७३,५७४,५७५,५७६,५७७, ५७८,५७९,५९२,५९६,५९७,६०३, ६०४,६०५,६०७,६०८,६१६,६१७, ६१८.६२९,६३०,६३२.६३५.६३७, ६३८,६४२,६४,६५६,६६७,६६८, गुणसमित १/४८७ गुणसीलय चेदय १/३१० गुणासाय १४८ गुत्त १/१८६; २/ गुत्तबंभयारि १/२१०,७३२ Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५२ परिशिष्ट २ चरणानुयोग- शब्द सूची गौवाली २/२०० गो १/१७५ गंगा (नदी) १ / ६.५०१,५०२ गठीगा १/१८८ गंड १/१५६,२५३, २५४,२५६,२५७, २५८,२५९,२६०,२६१,२६२,२६२. २६४,२६५, २६६, २६७,२६९,२७०, २७२,२७३,३४२,३४३, ३४५,३४६, ३४८, ३४९, ३५० २/३८४ गाइ तिमिच्छा १/२५८,२७२,३४२ गंडाइतिगिच्छाकारावण १/२६५ डाइपरिकम्म १/२५३,२५६ गडागकुल १/५४९ गंडी १/१६५,५२७ मतु पचागतईया) १/५४०२/२८२ गंध १/१०३, २/३८,३९८ थिम १/४६९ गंध १ / १३९ २/२८,३८८ गंध जिंघण १/४६३ गंधमत १/५१० गंधव्व १/८६,१६९ गंधार १/१९८ १/५३४० २/३८८ गंधियसाला १ / ६२४,६२५ घट्टणता २/३८१ घडवासिय १ / १०५ घडिग १ / ३३६ घडिमत १ / ६९९ घण (तप) २ / २५९ घाण २/३८८ वाणपण्णाण १/४५३ घाणवल २/९७८ घाणिदिय १/४७० पाणिन्दिय अपदिसलीण २ / २७८ घाणिन्दिय असंवर १/२१२ पाणिनि १/१३३,७३६२/२९ पाणिन्दिय मुण्डे २/७ भाभिदियोवर १४६७ घाणिदियसंजम १/४३० माल १/२७५ १/५२५ घोरतव २ / २५८ घोलिय १/१७५ घोसहीण १/९८ चउत्यभत्तिय २ / ७१ 'चउदसरण १ / ११० चप्पोयार २/३५२,३५३ -मासिया मिक्लुपडिमा २/२७९. २८५ चरिन्दिया १/ve रिन्दिया १/४८ चवीसत्यव १/१३३: २/८२ 4/20 चउसरण १/२ ट्टी १/११०,१६७, १७१ यासाला १/६२३,६२४ चक्खिन्दिय १/४६८, ४७० क्खन्दिय अपसिलीण २ / २७८ चक्खिन्दिय असंवर २ / २१२ चन्दियनि१/१३३.७३६, २/२१ क्लिन्दिय मु२/७ चक्खिन्दिय रागोवरई १/४६७ चक्खिन्दियसंजम १/४२० चक्षु २/३८६ बक्सुदंसणगुणममाण १/२३ चक्पण्णाण १/४५३ चक्परिकम्म १ / ३५५.३८९,४०३ चक्खुबल २/१७८ चक्रोम १/३६६.३७३.३८०, ३८७,३९४, ४०१,४०९ सम्भ) १/६३३.६८५,७१२.७१४ चम्मको) १/६२३.७१३,७१४ छेद)१/५०४६३२७१३,७१४ चम्मपलिच्छेयणय १ / ७१४ चम्मपाय १/६९३ चयो (३) १/५१०,७३७ चरण १/६१,२०५, ४८५ चरणकरणपारवि १/१८६ चरणगुण १/१९४ चरणविहित १/२०५ चरमसरीरधर १/२१२ चरित १/१६,५१,१२६, १४७, १९४६ २/११,३०९ चरित अवकम २/८३,८४ चरित- अश्यार २/८३,८४ घरित अणायार २/८४ चरित असकिलेस २ / २५३ चरिगुणप्यमाण १/१८.२३.२४ १/३२५ २/२७८ रिया २/६५.२१८ चरितम्म १/३०,३१,१२७, २/३४६ बरितधम्माराणा २/१३५,१३६ परिजन २/७३६ रहिणी १/८९६ २/२३२ चरित पण्णवणा १/७३९ चरित पाति २/१११ रिपुर२/१९९ चरितपगारा २/१४ चरितवलिय १/२२३ चरितबुद्धा १/५३ रोधी १/५ परिमूडा १/५२ चरितमोह १/५३ चरितमोहणिज्न कम्म १/४५५ रोग) १/१५ चरित वक्रम २/८३,८४ चरितविणय १ / ७५,७७ चरितविराणा २/१३६ २/१८१ परसम्म २/०३९ चरितसंकिलेस २/२५२ चरित) १/१३१.१३४.२१५७ २/ २९,३२० चरितायार १/५१ चरिताराहणा १/५१.५२,५३: २/१३५, १३८ चरित्तावरणिज्जाणं कम्माण १/३२२, ३२३ २/२०५ रित्तिदि २/१९९ चरितोवधात २ / १८१ चरिमतित्थगर २ / १९८,१९९ चरिय १/७४७ चरियानिय १/५५९ चरिया परीसह २/३६८,३७४ परिवा१ि/५५९ चलाचल १/४८९ चवेडा १/९३ बाई - अचाई लक्खण १/२१ बाउज्जाम धम्म १/२०० चाउम्मासिय अणुग्घातिय २/३११ चाउम्मासिय उग्मातिय २ / ३११ चाचल १/५७२,५७८ चालधोवण १/२५९ चाउल पलंब १/५७२,५८० २/२८९ चापि १/५७८ चाउलोदग १ / ६३०,६३१.६१२ चाउलीदण १/५४२ चाजवण्ण संघ १/१२९ चार २ / ३७६ चारबंधण १/१७५ चारण १/२२३ २ / ३६० चारण भावणा २/२२३ चारणद्धि २/३६० चित्तकम्म १/४६१ () १/४८९.५४८ निरोह १/०१४ १/५२० सिसमा १/७३२ मिहिद्वाण १/७३१.७३२ चित्ता १/१७८ विद्याकारवत्यग २/२७३ चियत्तोवकरण साइज्जणया २ / २६६ चिया (धम्म) १ / ३१ चिराघोय १/६२१ Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट : २ चरणानुयोग-शब्द सूची ४५३ वेय १/१८: २/८.९,३११.३३६ छयपरिहार १/५५१ मंद १/४३६,७३७, २/१७९ छदणा २/५७,५८ छदा २/७ छदोवणीया १/२२६ जउणा १/५०१,५०२ जउच्चेय १/४६ चिलिमिलिली) १/२७४,६३३,६८६, ६८७,७१३,७१४ बिचापाग १/६२९ वीणसुय १/६७०,७४६ बीवरधारी १/५०४ चुण्णयपिण्ड १/५६७ चेल १/५०७,६३३.७१३,७१४ चेलचिलिमिलिय १/६८६ नेलपाय १/६९३ चोक्ख १/२२१ 'चोयण १/८५ चोसपग १/६९१,७११,७१२ चंड १/८९,९१ घद १/११०.१७७ चंदपहिमा २/२९७ यदपडिम पडिवण्ण २/२९७ बंदष्पह (ससि) १/३ चंदासग १/३३६ चंदिम १/१९४ चंदिमसूरियण २/५३ चंदोवराय १/६५ पा १/५०० बउम २/३७८ बउमत्व १/२४,३९,४०; २/११ घउमत्यमरण २/१६९ बनाए १/४५ अज्जीवणिनिकाय) १/२२५,२२६, २२७,७४२ छज्जीवणिकामवह १/२४८ छज्जीवणिया १/२२५.२२६ मट्ठभत्तिय २/७१ चहियदोस १/५८७ पण १४३५ छणपद २/३९७ सणं २/३१८ छत्त १/६३३ यसकारणाय) १/३३,५०४,७१३,७१४ छन १/५२५ परिमा-नबसोग १/७१५ बमासिया भिक्तपडिमा २/२७९,२८५ चम्लिम्साय १/५३५.५३६ चविखायाण १/७४९ घविश्वय २/१०८ चिण्णकहकहे २/२६४ विष्णसिणेह १/५०५.५०६, २/७१ छिन्नमालव १/५२० छिनाल १/९० ओववाषण) २/११,३३१ छेओवडाधणा पायच्छित्तरिहा २/३३१ छेदारिह २/३१० छेदोवट्ठावण-संजय-कप्पट्ठिई १/५४ बेदोषट्ठावणियचरित्तगुणप्पमाण १/२४ खेदोवढाचणियसंजम २/१४ जक्खमह १/६८ जक्खाबट्ठ २/३३२ जस्खालित्त १/६८ जक्खावेस २/१७६ जगनिस्मिय २/ जज्जरिय २/३०९ जणवदय) १/१४८,४९९ जणक्यपरिग्गहाए १/७३३ जणवय परियावाए १/७३३ जणवयपहाए १/७३३ जणवथसच्चा १/५११ जत १/१८६ जतुकुम्म १/३२७, २/३७३ जत्रो १/२२१ अमलोख्य १/१६९ जम्मदंसी २० जय १/१९८,२४८ जयण १/२२१ जयणा १८६ जयणावरिणज्ज कम्म ओवसम जाइपह २/४३ जाइसरण २/१४०,४०४ जारसरण)वा १/१२२२ २/३२० जाबहीणा १/१२२ जागरा २/२८ जागरिया २/३९४ जाण १/१७४,४३३ जाणगसरीर दवावस्सय २७९.८० जाणगसरीर भवियसरीर दरित्त दव्वावस्सय २/८० जाणगिह १/७४ जाणसाल १/७७ जाणू १/१२३ जाविसंघ १/१६३ जातिमय २/१९१,१९२ जाम 10,५५.५६.१२९.२०५,२७९, ३२२, २/३.१७ जाय।) २/११३ जायणा २/३७६ जायणा परीसह २/२६८.३७६ जायणिरणी) १/५१२, २/२८२ जायपक्खा १/९१ जायरूव २/२५ जिइदिय १/८४८५: २० जिणजिणवर)१/३,४,१२,३९,४०,१३०, १९४.२२२, २/११,३७८ जिणकप्पट्टिई १/५४ जिणकप्पिय २/२३४ जिणप्पगारा २/१९९ जिणषयण १/१४५ जिणवयनिउण १/८४ पिणसासण १/१९९ जिणसंघव २/६२ जिम्मवल २/१७८ जिम्भा २/३८९ जिम्भिदिय १७o,४७१ जिभिन्दिय अपदिसलीण २/२७९ जिम्भिन्दिय भसंवर १/२१२ जिम्भिन्दिय निग्गह ९/१३३,७३६, जयय १/७४९ जरा २/४०८ जराज) १/२२६,२४६ जराउया १/२४१,२४२ जराजुण्ण २/५० जलगय १/५०८ जलण २/१ जमणप्पवेस २/१६९,१७०,१७३ जलपस्वदण २/१७३ जलप्पवेस २/१६९,१७०,१७३ जल्ल १/३४०,३५२,३७१,३७८.३८५, ३९२,३९९,०७,४२६,७२०.२/३७७ जल्ल परीसह २/३६८,३७७ जल्लोसहिपत्त १/२२२ जल्लजवा १/१७५ अवमय चंदपदिमा २/२९७,२०१ जवमा चन्द पहिम पहिवन २/२९८ जवममा २/२७९.२९७ जवोदय) १/६२८.६३२ २/२५९ जहण्णा २/१३५.१३६ । जहण्णुकोसिया २/१३५,१३६ पहासय १/४ जाद घेर २/१९९,२०० जिभिन्दियपदिसलीणता २/२५८ जिगिभन्दिय मुण्डे २/जिम्भिन्दियरागीवरी १६७ जिम्भिन्दिय मंजम १४३१ जीवंत) २/२००,२०१ जीव १/५९.१२५,१२६,१२९.१४२, १७.१५०.१५२,१६०.१६५,१८९, २०७,२०८,२१२२/२९.२० जीवकाय १/१५४,२२६ जीवगुणप्पमाण १/१८,२४ जीवणिकाय १/१३२,२४ जीवपहडिय १/२५० जीवपएस १/२७,२८.२९ Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५४ परिशिष्ट : २ चरणानुयोग-शब्द सूची जंबू (हम) १/११० जबूसुदसण(वृक्ष) १/३१९ जवाबड १/५७ माण १/६२,१९२,४१२, २/३०९, जीवमिस्सिया १/५१२ जीवाजीवमिस्सिया १/५१२ जीवितभावणा १/१९७ जीवियाससप्पओग २/९३,१०३ जुग २,१४४ जुगमाय १४८७,४९५,५४४ जुग्ग १/४३३ जुत्तपरिणय १/११७,११९ जुतरूव १/११८ जुत्तसोभ १/११८ जुसे १/११७,११८ जुवराय १/४९९ जूतपमाय २/१८० जूय १/२५४ जूवय १/६८ जोइबले १/११७ जोइसिय १/८ जोई /११४ जोईबलपलज्जण १/११७ जोग १३७ जोगनिरोह १/१४७ जोगपच्चक्खाण १/१३३,१३४:२/१०४ जोगपटिममण २/८३ जोगपहिसलीणया २/२७६,२७७ जोगपरिष्णा १/११८ जोगपिण्ड १/५६७ जोगव १/१११ जोगवाहिया २/५३ जोगसच्च १/३२,१३३,१३४,५११; २/२९ जोगसंगह २/४-४५ जोगहीण १/९७ जोणी १/३३,४५, २/२६ जोतिसियाणदिव) २/५३ जोयणमेरा १/५०२ जोयणवेलागामी १/५०७ जकिचिमिच्छा परिकमण २/८३ जगम १०३९ जंगिय १/६७४, २/२९३ जपाचारण २/३६०.३६१,३६२ जंघाचारण लडी २/३६१ जपारोम १/३७२,३८० जधारोम परिकम्म १/३५३.३८७.२९३, झाणजोग २/३६६ माणसमाहिजुत्त २/४०५ सामडिल्ल १/४९५.६८२,७२१ झिझिरपलंब १/५७६ झिमिय १/१६५,५२७ झुसिर १/८९ झंझा २४०४ ठवणा (दोस) १/५५९ ठवणाकुल १/५५९ णवणासच्चा १/५११ ठविया २/३११ ठविया आरोवणा २/३१२,३१३,३१४ ठाणादिडए २/२७३ ठाण-समवाय २/२२३ ठाण-समवायघर २/२१० ठाण-समवायांगधर २/१९५ ठाणाइयाए २/२७५ ठाणादण निसेह १/२९९ विती १/२२० रहर १/९८,१०४,१०५ इहग (दण्यय) १/७१३,७१४ टिबर १/४६१ मसीहाए परिकम्म कारावण १/३६५, ३७२.३७९ णागद १/१७० णाना)ण १/१५,४६,५१,५८,५९,६०, १०३.१२६,१२७,१४७,१७९,१९४. १९५,४३२ माण-अबक्रम २/८३,८४ णाण-अड्यार २/३,८४ णाणअणायार २/८४ णाण असंकिलेस २/२५३ जाण आसायणा १/९७ णाणगुणप्पमाण १/१८,२३ णाणत १/११७,११८ णाणट्ठया २/६५.२१८ 'णाणपडिणीय २/२३२ णाणपण्णवणा १/७३९ णाण पायच्छित २/३११ णाण परिणिता १/११७ णाणपुरिस २/१९९ पाणपुग्वगपश्चखाणकारी २/१०२ जाणफल १/१०२ णाणपलिय १/२२३ णाणबुवा १/५३ णाणबंधी १/५३ णाणमट्ठा १/११२ णाणमूढा १/५३ णाणमोह १/५३ णाणलोग(अ) १/१५ णाणव २/२७ जाणवबाम २/८३,८४ जाणविणय १/७५ णाणविराणा २/१३६ जाणविसोही २/१८१ णाणसम्म १/७३९ णामसच्चा १/५११ णाणसंका १/११२ णाणसकिलेस २/२५२ माणसंपण्णीया) २/२९,३२० णाणसंपन्नया १/१३४ णाणायार १/५५-१२४ णाणाराहणा १/५१,५२,५३, २/१३५. णानोक्खत्त १/६२,१००,११०.१२३, १७७,१९४ गरधेर २/१९९ णगिणा २/३९५ णग्गोहपवाल १/५७६ णडसइया २/८ णपुंसगलिंगसहा १/५१३ णपुसगवयण १/५१८ णसगवयू १/५१३,५१४,५१५.५१६ णभदेव १/५२३ णमी वैदेही २/३८४ ण नोयप्पमाण १/१८,२४.२९ णालोरग १/१७७,४२ णव अगुति १/४२८ णवगुत्ति १/४२८ गवणीय १२३,४२७,५५० जवबंपर२/३४ णहवेवणय १/२७६,२७७,२७८ पह परिकम्म १/३८७,४०८ णनोहमल १/३५२,३५८,३६४,३७१, २७८,३८५.३९२,३९९,४०६ णन हवीणिय १४५९,४६० गानोहसिहा १/३७२,३८७,३९३,४00. ४०८ णहसिहापरिकम्म १/३५३,४०० ४०० अंधारोम परिकम्म कारावण १/२६५, ३७२,१८० जंघासतरिम १/५०६ जधासंतरिम उदगपार १/५०५ जतपीलणकम्म २/१११ जंदर्य २/२९२ जबुरीव १/२५,२६, २/१९८, ३६०.३६२ जंबू १/३१६: २/१२ णाणावरण २/३६६ णाणिड्डी २/२०५ णाणिंद २/१९९ णाणी १/२०७ णाणुप्पण्णाणाणुकूल वय १/५५ जाणीवधात २/१८१ णातिमतपाण भोयणभोई णानिदेस १/१०८ णा(नतिसंयोग १/१४१ णायगाईण १/६६५ Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 णालिया १/६३३,७१३ गालिएरपाणग १/६२९ गावपरिणाम १ / ५०२ णाचा १/५०२,५०३ चावागय १/५०८.५०९ णावापुराण १/७२९ नावाविहार १/५०२,५०६ णावासतरिम १/५०४ णासारोम १/३५५,३७४,३८१,५९५. ४०२, ४१० किम्सी १/७३५ २ / ३९६ णिक्खारग १ / ५७६ शिक्खित चरए २/२७१ णिक्खित दोस १/५६८,५७१ उवणावस्य २ / ७८ (नि) १ / ११४.११५,१५६,१८६, २६१,२६२, २६३,२६४,२६५, २६६, २६७,२८३,२८४,२८५,२९०.३०१. ३१५.३२४,३२५३२६३२७,३२८. ३२९,३३०,३३३, ३३४,३७०,३७१, ३७२,३७२,३७४,३७५.३७६, ३७७, ३७८,३७९, ३८०.३८१, ३८२,३८३, ३८४,४१३,४१४,४१९, ४३०, ४३१. ४७५, ४७६, ४८९,५०१, ५२४,५३३: २/२०,२१,५२,५३,१२८,१३३,१५८, २१९,२२१,२२४,२२५,२२६,२२७, २२८.२२९,२३०,२३२,२३३,२४२. २४३,२५३,२५४,२६५,२७१, २७२, २७३,२७४,३३१,३४० गिरगन्ध धम्माश्यार विसोहि सुत्त २/९१ गायमुखि २/५४ माणुसरण भीगट्टा निदाण करण २/१५५ रिग अवलम्बणे कारणा २ / २२९ (निधी १/११४,११५,१८६,२६१, २६२.२६३,२६४,२६५, २६६, २६७, २८३,२८४,२८५,३७०,३७१,३७२. ३७३,३७४,३७५,३७६, ३७७,३७८, ३७९, ३८०, ३८१,३८२,३८३,३८४, ४१३,४१४,४७५,४७६,४८९, ५०१. ५२४,५३३:२/१२८,१३३,१३४, १५९,२१८,२१९,२२०, २२४,२२५, २२६,२२७,२२८,२२९,२३०,२३२, २४२,२४३,२४४,२५३,२५४,२६५. २७४, २७५ णिग्गंधीय माणुसम्म भीगड़ा णिदाणकरण २/१५७ णिग्यात १/६८ चिदाणपिंड १/५८९ पिच्छिमक काल १/७१७ गिज्जरयाए २/३४१ जिरापेही २ / २६२ पिज्जाज १/७४७ णिज्ञाणसाल १/७४७ विभासी १/५१९ नितिय २/३४५ णितियवाई १/१७० महासील २/६२ णिपूरपाल १/५७६ णिमितपिण्ड १ / ५६६ निमित्ताजीविया २/१५४ जियम ९/४५३,४५४ मिग- गवेसिय ९/७०७ णियतिर) वार्ति) १/१५७ नियम १/४५२ णिययवाई १/१५७ नियंठ १/४३५ णियाणमरण २ / १६९ णियाणरहियस्स मुत्ति २/१६७ पियंठियं २/१०० १/१५९ गिरयगई १/१७१ णिरदसी २/४०१ रिया १ / १७१ णिरामगध १ / ५४२ णिवत्तिता १/५३६.५३७ विद्रदेव १/४२३ णिवेयणापि १ / ५९० निव्वाण १/१९४.१९५,४७३ लिए २/२७२ निविकाविय १/२४ विषधारी २/४०० गिव्वितिगिन्यासमावणेण १/४७९ विभिन्न २/४३५ णिव्वुड २/४०३.४०५ णिसग्गसम्मदंसण १/१२७ णिसिद्धठाण १/५२४ णिसिद्धवयण १/५२४ जिसील २ / १२५ सीहिया १/६४७,६४८,६४९,६५२, ६५३ णिस्सरणणन्दी २ /३१० विदिता २/७ णीयागोय १/४४५ णूभ १/१७९ २/४१ गम २ / ७९ पेर १/१७१ रश्य संसार विओसग्ग २ / ३५६ सिज्ञ २ / २९२,२९३ तउपाय १/६९३ १/४२२ परिशिष्ट २ चरणानुयोग- शब्द सूची तक्क १/१८० तकरणभग २/१०९ तच्चा सत्त २/२८०,२८६ इन्दिया भिक्खु पडिमा तज्जण १/१७४ तज्जाय संसटुचरए २/२७० तज्जीवतच्छरीरबाई १/१४९ तज्जीवतस्सरीरिए ९/१५३ तण १/२२६, २४६ २/२९२ राजग्रिह १/७४७ तणमुंज २ / ६४९.६५० तणफास २/३७०, ३७९ तणफास परीसह २/३६८,३७७ तणमालिय १/४२१ तणसाल १/७४७ सहा १/४४० २/४०४ तण्हाणुवधण २/४११ तहाभिभूय २/३८६, ३८७,३८८,३९०, ३९१,४०९ ततियमहब्वय १/३००-३१३ तदुभय ९/८४ तदुभयणाणायार १/५५,१९२ तदुभयघर १/१०९,१२२ तदुभय परिणीय १/८९ तदुभयवेयावच्च २ / ३३८ तदुभयसमुदाणकिरिया २/१६४ तदुभयागम १/२३ तदुभयारि २/३१० तप्पडिरूवगवबहार २ / १०९ तम्भवमरण २ / १६९, १७०, १७३ तम १ / ११४,११७ तमबलपलज्जण १/११७ तमले १/१९७ तथमवाय १/५३५,५३६ तयप्पमाण १/४७६,४८१ (१/२३९ तरा १/५४८ तरु पक्खदण २/१७३ तरुपण २ / १६९, १७०, १७३ तव १/१५,३१,३३,५१,७१,८५, ४५५ १०३.१२६,१२९,१३२,१४३,४५२० २/२८.२५८-३६२,४०० तव चरणफल २/३५७ तवतेण १/३०४ तबफल ९/१०३ तवमय २/१९९,१९२ तब समायारी १/७२.८६ समाही १/८५ २/३५७ तव सरू २/२५७ तवस्स फल केखा णिसेह २/१६८ तवस्क्षिण णेरइयान कम्मणिज्जरणाए 'सुलणा २/३५८,३५९ तवपिडिणीय १/८९ तवस्सी २ / ५०,२४६,३९२ तवस्सी वेयवच्च २/३३८ तवाइ तेणाणं दुग्गइ २ / ३५८ तवाचरण उद्देस २/३५७ Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५६ परिशिष्ट २ चरणानुयोग- शब्द सूची सवाार १/५१ तवारिह २/३१० 'तोकम्म २ / ७१.८४, १२८,३१८, ३१९ २/४०५ तवीवहाणादाय २/३७८ तस १/१४२.१५८,१६१.१९७,२१७. २२७, २४६,४१७ काइ १/२२५.२४४ तसकाइय आरंभ १/२८२ तसकाइय जीव २/९.१०. तसकीय अणारम्भ ठाम २/०८ 'तसकाय १/२४२, २४३ तसका सत्य १/२४३,२४४ तसकायसमारंभ १/२४३ तसकाय व १/२४९ तस-यावर १/२१६, २१९, २४६,५३० तम धावरा पाणा १/४७४ तसपाणसमारंभ २/ १२१ तसा पाणा १/२२६,२४१,२४२,२४३. ७२० तस्वी२/३१८ तहजारो २/५७,५८ ताई १/११२ वाण १/४५४, ४५५ तालउड १/३३१ तालण १/१७४ तालपलब १/५७६.५८० तालमूलय १/२८५ तालावर १/४२६ तालियटक १/४३३ तारागण १/१०० १/१०९ तिमिच्छ मत मूल १ / ५६६ तिमिच्छा १/२५४.३४४ तिगिच्यापिण्ड १/५६७ तिमिच्छा विहाण २ / ७६ तित्तर १/१७५ तितिषख २/२६५,३६६ तितिक्त्रण १/६१२ तिसी १/२१९ तित्य २ / १९८ तित्वधम्म २/३४४ तित्यपवत्तणकाल २/१९८ त्यिक, गर१/३,४,११,२३,२२२. २७९,२९१,३१९ २ /१९८ तिभासिया भिक्खु पडिमा २/२७९, २८५ तिरट्ठी १/१८६ तिरिक्खजोणिय १/१०३, ३१४ २ / ३५८ २८० तिरिक्खजोणिया उदसग्गा २/३८१ तिरिया) १/५०३,७१२ तिरिच्या २/४३ विरिधि १/२२० तिरियई १/१७१ तिरियदिसिवय २/११० तिरियदिसिपमाणाश्कम २/११० तिरियदंसी २/४०१ तिरियलोय १/२५ तिरियससार विओसग्ग २ / ३५६ तिडपट्ट १ / ७४६ तिल १/१७५,५७८ तिलपप्पा १/५७८ तिलपि १/५७८ तिलोगसी १ / १०६ तिलोम) १/६२८,६३२५/२५९ तिसरग १ / ६४० तीय १/४१ पण १/५१८ तुच्छ १/१२१ तुच्छकुल २/१६६ तुच्छरुवा १/१२१ चोभासी १/१२१ तुच्छोमणिया २/१११ यि १/४२१,६४० तुयावत्ता २/६ तुलकड २/२९३ सहि १/४७ तुमसाल १/७४७ तुसिणीय १/४९०,४९१ १/६२८.६३२ २/२५९ तूण १/४२६ तुलकर १/६७५ तेइन्दियकाय १/४४ क)१/२२५.२३३ तेजकाइय आरंभ १/२८२ तेजकादय जीव २/९.१० वैजकाइय संजम २ / १४, १५ तैउकाय भणारंभ ठाण २/४७.४८ तेउकाय अमोहमत्य १/२३४ काय १/४४ रोजच्या १/०४५ तेजफास २/३७०,३७१ तेज महाभूत १ / १५४ १/१६२ तेण १/५२८ २/९०९ तेत्तीसविह ठाणा महिकमण सुत २/८८ तेयणिसग्ग २ / २२३ २/५२,५३ तैयाबन्धी २ / ३५२ तेल्ल १/५५० बिन्दु १/१२६ तेल्लावणं अब्भंग १/४७७ तेन्दु १/५७८ गवेसय १/८३ तोपमाण १/४०६. तबपाय १/६९३ लोह १/४२२ तबोन १/३३६ मी १/४२६ कुमार १/४८ थलाय १/५०८,५०९ थवथुमंगल २/१३३ rasमंगल फल १/१० विरपगारा २ / १९९ घावर १/१४२,१५८, १६१, १९७, २१७, २२७, ४३५, ४७६ पिरसंघयण १/५२०.६७५ धिरीकरण १/१२६ चिल्लि १/१७४ पीक १/२२६ पीका हि १/३२६ भीका मणोरमा १/३२४ पुत्र मंगल २/६१ यूजाविसय २२२५ मेम २/९०९ चूलाइ माणाइवाय २ / १२१ धूलामो अदिष्यावाणाको वैरमन २/१०८,१०९ पुलाओ परिग्गहाओ वेरमण २/१०० चूलाओ पाणावायाओ बैरमण २/१००,१०८ लाओ मुसावादाओ रम २/१०८,१०९ थै भरावन्त) १ / ९२.३१०,३११,३१२, ३२३,३२४,४२४,४९७, ४९८, ५४२. ५५०,५५१,६०४,६०५, ६०६, ६६८, ६७४,६९०,६९१,७११,७१४: २/६६. १२८,२१०, २१३,२१४, २१७,२३८, २३४,३३६ धेर कप्प २/७७ मेरकपट्टिई १/५४ थेर १/६२० परिणीय १/८८: २/२३२ मेरा २/३१८ मंजिल १ / ७१८,७१९,७२०.७२२,७२१. ७२४, ७२५, ७२६, ७२७:२/२६२,२६३ थंडिल समायारी १/७२९ थंभ १/७१,९३ मणता २/३८१ दओषसि २/६५ दक्खिण १/१८२ दग १ /२२६ दगठाण १/७४७ दगणालिय १/२७४ दगती १/६४६,७४७ दशमग्ग १ / ७४७ Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दगम १/७४७ दगरकख १/१९१ दरावणिय १/२७४, २७५ दगसत्तघाती १/१९१ दधम्म १/५० २/३२० दत्तमजुष्णाय १/२१०,३०३ दति परिमाण २/३०५ दत्ति सखा विहाण २/७२ दत्ती २/ २८१, २८५,२८६.२९६,२९८, २९९,३००,३०१,३०२, ३०३,३०४. ३०५ दत्ती पडिमा २/२९६ दप्प २/३०९ दब्भवत्तिय १/१७५ दम १/४५२ दया १/५८,१०२.२१९ दयारूपी २/४९ दरिद्दकुल २ / १६६ दरिसणावरणिज्य १/१२७,१२८.१२९ दरसणिज्ज १/५२० दरिंगदद्धय १/१७५ raftगदावणया २/१११ दवग्गी १/३२९ दव्य १/१२६ दव विओ( उ ) सग्ग २/३५५ दनगर २/२६९ व्यावसाय २/७८ दोरिया २/२६६ दसण भद १ / १९८ दसदमिया भिक्खुमा २/२९७ दसविहा समायारी २/५७ दसा कप्प-वबहार २ / २२३ दसा-कम्प - ववचारधर २ / २१० दस्सु १/४८९ दा(यात १/४८९,४९० दहि १/४२३,४२७,४५० २/२७२ दाण १/५३१ दापट्टया १/५३० दामविसम्म १/५३० दायगदीस १/५७१, ५७२ वार १/७४७ दारग १/५०४ दारिग १ / ५०४ दादण्डप१/७०८ दारुण २/४२ दारुदंड १/२७५, २७६ दारुपाय ९/६९०,६९८ २ / २९४ दालिमपाग १/६२९ दालिमसर १/५७६ दावद्दव २/१३९.१३२ दावर १/४१ दास १/३३६, ३३७,४३३ दासी १/४३३ चाहि १/१४८, ४w दागामी २/१५७,१५८.१६१ - दाहिणा १/१२३.१२९ दिगंधा परीसह २/३६८३६९,३८० दिसाभिए २/२७०,२०१ दिसाहम्मद (अनुमान) १/१८.२०,२१ दाम १/२१.६८,१५७०२/२२३ दिद्विवास व २/३४७ दिद्विवायमहिज्जग १ / ५३१ भाषण १/२२३ १/१९८ २/५३ दिट्ठ २/३१८ दिति २/३३२ दिवस रिम विषया)यारी र परिमाणक २/११६ दिवाभीयणस्स अवण १/४८१ दिव्य १/५९,६०,३१४ दिव्य कामभोग १/३२३ दिवमाया २/२६५ दिव्य २/३८० दिव्या उवसग्गा २/३८० दिसा १/१२३.१२९६ २/४ विसामो २/५४.९५ fete 1/ दिसिष्य २/१००,१०२.११०,११३ दिसंकहता भियागमण २ / ६६ दीन १/२०१ दीदी १/२०१ दीनपणा १/१९९ दीना १/११९ दीव १/१२५ दीवायन २/३८४ दीविय १/५४८ दीवोवमा १/३७ परिशिष्ट २ चरणानुयोग माब्द सूची दुग्गम- सुगम ठाणाई २/२०० दुग्गय १/११४ दुणा कम्मा १/१६७.१७१ दुइ १/१२९ दुध पारंचिय २/३३१ परिच्छिय १/९८ दीहकालिय रोगायक २ / २८७ बीड २/५३ हराम २/४०२ दो १/२१४ दौड़ाकरण २/१०६ बी १/६८८.६८९ दीकरण १/१८८ दुखाइक्स २/२०० दुक्कड १/१५२,१५४ दुक्ल १/९३९,१४०, १४१ दुखदसी २/४०१ दुगुरु १/६७०,७४६ दुगुच्छा २/४१० दुधावति १/६४ दुशुच्छियकुल १/६६५,६८७, २/३४० दुग्ग १/४६० दुनिरोह २/४७ दुई २/१७२ २/२०० क्वाणी २/२०१ पच्क्वाय २/१०१ दुपय- चउप्पय- पमाणाश्कम २/११० दुपयण १/५१८ दुपस्स २/२०० दुष्पलिमोसहिभवखया २/१११ १/४८,४८ ayure ठाणाद करण पाययित १/२५१ २/५० भिक्स २/६५ दुम्मुह १/१९८ टूरणुचर २/२०० दुभवो १/१७८ सोही १/१२९.१२० दुल्होसम्म १/४२ दुबालसावत्तण २/८५ दुवासंग १/१५६.४८५ दुबालसंग गणिपिडग २ / ३४८ दुबई १/८९ दुब्विभज्ज २/२०० दुस्समा १/१४६ यी १/८२.११९१७१२०० २५६ १/५० दुओ परिबद्धा २/६ ४५७ लोपडियीय १/८८ दुहोलोग परिबद्धा २/६ २/३५ TURE PASS दूस १/१३९ देव १/४४,८६,९१, १०३, १२९, १४३.१६७,१८९,३२० दैवजातायणा १/९७ देवउत्त १ / ९५९ देवकामा २/४०७,४०८ देवकिब्बिस २/१५४,३५८ देवकु १/२६ देवगई १/१७१ २/४०७ देवदसण १ / ७३२ देवसण्णती २/८ देवसिय परिक्रमण समायारी २/६१ देवसिय समायारी २/५८ देवसी परिक्रमण २/८४ देवसंसार विसग्ग २ / ३५६ देविल २/२८४ देविन्दपरियावणिया २/२२३ Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५८ परिशिष्ट : २ चरणानुयोग-शब्द सूची देविंदोग्गह १/६५३ देवी १/१८९ देवी आसायणा १/२७ देसकह १/११४,११५ देसच्चाई १/८७ देसऽपणाण १/१६४ देसपएस १/२७ देसमूलगुण पच्चक्लाण २/९९,१०० प्सराग १/६७०,७४६ देसविराहय २/१३१ देसाराहय २/१३२ देसावगासिय २/९००,१०८.११३,११४. ११७,११८ देसुत्तरगुणपच्चक्खाण २/१०० देह १/१७२ दोग्गइ १/१०३ दोच्चा सत्तराइन्दिया भिक्खु पडिमा २/२८०,२८६ दो-मासिया भिक्खुपडिमा २/२७९,२८५ दोरज्ज १४९९ दोस १/१२६,१४७.१७३,१८९,२१२७ २४०४,४०५ दोसणिस्सिया १/५११ दोसदसी २/४०१ दोसनिग्यायणाविणय १७२,७३ दोससंकिणो १/३३५ दोसियसाला १/६२४ दंड १/७४८ दडपह २/५४ दंडसमादाण १४० दंडाणि ) १/२७५,२७६ दंडाय २/२८६ दंडातिए २/२७४ टंडासणियाए २/२७५ दत १/८२,१८६; २/३२ दंतकम्म १/१६१ दंतपरिकम्म १/१५५,३८९,३९५,४०३ दंतपरिकम्म कारावण १/३६७,३७४, ३८२ दंतपाय १/६९३ दतभल १/३५२,३५८,३६४,३७१. ३७८,३८५,३९२,३९९,४०६ दंतमालिय १/४२१ इतवाणिज्ज २/१११ देतवीणिय १/४५९,४६० दसण १/१५,४६,५१,६०,१२६,१२७ १२४ देसण अहक्रम २/८३,८४ दसण अड्यार २/८३,८४ दसण अणायार २/८४ दसणअसच्चा १/२०० दसणगुणप्पमाण १/१८,२३ दसणहया २/६५,३१८ दसणपहिणीय १/८९; २/२३२ दसणपण्णषणा १/७३९ दसण परीसह २/३६९.३७८ दंसम पायचित VER दसणपुरिस २/१९९ दसणबलिय १/२२३ देसणबुद्धा १/५३ दसणबोधी १/५३ दसणमावरण २/४०५ दसणमूढा १/५३ दसणमोह १/५३ दसण-लक्खण १/१२५ दमणलोग(अ) १/१५ देसणवछम २/८३.८४ देसणविणय १/७५ दसणविराहणा २/१३६ दलणविसोहि १/१०; २/१८१ दमणसच्चा १/२०० दसणसम्म १/७३९ दसणसव १/१२५ दसणसावय २/११६.१६४ देसणसंकिलेस २/२५२,२५३ दसणसंपन्नया() १/१२७,१३३,१३ २/२९,३२० दमणायार १/५१,१२५-२०४ दसणाराहणा१/५१,५२,५३, २/१३५, धम्मचिन्ता १/६१२,७३२ धम्मजागरणा २/३९४ धम्मजागरिय १/११४,११५, २/७३ धम्मजाण १/१० अम्माज्य ववहार १/४९ धम्मद्माण २/३५१.३५२.३५३ धम्ममाण अणुप्पहा २/३५३ धम्मद्माण आलंबण २/३५३ धम्ममाण लक्खण २/३५३ धम्मट्ठी १/१८५ धम्मठिय १/४६,४७,४८ धम्मतित्थ १/१८७ धम्मनिंदापायच्छित १/५० धम्मपएस १/२७,२८,२९ धम्मपण्णवणा १/११ धम्मपण्णा १/१७९ धम्मपन्नत्ती १/२२५ घम्मपय १/१०२ धम्म परकम काल २/४०८ धम्म परकमवा उवएस २/४०८ धम्मपरिणाम १/३० धम्म पाहेय १/८१ धम्ममणुत्तर २/३८२ धम्मरुप १/१२६,१२७ धम्मव २/२७ धम्मविणय २/२३९,२४० धम्मविऊ(दू) १/१६२,१६३,१८५; २/२७ धम्मविमोहि २/१८१ धम्मसडा १/३०,१३३,१३४ धम्मसासण १/१४५ धम्मसाण १४५ धम्मसिस्खा १७३१ घम्माणुयोगचिन्ता १/६१७,६१८ धम्माधम्मठिय १/४६,४७,४८ धम्माघम्मिय उवयम १/४ धम्माघम्मियकरण १४५ धम्माधम्मिय ववसाय १४६ धम्माराम १/३२३ धम्मायरिय १/४८,४५ घम्माराहणा परिणाम २/५३ धम्मियउवाम १/४६ धम्मियकरण १/४५ धम्मियववसाय १/४६ घम्मिया अधम्भिया पुरिमा १/४९ धम्मियाराहणा २/१३५ चम्मतराय कम्म २/१,२ धम्मतराय कम्मखीवसम २/१ धरण (इन्द्र) १/६,२१८ धरणोवधाय २/२२३ धाइपिण्ड १/५६६ घाउकम्मकरण १/४२२ धाणिहिपवेयण २/१९६ दसणाबरण २/३६६ दसणावरणिज्ज १/१४७ दसणिडी २/२०५ दसणि २/१९९ दसणोधात २/१८१ दसमसगफास २/३७०,३७१ दसमसय परीसह २/३६८,३७० धण १/१३९,४३९ अण-घन-पमाणाइमाम २/११० अण्ण १/१३९,४३१ घण्णपूजितममाणा २/७ घच्नविक्खिसमयाणा २/७ धष्णविरल्लित समाणा २/७ घण्ण संकरित्त समाणा २/७ घण्णवमा २/७ धम्म १/१,२,३,३०-५०.६०.७२,८८, १०५,१०६,१०९,१११,१४३,१४९, १५२,१५३.१५४,१५५,१५६,१५८, १८७,१८९,१९७,१९८,२१६,४३४, ४३५४३६,४३७,४३९,४४२,४४, ४५२,४७३: २/३९२,४०८ धम्मकहा १/४२,१३३,१८५ २/३४२,३४६,३५० धम्मकहाफल २/३५१ धम्मघायग २/१८० Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट : २ घरणानुयोग-शब्द सूची ४५९ । धारणा २/२००,२०१ धिई १/२२० घितिम २/२४ घुव १/१४५ धुवणिग्गह २/८२ घुबमोह १/३३७ धूतमोह २/३७३ धूतरय २/३७३ धूतवाद १/४३६ धूमदोस १/६१० धूमिया १/६८ नई १/५३१ नझछिण्ण १/५२८ नगिण २/५१ मगई १/१०८ नट्ट १/४४७ नक १/४२६ नड १४२६ नपुंसगदेय २/३२४,४१० नमिामी,राया) १/३,४,१९८ नमोकार सहिद पच्चक्खाण सुत्त नाहियपष्ण १/१७० नाहियवाई १/१७० निखिय १/१२६ निक्सित्तचरए २/२६९ निश्चिम-चविखसचरए २/२६९ निगामसाई २/५६ निग्गय पावयण १/१३२, २/१५५, १५७,१६०,१६४ निच्च भत्तिय २/६७ निम्नरोसी १/३०४ निज्वर १/१७०,२०७ निजरणया १५६ निजरा १/१२५,१८९; २/११५.११६ निज्जरापेही २/३७७ निज्जावय २/३२० निम्हियञ्च २/७६ निणय १/१२३ निण्हव २/१७४ नितिय १/१९०; २/२४९ निसियनिक १/५८९ निलियबास १/६६४ निदाया)ग २/१५६.१५७,१५८,१५९, १६०,१६१,१६२,१६३,१६४,१६६, नयरधम्म १/३१ नरगतिरिक्ख १/४२ नरग-तिरिक्खजोणि १/१४४ नरगतिरिक्खतण २/४०७ नरय १/३२०,४४५. २/३५८,४०६, ४०८ नरय वेयण १/१७७ नरिद १/३२० नवकोहीपरिसुद्ध १/५३३ नव नवमिया भिक्खु पहिमा २/२९७ नवविहा सुद्धभिक्खा १/५३९ नाम २/८२ भागपरियावणिया २/२२३ नाण-दसण १/११४,११५ नाणदसणुप्पत्ति १/११४ नाण-दसणसंपन्न १/७३२ नाणपज्जव १/७३४ नाण पडिणीय १/८९ नाण संपन्या १/५९,१३३ नाणावरण २/४०५ नाणावरणिज्ज १/१४७ नाणावरणिज्ज कम्म १/३८,३९,६२, २/३४२ नाणासीला २/१७२ नाम १/११७, २/१०४,३६७ नामावस्सय २/७८ नायपुतवयण २/२३ नालिय १/८४ नासावहार २/१०९ नासावीणिय १/४५९,४६० नायिदिट्ठी १/५७० निर १/१०४ निरपमाय २/१८० निन्दणया १/३३.१३४ निफाव १/१७५ निम्बलासय १/३३१ निमित्त १/१४,१७२ निमित जागरण २/१९७ निमित्तमि २/१५४ निम्मलयर १/२२१ नियमपरिवय १/१८५ नियडी १/८९ नियतीभाव १/१६१ नियम १/१४१ नियल-संघण १/१७५ नियाग १/१४ नियाणखिन्न १/४७३ नियाबट्ठी १/१८० नियावाई १/१६७ निरवज्जजोगपडिसेवण २/१११ निरतियार १/२४ निरय १/१५२.१५४ निरवसेस २/१०० निरालंबणता १/८७ निरासय १/१४५, २/२५७ निकडपण्णा १/१७२ निरुड परियाय २/२१० निरुवासवे २/१०२ निस्संचणकम्म २/१११ निविट्ठकाइय कप्पट्टि १/५४ निवाघाइम २/२६१,२६२ निव्वाण १/८७,१८७,१९४,२१९ निबाण मग्ग १/१९७ निम्बाविय १/५७० निधिगद २/४२ निधिगया पच्चक्खाण सुत्त २/९७ निव्यितिगिच्चा १/१२६ निलियार १/७३४ निधिसमाण-कप्पट्ठिई १/५४ निविसमाणय १/२४ निन्दीश्य २/२७२ निब्बुई १/२१५ निवेगणी २/३४७ निब्लेय १/१३३,१३४.१३५ निव्वेयदसा १/१३८ निसग्ग २/१०७ निसाग (रुड) १/१२६ निसज्ज-कहा १/५६६ निसम्मभासी १/५१९ निसन्म २/६१,६२,२५७ निसह (निषध पर्वत) १/६ निसिज्जा २/४५ निसिज्जाकरण १७४२,७४३ निसिज्जियाए २/२७५ निसिढसय्या १/४९३ निसीहिया २/५७.५८ निसीहिया परीसह २/३६८,३७४ निस्सकिय १/१२६ निस्सिचिय १/५७० नीयागोया १/१० नीलभिगारगाणि १/६७०,७४६ मौलवन्सपवहा १/११० नीहारिम २/२६०.२६१ नेगनय) १/२४,२५,२६,२७ नेमि १/३,४ नेरड्य १४,४८,१०३,१७७.१७८ः २/३५८,३५९,३६० नेसज्जिए २/२७४ नेहपास १w५ नेहाणुबंधण २०११ नोभागताओ) दवावस्सय २/७८,७९, ८० नोआगमता(भी) भावावस्सय २/८१ नोन्दिय पच्चक्ख १/१८ नंदण (नन्दन वन) १६ नदणवण २/३६१ नंदा १/२२० नंदीचुण्णग १/३३६ नंदीसर दीव २/३६१ पाण्ण तव २/२५९ पउमप्पहासुप्पभ) १/३ पसमवरपोहरीय १/१८१,१८२,१८३, १८४,१८५,१८७ Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६० परिशिष्ट : २ चरणानुयोग-शरद सूची पउमोवमा १/४३४ पएसदिद्वन्त १/२४,२६,२९ पओगकाल २/३८६,२८७,३८९,३९०, ३९१,४१० पभोगकिरिया १/१६४ पओस (काल) १/६२.६३ पभोरदोसा २/३८०,३८१ पओगसपया २/२०६.२०८ पकामभोई १/६१२ पकुबय २/३२० पक्रमालव १/५२० पक्वपिड १/८३ पगाउवसंतया १/५८ पगतिभा १/५८ पगतियशुकोह-माण-माया-लोभ १/५८ पच्चक्ख १/१८ पच्चक्खवयण १/५१८ पवक्ताण १/१०३,१३३, २/८२,९४, ९९,१००,१०१,१०२.१०३,१०४, १०५ पच्चरखाण-पालण-रहस्स २/१२१ पनाखाणप्पगारा २/५९ पम्यक्साणफल १/१०२, २/१०२, १०३ पच्चक्खाणी १/५१२ पच्चत्थिम १/१८३ पच्चवाय २/७१,७३ परिझम २/१२२.१२३,१२४ पडिडामण १/१३३; २/८२,८३ पशिभणारिह २/३१० पडिग्गह १/७१२ परिवगा १/१२० पडिग्गहमाया २/५ परिणीय १/८८,८९ पदिपुश्मया ) १/१२३ २/५७, ५८,३४२ परिपुचमाफल २/३४६ पडियाजसेवा १/६३५ परिटजीबी २/३.१७९ परिमट्ठाइयाए २/२७५ पडिमटाई २/२७३ पडिमा २/१०७,२७९-३०८, ३६७,३७५ पबिघा क्षण विवेग/२९१ पटिमापडिवण्ण २/१२०,२८०.२८१, २८२,२८३,२८४,२८५,२८६,२८७ पटिमा संगह २/३०७ परिमोयय २/३९७ परिमाणिय १/६८९ । परिकथय) १/३२.१३३ पडिलेहणा १/७१५,७१६ परिमेहणा दोस २/६० पडिलेडणापमाय २/१८० पटिहणा विही २/६० पडियाई १/२४,१२७ पठिसूत्ता २/ पडिसेवण २/३०९ पडिसेबना पायचित २/३११ पहिसेविय २/३२७,३२८,३२९ परिसेबी १२,४२४ परिसोय १/१४२ परिसोयनारी १/५३६ पढिससीणता २/२५८,२७५-२७९ पनिहारिय १/६५७,६५८,७०९ पढीणा) १/१२३,१२१.१४८ पणीताहारविवजणया १/४२४,४२७ पणीय आहार १४२३,४२७ पणीय आहारणिसेह १/३२९ पणीय पाण भोयण १/३२९, २/२७२ पणीय भत्त पाण १/३२४ पणीय रम परियाय २/२७२ पणीय रस भोयण १/३३१ पण्ण १/६१७.६१८ पण्णसि अक्खेवणी २/३४७ पण्णवणा १७३९ पण्णवणी १/५१२,५१४,५१५.५१६ पण्णवंताण परकम २/३९६ पण्णा संपता १/११८ पण्ह कत्ता १/१२० पण्डकरणविही १/१०६ पण्हाय १/४४९ पत्त १/२३९. २/३४ पत्त बीवर २/७५ पसच्चेज्ज १/४६१ पत्तपदिलेहणाकाल २/५९ पसपदाण १.२२ पत्तमालिय १२१ पसवीषिक १५९,४६० पत्तुण्ण १/१७०,७४६ पत्तेसण पडिमा २/२९४ पतगविहिबा १/५३९; २/२८२ पत्यगरिहन्त १/२४,२५ पत्यारा २/२२० पोस २/३१० पना परीसह २/३६८,३७७-३७८ पष्फिाय १/५०७ पष्फोटणा १७१६ पभावणा १/१२६ पभामा १/२२१ पमस १/२३४, २/१७८,४०२ पमत्त पारचिय २/३३१ पमाणपत १/६१२ पमानातिकत १/६११,६१२ पमा बाय १/१.१.१०४,११, १९४४३७२/१७७.१७८,१७९. १८०.२१३,३०,३६३४ पमायपरिष २/११९ पमायणिमेह २/१७७ पमाय पडिहणा १/७१६ पमाय परिमाण उवएसो २/३१४ पमायबहुस १४५ पमायसंग १/१०६ पमायी ॥३५ पमोगो १/२२० पमोक्स १/१६८. २४६ पमोक्समग्ग २/०५ पयणुय २/२६४ पयत्तचिन्न १/५२० पच्छण्णपडिसेबी २/३१० पच्छण्णभासी १/१०८,११२ पच्छन्द्रकालेण २/९४,९५ पच्चाद १/७१२ पञ्चाकम्म २/४९ पच्छाणुताव २/३३३ पच्छा संमा १/६८ पचिमा १/६३ पज्जतिया (भामा) १/५११ पज्पब ओमोयरिया २/२६८ पज्जवचरओ २/२६८ पज्जबजायसत्व २/३९९ पवालिय १/५७० पपवासणा १/१०२ पनोसवणा २/७७ पट्ट १२१,६७० पट्टविय २/३११३३१,३३२,३३३,३१६ पद्रविया आरोवणा २/३१,३१४, पप्पच्चयवन १/५१८ पहप्पवायदाण ११ पडोश पलासय १/१०९ पढमपौरिसी समापारी २/60 पढम समोसरण २/७५ पढमा १/६३ पढमा-मासिया राइंदिया भिक्षु पटिया २/२८०,२८६ पणएविट्ठी १/२०१ पणगय) १/२०१,२८३,४९९ पणगसहम १/२८, २/७७ पणगिह १/७४७ पणियट्ठ १/५३१ पणियसाल १/७४८ पण १/६६ पडपण्णणंदी २/३१० पडलाइ १७१२ पडागसमाणे २/१०५ पहिकुट्टकल १/५४९ पडिकूलोवसग्गा २/३८१ Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ र पयसपक १/५२० पयमग्ग १/२७४ पयरसव २/२५९ पयहीण १/९७ पयाणुसारी १/२२२ पयंगवीहिया २/२६७ परकिरिय १/३३७ पर-गवेसिय १/७०७ परग २/२९२ परचा १/५०० परदत्त भोई १/३०० २/५५ परदनहरणवेरमण १/३०५,३०७ परटारगमण २/१०९ परदेवी परिचारणा निदान करण २/१६० परपरिवाया औ) १/१७३,२१२,३०४ २/१५४ परपासपडिमा २/२५२ एरपासउपसंसा १/१३७ २/१०७ परपासहसेवी १/१३८ परपासंडसंथव १/१३७, २/१०७ परप्पवार २/३९२ परमकेवल १/३१९ परमचक्रडू १/४३९, २/४०२ परमत्थसंचव १/१३६ परमदसी २/३९६ परमसममाण १/३१९ परमाराम १/३३१ परमाहोहि १/३९ परलोग आसायणा १/९७ परलोग परिणीय १/८८ परलोग परिबद्धा २/६ परलोगवादी) १/१६७,१७० परलोगसंवेगणी २/३४७ परलोगसंसपोग २/९३ परलोय १/१५२ परववएस १/३०५, २/११५ परविवाहकरण २/११० परवेयावच्च २/३३७,३३८ परसमय १/५९ परसरीर संवेगणी २/३४७ परिकम्म १/३३९,७२२ परिकम्मकय १/६९४ परिकम्म कारावण १/२६१ परिकम्मविसोही २/१८१ परिकम्माणुमोयणा १/३२९ परिकम्पोवधात २/१८० परिपसभासी १/५१० परिग्गह १/३७,१३१.१७३,२१२, '४२९,४३९.२/३,१७,२५७,३८४ परिग्गहपरिमाण २/११० परिग्महपास १४५ परिग्गहविरय १/४५,४६ • परिशिष्ट : २ चरणानुयोग-सब हो परिग्गह-वेरमण १/४५५,७३३ २/२५ परिहार कप्पविष Erres am परिग्गहसरूव १/४३८ १२७ परिजुण्णा २/७ परिहारद्वाप /RAMER. परिपुसित संपन्न १/५३७ ३१३.३१४११५१ ९४ परिट्रवण १/६२९,६३२.७२०,७२१, ३२५,३२६.१२५१२८10 ७२२,७२३,७२५,७२६,७२७,७२८, परिहारणारिह १०२२ परिसारणविसोही २/१८१ परिद्धावणविही १/६०८ परिहारणोववात २/१८० परिट्ठावणियागारेण २/९५.९६,१७ परिहारपत Rare परिष्द्यावणिया समिह १/७२०,७२९ परिहारविसूति २/११ परिणय १/५७९,५८०,५८२,५८५ परिहारविनियरित्तगुणषमाण परिणातकम्म १/१८,७४ परिणातगिहिवास १/१८५ परिहारविडिय संजम २/१४ परिणात सन १/१८t परिहारिम २/८.१,२७ परिणिनाण परीसह १/२२/०१५.१५८. परिण्या १/११८ 120३९५ परिण्णायकम्मे २/१०२ परीसह अपरामियो अनी १७८ परिष्णाय गिहावासे २/१०२ परीतहमा परिणाय सणे २/१०२ परीसइंजयफल २/१८0. परिणिदिप्ता २/ परीमह पदांजिनो मुणी.२/३७. परिताप १/७३५ परीमहबत्तिय १/७४ परितकायमच आहार १/५७५ परीसह विषय १/१३१ परितमिस्सिया १/५१२ परीसहमहगो भिरब २/३७९ परित संसारी २/१७३ परीमहोयसाग २/२१,२५४ परिदाह पडियाय १/५०९ परोक्तवपण १/५१८ परिनिव्वर २/५२ परपरणय २/२० परिपुए २/७२ परंपरागम १/२५ परिभोगेसणा १/५१८ परंपरसमुदाणकिरिया १/१६४ परिभोमण-परिछावणविही १/६०८ पल १/५०७ परिमाणका २/१०० पलालग २/२९२ परिमिय २/७२ पलालपुण १/६४९,६५० परिमिय पिण्डवाइए २/२७०,२७२ पलिरपणा पायच्छिच २/३११ परिप १/५०७ पलिजधिय २४,२५,३२६,२२७. परियट्टण १/११७.१८ २८.१२१ परियट्टमा १/१३१: २/१४२ पलिजोबम १/१४५ २/१m परियाय १/१४, २/२८,२२३ पलिचित्र २/२१७,२२॥ परियायधेर २/१९९.२०० पलिमधू/१८० परिपाय धम्म २/४० पलियंक २/५,४९,२७४ परियाल २/२८ पलिमेक मनिसज्ज ठाण २/४९ परियावज्जणा १/१२३ पलब १/५७९ परियावसह १/६३२,७४३.४७ पलवसत्त १४२१ परिपा(पा)विता २/७ पस्हत्यिय १/८३ परिया(वासिय १/७६,१७७ पलहायणमाष २/२५५ परिवरत्ता १/५३७ पवग १/४२६ पबग्णता २/३८१ परिवाय १/३०५ पपडेज २/५० परिषदकाय १/५२०,५२८ पषसय २/६५.२३८ परिसर १/५४८ पतिणी १/६५८२/२२०,२२५ परिसा १/४९ पवयन २/३४८ परिस्सव १/२०७ पवयनदेवी १/९ परिक्सह १/१३२ पवयणमाया ३/४८५-७३८. २/१०२ परिस्साई २/३०९ पवयणसस्प २/३४८ परिहार १/८ २/३३१,३३६ पवरपौवरीय १/१८५ Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६२ परिशिष्ट : २ चरणानुयोग-शब्द सूची पाणाइसिरयावासोया(ओ) १/१७३, २१२,२१६,२१७,४७६; २/१२५, ३८४ पाणादवाय ताओवेरमण १/२१२. २१६,२१७,२१८,७३३, २२९ पाणिदया १/६१२ पाणीभाइ णिसरण णिसेह २/२८३ पाणीपाणविसोहणी १/७१६ पाणेसण पटिमा २/२९० पासणा २/२९०.२९१ पाताल २/२८२ पादकेसरिया १/७१२ पादच्छिण्ण १/५२८ पादठवण १/७१२ पादयोपुषण १४२०,४५२.६६६, ६६७,७०८,७०९,७१२,७२१,७१ पवहेज्ज २/६५ पवाल १/१३९.२३९ पवित्ता १/२२१ पवित्थरविहि १/१७४ पवुटुदेव १/५२३ पवज्जा २/१.२,३,४,५,६,७,८ पव्यज्जा अजोग्गा २/५ पवजापरियाय १/६६७ पव्यय १४६० पन्चममाण २/५ पम्मावण २/४ पसत्थकायविणय १/७८,७९ पसत्ययेर २/२०० पसत्य मणविणय १/७७ पसत्य वइविणय १/७८ पसत्यसम्मत्तमोहणीय २/१०७ पसायपेही १/८३ पसिणाइ कहण २/१९५ पसिणायतण २/३३१ पसुपरवीण अगसंचालणाई १/७४४ पहास (गणघर) १/७ पहीणसथव २/४३ पहेण १/६१७ साई) १/१२३,१२० 7342. १५७,१५८,४७८,५५५, २/४,२६५ पाजसंमि विहार करण २/६५ पाओवगमण २/२६१ पओवगमण अणसण २/२६४,२६५ पाओवगमणकरण विहाण २०५३ पाओवगमण मरण २/१६९ पागार १७४७ पाडलिपुत्त १/२६ पाडिपाहिय १/४९१,५२५,५२६ पाडिहारिय १/६२२,६८०,६६१, ६६२,६८४,७०१,७०२,७१७ पाण १/९४,९५,१५२.२८३,४४१, ४९९.५०१, २/११५ पाण(ग) १/५३७,५४५,५५८.५६९, ५७० पाणग १/६२७.६२९.६३०.६३२.२/६७, २४९,२६०,२८१.२८५,२८६.२९८, २९५,३००,३०१,३०२,३०३,३०४, ३०५ पाणगजाय १/६२८,६२९.६३०,६३१ पाणगहण २/७१,७२ पाणभूय २/२४७,४९४ पाणवत्तिय १/६१२ पाणवह २/४५,२५७ पाणसुहम १/२८३ २/७७ पाणा १/१७८.१७९.१८८.१९१. २१५.२४२,२४६,५३० पादपोचमा १/४३२ पादबंधण १/७१२ पामिन्च १/५०६,६१४ पाय १/५३३.६९०,६९१,६५२, ६९३.६९४.६९५.६९६.६९७, ६९८,६९९.७००,७०१,७०२, ७०३,७०४,७०५,७०,७०७:२/४६ पायकम्बल १/७१६ पायकेसरिय १/६९९ पायकोरण १/७०५ पायच्छित २/३०२-२३७ पायच्छित्तकरण १/१३३ पायश्चित्त जोम चरित २/१०५ पायच्छित फल २/३३३ पायच्छिन सुत २/३४० पायपहिलेक्षण २/५४१ पायपरिकम्म १/३२८,३४०,१५२. ३८६.३९२,१९९,७०३,७०४:७०५ पायपरिकम्मकारावण १/३६४, ३७१,३७८ पायस १/३३४ पायसजय १/७:० पारगय २/२० पारासर २/३८४ पारिणामिय भाव)/१६ पारिहारिय १/६१९,६२१ २/३२:३३५.६३६ पारचित) २/२१६,३३१,३३२ पारचिय पायच्छितारिहा २/३३१ पारचियारिह २/३१० पालु-किमिय १/२६०,२६४,२६७, २७०,२७४,३४३,३४७.३५० पालब १/६४० पाव १/५९,१२५,१२६,१४६,१५३, १६०,१६९,१८९.१९०, २/४०० पावए) १/१७१.१७८ पावकम्म १/१७८,४५५, २३८,११६, २५७,३९९ पावकम्मविरय १/४४६ पावकम्मोवएस २/१११ पावकारी १५५ पावगीय) १/५९,८९.१५२,१५३, १५४,१६८ पावजीवी २/२१३ पावठाण १/२१२ पावधम्म १/१०४ पावपरिक्खेच १/८२ पावपरिक्खेदी १/८७ पावयणी २/३४८ पावसमण १/८६,१३८,२८७,६०३, ६५९,७१६,७३८, २/४२,६२, १७६,१७७,१९० पावाडोय १/१६२,२६७ पावाराणि १/६७०,७४६ पावासवनिरोह १/७३६ पावसि १/११३ पास १/३,४,४५, २/३७२ पासग २/४०१,४०२ पासणिय १/१९० पासत्य १/१५० २/२४७,३४५, ३८४,३८५ पासत्पय १/४३७ पासत्यविहारपडिमा २/२५१ पासबद्ध १/४४५ पासरोम १/३७६,३८४,३९०.३९७, ४०४,४१२ पासवण १/५४९,६४६,७२०,७२१, ७२३,७२४,७२५.७२६,७२७, ७२८,७२९,७४७,२/७३ पासवण मसय २/७४ पासाधम्म १/३१ पासंही १/१९६ पाहसीलता २/१५४ पिउमंद पलासय १/६०९ पिच्छमालिय १/४२१ पिज्जदोसागुगया २/३१२ पिट १/५०३ पिट्टण १/१७४ पिट्टिमस १/८४,५३१ पिट्ठत १/४१४,४१५ पिण्णा १/१५१ पिपीलिभर १/२८५ पिप्पलगय) १/२७७,२७८.७१७ २/२९२ पिप्पलि १४८१.५७५ पिपलिचुण्ण १/८१,५७५ पिय? १/१२१ पियधम्म १/५० २/३२० पिसईय) १/२६५ Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट : २ चरणानुयोग-शब्द सूची ४६३ पेसवणपओग २/११४ पेसारभ २/११९ पेलण १/४३३ पोक्खरिणीपलास २/३८८,२८७,२८९, ३९०,३९२,४१० पोग्गलठिताए दिट्ठी २/२८७ पोग्गलाणपरिणाम १/४३ पोतया १/२४१,२४२ पोतग १/६७५, २/२९३ पोतर्ग २/२९३ पोत्थकम्म १४६१ पोय १/२२६ पौराण आहार १/५७८ पोरिसी १/६२,६९,६११,६१२.६१३: २/६१,२६७,२६८ पोरिसी पच्चक्खाण सुत्त २/९४ पोरिसी विण्णाण २/५९,६२ पोसवत्थ २/३७२ पोसहोरवास १/१७१, २/१००, १०८, ११२,११३,११४,११७.११८,१२५, पिलाग २/२८४ पिलखुपवाल १/५७६ पिचासा परीसह २/३६८.३६९ पिसुण १/९१,१७३,२१२ पिहियासव २/२४८ पिहुय १/५७२,५७९,५८० पीढ १/६५८,७१६ पीढमप्पि १/१६६.५२८ पुपोक्चरिणी १/१८१,१८२,१८३, १८४,१८५,१८६ पुच्छण १/६१७,६१८ पुचणिणी) १/५१२: २/२८२ पुटुलाभिए २/२७०,२७२ पुवागरणी २/२८२ पृट्ठी १/२२० पुढविकम्मसमारभ १/२२८,२२९ पुढधीकाहय जीवा २/९,१० पुढवीकाहया १८,२२५ पुढाविकाइयाइ निहरण २/२५१ पुढविकाइयाण देयणा २/२२८ पुढविकाय १/४४,२२७,२५० पुढविकाय आरंभ १/२८२ पुढचिकाइय १/२४ पुढविकाइयसंजम २/१४ पुढविसत्थ १/२२८,२२९,२३० पुढविसमारम्भ २/१२१ पुढविसिल २/२८२ पढवी १/१६२,२२६,२४६ पुढवीजीवा १/२२६ पुढवीथूभ १/१६० पुढवी महाभूत १/१५४ पुढबीहिसा विवाद २८७-२८८ पुढोवेमाथा २/३८० पुणब्भव २/१९१ पुण्ण १/५९,१२१,१२५,१२६, १४६,१८९.५३० पुण्णरूवा १/१२१ पुण्णावभासा १/१२१ पुत्तदोहलट्ठाय १/३३६ पुष्फ १/२३९.५८८,६३०,६३२ पुष्फमालिय १/४२१ पुष्फवीणिय १/४५९,४६० पुष्फसुहुम १/२८३,२८४, २/७७ पुमत्तट्ठा नियाण करण २/१५९ पुमवयू १/५१३,५१४,५१५.५१६ पुमिथिवेय २/४१० पुयावहत्ता २/६ पुरओपडिबद्धा २/८ पुरन्दर १/११० पुराकम्म १/५७१,५७२,५७३ पुरित्थ १/१८२ पुरिम १/४६२ पुरिमा पन्चक्खाण सुत्त २/९४ पुरिमढिए २/२७२ पुरिम-पच्चिममा २/२०० पुरिस १/१८२,१८३.१८४,१८५ पुरिसजाताोया १/११३,११४,११६, ११७.११८,१११,१२०.१२१,१२२, १८२,१८३,१८४,१८७,२००,२०१, ७४० २/२,१०२,१३२,१३३,१५६, २०३,२०४.३१० पुरिसवयण १/५१८ पुरिसादाणिया २/३९९ पुरिसतरका १/६४८.६४९,६६९, ६९१,६९२,६९७,७२५ पुरेकम्म २/४९ पुलागभत्त १/६०३ पुल्लिंगसदा १/५१३ पुन्चकम्म २/५२ पुचण्ह १/६३ पुवघर १/२२२ पुख्य-पच्छा-संघव दोस १/५६५ गुलरियनितेण पडो मुणी २/३८४-३८५ पुन्दरयपुश्वकीलियाण अणणुसरणया १४२४,४२६ पुचविदेह १/२६ पुब्बीबदिदु १/७२१ पुल्चन (अनुमान) १/१८,१९ पृहतविया सवियारी २/३५३ पूछाति)का १५५९ पूछातिकम्भ १/५५९ पूजा १/२२१ पूतिआलुम १/५७६ पूय १/२५४,२५५,२५६,२५७, २५८,२५९,२६३,२६६.२६७, २६५,२७०,२७२,२७३,३४२, ३४३.३४५,३४६,३४९,३५०.५५० पूयण १/१६५ पूयणपत्थय २/२४५ पूयफल १/३३६ पूयाभत्त १/६२१ पूयासकार २/२८ पूब्बा संमा १/६८ पेज्ज १/१४७,१७३,१८२.२१२ पेज्जणिस्सिया १/५११ पेज्जदोस १/८७ पेज्जदोसमिछादसणविजय १/१३४ पेज्जदसी २/०१ पेज्जबंधण २/११३.१२० पेठा १/५३९: २/२६७,२८१ पेस १/३३६,३३७,४३३ पेस परिण्णाय २/११६ पेसल १/३३४ पेसलेसाणि १/६७०,७४६ पेसाणि १/६७०,७४६ पोसहोववासणिरत २/११६ पोसहोपवासस्स सम्म अणणुपालणया २/११४ पोसत १४१४,४१५ पंक १/३५२,३७१,३७८,३८५. ३९२,३९९,४०७ पंकगय १/५०८,५०९ पचखधबाय १/१६१ पंचनिग्मणा २/१९ पंचमहवय १/७३ पचमहाभूयवाई १/१५३ पंचमहन्बइय सपरिमण धम्म २/२०० पंच-मासिया भिक्खुपडिया २/२७९, २८५ पंचवय १/८६ पंचाणुब्वय २/१४० पचासव २/१९ पचिन्दिय अघायका १/२८६ पचिन्दियकाय १/४ पचिन्दियघायका १/२८६ पचिन्दियतिरिक्वजोणिया ४८ पडगाय) ९/९३.५२८ पंडगवण २/३६२ पंडय २/५ पहिरतीय १/१८२,१८३,१८४,१८५, २/३६३,३९६,३९७,३९८,४०७,४०८ पटिय परराम २/३९७ पड़िय(तोमरण २/१६२,१७०,१७२.२६१ पडियमरण सरुव २/२६० पडियमाणिण १/१७८ पडियवीरिय २/३६५ Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६४ परिशिष्ट : २ चरणानुयोग-शव्य सूची बिल्ल पलासय १/६०२ बिल्लसरय १/५७६ बीअसुहम २/४७ बीओदग २/१८४ बीजमालिय १/४२१ बीभाषण २/१९७ बीय १/२३९,२४०,२४६,२८३, ५०१,५०८: २/३८४ बीयण १३३ बीयपुटी १/२२२ बीयरुइ १/१२६ बीयवीणिय १/४५९.४६० बीयसहम १/२८४ बुआवश्त्ता २/ पतकुल २/१६६ पतचरए २/२७१ पंतजीवी २/२७३ पताहार २/२७३ पाचाल १/१९८ पिग २/३८४ पिर १/५३३ पिढ्य १/२५६ पिस्वायत) १/५४३,५४६.५४४, ५४८.५४९,५५०,५६०,५६१, '१९२१६१,५६८,५६१.७५ ५७१,५७२,५७३,५७४,५७५, ५७६,५७७,५७८.५७९.५९२, ५९६,५९७,६०३,६०४,६०५. ६०७,६०८,६१६.६१७.६१८, ६२९,६३०,६६७,६६८,७११, ७१२,७१३,७१४,७१८, २/३७५ पिसणा २/२८८,२८९,२९० पिडोरगह पडिमा २/२८७ पिंडोलग २/३७५ पोकमास १/६८९ पोडरीय १/१८१.१८२ पोडरीय रुबग १/१८१.१८७ फरिसासत्ति णिसेहो २/३९० फरुस १/१०५.२/ फरूसवयण १/२९९ फलग १७१६ फलमालिय १/४२१ फलवीणिय १४५९.४६० फलिओवहर १/५२८ फलियाणि १/६७० फलिह १/७४ फाणित १/५५० फालिय-गठिय १/६८९ फास १/१३९,mwww५,४८; २/२८,३९०.३९१,३९२ फासपण्णाण १४५३ फासबल २/१७८ फासमत १/५१० फासिम्विय १/७१,७२ फासिन्दिय अपरिसलीण २/२७९ फासिन्दिय असवर १/२१२ फासिन्दिय निग्रह १/१३३,७३७, २/२९ फासिम्दिय पचत १/१८ फासिन्धियमुण्डे २/फासिन्दियरामोदर १/४६७ फासिन्दिय संजम १/१ फासिन्दिय संवर १/१३४ फासुएसणिज्ज १/६१०.६११ फासुम १/५६२,५६३,५८१,५८२, ५८३,५८४,५८५,५९७.६१७, ६२८.६३१,६५२,६७८.६९८, ७२०,७२५:२/११५.२८८,२८९, २९०.२९३,२९४ फासुयविहार २/८७ फोडीकम्म २/१११ बलगवेसिय १/७०७ बलदेव १/१६७,१७१ बलमय २/१९१,१९२ बलसंपण्णा १/१२२ बलहीणा १/१२२ बलाबल २१ लाश २०४ बहिब १/७४९: २/२० बहियागाम २/२७४ बहियापोग्गलपक्लेव २/११४ पहिरत्त १/४५ बहिरंग २/३०९ बहउज्निय बम्म १/५८८ बहुजणं २/३१८ बहुदेवसिय १/६८०.६८१ बहुपरिपुपणदिय १/५२० बहुपतिविरया २/१६२ बाफासुय १/७१८.७१९,७२२ बमाण (जानाधार) १/५५,१००-१११ बारय १/५७२ बहुबयण १/५१८ बहुवयणविवाखा १/५१३ बहुवयू १/५१३ बहुसाहारणा १/१४ बहुस्सुते पुरिमजात २/२१६,२४४ बहुस्सुय १/८३,१०९,११० बहुसंजया २/१६२ बहुसंपत २/७२ बावर संपरायसरागसंजम २/१२ बायर १/२१६,२१७, २/३१८ बाल १/८५.८६,१५८,१६१.१६९, १७८,१८,२३५,४३४,४३८, w२,५१,५५४७३,४९०, ४५९,५००.५०५२/३६४,३७५, १९५,४०1,०७,४०९ बामजप /१९५ बालजीव १/२ बासपडितमरण २/१६९.१७० बालपटिय १/१७८ २/३६३ बालभाष १/११६२/४०८ बालमरण २/१७०.१७१,१७२.१७३ बालमरण पसमा २/१७३ बालवीरिय २/३१३ बालभिराम tra बाहिय २/५० बाहिरय २/२५८,२७८ बिन्दुष्पमाण १८१ विम्बभूत २/५४ बिल १/८१ बुङजागरिया २/३९४ बुद्धी १/२२० बुडोवधाय १/८३ बुहहियये १/११६ बुहे १/११६ बेइन्दियकाय १m बेलबग १२६ बोधियसाला १/६२४ बोही १/२२० बंध १/५९,१२५,१७४.१८९,७३५, २/1०८ बधण २/४०३ बंधणविमुत्तिए परकम २/०३ बधणुभुजा २/५३ बंधमोक्स १/१७८ बभ २० भउच्च १/१५९ बभपरिय ठाण २ बभदायचय) १/६.१०२, १०३, १२९.१६२.२१०.३१६,३१९,३२०, ४२८.४३९,४५२,४७४ २/५०.१४, ३१८.४०२ बम्भर अवारस पगारा १/३३३ बभर मणुकूला वय १/३२२ जभचेर अनुकूला बामा १/३२२ भनेर आराणा फल १/३२१ जभचेर भाराहिय १/३१९ मचेर उप्पति अणुष्पत्ति १/३२२ बभचेर गुची १/६१२ भरपराजिया २/३७९ भरपोसह २/११४ भरभाग १/३१९ भरेर महब्धय १/३१४-४२८ बमचेर महिमा १/२१६-३१७ बभरेर रफ्तणोदवाय १/३३१ बभरवास (धम्म) १/३१,३९,३२२, ३२३,७४२ बमचेर विषावका १/३२० Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट : २ चरणानुयोग-शब्द सूची ४६५ । बभचेर सत्ततीस उवमाओ १/३१७ बभचेर समाहिठामा १/३२३-३२४ बंभचेरसमाहिय १/३२३ बभचर सहायगा १/३२१ बभचेराणुफूलाजणा १/७४२ बंभयारी १/३२३,३२७,३३२७ २/११९ बभलोग-संतगाण (देव) २/५३ बंभलोय १/३१८ २/१५१ बंभव २/२७ बंभवय १/३२७,५३५ बभसंति (देवी) १/९ बंभी (लिपि) १/९ बोडियसाला १/८२४ भगवया) (भगवंत) १/२१०,२१५,४५ भगवंता २/३९४ भगदल १/२५३,२५४,२५६,२५७, २५८,२५९,२६०,२६१,२६२,२६३, २६४.२६५.२६६२६७२६.९.२५००, २७२,२७३,३४२,३४३,३४५.२४६, ३४८,३४९,३५० भट्टि (भा-स्वामी) १/४८,४९ भट्ठिदारय १/५१७.५१८ भडखड्या २/६ भत्सकह १/११४,११५ भत्तपच्चवखाण १/१३३,१३४, २/१०४, २६१,२६२,२६३ भत्तपच्चक्खाणमरण २/१६९ भत्तपडियाइक्खिय २/७२ भतपाण १/९१,५३९, २४२ भत्तपाण असकिलेस २/२५२ भत्तपाण दव्चीमोयरिया २/२६६-२६७ भत्तपाण परिण्णा १/११८ भत्तपाणवोच्छेय २/१०८ भत्तपाणसंकिलेस २/२५२ भदा १/२२०: २/२७९ भरत्तर पटिमा २/२७९ भय १/२९९, २/३१०,३८१,४१० भयक १४३३ भयट्ठाण २/२८८ भयणिस्सिया १/५११ भयणिसेह २/२८४ भयविवेग १/२९६ भयसि २/६५ भरह १/२६,१९८ भरहवास १/१९८ भस्लायय १४४१५ भवकोढीसंचियकम्म २/२५७ भवचरिम पचक्खाण सुत्त २/९६ भवणमिह १/६४४,६४५,६४६ भवणमासीदिव) २/५२ भवतण्हा १/४०० भवमिच्छत्त १/१२७ भवियसरीर दब्बावस्सय २/७९,८० भाइसमाणे २/१०५ भाडी कम्म २/१११ भायण-भटीवगहि उवगरण १/७१२ भारण्ड-पक्सी २/१७२ भारपच्चोरहणया १/७३,७४,७५ भारवहा १/३३७ भारहवास २/१९८ भाव १/१६,८९, २/४०९ भावऽण्णाण १/१६४ भावणा १/२१७,२१८,२७९,२८०, २८१.२८९,२९०,२९६,३०१, ३०२,३०७,३१५,३१६,४२४, ४२५,४२९,४३०,४३१,४३२, ४६७,४६८,४७०.४७२.७४८, २/४ भावतेण १/३०४ भावपडिमण २/८३ भावप्पमाण १/१७ भावलोम १/१५ भाववि(ओरोसग्ग २/३५५,३५६ भावविसोहि २/२५५ भावसच १/३२,१३३,१३४,५११; २/२९ भावसुख २/९९ भावसंघय १/५४ भावावस्सय २/७८,८१ भावाविग्महचरए २/२६९ भावोमोयरिया २/२६६,२६८ भासा १/१४३.५१०,५११.५१२.५१३, ५१४.५१५,५१६,५१७,५१८,५१९, ५२०.५२१,५२२,५२३,५२४,५२५, ५२६.५२७,५२८,५२९,५३०,५३१, २/११९ भासाञातारया) १/५१०५११ भासादुग १/१०८ भासाबोह१५१७ भासाविही १/५१९,५२०.५२१.५२२ भासासमिति) १/८५.५१०,७३३ भासासमिया १/७३२ भिउहिमुह १/९० भिक्खट्टा १४९४ भिक्सवित्ती १/५३६ भिक्खलाभिए २/२७० भिक्खागकुल २/१६६ भिक्खाययारिय।) १/१२,१३८,१३९, १४२,२८०,५०१, २/२५८,२६८ २७२,३८१ भिक्खायरिया गमण जोग्ग खेत्त भिक्खू पडिमा २/२७९-२८८ भिक्षु परकम २/३९९ भिक्खू लक्खण २/२२-२६ भिक्खू १/९९,१००,१०४,१०६,१०७, १०८,१०९,१३८,१४२.१६७,१७८, १८५.१८६.१८७,१९०,१९१,१९२, १९४.१९५.१९६,२१६,२२७.२३१, २३३,२३५,२३६,२३८,२४२,२४८, २४९,२५०,२५१,२५२,२५५,२५६, २५७.२५८.२५९,२६०,२६८.२६९, २७०,२७१,२७२,२७३.२७४.२७५, २७६,२७७,२७८.२९४,२९५,२९६, २२०,३२३,३२६,३३४,३३५,३३६, ३४०.३४१,३४२.३४३.३४४.३४५ ३४६.३४७,३४८,३४९,३५०.३५१, ३५२,३५३,३५४,३५५.३५६.३५७, ३५८.३५९,३६०,३६१,३६२.३६३, ३६४,३६५.३६६,३६७,२६८.३६९. २८४,३८५,३८६,३८७,३८८,३८९, ३९०,३९१,३९२,३९३.३९४.३९५. ३९६,३९७.३९८,३९९,४00,४०१, ४०२,४०३,४०४,४०५,४०६,४०७, ४०८,४०९.४१०,४११,४१२,४१३, ४१४,४१५,४१६,४१७,४१८.४१९, ४२०,४२१४२२,४२३,४३०,४३१, ४३५,४१,४३. ४.४६,४८, १४९,४५०,४५१,४५४,४५७,४५८, ४५९,४६०.४६१,४६२,४६३,४६४, ४६५,४६६,७३,४७४,४७७,४७८, ४७९,४८०,४८१,४८२,४८३,४८२, ४९०,४९१,४९२,४९३,४९४,४९५. ४९६,४९७,४९८,४९९,५००,५०१, ५०२,५०३,५०४५०५,५०६,५०७, ५०८,५०९,५१०,५१८,५१९,५२०, ५२१,५२२,५२३.५२४.५२५,५२६, ५२७,५२८.५२९,५३०.५३२.५३४, ५३५,५३६,५३७.५४०.५४१.५४२, ५४३,५४४५४५.५४६,५४७,७३०%3; २/२०.२१,१३०,१७२,२३६,२३७,२३ ९,२४१,२४,२४५,२४६,२५१, २५४,२५५.२५६,२५७,२५९.२६३, २६४,२६८,२८७,२८८.२८९,२९२, २९३,२९४.२९५,२९६,२९७,३१९, ३२४,३२५,३३१,३३२,३ ३३.३३५, ३३८.१३९,३४०,३४,३४५.३४८, ३५०,३५१,३५७,३६९.३७०,३७१, ३७२,३७३,३७४,३७५,३७६,३७८, ३७९.३८१,३८२,३८५,३९२,३९४, ३९९,४०८ भिमा खोणी १/२२७,२३१,२३३,२३६, २३८.२४२,३४०,४४८,४९,४५०. ४५१,४८९,४९०,४९१,४९२,४९३, ४९४,४९५,४९६,४९७,४९८,४९९, भिक्खालसिय १/९० भिस्युअणायरणीय ठाणाई २/९७५ भिक्खुचरिया २/३८३ Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६६ परिशिष्ट : २ घरणानुयोग-शब्द सूची ५००,५०१,५०२,५०३,५०४,५०५, ५०६,५१८,५१९,५२०.५२१,५२२. ५२३,५२४,५२५,५२६,५२७,५२८, ५२९,५३०,५३४.५४३,५४६,५७, २/२९२,२९३,२९४,२९६ भिगुपक्वन्दण २/१७३ भिगुपडण २/१७३ भिच्छोपजीवी १/१७८ भिण्ण २/२०९ भिण्णगिह १७७ भिण्णपिंडवाइए २/२७२ भिण्णसाल १७७ भिन्नवत्य १/६७९ भिन्नभिन वत्थ १/६७९ भिलिग सूव १/५४२ भिगुलेप १/२८५ भिडमालिय १/४२१ भिसियरी) १/६३३,७१३,७१४ भुज्जयरा १/१३८ भुत्तभोगसुमरण णिसेह १/३२८ भुत्तासियाणि १/३२४ भुमगरौम परिकम्म १/३५६,३९०, ३९७,४०४ भुमगरोमपरिकम्म कारावण १/३६५, ३७६,३८३ भुयंग १/१ भुसगिह १/४७ भुससाल १/७४७ भूकम्म २/१५३,१५४ भूइकम्मकरण २/१९५ भूइप्पमाण १/७६,४८१ भूत १/१२२.१९७ भूतमह १/६८ भूतसमवात १/१५४ भूतोवमा होतिय १/५२५,५२६,५२७, ५२९,५३० भूय २/२९.३० भेउरधम्म १४२,७३७ भेदमावत्र १/३३६ भेरवापाणा २/२४५ भेसज्ज १४१ भोगकुल १/५४८ भोगनियट्ठी १/४४६ भोगासत्ति २/५५ भोमालीय २/१०९ भोयण २/११०,२८१,२८५,२८६, २९८,२९९,३००.३०१,३०२, ३०३,३०४,३०५ भंग २/१२४ भंगिय १/६७४; २/२९३ भंड २/११२ भंडग १/५०३:५४७,७१५ भडगमाया १७१२,७१३ भडभारिय १/५०४ भंडय १७१४ भोवगरण १/७१४ महसपयः २ ६,२०७,८ce मड ११ मग्ग १/१०५,१४५,१९३.१९४, १९५,१९६,४८६; २/८२,३३३ मग्गत्य १/१८२.१८३,१८४,१८५ मग्गफल २/३३३ मग्गविदू १/१८२,१८३,१८४,१८५ मग्गओ पडिबडा २/६ मग्गाइ पवेयण २/१९६ मृग्गातिकत १/६११,६१२,६१३ मग्गूक १/१९२ मग्गू १/१९१ मग्गंतराय २/१५४ मघवा १/१९८ मञ्च १/१९१: २/३८९ मच्छखायाण १/७४९ मब्धचम्माई बत्य १/६७० मच्चरिया २/११५ मच्छडिय १/४२३,४२७,५९५ मज्ज १/१९१ मज्जई १/८२ मज्जपमाय २/१८० मज्जप्पमायविरय २/५६ भज्जमेवण विवजण २/५६ मज्जाइसेवणनिसेह २/५७ मज्मचारी १/५३६ मज्झण्ह १/६३ मज्दात्य २४१ मज्झिमा २/१३५,१३६ मट्टियापाय २/२९४ मठाइ णियंठ २/२९,३० मण १७३१, २००९ मणअगुत्ती १/७३० मण अपदिसलीण २/२७८ मण असंकिलेस २/२५२ मण असंवर १/२१२ मणगुत्तया १/१३३,७३३ मणगुत्तयाए फल १/७३३ मणगुत्ती १/२७९.२८०४८५,७३०, मणपज्जवणाणविणय १/७५ मणवलिय १/२२३ मणविणय १/७५,७७ समापहरगया १/१३३,१३४, ७३३,७३४१२/२९ मणसमिया १/७३२ मणसमिति ) १/२८०,४८५ मणसंकिलेस २/२५२ मणसंजम २/१३ मणि १/१३९,६४० मणिकम्म १/४६१ मणिपाय १/६९३ मणुण्ण पोग्गल १/७४ मणुय २/४१० मणुयसंसार विओसग्ग २/३५६ मणुयाणजीविय २/१७७ मणुस्स १४८,८६ मणुस्सगई १/१७१ मणोदिम्भमो १/४२५ मट्टिय १/५०१ मट्टियापाय १/६९०.६९८ मत्त १/६३३ मत्तग गहण विहाण २/७४ मत्तय १/७१३,७१४ मतिअनाणकिरिया १/१६४ मदणिसेह २/१९२ मदद १/१३३ २/१९३ मदव धम्म १/३१.३२ मधुमेह १/१६६ ममत्तभाव २/२,११३ ममाय १/१९० मम्मय १/८४ मम्मुबाहर १/८२ मय (माया) १/७१ मयणमालिय १४२१ मयपगारा २/१९१ मयविही १/१२६ मरण २/१६९-१७४ मरणाससप्पओग २/९३ मरु पक्खंदण २/७३ मरुपडण २/१७३ मल १/३५२,३७१,३७८,३८५ मलणीहरण १/३५२,३८५.३९२३९९, मलणीहरणस्स अणुमोयणा णिसेह मणचियाए २/१३ मणजोग १/१७ मणजोम पडिसलीणया २/२७७ मणदुष्पणिहाण २/११२ मणपओगकिरिया १/१६४ मणपज्जवणा(नाण १/७३२,२/२८७ मणपज्जवणाण अरहा २/१२९ मणपज्जवणाण केवली २/१९९ मणपज्जवणाणजिण २/१९९ मणपज्जवणाण पच्चक्ख १/१८ मलणीहरावण १/३६४,३७१,३७८ मलयाणि १/९७०,७४६ मलावरोहण णिसेह २/२८४ मल्ल १/३९२,३९९,४०७,४२६ मल्लि १/३.४ मसूर १/१७५ महज्जुई १/८६ Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 महतलाय २/२५७ महत्तरागारेण २/९५,९६, ९७ महंजणमोस्त १/६७०,६९२.६१३ महमय १/४३९,४४३ महम्भूता १/१५४, १६१ महल्लियाँ) मोय पडिमा २/२०१ ३०५,३०६ महल्लिय मोयपडिमं परिजन २ / ३०६ महल्लिया विमान पनिती २/२२३ महत्वय १/१३२,१४२,२११.२१६. २१७,२७९,२८९,३०० १०२. ३१६,३१७,४२९,४३१, ४३२, ४४६, ४७५, ७४८ २/४०,५१ महन्वयधम्म परुवा २/१०० महाकुल १ / ७४८ महाहि १ / ७४८ महाजणं १/२१३ महाजाण २ / ३९९ महाण ई (दी) १ / ५०१,५०२ महाई पारगमण १/५०५ महाणिज्जर) २/१५५,३४०.२४१. ३५९ महानिर्मित२/१९३ महापउम १ / १९८ महाज्वाण २/१२१,३४०,२४१, ३५९ महापाडिया २/६३.६९ महाबज(राजा) १/१९९ महाभद्दा २ / २७९ महा १/१५४.१५५ महामह १ / ६८,६१६ महामु १/४४० २/४११ महामोहणिज्ज ठाण २/१८५-१८९ महारभरि २० महावज्जकिरिया १/६४५ महाग १/५३८ महाविदेह २ / ३१९:२/२०० महावीर (वद्धमाण, कासव, नायपुक्त, नायस्य नाथमुणि समण भगत महावीर वीर वीरवर) १/३४.१.६.७४. १.२५,१०५,१३२,१६० १८६, १९४, १०५.१९७,२२५,२९८.३१०.४३२. ४७३४७६,७३१,७३७,७३९.७४२ २/४०:१,४५,४६,१६९,१७०.२५५ २७१, २२,२७३२७४१५०.३५८ ३६९,३००,३८२,३९४,४०५,४११ महाड़ी २/४५२ महाभावज्जकिरिया १/६४५ महासुक-सहस्साराणं (देव) २/५३ मरिन्दमहेन्द्र) १/५ महिया १/६८, २८५,७१३ महिस १ / ९७५,५४८ मही १/५०१.५० महावय १/२२३ मधुमेह १/५२८ महरा १/५०० मरिण लक्खण २/२६ महोरगसरीर १/११६ महंती १/२२० मावा १/४९६.५२४,५५० ५५५,६०५, ६०६, ६०७,६१८, ६८४,७०२, भाइबहुला १/१४६ १/१०४१४५ १४६,३४७, ३४८, ३४९,३५०, ३९८, ३९९, ४००, ४०१,४०२,४०३, ४०४,४०५,४०६. ४०७,४०८,४०९,४१०,४११,४१२, ४१३,४१४,४१५,४१६, ४१७,४१८, ४१९, ४२०, ४२१,४२२,४२३,७४२, ७४३,७४४,७४५, ७४६ माउलिंगपाणय १/६२९ माण १ / ७, १०६, १०७,१७३, १८५.१५५, २१२,२९९ : २/१९१,३९२, ४१० माण अपडिलीण २ / २७८ भाणकर २/२०३, २०४ माण २/५५ माणणिस्सिया ९/५११ माणदंसी २/४०० माणपिण्ड १/५६७ माणमुण्डे २/७ माणविओसम्म २/३५५ भाणविजय १/१२४: २/१९३ माणविवेग २ / २९ माणवेणिज्ज कम्म २ / १९३ माणावादी १/४४५ माणुस १/५९,६०, ३१४ भास्सम कामभोग २ / १५६,१५७, १६०, १६४,१६६ माणुसग्गा कामा २/४०८ माणुसत २/३९२, ४०७ माणुसा २/३८० माणुसा जवसम्म २/३८० मानपिड (दोस) १/५६५ माय (माया) १ / ७, १८९.१९५,२१२३ २/४७, १९१ सायण्ण १/६०२ मायाअप डिलीण २ /२७८ मायाणिस्सिया १/५११ परिशिष्ट २ चरणानुयोग- शब्द सूची मायाविओसरग २/३५५ 'मायाविजय १/१३४ २ / १९३ मायाविवेग २ / २९० माया वैयणिज्ज कम्म २ /१९३ मायासल्ल १/६०७ मायी १/४३५ २/३१८,३२१ मायं २/३९२ मार १/१६०, ४४२ मारणतिय अहियासणया १/ १३४,१३५; मायासी २/४०० मायानियाण २/३२४ मायापिण्ड १ / ५६७ मायामुण्डे २/७ मायामुस २/३८६,३८७, ३८९,३९०. ३९१,४०९ भायामोसा(ओ) १/१७३,२१२,५३१: २/५६, ३५८ *२/२९ मारणतिय संलेहणा मुत्त २/९३ मारदसी २/४०१ मालाकरण १/४२१ मालीहर आहार १/५६२ मालोद (दोस) १ / ५६१,५६२ मास १ / १७५ मासिय अणुग्धातिय २ / ३११ भासिय उग्धातिय २/३११ मासिया भिक्ख पडिमा २/२७९.२८०, २८१.२८२,२८३.२८४ माहण १/४.१०२, १४९,१५२,१५३ १५५,१५८, १६०,१६८, १७९.१८६ १९६.२४५.४३५४०४५४५६ ६४४,६४५, ६६९,६९२.६९७,७५७. ७२५ २/२०,१९५ माहणार नक्श २/२० माहुरी वित्ति १/५३४ मिउमदवस: १/५८ भिगचरियावित्ति १/५३५ मिच्छत १/४३७ मिच्छत (द) १/१६५ मिच्छत्त (वय १/५६४ मिच्छत निसंनय १/४५ मिच्तपञ्ज ४५८ मिच्छत परिश्रम २/८३ मिच्छत्तविसोदि १/१३४ मिच्छाकार २ ४६७ (1)दिट्टी १९३१५८ 4: ब्याट मादी 14239 AAD शिव्यादंसणस मिदंसण / मिच्छादंसणस के १/२५. भिच्छा संठिय भावणा २/२ मिज्जाणियाणकरण २/१५४ मित्त २/३९६ मित्तसमा २/१०५ मितीभाव २/२५५ मिय १/१७५ मिरिय १/५७५ Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪૮ परिशिष्ट २ चरणानुयोग शब्द सूची भिरिव १/५७५ मिलक्खु १/१७९,४८९ मिहिला १/५०० मीसजाय १/६१४ मीसवणस्स १/५७८ मीसिया २ / २०६ मुद्द १/१६६ मुए १/५२७ पास १/४४५ मुच्छा २/४६, १७४ मुझे २/५० मुट्ठिक १/४२६ मृण मुणी १/१३५, १६१,१६६,१८६,१९४, १९९,२७,४२४४३७,४३९४५४. ४८५,५१०,५३१,५३४ / २ / २७,३८५. ३८६.२८७,३८८, ३८९,३९१,३९३. ३९७, ३९९,४०८,४०९ मुणी लक्खण २ / २६-२७ मुंड १/६०, १३२ : २/५१ मुंडा २/७ मुंडे २/३९५ भुत २/१८६ मुसत सरूवं २/३९७ तावनी १/४२१,६४० मुति (धम्म) १/३१.३२,४३९, २/४१ मुसिमा १/४३२ मुत्ती १/१३३ मुयि २/१०१,५००.७४८ मुरियाण१/०४९ विराज १/६२९ मुद्धाभिसित (राया) १/५००,५९१, २/३.४ - ५९२,५९३,५९४,५९५, ७४८, ७४९ (मो)सा १/४७३, ५३०/२/२४६ मुसाबाट २/१०१ मुसावाय १/२१२,७४९, २/४६, १२५. २५७,३८४ मुसावाय विरमण महवय १/२९६ मुसावादा(ओ) वेरमण १/२८९,२९१, ७३३:२/२५ मुसावायाओं १/१७३ मुहतक १/७१२ पोक्षिय २/५० मंगल १/४२७ मुहवण्ण २ / १९७ मुहवीणिय १/४५९.४६० महाषणावणियकरण १/४५९ महाजवी १/५९९.५००.६०१ मुहादाई १/६०० १/४२६ मुजविष्य १/७१० माय १/४२१ मूकस १/४४५ मूढ १/१०५,१२९ मूढ भाव १/४५३ मूल २/२३९, २/३९६ मूलगुण पच्चक्खाण २ / ९९ मूलद्वाज १/४५३ मूलारिह २/३१० मूँग १/१०७५ मेति २/३९६ मेत्तिज्जमाण १/८२ मेति भावणा १ / १९७ २ / ३९६ मेयज्ज ( गणधर ) १/७ मेह(घा)ती १/१७८, १८२,१८३, १८४, १८५,२३० २/४०१, ४०२ मेहावी पुरिसजात २/२१६ मेहावी मुणिस्स परकम २/४०० -४०२ मे १/१७३.२१२.३१४.३२२. २/२५७,१८४ मेहुणधम्म १ / ६४०,६४१,६४२,६४५० २/२१४ मेहुणधम्मपरियारण १/६१५ १/४ मेहुण पत्यणाय १/४१६ मेडिया १/३४४.२४५,२४६.३४७, ३४८,३४९,३५०,३९८,३९९,४००, ४०१,४०२,४०३, ४०४,४०५,४०६. ४०७,४०८,४०९,४१०, ४११,४१२, ४१३,४१४,४१५,४१६,४१७,४१८, ४१९, ४२०, ४२१,४२२,४२३,७४२, ७४३,७४४,७४५,७४६ मेहणवडिया विगिच्याकरण १/४१४ मेहुणविरमणस्स पंच भावनाओ १/३१५-२१६ मेजवेरमण १/३१४.३१६,७३२३ २/२९ मेकूण सेवण संकल्प १/४१२,४१४ २/४ मे मोक्ख २/५९,७२,९८,९९,१०६, १२५, १३६,१४६, १६५,१८९.१९१.१९२. १९४,१९५.२१५: २ / २४६ मोक्लभाष २ / २७८ मोक्खमग्ग १ / १९४.१९६.३१७ मोक्खाभिशी १/३२५ मौण १/१३५.१४४,३३२/२/२४, ३९२, ३९३,३९७,४०२ मोणचरए २/२७०.२०१ मोणपद २/४१,५५ मौणेन कम्मण २ / ३९२ मोत्तिय १ / १३९,६४० मोय २ / ३०६ मोयग्रहण २ / २३० मी पडिमा २/३०५.२०६ मोमसभायार १/६४१ मोर २/२९२ मोरियत (गणधर ) १/७ मौस २/४६, २८६, ३८७.३८९,३९०, ३९१,४१० मोसली ९/७९६ मोसा १/५१०, ५११, ५१४,५१५,५१६, ५२४,५२५,७३१, ७३४ मोसादी२/३५२ मोसोवएस २/१०९ मोह १ / १२६, ४४२ २/४०४,४१० मोहगुण २/३९२ मोहजासंगा उवसग्गा २ / ३८१-३८३ मोहणिज्ञ १ / १४७, १६५ २/३६७ मोहणि कम्म २/३३३ मौणिजकम्मउदय २/९७६ मोदी २/४०९ गोपा २/४३६ मोहमण्णव २/४११ मोहमूढ १/१६५ मोहरिय १/२९९ २ / १११ मंगल १/१,२२० मवमासालय २/४९ मंडलिक पव्वय १/३९८ मंडिय (मगर) १/७ मंडियपुत्त १/ २०७, २०८, २०५,२१० मंताजोग २ / १५३ मंत पिण्ड २ / ५६७ मंधु १/५७२ जात १/५७८ मंदकुमार १/५१७ कुमारि २/५१७ मन्दर १ / ११० मंदरगिरिसिहरचूलिका १/४३२ मंदरवर (पर्वत) १/३१९ मंदा २/३७५,३८४ मस १ / ६५,१९१ मायाण १ / ७४९ रोम १/१६६,३७२,१८०,१८७, ३९४,४०१, ४०८ याssणमणि १ / ५१२ रहभर १/२१२,४४४ १/४४२ रक्खस १/१६९ रक्सी १/३३४ रक्खा १/२२० रज्जपरियट्टिए ओग्यह विहि २ / ३०६ २/४९ टुर २/२०० धम्म १/३१ रण १/४०,५००,७४८,७४९ रण्णा रविजय १ / ७४९ रती १/२१९ रतरमण १/१३९ रम्भगवन्स १/२६ Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिमः . गुयोना-रान सूची ४६९ रयण ६/१३९ रयणावली १/२१,६४० रयणाहिय १/४२७ रयणी १/४१,६६४ रयताण १/७१२ स्यमल १/८४ रयहरग १/६९१.७१०.७११,७१२; पए ११२र२६. २८,४९,३९८ रसग १/१६६ रसणिज्ह णत: २/२५८ रसपण्णा ५३ रसपरिचाय १/२५८,२५२-७३ रसमत १/५१० रसय १/२४६ रसया १/२४१.२४२ रसपाणिज्ज १११ रसविरजण २/२७२ एसासरि णिमेहो २/३८९ रह १/१७४ रहस्सासमक्खाण राया १/४५,१४३,१४९.१५३ रायतेपुर १/५९०,५९१ रायमी १/१९५५२७ रिउब्वेद १/४६ रिद्धी १/२२० रीरियपाय १/६९३ रुपद १/२२६.२४६ एक्समूल १/६२४, २/20 रमबमूलमिह २/२.. हरोर आण २०५२ हरमाण लक्रूण ११३५३ रूप्पलोह १/४२१ रूयमवर (दीची १/३१८, २/३१२ रुयय (रुवक पर्वत) १/k भव १४१३९,४८.५१९,५२०. २/२०, ३८७ स्वतेण १/३०४ रूत्तपडिमा ४९,४५१ रूवमय २/१९११९२ राणिय २/२२१,११ राइण्णकुल १/५४९ राइभोयण १/७५,४७८ सरभोयणएडिसेवण १/७८,४७९ सबभीषण वण्ण NCE राइभोयणविरमण छाप २/४७ राइभोरणविरय २/५१८ राइभोयणाओवेरमाण १/४ राश्यपडिक्कमण समाचार २६२ राईय समायारी २/६:: राभोग्मह १/६५३ राग १/१२६, २/४०४,४०५ रागउच २/३८४ रागणिग्गहोंषाय १/४४५ रातिणि १/१०४, २/५३३ रातिणिया २/१३३ राय करग १/१CT रायकह १/११४.११५ रायसत्तिय १/६६६ रामिह १/८८.३१०.५००, २/२५ रायनियर/90,११,१४, १८ रामपरिसनगारा २/१९८ पर रखारा २/९९९ पिण. १/५९० ५९५ सत्यसिय १/५४९ रूबसंपन्न १/१२२ स्वाणुरत २/३८५ स्वाणुवाय २/११ स्वावलोयणामति ५१ रुवासति णिसेह २/३८६ रूवघर२/५६ रोग १/९३ रोग परीसह २/३६८,३७७ रोगायक १/१३९,१४०,३२५,३२६, ३२७,३२८,३२९,३३०,४१,७६, १७७,६३८ रोगिणिया २/८ रोमपरिकम्म १/३४० रोसा २/७ लवण १/१४४,१७२ मक्खण-बंजण-सुमिणफल २/१९५ लक्खवाणिज्य २/१११ लम्जणुपाय१/५६६ लगडसाइ २/२८६ लगडसार २/२७४.२७५ लज्जा १/१०२ सही १/२२० लदिश १/६३३ सट्टी १/१९१,७१९,७४६,७१४ मयणसुहम ९/२८५ रूण ९४० खोजाग १ ललिदिया १/१२ सा गरेसिय ३८ लतुयत्त १/२१२ 'लाउय १/१९९ लाउयपाय १/६९०,६९८. २/२९४ लाघद धम्म १/३१ लाभ २/२: लाममय २/१९११९२ लावर्ग १/१७५ लामग१४२६ लिक्स १/२५ लिस्ताद णिकरण १/२५४ लितदोस १५८५-५८६ लुचसिर २/१२० लह १/१८५,९८६.२३७७ लूहचरए २/२७६ सूहजीवी २/२७३ लूहवित्ती १/५६४ सूहाहार २/२७३ लेणसहम १/२८५: २/७४ लेलु १७00, ७08 लेव कम RE लेवणणभोग १७५,४८२ लेवालेख २/९५.९७,२८४ लेसणता२/२८१ मोदय आगम १/२२ लोडपटव्दादम्सय २/८०.८१ लोय भावावस्सयस लोहयववसाय १/४६ लोग १/१०.६१.१४२,१५९ १६०, १६१.१६६,१६९.१७०,१७२,२०७१ २४६. ७,४४८,४५२, २/10v, ४०५ लोगन्त १/१२३ लोगरयण १/१५९ लोगा)वाय १/१६१ लोगविण्णु २/०४ लोगसपण १/२२७,४४४ लोगमण्णा २/४०२ लोगुत्तरिय आगम १/२२,२३ लोगुत्तरिय दच्यावस्सय २/८0.21 लोगुसरिए भावावस्सय २/८१,८२ लोगोवयारविषय १/७५.७९,८० लोण १/८१.५७१.५७२,६०७ लोद १/३३६ लोकुरूप १/३६९ लोभ १/५.१७३.१ .२१२.२९५ wi.४५२: २/१९. लोभअपहिसलीण २२७८ लोमणिमिमा १/५११ लोभदोसः २/३८६.३८१.३९०.३११. me लोअर्स 2700:07 लोभपिण्ड (दोस) :१६५.५६११ नोभमुण्हे २७ - लनाशी लवेज्जीनधारा 2017 ससुण १/२९१,०७७.५... Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७० परिशिष्ट : २ चरणानुयोग-शब्द सूची वण १/२५५,२६२,२६५,२६८,२७१, ३४१,३४,३४५.३४७,४८१,४८२ वणकम्म २/१११ वणतिगिच्छा १/२५५,३४१: २/८२ वणतिगिच्चाकारावण १/२६१,२६४, २६८ लोभविजय २/१९६.१९४ लोभविवेग १/२९६, २/२९ सोभवेयणिज्ज कम्म २/१९४ लोय १/८६.१६६,१७१.१७६,१८६, १८८,१९६,४४५,४५३,४५५, २/४00 'लौयय १/६५१ लोह २/४०४,४१० लोहाणिज्ज २/३९२ लोहवि ओसांग २/३५५ लोहविजय १/१३४ लोहिययाणी १/१७१ लख १/४२६ बइ अगुत्ती १/७३० वहअपडिसलीण २/२७८ वह असकिलेस २/२५२ वक्रम २/८२,८४ वकिट्रिय खेत्त २/२२६ वगुत्तयाए फल १/७३४ व(ति)त्ती १/४८५,७३०,७३४: २/३५९ वह चियाए २/१३ वजोग १/१४७ वश्वेही १/१९८ वइपओगकिरिया १/१६४ वदरमज्म चंद पडिमा २/३०१,३०५ वहरमा चदपहिम पहिवन २/३०१ वइरमज्झा २/२७९.२९७ वइरोयणिद (वैरोचन इन्द्र) १/५ वरविणय १/७५,७८ वइसमाहारणता २/२९ वहसमिति १/२८०,४८५ वहसकिलेस २/२५२ वइसंजम २/१३ वसुद्धि १/५१० वरगचूलिया २/२२३ बग्ग (तव) २/२५९ वग्गुफल १/३.३६ वाध (राणि) १/५४८, ६७०, ७४६ बच्चमुत्त १/५४९ बच्वाचिप्पय १७१० वच्चामलिय १/९७ वच्छल्ल १/१२६ बच्चाणुबंधिया २/८ वज्जकिरिया १/६४५ वज्जपाणी १/११० बजरिसभ १/३१८ वज्य १/१७८ बट्ट १/१७७ वट्टग १/१७५ वट्रमग्ग १/१९९ बट्टिज्जमाणचरए २/२६९ वह भत्त १४५ वणपरिक्कम १/२५३,२५५ वणफल १/५२१,५२९ वणस्सइ (ति) कम्म समारभ १/२३९, २४० वणस्सदकाश्य आरम्भ १/२८२ वणस्सइकाइय जीव २/९,१० वणस्सइकाइय संजम २/१४,१५ वणस्सइकाय समारंभ ठाण २/४८ वणस्सइकाइया १/२२५ वणस्सइकाय १४४,२२८,२५० बणस्मतिसभारम्भ २/१२१ वणस्सद य मणुयजीवणस्स य तुलत्त १/२४०-२४१ वणस्सर(तिसत्य १/२३९,२४० वणिग २०७ वणीमग (य) १/५५८,६१७,६१८, ६२८,६४४,६४८.६५१,६५२,६६९, ६९२,६९७,७२२,७२५, २/५० वणीमगपिण्ड १/५६७ वण्ण (प्रशंसा) १/५०.१२९,६१३ क्षणमंत १/५१० वण्णसंजलणया १/७३,७४ 'वस २/३४५ वत्तव्चा (भासा) १/५३० वत्तब्वं सच्च १/२९३ वत्थ १/५२.५३३,६७८,६७९,६८०, ६८१,६८२,६८३,६८४,६८५,६८७, ६८८,६८९,७१२.७४२/५,४६ वत्य आ(सायावण १/६८२, २/७५ वत्थकरण १/७४५ वत्थ गंधिकरण घोवण १/६८० वत्यधारण १/४१९४२० बत्यधारण कारण १/६७४ वत्थधारी भिक्खू १/६७६,६७७ वत्य परिकम्म १/६८९ वत्थिरोम १/३५३,३६६,३७३,३८०, ४०१,४०९ वत्थु १/१३९,४३२ बत्येसण पहिमा २/२९३ वत्येसणा १/६६६,६६७.६६८.६६९ वण १/५२०.५२८ वप्पा अवलोयण १/४६०.४९२ ममणाइपरिकम्म १/२६० वम्मिय १/१५६ वय १/१२९,३२२,७४१: २/३,१७ वय असंवर १/२१२ वयगुत्तया १/१३३ वयगुती १/२७९ वयगुत्तीण १/७३२ वयक २/४५ वयछिद २/१०२ वयजोगपडिसंजीणया २/२७७ वयणदिवेग १/५१८ वयण संपया २/२०६.२०७ वयतेण १/३०४ वयदुप्पणिहाणे २/११२ वयबलिय १/२२३ वयसमाहा(घा)रणया १/१३३,७२५ वयरहोसमाहरणा १/१३३,१३४ वयसमिया १/७३२ वयाण पीला १/३३२ वर-गवसिय १७०७ वरुणोववाय २/२२३ वलय १/५०३ वलयमरण २/१६९.१७२,१७३ वलयाविभुक २/३९ ववसाय १४६,२२१ ववहार) २/७९.२००,३३२.३३३, ३३६,४०१ ववहार अनदेवणी २/३४७ नवहार (नय) १/२५,२६,२७ ववहारब २/३२० ववहारसच्चा १/५११ वसई जसणकाल २/२८२ वसट्टमरण २/१६९.१७३ वसहि १/६३५,६३६,६४४,६५२, २/२५६ वसहिदिट्ठन्त १/२४,२५,२६ वसीकरण १/४६५,४६६ वसीकरण सुत्तकरण १४२३ वसु १५२ वसुराश्य अवसुराजय १/२९४ वह १/१७४.७३५, २/१०८ वह परीसह २/३६८,३७६ वाइतवज्जा १/४५१ घाइय १/९३ वाउकम्मसमारंभ १/२३७,२३८ वाउकाइय) १/२२५.२३७ वाउकाइय आरंभ १/२८२ वाउकाड्य जीव २/५,१० वाउकाइय संजम २/१४,१५ वाउकाय अणारभ ठाण २/४८ वागलाय १४ वाउजीवा १/२२६ वाउभा १/७ घाउ महाभूत १/१५४ वाउसत्थ १/२३७.२३८ वाऊ १/१६२,२२६,२४६ वागरा १/१२० वाघाइम २/२६१,२६२ Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट : २ चरणानुयोग-शब्द सूची ४७१ विक्रोवणा विणय १/७२,७३ विक्सेवणी २/३४७ विग १/५४८ विगइ १/५३८ः २/६८,६९ विगइभोई १/६०३ विगतोदय १/५०५,५०६ विययमिस्सिया १/५१२ विगलिन्दिया १/४५ विगलितेन्दिया १/९१ विगहाई पन्चज्जा २/७ विगही १/२९९ विगिट्ठभत्तिय २/७२ विग्गर्च निज्जूहण २/२६० विग्घकराणा २/१८० विजहणा २/२०२ विज्जा १/६१.२०५:२/२४ विज्जाइ पउजण २/१९६ विज्जावरण १/१६८, २/५५.२६०, वाणमतर १/४८; २/५२,१२६,१४५ व()णिया २/४०७ वातय २/५ बादी १/१६८.१७१ वाय (वाद) १/१६५ २/२५ बायण(1) १/६६,१२०.६१७,६१८.६४५ वायणया १/१३३ वायणा २/३४२,३४५ वायणारिय आसायणा १/९७ बायणा सगया २/२०६.२०७ 'वायसजय १/७३० वायावि(वी)रिय १/१७८.३३५ वारछोयण १/६३० वाराणसी १/५०० वाराह १/१७५ वारोदग १/६६२ वावती १/१२३ बावनकुन्दसणवज्जणा १/१३६ वाविता २/७ वाविया २/७ वासग १/१६६ वासमेरा १/६२४ वासा २/७५ वासावास १/६५१.६५२,६७२,७०७; २/६३.६४,६५.६६.६७.६८,६९,७०, ७१.७२,७३,७४,७५,७६,७७,७८, २२०,२२४,२२५,२२६ वासावास अजोग्ग खेत २/६३ वासावास जोग्ग खेत २/६४ . वासावास समायारी २/६३-७८ वासावासिय १/६६२ वासदेव १/१०९.१६७,१७१ वासुज्ज १/३ वाहण १/१७४ वाहणगिह १/७४७ वाहणसाल १/७४७ वाही २/४०८ विइकिट्ठ २/२५४ विइगट्टिकाल १/६२,६३ विव(ति)गिच्छा १/१२३,१३८,४७७; २/१०७ विडतिगिच्छासमावश्या १/४७९,४८० विदय महलय १/२८९-२९९ विउकस्स १/१७९ विउलमई १/२२२ विउलुत्तम १/१४५ विउसम्म २/३०९,३५५.३५७ विउसग्ग पडिमा २/२७९ विउसग्गारिह २/३१० विओसविय १/५२४ विओसविय पूणो उदीरित्तए १/२९९, विकहा २/१५३ विक्खित्ता १/७१६ विज्जाचारणलही २/३६० विज्जापिण्ड १/५६७ विज्जाहर १/२२३ बिजुत १/६७ विज्जुदेब १/५२३ विजय (राजा) १/१९९ विड १/५७२ विणओवएस २/३८ विणय २/३०९ विणय (जानाचार) १/५५,७०-९९, १०३,१२६,१६७.३०९४३२ विणय पडिवण्ण पुरिस १/८०-८१ विणयपदिवती १/७२,७३.१०३ विणय वेयावच्च पहिमा २/३०८ विणयसमाही १/८५,८६ विणयसुद्ध २/९९ विणयसंपण्ण २/३२० विणयहीण १/२७ विष्णवणिची २/३८४ विण्णाण १/१०३ विण्णाणफल १/१०२ विपणाता २/४०४ विपणू २/२९,३० विणियट्टणाफल ४५६ विणियट्ठणया १/१३३,१३४,४५६ विणिविट्ठचित्त १४५३ विणीतरय) १/५८,९१.९२ विणीय लक्षण १/८१-८२ वितिगिच्चा १/१३७ वित्यार (रुहो १/१२६ विदू १/१८६ विदेह १/१९८ विडी १/२२० विडसणधम्म १/७३७ विपरिणामहम्म १/५१० विष्णमाद १/१०३ विपरियासण २/१९७ विधासहिपत्त १/२२२ विभजवाद १/१०७ विभवितए २/५० विभूसावत्तिय २/५१ भूती १/२२० विभूसाजिगह १/230 निभूसाणत: १/३३० विभूसानादिया १/३४१,३४३,३९५,२९२, ३९३९४,३९५,३९६,३९७,४२० विभंग असणीकरिया १/१६४ विभगणाना)ग १/५८ विभंगणाणोपनि १/५८ विमल १/२,२२१ विभुती १/२१५ विहाव २/१९७ विय १/७५० विनिह १/६३४; २२८२ वियादती १/८२८ नियभाव २/१७४ वियताकि पायच्छित २/३११ वियत्त (व्यक्त गणधर) १/ विवस १/१८२,१८३,१४,१८५ वियतकारय १४७४ बियागरत १/१०४ वियारभूमि १/६५१,६५२,६६७,६६८, ७१२,७१३,७१८,७२८, २/६३.६४, ६६,७५,१२९,२२५,२२६.२५६ वियाल १९७५ वियाह (भगवती) २/२२३ वियाहचूलिया २/२२३ विरइठाण १/२१२ विरयगामधम्म १/४२५,४२६,४२७ विरती १/२१९ विरसजीवी २/२७३ विरसाहार २/२७२ विरागताया १/१२४, २/२९ विराल १/५४८ विरालिय १/५७५ विराहगीय) १/५१०.५११:२/१२८, १२९,१३०,१३१,१३२,१३३,१४०, १४१,१४३,१४५ विराहगा अकाम परिकिलेसगा २/१४१-१४३ विराहगा अत्तुशोसिया समणा २/१५१-१५२ विराहगा आजीविया २/१५१ विराहगा कन्दप्पिया समणा २/१४७ विराहगा णिहगा २/१५२ विराहमा पहिणीय समणा २/१५१ विराहगा परिचायगा २/१४७-१५१ Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७२ परिशिष्ट : २ चरणानुयोग-पान सूची विराहगा बाल वस्सी २/१४५ विराहगा भद पगड जणा २/१४३-१४५ बिराहगा वाणपत्या २/१४५-१७ विराहगाण संजमस्स अपडेसो २/१५४ विराणी १/५१५ विराहयग) २/६१ निराहिय २/१७२ विरुद्धरज १/४९९ विरुव-रज्जारमण २/१०५ विरेयण १/२६० विवग्घाणि १/६७०,७४६ विवण १/७०२ विवण्णकरण १/६८४,६८५ विक्रीय पायच्छित १/२९४ विवाग विजय २/३५३ विवाद १/१६६; २/१२ विवित्तलयण २/४३ विविसवास-बसहिसमिति १/३०७ विवित्तसयणासणसेवणया १/१३३. १३४,३२४,३२५.४२४, २/२७६. २७८ विवित्तहार १/३२५ विविविहा पबज्जा २/६ विवेगपढिमा २/२७९ विवेगभासी १/५१९ विवेगारिह २/३१० विवेयकम्म १४७४ विसण्णमेसी १/४३४ विसभक्षण २/१६१.१७०.१७३ विसममग्ग १४९४ विसमसीला २/१७२ विसय २/४०५ विषयपमाय २/१८० विसवाणिज्ज २/१११ विसामो १/२२१ विसाही २/८२ विसिटुदिट्ठी १/२२० विसील १/८२ विसुजामाणय १/२४ विसुबी २२ विसोहिठाण 1/१०२ विसभोड्य २/२३१,२३२ विसंभोगकरण २/२३२ विसभोगकरण कारण २/२३१ विहवधूया १/६५३ विहार अजोग्ग काल २/६४ विहारकरण विहि निसेह २/६४ विहारचरिया २/४१ विहारजोग्ग काल २/६४ विहारभूमि १/६५१,६५२,६६७,१.६८. ७१२,७१३.७१८.७२८ २/६२, ६४,६६,७५.५२५,२२६,२५६ वीमंसा २/३१०.३८० दीयडा १/५१२ वीयराग २/३८५,३८६,२८८,३८९, ३९०,०५,४०१,४१० वीयरागभाव २/१०३,०९-४११ वीयरागया १/१३३:२/११ बीयरागया फल २०११ वीयराग संजम २/१२ वीरत्यूह १. वीर्याचार २/३६२-४११ वीरस्स परहम २/३९७-१९८ वीरासण २/२७३,२८६ वीरामणियाए २/२७४ वीरिय २/३६३.२१२ वीरियायार १/५१ वीरियसंपण्ण २/२४ वासुभेजा २६५ बुग्गह बात २/२५६ बुग्गाहित १/१३० वृद्धिकाय २/८९ वेआवश्च करणया २/६५ वेड्यवसाय १/४६ वेड्या १/७१६ वेउब्बिर १/२२२ वेउब्विय परदारगमण २/१०९ वेढिम १/४६१ वेणग्या १/१८१ वेणुदेव (गरुड) १/६,३१८ वेणुदर १/२७५,२७६ वेणुफल १/३१६ वेणुसुह १/७१४,७१८ वेतालिय मग्ग २/३९८ देसदंड १/२७५,२७६ वेद २/२९,३० वेदण अहियासणया १/१३४ वेदवी १/wa वेमाणिय १/४८ देयकाल १/४५५ वेयण १/६१२ वेयण अहियासयजया २/२९ वेयणा १/१८५ वेयणिज्ज १/१४४, २/१०४,३६५ वेयन्त १/१२३ वेयमाराहय १/८५ वेयरणी २/३७२ वैयक्ष २/२७ वेयावच्च १/१३३,२५४,३०५,६१२; २/६७,३०९,३३७-३४० वेयावच्च फल २/३४० वेयावडिय २/४२ देरज्ज १४९९ वैपट्टा दिवी) १/९ वेसघरोववाय २/२२३ वेवर १/१६६.५२८ वेसमणोववाय २/२२३ देसमामत १/३२ वेसामी २० वेसिय १/५३३.५१४ वेसियकृल १/५४९ वेसिया करग.१/१०१ वेसियायण १२५ देहाणस बालमरण २/१७३ वेहाणसमरण २/१६९,१७०.१७॥ देहिम १६१ वोडासालियकुल १/५४९ बोदाण १/१३,१०३,१०६.१३३; २४११ वोदाणफल १/१०३ वोसट्टकाझ्याए २/२७५ पोसटुकाय २/४१ बैंक १/२०१ वक विट्ठी १/२०१ वादसणा १/२०१ वकपण्णा १/१९८ बंकसमायार १४८ वका १/११८ बचणजाय २/२२४ वजण (ज्ञानाचार) १/५५.११२ वजणणाणायार १/११२ वंदम २/८२ वदणया १/१३३ बंदणा फर्म १/20 पदणाविहाण ":/7: ईस १/५१.५०७ वसीमूल १/६३ सहभतरक्षा २/११० सउण १/५०२ सउणी २/२५७ सकम्मवीरिय २/३६४ सकाम मरण २/१७०,१७२.२६१ सकुलि १/५५० सन १/१९८ सकर २३:४७ सहार-पुरकार गरीसह १६८,३७७ समह १/१७४ संगदेवी परिचारणनिदान करण सगर १/१९८ सचा १/५०० सचित्तकम्म १/६३७ सचित्तगन्धजिषण २/१९५ सचित्तनिक्खेवणया २/११४ सचितपबिबबाहार २/११० सचित्तपरिग्गह २/१२० सचितपरिणाय २/११६ सचित्तपणया २/११५ Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट : २ चरणानुयोग-शब्द सूची ४७३ सचित्त पुरवी समीवे निहाइ णिसेह २/२८३ सविसरुन दुमहण १/२४९ सचित्तरक्खमूल १/२४८.२४९ सचिता २/२०६ सचित्तादतादाण २/१०९ संचित्ताहार २/११०.११८,११९ सचेल १/६८८, २/३७०,३७१ सचेलिया सह अवेलस्स संबसण कारण २/२२८ सन १/१२६,१८१/NO सच्चा धम्म) १/३१ मच्चदिट्टी १/२०० सच्चपबत्रा ववहारा १/४२४ सच्चपपणा १/११९ मच्वरय १/८२, २/३४६ सच्चवयण १/२१०,२११ सच्चवयण (उवमा) १/२५२ सच्चवयण (महम्म) १/२९१-२९२ सञ्चवयण फल १/२९३ मच्चा १/११९.१२६,१८१,२००,५१०, ५११,५१५,५१८,५२४५३०.७३१, सच्चाभोसा १/५१०,५११,५१२,५१५. ५२४,५२५,५३०,७३१,७३४: २/१६२ सच्चे गुरिसजात २/२१६,२४ सच्च ठाण २/४६ सध्दविहारी/१७६ सजण हि ५४२ सजण-परिजण गिह १/१४३ सजोगी १/१४७ समाय १/६२.६३.६६.६८.६९,१३३, ४८६,७४५; २/२५६,३०९,२४२, सणिण निावेस १/१३६,४६०.५४४,६५२ समिण निमेस दहाणि १/४६१ सण्णि त्रिवेस पहाणि १/४६१ सणिण निोवेस महाणि १/४६१ मणि त्रिोदेसवहाणि १/४६१ सत्त २/२९,३० सत्तकम्मपगडी २/३४६ मत मासिया भिक्षु पडिमा २/२८०,२८६ सत्तसप्तमिया भिस्तु पहिमा २/२९६ सत्ता १/२१५ सतिम २/२१६.२४ सत्ती १/२१९ सत्य २/roo सत्वजाय १/५०४ सत्यपरिणामित १/५३३.५३४ अत्यातीत १/५३३.५३४ सत्यादाण १/७४९ सत्धारभत्त १/१०८ सत्यारभत्ती १/११२ सत्योपारण २/१६९,१७०,१७३ मदारमतभेय २/१०९ सदारसंतोस २/१०८,१०९ सदोस तेगिच्या १/२५२ सह १/१३९ ,४८,५३०% २/२८,३८५,३८६ सदनय १/२५,२६,२८, २/७९ सरपडिमा १४५१ सरफरिसरसरूवमध २/४११ सह-रूव-गध-बस-कास ॥५२२ सहसवणासत्ति १ ८,४५६,४५७ सदहण २/१९ सदहणा १/१३६,१४८ सराइसु मृच्छाणिमेह १/३३० सदाउलग २/३१८ सहाणुरत्त २३८६ सदाणुवाय २/११४ सरासत्ति णिसेह २/३८५,३८६ सदा २/३९२ मद्धि आहार करण २/२३६ सन्धि १/४७ सन्सिमुह १५५ सनिवाइय (भाव) ११६ सत्रिहिकरण १/५९९ मविहीकाम .. सपज्जवसित १/१६४ सपरिकम्म १/६६४ /२६० सपरिग्गहा १४५४ सम्पदस तिगिच्चाए विहि निमेह २/२३४ सप्पि १२३,४२७, २/२७२ सप्पियासविय १/२२३ सफला राममो ११ सबलत्त १/४५ सबलदोस २/१८३-१८४ सबीयग १/२२५ सम्भावपच्चक्वाण १/१३३, २/१०४ सभावणा १७४२२/५१ सभावसंपन १/५३७ सभंड २/११२.११३ ममचउरस १/३१८ समण १/४,१०२,१३७,१४९,१५२, १५३,१५५.१५८,१६०.१६३,१६८, १७८.१७९.१८६,११५.२३६,२४५. ३००.३२६,२२७,३३५,४११.४३६, ४३७.wt.४७४४९०.४९७.५००, ५०३,५०४,५२५.५२६,५३५.५५५, ५९१.६०४,६०५,६०६,६०७,६१७, ६१८.६२८.६३३,६४०,६४.६४५, EY८,६५१.६५२.६६९,६७१,६८४, ६९२,६९४.६९७,७०२,७०३.७२२, ७२५, २/२०४.५२,५३,५६,५७, ११५.१३२,१९८.२३१,२४४,२५५, २७१,२७२,२७३.२७४,३२१,१६३. ३७३,३७६,३७८,३८३,४०५ समणधम्म १/५८: २/३८ समण-णिग्गन्ध २/२०९,२१०,२१५. २२३,२३१.३५८.३५२,३६० समण-माहण २/४०३ सभणभवण णिदाण करण 7/६६ समणभूय २/११६ अमणमद १/२३६ समजसरीर परिण ... समणसघ २/१९८ समणस मुद्ध आहार दाण फल २/११५ ममणी २/१३३,१३४,१९८ समणुण्णा २/२०१ ममणुण्ण-असमणुण्णाणववहारा २/२३३ समणुरेसिय १/६७२,६५५.६५७ समावगरण ओग्गहविहि १/३०६ समणोवस्सय २/११२,११३ ममणोवमा २/३१-३४ सभणावासगीय) २/१०५,१०७.१०८, १०९.११०,१११,११२,१११. . ११५,१२०,१२१.१२४,११७,१२०, १३३.१६४,१६५.३१९,३९३,३९४ समणोवासगधम्म २/१०७.१०८ समणोवासगणगारा २/१०५ समणोवासग भवण णिदाणकरण २/१६४ समणोवासगाणं तिविहा भावणा २/१२१ समणोवासिया २/१३४ ममतदसी १/१३५ समपायपुत्ता २/२७४ सजमायभकरण १/६८ समाथजोग २/२,३४२ सज्झाय-पहिलेहणा विसोहि सुत सज्झायफल २/३४२ सज्माय भूमि ३४३ माय विहाण १/६३ मडातु १/१३१ सही कुल २/६७ सडी गिही २/ मही पुरिसजात २/२१६,१२४ सद १/८९.५० सणकूमार १/१५८ सणंकूमार माहिदाण (देव) २/५३ सण १/२०५ सपणकपास १/४२३.६८९ सणि १/५१७ सण्णि-जाइ-सरण १/७३२ Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७४ परिशिष्ट : २ चरणानुयोग-शब्द सूची समभावसाहा १/४३४ समभिरूह (नय) १/२८.२९ सभय १/२१६ समयन्त १/१२३ सभायारी २/५७,६१,६२.६३,६४,६५, ६६-७८ समायारीए पवतण २/५८ समारंभ १/१७४,२०८,२०९,२८२ समाहिही धी) १/८६,१०८,१०९.२१३, २१९,२२३, २/५४ समाहिही कामी २/४०४,४०५ समाहिजुन २/३६६ समाहिजोग १/१००,१३०,३२६, २३५ समाहिट्ठाण १/८५ समाहितिदिय १/३५ समाहि पडिमा २/२७९ समाहित २/३९,४० समाहिमाहिय १/४६ समाहिविहाण १/१०८ समिती ) १/१०४,१२६.२२०,४८५, ७३० समिति)जोग १/४२५,४२६,४२७ समित १/१८६; २/५२,५५.३९६,३९८ सभत्ताराहणा १/२१९ समिढी १/२२० समियदसण १/४५३ समियपाचा १/२२४ समियाए धम्मे १/७३९ समियाचार १/१७८ समुकुस २/२३,४२ समुट्ठाण सुय २/२२३ समुदाणकिरिया १/१६४ समुयाणचरिया १/४१ समोछिन्न किरिए अपहिवाइ १/३५४ समोसरण १/१६७ सम्म १/७३९ सम्म किरियावाथ १/१६८,१७० 'सम्मत्त १/५८.१२५,१७,१९४.७३४; २/१०७ सम्मत्त अद्दयारा २/१०७ सम्मत्तदसिण १/२२६; २/३९३,३९७ सम्मतदसी २/३९७ सम्मत्तधिया बीरियपाउरण २/३९२ सम्मत्त परकम १/१३२ सम्मत्त सच्चा १/५११ सम्भत्तसरुव २/१०७ सम्मदिट्ठी १/२२६ सम्मदसण १/१२७,१३६,१३७.१३८, सयण १४५३ सयणकुल १/५४३ सयणासण २/४२ सयमेव उग्गह अणुगिम्हणया १/३०७ सयभू (समुद्र) १/६,१६०,३१८ सरत १/५०१ सरहुय १/५७६ सरण १/४५४ सर-दह-तलाग्यपरिसोसणया २/१११ सरल १/२०१ 'सराश्मत्त १/६ सराइभोयण १४६ सराग सजम २/१२ सरिसगस्स संवास आदाण २/२३३ सरिसणिग्गन्ध १/६६५ सरिसणिग्गधी १/६६५ सरीर १/४५,१५०.१५१.१५२, १५६.७२२ सरीरपच्चक्लाण १/१३३,१३४ २/१०४ सरीरपरिमण्डण १/३३० सरीर विभओसरग २/३५५ सरीरवुच्छेयणद्वाय १/६१२ सरीरसकारपोसह २/११४ सरीरसंपन्ना १/११८ सरीर संपया २/२०६ सरीसिव १/१७५ सलीमचम्म १/६८५.६८६ सल्ल १/३६ सल्लापलंब १/५७६ सल्लइपवाल १/५७६ सालतिगिच्छा १/२५४ सवण १/१०३ सवणफल १/१०२ सवणाणुकूल बय १४० सवत्ति समाणे २/१०५ सवियार २/२६० सव्वगाय-परिकम्म-विभूसा विष्पमुके २/२७४ सव्वगुणसंपनया २/५१ सबऽण्णाण १/१६४ सम्यकज्जकरण १/४६३ सन्चगुणसंपन्नया १/१३३ सब्बतोभदा २/२७९ सब्बदंसी २/२५ सव्य पच्चक्लाण पारण सुत्त २/९८ सन्दपमाण १/१२६ सव्यपरिपणाचारी २/३९७ सव्व पावकम्म २/२० सव्यप्पग १/१७९ सब्बबल २/१७८ सध्धमूलगुण पच्चक्लाण २/९९,१०० सम्वविराय २/१३२ सञ्बसमाहिवत्तियागारेण २/९४,९५,९६.९७ सव्व सुयाणवाई २/२२३ सच्चस्स अमाघाओ १/२२१ सञ्चाओ अदिण्णादाणाओ वेरभण २/१०० सव्वाओ परिगहाओ वेरमण २/१00 सव्वाओ पाणाइ बायाओ वेरमण २/१०० सव्वाओ मुसाबायाओ वेरमण २/१00 सब्बाओ मेहुणाओ वेरमण २/१०० सच्चाराहय २/१३२ सव्वाहार १७६ सञ्चिन्दिय समाहित १/२८३ सव्वुत्तरगुणपन्चक्खाण २/१०० सवेटय पात १/६९९ सव्वोसहिपत्त १/२२२ तरापद:/र ससिणि १/५०५.५०६ ससिणिडा पुढवी १/७४२ ससित्य २/७२ ससीसोवरिय १/५०३,५०६ ससधिय १/६८४,७०२ सहजदिव्व भोगणिदाण करण २/१६३ सहसवार १/४५३, २/३१० सहसागारेण २/९४,९५,९६,९७ सहसान्भक्खाण २/१०९ सहस्सार कप्प २/१४० सहाय पच्चक्खाण १/१३३: २/१०४ सहायलिच्च २/४१० सहिण १/७४५ सहिण कल्लाण १/६७०,७४५ सहिणाणि १/६७० साइम १/९४,९५,१५२,४१,४७७, ४७८,४७९,४८०,४८१,५०८,५०९, ५२०,५२२,५२८.५३७.५४३.५४७, ५४९,५५१.५५५,५५८,५६०.५६१, ५६२,५६३,५६४,५६८.५६९,५७०, ५७१,५७३,५७४.५८५,५८६,५९०, ५९५,५९६.५९७,५९९,६०२,६०३, ६०४,८०५,६०६,६०९.६१०.६११. ६१३,६१६,६१७,६१५,६४१,२/७३, ११५ साएय १/५०० साकेय २/१०० सागरोवम १/१४५: २/१५१ सागार २/१00 मागारकह १/७२२ सागारिय१/६१९,६२०,६२१.६२२, ६२३,६२४,६२५.६३७.६३८.६३९, ६४०, ६४१,६५७,६५८ सागारिय जग्गह १/६५३ सागारियकुल १/६२५ सम्मइसणपज्जव १/५८ सम्मत्तसरहा १/१३६ सम्मामिच्छदसण १/१२७ सम्मावाई १/१६७,१७० Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट : २ चरणानुयोग-शब्द सूची ४७५ सागारियागारेण २/५५,५६,५७ सागारियणिस्सा १/६२५,६३४.६३५ सागारियपिण् १/६२० सागारियसतिय १/६६०,६६१,६६२, ७०९,७१७,७२२ सागारियस्सणाय १/६२३ सागारियोपजीवी १/६२२ सागारोवउत्त १/१४७ साडीकम्म २/१११ साणय १/६७४,७१०२/२९३ साताया)गारव १/५०,१६३ सातियार १/२४ साघम्मिणी २/३७३ सामन्य नवसाय १/४६ सामपण १/१४९,१४२,१४३,२२६,४३७, २/२६० सामत:/४५ सामली (वृक्ष) १/६ सामवेद १/४६ सामाइय १/१३३.७३२, २/११,८२, १००,१०८.१११,११७,११८,२४६ सामाइयकड़ २/११२,११,११६ सामाश्यस किरिया २/११२ साभाइयकडस्स पेजवधण २/११३ सामाइयकडस्स ममल भाव २/११२ सामाइयगाई २/१२५ सामाइयररित्त गुणप्पमाण १/२४ सामाश्य फल २/५२ सामात्रय सुत्त २/८४ सामाझ्यसंजम २/१४ सामाइय-सजम-कप्पट्टिई १/५४ सामादयरस अगवट्ठियरस करणया २/११२ सामाझ्यस्स सह अकरणया २/११२ सामुदाणिय गवसणा २/१७६ सायपडियाय १/५०६ सायाउलग २/५६ सायाणुगा १/४६ सारक्खणविसोही २/१८१ सारखणाणुबंधी २/३५२ सारक्खणोवघात २/१८१ सारक्खाय १/५३५,५३६ सारणिया २/७ सारभ १/२०८,२०९,४५४ साल १/१00,१०१,२३५ सालपरियाय १/१०० सालपरिवार १/१००,१०१ सालि १/५५० सालिसय १/११३,११४ सालय १/५७५ सावज १/८४,१४६.१६८,२१७,५२५, ५२६,५२८.५२९,५३० सावज किरिया १/२१८.६४५ सावज्जजोग २/४१ सावज्जजोगपरिवज्जण २/१११ सावज्जजोगविरहाति) २/५२,५३ सावज्जबहुल २/४८,५१ सावज्जभासा १/५२४,५२६.५२७,५२८, ५२९ सानज्जवण १/५२५ सावज्ज संजुत्त आहार १/२५८ सावज्जाणुमोयणी १/५२३ सावत्थी १/५०० साधय २/१९८ सावय आसायणा १/९६ साविया २/१९८ साविया आसायणा १/२६ सासयात) १/१६१,१७० सासवणालिय १/५७५ साहम्मिणी १/६९२,७२२ साहम्पिय १/६५८,६६९,६९१,६९२, ७१९,७२१,७२२:२/२१२,२१७, २१९,२३१,२३९,३१५,३२०,३२१, ३३१ साहम्मिय अंतकिच्चाई २/२२९ साम्मिय उग्गह १/६५३ साहम्मिय उगह अणुण्णविय परिभुजणया १/३०७ साहम्मिय देयावच्च २/३३८ साहरड १/५३८ साहरिजमाणधरए २/२६९ साहारणपिडपातय) १/३०८,३०९ साहारणभत्तपाणं अणुण्णविय परिभुजणिया १/३०७ साहिगरण २/२५५,३३२ साहिल्लया १/७३,७४ साह धम्म १/१९५ साहुवयणेण २/९४.९५ साहू १/१,२,१०८,१२५.१४२,१५२. १५४,१८१,१८९,५३१२/२८ साहू असायणा १/९६ साहूणी आसायणा १/९६ सिकिग १/२७४,२७५ सिक्खावय २/१०८ 'सिक्खासील १/८२ सिज्जंस १/३ सिणाण २५ सिह १/२८३ सिणेह विगती १/५३८ सिणेहसुहम १/२८५, २/७७ सिहाययण २/७० सिब १/१,२,६१,८६ सिड आसायणा १/९६ सिनहाण सरूव १/१९९-२०० सिद्धा १/१६२ सिज्ञाइसयगुणसंपन्न २/१०४ सिद्धाण संथव २/६३ सिद्धाण २/३१२ सिद्धावास १/२२० सिद्धि १/६१,९००,१०३,११०,१३५, १५२,१५४,१६२,१६७,१७१.१८९, १९१,१९२,७४१ सिद्धिपह २/३९८ सिद्धिमा १/१३५,४४६ सिद्धिविमाण १/३२० सिप्प सिक्दावण २/१९४ सियालखइया २/६ सियावाद १/१०७ सिरमुण्डे २/५ सिरिजुत्ता १/११८ सिरीसिव १/१९१, २/२४५ सिलाट्ट १/६३० सिलिवय १/१६६,५२८ सिलोग १/१६५, २/२५७ सिलोयकामी १/४७३,५६५: २/४२ सिव १/२२० सिसुणाग २/१७१ सिहरिणि १/५५० सिहाधारण २/११९ सिही १/१५२ सिंगपाय १/६९३ सिगबेर १४८१,५७५ सिंगबेरचुण्ण १/४८१,५७५ सिंगमालिय १/४२१ सिंघाडग १/५७६ सिंघाण १/६४६.७२० सिंघाल १/५४८ सिबलि १/५८८ सिबलिथालग १/५८८ सीअल १/३ सीओदय २/३६९ सीतातप सहण णिसेहो २/२८५ सीतोदा १/३१८ सीय परीसह २/३६८,२६९ सीयपिंड १/५४० सीयफास २/३७०,३७१ सीया १/११०,१७४ सील १/८६,८९,२२०,४३२, २/१३२ सीलपण्णा १/११९ सील परिधरो १/२२० सीलमता १/८७ सीलबन्त २/४०७ सीलवय-गुणवय २/११७,११८ सीलदत्य) २/११२,११३ सीलन्चय गुणव्ययवेरमण २/१६४, ...'117 सीलसंपन २/१३२.१३३ सीसगपाय १/६९३ सीसगलोह १४२२ Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७८ परिशिष्ट २ चरणानुयोग-शब्द सूची संवरदार १/२१०,२११,२१३,२८२, २९८,३०९,४२७,४७२, ४७३ संवरल २/१०४ संवर भावणा २/३९६ सवरवरपादप १/४३२ संवरसंवुड २/४१ सवास करण १/७४७ २/४oo संविभागसील १/३०५ संबुड १ / १६१, ४८८,५४० २/३१, ४०,५४ संबुड अणगार १/२१४ संवुकम्म २ / ५४ संवुडचारिण १/१६८ संवेग १/१३३,१३४ संवेगणी १/३४७ २/२६९,२७१ १/५९२ सोहड १/५३८ संसत २ / २४८, २४९, ३४५ असत तवोकम्म २ /१५४ संसष्पगा पाण। २ / २६२ संसयकारिणी १/५१२ संसार १ / १६३,१८०,१८९,२१२,२४१ संसारकातार १/४५६ 'संसारचक्रवाल १/१६३ संसारभीर १/३२५ संसारभग्ग १/१३५ संसारमावन १/४५५ संसारविसग्ग २/३५५,३५६ १/२४१,२४२,६३९,६१२० २/२५९ ससेदय ९ / २३६ संया १/२२६,२४६ हृत्यकम्म १/४१८,४१९ हत्थकम्मकरण १/४१९ हत्यच्छिण १/५२८ त्वयि १/४५९.४६० हत्यसंजय २/ ७३० हत्याइपोमण २/४६३ हत्यार पचोवण निसेह २/२८४ ह १/५४८ हापुर १/५०० हरिबंधन १/१७५ मामल १/४२१ हम्मियतल १/६४७,६८२,६८३,७००, ७०१ हय १/४३३ हरतय १/२८५ हरदम २/२०२ हरिनि २/३८५ हरिमय १/१७५ हरियात १/२४०, २८३,४९९,५०१६ २/२०४ हरिया १/४ हरिया १/४५९, ४६० हरियम १/२८४ २/७७ निट १/२८५ तो १/२८५ १/२६ कुल १५४९ हरिसेण १/१९८ हाडहडा २/३१२ हार १/४२०, ४२१.६४० हारपुडपाय १/६९३ हास १/२९९ : २/४१० हासगिरिया १/५११ हाय १/२९६ हासा २/३८० हितकारमा ठाणा २ / २५३ हिमय १/२८५ हिमवन्त १/३१८ हिमामय १/५१० हिरण्ण १/१३९, ४३२,६४० २/२५ हिरणाय १/६९३ हिरण्ण- सुवण पमाणाइक्कम २ / ११० हिरिम १/८२ १/६०४ हिंगोल१/६२७ हिंसपमाण २/१११ हिंसाणुबधी २ / ३५२ हिंसा २/५५ सीरमाण १/६१७,६१८,६१९ हीलियम १/२९९५२४ हुत १/१९१ हेमन्त १/६२४६४९,६५०,६६०५ २/६४,७५,२२४,२२५,२२६ हेमवध १/२६ हरिव Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ayu चरणानुयोग के सकलन में प्रयुक्त सहायक ग्रन्थ सूची HINSERTARRANGERRIERCENTARIES माग 1. प्रकापाक-श्री महावीर जैन विद्यालय, बम्बई आचाराग सूत्र मूल (संपादक : मुनि श्री जम्बूविजय जी) सूयगडांग सूत्र " ठपणाग सूत्र समवायाग सूत्र - व्याख्याप्रज्ञप्ति - (सपादक : पं. वेचरदास जीवराजदोशी) (भगवती सूत्र " उत्तराध्ययनसूत्र " (सपादक : मुनि श्री पुण्य विजयजी) दशवकालिक सूत्र " नदी सूत्र . अनुयोगद्वार सूत्र . . प्रज्ञापना सूत्र - 2. प्रकाशक- जैन विश्व भारती, लाउनू अगसुत्ताणि भाग 1-2-3(संपादक : मुनि श्रीनथमल जी) उवंगसुताणि भाग 1-2 नव सुताणि . आयारो (सानुबाद) " सूयगडांग सूत्र भाग 1-2 टिप्पण युक्त अनुवाद ठाणांग सूत्र समवायांग सूत्र उत्तराध्ययन सूत्र " दशवालिक सूत्र " 3. प्रकाशक-आगम प्रकाशन समिति, व्यावरआचारांग सूत्र भाग 1-2 प्रधान संपादक: युवाचार्य मधुकर मुनि जी ठाणाग सूत्र समवायांग सूत्र भगवती सूत्र भाग 1-2-3 ज्ञाता सूत्र उपासक या सूत्र अगर दशा सूत्र प्रश्नव्याकरण सूत्र विपाक सूत्र प्रधान संपादक : युवाचार्य मधुकर मुनि जी औपपातिक सूत्र प्रज्ञापनासूत्र भाग 1,2 उत्तराध्ययन सूत्र दशकालिक सूत्र नंदी सूत्र अनुयोगवार सूत्र आवश्यक सूत्र छेद सूत्र (प्रेस कापी- मुद्रणाधीन) - 4. प्रकाशक-आत्म ज्ञान पीठ, मानसामडी सूयगडांग सूत्र सगादक : श्री अमर मुनि जी प्रश्नव्याकरण सूत्र भाग 1-2 " 5. प्रकाशक-मागमोवय समिति, सूरत, बम्बई, इत्याति आचाराग सूत्र टीका सूयगडांग सूत्र टीका ठाणाग सूत्र टीका समवायांग मूत्र टीका भगवती सूत्र टीका जाता सूत्र टीका उपासकदशा सूत्र टीका प्रश्नव्याकरण सूत्र टीका ऑपपातिक सूत्र टीका दशवकालिक सूत्र अनुयोगद्वार सूत्र प्रकाशक-अखिल भारतीय संस्कृति रक्षक संघ, सैलानासूयगडांग सूत्र सपादक : मोतीलाल जी माडोत भगवती सूत्र भाग 1 से 7" ५. श्री घेवरचन्दजी “वीरपुत्र" प्रफ्नव्याकरण सूत्र - श्री रतनलालजी डोसी उपासकदशा सूत्र - श्री धीसुलाल जी पीतलिया औपपातिक सूत्र " मुनि श्री उमेशमुनि जी -अशु" उत्तराध्ययन सूत्र " प. श्री घेवरचन्दजी "वीर" दशर्वकालिक सूत्र .. . अंगपविट्ट सुत्ताणि " श्री रतनलाल जी डोसी अनंगपबिटु सत्ताणि " Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7. सुपगडांग सूत्र भाग 1 से 4 संपादक : पूज्य आचार्य जवाहरलालजी म.सा. 1. प्रकाधाक-आगम अनुयोग प्रकाशन समिति, सारस्व स्थानांग सूत्र संपादक- मुनि श्री कन्हैयालाल जी "कमल" सभवायाग सूत्र - प्रकाशक-आचार्य आत्माराम प्रकाशन समिति, सुधियानाउत्तराध्ययन सूत्र भाग 1 से 3 संपादक : पूज्य आचार्य श्री आत्मारामजी म.सा, दशवकालिक सूत्र आचाराग सूत्र भाग 1-2" / ठाणाग सूत्र भाग 1-2 . . 10. प्रकाशक-लाला ज्वालपसाव सुणदेव सहाय, सिकन्दरायाव कतिपय प्रति : संपादक- पूज्य श्री अमोलक ऋषिजी म.सा. 11, प्रकाशक-जैन शास्त्रोद्धार समिति, राजकोट कतिपय सूत्र : संपादक-पूज्य श्री घासीलालजी म.सा. 12. प्रकाशक-सूत्रागम प्रकाशन समिति, गुडगाव सुत्तागमे भाग 1-2 संपादक- पुष्फ भिक्खू 13. प्रकायाक-श्री अमिधान राजेन्द्र कार्यालय, रतलाम अभिधान राजेन्द्र कोश : भाग ! 7 संपादक-आचार्य श्री राजेन्द्र सूरि 14. प्रकाशक-प्राकृत जैन विद्यापिकास फण्ड, अहमवाचाव प्राकृत हिन्दी कोश : संपादक- डा. के. आर. चन्द्र 15. न्यू इम्पीरियल बुक डिपो, देहली नालदा अध्ययन कोश : संपादक- पुरुषोत्तम नारायण अग्रवाल 16 प्रकाशक-मारतीय विद्या प्रकाशन, दिल्ती, सम्मसिजान पीठ, आगरा, निशीथसूत्र (भाष्य चूर्णि युक्त) भाग 1 से 4 संपादक-उपाध्याय कवि अमर मुनिजी महाराज तथा मुनि श्री कन्हैयालालजी म.सा. "कमल' प्रकाशक-श्री जैन आत्मानंद समा, भावनगरवृहत्कल्प सूत्र (भाष्य टीका युक्त) भाग 1 से 6 संपादक-मुनि चतुरविजय पुण्यविजय जी म.सा. नोट: चरणानुयोग के मूलपाठ एवं सूत्रांक के लिए महावीर जैन विद्यालय, बम्बई द्वारा प्रकाशित आगम ग्रन्थों का, तथा जो आमम वहा से उपलब्ध नहीं हुए उनके लिए आगम समिति ब्यावर द्वारा प्रकाशित आगमों का मूल पाठ, सूत्रांक, व अनुवाद के लिए उपयोग किया है / अन्य विविध संस्थाओं के प्रकाशनों का भी सहायक ग्रन्थ के रूप में उपयोग किया है / अतः हम उन सभी संस्थाओं के प्रति कृतज्ञ है। - संपादक गण 480