SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 161
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सूत्र १०२-१८६ नित्यभोजी के गोचरी आने का विधान संयमी जीवन [६७ तबस्सी दुखले किलते मुहिवा, पबडिज्ज वा, अतः वे तपस्वी दुर्बल क्लान्त कहीं मूच्छित हो जाएं या तमेव दिसं वा अणुदिन वा समगा भगवतो पडिजा- गिर जाएं तो साथ वाले श्रमण भगवन्त उसी दिशा में उनकी गरंति । - दसा. द.८, सु. ७४ शोध कर सकें। णिच्चभत्तियस्स गोअरकाल विहाण नित्यभोजी के गोचरी जाने का विधान - १८३. यासायासं पज्जोस बियस्स निश्चत्तियस्स भिक्खुस्स कप्पड १८३. वर्षावाग रहे हुए सदा आहार करने वाले भिक्षु के लिए एग गोअरकालं पाहायइकुल भत्ताए वा, पाणाए वा, एक गोबर फाल का विधान है और उसे गृहस्पों के घरों में निक्लमित्तए वा, पविसित्तए था। भक्तपान के लिए एक बार निष्क्रमण रवेश करना कल्पता है । नन्नत्य बायरिम-बेयावच्चेण वा, उवमाय-बेयावच्चेण या, किन्तु आचार्य, उपाध्याय, तपस्वी, ग्लान की वैयाबृत्य करने तबस्सि-चेयावर चेण घा, गिलाण-वेयावच्चेण वा, हरण वाले तथा अप्राप्त यौवन वाले लधु शिष्यों को छोड़कर । वा अवंजण-जाणएण। --दसा. द. ८, मु. १६-२४ (अर्थात् इनको अनेक बार भी जाना कल्पता है ।) निच्चभत्तियस्स सव्वपाणय-गहण-विहाणं . नित्य भोजी के लिए मर्व पेय ग्रहण करने का विधान१८४. वासावासं पज्जोसविधस्स निच्चभत्ति यस्स भिक्खुस्स कम्पति १८४. वर्षावास रहे हुए नित्यमोजी भिक्षु के लिए सभी प्रकार सम्बाई पाणगाई पडिगाहित्तए। -- दसा. द. ८, सु. २६ के अचित्त पानी ग्रहण करने वल्पते हैं । सड्डी फुलेसु अदिट्ट जायणा णिसेहो-- श्रद्धावान घरों में अदृष्ट पदार्थ मांगने का निषेध१८५. वासावार्स एज्जोसषियाणं अस्थि गं थेराणं तहप्पगाराई १८५. वर्षावास में रहने वाले साधु-साध्वी इस प्रकार के कुलों कुलाई कडाई पत्तिआई थिज्जाई सासियाई समयाई को जाने कि -जिनको स्थविरों ने प्रतिबोधित किये हैं, जो बहुमयाई अणुमयाई भवति । प्रीतिकर है, दान देने में उदार हैं, विश्वस्त हैं, जिनमें साधुओं का प्रवेश सम्मत है, साधु सम्मान को प्राप्त है, साधुओं को दान देने के लिए नौकरों को भी स्वामी द्वारा अनुमति दी हुई है । सत्य से नो कप्पढ़ अदक्खु वहत्तए "अस्थि ते आउसो ! इमं ऐसे कुलों में अदृष्ट वस्तु के लिए 'हे आयुष्मन् ! तुम्हारे यहाँ वा, इम वा" यह वस्तु है, वह वस्तु है ?" ऐसा पूछना नहीं कल्पता है । ५०-से किमाह भंते ! प्र... हे भगवन् ! ऐसा क्यों कहा? उ०-सढी गिही गिहा, तेगिय पि कुज्जा । ३०-श्रद्धालु गृहस्वामी मांगी गई वस्तु को खरीद कर -दसा, द. ८, सु. १८ लायेगा या चुराकर लायेगा । आयरिय आणाणसारेण भत-पाणगहणं वाणं च आचार्य की आज्ञानुसार भक्त-पान ग्रहण करना और देना१८६. वासावासं पज्जोसवियाणं अस्वगइयाणं एवं वुत्तपुरवं भवह- १६. वर्षावास रहे हुए साधुओं में से किसी साधु को आचार्य "बावे भंते !'' एवं से कप्पड दावितए, नो से फप्पह पडि. इस प्रकार कहे कि "हे भदन्त ! आज तुम ग्लान साच के लिए गाहित्तए। आहार लाकर दो।" तो लाकर देना उसे कल्पता है। किन्तु स्वयं को दूसरों से ग्रहण करना नहीं कल्पता है। वासावासं पक्जोसवियाणं अत्यहयाणं एवं धुत्तपुरवं भवद- वर्षावास रहे हुए साधुओं में से किसी साधु को आचार्य इस "पडिगाहेहि भंते !" एवं से कप्पा पडिगाहितए नो से प्रकार कहे कि "हे भदन्त ! आज तुम दूसरों से आहार ग्रहण कप्पड वावित्तए। करो।" तो ग्रहग करना कल्पता है किन्तु दूसरे को देना नहीं कल्पता है। वासायास पज्जोसवियाणं अस्थगइयाणे एवं वृत्तपुश्यं भवह- वर्षावास रहे हुए साधुओं में से किसी साधु को आचाई "दावे मते ! पटिगाहेहि भते ।" एवं से कप्पद दावित्तए वि इस प्रकार कहे कि "हे भदन्त ! तुम आज ग्लान साधु को पडियाहिनए वि। आहार लाकर दो और हे भदन्त ! तुम दूसरों से ग्रहण भी कर लो।" ती लाकर देना और स्वयं को ग्रहण करना भी कल्पता है।
SR No.090120
Book TitleCharananuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy