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________________ सूत्र ६७६.६८१ बयावृत्य न करने आदि का प्रायश्चित सूत्र तपाचार [३४१ पंचहि ठाहिं समणे निगंथे महाणिज्जरे महापऊजवसाणे पांच स्थानों से श्रमण-निग्रन्थ महान् कर्म निर्जरा करने वाला भवति, तं जहा और महापर्यवसान वाला होता है। जैसे१. अगिलाए सेहव्यावच्चे करेमाणे, (१) ग्लानि रहित होवार नवदीक्षित की यावृत्य करता हुआ। २. अगिलाए कुलवेयावच्च करेमाणे, (२) ग्लानि रहित होकर कुल (एक आचार्य के शिष्य समूह) की यावृत्य करता हुआ । ३. अगिलाए गणबेयावच्च करेमाणे, (३) ग्लानि रहित होकर गण की वैयावृत्य करता हुआ। ४. अगिलाए संघनेयाषच करेमाने, (४) ग्लानि रहित होकर संघ को वैवावृत्य करता हुआ । ५. अगिसाए साहम्मियवेयावच्छ करेमागे 11 (५) ग्लानि रहित होकर साधर्मिक की वैयावृत्य करता ' -ठाणं. अ. ५, उ. १. सु. ३६७ हुआ । ५०-वेषावस्येक मन्ते ! जो कि बणयह ? प्र०-भन्ते ! वैयावृत्य से जीव क्या प्राप्त करता है? उ.-वेयावावे तित्ययरनामगोतं कम्म निधन्धद। उ-वैयावृत्य करने से यह तीर्थकर नाम-गोव का मा -उत्त. अ. २६, सु. ४५ जंन करता है। वेयावच्चअकरणाइ पायच्छित्त सुत्ताई-- वैयावृत्य न करने आदि का प्रायश्चित्त सूत्र६८०.जे भिण्डू मिलाणं सोम्या णचा ग गयेसह ण गवसतं वा ६८०. जो भिक्षु रोधी के सम्बन्ध में सुनकर या जानकर उनकी सारज्जइ। गवेषणा नहीं करता या नहीं करने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्ख गिलाणं सोच्चा गच्चा उम्मग्गं वा पडिपहं वा जो भिक्षु रोगी के सम्बन्ध में सुनकर या जानकर उन्मार्ग से गच्छद्द गछतं वा साइजह । या अन्य मार्ग से जाता है या जाने वाले का अनुमोदन करता है। मे भिक्खु गिलाण-वेयावच्चे अम्मष्टिए सएणं लामेणं असंथ. जो भिक्षु रोगी की सेवा के लिए उद्यत हुआ है और अपने रमाणे जो तस्स न तडितप्पा न पडितप्पतं वा साइज्ज। लाये हुए आहार से रोगी सन्तुष्ट नहीं हो तो उसका खेद प्रकट नहीं करता है या नहीं करने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू पिसाण-वेयावच्चे अम्भुद्धिए गिलाणपाजग्गे दब- जो भिक्ष रोगी की सेवा के लिए उद्यत हुआ है उसे रोगी जाए अलभमाणे जो तन पडियाइरलहन पडियाइक्वंतं योग्य द्रव्य न मिलने पर उसको पुनः आकर नहीं कहता है या वा साइज । नहीं कहने वाले का अनुमोदन करता है। त सेवमाणे आवजह चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं अणुग्याइयं। उसे चातुर्मासिक अनुद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) -नि. उ. १०, सु. ३६-३६ आता है। असमत्येण वेयावच्चकारावण पायच्छित सुतं असमर्थ से सेवा करवाने का प्रायश्चित्त सूत्र६५१. जे भिक्खू नायगेण वा मनायगेण वा, उवासएण वा, अणु- ६.१. जो भिक्ष असमर्थ स्वजन से, अन्य से, उपासक से या वासरण वा अपलेण यावच्चं कारेड फारसं का साइज्नइ । अनुपासक से वैयावृत्य करवाता है या करवाने वाले का अनु मोदन करता है। तं सेवमाणे भावयह चाउम्मासि परिहारहाणं अग्धाइयं । उसे चातुर्मासिक अनुद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) —नि. ७.११, सु. ८६ आता है। HERE १ वक.उ.१०,सु. ४०-४१
SR No.090120
Book TitleCharananuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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