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________________ ३४०j समानुपाग-२ इच्य विमोहश्यतणं हितं सुहं खभं णिस्सेयसं अणुगामियं । - आ. सु. १, अ. ८, उ. ५. सु. २१६ १. जस्स णं भिक्खुस्स एवं मवति 'अहं च वसु असि भिक्खुषं असणं वा जान साइमं वा आहद्दु दलविस्सामि बाह्यं च सातिज्जिस्सामि ।' २. जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवति असणं वाजा साइमं वा आहह्यं च णो सातिज्जिस्सामि' । 'अहं न खलु मणस महद्दु पिस्साम ३. जस्स णं भिक्खु एवं भवति 'अहं च खलु अस मिक्स वाद-साइमं या आह यो दलविरसाभि आहडं च सातिज्जिस्सामि' । 1 ४. जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवति 'अहं खलु मण्णसि मित्र असावा हो विस्तानि आह दो साजिस्तानि । अहं तु ते महातिरितेष असतेषं महापरिण हिएक असणं वा जाव-साइमेज या अभिकं साहम्मियस्स कुन्ना देवापि करणाए अहं मावि ते महातिरिच बसविण अहापरिगहिएण असगेण वा जाव - साइमेण वा अभिकख साहम्मिएहि कौरम्माणं वेथावडिय' साति जिस्सामि । लाघविय आगममाणे- जाव- सम्मत्तमेव समभिजा गिया - आ. सु. १, अ. उ. ७, सु. २२७ १. अगिला आरिय बेपाय करेमाणे, २. वेदा करेसा २. अलि धेरे बेवारेमा ४. अगिनाए यरियाद करेगा. त्याल २. अगिनाए दिला येयाय करेमाचे इस प्रकार यह मरण भिशुओं को कर्मों से विमुक्त कराने में आश्रम रूप है, हितकर है, सुखकर है, सक्षम, कल्याणकर है और परलोक में भी साथ चलने वाला है। (१) जिसकी ऐसी प्रतिमा होती है कि मैं दूसरे भिक्ष ुओं को अशन यावत् स्वाद्य लाकर दूंगा और उनके द्वारा लाये हुए का सेवन करूँगा । - सूत्र ६७८ ६७६ - (२) जिस की ऐसी गतिजा होती है कि दूसरे भिक्षुओं को अनास्था लाकर दूंगा, लेकिन उनके द्वारा लाये हुए का सेवन नहीं करूँगा ।" (३) जिस भिक्षु की ऐसी प्रतिभा होती है कि "मैं दूसरे भिनब को अनासकर नहीं दूंगा, लेकिन उनके द्वारा लाये हुए का सेवन करूँगा ।" अथवा कोई साधर्मिक मुनि अपनी आवश्यकता से अधिक एषणीय ग्रहण कर लाए हुए अमन - याषत् - स्वाद्य में से वैयावृत्य की भावना से देना चाहा तो उसे स्वीकार करूंगा। इनमें से कोई भी प्रतिज्ञा धारण करने वाला भिक्षु लाभवता की प्राप्त कर यावत् - समत्य का आचरण करता है । याय का फल येयायच्च फलं १०. सिम गिम्ये महाणिम्बरे महा६७६. पांच स्थानों से धमनिन्धमहान विकरने वाला ६७६. पंचहि भवति, सं जहा और महापर्यवसान ( संसार का सर्वथा उच्छेद करने वाला) होता है। जैसे www (४) सिभिल की ऐसी प्रविशा होती है कि "मैं दूसरे भिक्षुओं को अनयत्खाय उाकर नहीं दूंगा और उनके द्वारा लाया हुआ सेवन भी नहीं करूँगा ।" - मैं अपनी आवश्यकता से अधिक एवणीय एवं लाए हुए अशन — यावत् स्वाद्य में से यदि कोई साधर्मिक साधु सेना चाहेगा तो उसे वैयावृत्य की भावना से दूंगा। - (१) ग्लानि - रहित होकर आचार्य की वैयावृत्य करता हुआ । (२) निहित होकर उपाध्याय की याक्ष्य करता हुँला । हुआ। (३) ग्लानि - रहित होकर स्थविर की वैयावृत्य करता इस (४) खानिरहित होकर तपस्वी की वैयावृश्य करता हुआ । (५) ग्लानिरहित होकर रोगी मुनि की वैयावृत्य करता
SR No.090120
Book TitleCharananuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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