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________________ सदाचरण : एक बौद्धिक विमर्श | ५९ --- --- ..-.- .-. करके उनसे उसके प्रायश्चित्त की याचना करना ही आलोचना वतभंग करना या नियम के प्रतिकूल आचरण करना विमर्श है। सामान्यतया आलोचना करते समय यह विचार आवश्यक है प्रतिसेवना है। कि अपराध क्यों हुआ ? उसका प्रेरक तत्व क्या है? इस प्रकार हम देखते हैं कि व्यक्ति अपराध केवल स्वेच्छा अपराध क्यों और कैसे? से जानबूझकर ही नहीं करता अपितु परिस्थितिवश भी करता अपराध या व्रतमंग क्यों और किन परिस्थितियों में किया है। अतः उसे प्रायश्चित्त देते समय यह बात ध्यान में रखनी जाता है, इसका विवेचन हमें स्थानांग सूत्र के दशम स्थान में चाहिए कि अपराध क्यों और किन परिस्थितियों में किया मिलता है, उसमें दरा प्रकार की प्रतिसेवना का उल्लेख हुआ है। गया है। प्रतिसेवना का तात्पर्य है गृहीत नत के नियमों के विरुद्ध आचरण आलोचना करने का अधिकारी कौन ? करना अथवा भोजन आदि ग्रहण करता । वस्तुतः प्रतिसेवना का आलोचना कौन व्यक्ति कर सकता है इस सम्बन्ध में भी सामान्य अर्थ व्रत या नियम के प्रतिकुल आचरण करना ही है। स्थानांग सूत्र में पर्याप्त चिन्तन किया गया है । इसके अनुसार यह तभंग क्यों, कब और किन परिस्थितियों में होता है इसे निम्न दस गुणों से युक्त व्यक्ति ही आलोचना करने के योग्य स्पष्ट करने हेतु ही स्थानांग में दस प्रतिसेवनामों का उल्लेख है। होता है (१) वर्ष-प्रतिसेवना. आयेश अथवा अहंकार के वशीभूत (१) जाति सम्पन्न, (२) कुल सम्पन्न, (३) विनय सम्पन्न, होकर जो हिंसा नादि करके व्रत भंग किया जाता है वह वर्ष (४) शान सम्पन्न, (५) दर्शन सम्पन्न, (६) चारित्र सम्पन्न, प्रतिसेवना है। (७) क्षान्त (क्षमासम्पन्न) (८) दान्त (इन्द्रिय-जयी). (E) अमा(२) प्रमार प्रतिसेवना-प्रमाद एवं कषायों के वशीभूत यावी (मायाचार रहित) और (१०) अपश्चासापी (आलोचना होकर जो व्रत भंग किया जाता है, यह प्रमाद प्रतिसेवना है। करने के बाद उसका पश्चात्ताप न करने वाला)। (1) अनाभोग प्रतिसेवना-स्मृति या सजगता के अभाव में आलोचना किसके समक्ष की जाये? अभक्ष्य या नियम विरुद्ध वस्तु का ग्रहण करना अनाभोग आलोचना किस व्यक्ति के समक्ष की जानी चाहिए यह भी प्रतिसेवना है। एक विचारणीय प्रश्न है, योग्य और गम्भीर व्यक्ति के अतिरिक्त (४) आतुर प्रतिसेवना-भूख-प्यास आदि से पीड़ित होकर किसी अन्य व्यक्ति के समक्ष आलोचना करने का परिणाम यह किया जाने वाला व्रत-मंग आतुर प्रतिसेवना है। होता है कि वह आलोचना करने वाले व्यक्ति की प्रतिष्ठा को (५) आपात प्रतिसेवना- किसी विशिष्ट परिस्थिति के ठेस पहुंचा सकता है तथा उसे अपयश का भागी बनना पड़ उत्पन्न होने पर व्रत-भंग या नियम विरुद्ध आचरण करना आपात सकता है। अतः जैनाचार्यों ने माना कि आलोचना सदैव ऐसे प्रतिसेवना है। व्यक्ति के समक्ष करनी चाहिये जो आलोचना सुनने योग्य हो, (६) शंकित प्रतिसेवना-शंका के वशीभूत होकर जो नियम उसे गोपनीय रख सकता हो और उसका अनैतिक लाम में ले । भंग किया जाता है, उसे शंकित प्रतिसेवना कहते हैं, जैसे यह स्थानांय सूत्र के अनुसार जिस व्यक्ति के सामने बालोचना की व्यक्ति हमारा अहित करेगा ऐसा मानकर उसकी हिंसा आदि जाती है उसे निम्नलिखित दस गुणों से युक्त होना चाहिए । कर देना। (१) आचारवान – सदाचारी होना आलोचना देने वाला (4) सहसाकार प्रतिसेवना-अकस्मात होने वाले व्रत या व्यक्ति का प्रथम गुण है, क्योंकि जो स्वयं दुराचारी है वह दूसरों नियम 'भंग को सहसाकार प्रतिसेवना कहते हैं। के अपराधों की आलोचना सुनने का अधिकारी नहीं है। जो (८) भय प्रतिसेवना-भय के कारण जो व्रत या नियम अपने ही दोषों को शुद्ध नहीं कर सका वह दूसरों के दोषों को मंग किया जाता है यह भय प्रतिसेवना है। क्या दूर करेगा? (६) प्रदोष प्रतिसेवना-द्वेषवश किसी प्राणी की हिंसा (२) आधारवान-अर्थात् उसे अपराधों और उसके सम्बन्ध अथवा उसका अहित करना प्रदोष प्रतिसेवना है। में नियत प्रायभिचत्तों का बोध होना चाहिए, उसे यह भी ज्ञान (१०) विमर्श प्रतिसेवना-शिष्यों की क्षमता अथवा उनकी होना चाहिए कि किस अपराध के लिए किस प्रकार का प्रायश्रद्धा आदि के परीक्षण के लिए व्रत या नियम का भंग करना वित्त नियत है। विमर्श प्रतिसेवमा है। (३) व्यवहारवान- उसे आगम, श्रुत, जिनाशा, धारणा - दूसरे शब्दों में किसी निश्चित उद्देश्य के लिये विचारपूर्वक और जीत इन पांच प्रकार के व्यवहारों को जानने वाला होना १ स्पानांग १०/६६। २ स्थानगि १०/७१। ३ स्थानांग १०/७२। .. -- - - - ---
SR No.090120
Book TitleCharananuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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