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________________ ३३८] परणानयोग-२ बयावत्य-विधान सूत्र ६७५-६७७ २. परवेयावच्चे, (२) पर-वैयावृत्य-दूसरे की सेवा, ३. तदुभयवेयावच्चे। साणं. अ. ३, उ. ३, सु. १६४ (३) तदुभय बयावृत्य . दोनों की सेवा । प० -- से कि तं वेयावच्चे ? पा-वयावृत्य क्या है. उसके कितने भेद हैं ? उ०. बेयावचच्छे वसबिहे पणते, तं जहा - उ० ---वैयावृत्य दश प्रकार का कहा गया है, यथा१. मारिय-यावच्चे, २. उवमाय-यावच्चे, (३) आचार्य-वैयावृत्य, (२) उपाध्याय-त्रयावृत्य, ३. थेर-यावरचे, ४. तवस्सी-बेधावच्चे, (३) स्थविर-वैयावृत्य (४) तपस्वी यावृत्य, ५, गिलाण-घेयावच्चे, ६. सेह-वेयावच्चे, (५) ग्लान वैयावृत्य, (६) शक्ष-यावत्य, ७. कुल-वेयावचे . गण-वेवावरचे, (७) कुल-वैयावृक्ष्य, (८) गण-मावत्व, ६. संघ-यावच्च, १०. साहम्मिच-यावच्चे ।। ६) संघ-वैयावृत्य, (१०) सार्मिक-बयावृत्य । -बि. स. २५. उ, ७, सु. २३५ बेयावच्छ विहाणं वैयावृत्य-विधान६७६. इमं च धम्ममावाय. कासवेण पवेवितं । ६७१, भगवान महावीर के द्वारा बताये गये हा धर्म को स्वीकुज्जा भिक्खू गिलाणस्स, अगिलाए समाहिए कार कर भिक्षु मग्लान भाव से समाधियुक्त होकर रुग्ण भिक्षु -सूय सु. १. अ. ३, उ.३, सु २० की यावृत्य करे । वित्त अबोइए निम्नं, खिप्पं हबइ सुचोइए। विनयवान् शिष्य सदा गुरु के द्वारा प्रेरणा किये बिना ही जहोवट्टि सुकम, किच्चाई कुब्बई सया । उनका कार्य करता है और गुरु के प्रेरणा करने पर शीघ्र ही -उत्त. अ. १, गा. ४४ उस कार्य को कर देता है तथा सदैव शुरु के आदेशानुसार ही सभी कार्य भलीभांति सम्पन्न कर लेता है। गिलाणद्वापेसियं आहारस्स विहि-णिसेहो ग्लान के निमित्त भेजे गये आहार का विधि निषंध६७७ मिक्खागा णामेगे एवमासु समाणे वा बसमाणे या गामाणु- ६५७ एक क्षेत्र में स्थिरवासी अथवा मास कला आदि रहने गार्म वूइज्जमाणे श मणुष्ण मोयणजातं लभिता । वाले वा प्रामागुयाम विचरण करने पहुंचने वाले साधु भिक्षा में मनोज भोजन प्राप्त होने पर किसी भिक्ष से कहे कि"से य मिक्खु गिलाइ, से हंदह णं तस्साहरह से य मिक्खू "वह भिक्ष रुग्ण है अतः आप उसके लिए यह आहार ले णो मुंज्जेज्जा तुम चेव पं भुजेम्जासि।" जाकर दे दो, अगर वह रोगी भिक्ष न खाए तो तुम खा लेना।" "से एमतितो 'मोक्षामि" ति कटट पलिउंचिय पलिउचिय मनोज्ञ आहार में लोलुपी कोई भिक्ष 'इस आहार को मैं आलोएम्जा त जहा—' इमे पिजे, इमे लोए, इमे तित्तए, ही खाऊं" ऐसा सोचकर रोगी के पास कपट युक्त कहे, पथा-... इमे कडयए, इमे कप्ताए, इमे अंबिले, इमै मरे, णो खलु "यह बाहार तो मात्र पिंड रूप है, यह तो रूक्ष है, यह तो तीखा एतो किचि वि गिलाणस्स सदति" ति माइट्ठाणं संफासे । है, यह तो कड़वा है, यह तो कसैला है, यह तो खट्टा है, वह यो एवं करेज्जा । तहाठितं आलोएज्जा जहाठित गिलाणस्स तो मीठा है इसमें कुछ भी ग्लान के अनुकूल नहीं लगता है।" साति, जहा-तिलयं तितए ति वा-जाब-महरं महुरे ति । इस प्रकार कपटाचरण करने वाला भिक्ष माया का स्पर्श करता है। भिक्ष को ऐसा नहीं करना चाहिए। किन्तु जिस तरह ग्लान को अनुकूल हो तथा जैसा आहार हो, वैसा ही दिखलाए, यथा-तिक्त को तिक्त-यावत्--मीठं को मीठा बसाए । १ (क) चव. उ. १०, सु. ३६ (ख) सब. सु. ३० (ग) ठाणं. अ. १. सु. ५१२ (ब) पर वैयावृत्य कर्म प्रतिमा के ६१ प्रकार भी हैं। -सम. सम. ६१ सु.१ (क) शार्ण अ. १०, सु. ७१२ तथा ठाणं. अ.५, उ.१, सु. ३६७ तथा नि. श. २५, उ. ७, सु. २३५ में उपरोक्त क्रम है किन्तु उवदाई और व्यवहार सूत्र में कुछ व्युत्क्रम से १० प्रकार के वयावृत्य कहे गये है। सूय. सु. १, अ.३, ३. ४, गा, २१ २
SR No.090120
Book TitleCharananuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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