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३४ | चरणानुयोग : प्रस्तावना उस परिस्थिति में क्या नैतिक है और क्या अनैतिक ? अतः स्थितियों या समाज का शासन नहीं है, अतः इस क्षेत्र में नौति नीति में किसी निरपेक्ष तत्व की अवधारणा करना भी आवश्यक की निरपेक्षता सम्भव है । अनासक्त कर्म का दर्शन इसी सिद्धांत है। इस सन्दर्भ में जान डिवी का दृष्टिकोण अधिक संगतपूर्ण पर स्थित है क्योंकि अनेक स्थितियों में कर्म का बाह्यास्मक रूप जान पड़ता है। वे परिस्थितियां जिनमें नैतिक आदर्शों की कर्ता के मनोभावों का यथार्थ परिचायक नहीं होता अतः यह सिद्धि की जाती है, सदैव परिवर्तनशील हैं और नैतिक नियमों, माना जा सकता है कि मनोवृत्यात्मक या भावनात्मक नीति निर• नैतिक कर्तव्यों और नैतिक मूल्यांकनों के लिए इन परिवर्तनशील पेक्ष होगी किन्तु आचरणात्मक या व्यवहारात्मक नीति सापेक्ष परिस्थितियों के साथ समायोजन करना आवश्यक होता है। होगी। यही कारण है कि जैन दर्शन में नैश्चयिक नैतिकता को किन्तु यह मान लेना मूर्खतापूर्ण ही होगा कि नैतिक सिद्धांत निरपेक्ष और व्यावहारिक नैतिकता को सापेक्ष माना गया है। इतने सापेक्षिक हैं कि किसी सामाजिक स्थिति में उनमें कोई (२) दूसरे, साध्यात्मक नीति या नैतिक आदर्श निरपेक्ष होता है नियामक शक्ति ही नहीं होती। शुभ की विषयवस्तु बदल सकती किन्तु साधनापरक नीति सापेक्ष होती है। दूसरे शब्दों में, जो है किन्तु शुभ का आकार नहीं; दूसरे शब्दों में, नैतिकता का सर्वोच्च शुभ है वह निरपेक्ष है किन्तु उस सर्वोच्च शुभ की शरीर परिवर्तनशील है किन्तु नैतिकता की आत्मा नहीं । नैति- प्राप्ति के जो नियम या मार्ग हैं वे सापेक्ष हैं। क्योंकि एक ही कता का विशेष स्वरूप समय समय पर वैसे-वैसे बदलता रहता साध्य की प्राप्ति के अनेक साधन हो सकते हैं। पुनः, वैयक्तिक है जैसे-जैसे सामाजिक या सांस्कृतिक स्तर पर अन्य परिस्थितियां रुचियों, क्षमताओं और स्थितियों की भिन्नता के आधार पर बदलती रहती है, किन्तु नैतिकता का सामान्य स्वरूप स्थिर सभी के लिए समान नियमों का प्रतिपादन सम्भव नहीं है । अत: रहता है। नैतिक नियमों में अपवाद या आपद्धर्भ का निश्चित साध्मपरक नीति को या नैतिक साध्य को निरपेक्ष और साधनाही स्थान है और अनेक स्थितियों में अपबाद-मार्ग का आचरण परक नीति को सापेक्ष मानना ही एक यथार्थ इष्टिकोण हो सकता ही नैतिक होता है। फिर भी हमें यह ध्यान में रखना चाहिए है। (३) तीसरे, चंतिक नियमों में कुछ नियम मौलिक होते हैं कि अपवाद कभी भी सामान्य नियम का स्थान नहीं ले पाते हैं। और कुछ नियम उन मौलिक नियमों के सहायक होते हैं, उदानिरपेक्षतावाद के सन्दर्भ में यह एक भ्रांति है कि वह सभी हरणार्थ, भारतीय परम्परा में सामान्य धर्म और विशेष धर्म नतिक नियमों को निरपेक्ष मानता है। निरपेक्षतावाद भी सभी (वश्चिम धर्म) ऐसा वर्गीकरण हमें मिलता है। जैन परम्परा में नियमों की सार्वभौमिकता सिद्ध नहीं करता, वह केवल मौलिक भी एक ऐसा ही वर्गीकरण मूलगुण और उत्तरगुण नाम से है । नियमों को सार्वभौमिकता ही सिद्ध करता है।
यहाँ हमें ध्यान रखना चाहिए कि साधारणतया सामान्य या मूलवस्तुतः नीति की वास्तविक प्रकृति को समझने के लिए भूत नियम ही निरपेक्ष एवं अपरिवर्तनीय माने जा सकते हैं, निरपेक्षतावाद और सापेक्षतावाद दोनों ही अपेक्षित हैं। नीति विशेष नियम तो सापेक्ष एवं परिवर्तनीय ही होते हैं। पद्यपि हमें का कौन सा पक्ष सापेक्ष होता है और कौन सा पक्ष निरपेक्ष यह मानने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए कि अनेक स्थितियों इसे निम्नांकित रूप में समझा जा सकता है। (१) संकल्प को में सामान्य नियमों के भी अपबाद हो सकते हैं और ये नैतिक भी नैतिकता निरपेक्ष होती है और आचरण की नैतिकता सापेक्ष हो सकते हैं, फिर भी यह ध्यान में रखना आवश्यक है कि अपहोती है । हिंसा का संकल्प कभी नैतिक नहीं होता पद्यपि हिंसा वाद को कभी नियम का स्थान नहीं दिया जा सकता। यहाँ एक का कर्म सदैव अनैतिक हो, यह आवश्यक नहीं। नीति में जब बात जो विचारणीय है वह यह कि मौलिक निमों की निरपेक्षता संकल्प की स्वतन्त्रता को स्वीकार कर लिया जाता है तो फिर भी उनकी अपरिवर्तनशीलता या उनके स्थायित्व के आधार पर हमें यह कहने का अधिकार नहीं रहता कि संकल्प सापेक्ष है, ही है. साध्य की अपेक्षा से तो वे मो सापेक्ष हो सकते हैं। अतः संकल्प की नैतिकता सापेक्ष नहीं हो सकती। दूसरे शब्दों जो नैतिक विचारधाराएं मात्र निरपेक्षतावाद को स्वीकार में, कर्म का जो मानसिक पक्ष है, बोद्धिक पक्ष है, वह निरपेक्ष करती है वे ययार्थ की भूमिका को भूलकर मात्र आदर्श की ओर हो सकता है किन्तु कर्म का जो व्यावहारिक पक्ष है, आचरणात्मक देखती हैं । ये नैतिक आदर्श को हो प्रस्तुत कर देती हैं किन्तु पक्ष है, यह सापेक्ष है । अति मनोमूलक नीति निरपेक्ष होगी उस मार्ग का निर्धारण करने में सफल नहीं हो पातीं जो उस
और आचरणमूलक नीति सापेश होगी। संकल्प का क्षेत्र, प्रशा साध्य एवं आदर्श तक ले जाता है, क्योंकि, नैतिक आचरण एवं का क्षेत्र, एक ऐसा क्षेत्र है. जहाँ चेतना या प्रज्ञा ही सर्वोच्च व्यवहार तो परिस्थिति सापेक्ष होता है। नैतिकता एक लक्ष्योशासक है । अन्तस् में व्यक्ति स्वयं अपना शासक है, वहाँ परि- न्मुख गति है । लेकिन मदि उस गति में व्यक्ति की दृष्टि मात्र
1 Contemporary Ethical Theories (T. E. Hill) p. 163.