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________________ सदाचरण : एक बौद्धिक विमर्श | ३३ आन्तरिक और बाश्व परिस्थितियों पर निर्भर होता है। अतः नैतिक निर्णय दोनों ही सापेक्ष होंगे । नीति और नैतिक आचरण मानवीय कर्म का सम्पादन और उनके निष्पन्न परिणाम दोनों को परिस्थिति निरपेक्ष भानने वाले नैतिक सिद्धांत शून्य में ही देश, काल और परिस्थिति पर निर्भर होंगे। कोई भी कर्म विचरण करते है और नीति के यथार्थ स्वरूप को स्पष्ट कर पाने देश, काल, व्यक्ति, समाज और परिस्थिति से निरपेक्ष नहीं में समर्थ नहीं होते हैं। होगा। हमने देखा कि भारतीय चिन्तन की जैन, बौद्ध और किन्तु नीति को एकान्त रूप से सापेक्ष मानना भी खतरे से वैदिक परम्पराएँ इस बात को स्पष्ट रूप से स्वीकार करती हैं खाली नहीं है । (१) सर्वप्रथम, नैतिक सापेक्षतावाद व्यक्ति और कि कम की नैतिकता निरपेक्ष नहीं है। पुन: नैतिक मूल्यांकन समाज की विविधता पर तो हष्टि डालता है किन्तु उस विविधता और नैतिक निर्णय उन सिद्धांतों और परिस्थितियों पर निर्भर में अनुस्यूत एकता की उपेक्षा करता है। बह दैशिक, कालिक, करते हैं जिनमें वे दिये जाते हैं। सतप्रथम तो नैतिक मूल्यांकन सामाजिक और वैयक्तिक असमानता को ही एकमात्र सत्य व्यक्ति और परिस्थिति से निरपेक्ष होकर नहीं किया जा सकता, मानता है। क्योंकि लपक्ति जिस समाज में जीवन जीता है वह विविधताओं (२) दूसरे, वह साध्य या आदर्श की अपेक्षा साधनों पर से युक्त है । समाज में व्यक्ति को अपनी योग्यताओं एवं क्षम- अधिक बल देता है, जबकि साधनों का मूल्य स्वयं उस साध्य ताओं के आधार पर एक निश्चित स्थिति होती हैं, उसी स्थिति पर आश्रित होता है, जिसके वे साधन है। के अनुसार उसके कर्तव्य एवं दायित्व होते हैं, अतः वैयक्तिक (३) तीसरे, सापेक्षतावाद कर्म के बाह्य स्वरूप को ही दायित्वों और कर्तव्यों में विविधता होती है । गीता का वर्णाधम उसका सर्वस्व मान लेता है। उनके आन्तरिक पक्ष या कर्म के धर्म का सिद्धांत और बेडले का 'मेरा स्थान और उसके कर्तव्य' मानस-पक्ष की उपेक्षा करता है जबकि कम की प्रेरक भावना का सिद्धांत एक सापेक्षित नैतिकता की धारणा को प्रस्तुत करते का भी नैतिक होष्ट से समान मूल्य है। हैं । अतः हमें सामाजिक सन्दर्भ में आचरण का मूल्यांकन सापेक्ष (1) चोथे, नैतिक सापेक्षतावाद संकल्पस्वातन्थ्य के सिद्धांत रूप में ही करना होगा। विश्व में ऐसा कोई एक सर्वमान्य के विरोध में जाता है । यदि नीति के निर्धारक तत्व बाह्य है सिसांत नहीं है जो हमारे निर्णयों का आधार बन सके। कुछ तो फिर हमारी संकल्प की स्वतन्त्रता का कोई अधिक महत्व प्रसंगों में हम अपने नैतिक निर्णय निष्पन्न कर्म-परिणाम पर देते नहीं रहता है। सापेक्षतावाद के अनुसार नीति का नियामक है, तो कुछ प्रसंगों में कर्म के वांछित या अग्रावलोक्रित परिणाम तस्त्र देशकालगत परिस्थितियाँ एवं सामाजिक तथ्य है, वैयक्तिक पर, और कभी कर्म के प्रेरक के आधार पर भी नैतिक निर्णय चेतना नहीं। किन्तु ऐसी स्थिति में संकल्पस्वातन्त्र्य का क्या दिये जाते है । अत: कर्म के बाह्य स्वरूप और उसके सन्दर्भ में अर्थ रह जायेगा, यह बिनारणीय है । संकल्प को सापेक्ष मानने होने वाले नैतिक मूल्यांकन तथा नैतिक निर्णय निरपेक्ष नहीं हो का अर्थ उसकी स्वतन्त्रता को सीमित करना है। सकते, उन्हें सापेक्ष ही मानना होगा। पुनः कर्म या आवरण (२) पाचवें, नीति के सन्दर्भ में सापेक्षतावाद हमें अनिवार्यत: किसी बादर्श वा लक्ष्य का साधन होता है और साधन अनेक हो आत्मनिष्ठावाद की ओर ले जाता है। लेकिन आत्मनिष्ठावाद में सकते हैं । लक्ष्य या मादर्श एक होने पर भी उसकी प्राप्ति के आकर नैतिक नियम अपना समस्त स्थायित्व और वस्तुगत आधार लिए साधनों को अपनी स्थिति के अनुसार अनेक मार्ग सुझाये खो देते हैं । नैतिक जीवन में रामरूपता और वस्तुनिष्ठता का जा सकते हैं. अत: आचरण की विविधता एक स्वाभाविक तथ्य प्रभाव होता है तथा नैतिकता का ढांचा अस्तव्यस्त हो जाता है । है । दो भिन्न सन्दर्भो में परस्पर विपरीत दिखाई देने वाले मार्ग (६) छठे, हम यह भी कह सकते हैं कि सापेक्षतावाद में भी अपने लक्ष्य की अपेक्षा से उचित माने जा सकते हैं। पुनः, नैतिकता का शरीर तो बना रहता है किन्तु प्राण चले जाते हैं। जब हम दुसरे व्यक्तियों के आचरण पर कोई नैतिक निर्णम देते उसमें विषय सामग्री तो रहती है किन्तु आकार नहीं होता है, हैं तो हमारे सामने कर्म का बाह्य स्वरूप ही होता है। अतः क्योंकि निरपेक्षता नैतिकता की आत्मा है । दूसरे व्यक्तियों के आचरण के सम्बन्ध में हमारे मूल्यांकन और (७) सापेक्षतावाद में नैतिक मानक की एकरूपता समाप्त निर्णय सापेक्ष ही हो सकते हैं । हम उसके गनोभावों के प्रत्यक्ष हो जाती है, एक सार्वभौम मानदण्ड का अभाव होता है अतः इष्टा नहीं होते है और इसलिए उसके आचरण के मूल्यांकन में नैतिक निर्णय देने में व्यक्ति को वैसी ही कठिनाई अनुभव होती हमको निरपेक्ष निर्णय देने का कोई अधिकार ही नहीं होता है, है जैसी उस ग्राहक को होती है जिसे प्रत्येक दुकान पर भिन्नक्योंकि हमारा निर्णय केवल घटित परिणामों पर ही होता है। भिन्न माप मिलते हों । पुनः, नैतिक परिस्थिति स्वयं एक ऐसा अतः यह निश्वय ही सत्य है कि कर्म के बाह्य पक्ष या घ्याव- जटिल तथ्य है जिसमें जनमाधारण के लिए बिना किसी स्पष्ट हारिक पक्ष की नैतिकता और उसके सन्दर्भ में दिये जाने वाले सार्वभौम निर्देशक सिद्धांत के यह तय कर पाना कठिन है कि
SR No.090120
Book TitleCharananuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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