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सूत्र २३३-२३६
भरणान्तिक संलेखना के अतिचार
___ संयमी नौवन
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पंचमहत्वय-धरा अट्ठारस सहस्स-सीलंगधरा।
तथा पांच महाव्रत, अठारह हजार संयम के गुणों को धारण अक्खयायारचरिता, ते सम्वे सिरसा मणसा मत्यएग वामि || करने वाले एवं अक्षत आचार के पालक जो त्यागी साधु हैं, उन
-आव. अ. ४, सु. २७-३१ सबको मैं शिर से, मन से, मस्तक से बन्दना करता है। मारणन्तिय संलेहणा सुत्त'-.
मरणान्तिक संलेखना के अतिचार२३३. तयाणंतरं च ण अपच्छिम-मारणंतिय-संलेहणा-सूसगर २३३. तदनन्तर अपश्चिम-मरणान्तिक-संलेखणा-झोपशा आराधना
आराहणाए पंच अहयारा जाणियस्वा न समायरियच्या, के पाँच अतिचारों को जानना चाहिए उनका आचरण नहीं तं जहा
करना चाहिए, वे इस प्रकार हैं(१) इहलोशससप्पओगे
(१) इहलौकिक सुख की चाहना करना। (२) परलोगासंसप्पओगे,
(२) परलोकिक सुख को चाहना करना । (३) जीवियासंसप्पओगे,
(३) जीने की चाहना करना। (४) मरणासंसप्पओगे,
(४) मरने की चाहना करता। (५) कामभोगासंसप्पओगे। -आव, अ. १, सु. ५७ (५) काम-भोगों की आकांक्षा करना । खामणा सुत्त--
क्षमापना सूत्र२३४. खामेमि सम्वेजीवा, सवे जीवा खमंतु मे ।
२३४. मैं सब जीवों को क्षमा करता हूँ और वे सब जीव भी मितो मे सव्यभूएम, वेरं ममं न केणइ ।।
मुझे क्षमा करें। मेरी सब जीवों के साथ पूर्ण मित्रता है, किसी
के साथ भी मेरा वरभाव नहीं है। आयरिय-उवजमाए-सोसे साहम्मिए कुल गणे य।
आचार्य, उपाध्याय, शिष्य, सामिक, कुल एवं गण के प्रति ओ मे के फसाया सम्वे तिविहेण खामेमि ।। जो मैंने कोई भी कषाय किये हों उनकी मन, वचन, काया से
क्षमा याचना करता हूँ। सस्वस्स समणसंघस्स, भगवओ अंजलि करोय सीसे । मस्तक पर अंजली चढ़ाकर भगवान महावीर के समस्त सर्व कमावइत्ता, खमामि सम्बस्स अहमवि ।। श्रमणसंघ से मैं क्षमा याचना करता हूँ वह संघ मुझे भी क्षमा
प्रदान करे। सबस्स जीवरासिस्स, भावो धम्म निहियनियचिसो।। मैं धर्म में दत्तचित्त होकर समस्त जीव राशि से क्षमा सम्वं खमावत्ता, समामि सम्वस्स अहमयि ॥ याचना करता हूँ, वह जीवराशि मुझे भी क्षमा प्रदान करे ।
– सुत्तागमे आव. अ. ४, सु. ३२ उपसंहार सुत्तं--
उपसंहार सूत्र - २३५. एवमहं आलोइ, निवियं गरहि दुगंछियं सम्म। २३५. इस प्रकार में सम्पन प्रकार से आलोचना, निन्दा, गही तिविहेणं पडिकतो, बंदामि जिग चउम्बीसं ॥ और जुगुप्सा के द्वारा तीन प्रकार से अर्थात् मन, वचन, काया
-आब, अ.४, सु. ३३ से, प्रतिक्रमण कर पापों से निवृत्त होकर चौबीस तीर्थकर देवों
को वन्दना करता हूँ। काउस्सग्ग विहि सुत्तं
कायोत्सर्ग-विधि सूत्र२३६. तस्स उत्तरीकरणेणं, पायच्छित्त-करणे, विसोहि-करणेणं, २३६. आत्मा की श्रेष्ठता के लिए, प्रायश्चित्त के लिए, विशेष
विसल्ली-करणेणं, पावागं कम्माणं निघायणटाए ठामि निर्मलता के लिए, सल्य-रहित होने के लिए, पाप कर्मों का कास्सगं ।
पूर्णतया विनाश करने के लिए, आगे कहे जाने वाले आगारों को
छोड़कर मैं कायोत्सर्ग करता हूँ। अन्नत्य सिसिएग, नीससिएणं, खासिएण, छोएणं, जंभाइ- उच्छ्वास, निःश्वास, खांसी, छींक, उबासी, डकार, अपानएणं, उड्डएणं, कार्यानसग्गेणं, ममलोए, पित्तमुच्छाए, सुध- वायु, चक्कर, पित्त-विकारजन्य मूळ, सूक्ष्म रूप से अंगों का मेहि अंगसंचालेहि, मुहमेहि खेलसंचालेहि, सुटुमेह विट्टि- हिलना, सूक्ष्म रूप से कफ का संचार, सूक्ष्म रूप से दृष्टि चलना