SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 246
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १५४] ~~~~www. चरणामुयोग- २ अब रोपस एएहि कारणेहि आरिभाव यह रवी १. भासुरे, ३. संमोहे, तह नमिमि हो बिसेषी। कुण 1 विरागाणं मस्स अप सो... ३२२.पा जलप्ययेसो द जम्मणमरणाणि बंधंति ॥ उत्त. अ. ३६, गा. २६३-२६० चाहोवा आमुराए कम्पयति तं जहा - १. कोवसीलताए १. २. मगंतराएवं, २. २. २. २. कम्मे, ४. पिमितजीवियाए । चहि ठाह जीवा आमि ओगलाए कम्मं पगति, तं जज्ञा १. अक्कणं, २. परपरिवारणं, ३. भूतिकम्मे, विराधकों के संयम का विनाश २. ४. देवकिaियसे । ४. कोथकरणेणं । हि ठाणेहि जीक्षा सम्मोहक लिहा ३. कामासंसओगेणं. ४. पिज्जाणियाण करणेंगं । ठाणे जीवा देवशिविसिवाए सं जहा १. अरहंताणं श्रवणं वरमाणे, धम्म अब वरमाणे, परिचयाणा ४. बाउवणस्स संघस्स अवणं वरमाणे । पति जो शोधको निरतर बढ़ावा देता रहता है और निमित्त कहता है वह अपनी इन प्रवृत्तियों के कारण आसुरी भावना का आवरण करता है । सूत्र ३२८-३२६ जो शास्त्र के द्वारा, विष-भक्षण के द्वारा, अग्नि में प्रविष्ट होकर या पानी में कूद कर आत्म हत्या करता है और जो मर्यादा से अधिक उपकरण रखता है, वह जन्म-मरण की परम्परा को पुष्ट करता हुआ मोही भावना का आचरण करता है । विराधकों के संयम का विनाश ३२९. माधना का विनाश चार प्रकार का है (१) सुर (३) सम्मोह अपवंस. चार स्थानों से जीव आनुरय-कर्म का अर्जन करता है(१) कोपशीलता से, (२) प्राभुत दीनता अर्थात् स्वभाव से (३) मंसक तपः कर्म - आहार उपधि की प्राप्ति के लिए तप - ठाणं. अ. ४, उ. ४, सु. ३५४ (२) अभियोग अपध्वंस, (४) देवकिवि-अपध्वंस करने से, (४) निमित्त गोरखा निमित्त आदि बताकर आहार आदि प्राप्त करने से । चार स्थानों से जीव अभियोगित्व-कर्म का अर्जन करता है- (१) आत्मोत्कर्ष – आत्मगुणों का अभिमान करने से, (२) पर-परिवाद - दूसरों का अवर्णवाद बोलने से, (३) भूतिकर्म - भस्म, लेप आदि के द्वारा चिकित्सा करने से, (४) कौतुककरण — मंत्रित जल से स्नान कराने से । चार स्थानों से जीव सम्मोहत्व का अर्जन करता है- (१) उन्मार्ग देशना - मिथ्या धर्म का प्ररूपण करने से, (२) भान्तरायो मार्ग में प्रवृत्त व्यक्ति के लिए विघ्न उत्पन्न करने से, 樂遊 (३) कामाशंसाप्रयोग शब्दादि विषयों में अभिलाषा करने से, (४) मिध्यानिदानकरण- पुद्धिपूर्वक निदान करने से। चार स्थानों से जीव देव- किस्विषिकत्व कर्म का वर्जन करता है (१) बहों का बाद बोलने से (२) (३) आचार्य तथा उपाध्याय का अवर्णवाद बोलने से, (४) चतुविध संघ का अवर्णवाद बोलने से । धर्म का अवर्णवाद बोलने से,
SR No.090120
Book TitleCharananuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy