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वरमानुयोग-२
स्पर्श की असक्ति का निवेध
सूत्र ७८१-७८२
उपवायणे
रसाणुवाएण परिमाण,
रस में अनुराम और ममत्व वृद्धि होने से उसके उत्पादन रखणसम्निमओये। रक्खणसाम्न
में, रक्षण करने में व्यवस्थित रखने में और उसके बिनाम या वए विओगे य कहं सुहं से,
वियोग होगे पर कैसे सुखी हो सकता है ? उसके उपयोग के संभोगकाले 4 अतिसिलामे ।। समय भी तृप्ति न होने के कारण दुःख ही होता है। रसे अतिते व परिग्गहे य.
जो रस में अतृप्त है और उसके परिग्रहण में अत्यन्त ससोवसत्तों न उबेद तुर्द्धि। आसक्त होता है । उसे कभी सन्तुष्टि नहीं हो सकती। वह असंअतुट्टियोसेण बुही परस्स,
तुष्टि के दोष से दुःखी बना हुआ मनुष्य लोभ के वशीभूत होकर लोभाक्लेि आययई अवतं । दूसरों की रसवान् वस्तुएँ चुरा लेता है। तहाभिभूयस अवतहारिणो,
वह तृष्णा से पराजित होकर चोरी करता है और रस-परिरसे अतिलस्म परिरमो प। ग्रहण में अतृप्त होता है। अतृप्ति दोष के कारण उसके भाषापायामुसं बड्इ लोमोसा,
मृषा की वृद्धि होती है तथा माया-मृषा का प्रयोग करने पर भी __ तश्यावि दुषला न विमुश्चद से ॥ वह दुःख से मुक्त नहीं होता। मोसस्स पन्छा य पुरत्यओ य,
___असत्य बोलने के पहले और पीछे तथा बोलते समय भी पयोगकाले य वुही दुरन्ते । जीव दुःखी होता है। इसी प्रकार वह रस में अतृप्त होकर चोरी एवं अवत्ताणि समाययस्तो,
करता हुआ भी आश्रयहीन होकर दुःखी ही होता है। रसे अतिसो हिओ अणिस्सो।। रसाणु सस्स नरस्त एवं,
इस प्रकार रस में अनुरक्त पुरुष को किंचित् सुख भी कब कत्तो सुहं होज्ज कयाइ किंचि?। और कैसे हो सकता ? क्योंकि मनोज्ञ रसां को पाने के लिए वह तस्थोवमो वि किलेसक्छ,
दुःख उठाता है और उनके उपभोग में भी अतृप्ति का क्लेश निम्बसई जस्स कएग तुमलं ।। और दुःख बना ही रहता है । एमेय रसम्मि गओ पओसं,
इसी प्रकार जो रस से द्वेष रखता है, वह भी उत्तरोत्तर उवेइ दुक्योहपरम्पराओ। अनेक दुःखों की परम्परा को प्राप्त होता है, द्वष मुक्त चित्त से पचित्तो य विणाइ कम्म,
वह जिन कर्मों का बन्ध करता है वे कर्म भी उदय काल में उसके जं से पुणो होइ दुई विवागे ॥ लिए दुःख रूप होते हैं। रसे विरसो मणओ विसोगो,
किन्तु जो पुरुष रस से विरक्त होता है वह शोक-मुक्त बन एएण दुक्खोहपरम्परेण । जाता है । जिस प्रकार जल में रहते हुए भी कमल जल से लिप्त न लिप्पई भयमले वि सन्तो,
नहीं होता है, उसी प्रकार वह संसार में रहते हुए भी इन दुःखों जलेण या पोक्लरिणीपलासं ॥ की परम्परा से लिप्त नहीं होता।
--उत्त... ३२, गा. ६१-७३ फरिसासत्ति णिसेहो---
स्पर्श की आसक्ति का निषेध७८२. कायस्स फासं पहणं वयक्ति,
७२. स्पर्श न्द्रिय के विषय को काया कहते हैं, जो स्पर्श राग तं रागहे तु मान्नमाहु । पा हेतु है उसे मनोज्ञ कहा है, जोष का हेतु है इसे अमनोश तं दोसहउँ अमणुन्नमा
कहा है। इन दोनों में जो समभाव रखता है वह वीतराम समय जो सेसु स यीपरागो।। होता है। कासस्त कार्य गहणं वयन्ति,
स्पर्श के ग्रहण करने वाले को काया कहते हैं, काया से कायस्स फासं गहणं वयन्ति । ग्रहण होने वाले को स्पर्श कहते हैं। राग के हेतु को समनोश रागस्स हेदं समणुन्नमा,
स्पर्श कहा है, द्वेष के हेतु को अमनोज्ञ स्पर्श कहा है। दोसस्स हे अमणुग्नमाह ।।