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________________ सूत्र ७८०-७८१ रस को आसक्ति का निषेध वीर्याचार [३८६ गते मायामसं वा लोपदोसा, माया-मृषा की वृद्धि होती है तथा माया-मृषा का प्रयोग करने तस्थावि दुपखान विमुच्चाई से ।। पर भी पर भी वह दःख से मुक्त नहीं होता। मोसस्स पच्छा व पुरत्थो य, ___ अपत्य बोलने के पहले और पीछे तथा बोलते समय भी पोगकाले य ही दुरन्ते । जीव दुःखी होता है। इसी प्रकार वह गन्ध से अतृप्त होकर एवं अवताणि समाययन्तो, चोरी करता हुआ भी आश्रयहीन होकर दुःखी ही होता है । गन्धे अतित्तो हिओ अणिस्सो । गन्धाणुरसस्स नरस्स एवं, इस प्रकार मन्ध में अनुरक्त पुरुष को किंचित् मुख भी कब तो मुहं होम्ज कयाइ किंचि ?। और कैसे हो सकता है ? क्योंकि मनोज गन्धों को पाने के लिए तत्योपभोगे वि फिलेप्सदुक्खं, वह दुःख उठाता है तथा उनके उपभोग में भी बतृप्ति का क्लेश नितई जरस दुपक्ष। और दुःख बना ही रहता है। एमेव गन्धम्मि गओ पओसं, इसी प्रकार जो गन्ध से द्वेष रखता है, वह भी उत्तरोत्तर उवेद दुखोहपरम्पराओ। अनेक दुःखों की परम्परा को प्राप्त होता है । द्वेष युक्त चित्त से पदुद्दचित्तो य चिणाइ कम्म, वह जिन कर्मों का बन्ध करता है के कर्म भी उवय काल में जसे पुणो होइ बुहं विवागे ।। उसके लिए दुःख रूप होते हैं। गन्धे विरत्तो मणुओ विसोगो, किन्तु जो पुरुष गन्ध से विरक्त होता है वह शोक-मुक्त बन एएण दुकालोहपरम्परेण । जाता है। जिस प्रकार जल में रहते हुए भी कमल जल से लिप्त न लिप्पई भवमझे वि सन्तो, नहीं होता, उसी प्रकार वह भी संसार में रहते हुए इन दुःखों लेण वा परेक्सरिगोपलास ।।। की परम्परा से लिप्त नहीं होता। -उत्त. अ. ३२,गा. ४५-६० रसासत्तिगिसेहो रस की आसक्ति का निषेध७८१. जिम्माए रसं गहणं वयन्ति, तं रागहे तु मणुनमाजु । ७८१. रसनेन्द्रिय के विषय को रस कहते हैं। जो रत राग का तं वोसहेजे अमजुन्नमा, समो य जो तेसु स बीयरागो॥ हेतु है उसे मनोज्ञ कहा है, जो द्वेष का हेतु है उसे अमनोज्ञ कहा है। इन दोनों में जो समभाव रखता है वह वीतराम होता है। रसस्स जिम्मं गहणं क्यन्ति, जिम्माए रर्स गहण वयन्ति। रस + ग्रहण करने वाली को जिल्ला कहते रागस्स हेवं समणुम्नमाहू, बोसस्स हेउ अमणुन्नमाह।। ग्रहण होने वाले को रस कहते हैं। राग के हेतु को समनोज रस कहा है. द्वेष के हेतु को अमनोज्ञ रस कहा है। रसेसु जो गिठिमवेद तिध्वं, अकालियं पावह से विणास। जिस प्रकार मांस खाने में गृद्ध बना हुआ रागातुर मत्स्य रागाजरे वडिस विमिन्नकाए, माछे जहा आमिस-भोगगि कांटे से बींधा जाता है उसी प्रकार मनोज्ञ रसों में तोत्र आसक्ति करने वाला अकाल में ही विनाश को प्राप्त होता है। में यावि दोस समुह तिव्वं, संसिक्खणे स उ उबेद उपखं । जो अमनोज्ञ रस से तीन द्वष करता है वह उसी क्षण दुःस्त्र दुहन्तदोसेण सएण जन्तु, रसं न किंचि अवरज्माई से ॥ को प्राप्त होता है, इस प्रकार स्वयं के ही तीन द्वेष से प्राणी दुःखी होता है किन्तु उसके दुःखी होने में रस का कोई अपराध नहीं है। एगन्तरसे हारे रसम्मि, अतालिसे से कुगई पोस। जो मनोहर रस में सर्वथा अनुरक्त रहता है और अमनोहर दुक्खस्स संपीलमुखेड बाले, न लिप्पई तेण मगो विरागो॥ रस में द्वेष करता है, वह अज्ञानी दुःखों की पीड़ा को प्राप्त होता है। किन्तु विरक्त मुनि उनमें लिप्त नहीं होता। रसाणुगासाणुगए य जोवे, चराचरे हिसइ गल्वे। मनोहर रस में आसक्त जीय अनेक प्रकार के बस स्यावर चित्तेहिं ते परितावेह बाले, पीले अत्तगुरु फिलिट्ट ।। जीवों की हिंसा करता है, वह अपने ही स्वार्थ को प्रमुख मानने बाला कलेशयुक्त अज्ञानी पुरुष नाना प्रकार के उन चराचर जीवों को परिताप पहुँचाता है !
SR No.090120
Book TitleCharananuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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