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________________ ३५८] वरणानयोग-२ गन्ध की आसक्ति का निषेध सूत्र ७७६-७८० स्वे विरत्तो मकओ विसोगों, एएण दुक्खोहपरम्परेण । किन्तु जो पुरुष रूप से विरक्त होता है वह शोक-मुक्त बन न लिप्पई मवमन्मे वि सम्तो, जलेण वा पोखरिगोपलातं ।। जाता है । जिस प्रकार जल में रहते हुए भी कमल जल से लिप्त -उत्त. अ.३२, गा. २२-३४ नहीं होता, उसी प्रकार वह भी संसार में रहते हुए इन दुःखों कीरा से लिप्त नहीं होता । गंधासत्ति णिसेहो गन्ध की आसक्ति का निषेध७५०. घाणस्स गन्धं गहणं धान्ति, ७८०. घ्राणेन्द्रिय के विषय को गन्ध कहते हैं। जो गन्ध राग तं रागहे तु मनमा । का हेतु है उसे मनोज्ञ कहा है जो गन्ध द्वेष का हेतु है उसे तं बोसहेउं अमनमात्र, अमनोश कहा है। इन दोनों में जो समभाव रखता है वह वीतसमो य जो तेसु स बीयरागो।। राग होता है। गन्धस्स चाणं गणं अन्ति, गन्ध के ग्रहण करने वाले को प्राण कहते हैं, प्राण से ग्रहण घाणस्स गन्ध गहणं वरित । होने वाले को गंध कहते हैं । राम के हेतु को समनोज गंध कहा रागस हेड समगुन्नमाह. है, द्वेष के हेतु को अपनोज्ञ गंध कहा है। चोसस्स हेउं अमणुनमाहु॥ गन्धेसु जो गिडिमवेह तिथ्वं, जिस प्रकार नाग-दमनी आदि औषधियों के गंध में गृद्ध अकालियं पाबइ से विणास। होकर बिल से निकलता हुआ रामातुर सर्प दुःखी होता है उसी रागाउरे ओसहि गन्ध-गिसे. प्रकार जो मनोज गंध में तीय श्रामक्ति करता है, वह अकाल में सप्पे बिलाओ विष निक्खमते ॥ ही विनाश को प्राप्त होता है। जे यावि दोर्स समुह तिब्वं, जो अमगोज्ञ गंध से तीव्र हूँष करता है, वह उसी क्षण दुःख संसिक्क्षणे से उ उवह सुक्खं । को प्राप्त होता है । इस प्रकार स्वयं के ही तीय द्वेष से प्राणी दुद्दन्तकोसेण सएण जस्तू, दुःखी होता है किन्तु एसके दुःखी होने में गन्ध का कोई अपराध न किधि गन्धं अवराई से ॥ नहीं है। एगन्तरस्ते बदरंसि गये, जो मनोहर गन्ध में सर्वथा अनुरक्त रहता है और अमनोहर अतालिसे से कुई पोसं । गन्ध से द्वेष करता है, वह अज्ञानी दुःखों की पीड़ा को प्राप्त बुक्सस्स संपीलमुवेद बाले, होता है। किंतु विरक्त मुनि उनमें लिप्त नहीं होता । न लिप्पई तेग मुणी विरागो।। गन्धाणुगासाणुगए य जीवे, मनोज गन्ध में आसत्त. जीव अनेक प्रकार के उस स्थावर चराचरे हिसई अंगरूवे । जीवों की हिंसा करता है वह अपने ही स्वार्थ को प्रमुख मानने चिहि ते परिसावेह बाले, वालाशयुक्त अज्ञानी नाना प्रकार के उन चराचर जीनों को पीसद असदगुरु फिलिटु। परिताप पहुंचाता है। गन्धाणुवाएक परिगहग, गन्ध में अनुराग और ममत्व बुद्धि होने से उसके उत्पादन उप्पायणे रक्हणसनिओये । में, रक्षण करने में, व्यवस्थित रखने में और उसके विनाश या बए विओगे य कहं मुहं से? वियोग होने पर कैसे सुखी हो सकता है? उसके उपयोग के संभोगकाले य अतित्तिलामे ।। समय भी तृप्ति न होने के कारण दुःख ही होता है। गन्धे अतिसे ब परिम्प य, जो गन्ध में अतृप्त है, उसके परिग्रहण में अत्यन्त आसक्त सत्तोवसतो न उयेइ हुट्टि। होता है, उसे कभी सन्तुष्टि नही हो सकती है। वह असंतुष्टि अतुहिनोसेण बुही परस्स, के दोष से दुःखी बना हुआ मनुष्य लोभ के वशीभूत होकर दूसरों लोभाबिले आययई अवतं ॥ की मन्धवान वस्तुएं चुरा लेता है। तण्हाभिभूयस्स अवसहारिगो, वह तृष्णा से पराजित होकर चोरी करता है और गन्धगन्धे अतित्तस्स परिग्महे य। परिग्रहण में अतृप्त होता है। अतृप्ति दोष के कारण उसके
SR No.090120
Book TitleCharananuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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