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________________ सूत्र ७७६ रूप की आसक्ति का निषेध वीर्याचार [३८७ रूबस्स चक गहणं क्यरित, चक्खुस्स ख्यं महणं वयन्ति । रूप के ग्रहण करने वाले को चक्ष कहते हैं, चक्षु से ग्रहण रागस्स हेउं समणुनमाहु, दोसास हे अमानमाह॥ होने वाले को रूप कहते हैं। राग के हेतु को ममनोज्ञ रूप कहा है, द्वेष के हेतु को अमनोज्ञ रूप कहा है। क्वेसु जो गिद्धिमवेद तिम्व, अकालियं पाव से विणास। जिस प्रकार प्रकाश लोलुप पतंगा रूप में आसक्त होकर रामाउरे से मह वा पयंगे, आलोयलोले समबेद मम ॥ मृत्यु को प्राप्त होता है उसी प्रकार जो पुरुष रूप में तीव्र आसक्ति रखता है वह अकाल में ही विनाश को प्राप्त होता है। जे पाविदोस समयेइ तिब्ब, तस्मिकखणे से उउयेई बुक्खं। जो अमनोज रूपों से तीन द्वेष करता है वह उसी क्षण दुःस्त्र दुहातबोसेण सएण जन्तु, न किचि रूवं अवरजाई से ॥ को प्राप्त होता है। इस प्रकार स्वयं के ही तीन द्वेष से प्राणी दुःखी होता है किन्तु उसके दुःस्त्री होने में रूप का कोई अपराध नहीं है। एगरतरते रुहरंसि सवे, असालिसे से कुणई पओस । जो मनोहर रूप में सर्वथा अनुरक्त रहता है और अमनोहर दुक्खस्स संपीलमुबह बासे, न निप्पई तेण मुणी विरागो॥ रूप में द्वेष करता है, वह अज्ञानी दुःषा की पीड़ा को प्राप्त होता है। किन्तु विरक्त मुनि उनमें लिप्त नहीं होता । क्याणगासाणुगए प जोवे, घराचरे हिसइ गरुवे। मनोज्ञ रूप में आसक्त जीव अनेक प्रकार के प्रम-स्थावर चिहि ते परितावेद बाले, पीलेइ अत्तगुरु किलिट्ठ ॥ जीवों की हिंसा करता है, वह अपने ही स्वार्थ को प्रमुख मानने वाला क्लेशयुक्त अज्ञानी पुरुष नाना प्रकार से उन चरा चर जीवों को परिताप पहुंचाता है। रूवाणुवाएण परिगण, उपायणे रक्षणसभिजोगे। रूप में अनुगग और ममत्व वृद्धि होने से उसके उत्पादन में, पए दिओगे य कह सुहं से ? संभोगकाले य अतिसिलामे ॥ रक्षण करने में, व्यवस्थित रखने में और उसके बिना या वियोग होने पर कैसे सुखी हो सकता है ? उसके उपयोग करने के समय भी तृप्ति न होने के कारण दुःख ही होता है। सबै अतित य परिगहमि, सत्तोवसतो न उवे तुहि। जो रूप में अतृप्त है और उसके परिग्रहण में अत्यन्त अतुद्धिवोसेण दुही परस्स, लोभाबिले आययई अदत्तं ॥ आसक्त होता है. उसे कभी सन्तुष्टि नहीं हो सकती, वह असं. तुष्टि के दोष से अत्यन्त दुःखी बना हुआ मनुष्य लोभ के वणी भूत होकर दूसरों की रूपवान बस्तुए चुरा लेता है। सम्हामिभूयस्स अदतहारिणो, को अतित्तस्स परिसंगहे य । वह तृष्णा से पराजित होकर चोरी करता है और रूपमायामुसं वडाइ लोभदोसा, तस्या वि दुक्खा न विमुच्चाई से ।। परिग्रहण में अतृप्त होता है। अतृप्ति दोष के कारण उसके मावा-मृषा की वृद्धि होती है तथा माया-मृषा का प्रयोग करने पर भी बह दुःख से मुक्त नहीं होता। मोसस्स पच्छा य पुरस्थो य, पभोगकाले य बुही दुरन्ते । असत्य बोलने के पहल और पीछे तथा बोलते समय भी एवं अवत्ताणि समाययस्तो, रूदे अतिसो दुहिओ अणिम्सोय जीव दुःखी होता है इसी प्रकार रूप में अतृप्त होकर चोरी करता हुआ भी वह माश्रयहीन होकर दुःखी ही होता है। रुवाणुरसस्स नरस्स एवं, कसो मुहं होइन कयाइ किंचि ! इस प्रकार रूप में अनुरक्त पुरुष को किचित् सुख भी कब सस्थोवभोगे वि किलेसदुपक्ष, निवत्तई जस्स कएण दुवखं ।। और कैसे हो सकता है ? क्योंकि मनोज्ञ रूपों को पाने के लिए भी वह दुःख उठाता है और उनके उपभोग में भी अतृप्ति का क्लेश और दुःख बना ही रहता है। एमेव कवम्मि मओ पओसं. उई दुक्खोहपरम्परायो। इसी प्रकार जो रूप से द्वेष रखता है, यह भी उत्तरोत्तर पदुद्धचित्तो य चिणाइ कम्म, ज से पुणो होड दुह विवागे॥ अनेक दुःखो की परम्परा को प्राप्त होता है। द्वेष-युक्त चित्त से वह जिन बमों का बन्ध करता है, वे कम भी उदय फाल में उसके लिए दुःख रूप होते हैं।
SR No.090120
Book TitleCharananuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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