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________________ सूत्र १०६-१०७ अध्यात्म जागरण से मुक्ति संयमी जीवन [४३ foner उवेहमाणो उ परिव्यएज्जा, संयमी प्रतिकूलताओं की उपेक्षा करता हुआ विचरण करे। पियमप्पियं सब तितिक्सएज्जा। अनुकूल-प्रतिकूल सब परीषहों को सहन करे। वर्ष जो भी न सध्च सध्यस्याभिरोयएज्जा, १ का देस या भुने उनकी अभिलाषा न करे, पूजा और न यावि पूर्य गरहं च संजए । गर्दा भी न चाहे। अणेगछन्वा इह माणवेहि. इस संसार में मनुष्यों के अनेक प्रकार के अभिप्राय होते हैं. जे भावओ संपकरेइ भिक्खू । । भिक्षु उन अभिप्रायों का सम्यक् रीति से विचार करे तथा अपने भयभेरवा तत्व उइन्ति भोमा, उदय में आये हुए देवकृत, मनुष्यकृत तथा तियंचकृत भयोत्पादक दिवा मणुस्सा अदुवा तिरिच्छा ॥ भीषण उपसगो को सहन करे । -उत्त. अ. २१, गा.१५-१६ सोओसिणा समसा य फासा, आयंकाविविहा फुसन्ति देह । शीत, उष्ण, डांस, मच्छर, तृण-स्पर्श तथा अन्य विविध अकुक्कुओ तत्यऽहियासएज्जा, रयाई खेवेज्ज.पुरेकडाई ।। प्रकार के आतंक जद भिक्षु को स्पर्श करें, तब वह कुत्सित शब्द न . -उत्त. अ. २१, गा. १८ करते हुए उन्हें समभाव से सहन करे तथा पूर्वको को क्षीण करे । अणुभए नायणए महेसो, न यावि पूर्ण गरहं च संजए। जो साधु पूजा-प्रतिष्ठा में उन्नत और गहा में अवनत नहीं स उज्जुभावं पडिवज्ज संजए, निव्वाणमग विरए उवेह ॥ होता है वह समभावी विरत संयमी सरलता को स्वीकार करके निर्वाण-मार्ग को प्राप्त होता है। अरहरइसहे पहोणसंथवे विरए जाहिए पहाणवं । __ जो अरति और रति को सहन करता है, संसारी जनी के परमट्ठपहिं चिटई, छिन्नसोए अममे अन्त्रिणे ॥ परिचय से दूर रहता है, जिरक्त है, आत्म-हित का साधक है, संयमशील है, शोक रहित है, ममत्त रहित है, परिग्रह रहित है, वह सम्यन् दर्शनादि मोक्ष-साधनों में स्थित होता है। विवित्तलयणाई भएज्ज ताई, निरोबलेबाई असंथा। षट्काय रक्षक मुनि-अलिप्त वीज आदि से रहित और इसीहि चिष्णाई महायसेहि, कारण फासेज्ज परीसहाई॥ महायशस्वी ऋषियों द्वारा सेवित एकान्त स्थानों का सेवन करे उत्त. अ. २१, गा, २०-२२ तथा काया से परीपहों को सहन करे। अज्झत्थ जागरणाए मुत्ति - अध्यात्म जागरण से मुक्ति१०७. जो पुश्वरसावररतकाले, १०७. जो साधु रात्रि के पहले और पिछले प्रहर में स्वयं आत्मसंपेहए अप्पगमप्पएणं । निरीक्षण करे कि--"मैंने क्या किया? मेरे लिए क्या कार्य कि मे का कि च मे फिच्च सेस; करना शेष है? वह कौनसा बार्य है जिसे मैं कर सकता हूँ कि सक्कणिज्जं न समायरामि ।। परन्तु नहीं बार पा रहा हूँ? कि मे परो पासइ कि च अप्पा, दूसरा मेरे किन दोषों को देखता है अथवा कोन सी अपनी कि चाहं खलियं न विवजयामि । भूल को मैं स्वयं देख लेता हूँ ? वह कौन सा दोष है जिसे मैं इन्चेब सम्म अणुपासमाणो, नहीं छोड़ रहा हूँ? इस प्रकार सम्या प्रकार से आत्म-निरीक्षण अणाय नो पतिबंध कुज्जा ।। करता हुआ मुनि भविष्य में कोई दोष न लगादे । जत्थेव पासे कई दुश्पउत्तं काएण वाया अदु माणसेण । जब कभी मन, वचन और काया को दुष्प्रवृत्त होता हुआ तत्येव धोरो परिसाहज्जा, आइन्नो खिप्पमिवक्सलीणं ॥ देखे तो धैर्यवान साधु वहीं सम्हल जाये। जैसे जातिमान अश्व लगाम को खींचते ही शीघ्र सम्हल जाता है। जस्सेरिसा जोग जिइंदियस्स, धिईमओ सुपुरिसास निच्च। जिस जितेन्द्रिय धैर्यवान सत्पुरुष के योग सदा इस प्रकार तमाह लोए पडिबुद्धजीवी, सो जीबई संजमजीविएणं ।। के होते हैं उसे लोक में प्रतिबुद्धजीवी कहा जाता है वही मयमी जीवन जीता है। अप्पा खलु लययं रक्खियचो, सविदिएहिं सुसमाहिएहि। ममाधियुक्त इन्द्रियों से आत्मा की सतत रक्षा करनी अरक्सिओ जा पहं उयेई, सुरक्खिओ सम्बबुहाण मुच्चद॥ चाहिए। क्योंकि अरक्षित आत्मा जन्म-मरण को प्राप्त होता है - दस. चू. २, गा. १२-१६ और सुरक्षित आरमा सब दुःखों से मुक्त हो जाता है।
SR No.090120
Book TitleCharananuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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