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वरणानयोग-२
अमणों को तीन भावनायें
सूत्र १०८-१०६
समणाणं तिविहा भावणा
धमणों को तीन भावनायें-- १०८. तिहि ठाणेहि समणे णिगंथे महाणिज्जरे महापज्जवसाणे १०८. तीन कारणों से श्रमण निन्थ महानिर्जरा और संसार भवति. तं जहा--
का अन्त करने वाला होता है(१) कया गं अहं अप्पं वा बहुय वा सुयं अहिल्जिस्सामि ? (१) कब मैं अल्प या बहुत श्रुत का अध्ययन करूंगा? (२) कया णं अवं एकल्लविहारपटिम उपसंपज्जित्ता गं (२) कब मैं एकल विहारी प्रतिमा को स्वीकार कर बिहार बिहरिस्सामि?
करूंगा? (३) कया णं अहं अपच्छिममारणांतियसलेहणा-झूसणा- (३) कब मैं अपश्चिम भारणान्तिक संलखना की आराधना सिते भत्तपाणपडियाइक्षिते पाओवगते कातं अणवस्ख- से युक्त होकर भक्त-पान का परित्याग कर पादपोपगमन संथारा माणे विहरिस्सामि।
स्वीकार कर मृत्यु की आकांक्षा नहीं करता हुआ विचरूंगा? एवं समणसा सवयसा सकायसा पागडेमाणे समणे निग्गंथे इस प्रकार मन, वचन और वाया से युक्त प्रकट रूप से महाणिज्जरे महापजधसाणे भवति ।
भावना करता हुआ श्रमण निग्रंन्थ कर्मों का क्षय और संसार -ठाणं अ.३, उ. ४. सु. २१० का अन्त करने वाला होता है। समणाणं बत्तीसं जोग-संगहा
धमणों के बत्तीस योग संग्रह-- १०६. धत्तोस जोगसंगहा पण्णता, तं जहा
१०६. बत्तीस योग संबह कहे गये हैं, यथा(१) आलोयणा,
(१) दोषों को यथार्थ आलोचना करना, (२) निरवसावे,
(२) आलोचना सुनकर अन्य को नहीं कहना, (३) आवईसु बढधम्मया,
(३) संकट पड़ने पर भी धर्म में हट रहना, (४) अणिस्सिओवहाणे,
(४) आसक्ति रहित तप करना, (५) सिक्खा ,
(५) आचार्य द्वारा दी गई शिक्षा ग्रहण करना, (६) नितिफम्मया,
(६) शरीर का परिकर्म न करना, (७) अण्णायता,
(७) गुप्त तप करना, (८) अलोभे य,
(८) निर्लोभी रहना, (6) तितिक्खा,
(8) कष्टसहिष्णु होना, (१०) अज्जवे,
(१०) व्यवहार में सरलता रखना,
(११) हृदय पवित्र रखना, (१२) सम्मविट्टी,
(१२) सम्यक्त्व शुद्ध रखना, (१३) समाहो,
(१३) प्रसन्न चित्त रहना, (१४) आयारे,
(१४) पंचाचारों का पालन करना, (१५) विणओवए,
(१५) रत्नाधिक का विनय करना, (१६) धिईमई
(१६) धैर्य रखना, (१७) संवेगे,
(१७) संवेग युक्त रहना, (१८) पणिही,
(१८) अध्यवसायों की एकाग्रता रखना, (१६) मुविहि,
(१६) आचरण शुद्ध रखना, (२०) संबरे,
(२०) संवर की वृद्धि करना, (२१) अत्तवोसोवसंहारे,
(२१) आत्मा में आते हुए दोषों को रोकना, (२२) सम्वकामविरत्तया,
(२२) समस्त विषपों से विरक्त रहना, (२३) मूलगुण- प साणे,
(२३) मूलगुणों का शुद्ध पालन करना, (२४) उत्तरगुण-पस्वखाणे,
(२४) उत्तरगुणों का शुद्ध पालन करना, (२५) विउस्सगे,
(२५) बस्त्र-पात्रादि उपकरणों तथा कषायादि का व्यत्सर्ग
करना,