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पत्र १०६-११२
संयम योग में आत्मा की स्थ पना
संयमी जीवन
४५.
(२६) अपमादे,
(२६) प्रमाद बा त्याग करना, (२७) लवालवे,
(२७) समाचारी में सतत सावधान रहना, (२८) माणसंवरजोगे या
(२८) शुभ ध्यान में रहना, (२६) उपए मारणतिए.
(२६) मारणान्तिक वेदना होने पर भी अधीर न होना, 1.) गाव
(३०) आसक्ति के स्वरूप को जानकर परित्याग करना, (३१) पायच्छित्तकरणेत्ति य,
(३१) गृहीत प्रायश्चित्त का अनुष्ठान करना, (३२) आराहणा य मरणंते,
(३२) मरण समय में संलेखना करके आराधक बनना । बत्तीसं जोगसंगहा।
-सम.मम. ३२. मु. १ ये बत्तीस योग संग्रह (रामाधि के कारणभूत स्थान) है। संजम जोगे अप्पाणं ठवणा
संयम योग में आत्मा की स्थापना११०. हाचेहि ठाणेति, जिणे बिठेहि संजए। ११०. जिनेश्वर भावान द्वारा उपदिष्ट इन स्थानों से अपनी धारयन्ते उ अपाणं, आमोक्लाए परिवएज्जासि ॥ मात्मा को संयम में स्थापित करता हुआ मुनि मोक्ष प्राप्त होने
-सूय. सु.२, अ. ५, मा. ३३ तक पंचाचार पालन में प्रगति करे।
संयमी जीवन के अठारह स्थान-७
संजमस्स अट्ठारस ठाणाई
संयम के अठारह स्थान१११. समणेणं भावया महावीरेणं समणागं णिग्गंधाणं सलापवि- १११, श्रमण भगवान् महावीर ने आबाल वृद्ध सभी श्रमण अत्ताणं अट्ठारस ठाणा पग्णत्ता । तं जहा
निग्रंन्यों के लिए अठारह स्थान कहे हैं । जैसेक्यछक्क कायछक्क, अकप्पो मिहिभायणं ।
छः व्रत का पालन, छः काया का रक्षण, अकल्पनीय आहार पलियंक निसिज्जा य, सिणाणं सोमवज्जणं ।। आदि, गुहि-भाजन, पर्यक (पलंग आदि), निपया, स्नान और
-सम. स. १८, सु.१ शोभा (इन छ:) का वर्जन । बस अट्ठ य ठाणाहं जाई बालोऽबरमई।
साध्वाचार के ये अठारह स्थान हैं जो बाल अज्ञानी साधु तत्थ अन्नयरे ठाणे निगंयत्ताओ भस्सई ॥
इन अटारह स्थानों में से किसी एक भी स्थान को विराधना
-देश. अ. ६, गा ७ करता है, वह साधुपने से भ्रष्ट हो जाता है। पदम 'अहिंसा' ठाणं
प्रथम 'अहिंसा' स्थान११२. तस्थिम पढमं वाणं, महावीरेणं देसियं ।
११२. भगवान महावीर ने इन अठारह स्थानों में से पहला अहिंसा निउगं विट्ठा, सध्वभूएसु संजमो ।
स्थान अहिंसा का कहा है। इसे उन्होंने सूक्ष्मरूप से देखा है।
सब जीवों के प्रति संयम रखना अहिंसा है। जावंति सोए पाणा, तसा अदुव थायरा ।
लोक में जितने भी बम और स्थावर प्राणी हैं, मुनि उनका ते जाणमजाणं वा, न हणे णो वि घायए ।
जान या अनजान में न हनन करें और न कराए। सम्वे जीवा वि इच्छन्ति, जीविन मरिज्जिङ ।
सभी जीव जीना चाहते हैं, मरना नहीं चाहते। इसलिए तम्हा पाणवहं घोरं, निगंथा बजयंति
प्राण-बध को भपानक जागवार निर्गन्थ उसका वर्जन करते हैं । -दस. अ. ६, गा ८-१०
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दस. अ.६, गा. ७.