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________________ ४६] धरणानुयोग-२ द्वितीय 'सत्य' स्थान सत्र ११२-११६ जगनिस्सिएहि भूएहि तसनामेहि थावरेहि च। संसार में रह हुए जो भी त्रग और स्थायर प्राणी है, उनके नो तेसिमारमे बंड, मणसा वयसा कायसा व ॥ प्रति मन, वचन, वाया रूप किसी भी प्रकार के दण्ड वा प्रयोग - उत्त, अ. ८, गा. १. न करे। अहे य तिरिय दिसासु. तसा पजे थावर जे प पाणा। ऊँची-नीची और तिरजी दिशाओं में जोत्रा और स्थावर हत्थेहि पाएहि य संजमेता, अश्विणमन्नेसु य नो गहेज्जा ।। प्राणी है उन्हें अपने हाथों और पैरों को संयम में रखकर किसी -सूब. गु. १. अ. १, गा.२ भी प्रकार से पीड़ा नहीं देनी चाहिए तथा दूसरों के द्वारा न दिये हुए पदार्थ को ग्रहण नहीं करना चाहिए। बितीयं 'सच्च' ठाणं बिपी 'सत्य' मान .. ११३. अप्पणट्ठा परट्ठा वा, कोहा चा जह वा भया । ११३. निग्रंन्य अपने या दूसरों के लिए, कोध से या भय से पर हिंसयं न मृसं बूया, नो वि अन्नं व्यावए । पीड़ाकारक असत्य न बोले, म दूसरों से कुलगाए । मुसाबाओ प लोगम्मि, सब्यसाहूहि गरहियो । इस लोक में मृपावाद सगस्त साधुओं द्वारा गहित है और अबिस्सासो य भूयार्ण, तम्हा मीसं विवजए॥ वह प्राणियों के लिए अविश्वसनीय है। अत: निम्रन्थ असल्म -दरा. अ. ६, या. ११-१२ न बोले। ततियं 'अतेणगं ठाणं तृतीय 'अस्तेय' स्थान११४. चित्तमंतचित्तं वा, अप्प वा जइ वा बहुं । ११४. संयमी मुनि सजीव या निर्जीव, अल्प या बहुत, दन्तशोधन दंतसोहणमेतं पि, ओग्यहंसि अजाइया ।। मात्र वस्तु का भी उसके अधिकारी की आजा लिए बिना स्वयं तं अस्पणा न गेण्हंति, नो वि गेहाबए परं । ग्रहण नहीं करता, दूसरों से ग्रहण नहीं कराता और ग्रहण करने अन्नं वा गेण्हमाणं पि, नाणुजाणंति संजया ।। वाले का अनुमोदन भी नहीं करता। -दस. अ. ६, गा. १३-१४ चउत्थं 'बंभरिय' ठाणे चतुर्थ 'ब्रह्मचर्य' स्थान११५. अबमचरियं घोर, पमा दुरहिटियं । ११५. अब्रह्मचर्य लोक में पोर प्रमाद-जनक और दुर्जन व्यक्तियों नायरंति मुणो लोए, मेयाययणज्जियो । द्वारा सेनन किया जाता है। चारित्र-भंग के स्थान से बचने वाले मुनि उसका सेवन कभी भी नहीं करते ।। मूलमेयमहम्मस्स, महादोससमुस्सयं । यह अब्रह्मचर्य अधर्म का मूल और गहादोषों का समूह तम्हा मेहुणसंसरग, निम्मा बज्जयंति णं ॥ है। इसलिए निर्ग्रन्थ भैथुन के गंगर्ग का सर्वशा परित्याग -दम', अ. ६. मा. १५-१६ करते हैं। पंचमं 'अपरिगह' ठाणं पंचम 'अपरिग्रह' स्थान११६. बिडमुम्मेहम लोणं, तिल्ल सपि ध फाणियं । ११६. जो महावीर स्वागी के बचनों में रत हैं, वे मुनि विडन ते सन्निहिमिच्छन्ति, नायपुस्तबओरया ।। लवणं (जलाकर अचित्त वना नमक) उद्विग्न (अन्य शस्त्रों से अचित्त बना) लवण, तेल, घी, और गीले गुड़ के संग्रह करने की इच्छा नहीं करते। लोहस्सेस अणुफासे, मन्ने अन्नयरामवि । जो कुछ भी संग्रह किया जाता है वह लोभ का ही प्रभाव जे सिया सन्निहीकामे, गिही पवइए न से ॥ है अत: तीर्थकर देव ऐसा मानते हैं कि जो धमण सनिधि का कामी है वह गृहस्थ है, साधु नहीं है। जं पि बत्थं व पायं वा, कंबलं पायपुंछणं । जो भी वस्त्र, पात्र, कम्बल और रजोहरण हैं, उन्हें भी तं पि संजमलज्जट्टा, धारेंति परिहरंति य ।। मुनि संयम और लज्जा की रक्षा के लिए ही रयते है और उनका उपयोग करते हैं। न सो परिगहो वुत्तो, नायपुत्तेण ताइणा। सब जीवों के रक्षक ज्ञातपुत्र भ्रमण भगवान महावीर ने मुच्छा परिग्गहो वुत्तो, इइ चुत्तं महेसिणा ॥ बस्त्र आदि को परिग्रह नहीं कहा है। 'मूर्छा परिग्रह है ऐसा महषियों ने कहा है।
SR No.090120
Book TitleCharananuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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