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________________ - सूत्र ११६-१२० छठा 'राधि भोजन विवर्जन' स्थान संयमी जीवन [४७ - - . सध्वत्थुवहिणा बुद्धा, संरक्षणपरिगहे । तत्वज़ मुगि संयम में सहायक उपकरणों को संयम की रक्षा अवि अपणो वि देहम्मि, नायरंति ममाइयं ॥ के लिए ही रखते हैं, मूर्छा भाव से नहीं रखते, और तो क्या -- दम, अ. ६, गा. १७-२१ ये अपने शरीर पर भी ममस्य भाव नहीं रखते। छठे 'राइभोयण-विरमणं' ठाण छठा 'रात्रि भोजन विवर्जन' स्थान११७. अहो निच्च सबोकम्म, सम्वबुद्धहि वणियं । ११७ अहो ! सभी तीर्थंकरों ने प्राणों के लिए संयम के अनुजा य लज्जासमा वित्ती, एगभत्तं प भोयणं । कुल वृत्ति और देह पालन के लिए केवल दिन में हो एक बार भोजन रूम इस नित्य' तपःकर्म का उपदेश दिया है। संतिमे सुहमा पापा. तसा अवुव थावरा । वे जो अस और स्थावर अनेक सूक्ष्ग प्राणी है जिनको कि जाईराओ अपासंतो, कहमेसणियं चरे? ।। . रात्रि में साथ नहीं देख सकता है तो उनकी रक्षा करता हुआ किस प्रकार एषणीय आहार की गवेषणा कर सकेगा? उबउल्लं, बीयसंसत, पाणा निवडिया महि । उदक से आई और श्रीज रो युक्त भोजन तथा जीव युक्त दिया ताई विवरजेज्मा, राओ तत्थ कह सरे ? ॥ मार्ग हो तो उन्हें दिन में टाला जा सकता है पर रात में उन्हें टाल कर मुगि कैसे भिक्षाचर्या कर सकेगा? एवं च दोसं बरण, नायपुत्तण भासियं । ___शातपुत्र भगवान महावीर स्वामी के बताये हुए इन रात्रि सन्याहारं न भुजंति, निगाथा राइभोयणं ।। भोजा के दोषों को सम्यक्तया जानकर निर्ग्रन्थ किसी भी प्रकार - दस. अ. ६, गा. २२-२५ का आहार रात्रि में नहीं करते । सत्तमं 'पुढविकाय-अणारंभ' ठाणं - सातवाँ पृथ्वीकाय अनारम्भ' स्थान११८. पुढधिक्कार्य में हिंसात, मसा वयता कारता । ११८. सुतमाहित संयमी पृथ्वीवाय की मन, वचन, गाया रूप तिविहेण करणजोएण, संजया सुसमाहिया ।। तीन योगों से और तीन बारण से हिंसा नहीं करते हैं। पुढविकार्य विहिसतो, हिसई उ तयस्सिए । पृथ्वीकाय को हिंगा करता हुआ व्यक्ति उसके आश्रित तसे म यिविहे पाणे, चक्खुसे य अचवखुसे ।। अनेक प्रकार के हग्यमानव अदृश्यगान बस और स्थावर प्राणियों की भी हिंसा करता है। तम्हा एवं वियाणित्ता, दोस, दुग्गइवहदणं । इसलिए इन दुर्गति-वर्धन दोषों को जागकर मुनि जीवनपुढविकायसमारंभं जावज्जीवाए बज्जए । पर्यन्त पृथ्वीकार के समारम्भ का वर्जन करे। -दम. अ. ६. गा. २६-२८ अठ्ठमं 'आउकाय अणारंभ' ठाणं आठवा अपकाय अनारम्भ' स्थान११६. माउकायं न हिसंति, मणसा वयसा कायसा । ११६. सुसमाहित संयमी अपकाय' की मन, वचन, काया रूप तिविहेण करणजोएण, संजया सुसमाहिया ॥ तीन योगों से और तीन करण से हिसा नहीं करते है। आउकायं विहिंसंतो, हिंसई उ तपस्सिए। । अपकाय की हिंसा करता हुआ व्यक्ति रसके आश्रित अनेक तसे व विविहे पाणे, चक्खसे य अचवक्षसे ।। प्रकार के दृश्यमान व अदृश्यमान त्रस और स्थावर प्राणियों की भी हिंसा करता है। तम्हा एयं वियाणित्ता, दोसं दुग्गइवडवणं । इसलिए म दुर्गति-वर्धक दोरों को जानकर मुनि जीवनआउकायसमारंभ, जावजीवाए बजए । पर्यन्त अप्काय वो समारम्भ का वर्जन करे। - दस. अ. ६, गा २६-३१ नवमं तेउकाय-अणारंभ' ठाणं नवमा 'तेजस्काय अनारम्भ' स्थान - ११० जायतेयं न इच्छति पावगं जलइत्तए। १२०. मुनि पापरूप अग्नि को लाने की इच्छा नहीं करते। तिखमलयर सस्थ, सरवओ वि दुरसयं ।। क्योंकि वह दूसरे शस्त्रों की अपेक्षा तीक्ष्ण पास्थ है तथा मब ओर से दुराश्रय है। पाईणं परिण वा वि, उड्ड अणुविसामवि । यह अग्नि पूर्व, पश्चिम, दक्षिण, उत्तर, जर्व, अधः दिशा अहे बाहिणओ वा वि, बहे उत्तरओ विय॥ और विदिशाओं में रहे हुए सभी जीवों को जलाती है।
SR No.090120
Book TitleCharananuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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