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________________ ४८] चरणानुयोग-२ वसा 'वायुकाय अनारम' स्थान सूत्र १२०१२४ भूयाणमेसमाघाओ, हायवाहो न संसयो । निःसन्देह अग्नि जीवों को आघात पहुँचाने वाली है, संयमी तं पईवपयायटा, संजया किचि नारभे ॥ मुनि प्रकाश और ताप के लिए इसका कुछ भी आरम्भ न करे। तम्हा एवं पियाणित्ता. दोसं बुग्गहषहणं । इसलिए इन दुर्गति-वर्धक दोषों को जानकर मुनि जीवनतेउकायसमारंभ, जावज्जीमाए वजए॥ पर्यरत अग्निकाय के समारम्भ का वर्जन करे । - दस.अ. ६, गा. ३२-३५ दसमं 'बाउकाय-अणारंभ' ठाणं दसा वायुकाय अनारम्भ' स्थान१२१. अनिलस्स समारंभ, जुजा मन्नति तारिसं । १२१. नत्वज्ञ पुरुष वायु के समारम्भ को अग्नि सगारम्भ के सावज्जनलं चेयं, नेयं ताईहिं सेत्रियं ।। तुल्य ही प्रचुर पाप युक्त मानते हैं । अतः यह छहकाय के प्राता मुनियों के द्वारा आसेवित नहीं है । तालियटेण पत्तेण, साहाविठ्ठपणेण वा । वे साधु ताड के पंखे से, पत्र से, वृक्ष की शाखा से; न तो न ते वीजमिच्छन्ति, धीयावेजण या परं ।। स्वयं हवा करना चाहते हैं और न दूसरों से हवा कराना चाहते हैं। जंपि पत्य व पाय था, कंबसं पायपुंछणं । जो भी वस्त्र, कम्बल और पादपुंछन आदि उपकरण है न ते वायमुईरति, जयं परिहरति य॥ उनके द्वारा वे वायु की उदीरणा नहीं करते, विन्तु यतनापूर्वक उनका परिभोग करते हैं। तम्हा एवं बियाणित्ता, दोसं दुग्गइवढणं । इसलिए इन दुर्गतिवर्धक दोगों को जानकर मुनि जीवनवाउकायसमारंभ, जावज्जीवाए यजए । पर्यन्त वायुकाय के समारम्भ का वर्जन करे। -देस. अ.६, गा.३६-३६ एगादसमं 'वणस्सइकाय-अणारं ठाणं - ग्यारहवाँ 'वनस्पतिकाय अनारम्भ' स्थान१२२. वणस्सईन हिसंति मणसा वयसा कायमा । १२२. सुसमाहित संयमी बनस्पतिकाय की मन, वचन, काया तिविहेण करणजोएण, संजया सुसमाहिया ।। रूप तीन चोगों से और तीन करण से हिसा नहीं करते। वणस्सई विहिसंतो, हिसई उ तयस्सिए । वनस्पतिकाय की हिंसा करता हुआ व्यक्ति उसके आश्रित ससे य विविहे पाणे, चक्षुसे य अचवखुसे ।। अनेक प्रकार के दृश्यमान । अदृश्यमान' अस और स्थावर प्राणियों की भी हिंसा करता है। तम्हा एवं वियाणित्ता, दोसं दुग्गइयणं । इसलिए इन दुर्गति-वर्धक दोनों को जानकर मुनि जीवनवणस्सइसमारंभ, जावज्जीवाए बजए। पन्त वनस्पति के समारम्भ का वर्जन करे। -दमअ.६, गा. ४०-४२ बारसमं 'तसकाय-अणारंभ ठाणं बारहवाँ 'सकाय अनारम्भ' स्थान - १२३. तसकायं न हिसंति, मणसा बयसा कायसा। १२३. सुसमाहित संयमी त्रसकाय' की मन, वचन, काया रूप तिविहेण करणजोएण, संजया सुसमाहिया ।। तीन योगों से और तीन करण से हिंसा नहीं करते। ससकायं विहिसंलो, हिंसई उ तयस्सिए । सकाय की हिंसा करता हुआ व्यत्तिः उसके आश्रित अनेक तसे य विविहे पाणे, चक्खुसे य अचस्खुसे ।। प्रकार के दृश्यमान व अदृश्यमान त्रस और स्थावर प्राणियों की भी हिंसा करता है। तम्हा एवं वियाणित्ता, बोस दुग्गवडणं । इसलिए इन दुर्गति-वर्धक दोपों को जानकर मुनि जीवनतसकायसमारंभ, जावज्जीयाए रजए । पर्यन्त सकाय के समारम्भ का वर्जन करे। -दस. अ. ६, मा. ४३-४५ तेरसमं अकपिय-आहाराइ-विवज्जणं' ठाणं-- तेरहवां अकल्प्य आहारादि वर्जन' स्थान१२४. जाई चत्तारिभोज्जाई, इसिणाऽहारमाईणि । १२४ भुनियों के लिए आहार आदि चार पदार्थ जो अकल्पीय ताई तु विवज्जतो. संजमें अणुपालए ।। है उनका वजन करता हुआ यथाविधि संयम का पालन करे। पिड सेज्जं च वत्थं च, चउत्यं पायमेव य । मुनि अकल्पनीय आहार, गया, वस्त्र और पात्र को ग्रहण अकप्पियं न इच्छेम्जा, पडिगाहेज्ज कप्पियं ।। करने की इक्या न करे किन्तु कल्पनीय ही ग्रहण करे।
SR No.090120
Book TitleCharananuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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