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________________ सूत्र १२४-१२८ चौदहवाँ 'गृहस्थपात्र में भोजन निषेध' स्थान संयमी जीवन [४६ जे नियागं ममायंति, कोयमुद्देसियाहङ । आमन्त्रित पिण्ड, निर्ग्रन्थ के निमित्त बरीदे हुए, निर्ग्रन्थ के वह ते समजागति. ६३ भुतं महेसाणा ।। निमित्त बनाये गमे, सम्मुख लाये गये आहार आदि को जो साधु ग्रहण करते हैं ये प्राणि-वध का अनुमोदन करते हैं। ऐसा महर्षि महावीर ने कहा है।। तम्हा असणपाणाई कोयमुद्दे सियाहां। __ इसलिए धर्मपूर्वक जीवन व्यतीत करने वाले स्थितात्मा यज्जयंति ठियप्पाणो, निग्गंथा धम्मजीविणा ।। निबन्ध मुनि श्रीत, औद्देशिक और आहृत अशन, पान आदि -दस. अ. ६, गा. ४६-४६ का वर्जन करते हैं। चोदसमं 'गिहि-मायण-अभुजणं' ठाण-- चौदहवां 'गृहस्थपात्र में भोजन निषेध' स्थान१२५. फंसेमु कंसपाएसु, कुंडमोएषु या पुगो । १२५. जो मुनि गृहस्थ के कांसे के प्याले में, कांसे के पात्र में भंजतो असणपाणाई. आयारा परिभस्सइ। और मिट्टी के बर्तन में आहार पानी भोगता है वह श्रमण के आचार से भ्रष्ट होता है। सीओदनसमारंभे, भत्तधोयणटुणे । बर्तनों को सचित्त जल से धोने में और बर्तनों के धोए हुए जाई छन्नति भूयाई, विठ्ठो तत्थ असंजमो ।। पानी को अयतनापूर्वक डालने में प्राणियों की हिंसा होती है अतः पृहस्थ के बर्तन में भोजन करने में तीर्थबरों ने असंयम देखा है। पच्छाकम्म पुरेकम्म सिया तत्थ न कप्पइ । गृहस्थ के बर्तन में भोजन करने से पश्चात कर्म' और एयमढ़ न मुंजंति, निग्गंधा गिहिभायणे ।। 'पूर्वकर्म" दोष लगने की सम्भावना रहती है। वह निम्रन्थ के - दस. अ. ६. रा. ५८-५२ लिए कल्प्य नहीं है इसलिए वे गृहस्थ के बर्तन में भोजन नहीं करते। गिहिमत्ते भोयण करणरस पायच्छित्त-सुतं गृहस्थ के पात्र में भोजन करने का प्रायश्चित्त सूत्र१२६. जे भिक्खू गिहमत्ते भुंजइ, भुजंतं वा साइज्जइ । १२६. जो भिक्षु गृहस्थ के पात्र में आहार करता है. आहार करवाता है या आहार करने वाले का अनुमोदन करता है। तं सेवमाणे आवजह चाउम्मासिय परिहारद्वाणं उग्घाइयं ॥ उसे चातुर्मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) ___--नि. उ. १२, सु. १० आता है। पण्णरसमं 'पलियंक-अनिसेज्ज' ठाणं पन्द्रहवा 'पल्यंक निषद्या वर्जन' स्थान१२७. आसंदीपलियंकेमु, मंचभासालएसु वा । १२७. बेंत आदि की कुर्सी, पलंग, खांट और आराम कुर्सी अणायरियमज्जाणं, आसइत्त सइत्तु वा ॥ आदि पर बैठना या सोना साधुओं के लिए अनाचार रूप है। नासंवीपलियंकेसु, न लिसेज्जा न पीढए । तीर्थकर भगवान की आज्ञा पालन करने वाले निग्रन्थ निग्गंयाऽपडिलेहाए, बुद्धवृत्तमहिलगा। आसन्दी, पलंग, आसन और पीढ़ का (विशेष स्थिति में उपयोग करना पड़े तो) प्रतिलेखन किए बिना उन पर न बैठे और न सोए। गंभीरविजया एए, पाणा दुप्पडिलेहगा। आसन्दी पलंग आदि गहरे छिद्र वाले होते है। इनमें आसंदीपलियंका य, एयमझें विवज्जिया ॥ प्राणियों की प्रतिलेखना करना कठिन होता है। इसलिए इन - दस. अ. ६, गा. ५३.५५ पर बैठना या सोना वजित किया है। गिही णिसेज्जाए णिसीयण पायच्छित्त-सुतं गृहस्थ की शय्या पर बैठने का प्रायश्चित्त सूत्र१२८. जे भिक्खू गिहिणिसेज्ज वाहेह, वाहेत वा साइन्मइ । १२८. जो भिक्षु गृहस्प के पल्पकादि पर बैठता है, विठाता है या बैठने वाले का अनुमोदन करता है। १ सूय. सु. १, अ.२, उ. २. गा. २० ।
SR No.090120
Book TitleCharananuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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