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________________ सुन्न ७७५-७७८ परोषह सहने का निर्देश बोर्याचार [३८५ एवमेगे उपासत्वा, मिच्छाविट्टो नयारिया। इस प्रकार कुछ मिथ्यादृष्टि अनार्य पार्वस्थ काम-भोगों में अशोदवना कामेहि, पूतणा इव तरुणए । बैसे ही आसक्त होते हैं 'जैसे भेड़ अपने बच्चे में। -सूय, मु. १, अ. ३, उ. ४, गा. ६-१३ जवसम्गसहण निद्देसो परीषह सहने का निर्देश७७६. संखाय पेसस धम्म, दिट्टिमं परिनिगरे । ७७६. सम्यग्दृष्टि सम्पन्न और प्रशांत भिक्षु पवित्र धर्म को जानअवसग्गे नियमित्ता, आमोक्खाए परिवएग्जासि ॥ __ कर मोक्षप्राप्ति तक उपसगों को सहता हुआ संयम में पराक्रम -सूय. सु. १, ३, उ. ४, गा. २२ करे । उवसगासहण फलं परीषह सहने का फल७७७, विवे व जे उचसग्गे, तहा तेरिन्छमाणसे । ७७७. जो भिक्षु देव, तियं च और मनुष्य सम्बन्धी उपसगों को जे भिक्खू सहई निच्च, से न अन्छाइ मण्डले ।। सदा सहता है, वह संसार में भ्रमण नहीं करता। -उत्त. अ. ३१. गा. ५ पंचेन्द्रिय विरतिकरण-४ शब्द की आसक्ति का निषेध७७८, श्रोत्रन्द्रिय के विषय को शब्द कहते हैं, जो शब्द राग का हेतु है उसे 'मनोज्ञ' कहा है। जो शब्द द्वेष का हेतु है उसे भमनोज्ञ कहा है। इन दोनों में जो समभाव रखता है वह वीतराग है। ___ शब्द के ग्रहण करने वाले को थोत्र कहते हैं, श्रोत्र से ग्रहण होने वाले को शब्द कहते हैं । राग के हेतु को समनोश शब्द कहा है। द्वेष के हेतु को अमनोज्ञ शब्द कहा है। सद्दामत्तिणिसेहो७७८. सोमस्स सई गहणं वयन्ति, तं रागहे तु मणुनमाह। तं बोसहेलं अमणुन्नमाहु, समो य जो तेसु स बीयरागो।। सद्दस्त सोयं गहणं वयन्ति, सोयस्स सह गहणं वयन्ति । रागस्त हे समग्रमा, दोसस्स हे अमणुनमाहु ।। सद्देसु जो गिडिमुवेइ तिव्वं, अकालियं पावई से विणासं । रागाउरे हरिणमिगे ष मुढे, सद्दे अहिले समुवेद मन्चं॥ जे यावि दोसं समुवेइ तिब्ध, तस्सिक्खणे से उउवेद दुक्खं । बुहन्तबोसेण सरण जन्तू, न किषि सह अवरज्मई से ।। एगन्तरते रहरंसि सद्दे, अतालिसे से कुणई पओस । दुक्खस्स संपीलमवेड बाले, न लिप्पई तेग मणी विरागो ।। १ सूय. सु. १, अ. ३. उ. ३, गा, २१ जिस प्रकार शब्दों में अतृप्त रागातुर मुग्ध हरिण मृत्यु को प्राप्त होता है उसी प्रकार मनोज्ञ माब्दों में जो तीव्र आसक्ति रखता है वह अकाल में ही विनाश को प्राप्त होता है। __ जो अमनोज्ञ शब्दों से तीव द्वेष करता है, वह उसी क्षण दुःख को प्राप्त होता है। इस प्रकार स्वयं के ही तीव्र द्वेष से प्राणी दुःखी होला है किन्तु उसके दुःखी होने में शब्द का कोई अपराध नहीं है। जो मनोहर शब्द में सर्वथा अनुरक्त रहता है और ममनोहर शब्द से तुष करता है, वह अज्ञानी दुःखों की पीड़ा को प्राप्त होता है। किन्तु विरक्त मुनि उनमें लिप्त नहीं होता।
SR No.090120
Book TitleCharananuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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