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परणानुपोंग-२
पूर्व पुरुषों के दृष्टान्त से संयम शिथिल मुनि
पुस्ख पुरिहिटतेण मंचोमुणी
पूर्व पुरुषों के दृष्टान्त से संयम शिथिल मुनि७७५, माहंसु महापुरिसा, पुखि तत्तलवोधणा।
७७५. कई अज्ञानी पुरुष कहते हैं कि-'अतीत काल में तात उवएग सिद्धिमावणा, तत्थ मंदे विसीयती ॥
तपोधनी महापुरुष सचित्त जल का मेवन आदि करते हुए सिद्धि को प्राप्त हुए हैं।' यह सोचकर मन्द भिक्षु अस्नान आदि प्रतों
में शिथिल हो जाता है। अभुंजिया जमी बेहो, रामजते य मुंजिया।
विदेह जनपद के राजा नमि ने भोजन छोड़कर, रामपुत्र ने बाहुए उदगं मोबा, सहा तारागणे रिसी। भोजन करते हुए तथा बाहुक और तारागण ऋषि ने केवल जल
पीते हुए सिद्धि प्राप्त की। आसिले वेविले चेव, दीवायग महारिसी ।
आसिल, देबिल, पायन और पाराशर आदि महषियों ने पारासरे वगंभीच्चा, बीयाणि हरियाणि य ।।
सचित्त जल, बीज और हरित का सेवन करते हुए सिद्धि प्राप्त
की। एते पुटवं महापुरिसा, आहिना इह संमता।
कई अन्यतीधिक कहते है कि-'अतीत में हुए ये महापुरुष मोपचा बीओवयं सिद्धा, इति मेयमणुस्सुतं ।।
जगत् प्रमिकको बीक है, इन्होंने सचित्त बीज और जल का सेवन कर सिद्धि प्राप्त की ऐसा हमने पर
म्परा से सुना है।' तस्थ मंदा विसीयति, वाहछिन्ना व गहमा ।
इस प्रकार के प्रांतिजनक वचनों को सुनकर मन्द भिक्षु पिट्टतो परिसप्पति, पोडसप्पी व संभमे ।। विषाद को प्राप्त होते हैं। वे भार से दुःखी होने वाले गधे की -सूय. सु. १, अ. ३, उ. ४, गा. १-५ भांति संयम में दुःख का अनुभव करते हैं तथा लकड़ी के सहारे
चलने वाले पंगु की भांति संयम में पीछे रह जाते हैं। इहमेंगे उ भासंति, सातं सातेण बिम्जती।
___ कुछ दार्शनिक कहते हैं -- 'सुख से ही सुख प्राप्त होता है' जे तत्य आरिवं मग, परमं च समाहियं ।।
किन्तु वास्तव में जो तीर्थ करों का प्रतिपादित मार्ग है उससे ही
परम समाधि प्राप्त होती है। मा एवं अवमन्नता, अप्पेणं तुम्पहा बहुं ।
तुम वीतराग मार्ग को छोड़कर मरूप सुखों के लिए मोक्ष के एलस्स अमोक्शाए, अयहारिव जूहा ।।
सुखों को बिगाड़ने वाले न बनो, क्योंकि अल्प सुखों को नहीं
छोड़ने से लोह वणिक् की तरह पश्चात्ताप करना पड़ेगा। पाणाइवाए वहन्ता, मुसावाए असंजता ।
__ शाश्वत सुखों के लिए विषय सुख न त्यागने वाले ही प्राणाअविनावाणे वट्टन्ता, भेटणे य परिग्महे ।। लिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन और परिग्रह से निवृत्त न
-सूय. सु. १, अ. ३, उ. २, गा. ६-८ होकर उनमें ही प्रवृत्त रहते हैं। एवमेगे तु पासत्या, पण्णवेति अणारिया।
स्त्रियों के वशवर्ती, अज्ञानी और जिनशासन से पराड मुख इत्थीवंसं गता बाला, जिणसासणपरम्महा ।। सन्मार्ग से भ्रष्ट कुछ अनार्य लोग इस प्रकार कहते हैजहा गं पिला वा, परिपोलेकज महत्त।
"जिस प्रकार गांठ या फोड़े को दबाकर मवाद को निकाल एवं विण्णवणिस्थीसु, बोसो तत्व कुतो सिया ।। देने से पौड़ा शांत हो जाती है उसी प्रकार सहवास के बाद
काम-पीड़ा शांत हो जाती है अतः इसमें क्या दोष है ? महा मयादए नाम, थिमितं भुंजती वर्ग ।
___जैसे भेड़ जल को हिलाये बिना धीमे से उसे पी लेती है, एवं विष्णवणिस्थीसु, बोसो तस्य कुतो सिया॥
वैसे ही प्रार्थना करने वाली स्त्री के साथ सहवास कर लिया
जाय तो उसमें दोष क्या है ? जहा विहंगमा पिया, थिमितं भुंजती दर्ग।
__ "जैसे पिंग नामक पक्षिणी आकाश में रही हुई ही जल को एवं विग्णवणित्यीमु, बोसो तत्य कुतो सिया ।।
क्षुब्ध किये बिना उसे पी लेली है, वैसे ही प्रार्थना करने वाली स्त्री के साथ सहवास कर लिया जाये तो उसमें दोष क्या है ?"