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________________ अप्रमत्त होकर आचरण करने का उपवेश अनाचार |१७९ उहरा वुड्डा य पासहा, गन्मत्था वि यंति माणया। बालक, बूढ़े और गर्भस्थ मनुष्य भी मृत्यु को प्राप्त हो जाते तेणे जह बट्टयं हरे, एवं आउखयम्मि तुती ।। है । जिस प्रकार बाज बटेर का हरण करता है. उसी प्रकार --सूथ, सु. १, अ. २, उ. १, गा, २ आयु के क्षीण होने पर मृत्यु जीवन का हरण करती है, जिससे जीवन सूत्र टूट जाता है। देवा गंधग्व-रक्खसा, असुरा मूमिचरा सिरोसिवा । देव, गन्धर्व, राक्षस, असुर, पातालवासी नागकुमार, राजा, राया नर-सेवि-माहणा, ठाणा से वि चयंति दुक्खिया ॥ जनसाधारण, श्रेष्ठी और ब्राह्मण--ये सभी दुःखपूर्वक अपने अपने स्थान से व्युत हो जाते हैं। कामेहि य संथवेहि य, गिद्धा कम्मसहा कालेण जंतवो। विषय-मोगों की तृष्णा में तथा माता-पिता, स्त्री, पूत्र, ताले जह बंधणच्चुते, एवं आउलयम्मि तुती॥ आदि परिचितजनों में आसक्त रहने वाले प्राणी कर्मफल के उदय --मूव. सु. १, अ. २, २. १, गा. ५-६ के समय अपने कर्मों का फल भोगते हुए आयु के टूटने पर ऐसे गिरते हैं, जैसे बन्धन से टूटा हुजा तालफल नीचे गिर जाता है। अरई गणं विसूइया, आयंका विविहा फुसन्ति से। पित्त-रोग, फोड़ा-फुन्सी, हैजा और विविध प्रकार के भीत्रविहार विशंसह ते सरीरयं, समय गोयम ! मा पमायए । घाली रोग शरीर का स्पर्श करते हैं, जिससे यह शरीर शक्तिहीन –उत्त, अ.१०, गा. २७ होकर नष्ट होता है, इसलिए है गौतम ! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर। अपमत्तचरण उवएसो अप्रमत्त होकर आचरण करने का उपदेश३६१. मुत्तेसु यावि पडिबुस जीवी, ३६१. आशुप्रज्ञ पंडित सोए हुए व्यक्तियों के बीच भी जागत न पीससे पण्डिए आसु-पन्ने । रहे । प्रमाद में विश्वास न करे । मुहूर्व क्रूर है, पारीर निर्बल घोरा मुहता अवलं सरीरं, है। यह विचार करता हुआ भारण्ड पक्षी की भांति अप्रमत्त मारण्ड-पक्ली व चऽपमत्तो ।। होकर विचरण करे । परे पयाई परिमंकमाणो, पग-पग पर संयम के दोषों से भय स्वाता हमा, थोड़े से दोष जं किचिपासं इंह मणमाणो । को भी दन्धन रूप मानता हुआ चले । जब तक ज्ञान आदि का लामन्तरे जीविय बहइत्ता, लाभ हो तब तक आहार आदि के द्वारा इस शरीर का रक्षण पच्छा परिणाय मलावधंसी ॥ करता रहे। इसके बाद शरीर का अन्त जानकर अनशन के द्वारा कर्म मल को दूर करे। छन्दं निरोहेण उबेद मोक्वं, कवच युक्त सुशिक्षित घोड़े की तरह स्वच्छन्दता का निरोध आसे जहा सिक्खिय-बम्मधारी। करने वाला मुनि पूर्वो या वर्षों तक अप्रमत्त होकर विचरण पुठवाई यासाई चरेऽपमतो, करता है, वह भीन्न ही मोक्ष को प्राप्त होता है। तम्हा मूणो खिम्पमुवेद मोक्वं ॥ स पुरवमेयं न लमेज पच्छा, जो पूर्व जीवन में अप्रमत्त नहीं होता, वह पिछले जीवन में एसोवमा सासय - बाइयागं । भी अप्रमत्त नहीं हो सकता। "पिष्ठले जीवन में अप्रमत्त हो बिसीयई सिढिले आउमि, जायेंगे" ऐसा निश्चय-वचन शाश्वतवादियों के लिए ही उचित कालोवणीए सरीरस्स मेए । हो सकता है। पूर्व जीवन में प्रमत्त रहने वाला आयु के शिथिल होने पर, मृत्यु के द्वारा गरीर-भेद के क्षण उपस्थित होने पर विवाद को प्राप्त होता है। सिप्पं न सके। विषेगमेऊ, कोई भी मनुष्य विवेक को तत्काल प्राप्त नहीं कर सकता। तम्हा समुदाय पहाय कामे। इसलिए काम-भोगादि विषयों का परित्याग करके संयम में उद्यत समिच्च लोयं समया महेसी, होकर लोक के प्राणियों को आत्मा के ममान समझकर उनकी अप्पाण-रक्सी घरेपमतो।। तथा आत्मा की रक्षा करता हुआ महर्षि अप्रमत्त होकर विचरण -उत्त. अ. ४, गा, ६-१० करे।
SR No.090120
Book TitleCharananuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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