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________________ सूत्र ६६७ विहा कहा पण्णत्ता, तं जहा - १. अक्लेवणी, २. विक्वणी, ३. संगणी, ४. निवेज्जणी । अश्लेषण कहा चउबिहा पण्णत्ता, तं जहा१. आयार अवणी, २.बहाणी २. पति अवणी, ४. दिट्टिवाय अक्लेवणी । मिक्लेषणी कहा चउविहा पण्णत्ता, सं जहा१. ससमयं कहेति, ससमयं कहता, परसमयं कति, २. परमकता, समर्थ हायतिता भवति, ३. सम्मावतं कति सम्मायातं कहेत्ता, मिच्छा वातं कहेति, ४. मिन्छाया कहेता, सम्मवावं ठावतित्ता भवति । संवेगभी कहा हाणला जा १. संगणी २. परलोपसंवेगणी, ३. आतसरीरसंबंधणी, ४. परसरीरसंवेगणी । णिवेणी कहा चढविहा पण्णत्ता, तं जहा १. होगे दुचिमा कम्मा इहलोगे फसविवागता मति २. इहलोगे बुन्चिला कम्मा परलोगे दुहफलविवागसंसा भवंति, कथा के मेद संपाचार कथा चार प्रकार की कही गई है, यथा- (१) आक्षेपणी- ज्ञान और चारित्र के प्रति आकर्षण उत्पन्न करने वाली कथा | (२) विक्षेपणी-सत्मार्ग की स्थापना करने वाली कथा | (३) संवेगनी जीवन की नश्वरता और दुःख बहुलता दिखाकर वैराग्य उत्पन्न करने वाली कथा | ४७ (४) निधीकृत कर्मों के शुभाशुभ दिवाकर संसार के प्रति उदासीन बनाने वाली कथा । आक्षेपणी कथा चार प्रकार की कही गई है। यथा (१) आचार आक्षेपणी- साधु और श्रावक के आचार का वर्णन वाली । (२) व्यवहार माक्षेपणीतों के दोष लगने पर का वर्णन करने वाली । (२) प्रक्षेपणीयग्रस्त श्रोत को मधुर दनों से उपदेश देकर संशय दूर करने वाली । (४) दृष्टिपात आक्षेपणी - श्रोता की योग्यता के अनुसार विविध नवों (ष्टियों से तत्व का विणकरने वाली । विक्षेपणी कथा चार प्रकार की कही गई है, यथा(१) वक्ता अपने सिद्धांत का कथन कर फिर दूसरों के सिद्धांत का कथन करता है । - (२) दूसरों के सिद्धांत का कथन कर फिर अपने सिद्धांत की स्थापना करता है । (३) वक्ता सम्यग्वाद का कथन कर फिर मिथ्यावाद का कथन करता है । (४) वक्ता मिथ्यावाद का कथन कर फिर सम्यग्वाद की स्थापना करता है । संवेगनी कथा चार प्रकार की कही गई है, यथा (१) इहलोक संवेगनी - मनुष्य जीवन को असारता तथा अनित्यता दिखाने वाली कथा । (२) एश्लोक संवेगनी - देवादि भवों में जो नाना प्रकार के दुःखों का अनुभव करते हैं उनकी कथा । (३) आम शरीर संबेगनी - अपने शरीर की अशुचिता का प्रतिपादन करने वाली कथा । (४) परवशरीर संवेगनी दूसरे के शरीर की अशुचिता का प्रतिपादन करने वाली कथा | निवेदनी कथा चार प्रकार की कही गई है, यथा (१) इस लोक में किये हुए दुष्कर्म इसी लोक में दुःखरूप फल देने वाले होते हैं। (२) इस लोक में किये हुए दुष्कर्म परलोक में दुःखरूप फल देने वाले होते हैं।
SR No.090120
Book TitleCharananuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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