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१८] चरणानुयोग – २
२४. अतवस्सीए के केह तवेण पविकल्प । सयपरे तेथे महामोहं
॥
२४. साहारणट्टा जे केद्र, गिलामम्मि उवट्टिए । प न कुण किक्वं मयपि से न कुब्बइ ॥ स नियत्री पण्णा, लुसाउन चेयसे । अपणो य अ मोहीए, महामोहं पकुब्वड |
२६. जे कहागिरणाई, संपउने पुणो पुगो । ess तित्याण- भेयाए, महामोहं पकुब्बई] ॥
२७. जोए संपले पुणो-गो सहा- हे सही-हेजं, महामोहं पकुब्बइ ||
२.
परसोइए । सेऽतप्ययं तो आसयह, महामोहं पकुब्बइ ॥
२. बोबो देवानं बलवरियं । सेसि अवश्भव भाले, महामोहं पकुष्वह ॥
३०. पासमान पस्थामि देवे जनचे व ज्ये अण्णानी जिन-पूड़ी, महामोहं पकुव्व ॥
एते मोहगुणा बुत्ता, कम्ता बिस-बढ़ना । भिन्नमा परिसमवे ॥
जे
जावं, कि गई। हालागि सेविका, जेहि जायाचं सिया ||
आयार ती सुद्धप्पा, धम्मे ठिया अणुतरे । ततो मे सए दोसे, विसमासीविलो जहा ॥
तीस महामोहनीय स्थान
।
सुचत्त-दोसे सुप्पा, धम्मट्टी विदितायरे लगते किलि, पेचया सुरात बरे ।
सूत्र ३७०
(२४) जो उपरवी नहीं होते हुए भी अपने आपको तपस्थी कहता है वह इस विश्व में सबसे बड़ा चोर है, मोहनीय कर्म का बन्ध करता है ।
अतः वह महा
(२५) जो समर्थ होते हुए भी रोगी की सेवा का महान् कार्य नहीं करता है अपितु "मेरी इस सेवा नहीं की है अतः मैं भी इसकी सेवा क्यों इस प्रकार कहता है वह महामूर्त मायावी एवं मिध्यात्वी कति पित होकर अपनी आत्मा का बहित करता है ऐसा व्यक्ति महामोहनीय कर्म का अन्ध करता है ।
(२६) चतुविध संघ में मतभेद पैदा करने के लिए जो काह के अनेक प्रसंग उपस्थित करता है वह महामोहनीय कर्म का बंध करता है।
(२७) जो श्लाबा या के लिए अवानिक योग करके सीकरणादि का बारदार प्रयोग करता है वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है ।
(२०) जो मानुषिक और देवी भोगों की दृष्टि से उनकी बार-बार अभिलाषा करता है वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है ।
(२९) जो व्यक्ति देवों को ऋद्धि चति न वर्ग और बल-वीर्य का अवर्णवाद बोलता है वह महामोहनीय कर्म का बंध करता है।
(२०) जो शादी जिनदेन की पूजा के समान अपनी पूरा का इच्छुक होकर देव, यक्ष और असुरों को नहीं देखता हुआ भी कहता है कि "मैं इन सबकी देखता हूँ" वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है ।
ये मोह से उत्पन्न होने वाले अशुभ कर्म का फल देने वाले, जितकी मलीनता को बढ़ाने वाले दोष कहे गये है अतः भिक्षु इनका आचरण न करे किन्तु वागावेषी होकर विरे पूर्व में किये हुए अपने स्मारयों को आनकर उनका पूर्ण रूप से परित्याग करे और उन संयम स्थानों का सेवन करे जिनसे कि वह भाचारवान् बने ।
जो भिक्षु पंचाचार के पालन से सुरक्षित है, शुद्धात्मा है और अनुत्तर धर्म में स्थित है, वह अपने दोषों को त्याग दे जिस प्रकार माशीविष सर्प विष का वमन कर देता है ।
इस प्रकार दोषों को त्याग कर शुद्धात्मा धर्मार्थी भिक्षु मोक्ष के स्वरूप को जानकर इस लोक में कीति प्राप्त करता है और परलोक में वह मुगति को प्राप्त होता है।