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________________ सूष ३७० तीस महामोहनीय स्थान अनाचार [१५७ अपणो अहिए बाले, मायामोस बहुं मसे । इत्थी-विसयोही य, महामोहं पकुष्पा ।" १३. निस्सिए उम्बहा, जस्साहिगमेण वा। तस्स सुरमा वित्तम्मि, महामोहं पकुम्बइ ।। १४. ईसरेण अनुवा गामेणं, अणीसरे ईसरीकए। तस्स संपय-होणम्स, सिरी अतुलमागया ।। ईसा-बोसेण मावि, कलुसाविल - अपसे । जे अंतरायं चेएइ, महामोह पकुष्याइ ।। १५. सप्पी नहा अंग्स, मत्तार.जो विहिंसह 1 सेनाबई पसरयार, महामोह पकुव्वद ।। १६. जे नायगं च रस्त नेयार निगमस्स वा । सेष्टि बहुरवं हता, महामोहं पकुम्वइ ।। १७. बनुजणस्स गेयारं, दोवत्ताणं च पाणिणं । एयारिसं नरं हता, महामोहं पकुरुवइ ।। बेसुरा बकता है और अपनी आत्मा का अहित करने वाला वह मूर्ख माया युक्त झूठ बोलकर स्त्रियों में आसक्त र ता है वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है। (१३) जो जिसका शाश्रय पाकर आजीविका कर रहा है और जिसकी सेवा करके समृश हुआ है उसी के धन का अपहरण करता है वह महामोहनम्य कर्म का बन्ध करता है। (१४) जो किसी स्वामी का या ग्रामवासियों का आश्रय पाकर उच्च स्थान को प्राप्त करता है और जिनकी सहायता से सर्व साधन सम्पन्न बना है यदि ईयो युक्त एवं कलुषित चित्त होकर उन आश्रयदाताओं के लाभ में वह अन्तराय उत्पन्न करता है तो महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है। (११) सपिणी जिस प्रकार अपने ही अण्डों को खा जाती है उसी प्रकार जो पालन कर्ता, सेनापति तथा कलाचार्य या धर्माचार्य को मार देता है वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है। (१६) जो राष्ट्रनायक को, निगम के नेता को तथा लोकप्रिय श्रेष्ठी को मार देता है वह महामोहनीय कर्म का बन्ध ता । (१०) जो अनेक जनों के नेता को तथा समुद्र में द्वीप के समान अनाथ जनों के रक्षक को मार देता है वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है। (१८) जो पापों से विरत दीक्षार्थी को और तपस्वी साधु को धर्म से भ्रष्ट करता है वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है। (१९) जो अज्ञानी अनन्त ज्ञान-दर्शन सम्पन्न जिनेन्द्र देव का अवर्णवाद निन्दा करता है वह महामोहनीय कर्म का बन्च करता है। (२०) जो दुष्टात्मा अनेक भव्य जीवों को न्याय मार्ग से भ्रष्ट करता है और न्यायमार्ग की द्वेषपूर्वक निन्दा करता है यह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है। (२१) जिन आचार्य या उपाध्यायों से श्रुत और आचार ग्रहण किया है उनकी ही जो अवहेलना करता है वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है। (२२) जो व्यक्ति आचार्य उपाध्याय की सम्पक प्रकार से सेवा नहीं करता है तथा उनका आदर सत्कार नहीं करता है और अभिमान करता है वह महामोहनीय कर्म का बंध करता है। (२३) जो बहुश्रुत नहीं होते हुए भी अपने आपको बहुश्रुत, स्वाध्यायी और गास्त्रों के रहस्य का ज्ञाता कहता है वह महाभोहनीय कर्म का बन्ध करता है। १८. उष्ट्रिय पशिविरय, संजय सुत्तस्सियं । विक्कम्म धम्माओ अंसेइ, महामोह पकुम्बइ ।। १६. तहेवाणत - गाणोणं, जिणानं घरवंसिणं । तेसि अवण्ण बाले, महामोहं पकुव्वा ।। २०. नेयाइअस्स मग्गस्स, बुट्ट अवयरह बहुं। तं तिप्पयन्सो भावेह, महामोहं पकुष्वद ॥ २१. आवरिय-उपमाएहि, सुपं विणयं च गाहिए। से चंब खिसा बास, महामोहं पफुव्वइ ॥ २२. आयरिय-उबजमायाणं, सम्म नो पडितप्पह । अप्पजिपूयए यद्ध, महामोहं पहुवह ॥ २३. अबष्नुस्सुए य जे केई, सुएणं पत्रिकस्याह । समाय - वायं वयइ, महामोहं पकुवा ।।
SR No.090120
Book TitleCharananuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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