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________________ १८६ धरणामुयोग-२ तीस महामोहमीय स्थान "एवं खलु अम्जो! तीसं मोहणिज्ज-सापाई जाई इमाई "हे मार्यो ! जो स्त्री या पुरुष इन तीस मोहनीय स्थानों इस्थी वा पुरिसो वा अभिक्खणं अभिनसर्ग आपारेमाणे या, का सामान्य या विशेष रूप से पुनः पुनः आचरण करते हैं वे समायारेमाणे वा मोहणिज्जताए कम्मं पकरेइ" तं जहा- मोहनीय कर्म का बन्ध करते हैं ।" वे इस प्रकार हैं--- १. जे केइ तसे पाणे, धारिममा विगाहिला । (१) जो कोई त्रस प्राणियों को जल में डुबोकर या प्रचण्ड उवएणाकम्म मारेड, महामोहं पकुष्वद ।। वेग वाली तीन जलधारा डालकर उन्हें मारता है वह महा मोहनीय कर्म का अन्ध करता है। २. पाणिणा संपिहिसाणे, सोयभावारिय पाणिणं । (२) जो प्राणियों के मुंह, नाक आदि श्वास लेने के द्वारों अंतो नबंतं मारेड, महामोहं पकुव्वद ।। को हाथ आदि से अवरुख कर अव्यक्त शब्द करते हुए प्राणियों को मारता है वह महामोहनीय कर्म बांधता है। ३. जायतेयं समारब्म, बहु ओलम्पिया जणं। (३) जो अनेक प्राणियों को एक घर में घेर कर अग्नि के अंतो धूमेणं मारेड, महामोह पकुवह ॥ धुएं से उन्हें मारता है वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है। ४. सीसम्मि जो पहणड, उत्तमगम्मि चेयसा । (४) जो किसी प्राणो के उत्तमांग-शिर पर शस्त्र से प्रहार विभवन भत्थर्य फाले, महामोहं पकुम्बा ।। कर उसका भेदन करता है वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है। ५. सीसं बेढणले केह, आवेढेइ अभिक्खणं । (५) जो तीव अशुभ परिणामों से किसी प्राणी के सिर को तिवासुम • समावारे, महामोहं पकुबह ॥ गीले चर्म के अनेक देस्टनों से वेष्टित करता है वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है। ६. पुणो-पुणो पणिहिए, हगिता उवहसे जणं । (६) जो किसी प्राणी को धोखा देकर के भाले से या हंडे फलेण अदुव वशेण, महामोह पकुम्बइ ।। से मारकर हँसता है वह महामोहनीय कर्म का नन्ध करता है। ७. गृहागरी निमूहिाजा, मायं मायाए छामए । (७) जो गूढ आचरणों से अपने मायाचार को छिपाता है, असच्चवाई गिव्हाइ, महामोहं पकुम्बइ ।। असत्य बोलता है और सूत्रों के यथार्य अर्थों को छिपाता है वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है। ५. धंसेर जो अमूएण, अफम्म असकम्मुणा । (E) जो निर्दोष व्यक्ति पर मिथ्या आक्षेप करता है, अपने अदुवा सुमकासित्ति, महामोहं पकुवाइ ।। दुष्कर्मों का उस पर आरोपण करता है अथवा तूने ही ऐसा कार्य किया है इस प्रकार दोषारोपण करता है वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है। ९.जाणमाको परिसाए, सच्चामोसाणि भासए । (E) जो कलहशील है और भरी सभा में जान-बूझकर अक्खीण सं-पुरिसे, महामोह पकुवा ।। मिश्र भाषा बोलता है वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है। १०. अणायगस्स नयवं, बारे तस्सेब धंसिया । (१०) जो कूटनीतिज्ञ मंत्री राजा के हितचिन्तकों को विजसं विक्लोमइत्ता, किरचा णं परिवाहिर ।। भरमाकर या अन्य किसी बहाने से राजा को राज्य से बाहर उवगसंतंपि, मंपित्ता, परितोभाहिं वाहि । भेजकर राज्य लक्ष्मी का उपभोग करता है, रानियों का शील मोग-भोगे विचारे, महामोह पकुम्बई ॥ खण्डित करता है और विरोध करने वाले सामन्तों का तिरस्कार करके उनके भोग्य पदार्थों का विनाश करता है वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है। ११. अकुमारभूए जे फे, "कुमार-मूए तिह"वए । (११) जी बालब्रह्मचारी नहीं होते हुए भी अपने आपको इस्थी - विसप - सेवी य, महामोहं पला ।। बालब्रह्मचारी कहता है और स्त्री विषयक भोगों में एक होता है, वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है। १२. अभयारी ने केई, "भयारी तिह" वए। (१२) जो ब्रह्मचारी नहीं होते हुए भी "मैं ब्रह्मचारी हूँ" गहहेब गवां मन्न, विस्सरं नया नवं ।। इस प्रकार कहता है वह मानों गायों के बीच गधे के समान
SR No.090120
Book TitleCharananuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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