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सदाचरण : एक बौद्धिक विमर्श
-प्रो० सागरमल जैन
नाम प्रकृति
के निम्नतम स्तर (सप्तम नरक) को प्राप्त कर सकता है, तो मनुष्य विश्व में घेष्ठतम प्राणी है, उससे श्रेष्ठ अन्य दुमरी और आध्यात्मिक विकास के द्वारा मुक्ति के परम साध्य को छ भी नहीं है। फिर भी मानव-अस्तित्व जटिल Complexi, प्राप्त कर सकता है। गनुष्य की इस आध्यात्मिक विकास यात्रा विरोधाभासपूर्ण (Paradoxical) और बह-आयामी (Multi- को धर्म के नाम से अभिहित किया जाता है। dimensionel) है । मनुष्य मात्र जैविक संरचना नहीं है, उसमें मानव को विकास यात्रा का सोपान : धर्म विवेकात्मक चेतना भी है। परोर और चेतना यह हमारे अस्तित्व सामान्यतया आचार और व्यवहार के कुछ विधि-विधानों के
के मुख्य दो पक्ष हैं। पारीर से बासना और देतना से विवेक का परिपालन को धर्म कहा जाता है। धर्म हमें यह बताना है कि । प्रस्फुटन होता है। मनुष्य की यह विवशता है कि उस वामना यह करो और यह मत करो; किन्तु आचार के इन बाह्य
और विवेक के इन दो स्तरों पर जीवन जीना होता है। उसके नियमों के परिपालन मात्र को धर्म मान लेना भी एक भ्रान्ति ही सामने पारीर अपनी माम प्रस्तुत करता है, तो विबेक अपनी मांग है। आचार और व्यवहार के बाह्म नियम धर्म का शरीर तो प्रस्तुत ! रता है। एक और उसे दैहिक आवश्यकताओं की पूर्ति अवश्य है, किन्तु वे धर्म की आत्मा नहीं है। धर्म की आत्मा तो करनी होती है, तो दूमरी ओर विवेक द्वारा निर्धारित जीवन उस विवेकपूर्ण जीवन-दृष्टि अथवा समसारूपी साध्य की उपलब्धि जीने के कुछ आदर्शो का परिपालन भी करना होता है। वासगा में निहित होती है, जो आचार और व्यवहार के इन म्युन नियमों और विवेक के संघर्ष को झेलना यही मानव की नियति है। यद्यपि का मूल हार्द है। यही विवेकपूर्ण जीवन-दृष्टि ही आचार-व्यवहार जीवन जीने के लिए शारीरिक मांगो को पूर्णन: ठुकराया नहीं जा की उन मर्यादाओं एब विधि-निषेधों को मृजक है, जो वैयक्तिक सकता है, किन्तु एक विवेकशील पाणी देसा में मनग्य का यह और मामाजिक जीवन में ममता और पान्ति के संस्थापक है और दायित्व बनता है कि वह अन्ध वागनाचालित जीवन में पर जिन्हें गामान्यतया धर्म या सदाचार के नाम से जाना जाता है। उठे । बासनात्मक आवेगों से मुक्ति पाना, यही मानव जीवन का वैविक एवं श्रमण धर्म-परम्पराएं और उनका वैशिष्ट्य मक्ष्य है। जहां पशु गा जीवन-व्यवहार पूर्णत: जैविक-वासनाओं भारतीय धर्मों को मुख्य रूप से वैदिक और श्रमण इन दो से नियन्त्रित होता है, वहां मनुष्य की यह विशेषता है कि यह वर्गों में विभाजित किया जाता है । इस विभाजन का मुल आधार विवेक तस्व के द्वारा अपने बामनात्मक जीवन पर भी नियन्त्रण उनकी प्रवृत्तिलक और निवृत्तिमूनक जीवन हटियां हैं. जो कर सकता है और इसी में मानवीय आत्मा में अनुस्पूत स्वतन्त्रता क्रमशः वासना और भावावेग पानित जैविक मूल्यों एव की अभिक्ति है। पशु का जीवन व्यवहार पूर्णतः प्रकृति के जनित आध्यात्मिक मूल्यों पर आधारित हैं । सामान्यतया वैदिक माधयान्त्रिक नियमों से चालित होता है. अतः वह परतन्त्र है; धर्म को प्रवृत्तिमूलक और श्रमण धर्मों को निवृत्तिमूलक कहा पबकि मनुष्य प्रकृति के यान्त्रिक नियमों से ऊपर उठकर जीवन जाता है । यद्यपि आज वैदिक और धमण धमों की विविध जीवित गौने की क्षमता रखता है, अतः उसमें स्वतन्त्रता या मुक्त होने परम्पराओं के बोच प्रवृत्ति और निवृत्ति के इन आधारों पर कोई की सम्भावना भी है। पत्री कारण है कि जहाँ पशु जीवन में विभाजक रेखा खींच पाना कठिन है क्योंकि आज किमी भी धर्मविकास और पतन की सम्भावना अत्यात सीमित होती है, वहाँ परम्परा या धर्म सम्प्रदाय को पूर्ण रूप से प्रवृत्तिमूलक या मनुष्य में विकास और पतन की अनन्त सम्भावनाएं हैं। वह निवृत्तिमूलका नहीं कहा जा सकगा है। जहाँ एक ओर वैदिक धर्म विकास की दिशा में आगे बढ़े तो देवत्व से ऊपर उठ सकता है में ओपनिषदिक चिन्तन के काल से ही निवृतिमूलक तत्व प्रविष्ट
और पसन की दिशा में नीचे गिरे तो पशु से भी नीचे गिर मक्ता होने लगे और वैदिक वर्म-काण्ड, पहलौकिकवाद एवं भोगवादी है। इसे जैन धर्म की भाषा में कई तो मनुष्य ही त्रिव में मा जीवनदृष्टि गमालोचता का विषय बनी; वहीं दूसरी और श्रमण प्रागी, जो एक बोर माध्यात्मिक पनन के द्वारा नारकीय जीवन परम्पराओं में भी धर्म-गंधी की म्यापना के गाव ही गंध और