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सूत्र १३६-१४४
अज्ञानी भ्रमण की गति
संयमी जीवन
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एगंतकडेण उ से पलेइ,
बह मदलिप्त साधु एकान्तरूप से गोहरूपी कूटपाम में फंस ग विग्जती मोणपरसि गोत्ते। कर संमार में परिभ्रमण करता है, तथा जो सम्मान प्राप्ति के जे माणगळेण विउक्सेज्मा,
लिए संयम, तपस्या, ज्ञान आदि में विविध प्रकार का मद करता वसुमणतरेण अबुद्धप्रमाणे ॥ है, वह संयम पथ में स्थित नहीं है। वास्तव में संयम' लेकर जो
जानादि का मद करता है, वह परमार्थतः सर्वज्ञ-गार्ग को नहीं
जानता। जे माहणे जातिए खत्तिए वा;
जो ब्राह्मण, क्षत्रिय, उग्र अथवा लिच्छवीवंगी है जो प्रत्रजित तह उमापुत्ते तह लेखमती वा। होबर परदत्तभोजी है, जो मभिमान योग्य (उच्च) गोत्र का मद जे पब्बढ़ते परदत्तमोई,
नहीं करता है, वही सर्वजोक्त मथातथ्य चारित्र में प्रवृत्त गोते ण जे वन्मति माणबद्ध । साधु है। ण तस्स जाई व कुलं प ताणं.
भलीभांति प्राचरिता ज्ञान और चारित्र के सिवाय अन्य यात्म विजा-घरणे सुचिणं । जाति कुल आदि दुर्गति से उसकी रक्षा नहीं कर सकते। जो णिक्खम्म जे सेवइगारिकम्म,
प्रवज्या सेकर फिर गृहस्थ के कर्मों (साबध कार्य) का सेवन __ण से पारए होइ विमोयणाए। भारता है वह कर्मों से विमुक्त होने में समर्थ नहीं होता ।
-सूय. सु. १, अ. १३, गा, २-११ अण्णाणी समणस्स गई -
अज्ञानी श्रमण की गति१४०. समणा मु एगे वयमाणा. पाणवह मिया अपागन्ता । १४०. कुछ पशु को भाँति अनानी पुरुप 'हम श्रमण है" एमा भन्दा निरयं गच्छन्ति, बाला पावियाहिं दिट्ठीहि ॥ कहते हुए भी प्राणवध को नहीं जानते। वे मन्द और बालगुरुष
- उत्स. अ. ८, गा.७ अपनी पापमयी दृष्टियों से नरक में जाते हैं। भिक्खुस्स अहिंसा फलं
भिक्षु के अहिंसा का परिणाम -- १४१. पाणे य नाइनाएज्ना, से "समिए" ति वुरचई ताई। १४१ जो जीवो की हिंसा नहीं करता वह माधक गमित" तओ से पावयं कम्म, निज्जाइ उवगं व यलाओ ।। सम्यक् प्रवृत्ति वाला कहा जाता है। उस आत्मा से पान-कर्म
- उत्त. ज. ८, गा. वैसे ही निकल जाता है जैसे ऊँचे स्थान से जल । भिक्खुस्स हिसाणुमोयण फलं
भिक्षु के हिंसानुमोदन का फल - १४२. "न पाणवह अणजाणे, मुच्चेज्ज कयाद सन्चदुक्खाणं"। १४२. जिन्होंने साधु धर्म की प्ररूपणा की है, उन बायं पुरुषों ने एषारिएहि अक्खाय, जेहिं इमो साधम्मो पणतो। ऐसा कहा है कि-"जो प्राणवध का अनुमोदन भी करता है,
-उत्त, अ. भा. ८ वह कभी भी सत्र दुःखों से मुक्त नहीं हो सकता।" भोगासत्ति परिणामो--
भोगासक्ति का परिणाम - १४३ भोगामिसदोसविसणे हियनिहसेयस बुद्धिवोच्चस्थे। १४३. आत्मा को दूषित करने वाले, आमिषरूप भोगों में माले म मन्दिए मूढे, बग्नई मच्छिया व खेलमि।। निमग्न, हित और मोक्ष के विषय में विपरीत बुद्धि रखने वाला,
- उत्त, अ. , गा, ५ अज्ञानी, मन्द और मून जीन कर्मों से वैसे ही बंध जाता है,
जैसे प्लेष्म में मक्खी। सुबयाणं संसारतारो--
सुव्रती साधु का संसार पार - १४४. बुपरिच्चया इमे कामा, नो सुजहा अधीरपुरिहि । १५४. इन काम-भोगों का त्याग दुष्कर है, अधीर पुरुषों के अह सन्ति सुरुवया साहू, जे तरन्ति अतरं वणिया व ॥ द्वारा कामभोर आसानी से नहीं छोड़े जाते । किन्तु जो सुबती
-उत्त. अ.८, गा. ६ साधु है वे दुस्तर काम भोगों को उमी प्रकार पार कर लेते हैं,
जैसे-वणिक समुद्रको ।