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________________ ५६] परमानयोग-२ मुखमन को और रुपमा जी सद्गति सूत्र १४५-१४६ कुसमणस्स दुग्गई सुसमणस्स सुग्गई. कुथमण की दुर्गति और सूक्ष्मण की सद्गति१४५. एपारिसे पंच कुसीलसंवुडे, रूपंधरे मणिपबराण हेट्रिमे । १४५. जो पुर्व वर्णित आचरण करने वाला, पाँच प्रकार के अयंसिलोए विसमेव गरहिए, न से इन्हें नेव परस्यलोए ॥ कुशीनों मे युक्त केवल मुनि के वेश को धारण करने वाला और --उत्त, अ. १७, गा. २० श्रेष्ठ मुनियों की अपेक्षा होन संयम वाला होता है, वह इम लोक में विष की तरह निदित होता है तथा उसके यह लोक और परलोक दोनों ही नहीं सुधरते । सहसायगरस समयस्स, सायाउलगस्स निगामसाहस्स। जो श्रमण इन्द्रिय सुख का इच्छुक, माता के लिए आकुल, उच्छोलणा पहोइस्स, दुल्लहा सुग्गइ तारिसगस्स ।। अधिक सोने याला और हाथ पर आदि को बार-बार धोने वाला -दम . अ. ४, गा. २६ होता है उसके लिए सुगति दुर्लभ है। चौराजिणं भगिणिणं जडी संघाडो मुंठिण। वस्त्र, चर्म, नम्नता, जटा धारण, गुदड़ी धारण, सिरमुंडन एयाणि विन तायंति वुस्सीलं परियागयं ॥ आदि दुःशील साधू को दुर्गति से रक्षा नहीं कर सकते । पिहोलए ध्व वुस्सीलो नरगाओ न मुच्चई। शिक्षाजीवी साधु यदि दुःशील है तो वह नरक से मुक्त भिक्खाए वा गिहत्ये बा सुट्यए कमई दिवं॥ नही हो सकता। भिक्षु हो या गृहस्थ यदि नह सुबती है तो - उत्त. अ. ५, गा. २१-२२ दिव्य गति को प्राप्त करता है । जे वज्जए एए सया उ बोसे, से सुब्बए होड मुणोणमउसे। जो इन पूर्वोका दोषों का मदा वजन करता है वह मनियों अपंसि लोए अमयं व पूइए, आराहए लोगमिणं तहापरं ॥ में मुरती होता है। वह इस लोक में अमृत की तरह पूजित -उत्त. अ. १७, गा. २१ होता है तथा इस लोक और परलोक दोनों लोक की आराधना करता है। मज्ज सेवणस्स विवज्जणस्सय परिणामो-. मद्य सेवन का और विवर्जन का परिणाम१४६ सुरं घर मेरग वा वि, अन्न वा मज्जग रसं । १४६. अपने संयम का संरक्षण करता हुआ भिक्षु सुरा, मेरक या ससक्खं न पिवे भिक्खू, जसं सारक्खमप्पणो। अन्य किसी प्रकार का मादक रस आरम साक्षी से न पीए। पिया एगइओ तेणे, न मे कोइ वियाणइ । जो मुनि मुझे कोई नहीं जानता (यों मोचता हुआ) एकान्त तस्म पस्सह दोसाई, नियदि च सुह मे ॥ में स्तेनवृनि से मादक रस पीता है. उसके दोषों को देखो और मायाचरण को मुझसे सुनो। बहई सौंडिया तस्स, मायामोसं च मिक्खणो। उस भिक्षु के उन्मलता, माया मृषा, अवय, अतृति और अयसो य अनिवाणं, सययं च असाहुया ।। मतत अमाधुता ये दोष बढ़ते हैं। निविगो जहा तेणो, अत्तकम्मेहि दुम्मई । नह दुर्मलि अपने दुष्कर्मों से चोर की भाँति सदा उद्विग्न तारिसो मरणते वि, नाराहेइ संवरं ।। रहता है। मद्यप मुनि मरणान्त-काल में भी मंदर की आराधना नहीं कर पाता। आयरिए नाऽऽराहेइ, समणे यावि तारिसो। ___वह न तो आचार्य की आराधना कर पाता है और न मिहत्व वि गरहंति, जेण जाति तारिस । श्रमणों की भी । गृहस्थ भी उसे मद्यप मानते हैं, इसलिए उसकी गहीं करते हैं। एवं तु अगुणप्पेही, गुणाणं च विवजओ । सकार अगुणो की प्रेक्षा (आसेवना) करने वाला और तारिसो मरणते वि, नाउराहेइ संवरं ।। गुणों को वर्जने बाला मुनि मरणान्त-काल में भी संबर की आराधना नहीं कर पाता। तवं कुम्वइ मेहावी, पणोयं वज्जए रस ! जो बुद्धिमान माधः प्रणीत रय युक्त भोजनों को छोड़कर मजपमायविरओ, तबस्सी उपकसो।। तपश्चर्या करता है, जो मद्य प्रमाद से विरत होता है। बह तपस्वी विकास मार्ग में आगे बढ़ता है।
SR No.090120
Book TitleCharananuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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