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________________ ७६] चरणानयोग -२ आचार्यावि से पूछकर चिकित्सा कराने का विधान सूत्र २०९-२१२ आयरियाइहि पुच्छित्ता तिगिच्छा विहाणं- आचार्यादि से पूछकर चिकित्सा कराने का विधान२०६. वासावासं पज्जोसविए भिक्खू इच्छिज्जा अरुणरि तेइच्छियं २०६. वर्षावास रहा हुआ भिक्ष किसी एक रोग की चिकित्सा आउट्टित्तए नो से कप्पह अणापुन्छित्ता आयरियं वा-जाव- कराना चाहे तो आचार्य -यावत-गणावच्छेदक अथवा जिसको गणावच्छेययं वा जं वा पुरा काउं विहारह । अगुजा मानकर वह विधर रहा हो उन्हें पूछे बिना चिकित्सा कराना नहीं कल्पता है। कप्पड़ से आपुसिछत्ता आयरियं दा-चाच-गणावच्छययं बा जं किन्तु आचार्य-यावत्-गणावच्छेदक अथवा जिसको वा पुरओ का विहरह। अगुआ मानकर वह विचर रहा हो उन्हें पूछकर ही चिकित्सा कराना कल्पता है। (आज्ञा लेने के लिए भिक्षु इस प्रकार कहे-) "इच्छामि गं भंते ! तुम्भेहि अब्मणुण्णाए समाणे अण्णयरि "हे भगवन् ! आपकी आज्ञा मिलने पर अमुक रोग की तेइच्छियं आउट्टित्तए" चिकित्सा करना चाहता हूँ।" ते य से वियरेज्जा, एवं से कम्पइ अण्णरि तेइच्छियं आज- यदि आपार्यादि आज्ञा दें तो चिकित्सा कराना कल्पता है। ट्टित्तए। ते य से नो बियरेज्जा, एवं से कप्पा अपणयरि तेइच्छियं यदि आचार्यादि आज्ञा न दे तो चिकित्सा कराना नहीं आउट्टित्तए। कल्पता है। प.-से किमाह भंते । प्र--हे भगवन् ! आपने ऐसा क्यों कहा? उ.-आयरिया पच्चवायं जाणंति। ज०-आचार्यादि आने वाली विघ्न-गाधाओं को जानते है । -दसा. द. ८, सु. ६३ पज्जोसवणाओ पर केस-रक्खण णिसेहो- पर्युषण के बाद केश रखने का निषेध२१०. वासावासं पज्जोसवियाणं नो कप्पड़ निग्गंधाण वा २१०. वर्षावास रहे हुए निर्ग्रन्थ-निन्थियों को पर्युषणा (संव निग्गंधीणं वा परं पज्जोसवाणाओ गोलोसम्पमाणमित्त वि तरारी) की रात्रि के वाद गाय के रोम जितने केश भी रखना केसे तं रर्याणं उवाइणावित्तए। --दसा. द. ८, सु. ७० नहीं कल्पता है। पज्जोसवणाओ पर कंस-रक्षण पायच्छित्त सुतं- पर्युषणा के बाद केश रखने का प्रायश्चित्त सूत्र२११. जे भिक्खू पाजोसवाणाए गोलोममायं पि बालाई उवा- २११, जो भिक्षु पर्युषणा के बाद गाय के रोम जितने भी बाल इणावेह उवाइणावेत बा साइज्जा । रन्त्रता है, रखवाता है या रखने वाले का अनुमोदन करता है। तं सेवमाणे आवस्जद चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं अणु ग्याइयं। उसे चातुर्मासिक अनुदातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) --नि.उ, १०, सु. ४४ आता है। पज्जोसवाए अहिगरण खमात्रण विहाणं पर्युषणा में कलह की क्षमायाचना करने का विधान२१२. वासावासं पज्जोसधियार्ण नो कप्पा निग्गंधाण या निर्गीण २१२. वर्षावास रहे हुए निर्ग्रन्थ-निर्गन्थियों को पर्युषणा (संवया परं पउजोसवणाओ अहिगरणं वइत्तए । त्सरी) के बाद पूर्व वर्ष में हुए कलह को पुनः कहना नहीं कल्पता है। जो गं निग्गंधी या, निगंथो वा परं पज्जोसवणाओ जो निम्रन्य या निर्मन्यी पर्यषणा (संवत्सरी) के बाद पूर्व अहिगरणं बयइ-से णं "मकप्पे गं अज्जो बयसी ति" वर्ष में हुए अधिकरण को कहता है तो उसे कहा जाये कि "हे बत्तवे सिया। आर्य ! पूर्व वर्ष में हुए अधिकरण को कहना तुम्हें नहीं कल्पता है।" जो पं निग्गंधी वा, निगंथी था परं पज्जोसवणाए अहि इतना कहने पर भी जो निम्रन्थ-निर्ग्रन्थी पूर्व वर्ष में हुए गरण वयइ-से णं निहियरवे सिया। ___अधिकरण को कहता है उसे संघ से निकाल देना चाहिए। ---दसा.द. ८. सु.७१
SR No.090120
Book TitleCharananuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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