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________________ सत्र २१२-२१५ मुश्माष्टक की प्रतिलेखना का विधान संयमी जीवन [७७ wwwwwwwwwwwwwwwwwwwww.rrmwarmummraamwomearnwrrrrwwwrrammarw..rrrrrrrrr वासावासं पज्जोसवियाण इह खलु निग्गंयाण या, निमगंथीण वर्षा-दास रहे हुए निर्गन्थ-निर्गन्धियों में जिस दिन कर्कश वा अज्जेव कपडे-कडए बुम्गहे समुप्पतिजा कटु वचनों से क्लेश हुआ हो, खमियम् खमावियवं, तो उन्हें उसी दिन मायाचना करनी चाहिए और क्षमा याचना करने वाले को क्षमा कर देना चाहिये । भरल एवं शुद्ध मन से बारम्बार कुशल क्षेम पूछना चाहिये । उपसमियध्वं उसमावियावं, ___ स्वयं को उपशान्त होना चाहिए और प्रतिपक्षी को भी सुमह संपुच्छणा बहलेणं होयध्वं । उपशान्त करना चाहिये ।। जो उनसमह तस्स अस्थि आराहणा, जो उपशान्त होता है उसकी ही धर्माराधना होती है। जो नो जवसमइ तस्स नस्य आराहणा। जो उपशान्त नहीं होता है उसकी धर्माराधना नहीं होती है। तम्हा अप्पणा चेव उचसमियहवं । पसलिए स्वयं को तो उपशान्त बना ही लेना चाहिये । प०-से किमाह भंते ! प्र०-हे भगवन् ! ऐसा कहने का क्या कारण है? उ.-"उवसमसारं र सामणं ।"-दसा. द. ८, सु. ७२ उ-उपशान्त होना ही संयम का सार है। अट्ठसुहम पडिलेहण विहाणं सूक्ष्माष्टक को प्रतिलेखना का विधान२१३. वासापास पन्जोसवियाण इह खलु निग्गंधाण या, निग्गयीण २१३. वर्षावास रहे हुए निर्मन्थ-निग्रन्थियों को ये आठ सुक्ष्म वा, इमाई अट्ट सुहमाई अभिपखणं अभिस्खणं जाणियथ्याई बार-बार जानने योग्य, देखने योग्य और प्रतिलेपन करने योग्य पासियवाई पडिलेहियव्वाई भवात, त जहा -- है, यथा(१) पाणमुद्रम, (२) पणगसुहम, (३) बोअसुहम, (१) प्राणी सुक्ष्म, (२) पनवा सूक्ष्म, (३) बीज सूक्ष्म, (४) हरियसुहम (५) पुष्फमुहम, (६) अंडसुहम, (४) हरित सूक्ष्म, (५) पुष्प सूक्ष्म, (६) अण्ट सूक्ष्म, (७) लेणसुहम, (८) सिणेहसुहमं । (७) लयन सूक्ष्म, और (८) रनेह सुक्ष्म । -दसा. द. ८, सु. ५० अकाले पज्जोसवणा करणस्स काले पज्जोसवणा अकाल में पर्युषण करने का तथा काल में पर्युषण करने अकरणस्स पायच्छिस सुताई के प्रायश्चित्त सूत्र२१४. जे भिक्खू अपज्जोसवणाए पज्जोसवेद पज्जोस-तं वा २१४. जो भिक्ष पर पण के दिन में अन्य दिन में पयुषण करता साइज्जा । हैं, करवाता है, या करने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्ख परजोसवणाए ग पज्जोसवेह ण पन्नोसर्वतं वा जो भिक्षा पय पण (संवत्सरी) के दिन पथुपण नहीं करता साइजद। है, नहीं करवाता है, या नहीं करने वाले का अनुमोदन करता है। जे मिक्लू अगाषियं या गारस्थियं वा पज्जोसबेह, जो भिक्ष अभ्यतीरिक या गृहस्थ के साथ पर्युषणा कल्प परजोसवेत या साइज वाचन करता है, करवाता है या करने वाले का अनुमोदन करता है। सं सेवमाणे आवमइ चाजम्मातियं परिहारदाणं अणुग्धाइयं। उसे पातुर्माशिक अनुनातिक परिहा रस्थान (प्रायश्चित्त) -नि. उ. १०, सु. ४२, ४३, ४६ आता है। सबिच्छरिय पविरकप्पस्स आराहणा फल सांवत्सरिक स्थविर कल्प को आराधना का फल२१५. इसचेइयं संवन्छरियं मेरकल्प अहासुतं अहाकप्पं महामग्गं २१५. इस गांवत्मरिक स्थविरकल्स का सूत्र, कल्प और मार्ग के सम्म कारण कासित्ता पालित्ता सोधित्ता सीरिसा किट्टिता अनुसार सम्यकतया काया से स्पर्श कर, पालन कर, अतिचारों आराहित्ता आणाए-अणुपालित्ता का शोधन कर, जीवन-पर्यन्त आचरण कर, अन्य को करने का उपदेश देकर भगवान की आज्ञा के अनुसार आराधना कर और अनुपालन कर१ सूक्ष्माष्टक का स्वरूप तथा प्रकार प्रथम महावत में लिये हैं परन्तु जानने, देखने और प्रतिलेखा रूप विशिष्ट समाबारी युक्त होने से यह एक सूत्र यहाँ लिया है।
SR No.090120
Book TitleCharananuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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