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________________ ५७४] घरकानुया-! पर्या परीषह वत्र ७४७-७५० एवं लु तासु विष्णप्पं, संबवं संवासं च चएज्जा। इन उपरोक्त दोषों को जानकर स्त्रियों के साथ परिचय सम्मातिया इमे कामा, बजकरा य एषमक्खाता॥ और सहवास का परित्याग करे, क्योंकि ये काम-भोग सेवन करने से बढ़ते हैं और तीर्थंकरों ने उन्हें क्रम चन्धन का कारण बतलाया है। एवं भयं ग सेयाए, इति से अप्पगं निम्मित्ता । ये कामभोग भय उत्पन्न करने वाले हैं किन्तु कल्याणकारी णो इस्थि णो पसु भिक्खू, गो सयं पाणिशा णिलिज्जेम्जा। नहीं हैं। इसलिये भिक्षु अपने आप को स्त्री संसर्ग से रोक कर स्त्री और पशु का अपने हाथ से स्पर्श भी न करे । सुषिसुबबलेस्से मेधाबी, परफिरियं बज्जए गाणी । विशुद्ध अन्त:करण बाला मेधावी ज्ञानी भिक्षु मम, वरन मगमा वयसा कायेणं, सध्यफाससहे अणगारे ।। और काया से स्त्री सम्पर्क सम्बन्धी क्रियाएँ न करे वास्तव में जो स्त्री सम्बन्धी परीषहों को सहन करता है वही अनगार है। बच्चेवमाह से वोरे, भगवान महावीर ने ऐसा कहा है-जो राम और मोह को धूतरए धूयमोहे से भिक्खू । धुन डालता है, यह भिक्षु होता है। इसलिए शुद्ध अन्त:करण तम्हा असत्यविसुद्ध, वाला भिक्षु काम बांछा से मुक्त होकर मोक्ष पर्यन्त संयमानुष्ठान सुविमुक्के आमोक्खाए परिवएज्जासि ।। में प्रवृत्ति करे। -सूय. सु. १, अ. ४, उ. २, गा. १९-२२ ६. चरिया परीसहे (C) चर्या-परीषह-- ७४८. एग एव घरे माडे, अभिभूय परीसहे। ७४८. संयम के लिए जीवन-निर्वाह करने वाला मुनि परीषहों गामे वा नगरे वावि, निगमे वा रायहागिए ।। को जीतकर गाँव में या नगर में, निगम में या राजधानी में अकेला आसक्ति रहित होकर विचरण करे।। असमाणो घरे भिक्खू, नेव कुज्जा परिगहं। भिक्षु अप्रतिबद्ध होकर बिहार करे । कहीं भी ममत्वभाव न असंसत्तो मिहत्येहि, अगिएओ परित्वए॥ करे । गृहस्थों से निलिप्त रहे। स्थायी निवास न करता हुआ -उत्त. ब. २, गा. २०-२१ संयम में विचरण करे। १०. णिसोहिया परीसहे (१०) निषीधिका परीषह७४६. सुसाणे सुन्नगारे वा, एक्स-भूले व एगओ। ७४६. राग-तुप रहित मुनि चपलताओं का बर्जन करता हमा अकुक्कुओ निसीएग्जा, न य वित्तासए परं ।। कभी श्मशान, शून्यगृह अथवा वृक्ष के नीचे बैठे, दूसरों को त्रास तत्थ से चिट्ठमाणस, जवसम्मम्मि धारए । वहाँ बैठे हुए साधु को कोई उपसर्ग मा जाये तो उसे सहन संकाभीजो न गच्छेज्जा, उठेत्ता अन्नमासणं ।। करे, किन्तु किसी प्रकार को शंका से भयभीत होकर वहाँ से उठ -उत्त, अ. २, गा. २२-२३ कर दूसरे स्थान पर न जाए। ११. सेज्जा परीसहे (११) शय्या परीषह७५०. उच्यावयाहिं सेम्जाहि, तवस्सी भिक्खु थामवं । ७५०. तपस्वी और धर्यवान् भिक्षु अनुकूल या प्रतिकूल शय्या को नारवेल बिहल्लेग्जा, राबविट्ठी विहपई॥ पाकर मर्यादा का अतिक्रमण न कर अथति हर्ष या शोक न लाए । 'यह अच्छा है यह बुरा है' इस प्रकार की पाप दृष्टि रखने वाला साधु संयम की मर्यादा का हनन कर देता है। पारिककुवस्सयं ला, कल्लाणं अबुध पावगं । __स्त्री पशु आदि से रहित अच्छी या बुरी शव्या के प्राप्त किमेगरामं करिस्सइ, एवं तत्थ हियासए॥ होने पर "एक रात में क्या होना जाना है" ऐसा सोचकर शय्या -उत्त. अ. २, गा. २४-२५ सम्बन्धी जो भी सुख दुःख हो, उसे सहन करे।
SR No.090120
Book TitleCharananuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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