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सूत्र ७५१
आक्रोश परीषह
वीर्याचार
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१२. अक्कोस परीसहे
(१२) आक्रोश परीषह७५१. अकोसेज परो भिषखू, न तेसि पडिसंजले । ७५.१. कोई मनुष्य भिक्षु को गाली आदि भाक्रोश बचन कहे तो सरिसो होइ बालाणं, तम्हा भिक्खू न संजले ।। भिक्षु उसके प्रति क्रोध न करे, क्योंकि क्रोध करने से भिक्षु
अज्ञानियों के सदृश हो जाता है, इसलिए भिक्षु क्रोध न करे । सोपचाणं कसा मासा, दारुणा गाम-कण्टगा ।
मुनि कंटक के समान चुभने वाली, दारुण कठोर भाषा को तुसिणीओ उज्जा , न ताओ मणसोकरे। सुनकर मौन रहता हुआ उसकी उपेक्षा करे, उसे मन में न लाए।
-उत्त. अ २, गा. २६-२७ अण्पेगे पडिभासरित, पारिपंथियमागता ।
साधु-चर्या से द्वेष रखने वाले कुछ लोग सामने आकर कहते पडियारगया एते, जे एते एवजीविगो ॥ हैं कि-"इस प्रकार का जीवन जीने वाले ये अपने किये हुए
कर्मों का फल भोग रहे हैं।" अप्पेगे बई नति, नगिणा पिंडोलगाहमा ।
कुछ लोग कहते हैं-"ये नग्न है, पिंड गौंग कर खाने वाले मुंडा कंदविणटुगा, उज्जल्ला असमाहिया ।। हैं, अधम हैं, मुंडित हैं, खुजली के कारण विकृत शरीर वाले हैं,
मैले हैं और असमाधि उत्पन्न करने वाले हैं।" एवं विप्परिवाणेये, अप्पणा तु अजाणगा।
इस प्रकार धर्ग मार्ग मे रखने वाले स्पा ही अज्ञानी तमाओ ते तमं अंति, मंदा मोहेण पाउडा । हैं। बे विवेकशून्य मनुष्य मिथ्यात्व से आवृत होकर स्वयं ही -सूय. सु. १, म. ३, उ. १, मा. ६-११ अन्धकार से अन्धकार की ओर अर्थात् दुर्गति में जाते हैं यह
विचार कर भिक्ष. उन पर द्वेषन करे, समभाव रखे।' तमेगे परिमासंति, भिक्खुपं साहुजाविणं ।
साधु का आचार पालन करने वाले के विषय में कई लोग जे ते उ परिभासंति, अन्तए ते समाहिए। इस प्रकार के आक्षेपात्मक बचन कहते हैं किन्तु वे आक्षेप करने
वाले स्वयं ही समाधि से कोसों दूर है। संबह-समकपा ह, अन्नमन्मेमु मुशिष्ठत्ता।
वे कहते हैं कि "आप लोग एक दूसरे में भूच्छित होकर पिंडवायं गिलाणस्स, जं सारेह वसाह ५॥ परस्पर गृहस्थों के समान आचरण करते हैं क्योंकि आप रोगी
के लिए स्वयं आहार साकर उन्हें देते हैं।" एवं तुरमे सरागत्या, अत्रमन्नमणश्वसा ।
__ इस प्रकार आप लोग सरागी हैं. परस्पर एक दूसरे के वणनट्ट सम्पह - सम्मावा, संसारस्स अपारगा ।। वर्ती रहते हैं, अतः सत्पथ की उपलब्धि से रहित हैं तथा संसार
-सूय. सु. १, अ. ३, उ. ३. गा. ८-१० को पार नहीं कर सकते हैं। एते सद्दे अचायन्ता, गामेसु नगरेसु वा।
जन साधारण द्वारा कहे गये इन शब्दों को सहन न करते तत्थ मंवा विसीयन्ति, संगामंसि व मोरुपो॥ हुए कई मन्द साधक ग्राम नगर आदि में विचरते हुए वैसे ही -सूय सु. १, अ. ३, स. १, गा. ७ विषाद को प्राप्त होते हैं जैसे संग्राम में गया हुवा डरपोक
सैनिक। सक्का सहेजें आसाए कंटया,
धन आदि की आशा से मनुष्य लोहमय काटों को सहन कर अओमया उच्छया नरेणं । सकता है परन्तु जो किसी प्रकार की आशा रखे बिना कानों में अणासए जो उ सहेज्ज कंटए,
तोर के समान चुभते हुए वचन रूपी कांटों को सहन करता है, वईपए कण्णसरे स पुज्जो ।। वह पूज्य है। मुहसनुक्खा हवंति कंटया,
लोहमय कांटे अल्पकाल तक दुःखदायी होते हैं और वे भी अओमया से वि तो सुखरा । शरीर से सहजतया निकाले जा सकते हैं किन्तु दुर्वचनरूपी कांटे वायाकुरुत्ताणि दुष्कराणि,
सहजतया नहीं निकाले जा सकते, ये वैर की परम्परा को बढ़ाने बेराणुषीणि महस्मयाणि ।। वाले और महाभयानक होते हैं।