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परणानुयोग-२
वक्ष परीवह
पुत्र ७५१-७५१
समावर्यता वयणाभिधाया,
सन्मुख आते हुए वचन के प्रहार कानों तक पहुंचकर मन के कण्णेश्या दुम्मणिर्य वर्णति । परिणामों को दुषित कर देते हैं। जो शूरवीरों में अग्रणी जितेधम्मो ति किच्चा परमग्गरे,
न्द्रिय मुनि उन बचन प्रहारों को "सम्यक् सहन करना मेरा धर्म जिईदिए जो सहई स पुज्जो ॥ है" ऐसा मानकर उन्हें सहन करता है, वह पूज्य है।
-दस. अ.६.उ. ३, गा. ६-८ १३. बइपरोसहे
(१३) बध परीषह७५२. हो न संजले सिक्यू, मणं पिन पोसए।
७५२. मारे जाने पर भी मुनि क्रोध न करे। मन को भी दूषित तितिक्वं परमं नच्चा, भिक्खू धम्म विचितए ।
न करे । क्षमा को परम साधन जानकर मुनि धर्म का चिन्तन
करे। समणं संजय बन्तं, हणेज्जा कोइ कस्थई ।
संपत और दान्त श्रमण को कोई कहीं पीटे तो वह "आत्मा नस्थि जीवस्स नासु ति, एवं पेहेज्ज संजए ।।
काना नहीं होता" ऐसा चिन्तन करे। (परन्तु प्रतिशोध की -उत्त. अ. २, गा. २८.२६ भावना न लाये) अप्पेगे झंझुयं भिक्षु, सुणी दसति लसए।
भिक्षा के लिए पर्यटन क ते हुए किसी क्षुधित भिक्षु को तत्प मंदर विसीयन्ति, तेउपुट्ठा व पाणिणरे ॥
क्रूर कुत्ता काटने लगता है तो उस समय मन्द साधक वैसे ही सूय, सु. १, अ. ३, उ. १, गा. ८ विषाद को प्राप्त होता है जैसे कि अग्नि के स्पर्श से प्राणी । आयदण्डसमायारा, मिच्छासंठिय भावणा।
__ आत्मा को दण्डित करने के आचरण वाले, मिथ्यात्व से ग्रस्त हरिसप्पकोससमावण्णा, केइय लूसतिष्णारिया । भावना वाले तथा हर्ष शोक या राग द्वेष से मुक्त कुछ अनार्य
मनुष्य मुनियों को कष्ट देते हैं। अप्पेगे पलियंतसि, चारो चोरोत्ति सुव्वयं ।
___सीमान्त प्रदेश में रहने वाले कुछ अज्ञानी मनुष्य सुब्रती बंधति भिक्खुयं बाला, कसायवयणेहि य॥ भिक्षु को 'यह गुप्तचर है, यह चोर है' ऐसा समझकर बाँध देते
हैं और गट वचन कहकर हैरान करते हैं। तत्य वंडेण संशोते, मुट्टिणा अवु फलेण वा ।
वहाँ डंडे, मुक्के या थप्पड़ से पीटे जाने पर असमर्थ साधक गातीणं सरती बाले, इत्थी वा कुद्धगामिणी ।।
वैसे ही अपने ज्ञातिजनों को याद करता है जैसे क्रोधित होकर सूय. सु. १, अ. ३, उ.१, गा. १४.१६ घर से भाग जाने वाली स्त्री कष्ट आने पर अपने ज्ञातीजनों को
याद करती है। हम्मभागो न कुम्पेज्जा, बुच्चमागो न संजले ।
साधु किसी के द्वारा पीटे जाने पर क्रोध न करे, दुर्वचन सुमणो अहियासेज्जा, ण य कोलाहल करे । कहने पर मन में जले नहीं किन्तु प्रसन्नचित्त से उन्हें सहन करे
-सूर्य. सु. १, अ. ६, गा. ३१ और किसी प्रकार का कोलाहल न करे। १४. जायणा परीसहे -
(१४) याचना परीषह - ७५३. मुक्कर खलु भो निच्चं, अणमारस्स मिक्खुणो।
७५३. अहो ! अनगार भिक्षु की यह चर्या वास्तव में दुष्कर है सम्वं से जाइयं होह, नस्थि किचि अजाइयं ।।
कि-'उसे सब कुछ याचना से ही प्राप्त होता है, बिना याचना
के उसे कुछ भी ग्रहण करना नहीं होता है।' गोपरगपषिदुस्स, पाणी नो सुप्पसारए ।
"गोचराम में प्रविष्ट मुनि के लिए गृहस्थों के सामने हाथ सेस्रो अगार-वासुत्ति, इह मिक्खु न चिन्तए । पसारना आसान नहीं है । अतः गृहवास ही श्रेष्ठ है" मुनि ऐसा
-उत्त. अ. २, गा, ३०-३१ चिन्तन न करे। सया बत्तेसणा दुक्खं, जायणा दुप्पणोल्लिया।
___ "सदा दत्त भोजन की एषणा करना कष्टकर है, प्रत्येक वस्तु कम्मत्ता बुरुमगा घेव, इच्चाहंसु पुढो जणा ।।
की याचना करना भी दुष्कर है। साधारण अज्ञानी जन भी -सूप. सु. १, अ. ३, 3. १, गा, ६ भिक्षा के लिये धूमते हुए भिक्षु को यह कहते हैं कि --'ये अभागे
हैं और पूर्वकृत कर्मों के फल से दुःखी हो रहे हैं।'