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________________ वृष ७५४.७५६ अलास परीषह बीर्याचार [१७७ १५. अलाभपरीसहे (१५) अलाभ परीषह७५४. परेसु धासमेसेजा, भोयणे परिणिट्टिय। ७५४. गृहस्थों के घर भोजन तैयार हो जाने पर मुनि उसकी लखे पिण्डे अलजे वा, माणुतपेज संजए॥ एषणा करे। आहार थोड़ा मिलने पा न मिलने पर संयमी मुनि पश्चात्ताप न करे। अल्जेवाहं न लम्भामि, अवि लामो सुए सिया। ___ "आज मुझे भिक्षा नहीं मिली है परन्तु संभव है कल मिल जो एवं परिसंचिक्खे, अलामो छ न तज्जए । जायेगी" जो इस प्रकार से सोचता है उसे अलाभ का दुःख नहीं -उत्त. अ. २, गा. ३२-३३ होता है। १६. रोग परीसहे (१६) रोग-परीषह७५५. नच्चा उपत्यं दुक्खं वेषणाए दुट्टिए। ७५५. रोग को उत्पन्न हुआ जानकर तथा वेदना से पीड़ित होने नाहीयो ठाए सो समासः ।। पर दीन न बने । व्याधि से विचलित होती हुई प्रज्ञा को स्थिर बनाये रखे और प्राप्त दुःख को समभाव से सहन करे। सेगिपर्छ नाभिनन्देज्जा, संचिक्लऽत्तगयेसए । आत्म गवेषक मुनि चिकित्सा का अनुमोदन न करे। रोग एवं बु तस्म सामण्णं, जं न कुज्जा न कारवे ।। हो जाने पर ममाधि पूर्वक रहे । उसका श्रामण्य यही है कि वह -उत्त. अ. २, गा. ३४-३५ रोग उत्पन्न होने पर भी चिकित्सा न करे, न कराए। १७. तणफास परोसहे (१७) तृण-स्पर्श परोषह७५६. अचलगस्स लहस्स, संजयस्स तवस्सिगो। ७५६. अचेलक और रूक्ष शरीर वाले संयत तपस्वी के घास पर सणेसु सयमाणस्स, होज्जा-गाय-विराहणा ।। सोने से शरीर में चुभन्न होती है। आयवस्स निवाएणं, अउला हव देयणा । गर्मी पड़ने से अतुल वेदना होती है-यह जानकर भी तृण एवं नया ने सेबन्ति, तन्तुळ तण-तज्जिया ।। से पीड़ित मुनि वस्त्र का सेवन नहीं करते । -उत. अ. २, गा. ३६-३७ १८. जल्ल परोसहे . (१८) जल-परोषह७५७. फिसिन्नगाए मेहावी. पंकेण व रएण वा। ९५७. मैल, कीचड़, रज या ग्रीष्म के परिताप से शरीर के चिसु वा परितावेणं, सायं नो परिवेवए । क्लिन (गोला) हो जाने पर मेधावी मुनि सुख के लिए विज्ञाप न करे। एन्ज निज्जरा-पेही, आरियं धम्माणुत्तरं । निर्जरार्थी मुनि अनुत्तर आर्य धर्म को पाकर देह-विनाश -जाव-सरीरमेको ति, जल्लं काएण चारए । पर्यन्त काया पर खेद जनित मैल को धारण करे और तज्जनित - उत्त. अ. २. गा. ३८-३६ परीषह को सहन करे। १९. सपकार पुरक्कार परोसहे (१९) सत्कार पुरस्कार परीषह७५८. अभिवायणमाभट्ठाणं, सामी कुरुजा निमन्तणं । ७५८. जो राजा आदि के द्वारा किए गए अभिवादन, सत्कार जे ताई पडिसेवन्ति, न तेसि पोहए मुणी।। अथवा निमन्त्रण का सेवन करते हैं, उनकी मुनि इच्छा भी न करे। अणुक्कसाई अप्पिच्छे, अन्नाएसी अलोसुए। अल्प कषाय वाला, अल्प इच्छा वाला, अज्ञात स्थल से रसेसु नागिनोज्जा, नागुतप्पेज्ज पनवं ।। भिक्षा लेने वाला अलोलुप भिक्षु रमों में गृद्ध न हो। प्रशावात् -उत. अ. २, गा. ४०.४१ मुनि दूसरों को सम्मानित दख मन में खेद न करे। २०. पणा परीसहे (२०) प्रना-परीषह७५६. से नणं पुचि कम्माऽणापफला फडा। ७५६. निश्चय ही मैंने पूर्वकाल में अज्ञानरूप फल देने वाले कर्म जेणाहं नाभिजागामि, पुट्ठो केण कन्हई ।। किये हैं। उन्हीं के कारण मैं किसी के कुछ पूछे जाने पर भी उत्सर देना नहीं जानता।
SR No.090120
Book TitleCharananuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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