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सूत्र ७४७
स्त्री परीवह
वीर्याचार
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सीहं जहा व कुणिमेणं, णिमयमेगचरं पासे ।
जैसे निर्भय और अकेले रहने वाले सिंह को माम का प्रलोएविस्थिया उ बंधति, संवर्ड एगतियमणगारं ॥ भन देकर पिंजड़े में बांध दिया जाता है वैसे ही स्त्रियाँ संवृत
और अकेले भिक्षु को शन्द आदि विषयों का प्रलोभन देकर
बांध लेती हैं। अह तत्थ पुणो नमयंति, रहकारुष्य गेमि आणुपुथ्वीए।। वे स्त्रियां उस भिक्षु को वैसे ही झुका देती है जैसे दढ़ई बडे मिए पासेग, फंदते विण मुवती ताहे ॥ क्रमशः चक्के की पुट्टी को झुका देता है। उस समय वह पाश -सूय. सु. १, अ. ४, 3. १, गा. १-६ से बँधे हुए मृग की भाँति स्पंदित होता हुआ भी बन्धन से छूट
नहीं पाता । सुतमेपमेयमेगेसि, इत्थीवेदे सि टु सुभक्खायं । लोकधुति में सुना गया है और स्त्री वेद (कामगास्त्र) में एवं पिता वदितागं, अनुवा कम्मुणा अवति ।। भी कहा गया है कि "स्त्री किसी बात को वाणी से स्वीकार
करती है किन्तु कम से उसका पालन नहीं करती है यह उसका
स्वभाव है।" अन्न मणेण चितेति, अन्नं धाया कम्मुणा अन्न । वह मन से कुछ और ही सोचती है; वनन से कुछ और ही तम्हा ण सह भिक्खु, बहुमायाओ इथिओ गच्चा ।। कहती है तथा कर्म से कुछ और ही करती है। इसलिए भिक्षु
स्त्रियों को बहुमायाविनी जानकर उन पर विश्वास न करे।। जुवती समणं व्या, निसलंकारवस्थगाणि परिहेत्ता। कोई मुवती विचित्र वस्त्र और बाभूषण से विभूषित होकर विरता चरिस्सहं सूहं धम्ममाइक्खणे भयंतारो । श्रमण से कहे कि-'"हे भदन्त ! मुझे धर्म का उपदेश दें। मैं
विरत होकर संयम का पालन करूंगी।" अनु साथिया पवायेण, अहगं साधम्मिणी य समणाणं । अथवा श्राविका होने के बहाने बह कहती है- "मैं तुम्हारी जतुकुम्मे जहा आवाजोती, संवासे विलू विसीएमा । साधर्मिणी हूँ, (किन्तु मुनि इन बातों में न फंसे) जैसे आग के
पास रखा हुआ लाख का पड़ा पिघल जाता है वैसे ही स्त्री के
संवास से विद्वान् पुरुष भी संयम से शिथिल हो जाते हैं । जतुकुम्मे जोतिमूषगू, आसुमितत्ते णासमुपपाति । जैसे अग्नि से छूता हुआ लाख का घड़ा शीघ्र ही तप्त एबित्थियाहि अगगारा, संवासेण णासमुवप्ति ॥ होकर नष्ट हो जाता है, इसी प्रकार अनगार पुरुष भी स्त्रियों
के संसर्ग से संघम प्रष्ट हो जाते हैं। कुषंति पावगं कम्ग, पुट्टा वेगे एकमासु । कुछ भिक्षु बब्रह्मचर्य-सेवन करके भी किसी के पूछने पर नाहं करेमि पावं ति, बंकेसाइणी ममेस ति॥ कहते हैं कि-"मैंने अब्रह्मचर्य-सेवन नहीं किया है। यह स्त्री
तो वचपन से ही मेरी गोद में सोती रही है।" बालस्स मंदर्य वितिय, जं च कई अवजाणई भुज्जो । उस मूर्ख साधक की यह दूसरी मूढ़ता है कि वह किए हुए लुगुणं करेड से पार्य, पूयणकामए विसरणेसी ।। पाप को पुनः छिपाता है। वह पूजा का इच्छुक और असंयम का
आकांक्षी होकर दुना पाप करता है। संलोकगिज्जमणगारं, आयगतं णिमंतणेणाऽऽहंसु । दिखने में सुन्दर और जात्म ज्ञानी अनगार को स्त्रियाँ वत्यं पताइ! पायं वा, अन्न पाणगं पडिग्गाहे ।। निमन्त्रण देती हुई कहती हैं-'हे भवसागराता ! आप वस्त्र,
पात्र, अन्न या पान को मेरे घर से स्वीकार करें।" पोवारमेय बोजा, जो इचछे अगारमायतुं । भिक्षु उपरोक्त प्रलोभनों को सूअर फंसाने वाले चावल के बडे ये विसयपासेहि, मोहमागच्छती पुणो मो॥ दाने के रामान समझे और उनके घर जाने की इच्छा भी न -सूय. सु. १, अ. ४, उ. १, गा. २३-३१ करे। किन्तु कोई मन्द साधक इन विषय-बन्धनों में फंसकर पुनः
मोह को प्राप्त हो जाते हैं।