________________
३७२]
वरणानुयोग-२
स्त्री-परीवह
सूत्र ७४६-७४७ :
असं पिटुओ किल्या, विरए मायरखिए।
हिंसा आदि से विरत रहने वाला, आत्मा की रक्षा करने धम्मारामे निरारम्भे, उवसन्ते मुगी चरे ।।
बाला, धर्म में रमण करने वाला, असत् प्रवृत्ति से दूर रहने
-उत्त. अ. २, गा. १६-१७ बाला जपशान्त मुनि अरति को दूर कर संयम में विचरण करे । इत्थो परीसहे
स्त्री-परीषह७४७. संगो एस मणस्साणं, जाओ लोगसि इथिओ। ७४७. लोक में जो स्त्रियाँ हैं, वे मनुष्यों के लिए आसक्ति का मस्स एपा परिमाया, सुफर तास सामग्णं ।। काय बिसने इस अंगनापूर्व: स्याम दिया है उसका
थामण्य सफल है। एवमादाय मेहाबी, पंकभूया उ इत्यिो ।
__ "स्त्रियाँ ब्रह्मचारी के लिए दल-दल के समान हैं" यह नो ताहि विणिहम्नेजा, घरेज्जत्तगयेसए । जानकर मेधावी मुनि उनमें न फंसे किन्तु आत्म गवेषणा करता
-इत्त.म. २, गा. १८-१९ हुआ विचरण करे। जहा नई वेयरको, दुत्तरा इह सम्मता ।
जैसे वैतरणी नदी को पार करना अत्यन्त दुष्कर माना गया एवं लोगसि मारीओ, दुत्तरा अमईमया । है वैसे ही मन्द बुद्धि वाले पुरुष के लिए इस लोक में स्त्रियाँ
दुस्तर होती हैं। अहिं नारीण संसोगा, पूषणा पिढतो कता ।
जिन्होंने विकृति पैदा करने वाले स्त्रियों के संयोगों से पीठ सम्वमेयं निराकिच्चा, ते ठिसा सुसमाहिए ।। फैर ली है। वे इन समग्र परीषहों को निरस्त करके समाधि में
-सूय. सु. १, अ. ३, २. ४, गा. १६-१७ स्थित रहते हैं। जे मातरं च पितरंच, विप्पजहाय पुष्वसंयोग ।
जो भिक्ष माता-पिता और पूर्व-संयोगों को छोड़कर, संकल्प एगे सहित चरिस्सामि, आरतमेहुणे विविसी।
करता है कि-"मैं अकेला आत्मस्थ और मैथुन से विरत होकर
एकान्त स्थान में विचरण करूंगा।" सुहमेण तं परकम्म, छन्नपवेण इथिओ मंदा । कई मन्द स्त्रियाँ निपुण और गूढार्थ वाले पदों का प्रयोग उवायं पिताओ जागिसु, बह लिस्संति भिक्खुणो एगे ।। करती हुई उस मुनि के पास आती हैं। वे उस उपाय को भी
जानती हैं जिससे कोई भिक्षु उनका संग कर लेता है। पासे मिस निसीयंति, अभिरखणं पोसवस्पं परिहिति । वे उस भिक्षु के समीप बारम्बार बरती हैं, अधोवस्त्र को काय आहे वि बसेंति, बालमुछट्ट काक्षमणश्वर ।। बार-बार ढीला कर उसे बांधती हैं, शरीर के अधोभाग को
दिखलाती हैं और भुजाओं को ऊपर उठाकर कांख को दिखाती
हुई साधु के सामने से जाती है। सपणाऽऽसणेहि जोग्गेहिहरथीमो एगया नियंति । वे स्त्रियां कालोचित पायन और शासन के लिए कभी उसे एताणि घेव से जाणे, पासाणि विरुवस्वाणि ॥ निमन्त्रित करती हैं । मुनि इन नाना प्रकार के उपक्रमों को काम
जाल में फंसाने वाले बन्धन समझे । नो तासु चालु संधेजा, नो वि य साहसं समभिजाणे । मुनि उन स्त्रियों से आँख न मिलाए, उनकी मैथुन भावना नो सधियं पि विहरेज्जा, एवमण्या सुरक्खिओ होई।। के साहस को स्वीकार न करे, उनके साथ विचरण भी न करे,
इस प्रकार से आत्मा सुरक्षित रहती है। यामंतियं योसवियं वा, भिवर्ख आयसा निमंतेति । स्त्रियां भिक्ष को आमन्त्रित कर तथा विश्वास पैदा कर एताणि चेव से जाणे, सहाणि विस्वरूपाणि ।। स्वयं सहवास का निमन्त्रण देती हैं। अत: भिक्षु नाना प्रकार के
निमन्त्रण रूप शब्दों को बन्धन समझे । मनबंधणेहिं गेहि, कलुषिणीयमुवसित्तागं । दे मन को बांधने वाले अनेक उपायों के द्वारा दीन भाव अधु मंजुलाई मातंति, आणवर्गति मिनकहाहि ॥ प्रदर्शित करती हुई विनयपूर्वक भिक्षु के समीप जाकर मीठी
बोली बोलती हैं और संयम से विमुख करने वाली कथाओं के द्वारा उसे वश में करती हैं।