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________________ पूत्र ७४४-७४६ अचेलस्व का प्रशस्त परिणाम वीर्याचार [३७१ आहवा सत्य परक्कमंत मुज्जो अचेलं तणफासा फुसति, सीस- इस पर्या में पराक्रम करते हुए कभी अचेल भिक्षु को अनेक फासा फुर्सति, तेउफासा फुसंति, वंस मसगफासा फुसंति, बार घास के तीखे स्पर्श चुभते हैं, शीत का स्पर्श होता है, गर्मी गरे अपने निकट पालसिसे: । का स्पर्श होता है, डांस और मच्छर काटते हैं फिर भी वह उन अनेक प्रकार के स्पों को सहन करता है। अचेले लावियं आगममाणे । तये से अभिसमग्णागते इस प्रकार वह अचेल भिक्षु कर्म लाधव की प्राप्त होता भवति । हुआ कायक्लेश आदि तप लाभ को प्राप्त करता है। जहेयं भगवया पवेदितं तमेव अभिसमैच्चा सम्वतो सव्ययाए अतः साधक जैसा भगवान ने प्रतिपादन किया है, उसे उसी सम्मत्तमेष समभिजाणिया। रूप में जानकर सब प्रकार से सर्वात्मना समस्ख को ही भली -मा. सु. १, अ, ८, उ.७, सु. २२५-२२६ भांति आचरण में लाये । एवं खु मुगी आदाणं सुयक्तातधम्मे विधूतकप्पे पिज्झो- मुनि तीर्थकर भगवान् द्वारा संयम में सदा स्थिर रहकर सइत्ता। कर्मक्षय करने में आत्म शक्ति लगा देता है। जे मले परिसिते तस्स गं भिमखुस्स गो एवं भवति- इसलिए जो अचेलक रहता है, उस साधु को वस्त्र सम्बन्धी इस प्रकार के संकल्प उत्पन्न ही नहीं होते कि-- "परिजुष्णे मे वरण, खत्थं जाइस्सामि, सुत्तं जाइरसामि, सुई "मेरा वस्त्र जीणं हो गया है, वस्त्र की याचना कसंग, जाइस्सामि, संधिस्सामि, सौबिस्सामि, उक्कसिस्सामि, डोरे की याचना करूंगा, सूई की याचना करूंगा, उससे वस्त्र वोक्कसिस्तामि, परिहि सामि, पाउणिस्सामि ।" को साधूंगा, सीऊँगा, छोटे वस्त्र को जोड़कर बड़ा बनाऊँगा, बड़े वस्त्र को फाड़कर छोटा बनाऊँगा फिर उसे पहनूंगा और शरीर को उकंगा।" अदुवा तत्थ परक्कमतं भुज्जो अचेल तणफासा फुसंति, सौत- किन्तु अचेनत्व-साधना में पराकम करते हुए निर्वस्त्र मुनि कासा फुसं ति. तेउफासा फुसंति, बंस-मसगफासा फुसंति एग को अनेक बार घास के तृणों का स्पर्श, सर्दी और गर्मी का स्पर्श तरे अण्णयरे विरुयरूबे फासे अहियासेति । तथा डांस और मच्छरों का स्पर्श पीड़ित करता है। अन्य भी अनेक प्रकार के कष्ट आते हैं। उन्हें यह सहन करता है । अचेले लाघवं आयममाणे सवे से अभिसमण्णागए भवति । इस प्रकार मह अचेलक भिक्षु कर्मलावव को प्राप्त होता हुआ कायक्लेषा आदि तप के लाभ को प्राप्त करता है। जहे भगवया पवेवितं । तमेव अभिसमेच्या सब्बतो सम्ब- अतः साधक जैसा भगवान् ने प्रतिपादन किया है, उसे उसी ताए सम्मत्तमेव समभिजाणिया। रूप में जानकर सब प्रकार से सर्वात्मना समत्व को भलीभांति -आ.सु. १, अ.६, उ. ३, सु.१५७ जानकर आचरण में लाये। अचेलस्स पसस्थ परिणामो अचेलत्व का प्रशस्त परिणाम५४५. पंचहि ठाहिं अलए पसस्थे भवति, तं जहा ७४५. पांच स्थानों से अचेलक प्रशस्त होता है, यथा - १ अप्पा पडिलेहा, (१) उसके प्रतिलेखना अल्प होती है, २. लाघथिए पसत्ये, (२) उसका लाघव प्रशस्त होता है, ३. रुये चेसासिए, (३) उसका रूप विश्वास-योग्य होता है, ४ तवे अषुण्णाते. (४) उसका तप जिनानुमत होता है, ५. विउले इंदियणिग्गहे। (५) जराके विपुल इन्द्रिय-निग्रह होता है। -ठाणं. अ.५ उ.३, सु. ४५५ अरइ परीसहे अरति-परीषह - ७४६. गामाणुगामं रीयंत. अणगारं अकिवणं । ७४६. एक गांव से दूसरे गांव में विहार करते हुए अकिचन अरई अप्पविसे सं तितिक्खे परीसह । मुनि के चित्त में संयम के प्रति अरुचि उत्पन्न हो जाय तो उस परीषह को सहन करे।
SR No.090120
Book TitleCharananuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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