SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 464
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३७० ] www ४. उसिणपरोस - चरणानुयोग २ ७४२. उसिण परियाणं परिदाहेण घिसु वा परियावेणं, सायं नो उन्हातले मेहावी, सिगाणं नो विपत्थए गायं तो परिसिवेज्जा, न वीएज्जा य अप्पयं ॥ पुट्टे गिम्हासितादेणं तत्थ मंदा विसोयंति ५. दंसमस्यपरोस हे ४२. पुो — | तज्जिए । परिवेषए । समसमरे व महागुणी नागो संगाम सीसे वा सूरो अभिहणे परं ॥ पुट्ठो य दंस-मसएहि, न मे दिट्ठ परे लीए - - उत्त. अ. २, गा. १०-११ विमणे सुष्पिवासिए । मच्छा अप्पोदए जहा || ए न संतसेन वारेन उवेहे न हणे पाणे, भुतं मंस-सनियं ॥ -उत्त. अ. २, गा. १२-१३ तणफासमवाइया जह परं मरणं सिया ॥ 1 सूय. सु १, अ. ३, उ. १. गा. १२ ६. अवेलपरी७४४. परिहि होक्खामि ति अचेतए । अनुवाद भिन्न थिए । एगया अचेल होइ, सचेले यावि एगया। एवं धम्म हियं नच्चा, नाणी नो परिदेवए । --सूय. सु. १, अ. ३, उ. १, गा. ५ मछली । + उष्ण परीवह -उत्त. अ. २, गा. १४-१५ जे मिक्लू असेले परिवसिते तस्स णं एवं भवति- "चा अहंता अहिवासित सीता अहियासिलए फार्स अहिया सित्तए दंस मसगफास अहिया सिलए एक्सरे अणतरे विश्व फासे अहियासिस हिरियमाणं संचामि महियासिसए" एवं से कम्पति कविवध धारिए सूत्र ७४२-७४४ (४) उष्ण परोषह ७४२. गरमी के परिवाग से तथा दाह से पीड़ित होकर बवा श्री कालीन सूर्य के परिताप में परितप्त होने पर भी मुनि मुख के लिए विलाप न करें । गर्मी से अभित होने पर भी मेघानी मुनि स्वान की इच्छा न करे । शरीर को गीला न करे। पंखे से शरीर पर हवा भी न करे । गर्मी में धूप से स्पृष्ट होकर तथा प्यास से व्याकुल वने साक से ही विवाद को प्राप्त होते हैं जैसे कि थोड़े पानी में (५) दंश मशक परीषह ७४३ डांस और मच्छरों का उपद्रव होने पर भी महामुनि सम भाव में रहे। जैसे युद्ध के प्रभाग में रहा हुआ प्रवीर हाथी बाणों को नहीं गिनता हुआ शत्रुओं का हनन करता है, उसी प्रकार मुनि परीषहों पर विजय प्राप्त करे । भिक्षु उन डांस और मच्छरों को न श्राम देवे और न हटाए तथा मन में भी उनके प्रति द्वेष न लाए। मांस और रक्त खाने पीने पर भी उनकी उपेक्षा करे, किन्तु हनन न करे । मुनि ढांस और मच्छरों के काटने पर तथा तृण स्पर्श को न सह सकने के कारण ऐसा सोचने लगता है कि - "परलोक तो मैंने देखा ही नहीं है परन्तु इस कष्टमय जीवन से मरण तो साथ ही दोनता है" (६) अचेल परीष ०४४, वस्त्रों के जीर्ण हो जाने पर में अचेत हो जाऊंगा वस्त्र मिलने पर में सचेल हो जाऊंग" मुनि ऐसा न सोचें । वस्त्र न मिलने पर मुनि कभी अचेलक भी होता है और वस्त्र मिलने पर कभी सचेतक भी होता है और अचल धर्म को हितकर जानकर ज्ञानी मुनि किसी प्रकार का खेद न करे । जो भिक्षु वस्त्र रहित रहता है उसे इस प्रकार का संकल्प हो कि डांस मैं घास के तीखे स्पर्श को सहन कर सकता हूँ, सर्दी का स्पर्श सहन कर सकता हूं, गर्मी का स्पर्श सहन कर सकता हूँ, और मच्छरों के काटने को साइन कर सकता हूँ और भी अनेक प्रकार के कष्टों को सहन करने में समर्थ हूँ किन्तु मैं सच्या निवारणार्थं वस्त्र को छोड़ने में समर्थ नहीं हूं।" ऐसी स्थिति में यह पट्टा धारण कर सकता है। बन्धन
SR No.090120
Book TitleCharananuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy