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________________ सत्र ७३७-७४१ परीषह प्ररूपणा वीर्वाधार [३६६ - .. - ---- २१. अनाण-परीसहे, २२. दसण-परीसहे। (२१) अज्ञान-परीषह, (२२) दर्शन-परीषह --सम. सम. २२, सु. १ परोसह परूवणा परीषह प्ररूपणा७३८. परीसहाणं पविभत्ती, कासवेणं पवेश्या । ७३८. परीषहों का जो विभाग काश्यप गोत्रीय भगवान के द्वारा तंभे उहरिस्सामि, आणब्धि सुणेह मे ।। प्रवेदित या प्ररूपित है उसे मैं क्रमशः कहता हूँ। तुम मुझसे उत्त. अ. २, गा, ३ सुनो। १. खहा परीसहे (१) क्षुधा-परोषह७३६. विगिछर परिगए बेहे, तबस्सी भिषानु थामवं । ७३६. देह में क्षुधा व्याप्त होने पर भी तपस्वी और धैर्यवान न छिन्वे न छिन्वायए, में पए न पयावए । भिक्षु फल आदि का सेवन न करे, न कराए तथा अन्न आदि न पकाए और न पकवाए। कालो पव्वंगर्सकासे, किसे धर्माण संतए। शरीर के अंग भूख से सूखकर काकजंघा के समान दुर्बल मायन्ने असण-पाणस्स, अवीण-मणसो चरे।। हो जाये, शरीर कुश होकर नसें दीख जायें तो भी आहार-पानी -उत्त. अ २, गा. ४-५ की मर्यादा को जानने वाला साधु अदीनभाव से विचरण करे । २ पिवासा परोसहे (२) पिपासा-परीषह७४०, तओ युट्ठो पिवासाए, दोगुंछी लग्ज-संजए । ७४०. असंयम से घृणा करने वाला सज्जावान संयमी साधु प्यास सीओवगं न से विमा, वियज्ञस्सेसणं घरे ॥ से पीड़ित होने पर भी सचित पानी का सेवन न करे, किना प्रासुक जल की एषणा करे। छिन्नावाएसु पंसु, आउरे सुपिवासिए। निर्जन मार्ग में जाते समय प्यास से अत्यन्त आकुल हो परिसुक्कमुहे दोणे, तं तितिषखे परीसह ॥ जाने पर मुंह सुख जाने पर भी साधु अदीनभाव से उस प्यास के --उत्त. अ. २, गा. ६-७ परीषह को सहन करे । ३. सीय परीसहे (३) शीत-परीषह७४१, चरन्तं विरयं लूह, सोयं फुसइ एगया। ७४१. विरत होकर रुक्ष वृत्ति से संयम में विचरते हुए कभी नाइवेल मुणी गच्छे, सोच्दा णं जिणसासणं ।। शीत का स्पर्श हो तो जिनागम को सुनने वाला मुनि संयम की किसी भी मर्यादा का उल्लंघन न करें। न मे निवारणं अस्थि, छवित्ताणं न विज्जई । शीत से प्रताड़ित होने पर मुनि ऐसा न सोचे कि-मेरे अहं तु अम्गि सेवामि, इइ भिक्खू न चिन्तए । पास शीत निवारक घर आदि नहीं है और शरीर की सुरक्षा के -उत्त. ब. २, गा. ८.६ लिए वस्त्रादि भी नहीं है, इसलिए मैं अग्नि का सेवन करूँ।। जया हेमंतमासम्मि, सीतं फुसति सवातगं । जब जाड़े के महीनों में बर्फीली हवा और सर्दी लगती है तत्य मंदा विसोयन्ति, रज्जहीणा व खसिया ॥ तब मन्द पराक्रमी साधक वैसे ही विषाद को प्राप्त होते हैं जैसे -सूय. सु. १, अ. ३.उ. १, मा.४ कि राज्य से च्युत राजा। १ (क) उत्त. म. २, सु. २ (ख) समवायांम और उत्तराध्ययन में १६ परीषहों के नामों का क्रम समान है केवल २०वें, २१ और २२वें परीषहों के नामों में व्युत्क्रम है। समवायांग उत्तराध्ययन (२०) अण्णाण परीसह (२०) पण्णापरीसह, (२१) दंसण परीसह, (२१) अण्णाण परीसह (२२) पण्णापरीसह, (२२) सण परीसह । विभिन्न प्रकाशनों में इन नामों का विभिन्न श्रम भी मिलता है।
SR No.090120
Book TitleCharananuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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