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________________ सदाचरण : एक बौद्धिक विमर्श | १३ (३) स्वयं ही बन जाओ आवश्यकता है। वस्तुतः साध्य के रूप में जिस पूर्णता को स्वीपाश्चात्य चिन्तन के ये तीन नैतिक आदेश जैन परम्परा के कार किया 14 महतमा के किसी एक पक्ष की पूर्णता नहीं सम्यक् ज्ञान, दर्शन और बारित्र के विविध साधनामार्ग के सम- वरन् लीनों पक्षों की पूर्णता है और इसके लिए साधना के तीनों कक्ष ही हैं । आत्मज्ञान में ज्ञान का तत्व, आत्म-स्वीकृति में पक्ष आवश्यक हैं। श्रद्धा का तत्व और आत्म-निर्माण में चारित्र का सत्व स्वीकृत सद्यपि धर्म-साधना के लिए सम्यग्ज्ञान, सम्पग्दर्शन और सम्यक चारित या शील, समाधि और प्रज्ञा अश्रया श्रद्धा, ज्ञान इस प्रकार हम देखते हैं कि विविध साधना-मार्ग के विधाम' और कम तीनों आवश्यक है, लेकिन साधना की दृष्टि से इनमें में जैन, बौद्ध और वैदिक परम्परायें ही नहीं, पाश्चात्य विचारक एक पूर्वापरला का क्रम भी है। भी एकमत हैं। तुलना:मक रूप में उन्हें निम्न प्रकार से प्रस्तुतः सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान का पूर्वापर सम्बन्ध किया जा सकता है-- ज्ञान और दर्शन की पूर्वापरता को लेकर ज्ञानमीमांसा की जन-वन और-दर्शन गीता उपनिषद पाश्चात्य दर्शन दृष्टि से जैन विचारणा में काफी विवाद रहा है। कुछ आचार्य सम्यग्ज्ञान प्रदा, चित्त, ज्ञान, मनन दर्शन को प्राथमिक मानते हैं तो कुछ ज्ञान को, कुछ ने दोनों का समाधि परिप्रश्न thyself योगपत्य (समानान्तरता) स्वीकार किया है। यद्यपि आचारसम्यग्दर्शन प्रज्ञा श्रद्धा, यवण Accept मीमांसा की दृष्टि से दर्शन की प्राथमिकता ही प्रबल रही है। प्रणिपात thyself उत्तराध्ययन सूत्र में कहा है कि दर्शन के बिना ज्ञान नहीं होता। सम्यक्चारित्र शील, वीर्य कर्म, सेत्रा निदिध्यासन Be इस प्रकार ज्ञान की अपेक्षा दर्शन को प्राथमिकता दी गयी है। thyself तत्वार्थ सूत्रकार उमास्वाति ने भी अपने ग्रन्थ में दर्शन को ज्ञान साधना-श्रय परस्पर सम्बन्ध और चारित्र के पहले स्थान दिया है। आचार्य कुन्दकुन्द दर्शनजन आचार्यों ने नैतिक साधना के लिए इन तीनों साधना- पाहुड़ में कहते हैं कि धर्म (साधनामार्ग) दर्जन-प्रधान है।" मार्गों को एक साथ स्वीकार किया है। उनके अनुसार मैतिक लेकिन दूसरी ओर कुछ सन्दर्भ ऐसे भी हैं जिनमें ज्ञान को साधना की पूर्णता त्रिविध साधनापथ के समग्र परिपालन में ही प्रथम माना गया है । उत्तराध्ययन सूत्र में, उसी अध्याय में मोक्ष सम्भव है । जैन विचारक तीनों के समवेत से ही मुक्ति मानते मार्ग की विवेचना में जो क्रम है उसमें ज्ञान का स्थान प्रथम हैं। उनके अनुसार न अकेला ज्ञान, न अकेला करें और न है। वस्तुतः साधनात्मक जीवन की दृष्टि से भी ज्ञान और अकेली भक्ति मुक्ति देने में समर्थ है जबकि कुछ भारतीय विचा- दर्शन में किसे प्राथमिक माना जाय, यह निर्णय करना सहज रकों ने इनमें से किसी एक को ही मोक्ष प्राप्ति का साधन मान नहीं है । इस विवाद के मूल में यह तथ्य है कि श्रद्धावादी लिया है । आचार्य शंकर केवल ज्ञान से और रामानुज केवल दृष्टिकोण सम्यग्दर्शन को प्रथम स्थान देता है, जबकि ज्ञानवादी भक्ति से मुक्ति की सम्भावना को स्वीकार करते हैं, लेकिन जैन- दृष्टिकोण श्रद्धा के सम्यक होने के लिए ज्ञान की प्राथमिकता दार्शनिक ऐसी किसी एकान्तवादिला में नहीं पड़ते हैं। उनके को स्वीकार करता है। वस्तुतः इस विवाद में कोई ऐकान्तिक अनुसार तो ज्ञान, कर्म और भक्ति की समवेत साधना में ही मोक्ष निर्णय लेना अनुचित ही होगा । यहाँ समन्वयवादी दृष्टिकोण ही सिद्धि सम्भव है। इनमें से किसी एक के अभाव में मोक्ष या संगत होगा। नवतत्वप्रकरण में ऐसा ही समन्वयवादी दृष्टिकोण समत्वरूपी साध्य की प्राप्ति सम्भव नहीं। उत्तराध्ययन सूत्र में अपनाया गया है जहां दोनों को एक दूसरे का पूर्वापर बताया कहा है कि दर्शन के बिना ज्ञान नहीं होता और जिसमें ज्ञान है । कहा है कि जो जीवादि नव पदार्थों को यथार्थ रूप से नहीं है उसका आचरण सम्यक् नहीं होता और सम्यक् आचरण जानता है उसे सम्यक्त्व होता है । इस प्रकार ज्ञान को दर्शन के के अभाव में आसक्ति से मुक्त नही हुआ जाता है और जो पूर्व बताया गया है, लेकिन अगली पंक्ति में ही ज्ञानाभाव में आसक्ति से मुक्त नहीं उसका निर्वाण या मोक्ष नहीं होता। केवल श्रद्धा से ही सम्यक्त्व की प्राप्ति मान ली गई है और कहा इस प्रकार शास्त्रकार यह स्पष्ट कर देता है कि निर्वाण या गया है कि जो वस्तुतत्व को स्वतः नहीं जानता हुआ भी उसके आत्मपूर्णता की प्राप्ति के लिए इन तीनों की समत रूप में प्रति भाव से श्रद्धा करता है उसे सम्यक्त्व हो जाता है। १ उत्तराध्ययन, २८/३०१ २ उत्तराध्ययन, २८/३० । ३ तस्वार्थ. ११ ४ वर्शनपाहुर । ५ उत्तराध्ययन, २५/२। ६ नवतस्त्वप्रकरण, उद्धृत आस्म-साधना संग्रह (मोतीलाल माग्योत) पृ. १५१ ।
SR No.090120
Book TitleCharananuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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