SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 385
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २६२] चरणानुयोग-२ संस्तारक लेने को चार प्रतिभाएँ सूत्र ६१३-६१४ "जे एते भयंतारो एताओ पडिमाओ पडिज्जित्ताणं विहरति, अपितु वह इस प्रकार कहे -"जो ये साधु भगवन्त इन जेय अहमसि एवं पत्रिमं परिवग्जिसाणं विहरामि, सम्वैवि प्रतिमाओं को स्वीकार करके विचरण करते हैं और जो मैं इस ते उ जिणाणाए उदिता अण्णोषणसमाहीए, एवं च ण प्रतिमा को स्वीकार करके विवरण करता हूँ, ये हम सभी अपनी बिहरति । -आ. सु. २, अ. १, उ. ११, सु. ४१० अपनी शक्ति समाधि के अनुसार जिनाज्ञा में उद्यत होकर इस प्रकार विचरण करते हैं। चत्तारि संथारेसण पडिमाओ.. संस्तारक लेने की चार प्रतिमाएँ - ६१४. इच्चेयाई आयतणाई उपातिकम्म बह भिक्खू जाणेज्जा- ६१४. पूर्वोक्त (शय्यषणा में वणित) दोषों को छोड़कर भिक्षु इन इमाहि घहिं पडिमाहि संथारगं एसित्तए'। चार प्रतिमाओं से संस्तारक की एषणा करे । १. तत्थ खलु इमा पढमा परिमा-से भिक्खू या भिक्खूणी १. इनमें से पहली प्रतिमा यह है-भिक्षु या भिक्षुणी या उदिसिय उदिसिय संथारगं जाएज्जा, तं जहा- नामोल्लेख कर-करके संस्तारक की याचना करे, जैसे१. इक्कडं वा, ३. कलिणं वा, १. इक्कड नामक तृण से निष्पन्न, २. बांस की चटाई, ३, जंतुयं वा, ४. परगं वा, ३. जन्तुक नामक तृण से निष्पन्न, ४ फूल गूंथने का तृण, ५. मोरगं वा, ६. तणं षा, ५. मोर की पांखों से निष्पन्न, ६. सामान्य तृण, ७. कुसं वा, ७. कुश (दोब) से निष्पन्न, ८. कुन्चग वा, 4. पूर्वक तृण से निष्पन्न (जिससे पुताई करने की कुंची बनती है)। १. पिप्पलगं बा, १०. पलालगं वा। १. पीपल के काष्ठ से निष्पन्न, १०. पराल शालि का तृण । से पृथ्बामेव आलोएज्जा-"आउसो ! तिवा, भगिणी! ति साधु पहले से ही इस प्रकार कहे-“हे आयुष्मन् गृहस्थ या या, दाहिसि मे एत्तो अण्णतर संथारग?" बहन ! क्या तुम मुझे इन संस्तारकों में से अमुक संस्तारक दोगे ?" तहप्पगार संथारगं समं या णं जाएज्जा, परो वा से वेज्जा, इस प्रकार संस्तारक की स्वयं पाचना करे अपचा गृहस्थ दे फासुर्य जाब-पडिगाहेज्जा । पहमा पजिमा। तो प्रासुक जानकर -यावत्-ग्रहण करले । यह प्रथम प्रतिमा है। २. अहावरा दोच्चा पडिमा-से भिक्खू या भिक्खूणी वा २. इसके बाद दूसरी प्रतिमा यह है-भिक्षु या भिक्षुणी पेहाए संचारगं जाएज्जा । तं जहा गृहस्थ के मकान में सामने रखे दिखते हुए संस्तारक को देखकर उसकी याचना करे । ययामाहावति वा-जाव-कम्मकरि वा । गृहपति-यावत्-नौकरानियाँ, से पुवामेव बालोएज्जा-"उसो ! ति वा भििण ! ति उनसे पहले ही इस प्रकार कहे कि-"हे आयुग्मन् गृहस्य ! था वाहिसि मे एत्तो अण्णतर संथारयं ।" या बहिन ! तुम मुझे इन संस्तारकों में से अमुक संस्तारक दोगे?" तहप्पगार संघारगं सयं वा पं जाएज्जा, परो वा से देना, इस प्रकार के संस्तारक की स्वयं याचना करे या' गृहस्थ दे फासुर्य -जाव-पडिगाहेज्जा । दोच्चा पडिमा। तो उसे नासुक जानकर-यावत्-ग्रहण करले । यह द्वितीय प्रतिमा है। ३. अहावरा तच्चा पडिमा-से मिक्खू वा भिक्खूणी वा ३. इसके बाद तीसरी प्रतिमा यह है--भिक्षु या भिक्षुणी जस्सुवस्सए संवसेज्जा बे तस्य महासमण्णागते, तं जहा- जिस उपाश्रय में निवास करे उसी उपाश्रय में जो संस्तारक विद्यमान हों। यथाइपकडे वा-जाव-पलाले वा, शक्कड-पावत्-पराल । तस्स लाभ संवसेज्जा, तस्स अलाभे उपकुडए वा सजिए इनके प्राप्त होने पर आशा लेकर शयन करे। म प्राप्त होने वा विहरेज्जा । तच्चा परिमा । पर उत्कट कासन या निषद्यासन आदि आसनों से बैठकर रात्रि व्यतीत करे । यह तीसरी प्रतिमा है। १. ठाणं.भ.४, उ, ३, सु. ३३१
SR No.090120
Book TitleCharananuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy