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________________ i सूत्र ७२० ७२२ तवाचरण उद्देसो ७२१. उ०- काउसो त पान्तिं विसो । विद्धपायन्ते य जीवे निब्बुयहिए ओहरियभारो "" भारवहे पाणी हे वरद । -- उत्त. अ. २६, सु. १४ सभाही न तं महा- १. नो इहलोट्टयाए तत्रमहिठेक्जा, २. गोप यो किसिम-स-सिनो तथमहिना, -- ४. नम्र निम्नरयाए तमहिना । चरमं पर्व भव भव्य य इत्थ सिलोगो - विगतदोरए नियं चव निरासए निज्जरट्ठिए । वसा घुण पुराणपावगं गुत्तरे सया तवसमा हिए || --दस. अ. ६, उ. ४, सु. ६-१० ०को से वह अतीत और वर्तमान के प्रायश्चित योग्य कार्यों का विशोधन करता है। ऐसा करने वाला व्यक्ति भार को नीचे रख देने वाले भार वाहक की भांति स्वस्थ हृदय वाला हो जाता है और प्रशस्त ध्यान में लीन होकर सुखपूर्वक विचरण करता है। 据 तप समाधि एवं फल- ६ " तब चरण फलं ७२२. अभिगम अजरो सम्माहिओ, सुविसुद्ध सुसमाहियपओ विजलहिय सुहावहं पुणो, कुय्बइ सो पथममध्यणो ॥ असं क्य तपाचरण का उद्देश्य जाइमरणाओ मुम्बई, प्रत्ययं च च सवसो । सिद्धं वा भव सासए, देवे वा अप्पर महि ॥ - दस, अ. ६, ४, सु. १३-१४, गा. ६-७ पच्छा वि ते पयाया, खियं गच्छति अमरभयणा । जेसि पिको तयो संजमो य, सन्ती य बम्भवेरं च ॥ - दत्त, अ. ४ मा २७ दोन्हं अन्नवरे सिया । वा. देवे वावि महिलिए । विमोहा, मन्त्री | समाकृष्णा जक्वेहि, आवासाई जससिणो || तपाचार [३५७ तपाचरण का उद्देश्य ७२१. तप समाधि के चार प्रकार हैं, जैसे (१) इहलौकिक सुख के निमित तप नहीं करना चाहिए। (२) पारलौकिक सुख के निमित्त पर नहीं करना चाहिए। (३) कीर्ति पथ प्रसिद्धि और प्रथा के लिए नहीं करना चाहिए। ( ४ ) निर्जरा के अतिरिक्त अन्य किसी भी उद्देश्य से तप नहीं करना चाहिए। यह पद है और यहाँ एक श्लोक है। सदा विविध गुण बाप में रख रहने वाला नि पौद्गलिक प्रतिफल की इच्छा से रहित होता है। वह केवल निर्जरा का इच्छुक होता है, तप के द्वारा पुराने कर्मों का विताय करता है और तप समाधि में सदा मुक्त हो जाता है। तप आचरण का फल २२. जो चारों साथियों को जरूर और सुसमाहित चित्त वाला होता है वह अपने लिए हितकर और सुखकर मोक्ष स्थान को प्राप्त करता है । वह जन्म मरण से मुक्त होता है, नरक आदि अवस्थाओं को पूर्णत: त्याग देता है । इस प्रकार वह या तो शावत सिद्ध हो जाता है अथवा अल्प कर्म वाला महविक देय होता है । जो पिछली अवस्था में प्रवजित हुए हों किन्तु उन्हें तप, संयम, क्षमा और ब्रह्मचर्यं प्रिय है तो वे शीघ्र ही स्वयं को प्राप्त होते हैं । जो संत मिलू होता है, यह दोनों में से एक संस्था की प्राप्त होता है, यथा - ( १ ) सब दुःखों से मुक्त ( २ ) महानु ऋद्धि वाला देव । देवताओं के आवास क्रमशः उत्तरोतर मोह रहित ह्यतिमान् और यशस्वी देवों से आकीर्ण होते हैं ।
SR No.090120
Book TitleCharananuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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