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________________ ३५८] घरणामुयोग-२ तपाति के चोरों को दुर्गति सूत्र ७१२-७२४ दोहाव्या इहिमत्ता, समिद्धा काम-रूविणो । वे देव दीर्घाय, ऋद्धिमान, दीप्तिमान, इच्छानुसार रूम महणोववन्नो - संकास, मुरुडो पनिशानियां कर्मवाल, अभी उत्पन्न हुए हों, ऐसी कान्ति वाले सूर्य के मभान अति-तेजस्वी होते हैं । ताणि ठाणागि गच्छन्ति, सिविखत्ता संजम तवं । जो भिक्षु या गृहस्थ उपशान्त होते हैं वे संयम और तप का भिवाए था गिहत्थे वा, जे सन्ति परिनिब्जा। आराधन कर इन उपरोक्त देव-आवास स्थानों में जाते हैं। -उत्त, अ. ५, गा. २५-२८ खवेत्ता पुवकम्माई, संजमेण तयण य। सर्व दुःखों से मुक्ति पाने के लिए महर्षि संयम और तप के सम्बदुक्खप्पाहीणा, पक्कमन्ति महेसिणो द्वारा पूर्व कर्मों को क्षय कर सिद्धि को प्राप्त होते हैं। -उत्त, अ, २८, मा. ३६ एवं तवं तु दुविहं, जे सम्म आयरे मुणी। इस प्रकार जो पण्डित मुनि दोनों प्रकार के तपों का सम्यक् सो लिप्पं सन्वसंसारा, विप्पमुच्चइ पण्डिए । रूप से आनरण करता है, वह शीघ्र ही समस्त संसार से मुक्त -उत्त्व. अ. ३०, गा. ३७ हो जाता है। तवाइ-तेणाणं दुग्गइ तपादि के चोरों की दुर्गति७२३ तवतेणे क्यतेणे, स्वतेणे य जे नरे। ७२३. जो मनुष्य जप का चोर, वाणी का चोर, रूप का चोर, आयारभावतेणे य, कुष्पई वकिम्बिस ॥ आचार का चोर और भाव का चोर होता है, वह किल्बिषिक देव योग्य कर्म बन्ध करता है। लसूण वि देवतं, उववन्नो देवकिम्बिसे । किल्विषिक देव के रूप में उत्पन्न जीव देवत्व को पाकर भी तत्था वि से न याणाइ, कि मे किच्चा इमं फल ।। वहाँ यह नहीं जानता कि यह मेरे किस कार्य का फल है। तत्तो वि से चइताणं, लम्भिही एलमूयगं । ___वहाँ से च्युत होकर वह ऐसे मूक बकरे आदि योनि को नरय तिरिक्खजोणि बा, बोली जत्य सुदुल्लहा ।। प्राप्त करता है अथवा नरक या तियंचयोनि को प्राप्त करता है जहाँ जिन धर्म की प्राप्ति अत्यन्त दुर्लभ होती है। एवं च दोस दर्ष, नायपुत्तेण शसियं । ज्ञातपुत्र भगवान महावीर ने कहा कि इन पूर्वोक्त दोषों को अणुमायं वि मेहावी, मायामोसं विवज्जए॥ जानकर मेधावी मुनि संयम पालन में अणु-मात्र भी माया-मृषा -दस. अ. ५, उ. २, मा. ४६-४६ न करे। तवस्मियाण रइयाणं कम्मणिज्जरणयाए तुलणा- तपस्वियों और नैरयिकों के कर्म निर्जरा की तुलना७२४. १०-जापइयं गं मंते ! अगिलायए समणे निगथे कम्म ७२४. प्र०-भन्ते ! पर्युषित (शीतल अमनोज) आहार करने निजरेड, एवइयं कम्म नरएसु नेरइया बासेण वा, बाला थमण निर्ग्रन्थ जितने कर्मों का क्षय करता है क्या उतने पासेहि वा, वाससएहि खवयंति ? ही कर्मों का नरमिक जीव नरक में एक वर्ष, अनेक वर्ष या सौ वर्ष में क्षय करता है? ज.-नो तिगढे सम81 उ०- हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । प०-जावइयं गं मंते ! चउरथभत्तिए समणे निम्नथे कम्म प्र.-भन्ते ! चतुर्थ भक्त (एक उपवास) करने वाला श्रमण निजरेइ, एवइयं कम्मं नरएसु नेरहया वास-साणं निर्ग्रन्य जितने कगों वा क्षय करता है क्या उतने ही कर्मों का था, वास-सएहि वा, वास-सहस्सेण वा खवयंति ? नैरयिक जीव नरक में सौ बर्प, अनेक सौ वर्ष या हजार वर्ष में क्षय करता है? उ.-नो तिण? समट्ठ। उ.-हे गोतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। ५०-जावदयं गं भंते ! छटुभत्तिए समणे निगं कम्म प्र.-भन्ते ! छटु भक्त (दो उपवास) करने वाला श्रमण निज्जरेइ, एवइयं कम्म नरएसु नेरहया वासहस्सेण निग्रंथ जितने कर्मों का क्षय करता है क्या उतने ही कर्मों का वा, वास-सहस्सेहि वा, वास-मप-सहस्सेण बा, नरयिक जीव नरक में हजार वर्ष, अनेक हजार वर्ष या एक लाख खवयंति? वर्ष में क्षय करता है?
SR No.090120
Book TitleCharananuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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