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________________ १६६] चरणानुयोग - २ प्रमण होने के लिए निदान करना सूत्र ३३७-३३८ छवित्ता आलोहय परिपकते समाहिपत्ते कालमासे काल से छेदन करके आलोचना एवं प्रतिक्रमण द्वारा समाधि को प्राप्त किच्या अग्णयरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववत्तारो भवति। होता है । जीवन के अन्तिम क्षणों में देह छोडकर किसी देवलोक में देव होता है। एवं खलु समणाउसो! तस्स नियाणस्स इमेयारवे पाव- हे आयुष्मान् श्रमणो ! उस निदान शल्य का यह पापरूप फलविवागे-जं नो संधाएति सध्याओ सत्यत्ताए मुंडे भविप्ता परिणाम है कि वह गृहवास को छोड़कर एवं सर्वथा मुण्डित आगाराओ अणगारियं पध्वइत्तए। होकर अनगार प्रव्रज्या स्वीकार नहीं कर सकता है। -दसा. द.१०. सु. ४२-४६ (E) समणभरण णिवाण करणं () श्रमण होने के लिए निदान करना३३८. एवं खलु सभणाउसो! भए धम्मे पाणते-जाव-1 से य ३६८. हे आयुष्मान श्रमणो ! मैंने धर्म का निरूपण किया है परक्कममाणे दिव्वमाणुससएहि काम-भोहिं निववेयं यावत् -संयम की साधना में प्रयत्न करता हुआ निग्रन्थ गच्छेग्जा दिव्य मानुषिक काम भोगों से विरक्त हो जाए और वह यह सोचे कि"माणुस्सगा खल काम-भोगा अधुवा जाव-'विप्पजहणिक्जा। "मानुषिक काम-भोग अधब-यायत्-त्याज्य है । दिव्या वि खल कामभोगा अघुबा-जाब-पुणरागागजा, दिव्य' कामभोग भी अध व-- यावत । भव परम्परा बढ़ाने पच्छा-पुत्वं च णं अवस्स विष्पजाणिग्ज।। वाले हैं नया पहले या पीछे अवश्य त्याज्य हैं।" "जह इमस्स सुचरिय-तव-नियम बमच्छरवासस्स कल्लाणे "यदि सम्यक् प्रकार से आचरित मेरे इस तप नियम एवं फलवित्ति बिसेसे अस्थि अहमवि आगमेस्साए जाई इमाई बह्मन-पालन का कल्याणकारी विशिष्ट फल हो तो मैं भी भवंति अंतकुलाणि वा, पंतकुलाणि बा, तुच्छकुलाणि वा, भविष्य में जो ये अंतकुल, प्रान्तकुल, तुच्छकुल, दरिद्वकुल, कुपण दरिद्द-कुलाणि वा, किवण-कुलाणि वा, भिक्खाग-कुलागि कुल या भिक्षु कुल है इनमें से किसी एक कुल में पुरुष बनूं जिससे चा एएस णं अण्णतरसि कुलं सि-पुमताए पञ्चायामि एस मे मैं जित होने के लिए सुविधापूर्वक गृहस्थ छोड़ सकू तो यह माया परियाए सुणीहारे भविस्सति, से तं साह।" श्रेष्ठ होगा।" एव खमु समणा उसो ! णिग्गथा वा णिग्गंयो वा णियाणं हे आयुष्मान् श्रमणो ! इस प्रकार निग्रन्थ या निम्रन्थी किच्चा जाव- देवे भवा, महिडिटए-जाव- विचाई भोगाई (कोई भी) निदान करके यावत् - देव रूप में उत्पन्न होता है। Sजमाणे विहरइ-जाव-" से ताओ देवलोगामओ आउख- वह वहाँ महाऋद्धि वाला देव होता है-यावत्-दिव्य भोग एणं-जाव-' पुमत्ताए पच्चायाति-जाब- तस्स गं एगमवि भोगता हुआ विचरता है - यावत्-वह देव उस देवलोक से आणवेमागस जाव चत्तारि-पंच अकुत्ता चेव अम्मति आयु क्षय होने पर-यावत--पुरुष रूप में उत्पन्न होता है 'मण देवाणुपिया ! कि करेमो-जाव- कि ते बासगास -यावत्-उसके द्वारा किसी एक को बुलाने पर चार-पांच सय?" बिना बुलाये ही उठकर खड़े हो जाते हैं और पूछते हैं कि "हे देवानुप्रिय ! कहो हम क्या करें-पावत्-आपके मुख को कौन से पदार्थ अच्छे लगते हैं ?" । ५०.- तस्स गं सहप्पगारस पुरिसजायरस तहासवे समणे प्र.-इस प्रकार की ऋद्धि युक्त उम पुरुष को तप-संयम के वा माहणे वा उमओ काल केवलि-पणतं धम्ममा- मूर्तरूप श्रमण माहण उभय काल केवलि प्रशप्त धर्म कहते हैं ? इक्खेज्जा? उ०-हंता! जाइलेजा। उ.- हाँ कहते हैं। पर-से गं पडिसुजा ? प्र०-क्या यह सुनता है? उ.-हंसा ! पउिसुफेज्जा । उ०-हाँ सुनता है। - -- - १-६ पहले या सातवें णियाणे में देखें।
SR No.090120
Book TitleCharananuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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