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________________ सूत्र ३३८-३३६ निदान रहित की मुक्ति भाराधक-विराधक [१६७ प०-से गं सद्दहेज्जा, पत्तिएज्जा. रोएज्जा ? प्रस- क्या वह श्रा, प्रतीति एवं रुचि रखता है ? उ०- -हंता ! सद्दहेज्जा, पत्तिएज्जा, रोएज्जा । उल-हां वह श्रद्धा, प्रतीति, रुचि करता है। प०–से गं सीलध्धय-गुणच य-वेरमण-पध्यक्षाण-पोसहोष- प्रत-क्या वह शीलवत, गुणव्रत, विरमणव्रत, प्रल्गल्यान, वासाई पडियन्जेज्जा? पौषधोपवास स्वीकार करता है? । उ.-हता ! पडिवज्जेज्जा। उ० हो स्वीकार करता है। प०-से ण मुंडे भविता आगाराओ अणगारियं पवइराजा ? प्र.-क्या वह गृहबास को छोड़कर मुण्डित होता है एवं अणगार प्रव्रज्या स्वीकार करता है ? उ-हंता! पव्वल्मा । उ०-हां वह अणगार प्रवज्या स्वीकार करता है। पत--से गं तेणेव भवाहणेणं सिज्झेम्जा-आर-1 सध्व- प्र.- क्या वह उसी भव में सिद्ध हो सकता है--यावत्दुक्खाणं अंत करेज्जा ? सब दुःखों का अन्त कर सकता है? उ०-णो इण? समहूँ। उ.--यह सम्भव नहीं है। से गं भवइ-से जे अणगारा भगवंतो इरियाममिया-आन-2 वह अणगार भगवंत इंर्या-समिति का पालन करने वाला बंभयारी। -पावत्-अह्मचर्य का पालन करने वाला होता है। से ग एपारवेणं विहारेणं विहरमाणे बहूई वालाई सामण्ण इस प्रकार के आचरण से वह अनेक वर्षों तक मंयम पर्याय परियागं पाउणइ, बरई वासाई मामण्ण परियागं पाउणिता वा पालन करता है, अनेक वर्षों तक संयम पर्याय का पालन आवाहंसि अप्पम सि या अणुप्पा सि या भत्तं पश्चखाएक, करके रोग उत्पन्न होने या न होने पर भी मक्त प्रत्याख्यान करता मत्तं पस्त्रक्खाइत्ता, बहूई भसाई अणसणाई छेवेइ, बहुई है, भक्त-प्रत्याभ्यान करके अनेक भक्तों का अनशन से छेदन भत्ताई अणसणाई देता आलोइय परिपकते समाहिपत्ते करता है, अनेक भक्तों का अनशन से छेदन करके आलोचना एवं काल मासे कालं किच्चा अग्णयरेस देवलोएभु देवताए उव- प्रतिक्रमण द्वारा समाधि को प्राप्त होता है और जीवन के अंतिम यत्तारो भवति । क्षणों में देह छोड़ कर किसी देवलोक में देव रूप में उत्पन्न होता है। एवं खलु समणाउसो! तस्स णिवाणरस हमेपारवे पावए है आयुष्मानू श्रमणो ! उस निदान पाल्य का यह पापरूप फल-विवागे जं नो संचाएइ तेणेव भवागहणेणं सिनिमत्तए परिणाम है कि वह उस भव से मिव नहीं होता है-यावत्-जाव- सव्व दुक्याण अंत करेलए। सब दुःखों का अन्त नहीं कर पाता है। –दमा. द.१०, सु. ४७-YE णियाण रहियस्स विमुत्ति निदान रहित की मुक्ति३३६. एवं खलु समकाउसो 1 मए धम्मे पण्णत्ते-हणमेव निग्गधे ६३९. हे आयुष्मान् श्रमणो ! मैंने धर्म का प्रतिपादन किया है। पावपणे सच्चे-जा- सवदुक्खाणमंत करेंति। यह निर्ग्रन्थ प्रवचन सत्य है-यावत्-सब दुःखों का अन्त जस्स ग धम्मस सिक्खाए निगाथे उवट्टिए विहरमाणे से इस धर्म की आराधना के लिए उपस्थित होकर विचरता परक्कमेक्जा से व परक्कममाणे सम्वकाम-बिरते, सवराग- हुआ वह नियंग्य तप संयम में पराक्रम करता हुआ तप संयम विरसे, सव्यसंगातीते, सव्वहा सव्य- सिहातिरकसे सम्ब- को उग्र माधना करते समय काम-राग से सर्वथा विरक्त हो जाता परित परिवहे। है। संग, स्नेह से सर्वया रहित हो जाता है और सम्पूर्ण चारित्र की आराधना करता है। सस्स गं भगवंतस्स अणुत्तरेणं गाणं, अणुसरेणं सण उत्कृष्ट ज्ञान दर्शन और चारित्र-यावत् - मोक्ष मार्ग से -जाय- मणत्तरेणं परिनियाणमग्गेणं अप्पाणं मावेमागरम अपनी आत्मा को भावित करते हए उस अणगार भगवन्त को १-२ पहले या सातवें णियाणे में देखें। ४ प्रथम निदान में देखें। ३. दशा. द. १, सु. ६ ५ देसा. द. १०, सु. ३३, नवसुत्ताणि
SR No.090120
Book TitleCharananuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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