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चरणानुयोग-२
तप को फसाकांक्षा का निषेध
सूत्र ३३६-३४०
अणते. अणुत्तरे, निवाघाए, निरावरणे, कसिणं, पांरपुषणे, अनन्त, सर्व प्रधान, बाधा एवं आचरण रहित, सम्पूर्ण, प्रतिपूर्ण केवल-बर-नाण-दसणे समुपज्जेज्जा।
केवलज्ञान, केवल दर्शन उत्पन्न होता है। तए से भगवं अरह। भवति, जिणे, केवली, सम्यण्णू, उस समय वह अरहन्त भगवन्त, जिन, केबलि, सर्वज्ञ-सर्वसवमाव-दरिसी, सवमणुयासुरस्स लोगस्स पज्जाए जाणड दी हो जाता है, वह देव मनुष्य असुर आदि लोक के पर्यायों तं जहा
को जानता है यथाआगई, गई. ठिई, चवणं, उपवाय, मुत्त, पोय, फर, जीवों की आगति, गति, स्थिति, च्यवन, उत्पत्ति तथा उनके पडिसेवियं, आवीकम्म, रोकम्म, लविर्य, कहिय, मणो- द्वारा खाये-पीय गये पदार्थों एवं उनके द्वारा सेवित प्रगट एवं माणसि।
गुरत सभी क्रियाओं को तथा दार्तालाप, गुप्तवार्ता और मानसिक
चितन को प्रत्यक्ष रूप से जानते देखते हैं । सव्वलोए सव्यजीवाणं सब्वभाषाई जाणमाणे पासमाणे वह सम्पूर्ण लोव में स्थित सर्व जीवों के सर्व भावों को विहर।
जानते देखते हुए विचरण करता है। से पं एपासवेणं विहारेण विहरमाणे बहई वासाइ केवलि- बह इस प्रकार केबलि रूप में विचरण करता हुआ अनेक परियागं पाउणइ पाउणित्ता अपणो आउसेस आमोएड, वर्षों की केवलिपर्याय को प्राप्त होता है और अपनी आयु का आमोएत्ता भत्तं पञ्चक्खाएइ, परसक्खाइत्ता प्रहार भत्ताह अन्तिम भाग जानकर वह भक्त प्रत्याख्यान करता है, भक्तअणसणाई छेदेइ, तो पच्छा परमेहिं ऊसास-नीसाहि प्रत्याख्यान करके अनेक भक्तों को अनशन से छेदन करता है। सिज्झाइ-जाव- सव्वदुक्खाणमंत करे ।
उसके बाद वह अन्तिम श्वासोच्छ्वास के द्वारा सिद्ध होता है
.-यावत्--सब दुःखों का अन्त करता है। एवं खलु समकाउसो! तस्स अणिवाणस्स इमेयारवे हे आयुष्मान् श्रमणो ! उस निदान रहित साधनामय जीवन कल्लाणे करन-विवागे जं तेगेव मवरगहणे सिम्मति-जाद- का यह कल्याण कारक परिणाम है कि वह उसी भव से सिर सम्वदुक्खाणं अंत करे।
होता है यावत्--सब दुःखों का अन्त करता है। तेए 4 ते यहवे निग्गया व निग्गथीओ य समणस्स भगवओ उस समय उस अनेक नित्य-निर्ग्रन्थियों ने श्रमण भगवान महावीरस्स अंतिए एषमटु सोच्चा णिसम्म समणं भगवं महावीर से इन निदानों का वर्णन सुनकर श्रमण भगवान महावीर महावोरं बंधति नमसंति, वक्त्तिा नमंसित्ता तस्स ठाणस्स को वंदना, नमस्कार किया और उस पूर्वकृत निदान मल्यों की आलोयंति पडिक्कमति-जाब-अहारिहं पायच्छित्तं तवोकम्म आलोचना प्रतिक्रमण करके-यावत् -- यथायोग्य प्रायश्चित्त परिवरजति ।
-दया. द. १०, सु. ५२-५४ स्वरूप तप स्वीकार किया। तबस्स फलकखा णिसेहो--
तप को फलाकांक्षा का निषेध३४०. से भिक्खू अकिरिए, अलूसए, अकोहे, अमाणे, अमाए, ३४०. बह भिक्षु सावध क्रियाओं से रहित, अहिंसक क्रोध मान
अलोमे, उपसंते, परिनिन्, गो आसंसं पुरओ करेक्जा- माया और लोभ रहित, उपशान्त एवं समाधियुक्त होकर रहे "इमेण मे विटुप वा. सुएग या, भएग वा, किमगाएण और भविष्य के लिए आकांक्षा न करे कि "मेरे इस दर्शन, श्रुत, वा, हमेण वर सुचरिय-तनियम-बंभचेर-वासेणं, इमेण वा मनन, विज्ञान, उत्तम आचरण, तप नियम, ब्रह्मचर्य संयम यात्रा जण्यामायाबुसिएणं धम्मेग इसो चुते पेच्चा देवे सिया, और आहार की मात्रा के पालन रूप धर्म के फलस्वरूप यहाँ से कामभोगा बसवत्ती, सिवा अनुमखमसुहे, एस्य घिसिया, सरीर छोड़ने के पश्चात् मैं देव हो जाऊँ, समस्त काम-भोग मेरे एत्य वि जो सिया। -सूय. सु. २, अ. १. सु. ६५२ अधीन हो जाएं अथवा मैं सब सुख-दुःख से रहित सिद्ध हो
जाऊँ । क्योंकि (इस प्रकार आशंसा करने पर भी) फल की प्राप्ति कभी होती है और कभी नहीं होती है। अतः ऐसी आकाक्षाएँ नहीं करना चाहिए ।
१ प्रथम निदान में देखें।