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________________ २१३ साहू एमवाय पाणावायाओ परिविरया जावजीवाए, गयाओ अपरिया--एवाओं परिणाहाल पत्रि विरिया जावज्जीवाए, एगच्चा अपरिविरिया, एगदाओ कोहाल, मानाओ, माया, नोहाली, पेज्जाओ, दोशाओ फलहाओ अमषखाओ, पेसुण्णाओ, परपरि बाबाओ बहरो मायामोसानो मिठासलाओ, एगच्चाओ पडिविरया जावज्जीबाए, एगच्चाओ अडि विरया, " आराधक अत्यारम्भमणोपासक , एगचाओ आरंभसमारंभाओ पडिविरया जावजीवरए गाओ परिवा एगवाओ करणकारावणाओ पडिविरया जावज्जीवाए, एवच्चा पपपपवावगाओ पडि विरया जारजीबाए, एगण्याओ अपडिरिया, एगच्छाओ कोण-वि-राजा वह परिकि लामो पष्टिविरया जाए, एगन्बाओ अपतिविरथा, एगच्चाओ व्हाण महणवण्णक- विलेयण-सह-फरिस-रस-कमपंधरा परिविरया नावजीपाए, एगचाओ अष अप डिरिया, जे यावणे तपगारा सावज्नजोगोवहिया कम्ता परपाणपरियायणकरा कति तनो वि एगयाओ परिविरमा जामजोधा, एगण्या अपडिबिरया सं जहा - समगोवरसगा भवति, अभिगयनोवा जीवा उवलयपुण्गदाया आसव संवर-निज्जर-किरिया अहिर-बंध मोक्स -फुसला।" असहेज्जाओ देवासुर-नाग-जक्ल- रक्खस-किश्वर - किंपुरिसगल-गंधय्व-महोरगाइएहि देवगणेहि निग्गंथाओं पावयणाओ निर्माणे निस्संकिया, गिक्कंलिया, निव्वितिमिच्छा बट्टा, गहियट्ठा, पुच्छियट्टा, अभिगयट्ठा, विणिच्छियट्ठा, अभिपेमाणुरागरता, 'अथमाउसो ! निग्गंथे पावयणे, अट्ठ अयं परमठ्ठ े सेसे मण' असिफलिहा, अबंधकुबारा वियततेउरपरपर दाप्पसा चउदसमुद्दिट्टपुण्णमासिणीसु परिपुष्णं पोसहं सम् अनुपाता आराधक-विराधक [१३६ जो साधुओं के पास स्थूल हिंसा से यावज्जीवन विरत होते और सूक्ष्म हिंसा से अनिष्ट होते है यावज्जीवन अंशतः विरत और अंशत: अविरत होते हैं। aur क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, कलह, अभ्यानयान, वैशुन्य, परपरिवाद, रति बरति मायामृषा और मिथ्यादर्शनशल्प से सावज्जीवन अंतः विरत और अंतः भविरत होते हैं, आरम्भ समारम्भ से यावज्जीवन अंशतः विरत मंगतः अविरत करने कराने से वजीवन अंशतः भिरत अंशतः अविरत, पचन पाचन से यावज्जीवन अंशतः विरत, अंशत: अविरत, कूटने-पीटने - वर्जन- तान-बंध और परिवेश से या ज्जीवन अंशतः विरत, तः अविरत, स्नान, मर्दन, वर्णक-विसेचनमब्दस्पर्श-रस-रूप-गंधमाला एवं अलंकार से यावज्जीवन अंशतः विरत, अंशतः अरिश्त होते है। अन्य भी जो ऐसे पाप प्रवृतियुक्त तथा दूसरों के प्राणों को कष्ट पहुंचाने वाले जो कार्य किये जाते हैं उनसे भी पापजीवन अंशतः विरत अंशतः अविरत होते हैं । दे इस प्रकार के श्रमणोपासक होते हैं- जीव- अजीव के ज्ञाता, पुण्य पाप को भी भौति समझे हुए बाधव, संपर निर्जरा, क्रिया, अधिकरण, बंध और मोक्ष तत्वों में कुशल, किसी की सहायता की अपेक्षा न रखने वाले देव असुर नाग-यक्ष-राक्षस किन्नर-किम्पुरुष गरुड़-गंधर्व महोरग आदि देव गणों के द्वारा भी निर्ग्रन्थ-प्रवचन से विचलित न किये जा सकने वाले, १ धर्म शिक्षा में उपस्थित श्रावक श्राविका आज्ञा का आराधक होता है । निधन में निःशंक, निष्कांक्ष, निर्विचिकित्स, लब्धायें, गृहीतार्थं, पुष्टार्थ, अभिगतार्थं विनिश्चितार्थ होते हैं, निर्मन्थ प्रवचन के प्रति रग-रग में अनुराग से रंगे हुए होते हैं । हे आयुष्य | निर्धन्य वचन ही सार है, यही परमार्थ है और शेष अनर्थ है ऐसा भद्वान और कयन करने वाले धर्मला को त लगाने वाले, अतिथियों के लिए द्वार खुला रखने वाले, अन्तःपुर तथा परकीय भर में बेरोक टोक जाने-जाने वाले, चतु देशी, अष्टमी, अमावस्या और पूर्णिमा इन तिथियों में प्रतिपूर्ण पौष व्रत का सम्यक् प्रकार से पालन करने वाले, - वा. न. १, सु. ११
SR No.090120
Book TitleCharananuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Conduct, Agam, Canon, H000, H010, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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